Thursday 17 August 2017

----- || दोहा-एकादश 13 || -----

बाहन ते परचित भयो बिरचत बैला गाड़ि | 
चरनन चाक धराई के जग ते चले अगाड़ि || १ || 
भावार्थ : - बैलगाड़ी की रचना के द्वारा यह विश्व वाहन से परिचित हुवा | वह जब अपने पाँव पर स्थिर भी नहीं हुवा था तब यह देश पहियों पर चलता हुवा प्रगत रूप में अग्रदूत के पद पर प्रतिष्ठित था |

तंत्रहीन जग रहे जब पसु सम धर्मबिहीन |
भारत धर्माचरन रत भगवन में रहँ लीन || २ ||
भावार्थ : - जन संचालन तंत्र से रहित यह विश्व जब धर्म हीन होकर पाश्विकता को प्राप्त था | तब  धर्म के सापेक्ष होकर भगवान की भक्ति में लीन यह राष्ट्र उन्नति के चरमोत्कर्ष पर था |

प्रश्न यह उठता है कि धर्मनिरपेक्ष होकर अब यह कहाँ है.....

प्रगति केरे पंथ रचत देत जगत उपदेस | 
अर्थ ते बड़ो धर्म किए नेम नियत यह देस || ३ ||
भावार्थ : - प्रगति के पंथ का निर्माण कर विश्व को उपदेश देते हुवे इस देश ने कतिपय नियमों का निबंधन किया जिसमें अर्थ की अपेक्षा धर्म को प्रधानता दी |

एहि अर्थ प्रगति पथ रचे  धरम करम कृत सेतु |
जीवन रखिता होइ के बरतिहु जग हित हेतु || ४ ||
भावार्थ : -- पथ की अपनी मर्यादा होती है अर्थ के द्वारा निर्मित यह प्रगति पंथ भी धर्म व् कर्म की मर्यादा से युक्त हो |  जीवन की रक्षा करते हुवे विश्व कल्याण के हेतु इसका व्यवहार हो |

यह संचित भू सम्पदा, करन हेतु उपजोग | 
कहे जग सो सुनै नहीँ कारन लगे उपभोग || ५ || 
भावार्थ : - भूमि की सम्पदा का निरूपण करते हुवे तदनन्तर  इस देश ने कहा यह संचित सम्पदा मनुष्य के उपयोग हेतु है जिससे उसका जीवन सरल व् सुखमय हो |  इस उपदेश को विश्व ने अनसुना कर दिया वह इस संचित सम्पदा का उपभोग करने लगा व् अपना जीवन दुखमय कर लिया  |

धर्म ते बड़ो अर्थ जहँ  मनमानस रत भोग | 
बयसकर निर्वासित तहँ आन बसे बहु रोग || ६ || 
भावार्थ : - जहाँ धर्म के स्थान पर अर्थ की प्रधानता होती है वहां मानव का मनोमस्तिष्क भोगवाद में प्रवृत्त हो जाता है, स्वास्थ को निर्वासित कर वहां बहुंत से रोग आ बसते हैं जिससे मनुष्य की आयु क्षीण होती चली जाती है |

अजहुँ जगत कै  सिरोपर चढ़े बिकासी भूत |
जाग बिनु सब भाग रहे बनन बिनासी दूत || ७ ||
भावार्थ : - विद्यमान समय में विश्व के शीश पर विकास का भूत चढ़ा हुवा है | अचेतावस्था में सभी  एक अंधी स्पर्द्धा के प्रतिभागी होकर प्रगति- पथ पर विनाश के अग्रदूत बनना चाहते हैं |

अजहुँ कर अवधारना ए  होत सुघर सो लोग | 
भवन बसाए नगर बसत भूरि भौति भव भोग || ८ || 
भावार्थ : - सभ्यता के परिपेक्ष्य में वर्तमान की यही अवधारणा है कि जो पाषाणों के भवनों में अधिवासित होते हुवे नगरों में निवासरत हो एवं भौतिक वस्तुओं का अधिकाधिक उपभोग करने में सक्षम हों, वह सभ्य हैं |

साधत जो हित आपुना मानस कहे न कोए | 
जीउ हने हिंसा करे सो तो पसुवत होए || ९ || 
भावार्थ : - जिसका जीवन केवल स्वार्थ सिद्धि के लिए हो वह मनुष्य, मनुष्य कहलाने के योग्य नहीं है | हिंसा एक पाश्विक आचरण है, जो जीवों की हत्या करते हुवे हिंसा में प्रवृत्त रहता हो वह असभ्य है |

अनपढ़ अनगढ़ सोइ जौ मानस मति ते दूर | 
जग में पाप बढ़ाई के होत जात सो क्रूर || १० || 
भावार्थ : - वह मनुष्य असभ्य व् अशिक्षित है जो बुद्धिहीन है | बुद्धिहीनता  संसार में पापों का संवर्द्धन करती हैं इस संवर्द्धन से संसार पापी तथा वह स्वयं क्रूर होता चला जाता है  | उसकी क्रूरता में जब उत्तरोत्तर उन्नति होती है तब प्रथमतः वह कीट तत्पश्चात , मुर्गी फिर गाएं का भक्षण करने लगता है एक समय ऐसा आता है जब वह भ्रूणभक्षी से नरभक्षी होकर अपने माता-पिता का ही भक्षण करने को आतुर हो जाता है |

पशुवत लक्षणों का परिलक्षित होना पाश्विकता है, जो लक्षण मनुष्य को पशुओं से भिन्न करते हैं वह सभ्यता के लक्षण हैं.....,

जोग जुगाए यत किंचित करत भूरि उपजोग | 
धरमवत सद्कर्महि रत सुघर होत सो लोग || ११ || 
भावार्थ : - जो लोग भूत भविष्य व् वर्तमान का ध्यान करके यत किंचित धन्य धान्य संचयन करते हुवे उसका अधिकाधिक उपयोग कर जीवन निर्वाह करते हैं, वह सभ्य हैं | भूत के संयम से ही वर्तमान को सुखकर साधन
प्राप्य हैं वर्तमान संयमित होगा तभी भविष्य को ये साधन प्राप्य होंगे | धर्म के अनुशरण से मनुष्य संयमित होता है यह संयम उसे सद्कार्य करने के लिए प्रेरित करता है ये उत्तम कार्य उसे पशुवत लक्षणों से पृथक करते हैं |













Monday 14 August 2017

----- || दोहा-एकादश 12 || -----

भगवन पाहि पहुँचावै दरसावत सद पंथ |
धर्मतस सीख देइ सो जग में पावन ग्रन्थ || १ || 
भावार्थ : -  जो ग्रन्थ मनुष्य का मार्गदर्शन करते हुवे उसे ईश्वर के पास पहुंचाता हो | जो ग्रन्थ धर्म का अनुशरण कर मनुष्य को  सत्य,  दया,  दान के सह  त्याग व् तपस्या की शिक्षा देता हो वह ग्रन्थ पवित्र होता है.....

जो ग्रन्थ अपना देश, अपनी मातृभूमि छुड़वाता हो वह ग्रन्थ पवित्र नहीं होता.....

अजहुँ के चालि देख पुनि जनमानस कू लेख | 
अगहुँ धरम सम होइगा संविधान निरपेख || २ || 
भावार्थ विद्यमान समय की चाल का निरिक्षण व् जनमानस का अवलोकन करके ऐसा प्रतीत होता है कि आगे आगे धर्म के समान संविधान भी निरपेक्ष होने लगेगा |

करत पराई चाकरी करतब तासु अधीन |
होत जात निज देस सो होइब देस बिहीन || ३ ||
भावार्थ : - पराए देशों की चाकरी  करते करते उसे अपने अधीन करने वाले, देशवाल होते हुवे भी देश से विहीन हो कर दुत्कारे जाते हैं ||

आन देस अनगढ़ होत रहँ जब नंग धडंग | 
रहे सुघड़ एहि देस तब गहे सैन चतुरंग || ४ || 
भावार्थ : - अन्य राष्ट्र असभ्यता को प्राप्त होकर जब अशिक्षित व् नग्नावस्था में थे,  तब सभ्यता की परकाष्ठा को स्पर्श करते हुवे यह भारत चतुरंगिणी वाहिनी का धरता हुवा करता था |

धर्म वट धुजा पट धरे रहे सीव के संग | 
पथ पथ चरन पखारती तीनी जलधि तरंग || ५ || 
भावार्थ  : - धार्मिक  एक रूपता की ध्वजा को धारण किये यह देश सीमाओं से चिन्हित था |  तीन समुद्रों से उठती तरंगे पथ पथ पर इसके चरणों का प्रक्षालन करती थी |

हिममंडित मौली मुकट हृदय जमुना गंग | 
प्रथम किरन करि आलिँगन गगनपरसते श्रृंग || ६ || 
भावार्थ : - जिसका ह्रदय गंगा -यमुना जैसी नदियों के पावन जल रूपी रक्त की वाहिनियों से युक्त है | हिम मंडित हिमालय जिसके मस्तक का मुकुट है | सूर्य की प्रथम किरणों का आलिंगन करती हुई जिसकी गगनचुम्बी शिखाएँ हैं |

बस्ति बस्ति रहेउ बसत नव पाहन जुग सोह | 
अबर बसन बिन बास जब रहे सघन बन खोह || ७ || 
भावार्थ : - पाषाण से नवपाषाण युग में प्रवेश करते हुवे वह भारत तब बस्तियों में निवासरत था, जब अन्य देश के निवासी वस्त्र व् आवास से रहित होकर सघन वनों के भीतर गुफाओं में रहा करते थे ||

करष भूमि करषी कर लच्छी बसी निवास | 
भाजन सों भोजन करे होत अगन बसबास || ८ || 
भावार्थ : --  भूमि को कर्ष कर जब इस देश ने कृषि का आविष्कार किया और भूमिपर व्याप्त धन रूपी लक्ष्मी घरों में निवास करने लगी तब विश्व अर्थ व्यवस्था से परिचित हुवा | भाजन में भोजन करना विश्व ने इस देश से ही सीखा |  इस देश ने ही अग्नि का प्राकट्य किया और उसे घरों में बसाया | 

प्रगति के पुनि पथ रचत ताम धातु करि टोह | 
अगजग धातु जुगत करे टोहत काँसा लोह || ९ || 
भावार्थ : - तांबा, कांसा लोहादि  धातुओं की खोज  करके विश्व को धातुमय करते हुवे इस देश ने उस प्रगति पथ की रचना की | 

बरन हीन जग रहे जब  आखर ते अग्यान | 
भूषन भूषित भाष ते लेखे बेद पुरान || १० || 
भावार्थ : -   शब्दहीन यह विश्व जब अक्षरों से भी अनभिज्ञ था तब इस देश ने स्वर-व्यंजनों व् अलंकारों द्वारा विभूषित भाषा से वेद पुराण जैसे ग्रन्थ लिखे | औपनिवेषिक शोषण के कारण यह देश अशिक्षित होता चला गया |

हल हथोड़े गढ़त जगत जुगत करे कल यंत्र  |
मानस जन कहतब रचे जन संचालन तंत्र || ११ || 
भावार्थ : -  जब इस देश ने हल हथौड़े गढ़े तब यह विश्व यन्त्र-संयत्र से युक्त हुवा | समूह में निवासित मानव समुदाय को 'जन' सम्बोधित करते हुवे 'जन संचालन तंत्र' की रचना की | राजतंत्र एवं लोकतंत्र इस देश की ही परिकल्पना थी |








Thursday 10 August 2017

----- || दोहा-एकादश 11 || -----


हाथोँ हाथ सूझै नहि घन अँधियारी रैन | 
अनहितु सीँउ भेद बढ़े सोइ रहे सबु सैन || १ || 
भावार्थ : -- जहाँ हाथों हाथ सूझता न हो जहाँ नीति व् नियमों का अभाव के सह अज्ञानता व्याप्त हो | जहाँ शत्रु सीमाओं को भेद कर आगे बढ़ रहे हों जहाँ सेना गहन निद्रा में निमग्न हो वहां जनमानस को चाहिए कि वह सचेत व् सावधान रहे |

रतनधि धर जलधि जागै,जागै नदी पहार | 
एक पहराइत जगै नहि ,जागै सबु संसार || २ ||
भावार्थ : - रत्नों की निधियां संजोए जलधि जागृत है नदी जागृत है पहाड़ जागृत है सारा संसार जागृत है केवल एक पहरेदार जागृत नहीं है |

निँद त्याज कर जागरन जन जन पूछ बुझाए | 
पितु धन सम्पद जान के परबसिया कर दाए || ३ || 
भावार्थ : - सुषुप्त अवस्था  त्याग कर जनमानस भी जागृत हो और सत्ता के लालचियों से प्रश्न करे कि राष्ट्र की भूमि को खंड-खंड कर उपनिवेशियों को दे दी गई क्या इन्होने इस राष्ट्र को अपनी पैतृक सम्पति समझ रखा है |

१९६० ई .के ९ वे संशोधन का कारण पूछे जिसमें देश  के टुकड़े कर एक संधि के द्वारा बेरुबारी व् खुलना आदि क्षेत्र पाकिस्तान को दे दिए गए थे |


खंड खंड करि देस जे अखंड राग अलाप | 
जागरित जन को चाहिये पूछे तिनके पाप  || ४ || 
भावार्थ : -- अखंडता के राग का अलाप करते जिन्होंने इस देश को खंड-खंड किया और करते रहेंगे  | जागृत जनमानस को चाहिए वह उनके पाप पूछे |

अधिकार ते सजग होत करतब सोंहि सचेत | 

पलछन चिंतन रत रहत  करे देस सो हेत || ५ || 
भावार्थ : -- स्वाधिकार के प्रति सजग व् स्व-कर्तव्य के विषय में सचेत रहते हुवे जो आत्मचिंतन से अधिक राष्ट्र के चिंतन में लीन रहता हो उसे अपना राष्ट्र प्रिय होता है,यह जागरूक जनमानस का भी लक्षण है |

तरु बलयित जस बेलरी तासु कोस अवसोस | 
बढ़त बढ़ावत आपनी बासत जात पड़ोस || ६ || 
भावार्थ : -- वृक्ष में वलयित बेल वृक्ष के ही पोषण कोष का अवशोषण कर अपनी वृद्धि करती हुई जिस प्रकार पड़ोस में बसती चली जाती है उपनिवेशियों का स्वभाव भी उसी प्रकार का होता है |

देसवाल हो जासोइ पाए धरनि धन धाम | 
बैर बँधावत तासोइ चढ़त करे संग्राम || ७ || 
भावार्थ : -जो  देश  भूमि धन व् सदन से युक्त कर इन्हें देशवाल बनाते हुवे जगत में प्रतिष्ठित करता है,  ये उसी देश से वैर बाँधते उसकी सीमाओं का अतिक्रमण करते हुवे नित्य संग्राम के लिए आतुर रहते हैं |

पीर नहीं पर एकै की यह अगजग की पीर | 
जेहि तरु तिन पोषि तेहि काटैं धीरहि धीर || ८ || 
भावार्थ : - उपनिवेशियों द्वारा प्रदत्त यह पीड़ा किसी एक राष्ट्र की न होकर उन सभी राष्ट्रों की है जहाँ की ये बसे हुवे हैं ये जिस वृक्ष से परिपुष्ट होते हैं उसी वृक्ष की जड़ें काटने में लगे रहते हैं  इनकी अनंतिम परिणीति विभाजन है  | 

जुग लग सम्राज वाद पुनि उपनिवेसि कर सोस | 

भारत की प्रगति दो दिन चली अढ़ाई कोस || ९ || 
भावार्थ : -- इस प्रकार युगों तक साम्राज्यवादी एवं औपनिवेशिक शोषण होने के कारण प्रगति के पथ पर भारत की गति अत्यधिक धीमी हो गई, शोषण के ये कारण इस देश में अब तक व्याप्त हैं | अन्य देशों को इससे बच के रहना चाहिए |

जग माहि एक भगवन की कृपा अकारन होइ | 
प्रति कारज न त होत है कारन कोइ न कोइ || १० || 
भावार्थ : - संसार में एक ईश्वर की कृपा ही अकारण होती है अन्यथा प्रत्येक कार्य का कोई न कोई कारण होता है |

साँसत घर की कोठरी संविधान को मान | 
बदले घर सो आपुना रचिता केर समान || ११ || 
भावार्थ : - उपनिवेशकों द्वारा शोषण एवं योग्यता की उपेक्षा करने कारण भारत के संविधान को पीड़ादायक कालकोठरी की संज्ञा दी गई और जिस प्रकार इसके रचेयता ने तो धर्म परिवर्तन किया था उसी प्रकार कुछ लोगों ने संविधान ही परिवर्तित कर लिया |

बसा बसेरा बिहुर के निसदिन करत पलान | 
देस पराए जा बसे केतक प्रतिभावान || १२ || 
भावार्थ : - अपने बसे बसाए राष्ट्र को छोड़ कर नित्य पलायन करते हुवे फिर कितने ही प्रतिभावान पराए देशों में निवासरत हो गए |

'धर्म को परिवर्तन न कर धर्म में परिवर्तन करो'
'संविधान को  परिवर्तन मत करो संविधान में परिवर्तन करो'
पण यह है कि वह परिवर्तन कल्याणकारी हो.....













Friday 4 August 2017

----- || दोहा-एकादश 10 || -----

बसति बसति बसबासता मिलिअब पर समुदाय | 
बसे बसेरा आपुना केहि हेतु कर दाए || १ || 
भावार्थ : - यदि एक पराए देश का सम्प्रदाय जब विद्यमान भारत के वस्ति वस्ति में निवासित है तब उसका विभाजन कर एक बसा बसाया राष्ट्र उसे किस हेतु दिया गया |

एक नहीं दो नहीं तीन तीन राष्ट्र इन्हें दिए गए तथापि ये भारत की छाँती में मूंग दल रहे हैं इनके लिए इस देश का और कितना विभाजन होगा.....?


आन बसे परबासिया भए बिनु देस सदेस |
बिरावन भयउ भारती होत जात निज देस || २ || 
भावार्थ : -- अब देश में बसे पराए,  देश रहित होते हुवे भी देशवाल हो गए |  जो देशवाल थे, राष्ट्रिक थे वह राष्ट्र विहीन होकर राष्ट्र के स्वत्वाधिकार से वंचित हो गए, उनके लिए १९४७ की स्वतंत्रता अभिशाप सिद्ध हुई |

स्पष्टीकरण : - १९४७ के भारत विभाजन में भारत के मूल निवासी जो विभाजित देश में निवास करते थे उन्हें भारत लाया नहीं गया अब वह अभारतीय कहलाते हैं |

खंड खंड होतब अजहुँ भयऊ भारत सेष | 
अस तो हो रहि जाएगा सनै सनै अवसेष || ३ || 
भावार्थ : -- विद्यमान समय में स्थिति यह है कि यह अखंड भारत खंड-खंड होकर शेष भारत में परिवर्तित हो गया है  यदि यही अनुक्रम चलता रहा तो यह अवशेष मात्र होकर रह जाएगा  |

जनमानस भरमाइ के करतब खंडहि खंड | 
अगजग सबहि कहत फिरें यह तो देस अखंड || ४ ||  
भावार्थ : - जनमानस को भ्रमित करके इस देश को खंड-खंड किया | और संसार भर में ये सत्ता के लालची कहते मिले कि यह देश अखंड है | यह देश खंड- खंड हो चुका है जनमानस इस भ्रम में न रहे कि यह अखंड भारत है अब यह जितना है उतना को तो बचा लें.....

स्पष्टीकरण : -- १९७६ के ४२वें संशोधन द्वारा संविधान की प्रस्तावना में  'अखंडता' शब्द भी जोड़ा गया..... 

स्वाधीनता सबद तब होतब अर्थ बिहीन | 
रजे राज सो देस में जिनकर रहे अधीन || ५ || 
भावार्थ : -- स्वाधीनता शब्द तब अर्थ विहीन हो जाता है जब देश में वही राज करता हो जिसके की वह अधीन था |

स्वत्वाधिकार तैं जो स्वाजन्य परिरोधि | 
सो बिधि सो सबिधायनी होत स्वतोबिरोधि || ६ || 
भावार्थ : - किसी विधि द्वारा विहित अधिनियम अथवा उसके उपबंध जब मूल निवासियों के स्वत्वाधिकार को परिरुद्ध करते हैं तब वह संविधान अपने ही राष्ट्र का विरोधी होता है |

दास करत गोसाइयाँ गोसाईँ कर दास | 
सासन करे बिलास जब जन जन होत उदास || ७ || 
भावार्थ : -   जब जनमानस अपने अस्तित्व के बौद्धिक तत्वों से अनभिज्ञ होते हुवे सुषुप्त और शासन निर्द्वन्द्व सुख उपभोग में मग्न होता है, तब स्वामी स्वामित्व के अधिकार से वंचित होकर दासत्व को तथा दास  उन अधिकारों से संपन्न होकर स्वामी के पद को प्राप्त होते जाते हैं |


अचेतन होत जहँ जन मानस रहे उदास | 
तहँ कर सब सुख सम्पदा बसे परायो बास || ८ || 
भावार्थ : --  जहाँ जनमानस अपने अस्तित्व के बौद्धिक तत्वों से अनभिज्ञ होते हुवे सुषुप्त अवस्था में होता है वहां की सभी सुख सम्पदाएँ पराए देशों में जा बसती हैं और वहां निर्धनता का वास हो जाता है |

उदर परायन होइ के सोते रहे न कोए | 
जगत परायन संग अब देस परायन होएं || ९ || 
भावार्थ : - जगत के अस्तित्व में किसी राष्ट्र  का अस्तित्व निहित होता है, राष्ट्र के अस्तित्व में उसके जनमानस का अस्तित्व निहित होता है | जनमानस छुद्र स्वार्थों के वशीभूत होकर उदर की पूर्ति करने में न लगा रहे कि वह सुषुप्त अवस्था का त्याग कर स्व-कर्त्तव्य के विषय में सचेत होते हुवे जागृत रहे और जगत का चिंतन करते हुवे देश का चिंतन करे |

परबसिया जहँ दरसिया बसबासत सब कूल | 
कहँ भारत कहँ भारती कहँ भारत के मूल || १० || 
भावार्थ : - एक जागृत जनमानस को संविधान से यह प्रश्न अवश्य करना चाहिए कि सीमावर्ती प्रदेशों में जहाँ तक देखो वहां पराई शाखाएं ही निवास करती दिखाई देती हैं ऐसी परिस्थिति में भारत कहाँ है, भारतीय कहाँ हैं, और भारत की वह जड़ें कहाँ हैं जिनसे यह राष्ट्र परिपोषित हुवा है |

सासन भोगे बिषय रस डीठ धरे चहुँ कोत | 
रूखे जन को चाहिये जोगे जगरित होत || ११ || 
भावार्थ : - शासन विषय जनित रसों का आनंद लेने में निमग्न है | सुषुप्त जनमानस को चाहिए कि वह जागृत होकर अपने स्वत्व के विषय में सचेत व् सावधान रहे चारों ओर दृष्टि लगाकर अपने राष्ट्र की रक्षा करे |




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