Monday 29 July 2013

----- || उत्तर-काण्ड 9|| -----

कल कल करत तरनि तरियारे । तीरत बिहबल पारु उतारे ॥ 
हाथ धनुर्धर कटि कर भाथा । चले लखन घन बन सिय साथा ॥ 
कल-कल की ध्वनि करती हुई, व्याकुल नैया तैरती हुई तट के निकट आ गई और उसने माता सीता एवं भ्राता लक्ष्मण को नदी के पार उतार दिया ॥ हाथ में धनुष धारण किये एवं करधन में तूणीर कसे लक्ष्मण माता सीता को साथ लिय घने वैन की और चल दिये ॥ 

बिथुरि रे बिथुरि सुन्दर जोरी । बिथुर बचन पर जानि न भोरी ॥ 
बिथुरि बिथुरि जस जल की धारा । दरस नयन पर दूर करारा ॥ 
 जैसे जल की धारा  नयनों से दर्शित हों पर भी तट स वियोगित रहती है वैसे ही बिछड़ी रे बिछड़ी ये सुन्दर जोड़ी ।और यह सुन्दरी अबोध है जो वियोग के विषय से अनभिज्ञ है । 

रयनिहि प्रात, प्रात बिनु रयना  । भयो सिया बिनु प्रभु के अयना ॥
जल कल बीना नादत बयने । दीन नदी देखत भरि नयने ॥ 
जिस प्रकार रयनी प्रभात के और प्रभात बिन रायनी के हो जाएं ।सीता के बिना प्रभु का धाम उस भांति हो गया ॥ जा रूपी कल वीणा निनाद करती इस विरह-प्रसंग का वर्णन कर रही है । नदी की आँखे भी भर आई हैं और वह व्याकुल दृष्टि से माता को निहार रही है ॥ 

करन धार मुख सों सुर बृंदा । गावै बहुरत पादालिंदा ।। 
भई करूनई कर करुबारी । करू न करू न कहि करून पुकारी ॥ 
नैया को लौटाते हुवे कर्णधार के मुख से जब यह सुन्दर स्वरवृन्द गान करने लगे । तब हाथ की कर्णिका द्रवित  हो उठी और कहने लगी हे स्वामी ऐसी करुण पुकार न करें ॥ 

करिया करि करुन पुकार, करियन लोचन नीर । 
नदि उतारे नीर धार, भावभीन भए तीर ॥ 
 कर्णधार करूँ पुकार कर रहा है, और अश्रु कारण के नयनों में हैं । जल की धारा नदी उतार रही है,अश्रुपूरित तट हैं ॥ 

प्रभु अग्या के पालनहारी । जस दिए आयसु तस सिरु धारी ॥ 
कह अच्छर सह कुसल प्रमानै । आपनि तिन के भ्रात न जानै ॥ 
जो प्रभु की आज्ञा के पालनहारी हैं वे जैसा आदेश देते हैं उसे वैसे ही सिरोधार्य करते हुवे उनकी कही को अक्षरश: प्रमाणित करने हेतु स्वयं को उनका भ्राता न मानते हुवे : -- 

समुझत जन सेवक के नाई । चलत परिहरन सीस झुकाई ॥ 
तमस सघन तरु बिपिन भयंकर । बिचरत नर भाखी बन गोचर ॥ 
प्रजा के सेवक की भांति समझकर माता सीता का परित्याग कार्य पूर्ण करने हेतु चल पड़े ॥ घोर अन्धकार, घने घने वृक्ष और भयंकर अरण्य जहां नर भक्षी वैन गोचर विचरण करते हैं ॥ 

तरुबर तरि छाया अति गाढ़ी । लागत जस बन निसिचर ठाढ़ी ॥ 
दिसि अरु बिदिस पंथ नहि सूझे। दोउ चलेउ कहाँ नहि बूझे ॥
तरुवरों की छाया अत्यंत गाढ़ी है ऐसा प्रतीत होता है  वृक्षों के नीचे घोर निशाचर खड़े हों । दिखाएं और उन दिशाओं के कोण, पंथ कुछ नहीं दिखाई देता । माता-पुत्र दोनों खान जा रहे हैं ज्ञात नहीं हो रहा ॥ 

कबहूँ फेर फिर पाछिनु जाईं । कबहुँक फिरि पुनि आगिनु आईं ॥

देखे को तरु ओट लुकाही। फिर सिया मन कहे रे नाहीं ॥ 
कभी घूमफिर कर पीछे चले जाते हैं कभी फर फिर कर आगे हो जाते हैं । माता को आभास होता है कि तरु के ओट किए कोई छिपा है, फिर मन में कहती हैं नहीं यह तो मेरा भ्रम है ॥ 

 पंथ पंथ कंदर खोह, पग पग बाघ कराल । 
कहुँ ब्यालंबे भुअंग,कहुँ काल सम  ब्याल ॥ 
पंथ पंथ पर दर्रे और गुहा हैं । पग पग पर भयानक बाघ हैं । कहीं विषधर लटके हुवे हैं कहीं काल के सदृश्य हिंसक पशु हैं ॥ 

बुधवार, ०२ अप्रेल २०१४                                                                                         

दिरिस बिचित्र सिय हिया अकुलाए । पूछन चहैं कछु पूछ न पाए ॥ 
संसइत मन भयभीत नैना । चले अनुज सों तिन बिन बैना ॥ 
यह विचत्र दृश्य देखकर माता सीता का ह्रदय विचलित हो गया । वह भ्राता लक्ष्मण से इस सम्बन्ध में पूछना चाहती है किन्तु संकोच के कारण वश पूछ नहीं पा रहीं । चित्त संसययुक्त है आँखें भयभीत हैं और भ्राता लक्ष्मण  मौन मुद्रा में उनके साथ चल रहे हैं ॥ 

चितबत सुमिरत स्वामी चरन । बिरहबन्ति बोलै मन ही मन ॥ 
कहँ मुनिबर कहँ मुनिबर भामा । कहँ मुनि मंडप कहँ मुनि धामा ॥ 
वह विरहवंती स्तब्ध स्वरुप में  अपने प्रभु श्रीराम  के चरणारविन्द का स्मरण कर मन ही मन बोले । यहाँ मुनिवर कहाँ हैं?मुनिवर की  तप चारणी अर्द्धानिगिनी कहाँ हैं । मुनियों के मंडप कहाँ हैं ?  मुनि के आश्रम  कहाँ हैं ?  अर्थात कहीं नहीं हैं ॥ 

जैसेउ हंस अरु हरुबारे । देखै तरपत पलक उघारे ॥ 
आए कहाँ हे राम गोसाईं । लख धरि कहँ के जे कहँ जाईं ॥ 
जिस प्रकार हंस के लोचन हिलते हैं । माता के पलक अनावरित लोचन से उसी प्रकार तड़पती हुई निहार रही हैं । हे राम ! हे स्वामी !! कहाँ आ गए लक्ष्य कहाँ का कियेऔर जा कहाँ रहे हैं ॥ 

कनख काँखे लखन मुख देखे । लिखि चिंतन अनुरेख न लेखे । 
दिवस काल अरु जे कस राती । कि बाताली पुरब के साँती ॥ 
माता तिर्यक स्वरुप मन कनखियों से लक्ष्मण का मुख देखे जा रही हैं । उनमें मुख में चिंतन अनुलेख की रेखाओं को समझ नहीं पा रहीं ॥ दिवस काल में ये कैसी रात है या किसी वाताली के पूर्व की शांति है ॥ 

भई बन अँधेरी गहन जूँ जूँ आगिन बाढ़ि । 

मात सिया ब्याकुल मन तौं तौं चिंतन गाढ़ि ॥ 
माता  सीता ज्यूँ ज्यूँ आगे बढ़तीं वन की अंधियारी की गहनता के सह उनके व्याकुल मन की चिंता भी त्यों त्यों गहरी होती जाती ॥ 

कोमल कोमल गात, कोमलइ  अन्तरात्मन् । 
जस को कौसुम पात, कोमल चरन रिपु अनेक ॥ 
माता  वैदेही की सुकोमल देही हैं जिसके अंतर में उनका मन भी अत्यंत कोमल है । कसुम-पत्र के सदृश्य उनके चरण हैं और मार्ग में अनेक रिपु हैं ॥  

बृहस्पति /शुक्र , ०३/०४ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                 

आयसु पालन माहि अति कुसल । लखमन मन प्रभु सुमिरत प्रतिपल ॥ 
सौंह अनघट बिपिन दुखदाई । जाके भीतर सिय लिए जाईं ॥ 
जो लक्षमण प्रभु के आदेश का पालन करने में अत्यधिक कुशल हैं । उनके मन में प्रत्येक पल प्रभु श्रीरामचंद्र का ही स्मरण है ॥ कष्टदाई विकट विपिन सम्मुख है जिसक अंतरपुर में वह माता सीता को इए जा रहे हैं ॥ 

जटा जटिल  सूलिन धरि सूला । जहँ धव धूसर खैर बबूला ॥ 
निर्जन नयन दरसन न कोई । पंथ प्रदर्सन कोउ  न होई ॥ 
जहां जटिल जटाधारी कोई है तो वह बरगद  है कोई धूसरित है तो वह धव के वृक्ष हैं ( एक वृक्षजिसके पुष्प लाल होते हैं ) कंटकों से युक्त कोई है तो वह बबूल एवं कोई रक्तिम है तो वह खैर के वनराजी हैं । वनस्थली जनहीन  है मनुष्य वहाँ  देखने  के लिए भी कोई नहीं है और पंथ प्रदर्शक भी कोई नहीं है ॥ 

गहन भीत अरु जारि दुआरी । अरण्य जीवन भयउ दुखारी ॥ 
दग्धन कारन तरु भए सूखे । कोइरि कोइरि काल कलूखे ।। 
वन के गहन अंतर में दावन से दग्ध वन्य जीवन कष्टमयी हो गया है ॥ दग्धं के कारण सारे वृक्ष सूखे सूखे एवं काल-कलुषित होकर कोयला -कोयला हो गए हैं ॥ 

आपहि श्रीधर मुनिबर भामा । हेरि फिरत बन तिनके धामा ॥ 
चौदसि बच्छर बन करि तापा । जानी न तपसी आप प्रतापा ॥ 
माता तो मुनिवर श्रीधर की अर्द्धांगिनी हैं और वन में उनके ही श्रीधाम को ढूंडती फिर रही हैं  । चतुर्दस वर्ष हेतु वन में जो तप किया । वह तपस्विनी तप के बल उसके प्रताप से अनभिज्ञ रही कि अब यह निर्जन वन उस प्रताप से जनयुक्त होकर हरा-भरा हों वाला है ) 

प्रभु संगिनि बासि बन बसेई। मैं धन्य मई कहि बन देई ॥ 
मंगल मूरति बिपिन पधारे । कृपा भई कह पुलक निहारे ॥ 
 प्रभु श्रीरामजी की संगिनी ने वन की बस्ती में आ बसी हैं । यह देख वन देवी कहती हैं आज मैं धन्य हो गई । यह कल्याण की मूर्ति विपिन में पधारी हैं । बहुंत कृपा हुई यह कहते हुव वह पुलकित दृष्टि से उन्हें निहार रहीं हैं ॥ 

रहि जस पंथ निहार दावानल डाह दुखार । 
कब हम हो हरियार, कब सिया बन चरन धरे ॥ 
दावानल की दहन से दुखित जैसे वह उनकी  कर रही थीं कि इस दग्ध विपिन में कब उनके चरण पड़े और कब हम हरे-भरे हो ॥  

मात सिया जहँ जहँ पग धारे । तँह के जीवन भयउ सुखारे ॥ 
नयन बियाकुल मन भयभीता । देख बिपिन अस चिंतत सीता ॥ 
माता सीता  जहां जहां चरण धारतीं  । वहाँ का वन्यजीवन सुखमयी हो जाता । व्याकुल नयन एवं भयभीत मन से ऐसे दुर्गम वन देख कर माता सीता चिंतित हो गईं ॥ 

नवल पथिक पद्या न चिन्हे । फिरैं बान तरु चिन्हित किन्हे ॥ 
चले संग ले लखन सयाने । बिते प्रभात भए अपरहाने ।। 
नए नए पथिक और पगडंडियों से भी परिचय नहीं । किन्तु बुद्धिवंत लक्ष्मण माता सीता को संग लिए बाण से तरुवर को चिन्हांकित  करते हुवे आगे बढे जिससे कि लौटने में कठिनाई न हो । प्रभात काल का विहान कर  अपराह्न का समय  हो गया ।।  

लगए पथ अरि चरन धरि घावा । दरसे बदन पीर मन भावा ॥ 
गहे गर्भ सिय भयौ पियासे । दरसनहु नहीं जल कहुँ पासे ॥ 
मार्ग के रिपु (कंटक) चरणों से लगकर घाव कर देते । मुख पर पीड़ा के मनोभाव स्पष्ट दर्शित हो रहे थे ॥ गर्भ गृहीत माता सीता पियासी हो गईं । आस-पास कहीं जल भी दर्शित नहीं हो रहा था  ॥ 

कहुँ न लखे मुनिबर के ठाऊँ । चर चर पंथ सिथिर भए पाऊँ ॥ 
संसय बस जब रही नहि पाई । सकुचत लखमन पूछ बुझाई ॥ 
मुनीश्वर के आश्रमों के भी कहीं दर्शन नहीं होते । ऐसे पंथ पर चलते-चलते माता सीता के चरण श्रांत हो गए । संसय के कारण जब उनसे रहा नहीं गया तब संकोच करते उन्होंने भ्राता लक्ष्मण से पूछा : -- 

अवध कुँअर हे भ्रात बीरबर । कहँ मुनि कहँ मुनि भामिनि के घर ॥ 
जिन्हिनि के जो जोग निवासा । हेरत मोर नयन चहुँ पासा ॥ 
हे अवध कुमार ! हे वीरवर तात !यहाँ मुनि कहाँ हैं? जो उनके ही सुयोग्य निवास हो मुनि की अर्द्धांगिनी के वह कर्णक आश्रम कहाँ हैं ? मेरी  यह दृष्टि उन्हें सभी और ढूंड आई  किन्तु उसे वह कहीं दिखाई नहीं दिए ॥ 

जिनके दिब्य मुख दरसन  मम लोचन सुख दाए । 
सोई भामा रिसी मुनि जन, देइ न कहुँ देखाए ॥ 
जिनके दिव्यानन् के दर्शन मेरे इस शिथिल दृष्टि को सुख दें वे ऋषि मुनि एवं वे मुनि भामा कहीं लक्षित नहीं हो रहे ॥ 

शनिवार, ०५ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                        

अनघट अरन्य जहँ लग लाखे । दाव दवन भए श्री हिन् शाखे ॥ 
भयौ राउ मुख कोइर कारे । दिवस काल एहि कालख घारे ॥ 
इस दुर्गम वन में जहां तक दृष्टि जाती है ।  वहां तक दावाग्नि से झुलस में श्रीहिन शाखाएँ ही दर्शित होती है विहीन हुवे विटप ही दर्शित होते हैं ।। उस दाव में वृक्षों का मुख कोयला होकर काला हो गया है दिवस काल को जैसे इन्होंने ही कलुषित किया हो ॥ 

कहुँ त दरसत भयंकर पाखिन । कहुँ बिसील ब्यालहिं लाखिन ॥ 
मग जस मानस चरन न पाऊ । कानन ऐसे सुनै न काऊ ॥ 
कहीं  भयंकर पक्षी दर्शित होते हैं कहीं शीलहीन हिंसक पशु दृष्टिगत होते हैं मार्ग को जैसे किसी मनुष्य के चरण ही नहीं प्राप्त हुवे हैं ऐसा विकत विपिन कहीं भी नहीं सुना ॥ 

कहि सीते पुनि कंठन भर के । को असंक मह जिअरा धरके ॥ 
जे धरकन करि हियरा भारी । जिमि को असुभ होवनहारी ॥ 
माता सीता ने कंठ भर कर कहा कोई अनभिज्ञ आशंका है जिससे मेरा जी धड़क रहा है यह धड़क ह्रदय को भारी कर रही है मानो कोई अशुभ घटना होने वाली हो ॥ 

कहि पिय तुअँ जिन कानन जावन । चितबन कहि परि न भूरावन ॥ 
दहुँ अवसि कोउ भेद धरावा । प्रगसि न मोहि सौंह दुरावा ॥ 
हे भ्राता ! प्रियतम ने तुम्हें जिस वन में जाने को इंगित किया था कहीं तुम्हारे चित्त ने भ्रमवश वह वन विस्मृत तो नहीं हो गया ( और हम किसी दूसरे वन में आ गए ) ॥ यदि भ्रमित नहीं हो तो फिर अवश्य ही तुम्हारे ह्रदय ने  कोई भेद धारण किया है जिसे तुम मेरे सम्मुख  प्रकट नहीं कर रहे और मुझ से गोपन किये हो ॥   

तव लोचनहु धरे घनभारी । करत बारि जे बारहि बारी ॥ 
कहत मात हे मोहि पुकारे । प्रतिपल अश्रु जल चरन  जुहारे  ॥ 
तुम्हारे नेत्र घन घोर घटा से घिरे हुवे हैं । जो  वारंवार जल वर्षा रहे हैं यह अश्रु जल प्रत्येकपल मेरे चरण जुहार रहे हैं । और हे माता कहकर मेरा आह्वान कर रहे हैं ॥ 

अस बदन अस बिकल नयन, सोक परिप्लुत भाउ । 
तेहि बिलग दुखातुर मैं, लाखहुँ तुहर सुभाउ ॥ 
ऐसी मुखाकृति एवं ऐसे व्याकुल नेत्र और उनमें शोक से पीड़ित भाव  हैं इसके अतिरिक्त मैं अपने  प्रति दुःख से आतुर तुम्हारे  स्वभाव का भी लक्षित  कर रही हूँ ॥ 

रविवार, ०६ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                           

तुहरे बदनहु बरन उरेऊ । चिंतन रेख बिबरन परेऊ ॥ 
सगुन अमंगलकर सहसाई । पग पग पथ मैं दरसत आई ॥ 
तुम्हारा मुख भी श्रीहीन हो रहा है उसमें चिंता की रेखाएँ के सह विवरणता घुल रखी है ॥ अयोध्या से आते समय पग पग पर मुझे सहस्त्रों अमंगलकारी शगुन भी होते दिखाई पड़े ॥ 

केहि बिधि कहौं रे मम भाई । मैं आपनि चिंतन के नाई ।  
भागीरथी पार मैं आवा । नाथ  दुरावा मोहि न भावा ॥ 
हे मेरे भ्राता मैं अपनी चिंता की तुम्हें किस प्रकार से कहूँ । मैं भागीरथी को पार कर यहां आ गईं हूँ नाथ से यह दुरी मुझे सुहा भी नहीं रही है ॥ 

हे मौनि लखन कहु सब साँचै ।  भल कि अनभल बचन कह बाँचै ॥ 
मात कहन श्रवनत सकुचाहीं । सिरु नत लखन कहत कछु नाही ॥ 
मौन धारण करने वाले लक्ष्मण अब तुम सब सत्य कहो । अनुकूल हो कि प्रतिकूल जो भी हो तुम उसे उद्भाषित कर दो । माता के यह कथन सुनकर भ्राता लक्ष्मण संकोच करने लगे । अवनत शीश लक्ष्मण  ने फिर भी कुछ नहीं कहा ॥ 

माता पूछत बारहि बारे । लखन करुनई दिरिस निहारे ॥ 
तात तव सों जोरि दुइ हाथा । जो कहु तो पद नावौ माथा ॥ 
माता सीता वारंवार पूछती हैं और भ्राता लक्ष्मण उन्हें करुणामयी दृष्टि से निहार रहे हैं । माता कहती हैं हे तात मैं तुम्हारे सम्मुख हाथ जोड़ती हूँ यदि कहो तो अपने मस्तक को तुम्है चरणों में नवाकर दंडवत हो जाऊं । 

श्रिया बदन जे बचन निकसाहि । द्रवित हो लखन कहि नाहि नाहि ॥ 
मैं तनय तुम्हरे अनुरागी । कारु न मोहि पात के भागी ॥ 
मंगल मूर्ति के श्री मुख से यह वचन निकलते ही भ्राता लक्ष्मण द्रवित होकर बोले नहीं नहीं माता । मैं तो तुम्हारा अनुरागी  पुत्र हूँ  ऐसा करके मुझे पाप का भागी मत कारित करो भला माता भी कहीं पुत्र के चरण प्रणमित करती हैं ॥ 


लखमन नयन सनीर, आकुल उद्विग्न अधीर । 
अस कह हिय भर पीर, घुटरु बल सिय चरन गिरे ॥ 
ऐसा कहकर भ्राता लक्ष्मण नीर योगित नयन एवं पीड़ा युक्त ह्रदय लिए  व्याकुल उद्धिग्न एवं अधीर होकर  माता सीता के चरणों में नलकील के बल गिर पड़े ॥ 

सोमवार, ०७ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                              

परेउ लकुट इब चरनिन्ह लागी । अवपद लखमन चितब अभागी । 
दयासील लोचन भरि लाई । बिलखत पुत अरु चितबत माई ।। 
वह किसी दंड के जैसे गिरे और माता के चरणों से लग गए ।  भ्राता लक्ष्मण गिरे हुवे हैं और अभागी माता स्तब्ध मुद्रा में हैं फिर उस दया की मूर्ति के नयन भर आए और  इधर पुत्र बिलख रहा है उधर माता भरे एवं स्तब्ध नेत्रों से उन्हें दर्श रही हैं ॥ 

निपतित लखमन तरपत ऐसे । तपन धरे सागर जर जैसे ॥ 
बिदीरत हरिदै कस तिलछिते । जल कन घन जस रचन अकुलिते ॥
भ्राता लक्ष्मण माता के चरणों में गिर कर ऐसे तड़प रहे हैं जैसे की टॉप धारण कर सागर तड़पता हो ॥ उनका विदीर्ण ह्रदय कैसे व्याकुल हो रहा है जैसे सागर के जल कण घन रचने को आकुल हों ॥ 

धरी सिया कर कर सिरु नागर । धरे सिंधु जस सूर केतु  कर ॥
भए अकुलात उठा तब कैसे । काल गहन धनबन घन जैसे ॥
माता सीता ने अपने प्रिय देवर के शीश पर हाथ कैसे रखा जैसे सिंधु के शीश पर सूर्य केतु ने कर रखा हो ॥ भारता लक्ष्मण व्याक्यल स्वरूप में कैसे उठे । जैसे सिंधु से गहरे काले मेघ उठ रहे हों ॥ 

लखि  कस लखमन बदनारविन्दु । घन काल गगन अरु बिंदु बिंदु ॥
धराधिअ ताहि  कस अवगाही । बुए बिआन जस जल बोराही ॥
लक्ष्मण का पद्मान्न कैसे लक्षित हो रहा है । जैसे गगन में काले घने मेघ छाए हों और वह बिंदु बिन्दु हो गया हो । धराधी  उअसमें कैसे निमग्न हो गईं । जैसे उपजी हुई उपज हो और वह जल में निमग्न हो गई हो ॥ 

मनोदाह द्रव कस उमगाही । बिंदु गहे जस नदि बह आई ॥
मृदुल हृदय कस दलक उठेऊ । जस धनबन को घन दलकेऊ॥
मन की पीड़ाएं द्रव बन कर कैसे उमड़ी । जैसे मेघ बिन्दुओं को ग्रहण किए कोई नदी बही आ रही हो ॥ मृदुल ह्रदय किस प्रकार विदीर्ण हुवा । मानो गगन में कोई  घन विदीर्ण हो रहा हो । 

क्लेस जे ऐसा  दरसनअह आहह हे सोक अहे । 
पिय बिरहन संका सिय घन अंका बायुर मै रूप लहे ॥ 
दिए सकल बिदारे जल जल कारे पलकेन के कुञ्ज गली । 
दोइ कूल बाही कन कन गाही असुअन नदिया बहि चली ॥ 
यह कैसी पीड़ा है हे शोक !आह !यह कैसा दर्शन है प्रियतम के विरह की आशंका है माता सीता के अश्रु गृहीत दुःख मेघ है तुमने वायुर का रूप धारण कर लिया है ॥ और सभी मेघ समूहों को विदीर्ण  होकर पलक स्वरूपी लताओं से घिरे पंथ को वारि-वारि कर दिया । दो भुजा रूपी तटों में इस अश्रु रूपी वारि को ग्रहण कर  जैसे उस पंथ से कोई नदी ही बही चली आ रही है ॥ 

रघुकुल के कल चंद्रमा बिपदा देइ सुनाउ । 
हे गहनमई निभानन, अजहुँ न मौन धराउ ॥ 

हे रघुकुल के चन्द्रमा अब तुम वह विपदा कह दो हे ग्रहणयुक्त चमकते हुवे चन्द्रमा रूपी मुख अब तुम मौन का त्याग कर मुखरित हो जाओ अन्यथा यह नदी का स्वरूप और अधिक विकराल हो जाएगा ॥ 

मंगलवार, ०८ अप्रेल २०१४                                                                                                       

आयसु आज्ञा जे रघुबर के । कहत लखन तव चरनन धर के ॥ 
होत बिकल बल सकल सँजोई । मात बचन यह नीक न होई ॥ 
हे माता यह आदेश जो रघुवीर की है लक्ष्मण तुम्हारे चरण पकड़ कर कहता है फिर वह व्याकुल होकर सारा बल संजोत हुवे बोले हे माता !यह आदेशित वचन आपके अनुकूल नहीं हैं ॥ 

हिलकत हिलगत ह्रदउ  हिलोले । हहरत लखन बहुरि जो बोले ॥ 
एक एक बरन नयन सों भ्राजे । अस बादिन जस नभ घन बाजे ॥ 
हिचकते हुई हृदय तरंगों के साथ कांपते-सिसकते हुवे फिर भ्राता लक्ष्मण ने जो कुछ कहा उस कथन का एक एक वर्ण नयनों में चमकने लगे और वह ऐसे स्वर करने लगे जैसे  नभ में घन गर्जना कर रहा हो ॥

 जस भूमि भवन गहन घन घिरे। द्रोह चिंतन द्यो द्युति गिरे ॥ 
त्याग त्याग धुनी कुलीसा । कर गर्जन गिरि सिय के सीसा ॥  
मानो किसी भूमि पर कोई भवन मेघों से घिरा हो और अनिष्ट कारित करने हेतु गगन से उसपर द्युति गिरी हो ॥ त्याग त्याग की ध्वनि ही वही द्युति हैं जो माता सीता रूपी भवन के शीश शिखर पर गर्जते हुवे गिरी है ॥ 

मूदि नयन अरु कर धरि काना । धनबन धुनी तरंग बिताना ।। 
 कारे धम धम धवन धवानहि । मुख सन निकसे बहोरि नहि नहि॥ 
माता ने आनखे बंद कर ली और हाथों को श्रुति साधन को आवरित कर लिया किन्तु आकाश है कि  उस ध्वनि की तरंग दैर्ध्य का विस्तार किये हैं । और जैसे धम धम की ध्वनि गुंजायमान हो रही है ॥ 

मेघा छादन बन गगन, घुर्मित लोचन माहि ।  
दुहरात मुख बिहुर बचन, बहुरि बहुरि कहि नाहि ॥ 
मेघों से आच्छादित वन का वह गगन माता की आँखों में घूमने गए उनका श्री मुख त्याग के वचनों को दोहराने लगा वे वारंवार नहीं नहीं का उच्चारण करती हैं ॥ 

बुधवार, ०९ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                      

पिय कृत कारि दरस अनुरागी । आपनि जीवन मोहि त्यागी ॥ 
अइसिहु कवन भूल करि भारी । प्रनइन मोरे प्रनय बिसारीं ॥ 
विष्णु स्वरूप श्रीराम चन्द्र सब पर अनुराग रखते हुवे सभी को स्नेह की दृष्टि से देखने वाले हैं उन्होंने अपने जीवन से मुझे त्याग दिया  । मुझसे ऐसी कौन सी भारी भूल हो गई जो प्रणय-प्रार्थी ने मेरे प्रणय को बिसार दिया ॥ 

हा जग एक बीर रघुराया । केहि दोष बिसारेहु दाया ॥ 

पाख राखनहु न अवसरु दाए । एकैहु बारए न कान धराए ॥ 
हा जगत के अद्वितीय वीर रघुनाथ जी आपने मुझे किस दोष के आधार पर त्याग दिया । मुझे अपबना पक्ष रखने तक का अवसर भी प्रदाय नहीं किया । और त्याग के विषय में एक बार भी नहीं कहा ॥ 

आरत हरन सरन सुख दायक । रघुकुल दीपक हा दिन नायक ॥ 
करत बिहुर ऐसेउ दुरावा । का मोहि तव हिया ना भावा ॥ 
हे दुखों को हरने वाले शरणा जाटों को सुख देने वाले हा रघुकुल के दीपक और उस कुल दिवस के नायक ॥ आपने मेरा त्याग कर मुझे दूर कर दिया क्या आपके ह्रदय को मेरे निमित्त  कोई भाव नहीं हैं ॥ 

आह बिपति सुनाऊ  को प्रभुहि। को जा तिनके करन धराऊ ॥ 

रुदत करुनकर करत बिलापा । सुनि बन जीवन भए संतापा ॥ 
आह! मेरी यह विपत्ति कोई प्रभु के श्रुति साधन तक पहुंचा दे उन्हें मेरी विपदा सुना दे । माता सीता करुणमयी क्रंदन करते हुवे विलाप कर रहीं हैं । उनका विलाप देखकर समस्त वन्य जीवन सन्तापित हो उठा है ॥ 

करुना सूत बध असुअन पाँति । रोदति बदति सिय बहुसहि भाँति॥ 
बाँधि हिया धर धीरज गाढ़े । दरकि सकल लए एकैहि बाढ़े ॥ 
 करुणा की सूत्र में आंसुओं की पंक्तियाँ पिरोती हुई माता सीता क्रंदन कर बहुंत प्रकार के वचन कह रही हैं। जिनके  ह्रदय में धीरज, गहरा होकर सदैव बंधा रहता था । एक बाढ़ में ही वह बाँध टूट गया ॥ 

सोकाभिभूत भाव सों बिहबल बदन बिलोक । 
सोकातुर भए लखन अरु चितबत भए बनलोक  ॥ 
शोक से अभिभूत भावों से विह्वल उनका मुख देखकर लक्ष्मण भी शोक से आतुर ही गए और सारा वन जीवन स्तब्ध हो गया ॥ 

( प्रस्तुत पंक्तियाँ रा. च. मा से प्रेरित हैं ) 

बृहस्पतिवार, १० अप्रैल २०१४                                                                                                    

एक तौ तिसनित गर्भिन तापर । कटी बेलि जस गिरी धरा पर ॥ 
बिलगित पिय सो तरु के नाई ।  होत मुरुछित भइ धरासाई ॥ 
एक तो तृष्णित  उसपर गर्भ धारण किये हुवे ऐसे दशा में वह भगवान श्रीराम चन्द्र रूपी तरुवर से वियुक्त होकर कटी हुई बेल के सदृश्य धरती पर गिर गई ।  और धराशयी होकर मूर्छित हो गईं ॥ 

मात सिया जब भू पत देखा । लखमन माथ चित चिंतन रेखा ॥ 
पत प्रहरावै करत सचेता । मात मात कह बहुतहि हेता ॥ 
 भ्राता लक्ष्मण ने माता सीता को जब भूमि पर गिरते हुवे देखा तब उनके मस्तक पर चिंता की रेखाएं चित्रित हो गईं ॥ फिर उन्होंने पल्लवों को प्रहरित करते हुवे माता को सचेत करते हुवी माता ! हे माता !! कहकर बहुंत ही स्नेह किया ॥ 

अरु जब जागी चेतनताई । रुदत कहत हे नाथ दुहाई ॥ 
होत अधीर ब्याकुल भारी ।  नाथ नाथ हाँ नाथ पुकारी ॥ 
और जब उनमें चेतनता जागृत हो गई । तब वह क्रंदन करते हुवे कहने लगी हे नाथ दुहाई हो ॥ माता अधीर होते हुवे अतिशय व्याकुल होकर दुखित स्वर में भगवान श्रीराम को पुकारने लगी ॥ 

पलक पंकज पत हहरत दोले  । सोकाबेग करूनामइ  बोली ॥ 
भयउ न पातक को मम ताईं । तजि मोहि प्रभु अवध की नाई ॥ 
पंकज -पत्र के सदृश्य पलकें कम्पित होकर दोलायमान हो गई    वह करुणा की मूर्ति शोक के वशीभूत होकर कहने लगी कि । मेरे जैसा पापी इस जग में कोई नहीं है । प्रभु ने मुझे अवध के जैसे त्याग दिया ॥ 

प्रभाबिता मम पुरुख परम प्रभबिष्नु महा बोध । 
करें त्याग निरनय कस, किए बिनु मोहि प्रबोध ॥  
श्री विष्णु की प्रभा से युक्त मेरे स्वामी जो महा सुबुद्धि एवं परम पुरुष हैं । उन्होंने बिना प्रबोधित किये मेरे त्याग का निर्णय कैसे ले लिया ॥ 

शुक्रवार, ११ अप्रेल, २०१४                                                                                                        

प्रिय कृत कारि मोरे स्वामी ।सर्वव्यापक  अंतरजामी ॥ 
सोइ जानत कि सिय निहपापा । देइ बहुरि कस परिहरु श्रापा ॥ 
सबका कल्याण करने वाले विष्णु स्वरूप मेरे स्वामी जो सर्वत्र व्याप्त  है एवं सबके अंतर्मन के संज्ञानी हैं। यह जान कर भी  कि मेरी सीता निष्पाप है । फिर उन्होंने मुझे त्याग का श्राप कैसे दिया ॥ 

भय निठुर पिया अस निर्मोही । परिभंग हृदय करिअहि मोही ॥ 
मारज के मुख एकै कहाई । जीवन संगिनी दिए परिहाई ॥ 
प्रियतम इतने निष्ठुर ऎसे निर्मोही हो गए । कि उन्होंने मुझे प्रभंगित ह्रदय कर दिया । और धोबी के कहे एक ही वचन से अपनी जीवन भर की संगिनी को त्याग दिया ॥ 

पिया मोहि मह नहि को खोरी । ररत नाम हरि दुहु कर जोरी ॥ 
निलय दहन अरु लोचन धूमा । कस्मल मुख अरु परे पहूमा ॥ 
इस प्रकार माता सीता दोनों हाथ जोड़कर प्रभु के नाम की रटन  किए कहती रही हे प्रियतम ! मुझमें कोई खोट नहीं है । तत्पश्चात  माता के ह्रदय में पीड़ा रूपी अग्नि का वास हो गया और नेत्रों में शोक का धुंआ छा गया  और  वो मलिन मुख लिए पृथ्वी पर गिर पड़ी ॥ 

कहत बचन अस केतनि केता । मात सिया पुनि भई अचेता ॥ 
लखन नयन जल धारा छूटे । निर्झरनिहि जस निर्झर फूटे ॥ 
ऐसे जाने कितने वचन कहते हुवे भूमि पर गिरकर फिर माता  पूण: अचेतावस्था को प्राप्त हो गईं । भ्राता लक्ष्मण की  आँखों से अश्रुकी  धारा ऐसे फूट पड़ी कैसे किसी पहाड़ी से कोई झरना फूट पड़ा हो ॥ 

दरस दीन दयनइ दसा, सोकिन बदन सनीर ।  
जनि अचेत यह दुर्गम बन  कह भए लखन अधीर ॥ 
पीड़ा से युक्त अश्रुपूरित श्री मुख लिए वे माता की विपति में गहरी दयनीय दशा को देखकर यह कहते हुवे कि  माता अचेतावस्था को प्राप्त हैं और यह दुर्गम वन वह अधीर हो गए ॥ 

शनिवार, १२ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                     

हे भ्रात भगत सुमित्रा नंदन । हे बीर बिपुल रघुकुल चंदन ॥ 
गवनु बेगि तुअँ अवध पयानो । मोर बचन प्रभु करनन दानो ॥ 

दिरिस बिमुख निज मोहि कीन्हे । छाँड़ि बन दारुन दुःख दीन्हे ॥ 
मन क्रम बचन अरु सोंह काया । गहि मम प्रीति चरन रघुराया ॥ 

जोइ सरबस जगत अनुकूला । होहिं कस मम सोंह प्रतिकूला ॥ 
धरम धुरंधर जस के सागर । कहहु तिन्ह यह रे प्रिय नागर ॥ 

मुनिबर बसिष्ठ ठान बुलाहू । तिनके सौमुख पूछ बुझाहू ॥ 
जानइ नाथ सिया अघहीनी । बहुरि काहू तीन बिहुरन दीनी ॥ 

भुइ भरन भव के भूषन, त्रिभुवन भूप अनूप । 
जेइ रघुकुल अनुरूप कि,श्रुति ज्ञान फलीभूत ॥  

रविवार, १३ अप्रेल,२ ० १ ४                                                                                                      

कहत बचन अरु बहुतहि भाँती । परे सिया जब हरिदै साँती ॥ 

जागत  बिबेक कहि नत सीसा । मोर स्वामिन कोसलाधीसा ॥ 

जगदानन्द जोइ जग जीवन । जगद मोहन जगतिजग वंदन ॥ 

जिनके करि जे जग संचारे । जो प्रियकर सरबस हितकारे ॥ 

तिनके कृत करनी आधारे । मोर रोदन सुवारथ सारे॥ 

कारन जग जन  भलमनसाई । जेहि कर प्रभु मोहि बिहुराई ॥ 

होहि  बिबसता कोइ न कोई ।ता मह प्रभु को दोष न होई ॥ 
रहूँ चरन अनुरागिनि तोरे । ऐसेउ त बड़ भाग न मोरे ॥ 


कोउ करम दोषु अधीन रहि नहि प्रभु पद जोग । 
मम प्रारब्ध भए कारन, दिए जो मोहि बियोग ॥ 

सोमवार, १४ अप्रेल, २०१४                                                                                                    

त्रास हरन रघुकुल बर नायक । द्वन्द भंजन जन सुख दायक ॥ 
होए जगत सर्वत्र कल्याना । तजन करन किए दया निधाना ॥ 

प्रभु सर्बग्य सर्बस ग्यानी । प्रभु सम सागर सिय घन पानी ॥ 
ताप धरे तन सोंह त्यागे । धारे अन्तर्मन अनुरागे ॥ 

पर जिन तिय पिय परिहरु दानी । होहहि अस जस तन बिनु प्रानी ॥ 
कहत कहत सिय रोवति हीची । छाँड़ि साँस बिसरत भित खींची ॥ 

नयन नदी अरु धारे कर तुल । अवरुद्ध कांठा दरसत आकुल ॥ 
जात पास जिउ साँसत आना । प्रान पखी पर उर नहि जाना ॥ 

बैदेही दुखमै देहि, घोंसला सोंह लाखि । 
प्रान पखेरु आन कंठ, अजहुँ घरे नहि पाखि ॥  

मंगलवार, १५ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                            

लखमन जों सिय बदन निहारे । कहे मात हे प्रान सँभारेँ ॥ 
मात कही हे भ्रात सयाने । तुअँ चिंतहु नहि हुँत मम प्राने ॥ 

आपनि मन प्रभु सुमिरन कारत । धारिहु प्रान घन बन बासत ॥ 
अमित बोध भव सागर खेवा । मम सर्वस आराधिन देवा ॥ 

गर्भनि तिन के तेज गहाहे । प्रान तिन हुँत रच्छन रखाहे ॥ 
गवनौ अब तुअँ कौसल देसे । मातिन्हि बिहुर देइ सँदेस ॥ 

मात चरन मम बंदन देहू । मम तैं तुहहिं आसीर लेहू ॥ 
प्रभु सो कहिहु सोक न कारें । तुहरे अग्या सिय सिरु धारे ॥ 

जदपि बासि बन घन बिकराला । बिकट बिसंकट कपट ब्याला ॥ 
तलहट औघट घन अंधियारा । सूचि भेदि न केतु पत हारा ॥ 

जाकी प्रीत प्रभु पद गहि, तिनहि काल न ब्याप । 
मन बसिया रच्छा करे, जहाँ सिया तहँ आप ॥ 

बुधवार, १६ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                         

तुम तैं प्रभु बचन पूरनिते  । भ्राता भगत हुँत सोइ उचिते ॥ 
अजोधा नाथ पद कमलीना । तुम्ह सेवक वाके अधीना ॥ 

राम रबि सोंह बिहुरी केतू । मैं सठु सब अनरथ कर हेतू ॥ 

दरस बदन सिय भर भर लोचन । बहुरन बहोरि लखन गहि चरन ।। 

सुखे अधर अरु  अँसुअन पानए  । कहत लखन अब अग्या दानए ॥ 
नाए माथ कर जोर जुहारे । रज सरिरुह सिरु सरिबर धारे ॥  

धरे सीस कर असीस दाने । कहि सफल हो तुहरे पयाने ॥ 

निरखि बदन सन दिरिस सनेहू । कहै मोहिहि भूरा न देहू ॥ 

नयन सूती जल सुत लिए दिनकर कुल के दीप । 
बहुराए बहु सिथिर चरन, गवनन नाथ समीप ॥ 

Saturday 20 July 2013

----- ॥ उत्तर- काण्ड 8॥ -----

पाहन कनी कि लोचन जोटे । झलक देत ना पलक पपोटे ॥ 
राजभवन कि सोक कुठियारा । पल पल गहनइ दुःख अँधियारा ॥ 
 जिनकी पलकें दर्शित ही नहीं हो रही यह दो लोचन हैं कि पाहन के दो कणिश है ॥ यह राजभवन है की शोक का सदन है ।  जहां  दुःख का अन्धेरा प्रतिपल गहराता जा रहा है ॥ 

अधर सुधा मुख सुधा अधारे । तिलछ धरा धनबन घन घारे ॥ 
जगत पियारी सिया पियारा । दसानन जिता जन सन हारा ॥ 
यह अमृत रस युक्त अधर हैं कि व्याकुल भूमि खंड है । यह वादन सुधा का आधार स्वरुप है कि किसी गगन न घन गहरा रखे हैं ॥ यह वाही जगत की प्यारी सीता क प्यारे श्री राम है ? जो दशानन को तो जीत गए किन्तु संसार से हार गए ॥ 

निलय भवन कि देबल रचाई । प्रान समा कि देइ बिठाई ॥ 
प्रभु मुख बचन कि कुलिस कठोरे । गिरे सीस गरजत घन घोरे ॥ 
उनका ह्रदय भवन हैं कि कोई देवालय रचाया है वहाँ प्राणसमा समाई हैं कि कोई देवी प्रतिष्ठित हैं ॥ प्रभु के श्री मुख के त्याग के ये वचन हैं कि कोई कठोर वज्र हैं । जो गहरी गरजना कर शीर्षोपर गिर रहे हैं ॥ 

बास बसतिहि कि दनुपत लंका । कलुखित काजर काल कलंका ॥ 
त्रासिन रैन रजक के निंदा । दारुनी दुःख द्वार अलिंदा ॥ 
यह दनुपति रावण की लंका की वास-वसति है कि काजर जैसी काली कलंक की कलुषता है ॥ यह रजक की निदा वाली भयदायक रयनी है । अथवा किसी निर्दयी दुःख के द्वार की प्रवेश स्थली है ॥ 

कातरि कासि  कर लखमन, प्रभो चरन लपटाए । 
अडिग बिटप कसकन बलइ, को बेलरि बलियाए ।  
कष्ट से व्याकुल होकर प्रभु के श्री चरणों से बल पूर्वक  लिपटे यह भ्राता लक्ष्मण हैं अथवा किसी दृढ विटप से दृढ़ता पूर्वक कोई वल्लरी वलयित है ॥ ( भगवान शेष ने कहा ) 

मंग/बुध १८/१९ मार्च २०१४                                                                                 

रे लखमन गवनउ तुर जाऊ । भासित भरु मुख भीनिन भाऊ ॥
हत भागिनि बन महुँ सुख पाही । न त बिगरहि  जिउन देहि नाही ॥ 
भावों से भीग कर फिर जगत-स्वामी के मुख से निकला । हे लक्ष्मण जाओ जाओ शीघ्रता करो । वह दुर्भागिनी वन मन ही सुख पाएगी । अन्यथा यहाँ तो उसे यह निंदा जीवित नहीं रहने देगी ॥ 

कहत कहत  कंठन अवरोधीं । जँह ऐतक प्रतिबाधि बिरोधी ॥ 
प्रनय बिहीन अरु पिया बियोगी । हंस गमनि बेहड़ बन जोगी ॥ 
और कहते कहते उनका कंठ अवरुद्ध हो गया । यहाँ तो इतने शत्रु हैं इतने विरोधी हैं ॥ प्रेम से विहीन एवं प्रियतम से वियोजित वह हंस गामिनी बीहड़ वन के योग्य ही है ॥ 

सीतल सयनी तिन हुँत दाहक । देहि सैन सुख साथरि कंटक ॥ 
कंप पुलक तन नयन सनीरा । कहत बचन प्रभु प्रेम अधीरा ॥ 
यह शीतल शयनी उसके लिए अग्नी के सरिस है । कुस-कांटे की साथरी ही उस एशियन का सुख देगी ॥ कम्पन करते रोमांचित शरीर एवं नीर युक्त नयन से प्रभु  प्रणय में अधीर होकर कहने लगे : -- 

लिखे लेख बिधि टरै न टारे । लिखी होतब सोइ होवनिहारे ॥ 
हरिअरि हरिपद लखमन छाँड़े । कहि न सकत कछु चितबत ठाढ़े ॥ 
विधि के लिखे लेख  को कोई मिटा नहीं सकता । जो लिखी हुई भवितव्यता है वह अवश्यमेव होती हैं ॥ फिर लक्ष्मण ने धीर धीर हरी के चरण को छोड़ा । और बिना कुछ कहे स्तब्ध स्वरुप में खड़े रहे ॥ 

किए बिरंचि कस बिधान लिखे कैसेउ लेख । 
भाग क्रम बल फेर करत, रचितै कस अवरेख ॥ 
विधाता ने यह कैसा विधान किया कैसे लेख लिख दिए भाग्य क्रम के बल को परिवर्तित कर ये कैसा विचित्र चित्र बना दिया ॥ 

नाइ सीस पद भर अनुरागा । जावनु बन पुनि आयसु मागा ॥ 
तरलित नयन ब्याकुल निलयन । चलत लखमन बहु सिथिराए चरन ॥ 
अनुराग से परिपूर्ण होकर प्रभु के चरणारविन्द में शीश नवा कर लक्ष्मण ने वन में प्रस्थान करने की आज्ञा मांगी । द्रवित नेत्रों एवं व्याकुल ह्रदय से वे बहुंत ही शिथिल चरणों से चले । 

कसकत सारथि आयसु दाने । मात जानकी भवन पयानें ॥ 
अंतह पुर रथ चरन पैठाए । जगत मात पिय अगोरत पाए ॥ 
और व्यथित होकर सारथी को आदेश किया कि माता जानकी के भवन की और गमन करो ॥ रथ के चक्र ने  अंत:पुर में प्रवेश किया वहाँ जगज्जननी को अपने प्रियतम की प्रतीक्षा करते पाया ॥ 

जगती जोत सन जनी जागे । दोनउ दीपित बर्तिक लागै ॥ 
एक दीपक जर जर अनुरागी । दुज रघुबर कर भई त्यागी ॥ 
जगती हुई ज्योति के साथ जननी भी जागरण कर रही थीं । दोनों ही दीपिकावार्तिक के सदृश्य प्रतीत हो रही थी ॥ एक जल जल कर दीपक के अनुराग में दूसरी रघुवर के हाथों त्याग कर विलीन होने को तैयार थी ॥ 

अभिराम रूप अस निभ नीके । भयौ पयस मयूख मुख फीके ॥ 
दृग दरपन सजन छबि दरसाए । पूछे लखन पिय काहु न आए ॥ 
उनका अभिराम स्वरुप ऐसा सुन्दर आभा दे रहा था कि उअनके सम्मुख चंद्रमा का मुख भी कांतिहीन हो गया ॥ दृष्टि का दर्पण प्रियतम की छवि दर्शा रहा था । माता ने लक्ष्मण से पूछा प्रभु अब तक क्यों नहीं आए ॥ 

दरसत छबि भगवन, सिय दृग दरपन हिया भर भर आयो ॥ 
जोरे दोई कर  सिय प्रिय नागर  सौमुख सीस नवायो । 
पद पदुम पँवारी पलक बुहारी भए बिहबल बुहरायो ।  
अवरोधित कण्ठन कठिनइ लखमन चितबन धीर धरायो ॥ 
जब माता सीता के प्रिय देवर ने उनके दृग-दर्पण में प्रभु की छवि देखी तब उनका हृदय भर आया दोनों हाथों को जोड़े उनके सम्मुख अपना शीश नवाया उनके पद्म चरण की ड्योढ़ी को अपने पलकों की बुहारी विव्हावल होकर बुहारने लगे । फिर अवरुद्ध कंठ एवं अतिशय कठिनता से लक्ष्मण ने चित्त को धीरज धराया ॥ 

पूछ उतरु देइ लोचन, द्वारी पलक ढकाए । 
बन लेइ गवनै आपन, रघुबर मोहि पठाए ॥ 
और नेत्र द्वारी पर पलकों का आवरण किये उनके प्रश्न का उत्तर दिया आप को वन में ले जाने हेतु भगवान श्री राम जी ने मुझे भेजा है ॥ 

बृहस्पतिवार, २० मार्च २ ० १ ४                                                                                           


पिय चारु चरन  चिंतनहारी । बोलि बड़ भागि निज बलिहारी ॥ 
अजु जह महरानी साकेता । भइ धन्य मई केतन केता ॥ 
अपने प्रियतम श्री रघुनाथ के चरणों का चिंतन करने वाली वह सौभाग्यशील स्वयं पर न्यौछावर होकर बोली  आज यह साकेत की महारानी मिथिला कुमारी बहुंत ही धन्यमयी हो गई ॥ 

अजहुँ त रयनिहि बितेहि नाही ॥  नाथ मनोरथ कृत पूरेनाही ॥ 
मम सम कोउ सुभागिन नाही । पठए पिया तुअँ मोरे पाहीं ॥
अभी तो रायनी भी व्यतीत नहीं हुई है । और नाथ ने मेरे किए मनोरथ को संतुष्ट कर दिया । हे वत्स !मेरे सदृश्य कोई सौभग्यशाली नहीं है कि मेरी कामनाओं  को पूर्ण करने हेतु प्रियवर ने तुम्हें मेंरे पास भेजा ॥ 

मोर मनोरथ कोरिन तूले । पिय पूरन सिच पत फुर फूले ॥ 
प्रफुरित नयन जब बन झौरिहि । तपासबिनी भामरि बन भौरिहि ॥ 
मेरा यह अभिलाषा किसी अंकुर के  जैसा था । जिसे प्रियतम ने पूर्णता की सिक्ता से उसमें प्रसूत उद्भिद हो ग । ये प्रसन्न लोचन से जब अरण्य में झूमेंगे । तब तपस्विनी भ्रमरियां बनकर इनपर भ्रमण करेंगी ॥ 

अजहुँ मैं तपोबन तपसबिनी । मानि देउ निज पत जो पतिनी ॥ 
बसनाभूषन आसन दए बर । तिनके चरनिन्ह समर्पन कर  ॥ 
आज मैं तपोवन की उन निष्ठावती स्त्रियों को जो अपने पति को देव के समतुल्य मान देती हैं उन्हें मैं  उत्तम आसन देकर ये वस्त्राभूषण आदि वस्तुएं उनके चरणों में सपर्पित करूँगी ॥ 

करत तिन्ह पतिब्रता भिनन्दन ।  चरन पखारि करहुँ अति वंदन ॥ 
जीवन धन सिरु तिनके हाथा । मिलए सुभागे तिनके साथा ॥ 
और उन पतिप्राणाओं का अभिनन्दन करते हुवे चरण प्रक्षालित कर उनकी अतिशय वंदना करूंगी । जिनका आशीर्वाद सर्वस्वरूप है उनका सत्संग सौभाग्य से ही प्राप्त होता है ॥  

मैं तिलछ धरा कन कन  तरसी । सोइ घन बदरा घनाकर सी ॥ 
मैं  सिथिर पथिक तप पथचर सी । सो छाइ सुखद घन तरुबर सी ॥ 
मैं एक व्याकुल धरा हूँ जो बूँद बूँद की प्यासी है । वे वर्षाऋतु कि घनी घटा सी हैं । मैं ग्रीष्मऋतु में पथ पर चलते हुवे किसी शिथिल पथिक के सदृश्य हूँ । वह घने वृक्ष की छाया जैसी हैं ॥ 

अस कह सयन भवन भीत, चारू  चरन फिरोए । 
मनिगन बसन बर दुहु कर, नाना साज सँजोए ॥ 
ऐसा कहकर सीता ने शयन-कक्ष के भीतर अपने कुमकुम चरणों ले गई ।और दोनों हाथों से  मणि समूहों से युक्त वस्त्र आदि विभिन्न प्रकार की सामग्रीयाँ संजोने लगी ॥ 

शुक्रवार २१ मार्च, २ ० १ ४                                                                                             

पुनीत काल घरी सुधियाई । प्रात क्रिया करि धोइ न्हाई ॥ 
दिब्य बपुरधर बासन अर्पन । बंदि पितु देउ पिय मन ही मन ॥  
सूर्योदय के पूर्व ब्रह्म मुहूर्त में निमज्जन स्नान आदि प्रात क्रियाएं संपन्न कर दिव्या देहमूर्ति को वस्त्रार्पित कर सांध्य-पूजन में मन ही मन अपने प्राणाधार श्रीराम चन्द्र सहित अधिष्ठाता पूर्वजों का वंदन किया ॥ 

 चारु चरन रवनत रमझोरे । किंकिनि कंकन किए कर कोरे ।। 
हंस हिरन हरिमनि सिंगारे ।  लगि सकलन नाना उपहारे ॥ 
कुमकुम से युक्त चरणों में ध्वनिमय घुंघरू अर्पित कर  क्षुद्र घंटियों से युक्त कंगनों के अपने हाथी के कगारे को समर्पित किये । इस प्रकार चांदी-सोना हीरा-पन्ना आदि से श्रृंगारित होकर माता सीता तपस्विनियों हेतु विभिन्न प्रकार के उपहार संकलित करने में व्यस्त हो गईं ॥ 

सिअरे सियरे सिचइ सकोरे। तपसि चरन तन सीकर छोरे ॥ 
सुमन सुरभीमन सार सँचाए। चोट चपेट उभरन सुख दाए ॥ 
तप के आचरण गरहन करने वाली तपस्विनियों के तन को जो जल-बिंदुओं से सिक्त करें ऐसे शीतल शीतल वस्त्र एकत्र किये ॥ ऐसे सुमन एवं सुगंधमयी पदार्थ संचित किये जो उनके  ठेस, क्लेश आदि से उत्पन्न घावों की पीड़ा को सुख दे ॥ 

कंगनी बिंदु मनि मनियारी । सिंदूरी सुहाग पेटारी ॥ 
जोइ सँजोइनि थारिनि थारी । तापर सुन्दर दिए ओहारी ॥ 
कंगन मन को हरण वाली मणिमयी बिंदिया एवं चीन-पिष्ट को सुहाग पिटारी में संजोकर फिर उन साज सामग्रियों को  थालियों में संकलित की और उनपर सुन्दर आच्छदन पट दिया ॥ 

धर कर चलत सखी सुठि भामिनि । सन चले तिनके हंसगामिनि ॥ 
घर के देहरि लांघ न पाई । दोलत डगमग पग उरझाई ॥ 
सुन्दर स्त्रियां एवं सखी-सहेली उन थालियों को हाथों में लेकर चलीं । हंसगामिनी माता सीता भी उनके साथ हो ली ॥ अभी घर की ड्योढ़ी लांघ भी न पाईं थीं कि गडगमग डोलते हुवे कहीं पाँव उलझ गया ॥ 

मुखरित हो मुनि पथ संकेते । गवनन उत्कट सिया न चेते ॥ 
हरिहरि प्रिय नागर नियराई । प्रियंकर धुनी पूछ बुझाई ॥ 
मननशील मार्ग मुखरित हो गया उसने भवितव्य को संकेत किया । किन्तु उस संकेत पर मुनि स्त्रियों के दर्शन हेतु उत्साहित माता सीता का ध्यान नहीं गया ॥ वे शनै: शनै: पदचाप करते प्रिय देवर लक्ष्मण के निकट आईं और हर्ष जनित ध्वनि में उनसे पूछने लगीं ॥ 

रे मम प्यारे बछुआ, कहँ तुहरे रथ बाहि । 
कहँ बाह कहँ बाहक जौ तपोभूमि लए जाहि ॥ 
अरे प्यार वत्स ! तुम्हारी रथ वाहिनी, उसके वाह, उसका वाहक, कहाँ है ?जो मुझे तपो-भूमि ले जाऐंगे ॥ 


शनिवार,२२ मार्च, २ ० १ ४                                                                                          

हिरनमई रथ सोंह निकेते । अवनत लखमन  किए संकेते ॥ 
लाँघि जोइ  देहरी दुआरी । प्रथम किरन चर चरनन धारी ॥ 
हिरण्यमयी रथ भवन के सम्मुख खड़ा था । अवनत लक्ष्मण न उसकी और संकेत किया ॥ माता ने जैसे ही द्वार की ड्योढ़ी पार की वाइस ही भोर कि प्रथम किरण ने उनके चरण पकड़ लिए ॥ 

अरस परस कर प्रभा गुहारे । निमग्न सिया कानन न घारे ॥ 
कनक कन उदत कहत न जाऊ । पिय पियारी चरन बहुराओ ॥ 
आलिंगन करती हुई प्रभा ने ने दोहाई दी किन्तु निगमन में निमग्न माता सीता ने उसपर ध्यान नहीं दिया ॥ स्वर्णिम धूलि उद्यमित होकर कहने लगी हे माता ना जाओ ! प्रियतम की प्यारी अपने चरण वापस ले लो ॥ 

अरुन चूढ़ मुख करुन पुकारे ।  होर निहोरए करि करि  हारे ॥ 
आकर आकर पदम् प्रफूरे । लवन नयन जल कनिका कूरे ॥ 
मुर्गों के मुख करुण पुकार करने लगे ।  उनकी पुकार माता को रुकने की प्रार्थना कर कर हार गई । पद्माकरों में पदम-पुष्प विकसित  हुवे और उनके सुन्दर लोचन में अश्रु - कणिकाएँ एकत्र हो गई ॥ 

 भरे कंठ कह पलक भिजोई । रे सिय होरन कहु तो कोई ॥ 
कह कह भै सिथिरी अँधियारी । मात सिया भै तव परिहारी ॥ 
वे पलकें भिगो कर भरे कंठ से कहने लगे माता सीता को जाने से रे कोई तो रोको ॥ जब अंधियारी कहते कहते जब थक गई हार गई कि हे माता आपका त्याग हो रहा है ॥ 

सुनी न सिया निज चरन पछौंहे । होरि नहि त पिय प्रात अगौहैं ॥ 
बैस घुटुरु दुहु कर जोरी के । धर पद मुकुल जानकिहि जी के ॥ 
इसपर भी माता ने जब अंधियारी के वचनों को नहीं सूना और वह नहीं रुकी तब उसने अपने प्रियतम प्रभात को आगे किया ॥ घुटने के ऊपर विराजित होकर माता जानकी जी के चरण अपने हस्त मुकुल में धारण कर : -- 
 
प्रथम असंदी  मातु बिराजी । रथिक रछक बन आपन राजी ॥ 
चलउ कहत सूत क्लिन्न लखमन । चले सुमंत्रु करत अभिवादन ॥ 
प्रथम आसंदी पर माता को विराजित किया रथिक एवं रक्षक बनकर तत्पश्चात  स्वयं राजित होकर लक्ष्मण ने क्लिन्न ह्रदय से सारथि सुमंत्र को प्रस्थान करने के लिए कहा । तब महामात्य सुमंत्र अभिवादन करते हुवे चल पड़े ॥ 

हिनांसु धरे अंसुमन, अंसु  नयन कर जोर । 
कहत हे री नीक नियति, बिबस करन मैं भोर ॥ 
चंद्रमा धारण किये अन्धकार ने अश्रुपूरित लोचन से युक्त होकर हाथ जोड़ कर कहा हे प्यारी प्रकृति मैं भोर करने हेतु विवश हूँ ॥ 

रविवार, २३ मार्च, २ ० १ ४                                                                                        

कारज करतब जे जन हीते । तेहि करन रहेँ  कटि बधीते ॥
लखमन आयसु पा बर भ्राता । परिहरन करन सीता माता ॥ 
"जो कार्य एवं कर्त्तव्य समाज और जनता के हीत में हो उन्हें करने हेतु सदैव कटिबद्ध रहना चाहिए" ॥एतदर्थ बड़े भ्राता की आज्ञा  प्राप्त कर लक्ष्मण, माता सीता का त्याग कार्य संपन्न करने हेतु : --  

चले लख बीथि बेहड़ घन बन । परजल्पत पवन बाहि स्यंदन ॥ 
उरत सिय केस उरत सियालू । करत सैन भबि परसत गालू ॥ 
सघन एवं विकट वन की लक्ष्य-वीथि पर रथ वाहिनी द्रुत गति से वायु से वार्तालाप करती चली ।  माता सीता के उड़ाते हुवे केश एवं आँचल उनके कपोलों को स्पर्श कर भवितव्य की सूचना दे रहे थे ॥ 

कहत बहुराए भोरिन भौरे । भौरिन बरनन भँवरत छोरे ॥ 
भँवरत  पथ रथ चरन चकोरे । किए कोलाहल चहुँ ओरे ॥ 
भोर, सीस के भँवर स्वरुप में जो कि शुभाशुभ के सूचक माने जाते हैं कह कह कर एवं भ्रमरों की सी अपनी श्यामल वर्णता को छोड़ कर लौट चला। रथ के चार चरण पथ पर भ्रमरते हुवे चारों और कोलाहा कर रहे थे ॥ 

तबहि लोचन फरकत कुंचिते । होनिहार दुःख बिरह सूचिते ॥ 
निरख नभोचर दिग बिपरीते । सम्बोधत प्रिय नागर सीते ॥ 
तभी माता के लोचन स्फुरित होकर संकुचित हो गए जो आने वाले समय में होनेवाले दुःख की सुचना दे रह थे । नभ मन पक्षीयों को विपरीत दिशा में विचरण करते देख माता सीता अपने प्रिय देवर से सम्बोधित हुई ॥ 

कारे लेख हरिदै तुर द्रवन । तीब्र गति नारि करत स्पंदन ॥ 
सकल दिरिस कहि दरसत बामा । अहै लखन सकुसल सन रामा ॥ 
उनका चिंतन ह्रदय के धड़कन को तीव्र कर रहा था और यह तीव्र गति नाड़ियों को भी तेजी से स्पंदित कर रही थीं । समस्त दृश्यों को विपरीत देख कर माता बोली हे रे लक्षमण प्रभु श्री राम कुशल से तो हैं ॥ 

कर अर्पन परसन चरन, लोचन दरसन पान । 
जगत उदासिन मुनि प्रिया हेतु मोरे प्रयान ॥ 
मेरी यह यात्रा तो संसार से विरक्त मुनियों की स्त्रियों का अपने लोचन से दर्शन पान करने हेतु एवं अपने हाथों से उनके चरण स्पर्श करने हेतु से है ॥ 

सोमवार २४ मार्च, २ ० १ ४                                                                                    

प्रियबर प्रनइन प्रानाधारे । सह दुहु देउर भ्रात तुहारे ।। 
आपद बिपदा लहे न कोई । हे भगवन सब मंगल होई ॥ 
प्रेमी, प्रियवर, प्राणों क आधार स्वरुप श्रीराम सहित दोनों देवर जो तुम्हारे भ्राता हैं  वे कोई आपदा किसी विपदा न घेरी हों । हे प्रभु! सब सकुसल हों ॥ 

हो धरनिहि मह सरबस साँती । त्रसे न प्रिय परजा को भाँती ।। 
बैर न बिग्रह न दुःख संत्रासे । रहे सदा सब आस सुपासे ॥ 
धरती में सर्वत्र शान्ति हो प्रिय प्रजा किसी प्रकार से भी कष्ट न हो । कहीं न हो कहीं वैमनस्य न हो कोई दुखी एवं भयभीत न हो । सभी दिशाओं में सदैव सुखदाई रहें ॥ 

हो ना कोइ कहुँ को उपाधी । दूरै रहे बिपलौ बियाधी ॥ 
हो सब कारज जनहित कारी । सुख पूर्वक रहै नर नारी ॥ 
कहीं भी कोई उपद्रव न होए । कष्ट,संकट,शत्रु-भय, अस्थिरता, अपहरण, अत्याचार, दुष्टता रोगादि दूर ही रहें । समस्त कार्य जन समूह के कल्याण करने वाले हों । सभी नर-नारी सुखपूर्वक रहें ॥ 

कहुँ को दावानल ना जागए । बयरु करत को काहु न लागए ॥ 
पाए सब जीउ जिउन धिकारे । नियति दिरिस  रह सदा उदारे ॥ 
कहीं कोई दावाग्नि न जागे । वैर करता हुवा कोई किसी से झगड़ा न करे । सभी जीवों को जीवन का अधिकार प्राप्त हो । प्रकृति की दृष्टी मन सदैव उदारता हो ॥ 

सब कहुँ सुभ ताति चिंतत सुख मानत हिय माहि । 
करत पूछ लखन सों सिय, एहि  बिधि संसइ लाहि ॥ 
सर्वत्र अभ्युदय का चिंतन कर सबकी शुभाकांक्षा कर मनो-मस्तिष्क संसय कर इस प्रकार माता ने भ्राता लक्ष्मण से सब की कुशलता पूछी  

मंगलवार, २५ मार्च, २ ० १ ४                                                                                     

लखमन हिय घर दुःख घन घारे । थिर नयन पथ पलक पट  ढारे ॥ 
द्युति सरिस प्रभु बचन दमंके । बहुत कठिन कर बाँधे अंके ॥ 
लक्ष्मण के ह्रदय-भवन को दुःख के बादलों ने घेर लिया । पथ पर स्थिर नयन पर पलक-पट ढुलक आए ॥ प्रभु के वचन किसी बिजली के सरिस कौंधने लगे । उस दुःख के बादल ने अंक को  अत्यधिक कठिनता पूर्वक बांधा ॥ 

बचन बध  बिबस भयउ असहाए । कहन चाह कछु  कह नहीं पाए ॥ 
कण्ठन तालउ भावक गाढ़े । लख पथ रथ तनि आगिन बाढ़े ॥ 
वे प्रभु के वचनों से बंधे हुवे थे अतएव असहाय स्वरुप में कहना चाहे भी तो कुछ कह नहीं पा रहे थे ॥ कंठ तालव्य में भाव प्रगाढ़ हो गए और अपने लक्ष्य पथ पर रथ क्वचित अग्रसर हुवा ॥ 

दरसे  सिया लोचन अभिरामा । बहुतक मृग गमनए पुर बामा ॥ 
जे दरसन दारुण दुःख सैनी । जेहिं लेखत बोलि मृगनैनी ।। 
फिर माता सीता के अभिराम नयनों ने देखा कि बहुंत-से मृग बायीं ओर से घुमाकर निकल रहे हैं । यह दर्शन भयंकर दुःख की सुचना देनेवाला था । जिसे भानकर  उस मृगनयनी ने ( मनमें )बोलीं  : -- 

फेर फिरत मृग पग बिपरीते । निकस रहे सो अहै सुधीते ॥ 
श्रीराम रमन के जो रमनी । छाँड़सि चरन अवर पुर गमनी ।।
मृगों के चरण विपरीत फेर फिर कर निकल रहे हैं सो उचित ही है जो श्री राम जैसे रमण की रमणी है । और वह उनके चरणों का त्याग कर अन्यत्र प्रस्थान कर रही है ॥ 

पतिब्रता नार धर्म न दूजा । पति पद वंदन पति पद पूजा ॥ 
एतदर्थ मम दूषन कृत हुँते । मिलै दंड सो न होहि बहुंते ॥ 
पतिव्रता नारी का कोई दुसरा धर्म नहीं है उसका यही धर्म है कि वह पति क चरणों की ही वंदना करे उनके पदों का ही पूजन करे ॥इस लिए मेरा यह प्रस्थान पापकृत्य है इसका मुझे जो भी दंड मिले वह अधिक नहीं होगा ॥ 

सिय मन सरनिहि संचरै, परमारथी बिचार । 
रथ चक चोख चिलक चिलक, लख लख संचर चार ।।  
माता सीता के चित्त की सरणी में ये परमार्थी विचार विचरण कर रह थे । और रथ के चक्र तीव्र स्वरुप में टसकते हुवे,चकाचौध दृष्टि से अपनी लक्ष्य वीथि में संचालित थे ॥ 

बृहस्पतिवार, २७ मार्च, २०१४                                                                                     

तात मात प्रियवर प्रिय नागर । देवल मंदिर अजोधा नगर ॥ 
निर्झरनी सर सरयू सरिता । हलबल तलहट तीरत तरिता ॥ 
तात-मात प्रियवर प्रिय देवर सहित अयोध्या नगरी क घर-द्वार निर्झरनियां, ताल-सरोवर, सरयू सरिता, तलहट पर तैरती चंचल तरणि : --  हाट बाट कल कानन सुन्दर । श्रृंग सिखर दृढ़ चेतस भूधर ॥ 
नगर नागरी गौवनु गाछे । एक एक कर सब छूटत पाछे ॥ 
हाट-हटियार, मार्ग सुहावने सुन्दर उपवन । श्रृंग से शिखर धारण किये रीड चित्त पर्वत । नगर के नागरिकजन गौवन तरुवृंद एक एक कर सभी पीछ छूटत चले गए ॥ 

भर निहार गवनै अँधियारी । करत रुदन सन अरु अरुनारी ॥ 
धाए धूरबह दूरहि  दूरै । भर धुर ऊपर धूरहि धूरे ॥ 
अंधियारी नयनों को रक्तिम कियेरुदन करती निहार भर कर लौट गई । रथ के अश्व दौड़ते हुवे अक्ष को धूल धूसरित कर आँखों से ओझल हो गए ॥ 

 तंटक तरु घनवर अस लागे । जोगि सिय जस रैन के जागे ॥ 
लख बिजोग बिकल सब ठाढ़े । जहँ तहँ मनहु चित्र लिखि काढ़े ॥ 
 मार्ग के के ततक परके तरुवरों का मुख मंडल ऐसा प्रतीत होता जैसे वे रात के जागे हों और माता सीता की प्रतीक्षारत हों ॥ 

उत राम सोक मगन कहि, सिय सिय सुध बुध भूर । 
अवने तुअँ तेतक निकट, गवनै जेतक दूर ॥ 
उधर भगवान श्रीराम शोक में निमग्न होकर कहते हैं सीता हे सीता तुम मुझसे जितनी दूर होती जा रही हो मेरे ह्रदय के उतना ही निकट आ रही हो ॥ 

शुक्रवार, २८ मार्च, २ ० १ ४                                                                                  

आह सिया भै अस परिहाई । मम सों  जग को निठूर नाही ॥ 
प्रीत प्रतीत अस मैं त्यागा । हारे हरि कँह आपनि अभागा ॥ 
वैदेही इस प्रकार त्यागी गई आह ! संसार में मुझसा कोई निष्ठूर न होगा ॥ प्रभू हार के अपने को अभागा मानकर कहते हैं आह!  मैने प्रीति को प्रतीति को किस प्रकार  त्याग दिया ॥ 

गवनि  सिया बन बचन प्रमाने । तिलछ  राम मन मान गलाने ॥ 
जान त्याजन का कहि भोरी । भइ कठोर कास प्रीतिहि मोरी ॥ 
माता सीता प्रभु के वचनों को सिद्ध करने हेतु वन में चली गईं । और तासापते हुवे भगवान श्रीराम का मन ग्लानी से भरा है ॥ जब वह अबोध अपने त्याग की बात जान जाएंगी तब वह मुझे क्या कहेंगी । 

बिरहा जुगित रैन के जागे । एकहू घरी पलक न लागे ॥ 
प्रान प्रिया भा सुधा मयूखा । हरि आनन भय चातक मूखा ॥ 
प्रभु बिरह से योगित होकर रात्र से जागृत हैं उनकी पलकें एक घड़ी भी नहीं लगी ॥ प्राण प्रिया माता सीता जैसे चंद्रमा हो गईं । और हरि का श्रीमुख चातक का मुख हो गया ॥ 

पेम पयस जस चातक चाहे । हरि रसना तस तिस्ना लाहे ॥ 
कभु मन कभु बन भवन टटोरे  । मौनी मुद्रा भाउ सब बोले ॥ 
जिस प्रकार चातक प्रेम पीयूष को पाने की कामना करता है। प्रभु श्रीराम कि जिह्वा वैसे ही तृष्णा को प्राप्त है । वह माता सीता को कभी अपने मन को कभी उपवन को कभी भवन में ढूंडते हैं उनकी मुख-मुद्रा मौन धारण किये है किन्तु अंतर-भाव मुखरित हैं ॥ 

नलिन नयन पुर पलक पँवारी । ठाढ़ि पीर सिय सियहि पुकारे ॥ 
नहीं जग को तुअँ सों दुखदाइ । हे  री बिरहा दुहाइ दुहाइ ॥ 
नलिन के जैसे नयन के नगर में पलकों के गोपुर पर पीर खडी है और सीता-सीता ही पुकार रही है । हे विरहा दुहाई है तुम्हारे जैसा दुःख देने वाला संसार में कोई दुसरा न होगा ॥ 

धीर सांत के धुरंधर  , ताछन भयौ अधीर । 
छाइ नयन घटा घन घन, बरसे छन छन नीर ॥ 
जो धीरता एवं शांति के प्रतीक स्वरुप हैं वही उस समय आधी हो उठे । उनके नयन-पटल में घनघोर घटा छा गई । उससे प्रतिक्षण अश्रु की वर्षा होने लगी ॥ 

नीर पीर के क्षीर दुइ , दोनहु हिया समाए । 
बिरह ऐसेउ बिदारे, नीर बिलग बह आए ॥ 
नीर और पीड़ा रूपी क्षीर दो,  दोनों  सम्मिलित होकर ह्रदय में समाए हैं । विरह ने उन्हें ऐसा विदीर्ण किया कि दोनों पृथक हो गए, पीड़ा ह्रदय में रही और नीर नयनों से उतर आया ॥ 

शनिवार, २९  मार्च, २ ० १ ४                                                                                    

होत अपसगुन बहु चहु पासा । घारि धनब घनमल चहुँ आसा ॥  
इत धूरबह चलेउ अति आतुर । पार करत बहु गाउँ नगर पुर ॥ 
चारों और बहुंत से अपसगुन हो रहे हैं जी होवनिहार दुःख के दूतक हैं । आकाश ने  चारों दिशाओं को घन से मलिन कर दिया  ॥ इधर माता सीता को ल जाने वाई रथवाहिनी के वाहि बहुंत से ग्राम, पुर,नगर पार करते हुवे अत्यंत तीव्रता पूर्वक अग्रसर हैं । 

तबहि कहि सों सुर धुनिहि आई । कानन कल कल नाद सुहाई ॥ 
देखि सम्मुख सुरसरि पुनीता । सिरोवनत प्रनाम करि सीता ॥ 
कि तभी कहीं से स्वर धारण किये हुई ध्वनियाँ प्रकट हुईं । कानों में उनका का-कल निह्नाद सुहावना प्रतीत हो रहा था ॥ और माता सीता ने परम पावनी सुर-करींद्रदर्पापहा को सम्मुख देख शीश प्रणयित कर उन्हें प्रणाम अर्पण किया ॥  

जिनके पवित दुआरि अलिंदा । निबास रत बिप्रगन मुनि बृंदा ॥ 
बूंद बूंद जो जीवन घारे । कहत जिन्ह मुकुतिहि के द्वारे ॥ 
जिनके पवित्र द्वारायण में सुर मुनिजन एवं विप्रगण निवास करते हैं ॥ जिसकी प्रत्येक बिंदु में जीवन समाहित हैं । जिन्हे मोक्ष का द्वार भी कहा जाता है ॥ 

जिनकी पौरि सुरग सोपाना । सुधि बुधि बिरधा करत बखाना ॥ 
छाँड़ेसि भू भुवन स्वयम्भु के । उतर धरी पुनि सीस संभु के ॥ 
जिसकी पौड़ी स्वर्ग ( एक कल्पना-लोक जहां समस्त भवभूति धारण किये सुख निवास करता है) सोपानपथ है । बुद्ध प्रबुद्ध एवं बृद्धजन जिसका व्याख्यान करते हैं ॥ ब्रह्मा का भूमि उनका ओके त्याग कर जो पृथ्वी-लोक पर उतरी और फिर भगवान शिव शम्भू के शीश पर धारण की गई ॥ 

हे सुर तरंगिनी गगनांगिनी हे अति पवित पावनी । 
कलिमल दुरावनी अघ नसावनी महा दोष पलावनी ॥ 
तुहरे निर्मल जल , रवकल निष्छल, प्रतिपल निहनाद करे । 
मुख परबतेस्वर गुंजत हर हर जस कल कूनिका धरे ॥ 
हे सुर तरंगिणी, हे कलयुग की कलुषता को दूर करने वाली, पापों का नाश करने वाली दोषों का पलायन करवाने वाली, गगन से उतरने वाली अत्यधिक पवित्र पावन अप्सरा।। तुम्हार इस निर्मा जल की निश्छल सुमधुर ध्वनि पर्पल अस निनाद करती है जैसे पर्वतेश्वर हिमालय कलवीणा धारण किये है और उनके मुख से हर हर का स्वर गुंजयमान हो ॥ 

मेलन आपन पत भूतल थिरकत रुर नुपूर चरन धरे । 
सुरग श्री बिधाने, दिए बरदानें खन खन हिरनई करे ॥  
नदी कल नंदिनी कूल कुलीनी, सुरग सोपान बरे । 
जिन्ह के अलिंदा, सुर मुनि बृंदा, सुख सहित निबास करें ॥   
और आप अपने प्रियतम के मिलन हेतु भूमि के ताल पर चरणों में सुन्दर नुपूर धारण किये हुवे नृत्य कर रही हो । हे स्वर्ग का वैभव आपको विधाता न हमें वरदान स्वरुप दिया है आपने ( भारतवर्ष के )खंड खंड को हिरण्यमय कर दिया ॥ हे पवित्र भानुमति आपने अपने तट के स्थान पर स्वर्ग का सोपान पथ वरण किया है ( ऐसा बुध प्रबुद्ध जन कहते हैं ) जिस के द्वारालिंद एव एवं मुनिगण क्या दाण्डीजनिक भी सुख सहित निवास करते हैं ॥ 

गवनु बन बासे जग सों उदासे चौदसि बरसि बितायो । 
पूरित भए काला, सन जनपाला, अवध धाम बहुरायो ॥ 
पथ दरसन धारत, तीर उतारत , प्रभु पौरी परनायो । 
हरषित गंगा अहिबात अभंगा तब सुभा सीस दायो ॥ 

                                           सुन्दरा सागर बरे । 
रूप की रासि, जगत सुपासी, माला बन कंठन उतरे ।।  

जाके रज रज निर्मला, कन कन जीवन दाइ । 
जहँ मलिनहु भए बिमला, वाके सिय जस गाइ ॥  

रविवार, ३० मार्च, २ ० १ ४                                                                                               

एहि बिधि गंगा के तट पैठी । अस्तुति करत सिया रथ बैठी ॥
हो भाव प्रबन जल नयन भरे । कठिनई लखन मुख बचन बरे ॥  

कसकत हरिदै हहरत गाता । हरुवर बोलै हे मम माता ॥ 
हे जननी अब बिलम न कारू । गमन हमहि तिन्हिनि के पारू ॥ 

सुनि नागर सिय नयन नवाई । उतरत रथ तट चरन बढ़ाई ॥ 
 जीवन दाइनि भरी तरंगे । दोइ तीर अरु ठाढ़ एकंगे ॥ 

निर्मल नीरज कन सिरुधारी । दोइ बिंदु का कंठ उतारी ॥ 
जै सुरसरि जै नीर अपारए। भइ पवितित मैं सरन तुहारए ॥ 

गंगोदक धारी धरा, उदक धर पदालिन्द । 
धरा सुता उद सिरौधार, धरे चरनारविन्द ॥ 

सोमवार, ३१ मार्च, २ ० १ ४                                                                                         

प्रभु संगिनि देखत अति हरषी । देउ सरि कर मोह मति करषी ॥ 
नदी नंदिनी नन्द निनादे । उमगत जल निहनन निहनादे ॥ 

तरंग नबीन पौरि पुरानी । पुरान बखान नित नउ पानी ॥ 
करुबारहि कर करनइ धारे । चारत हरिअरि कारत पारे ॥ 

कंठ पुकारत हर हर गंगे । बरन भजन हरि रंजन रंगे ॥ 
सुनी रघुबी प्रिया बैदेही । दरस दीठ बहु सीट सनेही ॥ 

सुर संगति कर धुनी सुहाई । नदन बादन बृंद की नाई ॥ 
चरए करुबारि धीरहि धीरे । तीरत तरनिहि तारत तीरे ॥ 

जाह्नबी कन तन लावन, निलयन निमल नीर । 
पर्बतेस्वर पितु नगर, पियघर सागर तीर ॥