Tuesday 28 April 2015

----- ॥ उत्तर-काण्ड ३१ ॥ -----

बृहस्पतिवार,१६ अप्रेल, २०१५                                                       

 एक रघुबर एक जनक किसोरी । दुहु महि के मंगलमय जोरी ॥ 
जासु कृपा अस काज न कोई  । बछर तईं जो सिद्ध न होई ॥
एक रघुवीर और एक जनक किशोरी ये दोनों इस पृथ्वी के मंगलमय युग्म हैं | इनकी कृपा हो तो ऐसा कोई कार्य नहीं है जो इस भक्त वत्सल से सिद्ध न हो | 

दयाकर चरन भगति सँजोई । मम कहि अबलग सत्यहि होईं ।
जो मैं अपनी कही न करिहौं । सो पातक मैं निज सिरु धरिहौं ॥ 
यह दयाकर के चरणों की भक्ति का प्रताप है कि  अब तक सत्य हुवा है | यदि में अपने कथनों को सत्य न करूँ तो मैं उस दोष को भागी होऊंगा | 

नीचि जाति जो काम सम्मोहि  ।  मोह बस त्रिमुखि तिय संग होहि ॥ 
जेहि गंधत  नरक माहि परें । परसत पतत निज दुरगति करें ॥ 
जो काम में सम्मोहित निम्न जाति के कुलहीन पुरुष को मोहवश ब्राह्मणी के साथ समागम करने से लगता है | जिसके गंध लेने मात्र से मनुष्य नरक में जा गिरता है, जिसके स्पर्श मात्र से नरक में भी अपनी दुर्गति करता है  | 

जाकर नाउ प्रभाउ कराला । सुरा बारि बर कलुषि किलाला ॥ 
लालस बिबस रसनी रसनाए । जोइ पुरुष अस  पाप रस पाए ।। 
जिसके नाम का प्रभाव ही विकराल है  वह मदिरा मदिरा हो कर अति कलुषित विष है जो पुरुष अपने जिह्वा के स्वाद वश इस पापरस को प्राप्त करता है  

तासु सिरु जो दोष धरे, सोई मम सिरु होहि । 
कहे बचन सहित जो मम, किए पन  पूर न होहि ॥ 
यदि मेरे कहे हुवे वचनों के साथ यदि मेरा प्रण पूर्ण न हो तो उसको जो दोष लगता है,वही  दोष मुझे लगे | 

शुक्रवार, १७ अप्रेल, २०१५                                                            

राम कृपाकर के बल जोहिहि । मोर करे पन पूरन होहिहि ॥ 
कह जब हनुमत उरगाई । सबहि क्रोध बस भुजा उठाईं ॥ 
कृपा के भंडार श्री रामचंद्र के बल से ही मेरा की हुई प्रतिज्ञा पूर्ण होगी, इतना कहकर हनुमंत मौन हो गए तब सभी वीरों ने क्रुद्ध होकर अपनी अपनी भुजाएं उठा कर कहा -- 

 तेहि बधबु रन हम निज पानी । फिरे मरन सठ मन महुँ ठानी ॥   
अमित तेज मुख जब लहकोरे । घनकत घन के द्युति लजोरे ॥ 
उस राक्षस को हम अपने हाथों से मारेंगें, वह दुष्ट अपनी मृत्यु का निश्चय कर उन्मुक्त विचरण कर रहा है | उस समय उन सभी वीरों के मुख का दमकता हुवा अमित तेज गर्जना करते हुवे मेघ की ज्योति को लज्जित करने वाला था | 

प्रनधारि पुनि चरनन्हि परने । सत्रुहन जुद्ध बीर जस बरने ॥ 
साधु साधु कहि बहुरि बहूरी । करे प्रसंसा भूरिहि भूरी ॥ 
प्रणधारियों ने  जब शत्रुध्न के चरणों को प्रणाम किया तब उन्होंने  उन युद्ध विशारद वीरों की सुन्दर कीर्ति का वर्णन किया और वारंवार साधुवाद देते हुवे उनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की | 

सैनि सैनि सहुँ चहुँ दिसि देखे । करक बचन निज पन कहि लेखे ॥ 
तुहरे पन गन मैं गन नायक । सान रथ चढ़े एहि मम सायक ॥ 
प्रत्येक सैनिक पर दृष्टिपात करते हुवे फिर इन कठोर वचनों से फिर उन्होंने अपनी सौगंध कही -- 'यदि तुम्हारा प्रण गण है तो मैं गण नायक हूँ और कसौटी के रथ पर चढ़े ये मेरे सायक हैं | 

चरत निबेरत  निपातिहि दुष्ट दनुज के माथ । 
अजहुं भुजा उठाए कहउँ गंगा जल धर हाथ ॥ 
 प्रत्यंचा से छूटते ही ये निश्चित ही उस दुष्ट दानव के मस्तक को धड़ से पृथक कर गिरा देंगे  | मैं हाथ में गंगाजल लेकर प्रतिज्ञापूर्वक यह कहता हूँ कि

रविवार,१९ अप्रेल,२०१५                                                                                       

जे सायक निज लख नहि लाखिहि ।हरत हिरन आपन पहि राखिहि  ॥ 
ब्रम्ह दूषत दोष जो  लागी। होइहौं तस पाप के भागी ॥ 
यदि ये सायक अपने लक्ष्य से भटक गए तो जो पाप  स्वर्ण का हरण करने वाले को लगता है जो पाप ब्राह्मण की निंदा करने से लगता है मैं भी उस पाप का भागी बनूंगा | 

रिस भाव भर बीर रस सानी।सुनि घनकन निभ  करकत बानी ।। 
रन उत्कट भट  बचन उचारे । रामानुज लघु नाथ हमारे ॥ 
रोष के स्थायी भाव और वीर रस से ओतप्रोत शत्रुध्न की गर्जते मेघों के समान कड़कती वाणी को सुनकर रण उत्कट सैनिकों ने कहा --' रामानुज आप हमारे लघु नाथ हैं |

करे प्रतिग्या जग अस कोई ।तुहरे इतर अबर को होईं ॥ 
सठ आपन पो  नग निभ जाना । तासु  बाहु बल कनिक समाना ॥ 
आपके इतर ऐसी प्रतिज्ञा करने वाला इस संसार में दुसरा कोई है ?  भुजाओं में उसकी कण मात्र का बल है और वह दुष्ट स्वयं को पर्वत के तुल्य समझता है | 

तुहरे भुजदल अस बल आही । छिनु भर माहि ताहि बिनसाहीँ । 
बहुरि घन जस  गरज घन घोरा । कासि  कसत कोदंड कठोरा ॥ 
आपके भुजदंडों में ऐसा सामर्थ्य है जो क्षण में ही उसका विनाश कर देंगे | ततपश्चात गहन के जैसे घनघोर गर्जना करते उन्होंने मुष्टिकाओं में कठोर कोदंड कसे 

 कहत चले  जय जय रघुराई |  हर्षोत्फुरित लघुबर भाई ।
दुष्ट दनुज के हूँति सकोरे । चले  सेन सन रन भू ओरे ॥ 
 रामचंद्र जी का जयघोष हुवे फिर उनके हर्ष-प्रफुल्लित अनुज, दुष्ट दानव को ललकारते हुवे समस्त सेना को साथ लिए  रण भूमि की ओर चल पड़े | 

चतुर अंगी राग रहे  रंग रहे रन  साज । 
इच्छाचारि जानोपर रजे दिखे दनुराज ॥ 
चतुरंगी, सैन्य सामग्रियों ध्वनि रूपी वादन के संगत जय घोष का गान कर रही थी  कि इतने में ही उसे स्वेच्छाचारी विमान पर विराजित दनुराज विद्युन्माली दिखाई दिया | 

सोमवार, २० अप्रेल, २०१५                                                                                             

गजगामिनी कटकु चतुरंगा | बाजि पदाजि हसति रथ संगा ||
सचिव सुमति पुष्कल हनुमंता | रन बिषारद दरस  दनु कंता ||
कहै अहैं कहँ तुहरे राऊ । ररत आए तुअ जिनके नाऊ ॥ 
हरानत हतत भागत भोरे ।चोर चरन सम कहाँ बहोरे ॥ 

दनुजपति ने हाथी,घोड़े, रथ, चमुचरादि से युक्त गौरान्वित चाल चलती चतुरंगिणी सेना के साथ युद्वि विशारद सचिव सुमति, पुष्कल, हनुमंत जैसे वीरों को रण भूमि में उपस्थित देख कर कहा -'अरे ! तुम्हारे वह राजा कहाँ हैं, जिसका नाम का तुम निरंतर जपते रहते हो | मेरे मित्र लंकापति रावण का वध कर वह कहाँ भाग गया ? उसके चोर-चरण कहाँ को लौट गए ?  

कहत जगत रामानुज जासू ।तासु केर मैं रक्त पिपासु ।। 
दोउ भ्रात मोरे तें मारे । निकसहि   कंठ रकत के धारे ॥ 
लोग जिसे रामानुज कहते हैं मैं उसके रक्त का पिपासु हूँ |  आज ये दोनों भ्राता मेरे हाथों से मारे जाएंगे, और उनके कंठ से रक्त-धारा प्रस्फुटित हो उठेगी |

रावन सम प्रिय हितु मैं हारा  । रक्त पान लहिहउँ प्रतिकारा ॥ 
 कहत दनुज अस नख सिख तोले । बलवत पुष्कल करकत बोले ॥ 
मैने रावण जैसे परम मित्र को खोया है एतएव उस रक्त का पान कर मैं उसका प्रतिशोध लूंगा |' ऐसा कहते हुवे  दनुज ने नख से लेकर शीश तक देखते हुवे प्रतिपक्ष के बल को मापा तब बलशील वीर पुष्कल बोले --

 रे अधमी निसिचर मतिहीना । असूयक भयो घमन अधीना ॥ 
 करत आप मुख आप बढ़ाई । कहत  झूठ फुरि गालु बजाईं ॥ 
'रे अधर्मी निर्बुद्धि राक्षस !अहंकार के अधीन होकर दूसरों के गुणों में भी दोष निकाल रहे हो ! अपने मुख से अपनी ही प्रशंसा करके असत्य को भी सत्य कहकर लम्बी डींगे हाँक रहे हो |

फोर जोग सिरु तोर अभागा ।  खल हितू  कहा भल सन  लागा ॥ 
आए दीप पहि बरन  पतंगा ।आए इहाँ तस होत बिहंगा ॥ 
तुम्हारा मस्तक तो फोड़ने योग्य है बुरे को अच्छा कहते हुवे अच्छाई से भिड़ने पर तुले हो | पतंगा जल मरने के लिए दीपक के पास आता है विमान उड़ाते हुवे तुम भी वैसे ही हमारे पास आए हो | 

धर  कपाल घर अधर  बुधि अबर आपनी जान । 
गरजत बादर बरस बिनु गरुअत दए  गरिआन ॥ 
कपाल वहीँ होना चाहिए जहाँ बुद्धि हो | तुम्हारा कपाल गृह तो धड़ में है किन्तु बुद्धि अधर में है, और तुम स्वयं को सर्वश्रेष्ठ कहते हो ?  अहंकार में तुम हमसे दुर्वादन कर रहे हो ? इतना समझ लो गर्जते बादल बरसते नहीं है | 

मंगलवार,२१ अप्रेल २०१५                                                                                

बल न बड़प्पन बोल बड़ तोरे । डूबत नउका के हिचकोरे ॥
बोले बीर निज बिक्रम संगे । बरें कोप मुख भू रन  रंगे ॥
बल में बड़प्पन नहीं और तुम्हारे बोल  बड़े बड़े ? अरे ! डूबती हुई नौका के हिचकोले ! वीर अपने पराक्रम के बल से बोलते हैं बड़े बड़े बोलों से नहीं |  वीर आक्रोश से भरे मुख मंडल लिए रण भूमि में बोलते हैं, इधर-उधर नहीं | 

बरखत घनघन घन  के नाई ॥ बोले बीर गहन सर ताईं ॥ 
हने सीस सो धारा सारी । परे लोहु न त घर लोहारी ॥
वीर बरसते घोर बादलों के समान घोर बाणों से बोलते हैं, बढ़ी हुई बोली से नहीं | जो शत्रु  का शीश धड़ से अलग कर दे वही तलवार है, जो शत्रु पर प्रहार करे वही हथियार है अन्यथा तो वह घर में पड़ा कबाड़ है | 

जोईं कृपाकर बहुंत सुभिता । हतेउ हरानक सैन सहिता ॥ 
जग जीवन जग तारन हारे । तासु नाउ ऐसेउ पुकारे ॥
जिस कृपासिंधु ने बड़ी ही सरलता से लंका पतिरावण को सेनासहित रौंद दिया था | जो जीवन के आधार स्वरूप हैं जो इस संसार सागर के तारणहार हैं उनका नाम क्या ऐसे पुकारते हैं ? 

गयऊ न कतहुँ बर बर नाहू । मेधि तुरग हर तुअ कहँ जाहू ।।
अजहुँ त घमन भरी बत करिअहु । हार खाए पुनि हरि हरि ररिअहु ॥
बड़े बड़े राजा-महाराजा कहीं नहीं गए तो मेधीय तुरंग हरण करके तुम कहाँ जाओगो ? इस समय अहंकार पूरित वचन कह रहे हो जब परास्त होकर मरणासन्न हो जाओगे तब तुम भी हे राम ! हे राम ! ही जपोगे | 


रन हुँत बिकल पुष्कल मुख जब अस बचन उचारि । 
बिद्युन्माली सिध बाँध बलबत साँगि प्रहारि ॥ 
युद्ध के लिए उत्कंठित पुष्कल के मुख जब ऐसे वचन उद्धृत हुवे तब विद्युन्माली लक्ष्य साध कर शक्ति का बलपूर्वक प्रहार किया | 

बुधवार, २२ अप्रेल, २०१५                                                                                          

सररत चरत सर सरपट धाए ।नियरे हरिदए भवन अतुराए ॥ 
संकट सनिकट आगत  देखे । गहि कर पुष्कल बान बिसेखे ।।
लक्ष्य पुष्कल का ह्रदय भवन था एतएव सररर की धवनि कर वह बाण सरपट दौड़ा और लक्ष्यक के निकट पहुँच गया |  संकट को निकट आते हुवे देख पुष्कल ने एक विशेष बाण हस्तगत किया | 

करत कोप बहु रसन सँजोगे । करष करन लग  बहुरि बिजोगे ॥ 
दुष्ट दनुज  के बान प्रचंडा । मारग महुँ भयउ खंड खंडा ॥ 
अत्यंत क्रुद्ध होकर उन्हें प्रत्यंचा से संयोजित किया और कान तक खैंच कर उन्हें फिर वियोजित कर दिया | दुष्ट दानव के प्रचंड बाण मार्ग में ही खंड-खंड हो गया | 

छाँड़े बहुरि बान  के पूला ।चले गगन पथ गह तिख सूला ॥ 
चरत बेगि गति  दमकिहि कूला । दमकत द्यु पत के समतूला ॥ 
तत्पश्चात बाणों का एक पुंज तीक्ष्ण शूल धारण किए गगन पथ पर चला | तीव्रगति को प्राप्त  करने पर उसके कठार दैदीप्त होते हुवे द्युपति सूर्य का आभास दे रहे थे | 

तृपत तपस भेदिहि जस राती । भेदिहि तस दानव  के छाती ॥ 
लगत रकता धार कस छूटे । करत बिभात किरन जस फूटे ।। 
चन्द्रमा को संतापित करके सूर्य जिस प्रकार रात्रि का विभेदन करता है, बाण ने भी उसी प्रकार  दानव के हृदय भवन का विभेदन कर दिया | बाण के घात चढ़ाते ही रक्त की धार ऐसे छूट पड़ी जैसे उस सूर्य रूपी सिलीमुख से प्रभात करती हुई किरणे फूट रही हों | 


खात घात  निसिचर चित्त अवचेतस बिहुराए । 
घुरमत भा सिरु चाकरी,  मुरुछा सहुँ घेराए  ॥
घात पर चढ़ते ही दानव के चित्त से संचेतना विस्मृत हो गई | घूर्णनकरता हुवा शीश चक्रवात की चक्री जैसा हो गया, अंततः मूर्छा ने उसे घेर लिया | 

शुक्रवार ,२ अप्रेल, २०१५                                                                                      

भरे पीर कर बान सँजोगे । परेउ  कामग जान बियोगे ॥ 
दानउ देहि रन भुँइ चीन्ही । धनबन धूरि धूसर कीन्ही ॥ 
हाथ में बाण लिए वह दानव पीड़ा से भर उठा , इच्छाधारी विमान से वियोजित होकर युद्ध-भूमि का लक्ष्य करती उसकी देह ने स्वच्छ गगन को धूल से धूसरित कर दिया  | 


गाढ़ रकत  उर भवनन रंगे ।रहे कलुष पुनि भयउ सुरंगे ॥
भरे अँगीरि धरे अस छाँती ।बरे अँगारि करे अस काँती ॥
गाढ़े रक्त ने ह्रदय भवन को रंजीत कर दिया, कलुषित तो वह था ही बाण के उतरने से अब उसमें सुरंग भी हो गई थी | उसका वक्षस्थल ने जैसे भरी हुई अंगीठी को धारण कर लिया था वह और ऐसे चमक रहा था जैसे जलते अंगारे चमकते हों | 

हत बाधित दनु के लघु भाई । उग्रदत्त जेहि कहत  बुलाईं ॥
रन आँगन रहेउ बिदमाना । बर भ्राता निपतत जब जाना ॥
हताहत दानवराज का अनुज रणांगण में उपस्थित था जिसे उग्रदत्त के नाम से पुकारा जाता था, अपने अग्रज को धराशायी देखा -

दोउ प्रलंबित भुजा पसारा ।गहे जान  अंतर पैसारा ॥
रहँ बाहिर त रिपुहु रनबंका  । हतवत हेतु रहेउ ससंका ॥
तब उसने अपनी दोनों  प्रलंबित व् प्रस्तारित भुजाओं से पकड़कर उसे विमान के अंतर में प्रविष्ट किया  | बाहिर रहने से उसे शत्रुपक्ष  के युद्धवीरों के हाथों अनिष्ट को प्राप्त होने की आशंका थी | 

उर पीर भरे मुख कोप धरे कहै धनु जीवा बिततते ।
करत अघात निपात मम भ्रात जाहु कहँ रे दुर्मते ॥
करत रहेउ उग्रदत्त एही बात लोहितमन नयन करे । 
दस पुंज सर  कुञ्ज घर पंख बर पुष्कल कर आन भरे ॥ 
हृदय में पीड़ा, मुख-मंडल पर क्रोध लिए फिर उसने धनुष की प्रत्यंचा खैंचते हुवे कहा - मेरे भाता को घात कर धराशायी कर दिया? रे दुर्मते ! अब तू कहाँ जाएगा ? उग्रदत्त अपने लोचन को लाल किए यह वार्ता कर ही रहा तभी पुच्छल भाग में पंख को वरण किए दश बाणों का समूह कुञ्ज रूपी तूणीर से निकलकर पुष्कल के हाथों में भर गए | 

करषत लमनइ लस्तकी लागे गगन दुआरि ॥ 
लहुरे दानउ उरोपर,किए बहु बेगि प्रहार ॥
धनुष की मूठ को कर्षित कर इस भांति लंबा किया कि गगन के द्वार से जा लगा तत्पश्चात  कनिष्ट दानव के हृदय में तीव्रगति से प्रहार किया | 

रविवार,२६ अप्रेल, २०१५                                                                                          
छतबत  हरिदै घहन धँसाईं । ब्याकुल दनु  कास निकसाई ॥ 
घात  खाए ब्याध समतूला ।धरे हस्त एक बरत त्रिसूला ॥ 
हृदय को छित्त-विच्छित्त करते वह बाण समूह गहरे जा धंसे तब व्याकुल दानव ने उन्हें कर्ष कर बाहर निकाला और चोट खाए हुवे व्याल के समान एक जलते त्रिशूल को हाथ में लिया | 

सूल मुख मंडल अस दरसाए । बरेउ  अगन त्रै सिखा उठाए ॥ 
चरे बेगि पुष्कल कर आगै । बढे हरिदै  कुलिस सम लागै ॥ 
त्रिशूल की मुखाकृति ऐसे दर्शित हो रही थी जैसे त्रिशिखा उठाए अग्नि प्रज्ज्वलित हो रही हो | पुष्कल का लक्ष्य कर वह वेग से चले और उसके हृदय पर वज्र सा प्रहार किया | 

भयउ अचेत चेतस बिसारिहि । परेउ भुइ  जय राम पुकारिहि ॥ 
पूर निभानन दुःख मैं पागै । तमस कांड करत तमि जागै ॥ 
इस प्रहार से पुष्कल की चेतना विस्मृत हो गई जय राम जय राम की पुकार कर वह भूमि पर गिरकर अचेत हो गए |   पूर्ण चन्द्रमा के समान कान्तियुक्त मुख-मंडल पीड़ा में डूब गया फिर उस पर घना अन्धकार व्याप्त करती हुई मूर्च्छा जागृत हो गई | 


भरत तनुज मुरुछित जब जाना ।भए कुपित अति बीर हनुमाना ॥  
देखि उरस  घात गंभीरा । एहि  बचन कहत भयउ अधीरा ॥ 
भरत नंदन पुष्कल को मूर्छित जानकर वीर हनुमाना अत्यंत कुपित होव | उनके हृदय के गंभीर आघात को देख वह यह वचन कहते हुवे गंभीर हो गए -

रे अधमी अँध निसाचर, मैं हउँ तुहरै सोंहि । 
एहि प्रलम्बित बाहु सिखर, देखु केत बल जोहि ॥ 
'रे अधर्मी ! मदांध निशाचर ! अब मैं तुम्हारे समक्ष हूँ | देखो ! इन प्रलंबित भुजाओं में कितना बल है |

सोमवार, २७ अप्रेल २०१५                                                                                       

जाहु कहाँ सठ मोरे रहसी | निज मरनि न्यउता दयचहसी ||
जगपति रघुबर के हय चोरे ।  केहि भरम तुहरे मति भौंरे ||
अरे दुष्ट ! अब मेरे रहते तुम कहाँ जाओगो ? रे दुर्बुद्धि ! जगत पति श्री राम चंद्र जी के अश्व का हरण कर अपनी मृत्यु को निमंत्रित करना चाहते हो ? किस भ्रम तुम्हारी मति दिग्भ्रमित हो गई ? 

मारिहौं उरस धर अस लाता | खाए घात चित्कारिहि तव गाता ||
अपने अपजस आप बखाना | मारसि गाल तू का मोहि जाना ||
तुम्हारे वक्ष पर अपने चरणों से ऐसा प्रहार करूँगा कि उसके आघात से तुम्हारी देह चीत्कार उठेगी | लम्बी लम्बी ढींगे हाँक कर अपने अपयश का अपने ही मुख से व्याख्यान कर रहे हो ? क्या तुम मुझे नहीं जानते ? 

राम बयरुहु दसा अस होइब | परत धरा तन प्रान बिछोइब ||
अस कह अतुरै मारुत नंदन | ले छतज नयन अस्थिरे गगन ||
जो भगवान राम के विद्रोह करते है उसकी ऐसी दशा होती है कि भूमि पर गिरते ही वह प्राणहीन हो जाते हैं | ऐसा कहकर मारुती नंदन क्रोध पूरित रक्त से भरे लोचन लिए तत्परता से आकाश में स्थिर हो गए | 

रजत जान मह दनुजहि  पाँखिहि | समुख हिरन ब्याल सम लाखिहि ||
एक एक भट नख संग बिदारे | दातन्ह काट घाट उतारें ||
 रजत विमान के पंख लगाए महादानवों को ऐसी दृष्टि से देखा  जैसे सिंह अपने सम्मुख हिरण को देख रहा हो | फिर शत्रुपक्ष के एक एक योद्धाओं अपने नखों से विदीर्ण करने लगे ततपश्चात अपने दंष्ट्रों से काटकर फिर उन्हें मृत्यु के घाट उतारने लगे | 

लमनधरा लग पुंग पसारिहि | केहि लपटात लए महि डारिहि ||
कपि जयसील मार पुनि डाटिहि |  भयाबह धूनि सोहि नभ पाटिहि ||
धरा तक प्रलंबित पूँछ को पसार कर किसी को उसमें लपेट लेते और रण भूमि में गिरा  देते | विजय के अभ्यस्त कपिराज हनुमान किसी को प्रथमतः चोटिल करते ततपश्चात उसे डपटते,  इस प्रकार दानवों की  भयावह ध्वनि से नभ पट गया था | 

धरे बाहु बल केसरी केतक बाहु उपारि |
केहि पचारि पचारि के कर धर देइ कचारि ||
उस बल केसरी ने अपनी भुजाओं से कितनों की भुजाएं उखाड़ देते तथा ललकार ललकार कर किसी को हाथों में उठाकर पटक देते | 



मंगलवार, २८ अप्रेल, २०१५                                                                                       

दनु बह जहँ जहँ गवनु बिमाना ।चले आएँ तहँ तहँ हनुमाना ॥ 
चाहें जैसेउ रूप धारें ।  दिसत दीठि में करत प्रहारें ॥ 
दानवों को वहन किए वह विमान जहाँ जहाँ जाता वीर हनुमान वहां वहां पहुँच जाते और  इच्छानुसार रूप धारण कर प्रहार करते दिखाई देते |

चढ़े बिमान थकित खिसियावैं । बार बार रन बाँकुर अकुलावैं ॥ 
बिद्युन्माली के लघु भाया  । रिसत हनुमत सीस चढ़ आया ॥ 
वारंवार व्याकुल करने पर विमान पर आरूढ़ संग्राम योद्धा शैथिल्य हो गए और खीझने लगे | यह देख विद्युन्माली का अनुज उग्रदंष्ट्र ने हनुमान जी पर आक्रमण किया | 

प्रजरित अगन सिखा समतूला । भए अगुसर गह तीख त्रिसूला ॥ 
छूटत अगन सूल जब भागे  । डपटत लपट झपट चलि आगे ॥ 
प्रज्ज्वलित अग्नि की शिखाओं के समतुल्य तीक्ष्ण त्रिशूल धारण कर वह आगे बढ़ा | ये अग्नि शूल छूटकर  जब दौड़े उसपर की लपट झपटकर सरपट उसके आगे दौड़ी | 

आइ  निकट कह अह  हनुमंता ।गह गह लहे गहे मुख दंता ।।  
देख दनुज कपि के कुसलाई । चकित बदन बिसमय घन छाई ॥ 
निकट आते ही हनुमंत ने अहो ! कहते हुवे उस अग्नि शिखा हर्षित मुद्रा में अपने मुख का ग्रास बना लिया | 
कपिराज का कौशल्य देख दनुज के चकित मुख मंडल विस्मय के घन छा गए | 

लोहँगी सह लौहु मुखी लोहल-लोहल होए । 
पिसत पिसित बरति के सरि,ओहु लोहु मल होइ ।।
उस लौहांगी से लाल मुखी हनुमंत का मुख और अधिक लाल हो गया और वह लौहांगी बेसन के सदृश्य पीसकर भस्मीभूत हो गई | 

बुधवार, २९ अप्रेल, २०१५                                                                                             

दनु हनुमत मुख चितबत कैसे ।चितबहि  दिया  मृगी मृग जैसे ॥ 
चपल सकल लौहु मलमुहूँ के । चकित दनुज मुख ऊपर फूँके ॥ 
हनुमंत के मुख को दानव ऐसे निहार रहे है थे जैसे हिरण-हिरणी प्रज्ज्वलित दीपक को निहारते हैं  | फिर हनुमंत ने चपलता से अपने मुख के उस लौह भस्म को दानवों के चकित मुख पर फूँक दिया | 

धरत कंठ मुठिका अस हन्यो ।परत धरनि आकुल सिरु धुन्यो  ॥ 
पीर गहे दनु भयउ रिसाना । नाना कपट चरित जो जाना ॥ 
कंठ को गाह्य कर फिर उसपर मुष्टिका का प्रहार करने लगे इस प्रहार से वह भूमि पर गिर पड़ा और व्याकुल होकर अपना सिर धुनने लगा |  वह दानव नाना प्रकार के कपट-चरित्र का ज्ञाता था पीड़ा होने के कारण फिर  अत्यंत क्षुब्ध होकर-

उठत रचे पुनि अस छल छाया । तीनौ लोक माहि भय जाया ॥ 
तेहि अवसरु धुंधरु नभ छाईं । चहुँ कोत किछु देइ न दिखाई ॥ 
उठा  और उसने ऐसा कपट-जाल रचा  जो तीनों लोक में भय उत्पन्न करने वाला था  | उस समय आकाश में धुंधलका सा छा गया,चारों ओर कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था | 

बृहत् सागरवत जन समुदाय । अपनु पराए तहँ  परच  न पाए ॥ 
छदिमन किए ऐसेउ छलावा । दृग दरपन को दरस न पावा ॥ 
इस धुंधलके में वहां महा समुद्र के समान उपस्थित जन समुदाय द्वारा अपने और पराए की पहचान करना कठिन हो रहा था  | इस छल ने ऐसा छलावा किया कि नेत्र दर्पण में कोई भी दर्शित नहीं हो रहा था | 

चहुँ दिसा चित्कार करे, छाए गहन अँधकार । 
सबहि हाहाकार करत दीपन करे पुकार ॥ 
गहन अन्धकार व्याप्त  होने से जब चारों दिशाएं चीत्कार उठी तब सभी हाहाकार करते हुवे प्रकाश का आह्वान करने लगे  | 

Friday 24 April 2015

----- ॥ टिप्पणी ५ ॥ -----


>> हवलदार बनने के अयोग्य व्यक्ति यदि देश का गृहमंत्री बन जाए फिर तो खेत लूटने ही हैं.....
>>  " किसी विशेष धर्मावलम्बियों के समुदाय को सम्प्रदाय कहते है....."
 >> " किसी धर्म में संप्रदिष्ट जाति के समूह को समाज कहते है...." 
      विश्व में ऐसा कोई राष्ट्र नहीं है जो किन्ही दो या अधिक सम्प्रदाय  द्वारा निर्मित किया गया हो.
     तालिबान  वाले पूर्ण इस्लामिक राष्ट्र बनने से अच्छा है भारत गौ हत्या पर प्रतिबंध लगाकर एक हिन्दू राष्ट्र  बन जाए.....

 >> चातुर्वर्ण्य व्यवस्था वैदिक काल में हिन्दू धर्म के अनुयायियों की व्यवस्था थी जो उनके कर्मों पर आधारित थी  इसे परमात्मा के नहीं रचा था.....

>>  जेल अउ बेल की घर पहुंच सेवा काहे नहीं कर देते.....

>> जिस देश का प्रधानमंत्री अपराधियों के संग पतंगबाजी करता हो उस देश की शासन व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह न लगे तो क्या लगे.....

>>  मुस्कराते लब किनार चश्में-आब से भरे..,
       किश्तियाँ तेरे नाम की लरज़ती सी उतरे.....

>> अपने मुख्यमंत्रियों से नेपाल के लिए भीख मंगवाने वाले इस लखटकिया सूट धारी उड़न छू प्रधानमंत्री को   आटे-दाल का भाव का पता भी है.....?

>> ये अगले पिछले सत्ता धारी के जैसे  बिड़ला वाले भवनों में उद्योगपतियों के साथ बैठकर जनता जनार्दन  के कर के पैसों को उड़ाना छोड़ दे अन्यथा तो  जनता पिछले  को तो केवल अपने साथ  खड़ा की है  अगलों को उलटा लटका देगी.....

>> सागर सरिस गभीर हो गिरी सरिस हो धीर..,
       तन पर जति सम चीर हो तासु नाउ रघुबीर.....


 >> चोर चतुर बटमार नट,प्रभु पिय भँड़ुआ भंड । 
       सब भच्छक परमारथी,कलि सुपंथ पाषंड ॥ 
----- ॥ गोस्वामी  तुलसी दास ॥ -----
भावार्थ : -- कलयुग में चोर चतुर लुटेरे कलाकार माने जाते हैं,  भांड राजा और भड़वे उसके प्रिय होते हैं । खान-पान का विचार त्यागकर सर्वाहारी ही महात्मा माने  जाते हैं पाखंड ही सन्मार्ग समझा जाता है ॥ 



>> बड़े बड़े दुर्ग अब किसी काम के नहीं हैं वैसे ही वर्त्तमान की संरचनाएं कल किसी काम की नहीं होंगी.....
>>  सत्य भी पूर्णता का अभिलाषी होता है :
पहले भी मनुष्य ही थे यह सत्य है  कैसे देव तुल्य थे यह पूर्णत:सत्य है..,

अब भी मनुष्य ही हैं यह भी सत्य है कैसे पशु तुल्य हैं यह पूर्णत: सत्य है..... 

>> हमारे दश के उद्योग  पतियों का नाम इण्डिया गेट  पर लिखवाना चाहिए ।और इतने बढे बढे अक्षरों में लिखवाना चाहिए की वो गंगासागर रामेश्वरम द्वारिका से भी दिखे । भरती हंडे  पर २७० रूपए प्रतिमास की छूट अब जाकर छूटी है इनसे.....

Tuesday 14 April 2015

----- ॥ दोहा-पद॥ -----



धरा जले धारा जले , जले जले जल धारि । 

जलज जले जलगा जले जले जले जलहारि ॥ 

जलेतन जरेंधन जले जल जल झरे चिँगारी ॥ 
जरख़र धान जरत करे चहुँ पुर हाहाकारि । 


जलगिरि उपल उपल जले जले जले ररिहारि । 
अम्बरतल पलपल जरत कातर रहे निहारी ॥ 

द्रु दल जरे द्रुम दल जलत , करे गहन गोहारि । 
धनबन घन स्याम करे बरसो गगन बिहारि ॥ 

द्रोन कलस साँकल भरे , जर सत सार सँवारि । 
जलधि जरे जलद जल धरे झर झर झर झर झारि ॥ 

Friday 3 April 2015

----- ॥ उत्तर-काण्ड ३० ॥ -----

बृहस्पतिवार, ०२ अप्रेल, २०१५                                                       

अनन्दातिरेक मगन भयऊ ।  राज भार पुनि सुत कर दयऊ ॥ 
सजा  देहि तप साजु समाजू । बंदि गुरुपद चले बन राजू ॥ 
और वह आनंद के अतिरेक में निमग्न हो गए  | राज्य का भार पुत्र के हाथों में सौंप कर उन्होंने अपनी  देह को तप सामग्रियों के समाज सुसज्जित किया और फिर गुरु के चरणों में प्रणाम कर वह स्वयं तपस्या करने वन को चले गए | 

तहाँ भगति पूरित हरिदय  ते । भए भगवन्मय तापाश्रय  ते ॥ 
गहन अतीव साधना साधे । रिसि  केसउ के चरन अराधे ॥
वहां वह भक्ति पूरित हृदय से  तप का आश्रय करते हुवे भगवन्मय हो गए तथा  भगवान ऋषिकेश की आराधना करते हुवे अत्यंत गहन साधना करने लगे | 

बिरत बिषय भव भोग त्यागे । भगवन पदुम चरन मन लागे ॥ 
बन भूमि तपोमय सब कोई । सकल बात तप तेजस जोई ॥
विषयों से विरक्त होकर उन्होंने संसारिक भोगों को त्याग दिया,अब उनकी भगवान के पद्मचरन में अनुरक्ति हो गई | उस वन भूमि में सभी तपोमय थे उनका सब कुछ तप के तेजस्व से युक्त था | 

तप प्रभाव निष्पाप कहाई । महिपत परम धाम को पाईं ॥ 
पितु जब तेजस जान अव्रोहि । सत्यबान निज धर्म बल सोहि ॥ 
तप के प्रभाव से राजा निष्पाप होकर परम धाम को प्राप्त हो गए | पिता के तेजस्वी यान में परम धाम चले जाने पर सत्यवान ने भी अपने धर्म बल से -

दसरथ नंदन सिय के पी को । किए संतोखित रघुबर जी को ॥ 
प्रसन्न चित रघुनाथ बिहाने । बच्छर अबिचल भगति प्रदाने ॥ 
दशरथनन्दन सीतापति भगवान हसरीराम चंद्र जी को संतुष्ट कर लिया | प्रसन्नचित भगवान रघुनाथ ने फिर  उस भक्त वत्सल को अपने चरणों की अविचल भक्ति प्रदान की | 

जग्य करता पुरुख जो कोटि कोटि पुन जोइ । 
अस अबिचल भगतिहि जोग, अतिसय  दुर्लभ होइ ॥ 
यज्ञकर्ता पुरुष को करोड़ों पुण्यों के संग्रह के द्वारा भी ऐसी अविचल भक्ति का प्राप्त करना अतिशय दुर्लभ है |  

शुक्रवार ०३,अप्रेल, २०१५                                                                 

 तपोमई  तेजस बिस्तारै । नीपजनत नित दिवस निखारे ॥ 
नित प्रति दृढ़ चेतस सो राई  । प्रभु अवतार  कथा बैठाईं   ॥ 
उनके विस्तारित तपोमय तेज  में दिनों दिन  उज्जवलता उत्पन्न होने लगी हैं  | वे प्रतिदिन सुस्थिर चित्त से सम्पूर्ण लोकों को पवित्र करने वाली श्री रामावतार जी की कथा का आयोजन करते हैं  | 

जेहि कथा गहि अस प्रभुताईं । तीनहुँ लोक पबित करि आईं ॥ 
तपमय हरिदे दया द्र्व भरे ।  पर पीरा सहुँ चित्कार परे ॥ 
इस कथा की प्रभुता ऐसी है जो तीनों लोकों को पवित्र कराती आई है | सत्यवान के हृदय में दया-द्र्व भरा था, पर-पीड़ा से वह चीत्कार उठते हैं  |

 रघुबर रागि रहेउ न कोई ।अगुसर प्रभु पद पूजिहि सोई ।। 
अष्ट बरस जोई बय जोई  ।  बयोधस कि बय बिरध जो होइ ॥ 
 जो रघुबर के चरणानुरागी नहीं थे उनकी भक्ति को देखकर वह भी अग्रसर होकर प्रभु के चरणों का पूजन करने लगे | जो आठ वर्ष से ऊपर की अवस्था का हो मध्य अवस्था का हो अथवा वृद्ध हो, 

एकादसी ब्रत करिहि कराहीं । बिष्नु प्रिया तिन सेव सुहाहीं ॥ 
श्रीधर चरन चढ़े बर माला । कंठ कलित कर बरे भुआला ॥ 
उनसे वह एकादशी का व्रत करवाते और स्वयं भी करते हैं | तुलसी की सेवा उन्हें अत्यंत प्रिय है , लक्ष्मी पति के चरणों में चढ़ी उत्तम माला  उनके कंठ में सैदेव अलंकृत रहती है  | 

अस तपसी नृप सोंहि जब रिषि महरिषिहू कर जोहिं । 
साधारन जन हेतु तब पूजित काहु न होहिं ॥ 
ऐसे तपस्वि राजा के सम्मुख जब सभी ऋषि-महर्षि भी करबद्ध रहते तब साधारण लोगों हेतु भी  वह फिर क्यूँ न पूजित हों | 

शनिवार,०४ अप्रेल, २०१५                                                                 

रमारमन के सुमिरन सोइहि । सत्यबान सुचि  सुधि मन होइहि ॥ 
राघौ सुजसु घन रसु बरखाए । कलुषि कलिमल धूवत दूराए ॥ 
रमारमण श्रीहरि के स्मरण से मन शुद्ध व् पवित्र हो गया है रघुवीर  के सुयश की घन वर्षा ने उसे पापों व् क्लेशों से मुक्त कर दिया है  | 

सकल अमंगल गयउ नसाईं । अगज जगज लग मंगल छाईं ॥ 
श्रुतत अनी आगमनु सँदेसा ।राज सिँहासन छाँड़ नरेसा ॥ 
संपूर्ण अमंगल नष्ट हो गए और राज्य में दूर दूर तक मंगल छाया हुवा है  | श्री राम चंद्र जी की सेना के आगमन का सन्देश सुन सत्यवान नरेश राजसिंहासन त्याग देंगे | 

अद्भुद तुरग लेइ चिन्हारिहि । अचरम गति इहँ आन पधारिहि ॥ 
मन ही मन  सुमिरत श्री रमना ।अकण्टकु राज धरि तव चरना ॥ 
उनके अद्भुद तुरंग को पहचान कर वह अचिराम गति से यहाँ पधारेंगे | मन ही मन भगवान श्री राम का समरण करते हुवे वह अपना अकंटक राज आपके चरणों में अर्पित कर देंगे | 

सुबुध सुमति छन भर उरगाई । बहुरि मुख रसरि बोल बँधाई ॥ 
लखमन जो तुअ  पूछ बुझावा ।प्रसंग सँग मैं कहत सुनावा ॥ 
सुबुद्धि सुमति ने क्षणभर विश्राम कर फिर कहा -- 'वीर लक्ष्मण ! आपने जो प्रश्न किया था वह मैने सप्रसंग आपको कह सुनाया | 

कहत अहिपत बिप्रबर बहुरि सो हय बिसमय कारि। 
सत्यबान पुरी पौरी, भीत चरन पैठारि॥ 
भगवान शेष जी कहते हैं -- हे विप्रवर ! ततपश्चात वह विस्मयकारी अश्व फिर सत्यवान के नगर की ड्योढ़ी के अंतर में प्रवेशित हुवा | 

सोम/मंगल ०६/०७ अप्रेल,२०१५                                                                       

भरे कल भरन बरन बिसेखे । पुरजन जब बाजि प्रबिसत देखे ॥ 
सचकित सब महिपत पहि गयऊ । प्रबसित के समाचार दयऊ ॥ 
पुरजनों ने जब उत्तम आभूषण से अलंकृत विशेष वर्ण के अश्व को नगर में प्रवेश करते देखा तब सब चकित होते हुवे राजा सत्यवान के पास गए और उन्हें अश्व प्रवेश का समाचार दिया | 

महमन रामहि बाजि पँवारे । पारगमन इहँ आन पधारे । 
सत्रुहन चहुँ पुर रखिहहि तेहीं । जासु हरन सकिहि न जग केही ।। 
(उन्होंने कहा ) महामना ! श्री राम जी का मेधीय  अश्व नगर द्वार के पारगम्य होकर यहाँ आ रहा है, शत्रुध्न उसकी चारों और से रक्षा कर रहे हैं | जिसका अब तक किसी ने भी हरण नहीं किया है | 

राम नाउ के आखर दोई । सुनत महिपत मुदित मन होई ॥ 
बोले मृदुलित मधुमय बानी । राम राउ मोरे हिय धानी ॥ 
और 'राम' नाम के ये  दो अक्षरों को सुनकर राजा के मन हर्षत हो उठा,वह मृदुल व् मधुरिम वाणी में बोले -- राम तो राजा हैं और मेरा ह्रदय राजधानी है,  मन सिंहासन  सोइ बिराजे  । भयौ सुभ ता  सोहि सब काजे ॥ 
लेइ संग मख बाजि बिसेखे ।ताहि अनुज मम नगरि प्रबेखे ॥ 
मेरे मन के सिंहासन में वही तो विराजित हैं मेरे सभी कार्य उनके द्वारा ही शुभ गति को प्राप्त करते हैं | उनके मेधीय अश्व को संग में लिए उनके अनुज मेरी नगरी में प्रविष्ट हुवे है | 

जिनके हरिदै हरि सुरत कबहुं बिसारत नाहि । 
अवसिहि सो दास हनुमत होइहि तिनके पाहि ।।  
जिनके ह्रदय हरी की समृति कभी विस्मृत नहीं होती वह दास हनुमंत भी अवश्य ही उनके आस-पास होंगे | 

होइहि उपनत जहँ प्रभु दासा ।मैं गमु रहिहउँ तिनके पासा ॥ 
बिसमय हय राखन हुँत जइहों ।  प्रभो चरन सेबक पद पइहौं ॥ 
जहाँ प्रभु के दास उपस्थित हुवे हैं, मैं भी वहां उनके पास जाता हूँ,तदनन्तर  आश्चर्य चकित करने वाले उस अश्व की रक्षा हेतु जाऊंगा और प्रभु के चरण - सेवक के पद को प्राप्त करूंगा | 

हिरन्मय मनि रतन बहुमूला  ।धन सम्पद प्रभु पद अनुकूला ॥ 
राज सहित मम सन लए आहू । सचिवन्हि आयसु देइ नाहू ॥ 
ततपश्चात राजा सत्यवान ने सचिव को आज्ञा दी कि प्रभु के चरणों  के अनुकूल बहुमूल्य हिरण्मय मणि-रत्न व् धनसम्पदा  राज्य सहित मेरे साथ ले आओ | 

राम नाउ सुमिरत मन माही ।चले राउ पुनि सत्रुहन पाहीं ॥
सत्यवान  निज हितकर जाने । सत्रुधन आए आपही धानी  ॥ 
मन में भगवान राम के नाम का समरण करते ततपश्चात राजा शत्रुध्न के पास प्रस्थित हुवे | उन्हें अपना हितैषी जानकर शत्रुध्न स्वयं ही राजधानी पहुँच गए  | 

इत महिपत सबिनय सब साथा ।आएँ अगुसर जोरत दुहु हाथा ।। 
नत मस्तक सत्रुहन पद गाही । सम्पन राज समर्पत दाहीं ॥ 
इधर राजा सबका साथ कर विनय पूर्वक उनकी करबद्ध आगवानी की, और नतमस्तक होते हुवे शत्रुध्न के चरण पकड़ लिए तथा अपना भरापूरा  राज्य उन्हें सौंप दिया | 

भगत बछर तिन  जान के गह कर सकल निधान । 
रुक्म नाउ तेहि सुत कर,सहर्ष दे प्रतिआन ।। 
सत्रुध्न ने उन्हें भक्तवत्सल जानकर उनकी समस्त निधियों को ग्रहण किया और रुक्म नाम के उनके पुत्र को सहर्ष लौटा दी | 

बृहस्पतिवार,०९ अप्रेल,२०१५                                                             

हिरन रतन मनि राज बिसाला । गए बहुरत भए मुदित भुआला ॥ 
मानत आपनि परम सुभागिहि । सकुचत हनुमत के उर लागिहि  ॥ 
स्वर्ण व् मणिरत्नों सहित विशाल राज्य को पुन : प्राप्त  कर नरश्रेष्ठ प्रसन्न हो गए स्वयं को परम सौभाग्यवान मानकर संकोच करते हुवे दास हनुमंत के हृदय से लग गए | 

बहुरि सुबाहु निज कंठ लगाए । हिलगत ताहि सों बहु  सुख पाए ॥ 
रामु भगत तहँ जेत पधारिहि । मेलि सबहि सों बाँधत बारी ॥ 
हनुमंत के पश्चात सत्यवान ने सुबाहु को कंठ से लगाया इन सब से मिलकर उन्हें अपार सुख की अनुभूति हुई तदनन्तर वहां जितने भी राम भक्तों का पदार्पण हुवा था वह क्रमानुसार उन सबसे मिले | 

संग लगे जब सत्रुहन जीके । जान हितू निज रघुबर ही के ॥ 
लोम हरष अस अधर सुहासे । जस मुकुलित कलि कुसुम बिकासे ॥ 
शत्रुध्न जी के साथ तब स्वयं को रघुनाथ जी का हितैषी जानकर उनका रोम रोम हर्षित सुहास से उनके आधार ऐसे खिल उठे  जैसे कोई मुकुलित कुसम कलि खिल रही है | 


बेगबान के पाउँ लगि  पाँखि  ।चरत बियत गत बिहंगम लाखि  ।। 
संग्राम सूर संग घेराए ।सत्रुहन्हु तुर गति पिछु पिछु आए ॥ 
वेगवान तुरंग के चरणों में जैसे पंख लग गए थे चलते हुवे वह अब आकाश में उड्डयन करते उडुगण की भाँती लक्षित हो रहा था | युद्धवीरों से घिरे शत्रुध्न भी तीव्र गति से उसके पीछे आए | 

उरे धूरि धूसरित घन छाए । टपटपात खुर  दूर दूराए ॥ 
अपने टापों की उडती धूल से धूसरित घन व्याप्त कर कुलांचे भरता वह दृष्टि से ओझल हो गया | 

बहुतक राजे अरु महराजे, कोटिक रथ सथ संग चरें । 
भयौ घन रजस पुनि चरन चरन सुमनस रेनु रस जस झरे ॥ 
चलि तुर पवन गहगहि गगन पताका पट प्रसरे  । 
कि तबहि मगपर अति भयंकर छाए तमि सम तम गहरे ॥ 
बहुसंख्यक राजा महाराजे करोड़ों रथों के साथ चले जा रहे थे | धूलि रूपी वह घन फिर पद पद पर पदुम पराग रूपी जल रस के जैसे झरने लगे |  उनके साथ पवन भी आतुरता से चलने लगी इस आतुर पवन का प्रसंग प्राप्त कर सेना का पताका पट भी हर्षोल्लास से प्रसरित हो रहा था कि तभी उस मार्ग पर गहन रात्रि के समान घोर अन्धकार छा गया | 

सियराम कथा निरंतर बरनै भगवन सेष । 
कहत मुनि तब सकल सैन गहबराइँ लौ लेष ।। 
सियाराम कथा का सतत वर्णन करते हुवे भगवान शेष ने कहा -- 'मुने ! उस समय शत्रुध्न की विशाल सेना थोड़ा सा घबड़ा गई | 

शुक्रवार १०अप्रेल २०१५                                                      

कवन स्वजन अरु कवन पराए । सुधि बुधिमनहु किछु समुझ न आए । 
तदनन्तर पाताल निबासी ।बिद्युन्माली नाउ पिसाची ॥ 
कौन अपना और कौन पराया है घने अन्धकार सी घिरी सेना में बुद्धिमान पुरुषों को भी यह ज्ञात  नहीं हो रहा था | तदनन्तर पाताल निवासी विद्युन्माली नाम का पिशाच-

चहुँ दिसि निसि चर के समुदाई ।घेर घिरे तहँ धमकत आईं ॥ 
जो लंकेसु सुहरिदै रहेउ ।हय हिरन किरन कर लिए गहेउ ॥ 
वहां आ धमका जो चारों ओर से निशाचरों का समुदाय उसे घेरे हुवे था | यह लंकापति रावण के सुहृदय था,   रश्मियों को ग्रहण कर फिर उसने वेगवान अश्व  को हरण कर लिया | 

किए अट्हास चले करि चोरी । हय बिरमन बिहुरत बरजोरी । 
छन महुँ बिनसे घन अँधियारा ।लहेउ गगन बदन उजियारा ॥ 
यह चोरन कर अट्टाहस करता चला, अश्व ठहरता और लौटने हेतु बल लगाता | क्षण भर में सघन अन्धकार  नष्ट हो गया जिससे गगन का वदन भी उज्जवल हो गया | 

दूरत धूरि  प्रभा कर छायो । धौला गिरबर  जस दरसायो ॥ 
केहि न जब किछु आनए लेखे । सबहि एकु एकहिं पूछ देखे ॥  
धूलि भी समाप्त हो गई और उसपर जैसे ही सूर्य व्याप्त हुवा,वह पर्वत श्रेष्ठ हिमालय के जैसा दर्शित होने लगा | जब किसी को कुछ समझ नहीं आया तब शत्रुध्न आदि सभी वीर एक दूसरे से पूछने लगे | 

 कहँ यमन कहँ तासु किरन हरन  करे को ताहि  । 
का हरानत के हरिदै,मरनिहि के भय नाहि ॥ 
हरि कहाँ है ? उसकी किरणें कहाँ हैं ? क्या उसे किसी ने हरण कर लिया है ? क्या हरण कर्त्ता के हृदय में मृत्यु का भय नहीं है ? 

रविवार १२ अप्रेल २०१५                                                                        

कोउ किछु कहि  कोउ किछु कहई | बतहि मैं सब लयलीन रहईं ॥ 
कि तबहि तहाँ निसाचर राई | जुधिक जूथ सन देइ दिखाई ॥ 
कोई कुछ कहता तो कोई कुछ | सभी वार्तालाप में तल्लीन थे कि तभी वहां निशाचर पति विद्युन्माली सैन्य समूह के साथ दिखाई दिया | 

को गजको है बाहि बिराजे ।बाहु बली मुख सूरता साजे ॥ 
बिद्युन्माली  बैसि बिमाना ।घेरिहि चहुँ दिसि दनुज प्रधाना ॥ 
कोई हस्ती तो कोई हय पर विराजित था उन बाहुबलियों का मुख शौर्यता से सुसज्जित था | विद्युन्माली श्रेष्ठ विमान पर आसित था प्रधान-प्रधान दनुज उसे चारों ओर से घेरे हुवे थे | 

गहे दनुज मुख दंस कराला । लमनि दाढिका घनि बिकराला ॥ 
ते सबहि तहँ ऐसेउ लाखिहि । मानहु सत्रुहन अनि लए भाखिहि ॥ 
दनुजों के मुख कराल दंष्ट्र से युक्त थे उसपर  घनी-लम्बी  विकाराल दाढ़ी थी | वे सब वहां ऐसे दर्शित हो रहे जैसे कि वह शत्रुध्न की सेना का तत्काल भक्षण कर देंगे | 

सैनि सत्रुहन सूचित कीन्हे ।को हरक हय हरन करि लीन्हे ।। 
जोइ उचित हो सोइ  कीज्यो ।हमरे जोग आयसु दीज्यो ॥ 
सैनिकों ने शत्रुध्न ने तत्संबंध में सुचना दी कि किसी हरानक ने अश्व को हरण कर लिया है | अब जो उचित है वही कीजिए और हमारे योग्य आज्ञा कहिए | 

श्रुति उदन्त अस सत्रुहनहि  बदन भयउ अंगारि । 
दोइ  नयन अंगार भरि हरिअरि करि दहकारि ॥ 
ऐसे समाचार श्रवणकर शत्रुध्न का मुखमण्डल अगींठी के सदृश्य हो गया था अंगारों से भरे दोनों नेत्र धीरे -धीरे धधक रहे थे | 

सोमवार १३ अप्रेल २०१५                                                                     

हलबल पलकिन पँखी हिलोले । पाए पवन बल भभकत बोले ॥ 
इहँ सूरवाँ कवन अस होई । हरे हमारे मेधि हय जोई ॥ 
हिल्लोल करती पलक पंखी से पवन का बल प्राप्त कर वह भभकते हुवे बोले -- 'यहाँ ऐसा कौन शूरवीर है जिसने हमारे मेधीय अश्वका हरण किया है ?'

लखत लसनि सचिवन्हि  सम्बोधे । कहत सत्रुहन ए मोहि प्रबोधे ॥ 
अस सठ सथ कस लोहा लेहू । जुझावन जोतिहु केहु केहू ॥ 
फिर शत्रुध्न वहां उपस्थित सचिव से सम्बोधित होते हुवे बोले -- ' आप मुझे बोध कराइये कि ऐसे दुष्ट राक्षस के साथ हम कैसे लोहा लें, इस युद्ध में किस किस का नियोजन किया जाए | 

तेहि ते रनत बधन ललकाहि । ऐसेउ अजुधक कहु को आहि ॥ 
कहे सुमति जहँ लग में जाना । पुष्कल एकु महबीर महाना ॥ 
कहिए ऐसा कोई योद्धा है जो उससे युद्ध करते हुवे जो उसका वध करने के लिए उत्कंठित है ? सुमति ने उत्तर दिया --  महानुभाव ! हमारी सेना में पुष्कल ऐसा महान महावीर है, 

प्रकम्पनि  अमित कृतु तेजू । अमित्र तपन रन साज  सहेजू ॥ 
जय हुँत आतुर जुध हुँत उद्यत । तासु अबर लखमी निधि हनुमत ॥ 
उसमें कम्पित कर देने वाला अमित बुद्धि से युक्त तेज है | इनके अतिरिक्त शत्रु को संत्रास  करने वाली सैन्य सामग्रियों की रक्षा करने वाले लक्ष्मी निधि और वीर हनुमंत भी है जो उस राक्षस से लोहा लेने के लिए उत्साहित और विजय प्राप्त करने के लिए आतुर हैं | 

अन्यान्य अरु अहहि  लड़ाके । संग्राम कुसल बलबन बाँके ॥ 
अस्त्र घात महुँ सबहि प्रबेका । सस्त्र हस्त सब एक ते ऐका ॥ 
और भी कई ऐसे लड़ाके हैं जो संग्राम कौशल के सह महाबली शूरवीर हैं | अस्त्र घात में ये सभी प्रवीण हैं और ये सब एक से बढ़कर एक शस्त्रवेत्ता हैं| 
 कहत सुमति दनुपत हतन प्रण ले पान उठाए । 
जोई भरोसे आपने  सौमुख सोई आएँ ॥ 
तत्पश्चात सुमति ने कहा -- जिसको स्वयं पर विश्वास है वह वीर मेरे सम्मुख आए और दानव का वध करने का प्रण ले | 

मंगलवार,१४ अप्रेल २०१५                                                          

तब पुष्कल भइ ताहि अगूते  ।गहे पान निज भुज बल बूते ॥ 
बोले बलवन मुख भर रोसा ।ए सैनि अपने बाहु भरोसा ॥ 
तब पुष्कल उनके सम्मुख आए और अपने भुजाओं के सामर्थ्य पर दानव का वध करने का बीड़ा उठा लिया और मुख पर रोष भरे उस बलवान ने कहा --आपके इस सैनिक को अपनी भुजाओं पर विश्वास है | 

 जोग जान रन आयसु दीजो | महनुभाव मम प्रन सुन लीजो ||  
छाँडत धनु मम तेजस बाना । लगत दनु जौ मुरुछा न दाना ॥ 
महानुभाव ! योग्य जानकार मुझे आज्ञा दीजिए | अब मेरी प्रतिज्ञा भी सुन लीजिए- यदि मेरे धनुष के बाणों की तीक्ष्ण धार ने उस दानव पर आघात कर उसे मूर्छित न कर दिया,

तीख मुखी सर ह्रदय बसेऊ । दनुज हत होहि न महि खसेऊ ॥ 
चितरित चिनगी कन के नाई । दनुज दल होहि  न धरासाई ॥ 
यदि मेरे बाणों के तीक्ष्ण शिखर उस दनुज के ह्रदय में नहीं उतरे और वह हताहत होकर भूमि पर नहीं गिरा | यदि उसका सैन्य दल ज्वाला कण के समान छिन्न-भिन्न होकर धराशायी न हुई,

तो पुष्कल मम नाउ न होही ।कहिहौ पुनि कौ बीर न मोही ॥ 
मोर कही जो सत्य न होईं ।त मोहि पातक लागिहि सोई ॥ 
तो मेरा नाम पुष्कल न होगा और मुझे वीर भी कोई नहीं कहेगा | यदि मेरा कहा सत्य न हुवा तो मुझे वही दोष लगेगा - 

जो हरि हर अरु हरा मैं,भेद दीठ धरहारि । 
अस खलजन होहि जोई पातक के अधिकारि ॥  
जो दोष विष्णु व् शिव में तथा शिव व् शिवा अथवा कल्याण और मुक्ति में भेद दृष्टि रखने वाले दुष्टों को लगता है | 

बुधवार,१५ अप्रेल, २०१५                                                                     

रघुबर पद दुइ पदमिन जोरी । अरु बहु निहछल भगतिहि मोरी ॥ 
निज आसिर सो मम सिरु धरिहीं । मोरी कहि बत पूरन करिहीं ॥ 
भगवान रामचद्र के चरण युगल पद्म हैं और इन चरणों में मेरी भक्ति निश्छल है  मेरे शीश अपना आशीर्वाद देकर वह मेरा कहा अवश्य ही पूर्ण करेंगे | 

पुष्कल प्रन  जब दिए निज काना ।हित कर बचन कहए हनुमाना ॥ 
सज्जन सुसील साधु सुजाना ।कीन्हेसि नित जासु ध्याना ॥ 
पुष्कल के प्रण को सुनकर महावीर हनुमंत ने कल्याणमय वचन कहे- 'सुशील साधू सज्जन व् ज्ञानी जिनका नित्य-निरंतर ध्यान करते हैं,

देवासुरहु नाइ निज माथा । सुमिरि गावहिं नाथ  गुन गाथा ॥ 
पूजत पद बर बर लोकेसा । कह हमरे पत अवध नरेसा ॥ 
जो भगवान रघुवीर के सम्मुख नतमस्तक होते हैं, देव व् असुर भी नतमस्तक होकर जिन नाथ के नाम का स्मरण कर उनका यशोगान करते हैं |  जगत श्रेष्ठ लोकेश्वर भी जिनके चरणों का पपूजन करते हैं यह कहते हुवे कि हमारे स्वामी तो अयोध्या पति ही हैं | 

सुमिरि सो नाथ  जो किछु कहिहौं। पन लहिहउँ सो साँचहि करिहौं ॥ 
राउ एकु बचन पूछउँ तोही । तृन तुल दनु तव सहुँ कहँ होही ॥ 
उन्हीं नाथ का स्मरण कर मैं प्रतिज्ञापूर्वक जो कुछ भी कहूंगा उसे सत्य करके दिखाऊंगा | राजन ! मैं  एक बात पूछता हूँ यह तृण तुल्य दनुज आपके सम्मुख कहाँ ठहरता है | 

बैसत इच्छा चरित बिमाना | तुंगासित नहि होत महाना || 
बान सोइ जो हरिदय उतरे| सौगंध सोइ जो पूर परे || 
इच्छा चारी विमान में बैठकर अथवा ऊंचाई पर आसित होने से कोई महान नहीं हो जाता | बाण वही है जो हृदय में उतरे, सौगंध वही है जो कही को पूर्त करे |  

ए रघुबर दासा हुँत जो तुहरी आयसु आहि । 
तो जाउँ कृपायतन रन भू भेंटन ताहि ॥ 
इस रघुवर के दास को यदि आपकी आज्ञा हो तो हे कृपायतन मैं रणभूमि जाकर उस राक्षस से मुठभेड़ करूँ  ?