सोम / मंगल , १६ /१७ फरवरी २०१५
जर जर जब ज्वाल उत्तोले । पुष्कल रकत कमल मुख बोले ॥
मोरे बान ए तुहरी देही । खैंच तहँ सोन प्रान न लेहीं ॥
कोप की ज्वाला जलते-जलते जब उत्तोलित हो गई तब पुष्कल के रक्त-कमल के समान लाल हुवे मुख से बोले --'ये मेरे बाण है, ये तुम्हारी देह है, यदि इन बाणों ने तुम्हारी देह से प्राण न खैंच लिए -
त सील बिरध सति पति पियारी । करे कलंकित को अस नारी ॥
परत जम पासल सो खलचारी ।होइअहि जस गति के अधिकारी ॥
तो सदाचार से सुशोभित पतिव्रता सती स्त्री को कलंकित करने के कारण यम के पाश में पड़े दुष्टाचारी जिस गति के अधिकारी होते हैं
होही काल बस मम गत सोई । मम प्रण अवसिहि पूरन होई ॥
पुष्कल पुनि जब करकत लाखे । रिपु दल मुखिआ हँस अस भाखे ॥
काल के वशीभूत होकर मेरी भी गति वही हो और मेरी यह प्रतिज्ञा अवश्य ही पूर्णता को प्राप्त होगी | फिर जब पुष्कल ने तीक्ष्ण दृष्टि से शत्रु की ओर देखा तो शत्रु दल के नायक हँस कर बोले -
प्रान गहि जग आनि जो कोई । तासु मरनि पुनि अवसिहि होई ॥
जो जुधिक जुद्ध जुझावत मरे । सो काल पास के भय न करे ॥
'पुष्कल ! प्राणाधान कर जो इस संसार में आया है फिर उसकी मृत्यु निश्चित है जो योद्धा युद्ध में संघर्ष करते हुवे मृत्यु को प्राप्त होते हैं वो काल के दण्डपाश का भय नहीं करते |
जो में काटि न नीबेरौं, तुहरे छाँड़े बान ।
हे रन प्रनत अजहुँ बहुरि , मोर ए प्रन लो जान ॥
यदि मैने तुम्हारे छोड़े बाण को काटकर उनका निवारण न कर दिया तो हे दक्ष योद्धा !अब मेरे इस प्रण का भी संज्ञान कर लो |'
तीरथ सेवन कोउ उछाहे । जो अस उछाह नासन चाहे ॥
तासु पाप निज सिरु मैं लैहौं । प्रन भंजन कर दोष जनैहौं ॥
जो तीर्थ सेवन हेतु उत्सुक पुरुष की उत्सुक्ता को नष्ट करता है उसके द्वारा किए गए ऐसे पाप का में भागी होऊंगा और स्वयं को प्रतिज्ञा भंग करने का अपराधी समझूंगा |
अस कह चित्रांग मुख उरगाए । करसत कुसा कर चाप चढ़ाए ॥
जो मोरि भगति प्रभु पद चीन्हि । कपट हीन जो बंदन कीन्हि ॥
ऐसा कहकर चित्रांग मौन हो गया और प्रत्यंचा कसकर उसने धनुष सम्भाला | यदि मैने निष्कपट भाव से भगवान श्रीराम का वंदन किया है और मेरी भक्ति भगवान के चरणों में ही स्थिर रही है
जो मम हिय प्रिय तिय अपराई । करे बिचार न कोउ पराई ॥
मोरे कहे बचन सत जोहीं । किए जो प्रन सो पूरन होंही ॥
जो मैने मेरे ह्रदय को प्रिय अपनी स्त्री के अन्यथा किसी भी स्त्री का विचार नहीं किया है तो मेरे कहे ये वचन सत्य होंगे तथा मेरी प्रतिज्ञा अवश्य पूर्ण होगी |
अस कह काँति मति केहु कन्ता । करम कार्मुक गहै तुरंता ॥
मर्म भेदि एक बान संजोई । जोइ अगन जस तेजस होई ॥
ऐसा कहकर कांतिमती के श्रीमान तथा रामानुज भरत के पुत्र पुष्कल ने भी तत्काल एक सुदृढ़ धनुष उठाकर उसपर एक मर्म भेदी बाण का संधान किया जो अग्नि के समान तेजस्वी था |
उर कपाट पुर लच्छ किए छूटे सूल प्रचंड ।
चित्रांग चाप चपल तब , काटि करे दुइ खंड ॥
वे प्रचंड बाण चित्रांग के विशाल ह्रदय का लक्ष्य करते हुवे छूटे तब चित्रांग के धनुष ने चपलतापूर्वक काटकर उन्हें दोखंड कर दिया |
बुधवार,१८ फरवरी, २०१५
भै रन भुँइ कोलाहल भारी । बरखि धूरि कीन्हेसि अँधियारी ॥
पुच्छल भाग मुख सोहि निबरे। घर्घर करत घुरमत महि गिरे ॥
बाण की प्रचंडता इतनी अधिक थी कि उसके कटजाने से रणभूमि में भारी कोलाहल होने लगा | बरसती हुई धूल ने जैसे वहां अन्धेरा सा कर दिया, फल से पृथक हो कर बाण का पुच्छल भाग घूमते -घर्घराते हुवे पृथ्वी पर गिरा,
पूरबारध भाग फल जोहीं । रिपु दल पति पुर बेगि अगौहीं ॥
भयउ अरध सर धारा सारी । चतरंग कंठ काट निबारी ॥
फल से युक्त बाण का पूर्वार्द्ध भाग बड़ी तीव्रता से शत्रु पक्ष के सेनापति चित्रांग की ओर बढ़ा | अर्ध सायक ने खड्ग का रूप धारण उसके कंठ को काट दिया |
कटे सीस भुइ निपतै एैसे । कटत निपति नलिनी रूह जैसे ॥
निपति अस कल किरीट कमंडल । निपत सोहि जस सस भू मंडल ॥
कटा हुवा शीश फिर भूमि पर ऐसे गिरा जैसे नलिन नाल कटकर गिरती है उसपर के गिरते सुन्दर किरीट कमंडल पृथ्वी पर टूटकर गिरते चन्द्रमा के जैसे सुशोभित हो रहे थे |
कलिक सैन भै कंठ बिहीन | ऊरधउ सुर भई सुर हीना |
पंखि रहत भै बिनहि बिताना | प्रानप रहत भई बिनु प्राना ||
इस प्रकार सुबाहु की ऊँचे स्वर में ललकारने वाली सेना क्रौंच सेना कंठ विहीन होकर स्वरहीन हो गई | पंख होते हुवे भी विस्तार विहीन हो गई और प्राणाधान होते हुवे भी वह जैसे निष्प्राण हो गई थी |
चित्रांग धरनि पारी जब देखे । पुष्कल कलिक ब्यूह प्रबेखे ॥
सोहत जिन्ह बीर बहुतेरे । किए जय जय निज दलपत केरे ॥
चित्रांग को धराशायी और सेना को कंठ विहीन देखकर पुष्कल ने अपने सेनापति की जयघोष करते अनेकानेक वीरों से सुशोभित कलिक व्यूह में प्रवेश किया |
दरसी सुतन्हि सुबाहु जब, भयऊ प्रान बिहीन ।
सोकारत अस तरपे जस तरपत जल बिनु मीन ॥
इधर सुबाहु ने जब प्राण विहिनहुवे अपने पुत्र को देखा तन वह शोक से आर्ट होकर ऐसे तड़पे जैसे जल के बिना मछली तड़पती है |
बृहस्पतिवार, १९ फरवरी, २०१५
तेहि काल निज रथ कर कासे ।आगत दुनहु कुअँर पितु पासे ॥
प्रनत सीस अवनत चरन गहै ।सुरीत समयोचित बचन कहे ।।
उसी समय रथ रश्मियों को कसे दोनों कुमार अपने पिता सुबाहु के पास आए और नतमस्तक होकर उनके चरणों में प्रणाम करते हुवे समयोचित व् रीतिनुसार ये वचन बोले --
हमरे जिअत गहै दुःख भारी ।राजु बीर गति होत प्यारी ॥
चित्रांग रिपु सन लौहु बजाए । संग्रामाँगन सोइ गति पाए ॥
राजन ! हमारे जीते जी आपको को यह भारी संताप हो रहा है, वीरता पूर्ण कार्य करते हुवे यदि मृत्यु हो जाए तो वह भी अभीष्ट होती है चित्रांग संग्राम भूमि में शत्रु के साथ संघर्ष करते हुवे वह गति प्राप्त हुई है |
मात पिता बाँधउ अनुरागी । धुरंधर सो धन्य के भागी ॥
महमते अजहुँ सोक निबारौ । बीर तनुज हुँत दुःख नहि धारौ ॥
वह धुरंधर अब माता, पिता व् बंधुओं का विशेष अनुरागी होकर धन्य का पात्र हो गया है एतएव महामते ! इस समय आप शोक त्याग दीजिए और अपने वीर पुत्र के लिए व्यथित मत होइये |
महमन हमहि रन आजसु दाएँ । आपहु चित रन रंग रंगाएँ ।।
बाँध जिआ धनु बान सुधारे । तनुज बचन सुनि सैन सँभारे ॥
मान्यवर!अब आप उत्कंठित होते हुवे संघर्ष कीजिए और हमें युद्ध की आज्ञा दीजिए | ' अपने पुत्रों के इन वचनों को सुनकर हृदय की भावनाओं को वश में करते हुवे धनुष और बाण सुधारकर सेना की संभाल की |
सोकाकुल उर घन जानि दमकत पानि कृपानि ।
तूर चरन राजन रनन , तमकत रन भुइ आनि ॥
पिता के ह्रदय को शोक से व्याकुल मेघ जानकर हाथ में बिजली बनकर कृपाण दमक उठी, आक्रोश से भरे सुबाहु के आतुर चरण शत्रु के साथ संघर्ष करने के लिए रण भूमि को प्रस्थान हुवे |
शुक्रवार, २० फरवरी, २०१५
कर सरासन सर भरे भाथा । आए कुँअर दुहु पितु के साथा ॥
कोटि कोटि भट भरे पूराए । जीवट उत्कट कटक भितराए ॥
हाथों में सरासन व् सायकों से भरे तूणीर लिए दोनों राजकुमार भी पिता के साथ आए | उनकी जीवट व् उत्कट सेना के अन्तस्थ में करोड़ों सैनिकों भरे हुवे थे |
निज निभ बाहु बली अभिलाखे । रन रंग रंजन भनिति भाखे ॥
नील रतन संग बिचित्र भेले | रिपुताप सन दमन रन खेले ॥
अपने समदृश्य बाहुबली को अभिलक्षित कर वीरों का उत्साह वर्द्धन करने वाली संक्षिप्तोक्ति करते हुवे विचित्र ने नीलरत्न के साथ तथा दमन ने रिपुताप के साथ लोहा लिया |
सुबाहु हिरनजटित रथ चाढ़े । भेलन सत्रुहन पुर चलि बाढ़े ॥
पानि जुगत कृपान चहुँ फेरे । घेरे जिन्हनि बीर घनेरे।।
स्वयं सुबाहु स्वर्ण जटित रथ में आरूढ़ होकर शत्रुध्न से युद्ध करने के लिए बढ़ चले जिन्हें कृपाण युक्त हस्त को चारों ओर घुर्माते अनेकानेक वीरों ने घेरा हुवा था |
सुबाहु घेर बिभेदन लागे । हनुमन सत्रुहन रच्छन भागे ॥
भुज दल सिखर सागर बल धरे। घन सोह मुख घन गर्जन करे ॥
रोष में भरे सुबाहु जब उस घेरे का विभेदन करने लगे तब वीर हनुमान शत्रुध्न की रक्षा के लिए दौड़ पड़े | उनकी कंधे सागर जितने बल से युक्त थे उनका मुख मेघ के समान विकट गर्जना कर रहा था |
तेहि अवसर सुबाहु दस कठिन बान संधान ।
छूटत बेगि सरसर चर देइ चोट हनुमान ॥
उसी समय सुबाहु ने देश कठिन बाणों का संधान किया छटते ही वे बाण वेगपूर्वक सरसराते चले और हनुमंत को चोटिल कर दिया |
शनिवार २१ फरवरी, २०१५
बीर भयंकर सर उर छोड़े । गहे हस्त तिल तिल करि तोड़े ।
जिन्ह कहत बली बिनहि तुलाए । झपट राउ रथ खैंच लेवाए ॥
किन्तु हनुमंत भी भयंकर वीर थे उन्होंने ह्रदय पर छोड़े गए उन बाणों को तिल -तिल करके तोड़ दिया | जिन्हें अतुलनीय बलशाली कहा जाता है उन्होंने फिर झपट्टा मारकर राजा के रथ को खैंच लिया ,
लपट पुंग तुर चले अगासा । नाहु नयन छत छाए हतासा ॥
बिचरत गगन हिरन रथ संगा । पाँख बिहूनइ भयउ बिहंगा ॥
और उसे अपनी पूँछ में लपेटकर तीव्र गति से आकाश में ले गए नृपश्रेष्ठ के नेत्र-क्षितिज पर हताशा व्याप्त हो गई | उस समय हनुमंत हिरण्मयी के साथ आकाश में विचरण करते जैसे पंख रहित होते हुवे भी पक्षी हो चले थे |
रथ जहँ नृप तहँ रहँ अबलम्बित । लखत पुंग मुख बाहु प्रलम्बित ॥
मर्म अघातक पीरा दायक । छाँड़ेसि तुर तेज मुखि सायक ॥
नृपश्रेष्ठ सुबाहु भी वहीँ स्थिर हो गए जहाँ रथ था और कपिवर हनुमंत की पूँछ, मुख व् प्रलंबित भुजाओं का लक्ष्य कर मर्माघाती व् पीड़ा दायक तीक्ष्ण मुखी बाण छोड़ने लगे |
बिहतत गए जब बारहि बारा ।किए हनुमंत अक्रोस अपारा ॥
धरि लात एक नाहु उर मारा । परे घात जनु बजर प्रहारा ॥
जब वह वारंवार आहत होने लगे तब उनको अपार आक्रोश हुवा | प्रतिउत्तर में उन्होंने वीर योद्धाओं से घिरे राजा सुबाहु के हृदय भवन में एक लात मारी, वह चरण-प्रहार वज्र-प्रहार के जैसा था |
गह अस तेज अघात,छतबत मुरुछा गहन किए ।
आँगन होत निपात, तपत रुधिर मुख बमन किए ॥
इस तीव्र आघात से घायल राजा मूर्छा ग्रहण कर रणांगण में गिर पड़े , और मुख से तप्त रक्त का वमन होने लगा |
रविवार, २२ फरवरी, २०१५
साँसत लमनि साँस भरि काँपे । अचेत नयन सपन बिअ बाँपे ।।
श्री राम छबि इब अंकुर साजे । दरसिहि पख मख मण्ड बिराजे ॥
अत्यधिक कष्ट के कारण वह लम्बी लम्बी सांस भर कांपने लगे उनके अचेत नेत्रों ने फिर स्वप्न के बीज बोये जिसमें श्री राम की अंकुरित छवि सुसज्जित हो गई पलक-पट में वह यज्ञ-मंडप के भीतर विराजित दिखाई दे रहे थे |
भयउ रजनि कन जगन्न केरे । कांति किए रहैं चहुँ दिसि घेरे ॥
कोटिक ब्रम्हांड के प्रानी । ठाढ़ि रहे तहँ जोरे पानी ॥
ओस बिंदु के रूप में यज्ञ कराने वाले ब्राम्हण मुख पर कांति वर्द्धन करते हुवे उउन्हें चारों और से घेरे हुवे थे | ब्रम्हांड के करोडो प्राणी उनके सम्मुख हाथ जोड़े खड़े थे |
ब्रम्हादिदेउ सहित मुनीसा । किएँ बर अस्तुति अवनत सीसा ॥
रमा रमन के कमल नयन के । श्री बिग्रह घन स्याम बरन के ॥
ब्रह्मा आदि देवता सहित मुनि गण नतमस्तक होकर उनकी सुन्दर स्तुति कर रहे थे | कमल जैसे नेत्रों वाले रमा के रमन का श्री विग्रह गहरे श्याम वर्ण का था |
बोलत कल भूषन भए भृंगा । मुकुलित हस्त धरे मृग सींगा ॥
नारदादि रिषि हस्त अधीना | सुजस गान कर बाजिहि बीना ||
उसपर के अनुरणन करते सुन्दर आभूषण मधुकर से प्रतीत हो रहे थे | भगवान अपने मुकुलित हस्त-कमल में मृग-शृंग लिए हुवे हैं | नारद आदि देवर्षियों के हस्ताधीन होकर वीणाएँ उनके सुयश का गान करती हुई झंकृत हो रही हैं |
बेद मूर्ति मान होत प्रगसे सगुन सरूप ।
राजन के सपन दरपन, दरसिहि छटा अनूप ॥
राजा सुबाहु के स्वप्न-दर्पण में दर्शित यह छटा अनुपम है, चारों वेद मूर्तिमान होकर सगुण स्वरूप में प्रकट हुवे हैं |
सोम /मंगल २३/२४ फरवरी, २०१५
करत भनित प्रभु चरन अराधएँ । तपो निधान रूप जस लागएँ ॥
जे जग जो किछु सुघर सँजोइल । देनहार श्री रामहि होइल ॥
प्रभु की स्तुति करते हुवे वह उनके चरणों की आराधना में अनुरक्त वह श्रेष्ठ तपस्वियों के समरूप प्रतीत हो रहे हैं | जग में जो कुछ उत्तम पदार्थ है उसके दाता भगवान ही हैं |
कुजिहि कूनिका सहु छहु रागे । तबहि नाहु चेतत उठि जागे ॥
छाए मोदु मन गयउ प्रमादा । सत्रुहन पद पुर चले पयादा ॥
जब कूणिकाओं के कंठ से छहों राग रंजन कर रहे थे कि तभी अचेत नृप श्रेष्ठ सुबाहु की चैतन्य होकर जाग उठे | प्रमाद जाता रहा अब मन में प्रमोद का बसेरा हो गया और उनके चरण शत्रुध्न के चरणों की ओर चल पड़े |
चरत चरत सो रन भुइँ आवा । बिचित्र दमन रंजीत पावा ।
हाँक दिए तिन्ह निकट बुलायो । रन रोधन कारन समझायो ॥
चलते चलते वह युद्ध-भूमि में आए वहां रणोद्यत विचित्र एवं दमन को संघर्ष करते देखा तो इन्हें पुकारकर अपने निकट बुलाया और युद्ध-विराम का कारण समझाया |
बहोरि सुकेतु कोत बिलोके । करत सँकेतु अजुद्धिक रोके ॥
सपन दर्पन छबि लोचन छाए । कहि भै हमसों बहुत अन्याए ॥
फिर उन्होंने सुकेतु की ओर देखकर युद्ध-विराम का संकेत कर उसे भी रोका | स्वप्न- दर्पण में भगवान श्रीराम की दर्शित छवि को संज्ञापित कर कहा हमसे बड़ा ही अन्याय हुवा है |
जड़ जंगम जग कर भरतारा । जो परब्रम्ह राम अवतारा ॥
कारज कारन दुहु सोहि परे । तिन्ह के बीर भदर तुम हरे ॥
जो परब्रह्म राम के रूप में अवतरित हैं वह इस चराचर जगत के स्वामी हैं ये कार्य व् कारण दोनों ही से परे हैं तुमने उनके त्यागे हुवे वीरभद्र (मेधीय अश्व ) का हरण किया |
सोई राम रूप भगवाना ।ए गूढ़ बचन अजहुँ मैं जाना ॥
मनुज गात गह लिए अवतारे।एहि अवनिहि हित हेतु हमारे ॥
राम रूप में वह ईश्वर का स्वरूप हैं यह गूढ़ वचन मुझे अब जाकर ज्ञात हुवा | हमारे कल्याण के हेतु ही मानव शरीर धारण कर इस धरती पर अवतरित हुवे |
पुनि सुबाहु सुत भ्रात सहुँ, बरनै सोई प्रसंग ।
असितांग मुनि को हाँस,भयउ जोइ तिन संग ॥
राजा सुबाहु पुत्रों व् भ्राताओं के सम्मुख उस घटना का वर्णन किया असिताङ्ग् मुनि का उपहास करने के कारण घटित हुई थी |
बुधवार,२५ फरवरी, २०१५
निगदि नाहु कर मिरदुल बानी । सुनु सुत भ्रात ए बात पुरानी ॥
पैहन मैं सत सार ग्याना । पर हित हेतु तीरथ पयाना ॥
राजा सुबाहु ने फिर मृदुल वाणी से कहा -- पुत्रों ! हे मेरे बंधुओं ! अब इस मेरे साथ घटित इस पुरातीत घटना को सुनो | मैं तत्त्व ज्ञान प्राप्ति की अभिलाषा एवं परमार्थ हेतु तीर्थ यात्रा के लिए निर्गत हुवा |
देइ दरस मग मुनिबर नेका । धरम परायन परम प्रबेका ॥
भगवन मम कर औसर देबा । किए असितांग मुनि के सेबा ॥
मार्ग में मुझे अनेकानेक श्रेष्ठ मुनियों के दर्शन हुए जो धर्मपरता में अतिशय प्रवीण थे | भगवान ने मुझे अवसर प्रदान किया जिससे मैं असिताङ्ग् मुनि की सेवा सुश्रुता कर पाया |
मो ऊपर किए कृपा बिसेषा । जति धर्म दिए मोहि उपदेसा ॥
जासु महत माहि अगम अबाधा । बरे सिंधु जस बारि अगाधा ॥
मुनिवर ने मुझपर विशेष कृपा करके यतिधर्म का यह उपदेश दिया -- जिनका महात्मय में अगम्य असीम है सिंधु के अगाध जल के समान उनका महात्मय भी अगम्य व् अखंड है ||
जो सुभ सरूप रूप सँजोई । तासु नाउ परब्रम्हा होई ॥
जनक किसोरि राम की जानि । साखि चिन्मई बल गई मानि ॥
जो कल्याणकारी रूप-स्वरूप संजोए हुवे हैं उनका नाम ही परब्रह्म है जनक-किशोरी जानकी जिनकी अर्धांगिनि हैं वे भगवान की साक्षात चिन्मयी शक्ति मानी गई हैं |
दुस्तर अपार संसार सिंधु पार गमन जो कोउ चहैं ।
सो जति धरमी सङ्कृत करमी हरिहि पदुम पद पूजतहैं ॥
चतुर्भुज रूपा महि भूपा जासु गरुड़ ध्वज धारी कहैं ।
दसरथ के अजिरु बिहारी सोई बिष्नु अवतारी अहैं ॥
जो कोई इस दुस्तर संसार सिंधु के पारगमन की अभिलाषा वाले धर्मी सुकृति कर्मि योगीजन जिन भगवान के चरणों की उपासना करते हैं जो चतुर्भुज स्वरूपी धरापति, गरुड़ ध्वज धारी है और जो भगवान जगन्नाथ कहलाते हैं, दशरथ के अजिर में विहार करने वाले श्रीराम उन्हीं के अवतार हैं |
तिन्ह भगवन भावनुरत पूजिहि जो नर नारि ।
भव सिंधु तर सो होइहि परम गति के धिकारि ॥
जो कोई नर-नारी उन भगवान भावपूरित उपासना करते हैं वह इस संसार सिंधु से पारगम्य होकर परम पद के अधिकारी होते है |
बृहस्पतिवार,२६ फरवरी, २०१५
सुनि मुनि निगदन मैं उपहासा । भय भूप सो मोर सकासा ॥
राम मनुज सधारनहि होई । बिष्नु रूप धर सकै न कोई ॥
मुनि के इन वचनों को सुनकर मैने उनका उपहास कर कहा -- वह तो मेरे जैसे ही राजा हैं राम कोई साधारण मनुष्य ही हैं, विष्णु का स्वरूप धारण करना किसी मनुष्य के वश का नहीं है |
हर्ष सोक सागर जो गाहिहि । सो तिय श्री कैसेउ कहाही ॥
अजनमनी कैसेउ जन्माए । जगत अकर्ता जगत कस आए ॥
जो हर्ष व् शोक के सागर में अवगाहन कराती हैं वह स्त्री श्री कैसे हो सकती हैं ? भगवान तो अजन्मे हैं अजन्में का जन्म कैसे हो सकता है ? जो जगत अकर्ता हैं उनका जगत में आने का क्या प्रयोजन ?
जासु आदि न मध्य अवसाना । अमित प्रभाउ बेद नहि जाना ॥
भब भब बिभब पराभब कारी । नयन भवन एक प्रश्न निहारी ॥
इतने प्रश्नों के पश्चात मेरे दृष्टिभवन में पुनश्च एक प्रश्न दृष्टिगत होने लगा -- जिसका न आदि है न मध्य न अंत है जिनके अमित प्रभाव का व्याख्यान वेद भी नहीं कर सकते जो संसार की उत्पत्ति और उसपर की सम्पति को पराभूत करने वाले हैं
जूट केस उपदेसु मो कहहु । सो राम बिष्नु रूप कस अहहु ॥
निगदित बचनन दिए जब काना । किए अभिसपत मोहि बिद्बाना ॥
हे जटाधारी मुनि ! मुझे यह उपदेश देकर बोध कराइये कि वे राम विष्णु के अवतार कैसे हो सकते हैं ?विद्वान मुनि ने मुझे ये कहते हुवे सुना तो उन्होंने मुझे अभिशप्त कर दिया |
कोप सिंधु गह नयन हिलोले । धनुमुख बानि बान भर बोले ।।
अधमी रघुबर रूप न जाने । मुनिबर कहेउ बचन न माने ॥
उनके नेत्रों में जैसे कोप कासमुद्र उमड़ आया फिर वे मुख रूपी धनुष में वाणी के बाण का संधान कर बोले -- रे अधमी ! तुम्हे रघुबर का स्वरूप ज्ञात नहीं है तुम मुनिवरों के वचनों का भी तिरस्कार करते हो ? धिक्कार है तुम पर !
निंदरहु मान सधारन भगवन मानस रूप ।
मोर कथनन प्रतिबादिहु समुझइ निज बर भूप ॥
तुम भगवान को साधारण मानव मानकर उनकी निंदा कर रहे हो ? और स्वयं को जगत सम्राट समझ कर मेरे कथन का प्रतिवाद कर रहे हो ?
शुक्रवार, २७ फरवरी, २०१५
कहे ऐसेउ उपहास बचन । होहु अजहुँ ते उदर परायन ॥
तुम्हारे सकल सार ग्याना । मोर श्राप सों होहि बिहाना ॥
तुमने भगवान के प्रति ऐसे उपहास वचन कहे ?जाओ अब से तुम उदर परायण हो जाओगे, तुम्हारा समस्त तत्त्व ज्ञान मेरे श्राप से नष्ट हो जाएगा |
सुन अस मम उर भए भय भीता । सकल सार ग्यान सों रीता ॥
जोए पानि दुहु मैं पग पारा । मुनिरु उपल मन बहि द्रव धारा ॥
ऐसा सुनकर सार ज्ञान से रिक्त हुवे मेरे अंतस में भय व्याप्त हो गया | दोनों हाथ जोड़े फिर में मुनि के चरणों में गिर पड़ा तब मुनिवर का पाषाण हृदय द्रविभूत हो गया |
भरे भीत करुना के सागर । बोले अस मो भर भुज अंतर ॥
रघुबर अश्व मेध जब करिहीं । तुहरे सोहि रन बिघन धरिही॥
उनके अंतर्मन में करुणा का सागर उमड़ पड़ा फिर वे मुझे भुजांतर में भरकर बोले -- 'अयोध्या के अधिपति भगवान रघुनाथ जब अश्वमेध करेंगेयुद्ध में संघर्षरत होने के कारण तुम्हारे द्वारा उस यज्ञ में विध्न होगा |
करिहीं घात बेगि हनुमंता । सुनु हे चक्रांका के कंता ॥
हे चक्रांका नगरी के कांत आगे सुनो -तब वीर हनुमान तुमपर वेगपूर्वक चरण-प्रहार करेंगे |
तब तोहि होहि ए ग्यान राम रूप भगवान ।
न तरु निज कुमति संग तुअ, सकिहु न अजिवन जान ॥
तब तुम्हे यह ज्ञान होगा कि राम ही भगवान का स्वरूप हैं, अन्यथा अपनी कुबुद्धि तुम्हे यह आजीवन ज्ञात नहीं होगा | '
शनिवार, २८ फरवरी, २०१५
मुनि मनीषि मुख जो कहि भाखा । तासु भान होइहि मो साखा ॥
जाहु महबली रघुबर जी के । आनहु लेइ तुरंगम नीके ॥
उन मुनि मनीषी ने अपने मुख से जो कुछ कहा अब मुझे उसका प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है | महाबली सैनिकों ! जाओ अब रघुबर जी के उस शोभयमान अश्व को ले आओ |
सब धन सब सम्पद ता संगा । मम राजित एहि राज प्रसंगा ॥
करिहउँ में अर्पित भगवाना । कारन एहि मख धर्म प्रधाना ॥
उसके साथ मैं समस्त धन सम्पदा तथा मेरे द्वारा राजित ये राज्य भी भगवान को अर्पित कर दूंगा, कारण कि यह यज्ञ धर्म के हेतु है |
दरस प्रभु मैं कृतकृत होइहउँ । सरब समरपत पानि जोइहउँ ॥
सुबाहु सुत बर रीति रनइता । श्रुतु पितु बचन भए अति हर्षिता ॥
हाथ जोड़कर अश्व सहित अपना सर्वस्व समर्पित करते समय मैं भगवान श्रीराम के दर्शन कर कृतार्थ हो जाऊंगा |' सुबाहु के पुत्र राण की उत्तम-उत्तम नीतियों के ज्ञाता थे पिता के ऐसे वचन सुनकर वे अपार हर्षित हुवे |
पितु जस रघुबर दरस उछाहीं । मोदु प्रमोदु मेह मुख छाहीं ।\
नयन गगन जल बिंदु हिलोले ।अनुज तनुज दुहु भीनत बोले ॥
रघुवर के दर्शन हेतु पिता की उत्कंठा देखकर उनके मुख पर प्रसन्नता और आनंद के बादल छा गए नयन रूपी से गगन से फिर जल बिंदुएं लहराने लगी और पुत्र और बन्धुगण उस जल से द्रवीभूत होते हुवे बोले --
हमहि कुछु अरु जानए नहि, एक तव चरन बिहोर ।
तुहरे दिनकर बचन किए हमरे तमि मन भोर ॥
महाराज ! एक आपके चरणों के अन्यथा हमें और कुछ ज्ञात नहीं है दिनकर के समान आपके इन वचनों ने हमारे तमस मन में जैसे भोर कर दिया |
रविवार, 01 मार्च ,२०१५
जो प्रभु दरस के सुभ संकल्पा । तुहरे हरिदै जो किछु कल्पा ॥
सो सब पूरन होवनि चाहिब । चन्दन चर्चित हय लिए जाइब ॥
आपने प्रभु दर्शन का जो शुभ संकल्प लिया है तथा आपके ह्रदय जो कुछ परिकल्पना की है वह सब अब पूर्ण होनेवाला है | चंदा से चर्चित इस उत्तम अश्व को भी संकल्प मेधीय अश्व को भी प्रभु के पास ले जाइये |
| तुम स्वामि तुम अग्याकारी ।हम तव सेबक हम अनुहारी ॥
अनुपजोगि यहु राज पटौहा । तव अग्या उपजोगित होही ॥
आप तो स्वामी हैं आप आज्ञा करने वाले हैं हम आपके सेवक आपकी आज्ञा के पालनकर्ता हैं | यह अनुपयोगी राज-पाट आपकी आज्ञा का अनुशरण करके ही उपयोगी सिद्ध होगी |
मुकुत मरकत मनि स्याम सम रतन ।हय हस्ति सोहि हिरन सयंदन ॥
सम्पत कोष ए लाखहि लाखा । सब द्रव प्रभु पद देइहु राखा ॥
मुक्ता पन्ना नीलम जैसे बहुमूल्य रत्न ये घोड़े हाथी साथ ये स्वर्णमयी रथ आदि सम्पदा कोष लाखों की संख्या में प्रस्तुत हैं, ये सब द्रव आप प्रभु के चरणों में समर्पित कर देना |
ताते अबरू अहँ जोइ जोई | महा अभ्युदय केरि सँजोई ||
जाइ तहाँ तिन भगवद सेबा | सादर पद अर्पन करि देबा ||
इससे अन्यथा और जो-जो महान अभ्युदय की वस्तुएं हैं इन्हें भी भगवद सेवा हेतु भगवान श्रीराम के चरणों में सादर समर्पित कर देना |
हम सुत किंकर सकल तुहारे ।हमहि तिन्ह सन अर्पित कारें ॥
रिद्धि सिद्धि सो सब लिज्यो ।गमनु बेगि अरु बिलम न किज्यो ॥
महामते ! हम सभी पुत्र आपके किंकर हैं उनके साथ हमें भी भगवान के चरणों में अर्पित कीजिए | अब आप और विलम्ब न कर इन रिद्धियों व् सिद्धियों को साथ लिए प्रभु के चरणों की ओर प्रस्थान करें |
श्रुत सुत बचन सुबाहु मन भयउ हर्ष अति भारि ।
बीर बलि बलिहार अस , गदगद गदन उचारि ॥
अपने सुपुत्रों के इन वचनों को सुनकर राजा सुबाहु के मन-मानस में अपार हर्ष हुवा अपने वीर बलवान पुत्रों पर न्योछावर होकर फिर उन्होंने ऐसे गदगद वचन कहे --
सोमवार,०२ मार्च,२०१५
चँवर ध्वज बर बाजि सुसाजे । बीर बंत रन साज समाजे ॥
गहे कर अजुध बिबध प्रकारे । तुम्ह सबहि रथ घेरा घारे ॥
तुम सब वीर वंत समस्त सैन्य सामग्रियों सहित ध्वजा चँवरादि से सुशोभित अश्व के साथ विविध प्रकार के अस्त्र-शस्त्र व् रथों से घिरकर
साजि राज गज सब ले लइहौ ।बहुरि मैं सत्रुहन पहि जइहौ ॥
कहत सतत अहिपत भगवाना ।सुबाहु कही बत देइ काना ॥
सुसज्जित राज वाह्य आदि सब ले आओ तत्पश्चात में शत्रुध्न के पास प्रस्थान करूंगा | भगवान शेष जी सतत रूप से कहते हैं -- मुने ! सुबाहु के कहे वचनों को ध्यानपूर्वक सुनकर -
बिचित्र दमन सुकेतु सरि धीरा । अन्यानै समर सूर बीरा ॥
प्रजा पालक अग्यानुहारे । गयउ सहरषित नगर पँवारे ॥
और उन्हें सिरोधार्य कर विचित्र, दमन, सुकेतु आदि अन्यान्य शूरवीरों ने प्रजा पालक की आज्ञा का अनुशरण करते हुवे युद्ध-भूमि से प्रसन्नतापूर्वक राजधानी को गए |
पयस मयूखी बदन मनोहर । रजत चंवर बर जोगित तापर ॥
सुबर्नमय पत्रक लक लँकृते । अक्छत कृत तिलक लषन सहिते॥
जिसका मुखचन्द्रमा के समान मनोहर था, उसपर वह रजतमयी चंवर से युक्त था | अक्षत कृत तिलक चिन्ह सहित स्वर्णमयी पत्रिका से अलंकृत जिसका मस्तक था |
चपल चरन स्याम करन,मनिसर माल सँजोह ।
हय कर किरन पुंज धरे आनि प्रजा पति सोंह ॥
जिसके कान श्याम वर्ण के थे ,जिसकी ग्रीवा हीरक माला से सुशोभित थी उस चपल चरणी अश्व की किरण पुंज को धारण किए फिर वे अपने महाराज के समक्ष उपस्थित हुवे |
मंगलवार, ०३ मार्च,२०१५
बीरभदर जब सम्मुख देखे । सुबाहु मन भा हर्ष बिसेखे ॥
दुहु सपूत भट भ्रात प्रसंगे । सकल साज सँजोउ लए संगे ॥
मेधीय अश्व को अपने सम्मुख देखकर सुबाहु को मन में विशेष हर्ष हुवा | दोनों सुपुत्र, सैनिकों व् अपने बंधू-बांधवों के प्रसंग समस्त धन-वैभव को साथ लिए -
चले पयादिक पंथ अधीसा । अबनत नयन बिनय बत सीसा ॥
सत्रुहनहि पदक पुर अस धूरे । भोर भूरे जस साँझ बहुरे ॥
फिर वह विनीत नेत्रों व् विनम्र भाव से भगवद पंथ पर चल पड़े | तदनन्तर शत्रुध्न के पादपुर के निकट ऐसे पहुंचे जैसे कोई प्रात का भुला हो और संध्या को लौट रहा हो |
जीवन साधन छन छबि जाने । तासों अनुरति दुःख गति माने ।।
जोइ नसावनि पथ ले गवने । सो धन सम्पद् सहुँ लए अवने ॥
महाराज ने जीवन और उसके सुख-साधनों को क्षणभंगुर जानकर उससे होने वाली आसक्ति को दुःख का कारण माना | जो धन-सम्पति विनाश के मार्ग की और ले जाती है उसका सदुपयोग करने के हेतु उसे वह साथ ले आए |
सत्रुहन नियरावत का देखे । बरे बपुरधर बरन बिसेखे ॥
पीत बसन बल बल्गत बासे । पटकनिया उपपंखि निबासे ||
शत्रुध्न के निकट जाकर वह क्या कि शत्रुघ्नजी की देह विशेष वर्ण की है जो बल पड़े पीतम वस्त्र से घिरी है कन्धों पर पीतम पटका सुशोभित हैं |
भरे भेष भुज सिखर बिसाला । हरिद पलासिक लावनि लाला ॥
कूल कलित कल खंकन बाजे । मनियारि मंजरी बिराजे ॥
उनकी विशाल भुजांतरों पर पलास के समान लाल-हरे वस्त्र-खंड अपना लावण्य बिखेर रहे हैं जिसके कगारों में मञ्जुलित मंजरियों पर विराजित छुद्र-घंटियां मधुर ध्वनि कर रही थी |
उज्जबर छतर छाँउकर सोहि । बीरोचित प्रभा पलुहन होहि ॥
चतुरंगिनि घन गगन पताका । किए निहतेज बार एक ताका ॥
उनका शीश श्वेत छत्र छाया से सुशोभित था उसपर वीरोचित दीप्ति उदीप्त हो रही थी | गगन में पताकाएं लहराती सघन चतुरंगिणी सेना उनके साथ थी जो अपनी एक दृष्टि मात्र से शत्रु को निश्तेज करने वाली थी |
रहँ भट तीरहि तीर धीमंत सुमति सँग डटे ।
पूछ रहे महबीर श्री राम कथा बारता, ॥
तीर-तीर पर सैनिक उपस्थित थे जिसके साथ धामंत सचिव शत्रु की प्रतीक्षा में डटे हुवे थे, महावीर हनुमान उनसे भगवान श्र्री राम की कथा वार्ता पूछ रहे थे |
बुधवार, ०४ मार्च, २०१५
सत्रुहन कुल दीपक सम लस्यो ।कुल प्रताप द्युतिस सम बस्यो ॥
बिलोकत बीर बलि बाँकुर पुर । भय आपहि तब होत भयातुर ॥
शत्रुध्न वहां रघु कुल दीपक के समान सुशोभित हो रहे थे जिसमें रघु कुल के प्रताप की छटा बसी हुई थी | जब वह शूर-वीरों की दृष्टि करते तब उनका सामना कर स्वयं भय भी भय से आक्रान्त हो उठती |
दरसत तिन्ह सुत भ्रात सहिता ।सुबाहु भयउ रन रोष रहिता ॥
जपत अधर रघुबरहि नामा ।परस चरन पुनि करे प्रनामा ॥
उन्हें पुत्र व् बंधू-बांधवों के सहित देखकर सुबाहु यौद्धिक रोष से रहित हो गए | अधरों से भगवान श्री राम का ही जाप करते हुवे उन्होंने फिर उनके चरण स्पर्श कर प्रणाम अर्पित किया |
पाए जबहि रिपुहंत समीपा । हर्षित होइ गयउ अधीपा ॥
बानिन भाव भगति रस बोरे । धन्य धन्य मैं कहि कर जोरे ॥
शत्रुध्न का सामीप्य प्राप्तकर राजा सुबाहु अत्यंत हर्षित हुवे | वाणी को भाव-भक्ति के रस में डूबो कर कहा : - 'वीरवर ! में धन्य हो गया |'
तेहि समउ मन भयउ बिरागा | रघुबरहि चिंतन माहि लागा |
बिलखत रिपुहु हिती सम बाढ़े । रामानुज उठि आसन छाँड़े॥
उस समय उनका मन जैसे वैराग्य को प्राप्त होकर एक मात्र रघुवर के चिंतन में ही लगा था | शत्रु को हिताकांक्षी के सदृश्य बढ़ते देखकर रामानुज शत्रुध्न आसन परिहारते उठ खड़े हुवे |
मेलिहि सब सहुँ बाहु पसारे ।मुदित भेँट सब लेइ सकारे ॥
और सबसे भुजा पसारकर मिले तथा राजा सुबाहु की भेंट को प्रसन्नचित होकर स्वीकार किया |
पलक पयस पखारी के पूजत पद भल भाँति ।
सर्बस अरपन करतेउ, छाए बदन कल काँति ॥
पलकों के अश्रु बिंदुओं से शत्रुध्न के चरणों का भली प्रकार से पूजन किया | सर्वस्व अर्पण करते समय उनके मुख मंडल पर अलौकिक कांति व्याप्त हो रही थी |
बृहस्पतिवार,०५ मार्च,२०१५
गदगद गिरा पेम रस साने । कहत कोमली करुन निधाने ॥
जो पद जग अभिबन्दित होंही । मिले भाग सो परसन मोही ॥
अपनी गदगद वाणी को प्रेमरस में भीगा कर फिर उन्होंने कोमलता से कहा -- 'करुणानिधे ! जो चरण जगदाभिवंदित है सौभाग्यवश आज मुझे उनका स्पर्श प्राप्त हुवा |
तरसहि पावस पुरी पँवारे । अहो भाग तव चरन पधारे ॥
मोर सुत दमन बयस न सोधा ।प्रभो अजहु सो भयउ अबोधा ॥
इस नगर के द्वार पावस के लिए तरस गए थे अहो भाग्य ! आपके चरण पधार गए ( अब पावस दूर नहीं है यह हराभरा हो जाएगा ) | स्वामिन ! मेरा पुत्र दमन वयस्कता को प्राप्त नहीं हुवा है इस हेतु वह अभी अबोध है |
मम सुत बालक आपु सयाने । बाँधे बाजि तिन्ह छम दाने ॥
जो सब देवन्हि देवल हारा ।जग सर्जत पालत संहारा ॥
मेरा पुत्र बालक और आप परिपक्व हैं आपके अश्व को बांधने की उसकी धृष्टता को क्षमा करें | जो सम्पूर्ण देवताओं के भी देवता हैं, जो जगत का सृजन, पालन और संहार करने वाले हैं |
जान बिनु रघु बंस मनि नामा । कौतुकी करत किए एहि कामा ।
सम्पन भा राजहि प्रति अंगा | बढ़ी चढ़ी बहु चमि चतुरंगा॥
रघु वंश के मणि श्रीरामचन्द्र जी के नाम से अनभिज्ञ है उसने कौतुक वश यह अनीतिपूर्ण कार्य किया | हमारे राज्य के प्रत्येक अंग ( स्वामी, अमात्य, राष्ट्र, कोष, दुर्ग, बल, सुहृदय ) समृद्धशाली है | सैनिकों व् सैन्य सामग्रियों से संपन्न चतुरंगिणी सेना है |
भरे पुरे एहि राज के, अहैं भूति जो कोइ ।
मो सहित मोर सुत भ्रात,सब आपहि के होइ ॥
इस प्रभुत -संपन्न राज्य की जो भी प्रभुता है वह आपकी है | मेरे साथ मेरे ये पुत्र व् बंधू- बांधव भी आप ही के हैं |
शुक्रवार,०६ मार्च, २०१५
कहै सुबाहु पुनि चरन गहि के । श्री राम स्वामि हम सबहि के ।
बिभो अग्या मैं सिरौ धरिहउँ । तुहरे मुख के कहि सब करिहउँ ॥
सुबाहु ने पुनश्च चरण पकड़ कर कहा -- 'भगवान रामचंद्र जी हम सबके स्वामी हैं मैं उन विभो की आज्ञा सिरोधार्य कर आपके मुख से कहे प्रत्येक वचन का पालन करूंगा |
मोरे दए सब भेंट सकारौ । सुफल करत तिन्हनि उपकारौ ॥
सिय पिय पुरइन चरन रमन्ता । अहइँ कहाँ मधुकर हनुमंता ॥
मेरे द्वारा प्रदान किए गए इन उपहार को स्वीकार्य कर इन्हें सफल बनाइये और हमें उपकृत कीजिए | माता सीता के पदुम चरणों में जिनकी अनुरक्ति है वह मधुकर स्वरूप हनुमंत कहाँ हैं ?
प्रभु दरसन अब बेर न होंही । तासु कृपा सों मेलिहि मोही ॥
तिन्ह अवनि का का नहि मेले । साधु सुबुध मेलिहि जो हेले ॥
भगवान श्रीराम के दर्शन में अब विलम्ब नहीं है उनकी कृपा से वह मुझे प्राप्त होने वाले हैं | साधू और सुबुध जनों के मेल-मिलाप से इस धरती पर क्या- क्या नहीं मिल जाता |
संत प्रसादु मैं लेइ पारा । होइहि अजहुँ श्रापु उद्धारा ॥
जिन्ह भगवन के जसो गाना । कहिहि सुनिहि नित संत सुजाना ॥
मैं मूढ़ था; संतों का प्रसाद मुझे प्राप्त हुवा आज मेरा ब्रह्मश्राप से उद्धार हुवा है | संत-समाज जिस भगवान का यशोगान कहते व् सुनते हैं,
मोरे दरपन लोचना तिनके दरसन जोहि ।
सो छबि मंगल मूरती, अंतर मन थिर होहि ।।
मेरे लोचन दर्पण में जिनके दर्शन का संयोग हुवा, मंगल मूर्ति स्वरूप वह छवि मेरे अंतर्मन में स्थापित हो गई है |
रविवार , ०८ मार्च,२०१५
बितिहि बयस प्रभु दरस बिछोही । सेष माहि कस दरसन होहीं ।
परसत जिनके चरन धूलिका । मुनि पतिनिहि रूप भयउ सिलिका ॥
प्रभु दर्शन के वियों में में अधिकाधिक अवस्था व्यतीत हो गई जो शेष है उसमें प्रभु के दर्शन हों भी तो कैसे ? जिनके चरण-धूलि का स्पर्श कर पाहन शिला भी मुनि पत्नी में परिवर्तित हो गई |
जो जोधिक प्रभु बदन लखाइहि । जुझनरत सो परम गति पाइहि ॥
जो रसना प्रभु नाउ पुकारी । होइहि सोइ गति के अधिकारी ॥
जो योद्धा युद्ध में उनके मुख का अवलोकन करते हैं वह परम गति को प्राप्त होते है | जिनकी जिह्वा राम नाम का आह्वान करती हैं वह भी उसी गति के अधिकारी होते है |
जिन्हनि चिंतहि नित जति जोगी । पद अनुरत जत मनस निजोगी ॥
धन्य धन्य सो अबध निबासी । धन्य धन्य सो सकल सकासी ॥
यति-योगीजन जिनका नित्य ही चिंतन करते हैं उन भगवान के चरणों में अनुरक्ति में जो अपने मन को नियोजित करते हैं वह अयोध्या निवासी धन्य है और उनके समान वह सभी लोग भी धन्य हैं |
जो बिभु बदन पदुम कर चिन्हे ।लोचन पुट दरसन रस लिन्हे ॥
पुनि सत्रुहन अस बचन कहेऊ । नृप तुम बिरधा बयस गहेऊ ॥
जो अपने लोचन पुटों से प्रभु वदनारविंद का लक्ष्य कर उनके दर्शन रूपी मकरंद का पान करते हैं | ' शत्रुध्न जी ने कहा -- 'राजन ! आप वृद्धावस्था को प्राप्त हैं,
एहि हुँत तुअ श्रीराम सहुँ, पूजनीअ मम सोहि ।
करे समर्पन आपही तुहरे बढ़पन होहि ॥
श्रीराम के समान ही आप भी मेरे पूज्य हैं | ये आपका बड़प्पन है कि आपने सर्वस्व समर्पण किया |
सोमवार , ०९ मार्च, २०१५
होहि जग सों ए राज अनूपा। तुहरे भू के तुअहिहु भूपा ॥
छतरी के करतब अस होही । किए उपनत रन अवसरु ओही ॥
यह राज्य जगत से अनुपम है यह राज भूमि आपकी है एतएव इसके भर्तार भी आप ही हैं | क्षत्रिय का कर्त्तव्य ही ऐसा है कि वह युद्ध के अवसर उपस्थित कर देता है |
एहि धन सम्पद लेइ बहोरै । अस कह सत्रुहन दुइ कर जोरै ॥
अरु कहि एहि सब सैनी साजू । सँग महि जाइ मोर हे राजू ॥
भेंट स्वरूप यह धन संपत्ति आप लौटा लिए जाइये ऐसा कहकर शत्रुध्न हाथ जोड़ लिए और साथ में कहा -- ' हे राजन ! यह सब सैन्य समुदाय मेरे साथ चले |
होइहि सैन समागम तोरे । तिनके बल बाढ़िहि बल मोरे ॥
हिती बचन सुधि सत्रुहन जी के । सुंबाहु मन लागिहि बहु नीके ॥
आपकी सेना का यदि समागम होगा तब इसके बल से मेरी सेना का बल और अधिक बढ़ेगा | शत्रुध्न के ये हितार्थ- बचन राजा सुबाहु के मन को बहुंत ही भले लगे |
निज तनुज राजु तिलक धराई । जन पालक कर भार गहाई ॥
बहुरि महारथि संग घेराए । दाह करन सुत समर भू आए ॥
अपने पुत्र को राज्य पर अभिषिक्त कर और उसे उसकी बागडोर सौंप कर फिर जन पालक महारथियों से घिरकर वीरगति को प्राप्त अपने पुत्र का अंतिम संस्कार करने रण भूमि आए |
सुत कर किरिया करम के आरत दिरिस बिलोक ।
नयन भयउ गगन बरखन छाए रहे घन सोक ॥
पुत्र की विधिपूरित क्रियाकर्म के आर्त दृश्य को देखकर उनके गगन रूपी नेत्रों को बरसाने केलिए शोक के घन आच्छादित हो गए |
मंगलवार, १० मार्च, २०१५
पलकनि पटल जल बिंदु झारै । रघुबर सुमिरन सोष निबारै ।
सतत सुरति सब सोक दूराए । बहोरि सकल रन साज सजाए ॥
पालक पटल जल बुँदे की जब झड़ी लगा दी तब रघुवर के ध्यान ने उन बूंदों को अवशोषित कर लिया व् निरंतर के स्मरण ने उन्हें शोक मुक्त कर दिया | तदनन्तर राजा सुबाहु सभी सैन्य-सामग्री सुसज्जित
ले चतुरंगी सैन बिसाला । रामानुज पहि आए भुआला ॥
गहि बल दल गंजन जब देखे । बाजि रच्छन गमन हुँत लेखे ॥
विशाल चतुरंगिणी सेना लिए रामानुज शत्रुध्न के पास आए | उनकी सेना को बलवान वीरवंत को देख शत्रुध्न ने घोड़े की रक्षा के लिए जाने का विचार किया |
समर्पिइत सुबाहु कर छाँड़े ।तासु पाछे सेन पुनि बाड़े ॥
बढे सत्रुहन सहित सब रायो | पुनि हय बामाबरत भरमायो ||
सर्वस्व समर्पयिता राजा सुबाहु के द्वारा छोडे जाने पर उसके पीछे श्रीराम चंद्र की सेना भी आगे बढ़ी | सभी राजाओं के साथ शत्रुध्न भी उनके साथ बढे ततपश्चात वह अश्व वामावर्त परिक्रमा करता
प्राची दिसि के देस घनेरे । सब कहुँ गंतत चरनन फेरे ॥
तहँ रहि भूरिहि संत बिबेका । रजै राज जग एक ते ऐका ॥
पूर्व दिशा के अनेकानेक देशों के कोने -कोने में गया लौट चला | उन सभी देशों में विवेकशील संतों की भरमार थी तथा वहां जगत के एक से एक राजाओं का राज्य था |
बर बर समर सूर संग पूजित रहि सब नाहु ।
किरन गहन जुग बाहु बल गहे रहे नहि काहु ॥
वे सब भूपाल बड़े बड़े युद्ध वीरों के द्वारा पूजित थे किन्तु उस अश्व के किरण को ग्राह्य करने जितना बल किसी में नहीं था |
बुधवार, ११ मार्च,२०१५
को निज राज भूति दानए । को निज राजित राज प्रदानए ॥
को निज राज सिहासन देई । बिबिध बिधि अस चरन सब सेईं ॥
किसी ने अपनी राज्य विभूति का दान किया किसी ने अपना महान राज्य ही प्रदान कर दिया तो किसी ने अपना सिंहासन दे दिया इस प्रकार भिन्न-भिन्न विधि से सबने रघुनाथ के चरणों की सेवा की |
रुचत रवन रत सुनत मुनीसा । कहत बार्ता सतत अहीसा ।।
मुनिबर पवन पाँखि अरोहित । सुबरन पतिका संग सुसोहित ॥
इस सतत वार्ता को रूचिपूर्वक श्रवण करते मुनिवर वात्स्यायन से भगवान शेष ने कहा-- हे मुनिवर ! तब पवन पखों में आरूढ़ होकर स्वर्णपत्रिका से सुशोभित -
पूरब कथित देसु भमराए । तेजसी तुरग तेजपुर आए ॥
धरम धुजा धर धीरु प्रसन्ता । रहे दयामय तहँ के कंता ॥
वह तेजस्वी तुरंग पूर्वोक्त देशों का भ्रमण कर तेजपुर आया, वहां के राजा दयामय, धीरप्रशान्त तथा धर्म ध्वजा को धारण करने वाले थे |
सदा साँच के चरन जुहारै । किए न्याय तो धर्म अधारै ॥
जोइ अनी अरि नगरि नसानी । रमनीक नगरि सों निकसानी ॥
वह सदैव सत्य की ही पूजा किया करते थे और धर्माधारित न्याय करते थे | शत्रु के नगर का विध्वंश करने वाली शत्रुध्न की सेना उस रमणीय नगर से होकर निकली |
बिचित्र मनि कृत परकोट रचाए । भीत नागर जन बसत सुहाए ॥
भगवन के चरनन्हि रति राखै ।पेम पूरित सबहि मन लाखे ॥
विचित्र मणि से रचयित उसका परकोट था जिसके अंतस में निवास करते हुवे नागरिक सुहावने प्रतीत हो रहे थे | इनकी अनुरक्ति एक मात्र भगवान् के चरणों में इनकी अनुरक्ति थी सबका मन भगवद प्रेम से परिपूर्ण लक्षित हो रहा था |
सत्रुहन दृग दरसत रहे देवल चारिहि पास, ।
खनखन खंकन गुँज रहे ,बास रहे सुख बास ॥
बृहस्पतिवार, १२ मार्च, २०१५
सिउ संभु कर जटा निवासिनी । सुर तरंगिनी पबित पावनी ॥
तीर तीर तहँ बहत सुहाई | पौर पौर पथ पथ पबिताई ||
शिव शंभु की जटाओं में निवास करने वाली पवित्र पावन गंगा तटवर्ती क्षेत्रों बहती हुई सुहावनी प्रतीत हो रही थी | पवित्र गंगा की उपस्थिति से उस नगरी के द्वार-द्वार और पंथ-पंथ भी पवित्र हो गए थे |
रिषि महर्षि मनीषि समुदाई । तिनके कूल सुरगति पाईं ॥
हबिरु भवन तहँ घर घर होईं ।ह्वन योजन करें सब कोई ॥
ऋषि- महर्षियों व् मुनि- मनीषियों का समाज उनके तट पर देवगति को प्राप्त होते हैं | तेजपुर के प्रत्येक निवास में हवन-कुंड निर्मित था वहां के निवासियों की हवन करने में प्रवृत्त रहते थे |
हवन धूम घन पदबी पावै । दूषन दूषित अनल बुझावै ॥
ऐसो पबित पुरी जब पेखे । सत्रुहन सुमति सन पूछ देखे ॥
अग्निहोत्र का धुंआ वहां घन की पदवी को प्राप्त कर वायु के दोषों को समाप्त कर दूषित अग्नि को शांत करता था | ऐसी पवित्र नगरी को देखकर शत्रुध्न ने सुमति से प्रश्न किया --
सौं नागर जो देइ दिखाईं । तिनके दरसन आनँद दाई ॥
मंजुल मृदुल मुख जासु महि के । सो नीक नगरि अहहि केहि के ॥
मेरे समक्ष जो नगर दिखाई दे रहा है उसका दर्शन अतिशय आनंददायी है | जिसकी भूमि का मुख इतना मृदुल और मंजुल है, वह सुन्दर नगरी किस भाग्यवान की है ?
कहत सुमति महानुभाव, बुद्धि बल के निधान ।
इहँ के राउ रहें सदा,गहे चरन भगवान ।।
तब सुमति ने कहा -- महानुभाव ! यहाँ के राजा बुद्धि व् बल के निधाता हैं उनकी सदैव भगवद चरणों में ही भक्ति रहती है शुक्रवार, १३ मार्च, २०१५
कोमल हिय हरि सुरति सँजोई । अबिरल भगति तासु पद होई ॥
ताहि कथा सुनीहि जो कोई । ब्रम्ह हंत सों मोचित होईं ॥
अपने कोमल ह्रदय में हरि की स्मृति संजोए वह भगवान की अविरल भक्ति को प्राप्त हैं | उनकी कथा को जो कोई श्रवण करता है वह ब्रह्म-ह्त्या जैसे पाप से उन्मोचित हो जाता है |
राउ नाउ जहँ लग मैं जाना । होइब श्री मान सत्यबाना ।।
सुबुधजन माहि परम ग्यानिहि । जागइक के सब अंग जानिहि ॥
जहाँ तक मुझे ज्ञात है उस राजा का नाम श्रीमान सत्यवान है | सुबुध जनों के वर्गमें वे परम ग्यानी है वह यज्ञ के सभी अंग जानते हैं |
महोदय इहाँ पूरब काला । रहे ऋतम्भर नाउ भुआला ।।
अस तौ तिनकी बहु तिय होइहि। तथापि रहे न जनिमन कोई ॥
महोदय ! पूर्वकाल में यहाँ ऋतंभर नाम के एक राजा हुवे थे | वैसे तो उनकी बहुंत सी पत्नियां थीं तथापि वे निसंतान थे |
को सुभागिनि गर्भ न गाही । पलाऊ रहेउ को सुत नाही ॥
एक बार सुभाग सों दुआरे । देबबस मुनि जबालि पधारे ॥
किसी भी सौभाग्यवती ने गर्भ धारण नहीं किया एतवा उनका गोद पुत्र से विहीन थी |देव वश उनके यहाँ मुनि जाबालि का आगमन हुवा |
अर्थ धरम कामादि प्रदेसे । समउ अनुहर सेवैं नरेसे ॥
होतअगुसर चरन सिरु नायउ । निज सुख दुःख के मुनिरु सुनायउ ॥
अर्थ धर्म काम आदि प्रदेशों का समयानुसार सेवन करने वाले उस नरेश ने मुनि का स्वागत करते हुवे उन्हें नट मस्तक होकर प्रणाम किया और अपने सुख-दुःख की वार्ता के पश्चात
पूत कामना परगसत पूछे जनित उपाए ।
महिपत मन गलानि जान,मुनि बहु बिधि समुझाए ॥
पुत्र प्राप्ति की इच्छा प्रकट कर उसके उत्पन्न होने का उपाय पूछने लगे |महिपत के मन में ग्लानि को भान कर मुनि ने उन्हें बहुंत प्रकार से समझाया |
शनिवार, १४ मार्च, २०१५
प्रजापति पुनि पुनि पूछ देखे । कोउ त जुगति मुनि मोहि लेखे ॥
जात जनित जो होए सहाई । कहौ कृपानिधि को उपाई ॥
किन्तु प्रजापति वारंवार प्रश्न करते हुवे कहते - मुनिवर ! कोई तो युक्ति बताइये, कृपानिधि ! ऐसा कोई उपाय बुझाइये जो पुत्र प्राप्ति में सहायक हो |
दिष्ट बिधा जिन करिए प्रजोगे । मम कुल तरु नव साख सँजोगे ।।
सुनि अस मुनि एहि बचन उचारे । होही सिद्ध सुत काम तुहारे ॥
उस निर्दिष्ट विधा का प्रयोग करने पर मेरा वंश वृक्ष नवीन शाखाओं से युक्त हो | ऐसा सुनकर मुनि बोले -- तुम्हारी पुत्र कॉमन अवश्य पूर्ण होगी |
जननि जनक जो संतति चाही । त्रिबिध उपाउ तासु हुँत आहीं ॥
गिरि पति श्रीधर एक गौ होइहि । तीनि कृपाकर जिन सिरु जोइहि ॥
संतान की इच्छा रखने वाले मात-पिता के लिए संतानोत्पत्ति के ये त्रिविध उपाय है | भगवान शिव की, भगवान विष्णु की और एक गौमाता इन तीनों की कृपा जिसके शीश पर होती हैं |
ऐसेउ कृपा जुगति प्रजोगिहि । सो अवसिहि संतति सुख भोगिहि ॥
भयउ उपजुगत तव हुँत राजन । देऊ सरूपा गउ के पूजन ॥
जो ऐसी कृपा युक्ति का प्रयोग करता है वह अवश्य ही संतान सुख को भोगता है | हे राजन ! तुम्हारे लिए यही उपाय उपयुक्त है कि तुम नित्य देव स्वरूपा गौमाता का पूजन करो |
गौ मात के सकल अंग सुर के होत निकाए ।
एही कारन तासु पूजन, संतति के बर दाए ॥
गौ माता के समस्त अंगों में देवताओं का निवास होता है इस कारण उसका पूजन संतति का वरदाता है |
रविवार १५ मार्च, २०१५
चतुस्तनिहि पूजन परितोखा । देऊ पितन सब बिधि संतोखा॥
ब्रताचरन जो गौ गुन गावै । नेम सहित नित भोजन दावे ॥
चतुःस्तनि का पूजन द्वारा परितोषण देवताओं व् पितृ जनों को सभी प्रकार से तुष्टि प्रदान करता है | व्रत का पालन करते हुवे जो गौ का गुणगान करता है नियम पूर्वक उसे भोजन देता है |
ऐसेउ सत्कर्म के कारन । होयब सकल मनोरथ पूरन ||
तिसित गौ जो भवन बँधइहै । ऋतुमती कनिआँ बिनहि बिहइहै ॥
ऐसे सत्य धरम अनुष्ठान के कारण उसके समस्त मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं | यदि गृह में तृषालु गौ बंधी रहे, रजस्वला कन्या अविवाहित हो,
देंवन्हिबिग्रह चढ़े चढ़ावा ।दिवान्तर सों गति नहि पावा ॥
एहै करनी अस दूषन आनी । किए सत्कर्म सब धर्म नसानी ॥
देवताओं के विग्रह पर चढ़ा हुवा निर्माल्य दिवस के अंतराल पर शुभ गति को प्राप्त न हो तब इन सब करनी से उत्पन्न दोष पूर्व के किए धर्म-कर्म को नष्ट कर देती है |
चरत चरान जोइ अबरोधे । जानपनी हो हो कि अबोधे ॥
तासु पितर जन जोइ पद पाए । एहि करनी ओहि संग गिराए ॥
जो कोई गौचर भूमि में जानबूझ कर अथवा अन्जाने में अवरोध उत्पन्न करता है उसके पूर्वज जिस पद अथवा योनि को प्राप्त हुवे होते हैं ऐसी करनी से वे पतोन्मुखी होकर निकृष्ट पद अथवा योनि में चले जाते हैं |
को कुबुद्धि कर धरे लकौटी । जान गँवारुहु मारए सौंटी ॥
ऐसेउ पापक बिनहि हाथा । परि जम पुर निज पातक साथा ॥
कोई हतबुद्धि हाथ में सौंटी लिए गौ माता को असभ्य समझ कर प्रहार करता है वह पापी ऐसे पाप के साथ बिना हाथ के ही नरक के द्वार पर पहुँच जाता है |
को कंठी पासा कंटक डाँसा पीठ करन चरन भरे ।
करुनामई पर करुना करत तिन्हनि हरत पीरा हरे ॥
स्त्रबत रुधिरु अवसोषत स्नात मात जिअ साँत करे।
रोगिनी गउ मात औषधि दात घात घाव जो तन धरे ॥
यदि कोई कंठ से कंटकों का तथा पीठिका, कर्ण व् चरणों में भरे डॉंसों का हरण कर करुणामई माता पर करुणा करते हुवे उसकी पीड़ा का हरण करता है साथ ही स्त्रावित होते रुधिर को सुखाकर स्नान आदि क्रिया से उसे शान्ति व् सुख पहुंचाता है | जो कोई औषधि आदि से रोगी, चोटिल, घाव ग्रहीता गौ माता का औषधि आदि से उपचार करता है |
ऐसेउ कृत करम संग तासु पितरु सुख पाएँ ।
होत कृतारथ आपने बंसज असीरु दाएँ ॥
इस प्रकार के कृतकर्म से उस कर्ता के पूर्वज सुख को प्राप्त होते हैं फिर वह कृतार्थ होकर अपने वंशजों को आशीर्वाद देते हैं |
जर जर जब ज्वाल उत्तोले । पुष्कल रकत कमल मुख बोले ॥
मोरे बान ए तुहरी देही । खैंच तहँ सोन प्रान न लेहीं ॥
कोप की ज्वाला जलते-जलते जब उत्तोलित हो गई तब पुष्कल के रक्त-कमल के समान लाल हुवे मुख से बोले --'ये मेरे बाण है, ये तुम्हारी देह है, यदि इन बाणों ने तुम्हारी देह से प्राण न खैंच लिए -
त सील बिरध सति पति पियारी । करे कलंकित को अस नारी ॥
परत जम पासल सो खलचारी ।होइअहि जस गति के अधिकारी ॥
तो सदाचार से सुशोभित पतिव्रता सती स्त्री को कलंकित करने के कारण यम के पाश में पड़े दुष्टाचारी जिस गति के अधिकारी होते हैं
होही काल बस मम गत सोई । मम प्रण अवसिहि पूरन होई ॥
पुष्कल पुनि जब करकत लाखे । रिपु दल मुखिआ हँस अस भाखे ॥
काल के वशीभूत होकर मेरी भी गति वही हो और मेरी यह प्रतिज्ञा अवश्य ही पूर्णता को प्राप्त होगी | फिर जब पुष्कल ने तीक्ष्ण दृष्टि से शत्रु की ओर देखा तो शत्रु दल के नायक हँस कर बोले -
प्रान गहि जग आनि जो कोई । तासु मरनि पुनि अवसिहि होई ॥
जो जुधिक जुद्ध जुझावत मरे । सो काल पास के भय न करे ॥
'पुष्कल ! प्राणाधान कर जो इस संसार में आया है फिर उसकी मृत्यु निश्चित है जो योद्धा युद्ध में संघर्ष करते हुवे मृत्यु को प्राप्त होते हैं वो काल के दण्डपाश का भय नहीं करते |
जो में काटि न नीबेरौं, तुहरे छाँड़े बान ।
हे रन प्रनत अजहुँ बहुरि , मोर ए प्रन लो जान ॥
यदि मैने तुम्हारे छोड़े बाण को काटकर उनका निवारण न कर दिया तो हे दक्ष योद्धा !अब मेरे इस प्रण का भी संज्ञान कर लो |'
तीरथ सेवन कोउ उछाहे । जो अस उछाह नासन चाहे ॥
तासु पाप निज सिरु मैं लैहौं । प्रन भंजन कर दोष जनैहौं ॥
जो तीर्थ सेवन हेतु उत्सुक पुरुष की उत्सुक्ता को नष्ट करता है उसके द्वारा किए गए ऐसे पाप का में भागी होऊंगा और स्वयं को प्रतिज्ञा भंग करने का अपराधी समझूंगा |
अस कह चित्रांग मुख उरगाए । करसत कुसा कर चाप चढ़ाए ॥
जो मोरि भगति प्रभु पद चीन्हि । कपट हीन जो बंदन कीन्हि ॥
ऐसा कहकर चित्रांग मौन हो गया और प्रत्यंचा कसकर उसने धनुष सम्भाला | यदि मैने निष्कपट भाव से भगवान श्रीराम का वंदन किया है और मेरी भक्ति भगवान के चरणों में ही स्थिर रही है
जो मम हिय प्रिय तिय अपराई । करे बिचार न कोउ पराई ॥
मोरे कहे बचन सत जोहीं । किए जो प्रन सो पूरन होंही ॥
जो मैने मेरे ह्रदय को प्रिय अपनी स्त्री के अन्यथा किसी भी स्त्री का विचार नहीं किया है तो मेरे कहे ये वचन सत्य होंगे तथा मेरी प्रतिज्ञा अवश्य पूर्ण होगी |
अस कह काँति मति केहु कन्ता । करम कार्मुक गहै तुरंता ॥
मर्म भेदि एक बान संजोई । जोइ अगन जस तेजस होई ॥
ऐसा कहकर कांतिमती के श्रीमान तथा रामानुज भरत के पुत्र पुष्कल ने भी तत्काल एक सुदृढ़ धनुष उठाकर उसपर एक मर्म भेदी बाण का संधान किया जो अग्नि के समान तेजस्वी था |
उर कपाट पुर लच्छ किए छूटे सूल प्रचंड ।
चित्रांग चाप चपल तब , काटि करे दुइ खंड ॥
वे प्रचंड बाण चित्रांग के विशाल ह्रदय का लक्ष्य करते हुवे छूटे तब चित्रांग के धनुष ने चपलतापूर्वक काटकर उन्हें दोखंड कर दिया |
बुधवार,१८ फरवरी, २०१५
भै रन भुँइ कोलाहल भारी । बरखि धूरि कीन्हेसि अँधियारी ॥
पुच्छल भाग मुख सोहि निबरे। घर्घर करत घुरमत महि गिरे ॥
बाण की प्रचंडता इतनी अधिक थी कि उसके कटजाने से रणभूमि में भारी कोलाहल होने लगा | बरसती हुई धूल ने जैसे वहां अन्धेरा सा कर दिया, फल से पृथक हो कर बाण का पुच्छल भाग घूमते -घर्घराते हुवे पृथ्वी पर गिरा,
पूरबारध भाग फल जोहीं । रिपु दल पति पुर बेगि अगौहीं ॥
भयउ अरध सर धारा सारी । चतरंग कंठ काट निबारी ॥
फल से युक्त बाण का पूर्वार्द्ध भाग बड़ी तीव्रता से शत्रु पक्ष के सेनापति चित्रांग की ओर बढ़ा | अर्ध सायक ने खड्ग का रूप धारण उसके कंठ को काट दिया |
कटे सीस भुइ निपतै एैसे । कटत निपति नलिनी रूह जैसे ॥
निपति अस कल किरीट कमंडल । निपत सोहि जस सस भू मंडल ॥
कटा हुवा शीश फिर भूमि पर ऐसे गिरा जैसे नलिन नाल कटकर गिरती है उसपर के गिरते सुन्दर किरीट कमंडल पृथ्वी पर टूटकर गिरते चन्द्रमा के जैसे सुशोभित हो रहे थे |
कलिक सैन भै कंठ बिहीन | ऊरधउ सुर भई सुर हीना |
पंखि रहत भै बिनहि बिताना | प्रानप रहत भई बिनु प्राना ||
इस प्रकार सुबाहु की ऊँचे स्वर में ललकारने वाली सेना क्रौंच सेना कंठ विहीन होकर स्वरहीन हो गई | पंख होते हुवे भी विस्तार विहीन हो गई और प्राणाधान होते हुवे भी वह जैसे निष्प्राण हो गई थी |
चित्रांग धरनि पारी जब देखे । पुष्कल कलिक ब्यूह प्रबेखे ॥
सोहत जिन्ह बीर बहुतेरे । किए जय जय निज दलपत केरे ॥
चित्रांग को धराशायी और सेना को कंठ विहीन देखकर पुष्कल ने अपने सेनापति की जयघोष करते अनेकानेक वीरों से सुशोभित कलिक व्यूह में प्रवेश किया |
दरसी सुतन्हि सुबाहु जब, भयऊ प्रान बिहीन ।
सोकारत अस तरपे जस तरपत जल बिनु मीन ॥
इधर सुबाहु ने जब प्राण विहिनहुवे अपने पुत्र को देखा तन वह शोक से आर्ट होकर ऐसे तड़पे जैसे जल के बिना मछली तड़पती है |
बृहस्पतिवार, १९ फरवरी, २०१५
तेहि काल निज रथ कर कासे ।आगत दुनहु कुअँर पितु पासे ॥
प्रनत सीस अवनत चरन गहै ।सुरीत समयोचित बचन कहे ।।
उसी समय रथ रश्मियों को कसे दोनों कुमार अपने पिता सुबाहु के पास आए और नतमस्तक होकर उनके चरणों में प्रणाम करते हुवे समयोचित व् रीतिनुसार ये वचन बोले --
हमरे जिअत गहै दुःख भारी ।राजु बीर गति होत प्यारी ॥
चित्रांग रिपु सन लौहु बजाए । संग्रामाँगन सोइ गति पाए ॥
राजन ! हमारे जीते जी आपको को यह भारी संताप हो रहा है, वीरता पूर्ण कार्य करते हुवे यदि मृत्यु हो जाए तो वह भी अभीष्ट होती है चित्रांग संग्राम भूमि में शत्रु के साथ संघर्ष करते हुवे वह गति प्राप्त हुई है |
मात पिता बाँधउ अनुरागी । धुरंधर सो धन्य के भागी ॥
महमते अजहुँ सोक निबारौ । बीर तनुज हुँत दुःख नहि धारौ ॥
वह धुरंधर अब माता, पिता व् बंधुओं का विशेष अनुरागी होकर धन्य का पात्र हो गया है एतएव महामते ! इस समय आप शोक त्याग दीजिए और अपने वीर पुत्र के लिए व्यथित मत होइये |
महमन हमहि रन आजसु दाएँ । आपहु चित रन रंग रंगाएँ ।।
बाँध जिआ धनु बान सुधारे । तनुज बचन सुनि सैन सँभारे ॥
मान्यवर!अब आप उत्कंठित होते हुवे संघर्ष कीजिए और हमें युद्ध की आज्ञा दीजिए | ' अपने पुत्रों के इन वचनों को सुनकर हृदय की भावनाओं को वश में करते हुवे धनुष और बाण सुधारकर सेना की संभाल की |
सोकाकुल उर घन जानि दमकत पानि कृपानि ।
तूर चरन राजन रनन , तमकत रन भुइ आनि ॥
पिता के ह्रदय को शोक से व्याकुल मेघ जानकर हाथ में बिजली बनकर कृपाण दमक उठी, आक्रोश से भरे सुबाहु के आतुर चरण शत्रु के साथ संघर्ष करने के लिए रण भूमि को प्रस्थान हुवे |
शुक्रवार, २० फरवरी, २०१५
कर सरासन सर भरे भाथा । आए कुँअर दुहु पितु के साथा ॥
कोटि कोटि भट भरे पूराए । जीवट उत्कट कटक भितराए ॥
हाथों में सरासन व् सायकों से भरे तूणीर लिए दोनों राजकुमार भी पिता के साथ आए | उनकी जीवट व् उत्कट सेना के अन्तस्थ में करोड़ों सैनिकों भरे हुवे थे |
निज निभ बाहु बली अभिलाखे । रन रंग रंजन भनिति भाखे ॥
नील रतन संग बिचित्र भेले | रिपुताप सन दमन रन खेले ॥
अपने समदृश्य बाहुबली को अभिलक्षित कर वीरों का उत्साह वर्द्धन करने वाली संक्षिप्तोक्ति करते हुवे विचित्र ने नीलरत्न के साथ तथा दमन ने रिपुताप के साथ लोहा लिया |
सुबाहु हिरनजटित रथ चाढ़े । भेलन सत्रुहन पुर चलि बाढ़े ॥
पानि जुगत कृपान चहुँ फेरे । घेरे जिन्हनि बीर घनेरे।।
स्वयं सुबाहु स्वर्ण जटित रथ में आरूढ़ होकर शत्रुध्न से युद्ध करने के लिए बढ़ चले जिन्हें कृपाण युक्त हस्त को चारों ओर घुर्माते अनेकानेक वीरों ने घेरा हुवा था |
सुबाहु घेर बिभेदन लागे । हनुमन सत्रुहन रच्छन भागे ॥
भुज दल सिखर सागर बल धरे। घन सोह मुख घन गर्जन करे ॥
रोष में भरे सुबाहु जब उस घेरे का विभेदन करने लगे तब वीर हनुमान शत्रुध्न की रक्षा के लिए दौड़ पड़े | उनकी कंधे सागर जितने बल से युक्त थे उनका मुख मेघ के समान विकट गर्जना कर रहा था |
तेहि अवसर सुबाहु दस कठिन बान संधान ।
छूटत बेगि सरसर चर देइ चोट हनुमान ॥
उसी समय सुबाहु ने देश कठिन बाणों का संधान किया छटते ही वे बाण वेगपूर्वक सरसराते चले और हनुमंत को चोटिल कर दिया |
शनिवार २१ फरवरी, २०१५
बीर भयंकर सर उर छोड़े । गहे हस्त तिल तिल करि तोड़े ।
जिन्ह कहत बली बिनहि तुलाए । झपट राउ रथ खैंच लेवाए ॥
किन्तु हनुमंत भी भयंकर वीर थे उन्होंने ह्रदय पर छोड़े गए उन बाणों को तिल -तिल करके तोड़ दिया | जिन्हें अतुलनीय बलशाली कहा जाता है उन्होंने फिर झपट्टा मारकर राजा के रथ को खैंच लिया ,
लपट पुंग तुर चले अगासा । नाहु नयन छत छाए हतासा ॥
बिचरत गगन हिरन रथ संगा । पाँख बिहूनइ भयउ बिहंगा ॥
और उसे अपनी पूँछ में लपेटकर तीव्र गति से आकाश में ले गए नृपश्रेष्ठ के नेत्र-क्षितिज पर हताशा व्याप्त हो गई | उस समय हनुमंत हिरण्मयी के साथ आकाश में विचरण करते जैसे पंख रहित होते हुवे भी पक्षी हो चले थे |
रथ जहँ नृप तहँ रहँ अबलम्बित । लखत पुंग मुख बाहु प्रलम्बित ॥
मर्म अघातक पीरा दायक । छाँड़ेसि तुर तेज मुखि सायक ॥
नृपश्रेष्ठ सुबाहु भी वहीँ स्थिर हो गए जहाँ रथ था और कपिवर हनुमंत की पूँछ, मुख व् प्रलंबित भुजाओं का लक्ष्य कर मर्माघाती व् पीड़ा दायक तीक्ष्ण मुखी बाण छोड़ने लगे |
बिहतत गए जब बारहि बारा ।किए हनुमंत अक्रोस अपारा ॥
धरि लात एक नाहु उर मारा । परे घात जनु बजर प्रहारा ॥
जब वह वारंवार आहत होने लगे तब उनको अपार आक्रोश हुवा | प्रतिउत्तर में उन्होंने वीर योद्धाओं से घिरे राजा सुबाहु के हृदय भवन में एक लात मारी, वह चरण-प्रहार वज्र-प्रहार के जैसा था |
गह अस तेज अघात,छतबत मुरुछा गहन किए ।
आँगन होत निपात, तपत रुधिर मुख बमन किए ॥
इस तीव्र आघात से घायल राजा मूर्छा ग्रहण कर रणांगण में गिर पड़े , और मुख से तप्त रक्त का वमन होने लगा |
रविवार, २२ फरवरी, २०१५
साँसत लमनि साँस भरि काँपे । अचेत नयन सपन बिअ बाँपे ।।
श्री राम छबि इब अंकुर साजे । दरसिहि पख मख मण्ड बिराजे ॥
अत्यधिक कष्ट के कारण वह लम्बी लम्बी सांस भर कांपने लगे उनके अचेत नेत्रों ने फिर स्वप्न के बीज बोये जिसमें श्री राम की अंकुरित छवि सुसज्जित हो गई पलक-पट में वह यज्ञ-मंडप के भीतर विराजित दिखाई दे रहे थे |
भयउ रजनि कन जगन्न केरे । कांति किए रहैं चहुँ दिसि घेरे ॥
कोटिक ब्रम्हांड के प्रानी । ठाढ़ि रहे तहँ जोरे पानी ॥
ओस बिंदु के रूप में यज्ञ कराने वाले ब्राम्हण मुख पर कांति वर्द्धन करते हुवे उउन्हें चारों और से घेरे हुवे थे | ब्रम्हांड के करोडो प्राणी उनके सम्मुख हाथ जोड़े खड़े थे |
ब्रम्हादिदेउ सहित मुनीसा । किएँ बर अस्तुति अवनत सीसा ॥
रमा रमन के कमल नयन के । श्री बिग्रह घन स्याम बरन के ॥
ब्रह्मा आदि देवता सहित मुनि गण नतमस्तक होकर उनकी सुन्दर स्तुति कर रहे थे | कमल जैसे नेत्रों वाले रमा के रमन का श्री विग्रह गहरे श्याम वर्ण का था |
बोलत कल भूषन भए भृंगा । मुकुलित हस्त धरे मृग सींगा ॥
नारदादि रिषि हस्त अधीना | सुजस गान कर बाजिहि बीना ||
उसपर के अनुरणन करते सुन्दर आभूषण मधुकर से प्रतीत हो रहे थे | भगवान अपने मुकुलित हस्त-कमल में मृग-शृंग लिए हुवे हैं | नारद आदि देवर्षियों के हस्ताधीन होकर वीणाएँ उनके सुयश का गान करती हुई झंकृत हो रही हैं |
बेद मूर्ति मान होत प्रगसे सगुन सरूप ।
राजन के सपन दरपन, दरसिहि छटा अनूप ॥
राजा सुबाहु के स्वप्न-दर्पण में दर्शित यह छटा अनुपम है, चारों वेद मूर्तिमान होकर सगुण स्वरूप में प्रकट हुवे हैं |
सोम /मंगल २३/२४ फरवरी, २०१५
करत भनित प्रभु चरन अराधएँ । तपो निधान रूप जस लागएँ ॥
जे जग जो किछु सुघर सँजोइल । देनहार श्री रामहि होइल ॥
प्रभु की स्तुति करते हुवे वह उनके चरणों की आराधना में अनुरक्त वह श्रेष्ठ तपस्वियों के समरूप प्रतीत हो रहे हैं | जग में जो कुछ उत्तम पदार्थ है उसके दाता भगवान ही हैं |
कुजिहि कूनिका सहु छहु रागे । तबहि नाहु चेतत उठि जागे ॥
छाए मोदु मन गयउ प्रमादा । सत्रुहन पद पुर चले पयादा ॥
जब कूणिकाओं के कंठ से छहों राग रंजन कर रहे थे कि तभी अचेत नृप श्रेष्ठ सुबाहु की चैतन्य होकर जाग उठे | प्रमाद जाता रहा अब मन में प्रमोद का बसेरा हो गया और उनके चरण शत्रुध्न के चरणों की ओर चल पड़े |
चरत चरत सो रन भुइँ आवा । बिचित्र दमन रंजीत पावा ।
हाँक दिए तिन्ह निकट बुलायो । रन रोधन कारन समझायो ॥
चलते चलते वह युद्ध-भूमि में आए वहां रणोद्यत विचित्र एवं दमन को संघर्ष करते देखा तो इन्हें पुकारकर अपने निकट बुलाया और युद्ध-विराम का कारण समझाया |
बहोरि सुकेतु कोत बिलोके । करत सँकेतु अजुद्धिक रोके ॥
सपन दर्पन छबि लोचन छाए । कहि भै हमसों बहुत अन्याए ॥
फिर उन्होंने सुकेतु की ओर देखकर युद्ध-विराम का संकेत कर उसे भी रोका | स्वप्न- दर्पण में भगवान श्रीराम की दर्शित छवि को संज्ञापित कर कहा हमसे बड़ा ही अन्याय हुवा है |
जड़ जंगम जग कर भरतारा । जो परब्रम्ह राम अवतारा ॥
कारज कारन दुहु सोहि परे । तिन्ह के बीर भदर तुम हरे ॥
जो परब्रह्म राम के रूप में अवतरित हैं वह इस चराचर जगत के स्वामी हैं ये कार्य व् कारण दोनों ही से परे हैं तुमने उनके त्यागे हुवे वीरभद्र (मेधीय अश्व ) का हरण किया |
सोई राम रूप भगवाना ।ए गूढ़ बचन अजहुँ मैं जाना ॥
मनुज गात गह लिए अवतारे।एहि अवनिहि हित हेतु हमारे ॥
राम रूप में वह ईश्वर का स्वरूप हैं यह गूढ़ वचन मुझे अब जाकर ज्ञात हुवा | हमारे कल्याण के हेतु ही मानव शरीर धारण कर इस धरती पर अवतरित हुवे |
पुनि सुबाहु सुत भ्रात सहुँ, बरनै सोई प्रसंग ।
असितांग मुनि को हाँस,भयउ जोइ तिन संग ॥
राजा सुबाहु पुत्रों व् भ्राताओं के सम्मुख उस घटना का वर्णन किया असिताङ्ग् मुनि का उपहास करने के कारण घटित हुई थी |
बुधवार,२५ फरवरी, २०१५
निगदि नाहु कर मिरदुल बानी । सुनु सुत भ्रात ए बात पुरानी ॥
पैहन मैं सत सार ग्याना । पर हित हेतु तीरथ पयाना ॥
राजा सुबाहु ने फिर मृदुल वाणी से कहा -- पुत्रों ! हे मेरे बंधुओं ! अब इस मेरे साथ घटित इस पुरातीत घटना को सुनो | मैं तत्त्व ज्ञान प्राप्ति की अभिलाषा एवं परमार्थ हेतु तीर्थ यात्रा के लिए निर्गत हुवा |
देइ दरस मग मुनिबर नेका । धरम परायन परम प्रबेका ॥
भगवन मम कर औसर देबा । किए असितांग मुनि के सेबा ॥
मार्ग में मुझे अनेकानेक श्रेष्ठ मुनियों के दर्शन हुए जो धर्मपरता में अतिशय प्रवीण थे | भगवान ने मुझे अवसर प्रदान किया जिससे मैं असिताङ्ग् मुनि की सेवा सुश्रुता कर पाया |
मो ऊपर किए कृपा बिसेषा । जति धर्म दिए मोहि उपदेसा ॥
जासु महत माहि अगम अबाधा । बरे सिंधु जस बारि अगाधा ॥
मुनिवर ने मुझपर विशेष कृपा करके यतिधर्म का यह उपदेश दिया -- जिनका महात्मय में अगम्य असीम है सिंधु के अगाध जल के समान उनका महात्मय भी अगम्य व् अखंड है ||
जो सुभ सरूप रूप सँजोई । तासु नाउ परब्रम्हा होई ॥
जनक किसोरि राम की जानि । साखि चिन्मई बल गई मानि ॥
जो कल्याणकारी रूप-स्वरूप संजोए हुवे हैं उनका नाम ही परब्रह्म है जनक-किशोरी जानकी जिनकी अर्धांगिनि हैं वे भगवान की साक्षात चिन्मयी शक्ति मानी गई हैं |
दुस्तर अपार संसार सिंधु पार गमन जो कोउ चहैं ।
सो जति धरमी सङ्कृत करमी हरिहि पदुम पद पूजतहैं ॥
चतुर्भुज रूपा महि भूपा जासु गरुड़ ध्वज धारी कहैं ।
दसरथ के अजिरु बिहारी सोई बिष्नु अवतारी अहैं ॥
जो कोई इस दुस्तर संसार सिंधु के पारगमन की अभिलाषा वाले धर्मी सुकृति कर्मि योगीजन जिन भगवान के चरणों की उपासना करते हैं जो चतुर्भुज स्वरूपी धरापति, गरुड़ ध्वज धारी है और जो भगवान जगन्नाथ कहलाते हैं, दशरथ के अजिर में विहार करने वाले श्रीराम उन्हीं के अवतार हैं |
तिन्ह भगवन भावनुरत पूजिहि जो नर नारि ।
भव सिंधु तर सो होइहि परम गति के धिकारि ॥
जो कोई नर-नारी उन भगवान भावपूरित उपासना करते हैं वह इस संसार सिंधु से पारगम्य होकर परम पद के अधिकारी होते है |
बृहस्पतिवार,२६ फरवरी, २०१५
सुनि मुनि निगदन मैं उपहासा । भय भूप सो मोर सकासा ॥
राम मनुज सधारनहि होई । बिष्नु रूप धर सकै न कोई ॥
मुनि के इन वचनों को सुनकर मैने उनका उपहास कर कहा -- वह तो मेरे जैसे ही राजा हैं राम कोई साधारण मनुष्य ही हैं, विष्णु का स्वरूप धारण करना किसी मनुष्य के वश का नहीं है |
हर्ष सोक सागर जो गाहिहि । सो तिय श्री कैसेउ कहाही ॥
अजनमनी कैसेउ जन्माए । जगत अकर्ता जगत कस आए ॥
जो हर्ष व् शोक के सागर में अवगाहन कराती हैं वह स्त्री श्री कैसे हो सकती हैं ? भगवान तो अजन्मे हैं अजन्में का जन्म कैसे हो सकता है ? जो जगत अकर्ता हैं उनका जगत में आने का क्या प्रयोजन ?
जासु आदि न मध्य अवसाना । अमित प्रभाउ बेद नहि जाना ॥
भब भब बिभब पराभब कारी । नयन भवन एक प्रश्न निहारी ॥
इतने प्रश्नों के पश्चात मेरे दृष्टिभवन में पुनश्च एक प्रश्न दृष्टिगत होने लगा -- जिसका न आदि है न मध्य न अंत है जिनके अमित प्रभाव का व्याख्यान वेद भी नहीं कर सकते जो संसार की उत्पत्ति और उसपर की सम्पति को पराभूत करने वाले हैं
जूट केस उपदेसु मो कहहु । सो राम बिष्नु रूप कस अहहु ॥
निगदित बचनन दिए जब काना । किए अभिसपत मोहि बिद्बाना ॥
हे जटाधारी मुनि ! मुझे यह उपदेश देकर बोध कराइये कि वे राम विष्णु के अवतार कैसे हो सकते हैं ?विद्वान मुनि ने मुझे ये कहते हुवे सुना तो उन्होंने मुझे अभिशप्त कर दिया |
कोप सिंधु गह नयन हिलोले । धनुमुख बानि बान भर बोले ।।
अधमी रघुबर रूप न जाने । मुनिबर कहेउ बचन न माने ॥
उनके नेत्रों में जैसे कोप कासमुद्र उमड़ आया फिर वे मुख रूपी धनुष में वाणी के बाण का संधान कर बोले -- रे अधमी ! तुम्हे रघुबर का स्वरूप ज्ञात नहीं है तुम मुनिवरों के वचनों का भी तिरस्कार करते हो ? धिक्कार है तुम पर !
निंदरहु मान सधारन भगवन मानस रूप ।
मोर कथनन प्रतिबादिहु समुझइ निज बर भूप ॥
तुम भगवान को साधारण मानव मानकर उनकी निंदा कर रहे हो ? और स्वयं को जगत सम्राट समझ कर मेरे कथन का प्रतिवाद कर रहे हो ?
शुक्रवार, २७ फरवरी, २०१५
कहे ऐसेउ उपहास बचन । होहु अजहुँ ते उदर परायन ॥
तुम्हारे सकल सार ग्याना । मोर श्राप सों होहि बिहाना ॥
तुमने भगवान के प्रति ऐसे उपहास वचन कहे ?जाओ अब से तुम उदर परायण हो जाओगे, तुम्हारा समस्त तत्त्व ज्ञान मेरे श्राप से नष्ट हो जाएगा |
सुन अस मम उर भए भय भीता । सकल सार ग्यान सों रीता ॥
जोए पानि दुहु मैं पग पारा । मुनिरु उपल मन बहि द्रव धारा ॥
ऐसा सुनकर सार ज्ञान से रिक्त हुवे मेरे अंतस में भय व्याप्त हो गया | दोनों हाथ जोड़े फिर में मुनि के चरणों में गिर पड़ा तब मुनिवर का पाषाण हृदय द्रविभूत हो गया |
भरे भीत करुना के सागर । बोले अस मो भर भुज अंतर ॥
रघुबर अश्व मेध जब करिहीं । तुहरे सोहि रन बिघन धरिही॥
उनके अंतर्मन में करुणा का सागर उमड़ पड़ा फिर वे मुझे भुजांतर में भरकर बोले -- 'अयोध्या के अधिपति भगवान रघुनाथ जब अश्वमेध करेंगेयुद्ध में संघर्षरत होने के कारण तुम्हारे द्वारा उस यज्ञ में विध्न होगा |
करिहीं घात बेगि हनुमंता । सुनु हे चक्रांका के कंता ॥
हे चक्रांका नगरी के कांत आगे सुनो -तब वीर हनुमान तुमपर वेगपूर्वक चरण-प्रहार करेंगे |
तब तोहि होहि ए ग्यान राम रूप भगवान ।
न तरु निज कुमति संग तुअ, सकिहु न अजिवन जान ॥
तब तुम्हे यह ज्ञान होगा कि राम ही भगवान का स्वरूप हैं, अन्यथा अपनी कुबुद्धि तुम्हे यह आजीवन ज्ञात नहीं होगा | '
शनिवार, २८ फरवरी, २०१५
मुनि मनीषि मुख जो कहि भाखा । तासु भान होइहि मो साखा ॥
जाहु महबली रघुबर जी के । आनहु लेइ तुरंगम नीके ॥
उन मुनि मनीषी ने अपने मुख से जो कुछ कहा अब मुझे उसका प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है | महाबली सैनिकों ! जाओ अब रघुबर जी के उस शोभयमान अश्व को ले आओ |
सब धन सब सम्पद ता संगा । मम राजित एहि राज प्रसंगा ॥
करिहउँ में अर्पित भगवाना । कारन एहि मख धर्म प्रधाना ॥
उसके साथ मैं समस्त धन सम्पदा तथा मेरे द्वारा राजित ये राज्य भी भगवान को अर्पित कर दूंगा, कारण कि यह यज्ञ धर्म के हेतु है |
दरस प्रभु मैं कृतकृत होइहउँ । सरब समरपत पानि जोइहउँ ॥
सुबाहु सुत बर रीति रनइता । श्रुतु पितु बचन भए अति हर्षिता ॥
हाथ जोड़कर अश्व सहित अपना सर्वस्व समर्पित करते समय मैं भगवान श्रीराम के दर्शन कर कृतार्थ हो जाऊंगा |' सुबाहु के पुत्र राण की उत्तम-उत्तम नीतियों के ज्ञाता थे पिता के ऐसे वचन सुनकर वे अपार हर्षित हुवे |
पितु जस रघुबर दरस उछाहीं । मोदु प्रमोदु मेह मुख छाहीं ।\
नयन गगन जल बिंदु हिलोले ।अनुज तनुज दुहु भीनत बोले ॥
रघुवर के दर्शन हेतु पिता की उत्कंठा देखकर उनके मुख पर प्रसन्नता और आनंद के बादल छा गए नयन रूपी से गगन से फिर जल बिंदुएं लहराने लगी और पुत्र और बन्धुगण उस जल से द्रवीभूत होते हुवे बोले --
हमहि कुछु अरु जानए नहि, एक तव चरन बिहोर ।
तुहरे दिनकर बचन किए हमरे तमि मन भोर ॥
महाराज ! एक आपके चरणों के अन्यथा हमें और कुछ ज्ञात नहीं है दिनकर के समान आपके इन वचनों ने हमारे तमस मन में जैसे भोर कर दिया |
रविवार, 01 मार्च ,२०१५
जो प्रभु दरस के सुभ संकल्पा । तुहरे हरिदै जो किछु कल्पा ॥
सो सब पूरन होवनि चाहिब । चन्दन चर्चित हय लिए जाइब ॥
आपने प्रभु दर्शन का जो शुभ संकल्प लिया है तथा आपके ह्रदय जो कुछ परिकल्पना की है वह सब अब पूर्ण होनेवाला है | चंदा से चर्चित इस उत्तम अश्व को भी संकल्प मेधीय अश्व को भी प्रभु के पास ले जाइये |
| तुम स्वामि तुम अग्याकारी ।हम तव सेबक हम अनुहारी ॥
अनुपजोगि यहु राज पटौहा । तव अग्या उपजोगित होही ॥
आप तो स्वामी हैं आप आज्ञा करने वाले हैं हम आपके सेवक आपकी आज्ञा के पालनकर्ता हैं | यह अनुपयोगी राज-पाट आपकी आज्ञा का अनुशरण करके ही उपयोगी सिद्ध होगी |
मुकुत मरकत मनि स्याम सम रतन ।हय हस्ति सोहि हिरन सयंदन ॥
सम्पत कोष ए लाखहि लाखा । सब द्रव प्रभु पद देइहु राखा ॥
मुक्ता पन्ना नीलम जैसे बहुमूल्य रत्न ये घोड़े हाथी साथ ये स्वर्णमयी रथ आदि सम्पदा कोष लाखों की संख्या में प्रस्तुत हैं, ये सब द्रव आप प्रभु के चरणों में समर्पित कर देना |
ताते अबरू अहँ जोइ जोई | महा अभ्युदय केरि सँजोई ||
जाइ तहाँ तिन भगवद सेबा | सादर पद अर्पन करि देबा ||
इससे अन्यथा और जो-जो महान अभ्युदय की वस्तुएं हैं इन्हें भी भगवद सेवा हेतु भगवान श्रीराम के चरणों में सादर समर्पित कर देना |
हम सुत किंकर सकल तुहारे ।हमहि तिन्ह सन अर्पित कारें ॥
रिद्धि सिद्धि सो सब लिज्यो ।गमनु बेगि अरु बिलम न किज्यो ॥
महामते ! हम सभी पुत्र आपके किंकर हैं उनके साथ हमें भी भगवान के चरणों में अर्पित कीजिए | अब आप और विलम्ब न कर इन रिद्धियों व् सिद्धियों को साथ लिए प्रभु के चरणों की ओर प्रस्थान करें |
श्रुत सुत बचन सुबाहु मन भयउ हर्ष अति भारि ।
बीर बलि बलिहार अस , गदगद गदन उचारि ॥
अपने सुपुत्रों के इन वचनों को सुनकर राजा सुबाहु के मन-मानस में अपार हर्ष हुवा अपने वीर बलवान पुत्रों पर न्योछावर होकर फिर उन्होंने ऐसे गदगद वचन कहे --
सोमवार,०२ मार्च,२०१५
चँवर ध्वज बर बाजि सुसाजे । बीर बंत रन साज समाजे ॥
गहे कर अजुध बिबध प्रकारे । तुम्ह सबहि रथ घेरा घारे ॥
तुम सब वीर वंत समस्त सैन्य सामग्रियों सहित ध्वजा चँवरादि से सुशोभित अश्व के साथ विविध प्रकार के अस्त्र-शस्त्र व् रथों से घिरकर
साजि राज गज सब ले लइहौ ।बहुरि मैं सत्रुहन पहि जइहौ ॥
कहत सतत अहिपत भगवाना ।सुबाहु कही बत देइ काना ॥
सुसज्जित राज वाह्य आदि सब ले आओ तत्पश्चात में शत्रुध्न के पास प्रस्थान करूंगा | भगवान शेष जी सतत रूप से कहते हैं -- मुने ! सुबाहु के कहे वचनों को ध्यानपूर्वक सुनकर -
बिचित्र दमन सुकेतु सरि धीरा । अन्यानै समर सूर बीरा ॥
प्रजा पालक अग्यानुहारे । गयउ सहरषित नगर पँवारे ॥
और उन्हें सिरोधार्य कर विचित्र, दमन, सुकेतु आदि अन्यान्य शूरवीरों ने प्रजा पालक की आज्ञा का अनुशरण करते हुवे युद्ध-भूमि से प्रसन्नतापूर्वक राजधानी को गए |
पयस मयूखी बदन मनोहर । रजत चंवर बर जोगित तापर ॥
सुबर्नमय पत्रक लक लँकृते । अक्छत कृत तिलक लषन सहिते॥
जिसका मुखचन्द्रमा के समान मनोहर था, उसपर वह रजतमयी चंवर से युक्त था | अक्षत कृत तिलक चिन्ह सहित स्वर्णमयी पत्रिका से अलंकृत जिसका मस्तक था |
चपल चरन स्याम करन,मनिसर माल सँजोह ।
हय कर किरन पुंज धरे आनि प्रजा पति सोंह ॥
जिसके कान श्याम वर्ण के थे ,जिसकी ग्रीवा हीरक माला से सुशोभित थी उस चपल चरणी अश्व की किरण पुंज को धारण किए फिर वे अपने महाराज के समक्ष उपस्थित हुवे |
मंगलवार, ०३ मार्च,२०१५
बीरभदर जब सम्मुख देखे । सुबाहु मन भा हर्ष बिसेखे ॥
दुहु सपूत भट भ्रात प्रसंगे । सकल साज सँजोउ लए संगे ॥
मेधीय अश्व को अपने सम्मुख देखकर सुबाहु को मन में विशेष हर्ष हुवा | दोनों सुपुत्र, सैनिकों व् अपने बंधू-बांधवों के प्रसंग समस्त धन-वैभव को साथ लिए -
चले पयादिक पंथ अधीसा । अबनत नयन बिनय बत सीसा ॥
सत्रुहनहि पदक पुर अस धूरे । भोर भूरे जस साँझ बहुरे ॥
फिर वह विनीत नेत्रों व् विनम्र भाव से भगवद पंथ पर चल पड़े | तदनन्तर शत्रुध्न के पादपुर के निकट ऐसे पहुंचे जैसे कोई प्रात का भुला हो और संध्या को लौट रहा हो |
जीवन साधन छन छबि जाने । तासों अनुरति दुःख गति माने ।।
जोइ नसावनि पथ ले गवने । सो धन सम्पद् सहुँ लए अवने ॥
महाराज ने जीवन और उसके सुख-साधनों को क्षणभंगुर जानकर उससे होने वाली आसक्ति को दुःख का कारण माना | जो धन-सम्पति विनाश के मार्ग की और ले जाती है उसका सदुपयोग करने के हेतु उसे वह साथ ले आए |
सत्रुहन नियरावत का देखे । बरे बपुरधर बरन बिसेखे ॥
पीत बसन बल बल्गत बासे । पटकनिया उपपंखि निबासे ||
शत्रुध्न के निकट जाकर वह क्या कि शत्रुघ्नजी की देह विशेष वर्ण की है जो बल पड़े पीतम वस्त्र से घिरी है कन्धों पर पीतम पटका सुशोभित हैं |
भरे भेष भुज सिखर बिसाला । हरिद पलासिक लावनि लाला ॥
कूल कलित कल खंकन बाजे । मनियारि मंजरी बिराजे ॥
उनकी विशाल भुजांतरों पर पलास के समान लाल-हरे वस्त्र-खंड अपना लावण्य बिखेर रहे हैं जिसके कगारों में मञ्जुलित मंजरियों पर विराजित छुद्र-घंटियां मधुर ध्वनि कर रही थी |
उज्जबर छतर छाँउकर सोहि । बीरोचित प्रभा पलुहन होहि ॥
चतुरंगिनि घन गगन पताका । किए निहतेज बार एक ताका ॥
उनका शीश श्वेत छत्र छाया से सुशोभित था उसपर वीरोचित दीप्ति उदीप्त हो रही थी | गगन में पताकाएं लहराती सघन चतुरंगिणी सेना उनके साथ थी जो अपनी एक दृष्टि मात्र से शत्रु को निश्तेज करने वाली थी |
रहँ भट तीरहि तीर धीमंत सुमति सँग डटे ।
पूछ रहे महबीर श्री राम कथा बारता, ॥
तीर-तीर पर सैनिक उपस्थित थे जिसके साथ धामंत सचिव शत्रु की प्रतीक्षा में डटे हुवे थे, महावीर हनुमान उनसे भगवान श्र्री राम की कथा वार्ता पूछ रहे थे |
बुधवार, ०४ मार्च, २०१५
सत्रुहन कुल दीपक सम लस्यो ।कुल प्रताप द्युतिस सम बस्यो ॥
बिलोकत बीर बलि बाँकुर पुर । भय आपहि तब होत भयातुर ॥
शत्रुध्न वहां रघु कुल दीपक के समान सुशोभित हो रहे थे जिसमें रघु कुल के प्रताप की छटा बसी हुई थी | जब वह शूर-वीरों की दृष्टि करते तब उनका सामना कर स्वयं भय भी भय से आक्रान्त हो उठती |
दरसत तिन्ह सुत भ्रात सहिता ।सुबाहु भयउ रन रोष रहिता ॥
जपत अधर रघुबरहि नामा ।परस चरन पुनि करे प्रनामा ॥
उन्हें पुत्र व् बंधू-बांधवों के सहित देखकर सुबाहु यौद्धिक रोष से रहित हो गए | अधरों से भगवान श्री राम का ही जाप करते हुवे उन्होंने फिर उनके चरण स्पर्श कर प्रणाम अर्पित किया |
पाए जबहि रिपुहंत समीपा । हर्षित होइ गयउ अधीपा ॥
बानिन भाव भगति रस बोरे । धन्य धन्य मैं कहि कर जोरे ॥
शत्रुध्न का सामीप्य प्राप्तकर राजा सुबाहु अत्यंत हर्षित हुवे | वाणी को भाव-भक्ति के रस में डूबो कर कहा : - 'वीरवर ! में धन्य हो गया |'
तेहि समउ मन भयउ बिरागा | रघुबरहि चिंतन माहि लागा |
बिलखत रिपुहु हिती सम बाढ़े । रामानुज उठि आसन छाँड़े॥
उस समय उनका मन जैसे वैराग्य को प्राप्त होकर एक मात्र रघुवर के चिंतन में ही लगा था | शत्रु को हिताकांक्षी के सदृश्य बढ़ते देखकर रामानुज शत्रुध्न आसन परिहारते उठ खड़े हुवे |
मेलिहि सब सहुँ बाहु पसारे ।मुदित भेँट सब लेइ सकारे ॥
और सबसे भुजा पसारकर मिले तथा राजा सुबाहु की भेंट को प्रसन्नचित होकर स्वीकार किया |
पलक पयस पखारी के पूजत पद भल भाँति ।
सर्बस अरपन करतेउ, छाए बदन कल काँति ॥
पलकों के अश्रु बिंदुओं से शत्रुध्न के चरणों का भली प्रकार से पूजन किया | सर्वस्व अर्पण करते समय उनके मुख मंडल पर अलौकिक कांति व्याप्त हो रही थी |
बृहस्पतिवार,०५ मार्च,२०१५
गदगद गिरा पेम रस साने । कहत कोमली करुन निधाने ॥
जो पद जग अभिबन्दित होंही । मिले भाग सो परसन मोही ॥
अपनी गदगद वाणी को प्रेमरस में भीगा कर फिर उन्होंने कोमलता से कहा -- 'करुणानिधे ! जो चरण जगदाभिवंदित है सौभाग्यवश आज मुझे उनका स्पर्श प्राप्त हुवा |
तरसहि पावस पुरी पँवारे । अहो भाग तव चरन पधारे ॥
मोर सुत दमन बयस न सोधा ।प्रभो अजहु सो भयउ अबोधा ॥
इस नगर के द्वार पावस के लिए तरस गए थे अहो भाग्य ! आपके चरण पधार गए ( अब पावस दूर नहीं है यह हराभरा हो जाएगा ) | स्वामिन ! मेरा पुत्र दमन वयस्कता को प्राप्त नहीं हुवा है इस हेतु वह अभी अबोध है |
मम सुत बालक आपु सयाने । बाँधे बाजि तिन्ह छम दाने ॥
जो सब देवन्हि देवल हारा ।जग सर्जत पालत संहारा ॥
मेरा पुत्र बालक और आप परिपक्व हैं आपके अश्व को बांधने की उसकी धृष्टता को क्षमा करें | जो सम्पूर्ण देवताओं के भी देवता हैं, जो जगत का सृजन, पालन और संहार करने वाले हैं |
जान बिनु रघु बंस मनि नामा । कौतुकी करत किए एहि कामा ।
सम्पन भा राजहि प्रति अंगा | बढ़ी चढ़ी बहु चमि चतुरंगा॥
रघु वंश के मणि श्रीरामचन्द्र जी के नाम से अनभिज्ञ है उसने कौतुक वश यह अनीतिपूर्ण कार्य किया | हमारे राज्य के प्रत्येक अंग ( स्वामी, अमात्य, राष्ट्र, कोष, दुर्ग, बल, सुहृदय ) समृद्धशाली है | सैनिकों व् सैन्य सामग्रियों से संपन्न चतुरंगिणी सेना है |
भरे पुरे एहि राज के, अहैं भूति जो कोइ ।
मो सहित मोर सुत भ्रात,सब आपहि के होइ ॥
इस प्रभुत -संपन्न राज्य की जो भी प्रभुता है वह आपकी है | मेरे साथ मेरे ये पुत्र व् बंधू- बांधव भी आप ही के हैं |
शुक्रवार,०६ मार्च, २०१५
कहै सुबाहु पुनि चरन गहि के । श्री राम स्वामि हम सबहि के ।
बिभो अग्या मैं सिरौ धरिहउँ । तुहरे मुख के कहि सब करिहउँ ॥
सुबाहु ने पुनश्च चरण पकड़ कर कहा -- 'भगवान रामचंद्र जी हम सबके स्वामी हैं मैं उन विभो की आज्ञा सिरोधार्य कर आपके मुख से कहे प्रत्येक वचन का पालन करूंगा |
मोरे दए सब भेंट सकारौ । सुफल करत तिन्हनि उपकारौ ॥
सिय पिय पुरइन चरन रमन्ता । अहइँ कहाँ मधुकर हनुमंता ॥
मेरे द्वारा प्रदान किए गए इन उपहार को स्वीकार्य कर इन्हें सफल बनाइये और हमें उपकृत कीजिए | माता सीता के पदुम चरणों में जिनकी अनुरक्ति है वह मधुकर स्वरूप हनुमंत कहाँ हैं ?
प्रभु दरसन अब बेर न होंही । तासु कृपा सों मेलिहि मोही ॥
तिन्ह अवनि का का नहि मेले । साधु सुबुध मेलिहि जो हेले ॥
भगवान श्रीराम के दर्शन में अब विलम्ब नहीं है उनकी कृपा से वह मुझे प्राप्त होने वाले हैं | साधू और सुबुध जनों के मेल-मिलाप से इस धरती पर क्या- क्या नहीं मिल जाता |
संत प्रसादु मैं लेइ पारा । होइहि अजहुँ श्रापु उद्धारा ॥
जिन्ह भगवन के जसो गाना । कहिहि सुनिहि नित संत सुजाना ॥
मैं मूढ़ था; संतों का प्रसाद मुझे प्राप्त हुवा आज मेरा ब्रह्मश्राप से उद्धार हुवा है | संत-समाज जिस भगवान का यशोगान कहते व् सुनते हैं,
मोरे दरपन लोचना तिनके दरसन जोहि ।
सो छबि मंगल मूरती, अंतर मन थिर होहि ।।
मेरे लोचन दर्पण में जिनके दर्शन का संयोग हुवा, मंगल मूर्ति स्वरूप वह छवि मेरे अंतर्मन में स्थापित हो गई है |
रविवार , ०८ मार्च,२०१५
बितिहि बयस प्रभु दरस बिछोही । सेष माहि कस दरसन होहीं ।
परसत जिनके चरन धूलिका । मुनि पतिनिहि रूप भयउ सिलिका ॥
प्रभु दर्शन के वियों में में अधिकाधिक अवस्था व्यतीत हो गई जो शेष है उसमें प्रभु के दर्शन हों भी तो कैसे ? जिनके चरण-धूलि का स्पर्श कर पाहन शिला भी मुनि पत्नी में परिवर्तित हो गई |
जो जोधिक प्रभु बदन लखाइहि । जुझनरत सो परम गति पाइहि ॥
जो रसना प्रभु नाउ पुकारी । होइहि सोइ गति के अधिकारी ॥
जो योद्धा युद्ध में उनके मुख का अवलोकन करते हैं वह परम गति को प्राप्त होते है | जिनकी जिह्वा राम नाम का आह्वान करती हैं वह भी उसी गति के अधिकारी होते है |
जिन्हनि चिंतहि नित जति जोगी । पद अनुरत जत मनस निजोगी ॥
धन्य धन्य सो अबध निबासी । धन्य धन्य सो सकल सकासी ॥
यति-योगीजन जिनका नित्य ही चिंतन करते हैं उन भगवान के चरणों में अनुरक्ति में जो अपने मन को नियोजित करते हैं वह अयोध्या निवासी धन्य है और उनके समान वह सभी लोग भी धन्य हैं |
जो बिभु बदन पदुम कर चिन्हे ।लोचन पुट दरसन रस लिन्हे ॥
पुनि सत्रुहन अस बचन कहेऊ । नृप तुम बिरधा बयस गहेऊ ॥
जो अपने लोचन पुटों से प्रभु वदनारविंद का लक्ष्य कर उनके दर्शन रूपी मकरंद का पान करते हैं | ' शत्रुध्न जी ने कहा -- 'राजन ! आप वृद्धावस्था को प्राप्त हैं,
एहि हुँत तुअ श्रीराम सहुँ, पूजनीअ मम सोहि ।
करे समर्पन आपही तुहरे बढ़पन होहि ॥
श्रीराम के समान ही आप भी मेरे पूज्य हैं | ये आपका बड़प्पन है कि आपने सर्वस्व समर्पण किया |
सोमवार , ०९ मार्च, २०१५
होहि जग सों ए राज अनूपा। तुहरे भू के तुअहिहु भूपा ॥
छतरी के करतब अस होही । किए उपनत रन अवसरु ओही ॥
यह राज्य जगत से अनुपम है यह राज भूमि आपकी है एतएव इसके भर्तार भी आप ही हैं | क्षत्रिय का कर्त्तव्य ही ऐसा है कि वह युद्ध के अवसर उपस्थित कर देता है |
एहि धन सम्पद लेइ बहोरै । अस कह सत्रुहन दुइ कर जोरै ॥
अरु कहि एहि सब सैनी साजू । सँग महि जाइ मोर हे राजू ॥
भेंट स्वरूप यह धन संपत्ति आप लौटा लिए जाइये ऐसा कहकर शत्रुध्न हाथ जोड़ लिए और साथ में कहा -- ' हे राजन ! यह सब सैन्य समुदाय मेरे साथ चले |
होइहि सैन समागम तोरे । तिनके बल बाढ़िहि बल मोरे ॥
हिती बचन सुधि सत्रुहन जी के । सुंबाहु मन लागिहि बहु नीके ॥
आपकी सेना का यदि समागम होगा तब इसके बल से मेरी सेना का बल और अधिक बढ़ेगा | शत्रुध्न के ये हितार्थ- बचन राजा सुबाहु के मन को बहुंत ही भले लगे |
निज तनुज राजु तिलक धराई । जन पालक कर भार गहाई ॥
बहुरि महारथि संग घेराए । दाह करन सुत समर भू आए ॥
अपने पुत्र को राज्य पर अभिषिक्त कर और उसे उसकी बागडोर सौंप कर फिर जन पालक महारथियों से घिरकर वीरगति को प्राप्त अपने पुत्र का अंतिम संस्कार करने रण भूमि आए |
सुत कर किरिया करम के आरत दिरिस बिलोक ।
नयन भयउ गगन बरखन छाए रहे घन सोक ॥
पुत्र की विधिपूरित क्रियाकर्म के आर्त दृश्य को देखकर उनके गगन रूपी नेत्रों को बरसाने केलिए शोक के घन आच्छादित हो गए |
मंगलवार, १० मार्च, २०१५
पलकनि पटल जल बिंदु झारै । रघुबर सुमिरन सोष निबारै ।
सतत सुरति सब सोक दूराए । बहोरि सकल रन साज सजाए ॥
पालक पटल जल बुँदे की जब झड़ी लगा दी तब रघुवर के ध्यान ने उन बूंदों को अवशोषित कर लिया व् निरंतर के स्मरण ने उन्हें शोक मुक्त कर दिया | तदनन्तर राजा सुबाहु सभी सैन्य-सामग्री सुसज्जित
ले चतुरंगी सैन बिसाला । रामानुज पहि आए भुआला ॥
गहि बल दल गंजन जब देखे । बाजि रच्छन गमन हुँत लेखे ॥
विशाल चतुरंगिणी सेना लिए रामानुज शत्रुध्न के पास आए | उनकी सेना को बलवान वीरवंत को देख शत्रुध्न ने घोड़े की रक्षा के लिए जाने का विचार किया |
समर्पिइत सुबाहु कर छाँड़े ।तासु पाछे सेन पुनि बाड़े ॥
बढे सत्रुहन सहित सब रायो | पुनि हय बामाबरत भरमायो ||
सर्वस्व समर्पयिता राजा सुबाहु के द्वारा छोडे जाने पर उसके पीछे श्रीराम चंद्र की सेना भी आगे बढ़ी | सभी राजाओं के साथ शत्रुध्न भी उनके साथ बढे ततपश्चात वह अश्व वामावर्त परिक्रमा करता
प्राची दिसि के देस घनेरे । सब कहुँ गंतत चरनन फेरे ॥
तहँ रहि भूरिहि संत बिबेका । रजै राज जग एक ते ऐका ॥
पूर्व दिशा के अनेकानेक देशों के कोने -कोने में गया लौट चला | उन सभी देशों में विवेकशील संतों की भरमार थी तथा वहां जगत के एक से एक राजाओं का राज्य था |
बर बर समर सूर संग पूजित रहि सब नाहु ।
किरन गहन जुग बाहु बल गहे रहे नहि काहु ॥
वे सब भूपाल बड़े बड़े युद्ध वीरों के द्वारा पूजित थे किन्तु उस अश्व के किरण को ग्राह्य करने जितना बल किसी में नहीं था |
बुधवार, ११ मार्च,२०१५
को निज राज भूति दानए । को निज राजित राज प्रदानए ॥
को निज राज सिहासन देई । बिबिध बिधि अस चरन सब सेईं ॥
किसी ने अपनी राज्य विभूति का दान किया किसी ने अपना महान राज्य ही प्रदान कर दिया तो किसी ने अपना सिंहासन दे दिया इस प्रकार भिन्न-भिन्न विधि से सबने रघुनाथ के चरणों की सेवा की |
रुचत रवन रत सुनत मुनीसा । कहत बार्ता सतत अहीसा ।।
मुनिबर पवन पाँखि अरोहित । सुबरन पतिका संग सुसोहित ॥
इस सतत वार्ता को रूचिपूर्वक श्रवण करते मुनिवर वात्स्यायन से भगवान शेष ने कहा-- हे मुनिवर ! तब पवन पखों में आरूढ़ होकर स्वर्णपत्रिका से सुशोभित -
पूरब कथित देसु भमराए । तेजसी तुरग तेजपुर आए ॥
धरम धुजा धर धीरु प्रसन्ता । रहे दयामय तहँ के कंता ॥
वह तेजस्वी तुरंग पूर्वोक्त देशों का भ्रमण कर तेजपुर आया, वहां के राजा दयामय, धीरप्रशान्त तथा धर्म ध्वजा को धारण करने वाले थे |
सदा साँच के चरन जुहारै । किए न्याय तो धर्म अधारै ॥
जोइ अनी अरि नगरि नसानी । रमनीक नगरि सों निकसानी ॥
वह सदैव सत्य की ही पूजा किया करते थे और धर्माधारित न्याय करते थे | शत्रु के नगर का विध्वंश करने वाली शत्रुध्न की सेना उस रमणीय नगर से होकर निकली |
बिचित्र मनि कृत परकोट रचाए । भीत नागर जन बसत सुहाए ॥
भगवन के चरनन्हि रति राखै ।पेम पूरित सबहि मन लाखे ॥
विचित्र मणि से रचयित उसका परकोट था जिसके अंतस में निवास करते हुवे नागरिक सुहावने प्रतीत हो रहे थे | इनकी अनुरक्ति एक मात्र भगवान् के चरणों में इनकी अनुरक्ति थी सबका मन भगवद प्रेम से परिपूर्ण लक्षित हो रहा था |
सत्रुहन दृग दरसत रहे देवल चारिहि पास, ।
खनखन खंकन गुँज रहे ,बास रहे सुख बास ॥
बृहस्पतिवार, १२ मार्च, २०१५
सिउ संभु कर जटा निवासिनी । सुर तरंगिनी पबित पावनी ॥
तीर तीर तहँ बहत सुहाई | पौर पौर पथ पथ पबिताई ||
शिव शंभु की जटाओं में निवास करने वाली पवित्र पावन गंगा तटवर्ती क्षेत्रों बहती हुई सुहावनी प्रतीत हो रही थी | पवित्र गंगा की उपस्थिति से उस नगरी के द्वार-द्वार और पंथ-पंथ भी पवित्र हो गए थे |
रिषि महर्षि मनीषि समुदाई । तिनके कूल सुरगति पाईं ॥
हबिरु भवन तहँ घर घर होईं ।ह्वन योजन करें सब कोई ॥
ऋषि- महर्षियों व् मुनि- मनीषियों का समाज उनके तट पर देवगति को प्राप्त होते हैं | तेजपुर के प्रत्येक निवास में हवन-कुंड निर्मित था वहां के निवासियों की हवन करने में प्रवृत्त रहते थे |
हवन धूम घन पदबी पावै । दूषन दूषित अनल बुझावै ॥
ऐसो पबित पुरी जब पेखे । सत्रुहन सुमति सन पूछ देखे ॥
अग्निहोत्र का धुंआ वहां घन की पदवी को प्राप्त कर वायु के दोषों को समाप्त कर दूषित अग्नि को शांत करता था | ऐसी पवित्र नगरी को देखकर शत्रुध्न ने सुमति से प्रश्न किया --
सौं नागर जो देइ दिखाईं । तिनके दरसन आनँद दाई ॥
मंजुल मृदुल मुख जासु महि के । सो नीक नगरि अहहि केहि के ॥
मेरे समक्ष जो नगर दिखाई दे रहा है उसका दर्शन अतिशय आनंददायी है | जिसकी भूमि का मुख इतना मृदुल और मंजुल है, वह सुन्दर नगरी किस भाग्यवान की है ?
कहत सुमति महानुभाव, बुद्धि बल के निधान ।
इहँ के राउ रहें सदा,गहे चरन भगवान ।।
तब सुमति ने कहा -- महानुभाव ! यहाँ के राजा बुद्धि व् बल के निधाता हैं उनकी सदैव भगवद चरणों में ही भक्ति रहती है शुक्रवार, १३ मार्च, २०१५
कोमल हिय हरि सुरति सँजोई । अबिरल भगति तासु पद होई ॥
ताहि कथा सुनीहि जो कोई । ब्रम्ह हंत सों मोचित होईं ॥
अपने कोमल ह्रदय में हरि की स्मृति संजोए वह भगवान की अविरल भक्ति को प्राप्त हैं | उनकी कथा को जो कोई श्रवण करता है वह ब्रह्म-ह्त्या जैसे पाप से उन्मोचित हो जाता है |
राउ नाउ जहँ लग मैं जाना । होइब श्री मान सत्यबाना ।।
सुबुधजन माहि परम ग्यानिहि । जागइक के सब अंग जानिहि ॥
जहाँ तक मुझे ज्ञात है उस राजा का नाम श्रीमान सत्यवान है | सुबुध जनों के वर्गमें वे परम ग्यानी है वह यज्ञ के सभी अंग जानते हैं |
महोदय इहाँ पूरब काला । रहे ऋतम्भर नाउ भुआला ।।
अस तौ तिनकी बहु तिय होइहि। तथापि रहे न जनिमन कोई ॥
महोदय ! पूर्वकाल में यहाँ ऋतंभर नाम के एक राजा हुवे थे | वैसे तो उनकी बहुंत सी पत्नियां थीं तथापि वे निसंतान थे |
को सुभागिनि गर्भ न गाही । पलाऊ रहेउ को सुत नाही ॥
एक बार सुभाग सों दुआरे । देबबस मुनि जबालि पधारे ॥
किसी भी सौभाग्यवती ने गर्भ धारण नहीं किया एतवा उनका गोद पुत्र से विहीन थी |देव वश उनके यहाँ मुनि जाबालि का आगमन हुवा |
अर्थ धरम कामादि प्रदेसे । समउ अनुहर सेवैं नरेसे ॥
होतअगुसर चरन सिरु नायउ । निज सुख दुःख के मुनिरु सुनायउ ॥
अर्थ धर्म काम आदि प्रदेशों का समयानुसार सेवन करने वाले उस नरेश ने मुनि का स्वागत करते हुवे उन्हें नट मस्तक होकर प्रणाम किया और अपने सुख-दुःख की वार्ता के पश्चात
पूत कामना परगसत पूछे जनित उपाए ।
महिपत मन गलानि जान,मुनि बहु बिधि समुझाए ॥
पुत्र प्राप्ति की इच्छा प्रकट कर उसके उत्पन्न होने का उपाय पूछने लगे |महिपत के मन में ग्लानि को भान कर मुनि ने उन्हें बहुंत प्रकार से समझाया |
शनिवार, १४ मार्च, २०१५
प्रजापति पुनि पुनि पूछ देखे । कोउ त जुगति मुनि मोहि लेखे ॥
जात जनित जो होए सहाई । कहौ कृपानिधि को उपाई ॥
किन्तु प्रजापति वारंवार प्रश्न करते हुवे कहते - मुनिवर ! कोई तो युक्ति बताइये, कृपानिधि ! ऐसा कोई उपाय बुझाइये जो पुत्र प्राप्ति में सहायक हो |
दिष्ट बिधा जिन करिए प्रजोगे । मम कुल तरु नव साख सँजोगे ।।
सुनि अस मुनि एहि बचन उचारे । होही सिद्ध सुत काम तुहारे ॥
उस निर्दिष्ट विधा का प्रयोग करने पर मेरा वंश वृक्ष नवीन शाखाओं से युक्त हो | ऐसा सुनकर मुनि बोले -- तुम्हारी पुत्र कॉमन अवश्य पूर्ण होगी |
जननि जनक जो संतति चाही । त्रिबिध उपाउ तासु हुँत आहीं ॥
गिरि पति श्रीधर एक गौ होइहि । तीनि कृपाकर जिन सिरु जोइहि ॥
संतान की इच्छा रखने वाले मात-पिता के लिए संतानोत्पत्ति के ये त्रिविध उपाय है | भगवान शिव की, भगवान विष्णु की और एक गौमाता इन तीनों की कृपा जिसके शीश पर होती हैं |
ऐसेउ कृपा जुगति प्रजोगिहि । सो अवसिहि संतति सुख भोगिहि ॥
भयउ उपजुगत तव हुँत राजन । देऊ सरूपा गउ के पूजन ॥
जो ऐसी कृपा युक्ति का प्रयोग करता है वह अवश्य ही संतान सुख को भोगता है | हे राजन ! तुम्हारे लिए यही उपाय उपयुक्त है कि तुम नित्य देव स्वरूपा गौमाता का पूजन करो |
गौ मात के सकल अंग सुर के होत निकाए ।
एही कारन तासु पूजन, संतति के बर दाए ॥
गौ माता के समस्त अंगों में देवताओं का निवास होता है इस कारण उसका पूजन संतति का वरदाता है |
रविवार १५ मार्च, २०१५
चतुस्तनिहि पूजन परितोखा । देऊ पितन सब बिधि संतोखा॥
ब्रताचरन जो गौ गुन गावै । नेम सहित नित भोजन दावे ॥
चतुःस्तनि का पूजन द्वारा परितोषण देवताओं व् पितृ जनों को सभी प्रकार से तुष्टि प्रदान करता है | व्रत का पालन करते हुवे जो गौ का गुणगान करता है नियम पूर्वक उसे भोजन देता है |
ऐसेउ सत्कर्म के कारन । होयब सकल मनोरथ पूरन ||
तिसित गौ जो भवन बँधइहै । ऋतुमती कनिआँ बिनहि बिहइहै ॥
ऐसे सत्य धरम अनुष्ठान के कारण उसके समस्त मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं | यदि गृह में तृषालु गौ बंधी रहे, रजस्वला कन्या अविवाहित हो,
देंवन्हिबिग्रह चढ़े चढ़ावा ।दिवान्तर सों गति नहि पावा ॥
एहै करनी अस दूषन आनी । किए सत्कर्म सब धर्म नसानी ॥
देवताओं के विग्रह पर चढ़ा हुवा निर्माल्य दिवस के अंतराल पर शुभ गति को प्राप्त न हो तब इन सब करनी से उत्पन्न दोष पूर्व के किए धर्म-कर्म को नष्ट कर देती है |
चरत चरान जोइ अबरोधे । जानपनी हो हो कि अबोधे ॥
तासु पितर जन जोइ पद पाए । एहि करनी ओहि संग गिराए ॥
जो कोई गौचर भूमि में जानबूझ कर अथवा अन्जाने में अवरोध उत्पन्न करता है उसके पूर्वज जिस पद अथवा योनि को प्राप्त हुवे होते हैं ऐसी करनी से वे पतोन्मुखी होकर निकृष्ट पद अथवा योनि में चले जाते हैं |
को कुबुद्धि कर धरे लकौटी । जान गँवारुहु मारए सौंटी ॥
ऐसेउ पापक बिनहि हाथा । परि जम पुर निज पातक साथा ॥
कोई हतबुद्धि हाथ में सौंटी लिए गौ माता को असभ्य समझ कर प्रहार करता है वह पापी ऐसे पाप के साथ बिना हाथ के ही नरक के द्वार पर पहुँच जाता है |
को कंठी पासा कंटक डाँसा पीठ करन चरन भरे ।
करुनामई पर करुना करत तिन्हनि हरत पीरा हरे ॥
स्त्रबत रुधिरु अवसोषत स्नात मात जिअ साँत करे।
रोगिनी गउ मात औषधि दात घात घाव जो तन धरे ॥
यदि कोई कंठ से कंटकों का तथा पीठिका, कर्ण व् चरणों में भरे डॉंसों का हरण कर करुणामई माता पर करुणा करते हुवे उसकी पीड़ा का हरण करता है साथ ही स्त्रावित होते रुधिर को सुखाकर स्नान आदि क्रिया से उसे शान्ति व् सुख पहुंचाता है | जो कोई औषधि आदि से रोगी, चोटिल, घाव ग्रहीता गौ माता का औषधि आदि से उपचार करता है |
ऐसेउ कृत करम संग तासु पितरु सुख पाएँ ।
होत कृतारथ आपने बंसज असीरु दाएँ ॥
इस प्रकार के कृतकर्म से उस कर्ता के पूर्वज सुख को प्राप्त होते हैं फिर वह कृतार्थ होकर अपने वंशजों को आशीर्वाद देते हैं |
No comments:
Post a Comment