Tuesday 19 January 2016

----- ।। उत्तर-काण्ड ४६ ।। -----

रविवार, १७ जनवरी, २०१६                                                                                               

जम दूत कराला । पिआवहि तपित लौहु रसाला ॥ 
कर्म गति  कह मुनिरु बिद्वाने । सतत रूप एहि बचन बखाने ॥ 
जो मूढ़ सुरापान करते हैं उन्हें धर्मराज के भयंकर दूत आतप्त लौह द्रव का पान करवाते हैं | कर्म की गति का व्याख्यान करते हुवे विद्वान मुनिश्री क्रमश: य्ये वचन कहते हैं :--

जो बर बिद्या बरआचार । सों परिपूरित भरे हँकारा ॥ 
गुरु जनन्हि के करिहि अनादर । जाएँ गिरि छारा सो मरनि पर ॥ 
जो श्रेष्ठ विद्या व् उत्तम आचारों से परिपूर्ण होकर अहंकार के वशीभूत गुरुजनों का निरादर करते हैं वह मृत्यु के पश्चात क्षार नामक नर्क में गिरते हैं | 

बहिर भूत निज धर्म समाजा । करहिहि तासु बिपरीत काजा ॥ 
सूलपोत जहँ पीर अपारा । जाएँ पतत सो नरक दुआरा ॥ 
जो लोग धर्म  व् समाज से बहिर्गत होकर उसके विपरीत अहितकर कार्य करते हैं वह  शूलप्रोत नामक नरक के द्वारा में जा गिरते हैं जहाँ अपार पीड़ा को भुक्तना पड़ता हैं | 

जो उद्बेजक बचनन ताईं । पीठ फिरे लगि कारन बुराई ॥ 
दंद सूक मुख बल गिरि जाईं । दंद सूक तें जाएँ डसाईं ॥ 
जो उद्वेग्कारक वचनों के प्रसंग पश्चपृष्ठ निंदा में संलग्न रहते हैं वह  दंदशूक नामक नर्क मुख के बल जा गिरते है, वहां उन्हें दंदशूकी सर्पों से डसाया जाता है | 

पापिहि हुँत अनेक नरक, एहि बिधि भूप सुजान । 
भुगतिहि बहुतक जातना पतत तहाँ गिरि आन ॥   
इस प्रकार हे बुद्धिवंत राजन  ! पापियों के लिए अनेकों नर्क हैं पाप करके वे उन्हीं में जा गिरते हैं जहाँ वह बहुंत प्रकार की यातनाएं भोगते हैं | 

राम सरस घन कथा सुबारी । आस पिआस मनोमल हारी 
कामकोह मद मोह नसावनि । हरिदै ते संताप मिटावनि ॥ 
राम रसमय घन हैं रामकथा सुन्दर वर्षा है जो मन की कामना रूपी प्यास व् उसकी मलिनता का हरण करने वाली है | यह काम,क्रोध,माध व् मोह को नष्ट करने वाली व् ह्रदय के संताप का निवारण करने वाली है | 

जिन्ह एहि बारि न मानस धोए । जेहि कर पर उपकार न होए  ॥ 
निपतत सकल नरक बधि पाँती । भुगतिहि तहँ दुःख सो सब भाँती ॥ 
जिन्होंने इस वर्षा से अपने मनमानस को परमार्जित नहीं किया जिन हाथों ने कभी परोपकार नहीं किया | उन्हें पंक्तिबद्ध उक्त सभी नरकों में गिरते हुवे सभी प्रकार की यातनाओं को भोगना पड़ता हैं | 

जिन्हनि अतिकर सुख इहि लोका । दुःख न बियोग न रोग न सोका ॥ 
सुरग ताहि हुँत यह संसारा । ताते अबर ए नरक द्वारा ॥ 
जिन्हें इस लोक में अधिक सुख प्राप्य है जिन्हें दुःख है न वियोग न रोग-शोक ही है उनके लिए यह संसार ही स्वर्ग है इससे अन्यथा यह नर्क का द्वार है | 

दान धरम सत कर्महि लागे । रघुबर पदुम चरन अनुरागे ॥ 
तपोधन तें तीर्थाटन तें । जाइहि सब दुःख परिताप  नसें ॥ 
दान-धर्म व् सत्कर्मों में संलग्न रहने,से  ईश्वर रूपी भगवान श्रीरघुवीर के चरणों में अनुरक्त रहने से, तप-त्याग से, व् तीर्थाटन से जीवन के समस्त संताप विनष्ट हो जाते हैं | 

पाप पंक लपटाइआ ता हुँत एकै उपाए । 
हरि कीरत कल कूलिनी अवगाहत पखराए ॥ 
जो जीव पापपंक में संलिप्त हैं उनके हेतु एक ही उपाय है वह हरिकीर्तन की सुहावनी नदी का अवगाहन कर अपने पापों का परमार्जन करें | 
  मंगलवार, १९ जनवरी, २०१६                                                                                 

तासु अबरु एहि  बिषयन माही । कोउ बिचार करिअ चहि नाही ॥ 
करतब प्रभु के मान बिभंगा । ताहि बिमल करि सकै न गंगा ॥ 
इस विषय में कोई अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है जो ईश्वर का मान भंग करता है उसे परम पावनि सुरसरिता भी पवित्र करने में असमर्थ होती है| 

पबित ते पबित तीरथ कोई । करिअ अमल सो बल नहि जोईं ॥ 
राम नाम ग्राम गन सीला । राम कीरत राम कर लीला ॥ 
वो कोई पवित्र से पवित्र तीर्थ ही क्यों न हो उसमें भी ऐसे पापी को निष्पाप करने का सामर्थ्य नहीं होता |  राम का नाम गुण व् शील का समूह है | 

मुख दृग बिनु दृग दरस बिहीना  । इंद्रि ग्राम ग्यान ते हीना ॥ 
हाँसत तासु चरित परहेले । कलप लग नरक निबुक न मेले ॥ 
नेत्रविहीन मुख व् दृश्य रहित दृष्टि के समदृश्य ज्ञान से रहित इन्द्रिय समूह का आश्रय लेकर जो उनके चरित्र की अवहेलना करता है उसे कल्प तक नर्क से मुक्ति नहीं मिलती | 

संकट परि तव हय हे नाहू । परिहरन हुँत अजहुँ तुअ जाहू ॥ 
कहत सुनत रघुपत गुन गाना । सेबक सहित करिहौ बखाना ॥ 
राजन! तुम्हारा अश्व संकटापन्न है अब तुम जाओ और उसे संकटमुक्त करो| सेवकों सहित रघुवीर के गुनगान  को कहते सुनते उनका व्याख्यान करो | 

धार रूप बहिहि सुर धुनि जब श्रुति रंधन माहि । 
चलन फिरन के गयउ बल ता संगत बहुराहि ॥ 
जब उस गुणगान की स्वर ध्वनि की धारा श्रुतिरंध्रों में प्रवाहित होगी तब उसका विगतित परिचालनबल लौट आएगा| 

शौनक मुनि अस बचन बखानी । सुनी सत्रुहन परम सुख मानी ॥ 
करिहि प्रदछिन चरन सिरु नाईं । कहत सेष पुनि आयसु पाईं ॥ 
शेषजी कहते हैं :-शौनक मुनि का ऐसा वचन-व्याख्यान श्रवण कर शत्रुध्न को परम सुख की अनुभूति हुई | उनके चरणों में नतमस्तक होकर उन्होंने मुनिवर की प्रदक्षिणा की ततपश्चान प्रस्थान की आज्ञा मांगी | 

सेबक सहित चले तहँ संगा । संगहि ताहि चली चतुरंगा ॥ 
अचिरम अचर तुरग पहि आईं । पवन तनय हरि चरित सुनाईं ॥ 
सेवक सहित फिर वहां से प्रस्थान किए उनके साथ-साथ चतुरंगी सेना भी चल पड़ी | वह अविलम्ब निश्चल अश्व के पास आए और पवन तनय हनुमंत ने रघुनाथजी के चरित्र का वर्णन किया | 

रामकथा ग्यान गुन रासी । बड़ ते बड़ दुर्दसा बिनासी ॥ 
कहहिं संत मुनि श्रुति अस गावा । मिटिहि तमस प्रभु तेज प्रभावा ॥ 
रामकथा के ज्ञानगुण की राशि बड़ी से बड़ी दुर्दशा की विनाशक है ऐसा संत मुनियों का व् श्रुतियों का कहना है कि प्रभु के तेज का प्रभाव अज्ञान  के अन्धकार को नष्ट कर देता है | 

कीर्तन करत  करत बिहाना । कहत देव हे कहि हनुमाना ॥ 
नाम गुन कीर्तन पुन संगा । होहु बियद गत जान प्रसंगा  ॥ 
कीर्तन करते करते अंत में हनुमंत ने कहा :- हे देव! प्रभु के नाम गुण कीर्तन के पुण्य का प्रसंग प्राप्त कर आप अपने विमान के साथ आकाश गामी हो जाइये | 

बिचरत निज बिहार देस बाँधे बंध न कोए । 
एहि अधमतस जोनि संग तुहरे निबहन होए ॥ 
और अपने विहार देश में निर्बंध स्वरूप में स्वच्छंद विचरण कीजिए | यह अधमतास योनि से अब तुम्हारी मुक्ति हो जाए 

बृहस्पतिवार, २१ जनवरी, २०१६                                                                           

कहा सो देव श्रुत एहि निगदन । हरि चरित श्रुत भया  मैं पावन ॥ 
बिधि निषेध कथा यह नीकी । सीता पति की रघुबर जी की ॥ 
यह वक्तव्य श्रवण उस देव ने कहा हरि का चरित्र श्रवण कर में पवित्र हो गया विधि की और निषेध की यह सीतापति श्रीरामजी की कथा अत्यंत सुन्दर है |  

बिधि निषेध = क्या करें की न करें 

अजहुँ मोहि निज लोक पयावन । सानंद आयसु देउ महमन ॥ 
ब्रम्ह देव अस बचन बखाना  । चले सुरग पुनि पौढ़ बिमाना ॥ 
अब मुझे अपने लोक में प्रस्थान हेतु आनंद सहित आज्ञा दीजिए | उस ब्राह्मण देव के ऐसे वचनों का विभाषाण कर विमान पर प्रतिष्ठित होकर स्वर्ग चले गए | 

दरस दिरिस यह कौतुककारी । सत्रुहन मन भए अचरजु भारी ॥ 
सेवकहू  बहु बिसमय करिहीं । देव केर श्राप जस हरिहीं ॥ 
जिस प्रकार ब्राह्मण देव के श्राप का हरण हुवा इस कौतूहलकारी दृश्य को दर्शकर शत्रुध्न के मन में अत्यंत विस्मय हुवा उनके सेवक भी आश्चर्य चकित रह गए | 

भए जड़ता ते मुकुत तुरंगा । प्रमुदित उपबन भरे बिहंगा ॥ 
होत बिहागन संग बिहागा । आतुर चहुँ पुर बिहरन लागा ॥
वह अश्व गात्र-स्तम्भ से मुक्त हो गया पक्षियों से भरा वह उपवन भी प्रमुदित हो उठा, उन विहंगों के साथ विहंग होते हुवे वह तुरंग भी आतुरतापूर्वक उस उद्यान में सभी ओर विचरण करने लगा | 

कहैं सेष भगवान पुनि मुनि एहि भारत देस । 
चहुँ पास जहँ  एक ते एक अहँ भरपूर नरेस ॥ 
शेष भगवान कहते हैं:- मुने !  इस प्रकार चारों ओर एक से बढ़कर एक नरेशों से परिपूर्ण इस भारत-खंड में -

एहि बिधि भमरत दिसि  दिसि ताहीं । बिहरत सत दिनमल बिरताहीँ  ॥ 
आगत हिमगिरि संकासे । फिरबत बहुलक देस सुपासे ॥ 
उस अश्व को दिशा-दिशा में भ्रमण पूर्वक विहार करते हुवे सात महीने व्यतीत हो गए | उसने हिमालयक्षेत्र के निकट बहुतक देशों में निर्बाध परिक्रमा की | 

अंग देस हो कि चाहे बंगा । नृप परिपूरित देस कलिंगा ॥ 

तहाँ केरे सबहि भूपत गन । भली प्रकार किए तुरग स्तवन ॥ 
वह अंग देश हो कि वंग-देश हो अथवा राजाओं से परिपूरित कलिंग देश ही क्यों न हो | वहां के सभी भूपतिगणों ने तुरंग का भलीभांति स्तवन किया| 

बहुरि तहँ सो चरन अगुसारे । अगत्य सुरथ  नगर पैसारे ॥ 
अदितिहि कुण्डलु निपतित होंही । बिदित भयो जग कुन्डलु सोही ॥ 
तदनन्तर वहां से चरण अग्रसर करते हुवे वह आगे सुरथ की नगरी में प्रविष्ट हुवा,जो अदिति के कुण्डल गिरने के कारण कुण्डल नाम से ही विख्यात हुवा | 

बन उपबन गिरिगन भरपूरी । सकल पुरीं जहँ तहँ फर फूरी ॥ 
भवन भवन बहु बरन बनाईं । बसे बसति सब भाँति सुहाईं ॥ 
जड़ता की प्रतीक मूर्तियों से दूर वनों,उपवनों,गिरिमालाओं से भरपूर वह समूची नगरी जहाँ-तहँ फलीभूत थी | बहुवार्णिक भवनों से रचित वहां की वासित वस्तियां सभी प्रकार सुहावनी थी | 

पुरजन पबित पुनीत पुरंजन । करिहि न कबहुक धरमु उलंघन ॥ 
निसदिन तहाँ बहु पेम सहिता ।  सुमरित गाँवहि नित हरि चरिता ॥ 
वहां निवासी पवित्र-पुनीत व् प्रज्ञावान थे वह धर्म का कभी उल्लंघन नहीं करते थे | वहां नित्य दिवस प्रेमसहित हरि चरित्र का निरंतर श्रवण-स्मरण होता था | 

पूजत असवत्थ तुलसी जन जन निजहि निवास । 
पाप दूरावत सबहि रहि भगवन के दास ॥ 
उस नगर के प्रत्येकजन अपने निवास में  नित्यप्रति अश्वत्थ व् तुलसी का पूजन करते | पाऊँ से दूर वहां सभी भगवन के दास स्वरूप थे | 

शनिवार, २३ जनवरी, २०१६                                                                                             

कंचन मनि लस  कलस कँगूरा । भीत बहिर रचि पचि अति रूरा ॥ 
मंदिर मंदिर तहँ श्री साथा । सोहित रहि राजित जगनाथा ॥ 
वहां के देवालयों कंचनमय मणियों से दमकते कंगूरों से युक्त थे वह बाह्यातंर सुन्दरतापूर्वक रचित व् खचित थे प्रत्येक देवालय में श्री के संग विराजित जगन्नाथ शोभान्वित होते | 

जनमानस चेतस बहु सुचिता । बंच बिहीन छलु कपटु रहिता ॥ 
पूजिहिं जब प्रतिदिन तहँ जाईं । कूजिहिं खंकन संख पुराईं ॥ 
जनमानस का चित्त अतिशय शुद्ध था वह वञ्चकता से विहीन व् छल-कपट से रहित थे| जब वह उन देवालयों में श्रीहरि का पूजन करते तब शंख पूरित क्षुद्र घंटियाँ गूँज उठती | 

रसन रसन करि कंठन घाला  । राम नाम के आखर माला ॥ 
करिहि परस्पर बैर न कोई । सबहि बिपुल सुख सम्पद जोईं ॥ 
जिह्वा-जिह्वा ने राम नाम की अक्षर- माला को कंठस्थ किया हुवा था | वहां कोई पारस्परिक विद्वेष नहीं करता था सभी विपुल सुख-सम्पदा संकलित किए हुवे थे | 
सुख-सम्पदा = वह सम्पदा जो समूचे जगत को सुख दे 

तासु हिया हरि नाम ध्याने। कबहुँ करम फल सुरति न आने ॥ 
पावन पबित सबहि बपुधारिहि । राम कथा कथ  मनहि बिहारिहि ॥ 
उनका ह्रदय हरि नाम का ही ध्यान करता उन्हें कभी कर्म के फल की स्मृति नहीं होती | सभी देहधारी पावन व् पवित्र थे और रामचन्द्रजी की कथा-वार्ता से ही वह मनोविहार करते | 

जीवन जोग जुग जीउती दुरब्यसनी न होइ  । 
सबहि सदाचरनी रही द्यूति कार न कोइ ॥ 
जीवन हेतु आवश्यक उपार्जन का ही संकलन करते उनमें कोई दुर्व्यसन नहीं था सभी जान सदाचारी थे वह कभी द्युति क्रीड़ा नहीं करते थे | 

धर्मात्मन् सदा सत भाषी । तहँ महबली नृप सुरथ बासिहि ॥ 
छबि भगवन मन दर्पन जिनके । कहँ लग बरनउँ महिमन तिनके ॥ 
सभी धर्मात्मा व् सत्यवादी थे वहां महाबली राजा सुरथ का राज था, जिनके मन-दर्पण में ईश्वर की छवि थी मुने! में उनकी महिका का वर्णन कहाँ तक करूँ| 

पेम मगन सुनि प्रभु गुन गाथा । रहहि सदा अनंद के साथा ॥ 
तासु सकल गुन भुइँ बिस्तारिहि ।जन जन के पातक निस्तारिहि ॥ 
वह प्रभु की गुणगाथा प्रेममग्न होकर श्रवण करते और सदा आनंद में रहा करते  | उनके समस्त गुण भूमण्डल में विस्तृत होकर जन जन के पातकों का परमार्जन कर रहे हैं| 

एक समउ पुनि कछु राज अनुचर ।रहहि बिहरत भँवरत सो नगर ॥ 
चन्दन चर्चित अस्व बिसेखे । नगर भीत पुनि आगत देखे ॥ 
एक समय किंचित राजानुचर उस नगरी का परिभ्रमण कर विहार कर रहे थे| चन्दन चर्चित उस विशिष्ट अश्व पर उनकी दृष्टि गई उसे नगर अंत:स्थल पर आता देख 

नियरावत जन यहु मन मोही । रघुबर तईं त्याजित होंही ॥ 
गयउ फिरे लए एही जनाईं । हर्षित राज सभा चलि आईं ॥ 
अश्व के निकट आने पर उन्हें यह ज्ञात हुवा कि ये अश्व भगवानरघुवीर द्वारा त्यक्त है | यह संसूचना लेकर वह लौट गए और हर्षित होकर राजसभा में आए | 

सभोचित सभासद बीच राजत रहीं नरेस । 
उतकंठित मन भाव सों अनुचर देइँ सँदेस ॥ 
विद्वान ब्राह्मणों एवं सभासदस्य के मध्य राजा सुरथ विराजमान थे | उत्कंठित मनोभाव से अनुचरों ने सन्देश निवेदन किया | 

सोमवार, २५ जनवरी, २०१६                                                                                   

साईं अवध नगर गोसाईं । दसरथ नंदन श्री रघुराईं ॥ 
तासु मेधीअ तुरग त्याजिहि  । भमरत चहुँ पुर इहाँ बिराजिहि । 
स्वामी ! दशरथ नंदन श्री रघुनाथ अयोध्या नगरी के स्वामी हैं, उनके द्वारा मेधीअ अश्व त्यागा गया है वह चारों दिशाओं में भ्रमण कर यहाँ विराजित हुवा है | 

सुबरन पतिया सीस बँधावा । अनुचर सहित नगरु नियरावा ॥ 
धौल बरन बहु भूषन साजा । मनोहारि मनि रतन समाजा ॥ 
उसके शीश पर स्वर्णमयी पत्रिका विबन्धित है एवं वह अपने अनुचरों सहित नगर के निकट आ पहुंचा है | उसका वर्ण धवल है तथा वह बहुतक आभूषणों से सुसज्जित है जो मनोहारी मणिमय रत्न समूहों से युक्त है | 

पीठ पर्यान बसन सुरंगा ।  गंध सार चर्चित सब अंगा ॥ 
बरनातीत मनोहर ताईं  । गहौं महानुभाव तिन जाईं ॥ 
उसकापृष्ठ-पर्याण (काठी) सिन्दूरीवर्ण का है उसके सभी अंग गंध सार से चर्चित हैं उसकी मनोहरता वर्णानातीत है | हे महानिभाव !  जाइये आप उसे ग्रहण कीजिए | 

सुरथ बहुरि एहि बचन उचारे । धन्य भाग भए आजु हमारे ॥ 
जग कर जुग जिन सादर बंदा । दरसिहि सो प्रभो मुख चंदा ॥ 
तत्पश्चात राजा सुरथ ने यह वचन कहे :-- आज हमारा भाग्य धन्य हुवा संसार करबद्ध स्वरूप में जिनकी वंदना करता है मुझे उन प्रभु के मुखचन्द्र का दर्शन होगा | 

कोटिन समर सूर तैं घेरे । आए इहाँ भमरत चहुँ फेरे ॥ 
करोड़ों योद्धों से घिरा वह अश्व चरों दिशाओं में भ्रमण कर यहाँ आ पहुंचा है | 

बँधहि रसना गहि अवसिहि बीर अजहुँ मम सोहि  । 
छाड़िहउँ ताहिं तबहि जब रघुबर दरसन होंहि ॥ 
रश्मि-बद्ध कर अब में उसे अवश्य ही ग्रहण करूंगा और उसे तभी मुक्त करूंगा जब मुझे भगवान रामचन्द्रजी के दर्शन होंगे | 

मंगलवार, २६ जनवरी, २०१६                                                                                  

चिंतन रत जेहि चिरकाल सों । करिहि कृपा मो पर कृपालु सो ॥ 
मोर नयन जिनके पथ जोंइहिं  । तिनके अब सुभ आगम होइहिं ॥ 
जब कृपालु श्रीरामजी  चिरकाल से अपना चिंतन करने वाले मुझ भक्त पर कृपा करेंगे | मेरे नेत्र जिनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं अब उन प्रभु का शुभागमन होगा | 

कहत सेष अस बोलि बिहाने । भूपत अनुचर आयसु दाने ॥ 
अजहुँ अबिलम बेगि करजाहू  । तुरग बरियात धरि गहि लाहू ॥ 
शेषजी कहते हैं :- अंत में राजा सुरथ ने यह कहते हुवे अनुचरों  को आज्ञा दी :-- 'अब तुम अविलम्ब प्रस्थान कर उस तुरंग को बलपूर्वक धारण करो और उसका हरण कर यथाशीघ्र ले आओ | 

होइ सौमुख संभरत केहू । केहि बिधि तेहिं छाँड़ न देहू ॥ 
मम मानस भरोसा ए होही । लहि लाह बड़ कहउँ मैं तोहीं ॥ 
कोई भी सम्मुख होते हुवे कोई युद्ध का प्रयास करे तथापि उसे किसी भी विधि से उसे परिहार न देना | मेरे मनमानस में ऐसा  विश्वास है कि उसने यह बड़ी अभिलाषा की है जिसे में तुमसे निवेदन करता हूँ 

जेहि सुलभ दिसि सकें न कोई । बिधि सुरपहु सो दुर्लभ होईं ॥ 
तेहि रघुनाथ के पद पंकज । होइहिं दरसित सुलभ बहु सहज ॥
सुरपति इंद्र के लिए भी जिनके दर्शन दुर्लभ है  सरलता पूर्वक जो किसी को भी दर्शित नहीं होते उन रघुनाथ के चरणारविंद के दर्शन मुझे सहज व् अत्यंत सुलभ होंगे | 

धन्य सो स्वजन सुत बन्धुजन धन्य सो बाहन बाहना । 
जासु सरल सुलभ संभावन भए रघुबीर के लाहना ॥ 
मनोगति नुहार बेगि हिरनै पतिया सीस सँवार चले  
बाँध्यौ बाँधनी पौरि तेहि मंजुल जोइ मनियार चले ॥ 
वही स्वजन, पुत्र , बंधू-बांधव धन्य वह वाहन व् वाही धन्य हैं जिससे  सरल व् सुलभ स्वरूप में श्री रघुवीर की प्राप्ति संभव हो एतएव जो  मन की गति के अनुसार तीव्र गति से परिचालन करता है, मस्तक पर हिरण्यमय पत्रिका सुसज्जित कर जो मंजुल व् मनोहारी चाल चलता है उस अश्व को को  घुड़साल में बाँध दो | 

महराउ कहत बचन पुनि दूत द्रुत तहँ जाइँ । 
सभागत सादर अरपिहि तुरंग बाँध ल्याइँ ॥  
महाराज ने दूतों से यह वचन कहे तब दूत द्रुतगति से वहां गए व्  उक्त अश्व को बांधकर सभा में ले आए और उसे महाराज को आदर सहित अर्पित कर दिया | 

कहैं सतत पुनि मुनिबर ताईं । सुनिहौं अजहुँ बहुंत लय लाईं ॥ 
 सुरथ  राज अस मनुष न कोई । पर दार अपराग  रत होईं ॥ 
शेषजी अनवरत मुनिवर से कहते हैं : - वात्स्यायन जी !  अब एकाग्रचित्त होकर सुनो |  सुरथ के राज्य में ऐसा कोई मनुष्य न था जो परस्त्री के अनुराग में आसक्त हो | 

पर धन सम्पद दीठ धरावा । अस लम्पट तहँ कोउ  न पावा ॥ 
जीह जीह रघुबर जस गाईं । अरु को अनुचित बात न आईं ॥ 
पराई धन- सम्पदा पर दृष्टि करे वहां ऐसे कामिलंपट का सर्वथा अभाव था  | जिह्वा-जिह्वा श्री रघुवीर का यशोगान किया करती थी उन्हें अन्य कोई अनुचित वचन सूझता नहीं था | 

एकु नारि ब्रति नर सब कोई । मन बच क्रम जौ जग हितु होईं ॥ 
करी अनहित धरि झूठ कलंका । बयरु अकारन बिरथा संका ॥ 
वहां सभी एकपत्नीव्रत का पालन कर्त्ता थे  जो  से संसार के हिताकांक्षी थे | जो किसी का अनहित करता हो , असत्य दोषारोपण करता हो, अकारण द्वेष करता हो, व्यर्थ की शंका करता हों, 

चलिहि बेद बिरुद्ध पथ माही । अस मानस को एकहू नाही ॥  
कृत काज कर राज के सैनी । निसदिन रघुनन्दन मुख बैनी ॥ 
जो वेद विरोधी पंथ के गामी हो उस राज्य में ऐसा एक भी मनुष्य नहीं था | कर्तव्य क्रियाकर राजा के सैनिकों का मुख प्रति दिवस रघुनन्दन का ही व्याख्यान किया करता था | 

तहाँ  न कोउ पापाधम सबहि धर्मानुसार । 
सुरथ देस केहि मन मति नहि को पाप बिचार ॥  
वहां कोई भी पापिष्ठ न था सभी धर्म का अनुशरण करने वाले थे | सुरथ के देश में किसी के मनोमस्तिष्क में पाप का विचार नहीं आता था 

बृहस्पतिवार, २८ जनवरी, २०१६                                                                              

धरेउ ध्यान जगवंदन के । नसेउ पाप सबहि पुरजन के ॥ 
हरि सुरति जबते आन समाए । हरिदै हरिदै आनंदु छाए ॥ 
जगद वंदन में ध्यानस्थ होने से सभी पुरजनों के पातक विनष्ट हो गए थे | जबसे हरि के स्मरण में समाहित हुवे तबसे ह्रदय-ह्रदय में आनंद का वास हो गया था | 

राउ सहित भए देस दुअारा । धर्म परायन जेहि प्रकारा ॥ 
तहाँ निबासित जन मानस रासी । परम  साँति गहँ मरत सुपासी ॥ 
राजा सहित वह देशद्वार जिस प्रकार से धर्म परायण हुवा उससे वहां निवासित जनमानस विश्राम पूर्वक शरीर त्याग कर परम शान्ति को प्राप्त होने लगे | 

प्रभु चरित अनुहार नर नारी । होइँ परम पद के अधिकारी ॥ 
सुरथ नगरिहि दसा अस होई । होए जोग जम दंड न कोई ॥ 
राम जी का चरित्र अनुशरण कर नर नारी परम पद के अधिकार को प्राप्त होने लगे  सुरथ के नगर की दशा ऐसी हुई कि धर्मराज के दंड योग्य कोई नहीं होता | 

पइहीं पैठ न तहँ जमदूता । त जम बोलि अह भयउ बहूँता ॥ 
एक बार पुनि धरे जति भेसा । गयउ नगर भए समुख नरेसा ॥ 
वहां जब यमदूतों का प्रवेश निषेध होने लगा तब यमराज बोले : -  " बस अब बहुंत हुवा !"फिर एक बार यति का वेश धारण किए वह नगर में नरेश के सम्मुख गए | 

बलकल बसन सोहत तन सीस जटा जुट केस । 
पहुँच सभा गह भेंटिहि भगवद भगद नरेस ॥ 
वैरागी वस्त्र से सुशोभित देह शीश पर जटाजूट केश धारण कर धर्मराज भगवद्भक्त राजा सुरथ की सभा-गृह में पहुँचकर उनसे भेंट की | 

माथ मौलि तुलसी दल साजे । रसनासन हरिनाम बिराजे ॥ 
तेहि समउ नृप सैनिहि ताहीं । धरम कर्म बत रहि समुझाहीं ॥ 
मस्तक पर मौलि स्वरूप तुलसी दल से सुसज्जित था  जिह्वा के आसन पर भगवान का उत्तम नाम विराजित था उस समय राजा अपने योद्धाओं से धर्म कर्म की वार्ता के प्रबोधन में व्यस्त थे | 

भरे भेस जमराज बिसेखे ।  अभ्यागत मुनिबर पुर देखे ॥ 
हस्त कमंडल कँथरी काखी । लागिहि तपो मूर्ती साखीं ॥ 
राजा ने विशेष वेश धारण किए आगंतुक यमराज मुनि की ओर दृष्टि की | हस्त में कमंडल भुजांतर में कंथारी लिए वह तप की साक्षात प्रतिमा प्रतीत थे | 

करिहि प्रनाम चरन कर जोरी । पूछिहि सादर कुसल बहोरी ॥  
पाउ पखार  बरासन दीन्हि ।श्रम जाइ बिश्राम करी लीन्हि ॥ 
चरणों में हस्तबद्ध प्रणाम किया और आदर सहित उनकी कुशलता पूछी | चरण प्रक्षालित कर उत्तम आसन प्रदत्त किया तनिक विश्राम करने से जब उनका शैथिलयता उन्मोचित हो गई | 

तब धर्मपर धरेस धुरंधर । कहहि तासु सबिनय हे मुनिबर ॥ 
तापिहि धरा घनागम तोरे । सकल सत्कृत सुफल भए मोरे ॥ 
तब धर्मपरायण राजाओं में अग्रणी सुरथ ने उनसे  विनयपूर्वक कहा : - 'हे मुनिवर ! इस तप्त धरा में आपका आगमन घन के सादृश्य है  मेरे समस्त सत्कृत सफल हो गए | 

धन्य धन्य भए नगर दुआरे । धन्य धन्य भए साँझ सकारे ॥ 
धन्य धन्यः भए मोर अगारा । देखि पाए मुनि राय तुम्हारा ॥ 
यह नगर द्वार धन्य है यह प्रात-संध्या धन्य है मेरा यह प्रासाद धन्य हुवा हे मुनिराज जो इन्हें आपके दर्शन हुवे | 

कलिमल हरनी मंगलकर अब सो कथा सुनाहु । 
जासु श्रवन वंत जन के पग पग पाप नसाहु ॥ 
अब आप कलयुग के पापों का हरण करने वाली सबका कल्याण करने वाली उस कथा का  आगान कीजिए जिन्हें श्रवण करने वाले जनसंकुल का चरण चरण पाप विनष्ट होते हैं |  

शुक्रवार, २९ जनवरी, २०१६                                                                                     

हाँसिहि मुनि सुनि नृप कहि बाता । गहि करतल दरसावत दाँता ॥ 
होइँ चकित पूछिहि नर नाहा । तव उपहासित कारन काहा ॥ 
नृप के वचन श्रवण कर  मुनि हंस पड़े और दन्तावली दर्शाते उनके करतल ग्रहण कर लिए | राजा चकित हो गायब और पूछने लगे -'मुनि !आपके उपहास का कारण क्या है ?

कहिअ कृपाकर मोहि जनइहौं । सोच ब्याकुल मन सुख दइहौ ॥ 
कहि मुनि सुनु मम बत मति लाईं । हँसि कारन जनाउँ तुम ताईं ॥ 
कृपया करके मुझे वह संज्ञात कीजिए व् चिंता से व्याकुल मेरे इस मन को सुखी कीजिए |' तब मुनि ने कहा -मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनो में तुम्हें अपने हास का कारण कहता हूँ 

अधुनै कहिहहु जस तुम मोही । बरनौ प्रभु कीर्ति मम सोहीं ॥ 
भगति रहस पुनि चहिहउ जाना । मन पूछतहुँ  कवनि भगवाना ॥ 

धरनि करष जस जल बस मीना । जगत जीउ तस कर्म अधीना ॥ 
करम संगति सुराग गति लाहहि । करम संगहि नरक गिरि जाहिहि ॥ 

कर्म सोहि धन सम्पदा , कर्म सोहि संतान । 
कर्म सोहि हे नरनाहु पैहि परम अस्थान ॥ 

रविवार,  ३१ जनवरी, २०१६                                                                                

सत जग कृत सुरपति जजमाना । पाइहि सुरग परम अस्थाना ॥ 
कर्महि तैं सिरजन कृतु ताईं । अद्भुद सत्य लोक लब्धाईं ॥ 

कर्म ते अतिसय सिद्धि सधाए । मरुतादि लोकेसर पद पाए ॥
तुम्हहु लागउ करि जग काजा । बंदिहु प्रनमत देउ समाजा ॥ 

तासों  उजबल जस तुम्हारा   । सकल भूमँडल लहि बिस्तारा ॥ 
नृप मन लगन एकै रघुनाथा । सुनी मुनि बचन छोभ के साथा ॥ 

हरिदे कोप अगन उपजाया । होइँ सुफल आगम जम राया ॥ 
कर्म बिसारद बम्हन ताईं । फरकत अधर बोलि खिसियाईं ॥ 

बिप्राधम सो करि न कहिहु जो नस्बर फल दाएँ । 
जग निंदा के जोग तुम अह कस भेस बनाए ॥