Friday 30 November 2018

----- ॥ दोहा-द्वादश १२ ॥ -----

जाके पूर्बज जनम भए जाहि देस के  मूल | 
जनमत सो तो होइआ सोइ साख के फूल || १ || 
भावार्थ : - "कोई व्यक्ति किसी राष्ट्र का मूल नागरिक है यदि उसके पूर्वजों की जन्म व् कर्म भूमि उक्त राष्ट्र की भूमि रही हो तथा उसका जन्म ऐसे पूर्वजों द्वारा उत्पन्न माता-पिता से हुवा हो |" 

स्पष्टीकरण : - यहाँ पूर्वज का आशय व्यक्ति के पूर्व की ज्ञातित पीढ़ियों में उत्पन्न व्यक्ति से है |  

जौ उलाँघत उपजत निज देस धर्म मरजाद | 
दूज हुँत मरजाद लिखे ताको संग विवाद || २ || 
भावार्थ : - अपने देश, अपनी कुल-जाति, अपने धर्म की मर्यादाओं के उल्लंघन का परिणाम जब दूसरों  के जाति-कुल देश-धर्म की मर्यादा लिखने का यत्न करता है तब उसके साथ विवाद होता है | लोग पूछते हैं तुम्हारी जाति क्या है ? धर्म क्या है ? फिर अपवाद स्वरूप कोई कबीर कहता है कि ''जाति न पूछो साधू की....''

जाति धरम जब कुल रहे रहैं हंस संकास | 
बिहूना होइ बगुल भए भाखन लागे माँस || ३ || 
भावार्थ :- जब जाति धर्म कुल की मर्यादाएं थीं तब हंस के समान रहे, जैसे ही मर्यादा भंग हुई बगुले हो गए और हिंसावादी होकर मांस-भक्षण करने लगे  |


अजहुँ सीस चढ़ि बैसिआ सोई अजाति बाद |
 निज मरजादा भूरि के औरन किएँ मरजाद  || ४ ||
भावार्थ :- अपनी मर्यादाओं का उल्लंघन कर दूसरों को मर्यादित करने का यत्न करते हुवे जिस वाद का प्रादुर्भाव हुवा वह अजातिवाद विद्यमान समय में शीश पर चढ़ा बैठा है |

जाति बरन अरु कुल धर्म नाउ नेम मरजाद | 
निर्बंधन जिन्ह चाहिए तासों करत बिबाद || ५ || 
भावार्थ :- जाति, वर्ण, कुल, धर्म नियम व् मर्यादाओं का दूसरा नाम है जिन्हें नियमों,मर्यादाओं, सीमाओं का विबंधन नहीं चाहिए उनका इनके साथ सदैव का विवाद रहा है और नियमों तथा सीमाओं की अबन्ध्यता अराष्ट्रवादिता की जननी है |

''राष्ट्रवादिता शब्दों से नहीं अपितु व्यवहार से प्रकट होती है.....''

नागरिकी अधिकार एक मौलिक एक अधिकार | 
येह  नागर कर दीजिए येह मूलि कर धार || ६ || 
भावार्थ : - भारत के इतिहास से शिक्षा लेते हुवे वर्तमान संविधानों को दो प्रकार के अधिकारों से युक्त होना चाहिए, एक मौलिक अधिकार दूसरा नागरिक अधिकार | मौलिक अधिकार तत्संबंधित राष्ट्र के मूल निवासियों को एवं नागरिक अधिकार मूल निवासियों सहित प्रवासी पीढ़ियों को प्रदत्त हो | 

शासन व् शासक चयन का अधिकार मौलिक अधिकार के अंतर्निहित हो..... 

सासन के अधिकार जहँ गहे देस के मूरि | 
जनमानस के सोइ सासन रहँ दासन ते दूरि || ७ || 
भावार्थ : -शासक व् शासन चयन जैसे मौलिक अधिकार जहाँ राष्ट्र के मूल नागरिक को ग्राह्य हों वह लोकतंत्र दासत्व के भय से मुक्त होता है |

सबहि देह मह जीउ है सबहि देह महँ प्रान | 
जिव हन्ता कहुँ  दंड हो काहु नही ए बिधान  || ८ || 
भावार्थ : - सभी देह श्वांस से युक्त है सभी देह प्राणमय हैं जीवन का अधिकार तो सभी को है | ईश्वर के शासन में जीव हत्या हेतु दंड का विधान है, मानव के शासन में इस अपराध हेतु दंड का विधान क्यों नहीं है |

बहुतक स्वाँग रचाई के पुनि भरे छद्म छ्ल भेस | 
नेता कहिते भारतिअ छाड़ों भारत देस || ९ || 
भावार्थ : - नाना भांति के स्वांग रचाकर छल कपट का वेश धरे सत्ता को प्राप्त नेता कहते हैं ''भारतीय भारत छोडो''

देहि जति परिधान दियो पहिरे पाँउ खड़ाउ | 
त्याजत तप रजत भयो सो तो रावन राउ || १० || 
भावार्थ : - देह में यतिवल्कल, चरणों में खड़ाऊ धारण किए सात्विकता यदि तामसी राजत्व को प्राप्त हो तो समझो वहां रावण राज है |


पथ पथ जाके राज में रचे कसाई गेह | 
कहौ कहा तिन होइगा राम नाम ते नेह || ११ || 
भावार्थ : - जिनके राज में पंथ पंथ पर कसाईघर अवस्थित हो कहिए भला उन्हें भगवद से प्रेम होगा क्या |

हिंसे न केहि जिउ कतहुँ सोए अहिंसा नीति |
अधिनायक तंत्र जहँ तहँ होत सबहि बिपरीति || १२-क ||
भावार्थ :- सभी जीवधारियों में ईश्वर की सत्ता है किसी भी जीव की हिंसा न करने की नीति ही अहिंसा नीति है | किन्तु जहाँ अधिनायक तंत्र भाग्य विधाता हो वहां समस्त नीतियां मूलतः सिद्धांतों के विपरीत हो जाती हैं |

 अधिनायक तंत्र = स्वेच्छा चारी शासन-प्रबंध, तानाशाही

दए अमि सुबरन नीपजे जुते खेह जौ बंस |
सो महपापि अधमी जो  ताहि हतें निरसंस || १२-ख ||

















Wednesday 28 November 2018

----- ॥ टिप्पणी १६ ॥ -----

>> और अब ये दासता की कलुषता जम्मू, कश्मीर यहाँ तक की अयोध्या में भी इस्लाम लिखने पर तुली है जो एक किरण की आशा थी वह भी निराशा में परिवर्तित होती जा रही है.....

>> गठबंधन.....वो भी ''बहनजी'' के साथ.....कोई इसके घर की बहन बेटियों को बचाओ.....
क्या प्रधान मंत्री बचाएंगे.....? लो एक जसोदा बेन ने पैले ही लुगाया बना कर छोड़ रखा है.....

>. वर्ण व्यवस्था वैदिक धर्म की व्यवस्था है ये अन्य के लिए कैसे हो सकती है.....?

>> और पाकिस्तान,अफगानिस्तान और भी देश हैं वे तुम्हारे क्या हैं .....? कभी कुरआन पढ़ी है कि नहीं.....३० खंड होते हैं कुरआन में.....सीपारा किसे कहते हैं.....?

>> कोई प्रधानमंत्री की उर्दू ठीक कर दे या हिंदी ठीक कर दे.....

>> हमारे यहाँ से काहे नहीं ले जाते.....यहाँ के प्रवासी जो अधिवासी बनकर मूल निवासी के अधिकार को प्राप्त हो गए हैं उन्होंने बहुंत सारी बना रखी हैं.....

मिरा माज़ी तंगे-हाल किए..,
खुद को मलिको-मालामाल किए..,
रहते है उस पार औ इस पार भी..,
मिरे दर पे वो सौ दीवाल किए.....
माज़ी = अतीत
सद्दे -रोई या सद्दे सिकंदर माना जाता है कि यह कांसे की दीवार सिकंदर ने तातार देश व् चीन के मध्य बनवाई थी ये दीवार वाली मानसिकता इस्लामवादी मानसिकता है लोकतंत्र में इसका कोई उपयोग नहीं है राज तंत्र में ये राजाओं की सुरक्षा करती थी.....

>> अर्थात अब धार्मिक अनुष्ठानों में हो रहे धन के अपव्यय और आडम्बरों को और अधिक बढ़ावा मिलेगा.....
     बुफे सिस्टम वाले भंडारे हो रहें हैं यहाँ पे

किसी की मरनी पे जाओ तो ऐसा आडम्बर की समझ नहीं आता वहां हंसना है या रोना है.....

>.> इन्हें भुगत तो हम भारतीय रहें हैं जो देश पर देश मिलने के पश्चात भी ये हमारे शेष के स्वामित्व, हमारी  आजीविका पर अधिकार किए बैठे हैं.....

>.> राजू : - हाँ ! यदि ये आरक्षण निजीसंस्थाओं में लागू हो गया तो उद्योगधंधे कैसे चलेंगे ? ऐसे वैसे चलेंगे तो टोटो पड़ोगो,
पड़ोगो तो भरपाई कौन करेगा प्रधानमंत्री का बापू.....?

>> राजू : -मास्टर जी मास्टर जी मेरे एक गधे मित्र को आरक्षण चाहिए किन्तु उसका घर १०५० फीट का है
मास्टर जी : - उसको बोल वो अपना घर ५० फीट तोड़ दे
राजू : -मास्टर जी किन्तु पंजिका में १०५० फीट ही है न
मास्टर जी : - बेच दे

>> राजू : - मास्टर जी मेरे योग्य मित्र की वार्षिक आय नौ लाख है और आठ वाले को आरक्षण....?
मास्टर जी : - उसको बोल पंखे से लटक जाए.....
राजू : - किन्तु मास्टर जी उसके घर में तो ए सी है
मास्टर जी : - मेरे पंखे से आ के लटक जाए.....

>> राजू : - मेरे को इन डिग्रीधारी नीम हकीमों से बचा लो.....ये मुझ जैसे योग्यों को पीछड़ा के दरिद्र रेखा के नीचे ला देंगे और पद में दलित करके मार देंगे.....

>> इन अधर्मियों का जाति धर्म क्या है ? इनसे तो पाषाण युग के मानव अधिक सभ्य थे.....

>> लोकतंत्र में एक मुखिया रूपी मुख को ही यह निर्णय करने का अधिकार प्रदत्त है कि उसके किसी अंग को कितने भोजन की आवश्यकता है मुखिया बनने की अभिलाषा रखने वाला दुखिया इसपर आपत्ति नहीं कर सकता..... उदा : - सम्मुख शत्रु है वीरता करने के लिए तब हाथ तो बोलेगा ही मुझे तोप चाहिए शत्रु के बल का अनुमान कर यहाँ मुखिया का विवेक इसका निर्णय करेगा कि वह उसे तोप दे अथवा लघु तुपक दे हाँ इस यत किंचित कृपणता से अंग भंग अथवा चोटिल हो जाए तब फिर विपक्ष दुखिया इसपर प्रश्न करने का अधिकारी है.....

>> चरित्रहीनों को देश में कोई चरित्रवान जा बसे तो उस देश में निवासित समुदाय यह सुप्रथा चलाए कि हमें ऐसे रहना चाहिए....कारण ऐसे रहने से देश की महिलाएं सुरक्षित रहेंगी.....
और देश का बचपन परिजनों की छाया में पलेगा इससे देश पर उसकी सुरक्षा का भार न्यूनतम होगा.....
>> 'चार बीबी चालीस बच्चे'' ''ये बिना बीबी चार सौ बच्चे.....

''ऐसे संबंधों से व्युत्पन्न संतति का उत्तरदायी कौन होगा.....


पुरुख नारि बिहीन जने संतति जब सतचार |
पच्छिम तेरी चलनि की महिमा अपरम्पार ||
भावार्थ : -अरे पाश्चात्य संस्कृति तेरी महिमा तो सबसे अपरम्पार है तुम्हारे यहाँ बिना बीबी के चार सौ बच्चे जनम ले रहे है तुमसे तो ''चार बीबी चालीस बच्चे'' इस पार हैं |



>> राज (सत्ता) नीति के लिए इस्लाम की एक मान्यता का दुरूपयोग न करें किन्तु इस हेतु हिन्दू धर्म की आस्था के केंद्र बिंदु का भरपूर दुरूपयोग करें..... सत्ताधारी दल का विचार है.....

>> नियमों के अभाव में देश अंधेर नगरी हो चला है.....

या देश के लोकतंत्र में सत्तावाद अथवा अधिकार वाद ( जो कार्यपालिका अथवा न्यायपालिका कहे उसे चुपचाप मान लो )का बोलबाला है

अधिकार वाद : - अब इस पद पर मेरा अधिकार है में जो कहूं वह मानना पडेगा.....



नियमों व् न्यायनिर्णयों से लोकमार्ग (लोकप्रचलित प्रथाएं धारणाएं,मान्यताएं )अवरुद्ध नहीं होना चाहिए |

अब दलगत लोकतंत्र व् तुगलकी शासन में कोई अंतर नहीं रहा....

>>  ईसवी संवत मानवीय क्रियाकलापों पर आधारित होकर यत्किंचित पृथ्वी के चाल की गणना करने में सक्षम है जबकि विक्रम संवत नक्षत्रों की गति पर आधरित होकर सम्पूर्ण आकाश गंगा की घूर्णन गति का भी आकलन करने में सक्षम है जिस दिन मानव शौर्य मंडल की परिधि के पार होगा ईसवी संवत असफल व् विक्रम सफल सिद्ध होगा.....

>> कोई जिए या मरे बस मुसलमान सुखी रहे क्या भारत-शासन इस हेतु है.....?

>> तीन पत्थर कैंच हुवे अब जो पड़े नक़ाब |
      उसपे भी दफ़ा मुकर्रर होगी क्या ज़नाब ||

>> गौमाता के नाम पर सिंहासन चढ़ने वाले इन प्रधानमंत्रियों को खटिया तो भुगतनी ही पड़ेगी.....

>> ऐसे भद्दे चित्रों वाली पत्रकारिता ! ये अवश्य  किसी झोला छाप पत्रकार की करतूत है.....

>> चोर चोर मौसेरे भाई | ता सोंही जनता उकताई || 

>>  को करतब बलिदान को सेवा सुश्रता कोइ |
साँची तब कहिलाइ जब परमार्थ हुँत होइ ||
भावार्थ : - कोई कर्तव्य कोई बलिदान अथवा कोई सेवा शुश्रुता तभी सत्य कहलाती है जब वह परमार्थ हेतु हो स्वार्थ हेतु हो तो वह ढोंग है |


>> हमारे पूर्वज ऋषिमुनियों ने भी पत्ते खा कर भारत को उदयित किया था अब विदेशियों की संतान उस पर शासन करने को तैयार हैं.....

>> हमारे पूर्वजों और गौवंश के परिश्रम जनित अन्न ने इस देश को परिपोषित किया अब विदेशी की संतान उसपर शासन करेंगी.....

>> हमरे पुरइन बन कुटि बसाए | पावत पत एहि देस निर्माए || 
गौ बंस श्रम जासु परिपोसे भए सो पराए बंस भरोसे || 
भावार्थ : -  हमारे पूर्वजों ने घने वनों  में कुटिया बसाकर  पत्तों का भोजन करते हुवे इस भारत देश को निर्मित किया  जिसे गौवंश के श्रम ने परिपोषित किया अब विदेशियों की संताने उसपर शासन करने हेतु उद्यत हैं  | 

>> बिद्या लाह होत नहि धन ते | बिद्यामनि लहे अध्ययन ते ||
भावार्थ :- विद्या धन से प्राप्त नहीं होती | विद्याधन की प्राप्ति अध्ययन से ही सम्भव है ||

>> भारत भूमि में मुसलमानों और अंग्रेजों ने अपने बच्चों के बच्चों के बच्चों के बच्चों को जन्मा उसके पैसे भी खाए और उसका रक्त भी पिया..... 

>> को नृप होए हमहि का लाहा | लाह लहे मन करिअब काहा || 

>> क्या किसी के पालतू की ह्त्या अपराध नहीं होना चाहिए ..?

और जब वह पालतू पूज्यनीय भी हो तो वह अपराध जघन्य नहीं होना चाहिए.....? सभ्यता कहती है कि होना चाहिए.....कोई तुम्हारे कुत्ते को मार दे तो कितना दुःख होगा ये देश हमारे घर के समान है इस गौवंश ने हमें पाला है पोषा है कोई इसकी ह्त्या करेगा तो घर के सदस्य की ह्त्या जितना ही दुःख होगा..... हम केंद्र से पालतू पशु अधिनियम की मांग करते हैं

एक बारी पूर्व प्रधानमंत्री के कुत्ते को कुत्ता बोल के देखे वो स्वयं भूँकते हुवे काट खाने को दौड़ेंगे |
राष्ट्रपति तो अपने घोड़ों को छूने भी नहीं देते और तुम उस गौ की ह्त्या कर रहे हो जिसे हम माता कहते हैं..... चूँकि वह माता गरीब की है इसहेतु उसके लिए कोई सुरक्षा नहीं है.....

>> शिक्षा के लिए धन की नहीं अध्ययन की आवश्यकता होती है


>>  सहस्त्र वर्ष से अधिक अवधि तक इन मुसलमानों की टट्टियाँ उठाई हैं भारत ने 
                    और अब तक उठा रहा है.....
>>  गांधी के महात्मा होने वाले प्रश्न पर : - "कलंदर संगमरमर के मकान में नहीं मिलता....."
                                                 ----- || अज्ञात || ---

>>  कितने सड़े सड़े पत्रकार है.....बांस आती है इनके लिखे हुवे में.....अच्छे वाले मिल नहीं रहे या तुम उन्हें अच्छा पैसा नहीं देते.....

>> ऐ प्रधानमंत्री तुमको भीड़ पर गोलियां चलवाने का रोग है क्या ? है तो शीघ्र उपचार कर लो अन्यथा यही भीड़ वापस से चाय की केतली थमा देगी.....फिर फोकटिया दसलखटकिया परिधान स्वपन में भी नहीं दिखेगा.....

>> परिवर्तन वही उत्तम है जो विश्व के लिए कल्याणकारी हो..... 

>> क्या गौमाँस भक्षण करने वाले अध्यक्ष का दल बनाएगा मंदिर.....? 

>> भारतीय संस्कृति की प्रतीक यह महिलाएं अभारतीय व् असंस्कृत लोगों का चयन करने जा रही है..... 

>> धर्म संकर से व्युत्पन्न संतान को अपनी मौलिकता ढूंढने के लिए जाने क्या क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं..... 

>> संकरता का परिणाम अंतत: दुखद ही होता है एतएव नौयुवान पीढ़ी इस दुःख से बचे.....
और अपना धर्म अपनी जाति अपनी भारतीयता को अपने लिए न सही भारत के लिए बचा कर रखें.....

>> संतोष सुख का मूल है.....

>> अरे मूरख मीडिया/नेता यहाँ घर देश और उसकी अस्मिता पर शह पड़ी हुई है उसे बचाओ, पीछे विकास और रोजगार के प्यादे दौड़ना.....

>> यदि कोई चीनी जर्मनी इटालियन दो दिन में भारत की नागरिकता लेकर कहेगा कि मेरा धर्म मेरी जाति-गोत्र तिरंगा है मुझे प्रधानमन्त्री बना दो..... आप बना दोगे.....?

>> बिना वीजा का पड़ोस : - अर्थात घुसपैठ के लिए अब देश का द्वार चौपट कर दिया जाएगा.....


----- ॥पद्म-पद ३० ॥ -----,

----- || राग-भैरवी || -----
काहे कीज्यो बाबुल मोहे पराई रे |
कहहु कहा छन भर कहुँ तोहे मोरी सुरति नाहि आई रे || १ ||
प्रान दान दए मोहि जियायो काहे परदेस पठाई रे |

पोस्यो बहु बरस लगे बिछुरत लागि न बारि |
पिय के गाँव पठाए के  पल महि दियो बिसारि || २ || 

चारि गलीं दुइ चौंहटीं अजहुँ छितिज लगी दूर दुराई रे |
निकट बसत कबहुँ न मिलि आयो अह एहि तोरी निठुराई रे || ३ ||

हम्हरेहि हुँते लहुरी भई का तुहरी गह अँगनाई रे |
बैस पंखि गहि पवन खटोरे उड़िअ गगन अतुराई रे || ४ ||

गह्यो पियबर पानि जूँ सीस दियो सिंदूर | 
गाँव पराया देइ के कियो नैन ते दूर || ५ || 

दहरी द्वार पट पारि करत जइहउ करतल कसि धाई रे ||
बरखत नैन बिन सावन कहियो घन काल घटा गहराई रे || ६ ||

पवन पँखुरि पाइ के री पतिआ पितु के देस |
करतल गहि दए गलबहीँ  एहि दिज्यो संदेस  || ७ ||

पवन पाँख गहि गगन बीथिका मम पितु गेह तुम्ह जाई रे |
लिखिअ ए सनेसा कह्यो दियो  भरि कंठहियो लपटाई रे || ८ ||

कंठ लपटाइ के जिन्ह रख्यो जी ते लाइ  ||
ओ रे मोरा बाबुला ओहे लिजो बुलाइ || ९ ||







Tuesday 27 November 2018

----- ॥ दोहा-द्वादश ११ ॥ -----,

जाति धरम बिनसाए जो बिलगावत निज देस |
सनै सनै सेष सहुँ सो होत जात अवसेष || १ || 
भावार्थ : - जो अपना धर्मदत्त परिचय अपनी जाति अपना वर्ण को नष्ट करता है वह अपने देश से वियुक्त होकर शनै शनै शेष से अवशेष मात्र रह जाता है |

धर्म संग जो आपुना जाति बरन कुल खोए |
निज परचय बिनसाइ के बिनहि देस कर होए || २ ||
भावार्थ : - धर्म के साथ जो अपनी जाति अपना कुल अपना वर्ण नष्ट करता है वह अपना परिचय विनष्ट कर देश से विहीन हो जाता है |

जाति संकरी होइ जौ धर्म न लागै बेर | 
जगत फिरौ पुनि हेरते मिले न अपना हेर || ३ || 
भावार्थ : - सर्वप्रथम जातिय संकरता से बचें क्योंकि जाति-संकर होने के पश्चात धर्म-संकर होने में देर नहीं लगती | ऐसे संकरित तथा ऐसे संकरता से व्युत्पन्न संतति फिर जब संसार में अपनी मौलिकता अपनी पहचान ढूंढने निकलती है तब उसे वह कहीं नहीं मिलती |

लोहा लोहा सों  मिले मारे घन ते चोट |
लोहा सुबरन सों  मिले कहिलावै पुनि खोट || ४  ||
भावार्थ : - लोहा लोहा का प्रसंग करे तब वह घन में परिणित होकर उत्कृष्टता को प्राप्त होता है और  स्वर्ण पर चोट कर उसे आभूषण का स्वरूप देता है | वही लोहा यदि स्वर्ण का प्रसंग करता है तब वह अपने स्वाभाविक गुणों से रहित होकर निकृष्टता को प्राप्त होता है |

अपना पूला छाँड़ जौ उयउ पराया पूल | 
साख बिहूना होइ के बिनसत सो निज मूल || ५ ||
भावार्थ : -अपने समुदाय से वियोजित होकर जो कोई पराए समुदाय में सम्मिलित होता है, वह अपने पूर्वजों से रहित होते हुवे अपनी मौलिकता नष्ट कर राष्ट्रविहीन हो जाता है  |

अपना मूल नसाइए न छाँड़िए अपनी साख |
जे तो बहुरि न मेलिआ जतन कीजिये लाख || ६ ||
भावार्थ : - अपनी शाखाऐं त्याग कर अपनी मौलिकता नष्ट मत कीजिए क्योकि यह आपका वह अस्तित्व है जो यदि नष्ट हो जाए तो लाख यत्न करने पर भी पुनश्च प्राप्त नहीं होता |

 भाव संगत होतब जब भगवद भगति बिराट |
भगवनन्हि बसात भया दिब्य भवन तब टाट || ७ ||
भावार्थ : - भगवद भाव के संगत जब शक्ति का न होकर भक्ति का विराट प्रदर्शन होता है तब भगवान को विराजित किए टाट की कुटिया भी दिव्य भवन दर्शित होने लगती हैं |

भगवद गाथा बाँच कै भरिआ रे कर कोष | 
दोष गोइआ आपुना धरिआ जुग पर दोष || ८ || 
भावार्थ : - संग्रह साधू संतो का स्वभाव नहीं है | अपना दोष गुप्त रख काल पर दोषारोपित कर जो भगवद गाथा के वाचन द्वारा धन कोष का संकलन करते हैं वह संत पाखंडी होते हैं | 

अबर इष्ट के जनम भुइँ औरन के अस्थान |
साँचे मुसलमान कबहुँ पढ़ते नहि कुरआन || ९ ||
भावार्थ : - सच्चे मुसलमान अपने इष्ट की जन्मस्थली के विपरीत मुख करके किसी दूसरे के स्थान में उसके इष्ट देव की जन्मभूमि पर कभी भी कुरआन नहीं पढ़ते |

न इतिहास न बर्तमान न ग्यान न बिग्यान |
सोइ मान जग होइगा जो हमरा अनुमान || १० ||
भावार्थ : - बहुंत से लोगों को यह मत है कि : - न इतिहास-वर्तमान मान्य होगा न ज्ञान-विज्ञान मान्य होगा, विश्व में वही मान्य होगा जो हमारा अनुमानित विचार है ||

जातिहीन अग्यानि बनती करे बिगारि |
जातिजुगत ग्यानबान बिगरी करे सुधारि || ११ ||
भावार्थ : - एक जातिविहीन अज्ञानी बनी को भी बिगाड़ देता है और एक जातियुक्त ज्ञानी उस बिगड़ी को भी सुधारने में सक्षम होता है |


"जन्म से कभी राष्ट्रीयता प्राप्त नहीं होती नागरिकता अवश्य प्राप्त होती है....."
जिनकी सल्तनते थीं जहाँ की रूसतम ख़ेज़ | 
पैदाइसी हिँदूस्तानि फिर होते वो अँगरेज || १२ || 
भावार्थ : - यदि जन्म से राष्ट्रीयता प्राप्त होती है तो जिनके साम्राज्य का सूर्य कभी अस्त नहीं होता था जिनकी चार-चार पांच-पांच पीढिआँ भारत में जन्मी वह भी अंग्रेज भी भारतीय थे | 

जाके दल समुदाय मह बहिनी लेइ बिहाइ | 
सो तो नाहि काहू के होते जवाइ भाइ || 
भावार्थ : - जिनके दल जिनके समुदाय में बहनों से भी विवाह रचा लिया जाता हो वह किसी के जमाई भाई नहीं होते |  






भय सहुँ कि लोभ लाह सहुँ जब  निरनय होत प्रभाउ | 
होत जात भरोस हीन सो प्रबंधित न्याउ || 
भावार्थ :-  "जिसके न्याय-निर्णय किसी व्यक्ति, संस्था,दल के भय से अथवा किसी अनुचित लाभ के लोभ से प्रभावित हों वह न्यायिक व्यवस्था अविश्वसनीय होती चली जाती है | "






















Saturday 24 November 2018

----- ॥पद्म-पद २९ ॥ -----

----- || राग-रागेश्री  || -----

बैन दुसह पिया हम ना सहेंगे
दरस-परस बिनु पेम पयस बिनु मीन सरिस तलफेंगे || १ ||
पंखी पपीही पटतर पिय पिय पलछिन प्रति ररिहेंगे ||
जानत दारुढ़ दुसह दहन बरु बिरहा अगन दहेंगे ||  २ ||
छाँड़ देस गह गहस तिहारे नैहर गह जा रहेँगे ||
रहेंगे अजहुँ तुम सहुँ दूरी पद पितु पंथ गहेंगे || ३ ||
बासर चैन न रैन सैन नहि नैनन नींद लहेँगे ||
चहेंगे तुम्हरे हरिदय देस तुमकहुँ नाहि चहेंगे || ४ ||
----------------------------------------------------

Friday 23 November 2018

----- ॥पद्म-पद २८ ॥ -----,

----- || राग- सारंग ||-----
पिय हमहि ए कलि कलह न भावै |
निर्जर नैनि भई निर्झरनी झरझर नीर बहावै ||१ ||
पलक पहारी कहत कपोलक असुँअन ढर ढर आवै ||
तुम्हरे गह घरी घरी आनि हम्ह सोंहि बिरुझावै || २ ||
करिअ कर सब कृत करतब काजु दोषु धरिअ बिसरावै ||
हरिदय पावक बूझ चहे तव पेम पवन जौं पावै || ३ ||
भेदिनि बैरन परम बैर करि हठि घृत देइ दहावै ||
कुटिल कोदंड खैंच खैंचि के बियंग बैन चलावै  || ४ ||
मरमु भेद घन चोटि करिअ बहु बहु खरि खोटि सुनावै ||
जौ मुख आवै सो कहि निस दिन गरज गरज गरियावै || ५ ||
आपुनि गोई अरु कहि हमरी आगत कहत बतावै  ||
लषन सदगुन गनिहै न मोरे गनि गनि औगुन गावै || ६  ||
करुबर कहनाई कहि कहि के अनकहि कहन कहावै ||
पल छन पहर पिहर के आँगन सुमिरत मन बिरमावै || ७ ||

बिरुझावै = उलझना
आगत = गृहागत = अतिथि
गृह भेदिनी = क्लेष कर्ता
गरियावै = अनुचित वचन कहना
बिरमाना = बहलाना 

Thursday 22 November 2018

----- ॥पद्म-पद २७ ॥ -----,

----- || राग- केदार || -----
बुए बिआ पिय पेम अँकूरे
जो दिन तुम्हरे संग बिरुझे अजहुँ सो दिन गयउ रे भूरे || १ ||
सांझ भोर करि उड़ि उड़ि जावै पलपल पल छन पंख अपूरे ||
जो दुःख सों सुख मुख बिरुझायो अजहुँ त अखियन सों भए दूरे || २ ||
जो सुख सों दुःख मुख मलिनायो रे अजहुँ त सो सुख भए धूरे ||
हरिदय देस नैनन फुर बारि बिरवा प्रतीति फूर प्रफूरे || ३ ||
 डोरि देइ पिय पलक हिंडोरे पुलकित प्रीति डारि पर झूरे || 
हमरे बिन तुम आधे अधबर तुहरे बिन हम आध अधूरे || ४ ||
कहत  डरपत मन रे साजना बैरि बिरहा बहुर न बहूरे ||
सुनहु पिया बर प्रीति ए साँची कहँ सौं लई तुहरे सहूँरे || ५ ||


Sunday 18 November 2018

----- ॥ दोहा-द्वादश १० ॥ -----,

जोग चरन दलीत भया बैठा सीस अजोग |
झूठे निजोग करत जो सांचे करत बिजोग || १ ||
भावार्थ :- अब योग्यता पददलित हो गई और अयोग्य शीर्ष पर विराजित हो गए हैं अवगुण गुप्त रहें इस हेतु वह सत्य को वियोजित करते हुवे असत्य का नियोजन करते हैं |

दिसा हीन दुर्दसा जग दिसा दसा दरसाए |
अजहुँ तो दुश्चारिता नारी धरम बताए || २ ||
भावार्थ :-- वर्तमान समय में दिशाहीनता व् दुर्दशा जगत की दशा व् दिग्दर्शक हो चली है | दुश्चरित्रता नारी-धर्म की शिक्षा दे रही है |

काँकरि बन बिकसाए के करत जगत समसान |
प्रगत के सन्दरभ माहि पाछिन के अनुमान || ३ ||
भावार्थ : - प्रगति के सन्दर्भ में पाश्चात्य संस्कृति की यही अवधारणा हैं कि कंकड़ पत्थरों के जंगल विकसित कर पृथ्वी को निर्जीव श्मशान में परिवर्तित कर दो |


एहि सासन दुरचारिता  भ्रष्ट चरन के पोष ||
दाता निज मत दाए के धरिहु न तापर दोष || ४ ||
भावार्थ : - न केवल भारत अपितु विद्यमान की वैश्विक शासन व्यवस्था दुश्चारित्र्ता व् भ्रष्ट आचरण की पोषक है | यदि कोई मतदाता निज मत से इसे अपनी सम्मति प्रदान करता है तब उसे इसपर दोषारोपण का अधिकार भी नहीं होता  |

गुरु दीपक गुरुहि चंदा  गुरु अगास का सूर |
अंतर गुरु प्रगास गहे  होत अन्धेरा दूर || ५ ||
भावार्थ : - गुरु दीपक स्वरूप होते हैं गुरु चन्द्रमा स्वरूप होते हैं गुरु आकाश के सूर्य समदृश्य होते हैं | गुरु के ज्ञान प्रकाश ग्रहण कर अंतरतम अन्धकार से विमुक्त हो जाता है |


रट्टू सुआ रटत रहे राम राम हे राम |
राज पाट पुनि पाए के रसनी दियो बिश्राम || ६ ||
भावार्थ : - रट्टू तोता के समान राम राम हे राम ! रट कर इस देस में राजपाट प्राप्त हुवा और राज पाट प्राप्त करने के पश्चात उस रटन का त्याग कर इस्लाम इस्लाम रटा गया ||

बसुधैव कुटुम्बकं  के अहइँ अर्थ सो नाए |
को बिरान गेह भीते अपने नेम चलाए || ७ ||
भावार्थ : - 'वसुधैव कौटुम्बकं' इस वेदवाक्य का यह अर्थ कदापि नहीं है कि कोई दुसरा आपके गृह में बलपूर्वक प्रवेश कर उसपर आधिपत्य स्थापित करे, उसे खंड-खंड करे, और चार खण्डों में एकमात्र प्राप्य खंड में भी स्वयं के नियम लागू कर आपके अपने वंदन स्थल को प्राप्त करने की चेष्टा करे |


वसुधैव कुटुंबकम के अर्थ अहहिं पुनि येह |
निज निज गेह बसबासत रहँ सब सहित सनेह || ८ ||
भावार्थ : - 'वसुधैव कौटुम्बकं'इस वेदवाक्य का यह अर्थ है ' पृथ्वी एक कुटुंब के समान है' उसमें भारत एक गृह है और इसका भाव यह है कि अपने अपने गृह/देश में निवासित रहते हुवे कुटुंब के समान मधुरता पूर्वक रहें |


दीप बहुरि सो दीप जो उजयारत चहुँ कोत |
मीत बहुरि सो मीत जो कठिन समउ सहुँ होत || ९ ||
भावार्थ : - दीपक फिर वही दीपक है जो अपने प्रकाश से चारों दिशाओं को प्रकाशित करे | मित्र फिर वही मित्र है जो विपरीत परिस्थितियों में भी तुम्हारे साथ रहे |

पहनी रहनी एक रहै सोई संत सुभाए |
पहनी रहनी बिलग किए साधु संत सो नाए || १० ||
भावार्थ : - रहनी और पहनी एक रहे साधू संत का यही स्वभाव है | जिनकी रहनी विलग और पहनी विलग होती है वह साधुसंत न होकर पाखंडी होते हैं |

दए बिन परिचय आपुना माँगे जो मत दान |
दाता तासौं पूछिता का तुहरी पहचान || ११ ||

भावार्थ : - अपना परिचय दिए बिना कोई प्रत्याशी जब मत दान की अभिलाषा कर दाता से मत की मांग करता है तब दाता उससे पूछता है तुम हो कौन ? कहाँ से आए हो.....?

जातपाति कुल धर्म जो मंतर ते मिलि जाए |
होतब जग सब मानसा पसु न को कहलाए || १२ ||
भावार्थ : - यदि मन्त्रों से ही जाति-वर्ण कुल धर्म प्राप्त हो जाते तो संसार में सभी मनुष्य जाति के होते पशु  कोई नहीं कहलाता |

मनुष्योचित धर्म करम नहीं बरन कुल जात |
पसु तेउ गै बिरते सो महा क्रूर कहलात ||
भावार्थ : - जो मनुष्योचित धर्म कर्म (जियो और जीने दो ) का पालन नहीं करते जिसकीजाति-वर्ण कुल धर्म  भी नहीं ( जो उसे इस नियम के पालन हेतु बाध्य करती है) हो, वह मनुष्य पशु से भी इतर महा क्रूर की उपाधि को प्राप्त होते है |






Thursday 15 November 2018

----- ॥पद्म-पद २६ ॥ -----,

   ----- || राग-भैरवी || -----

सोहत सिंदूरि चंदा जूँ रैन गगन काल पे..,
लाल लाल चमके रे बिंदिआ तुहरे भाल पे..,

कंगन कलाई कर पियतम संग डोलते..,
पाँव परे नूपुर सों छनन छनन बोलते..,
छत छत फिरत काहे  दीप गहे थाल पे..,
जब लाल लाल चमके रे बिंदिया तुहरे भाल पे..,

चरत डगरी रोकि रोकि बूझत ए बैन कहे.., 
बिरुझे मोरे नैन सहुँ काहे तुहरे नैन कहे ..,
देइ के पट पाटली भुज सेखर बिसाल पे..,
लाल लाल चमके रे बिंदिया तुहरे भाल पे..,

गुम्फित छदम मुक्ता हीर मनि बल के रे..,
करत छल छंद बहु छन छब सी झलके रे.., 
रिझियो ना भीति केरी मनियारि जाल पे.., 


लाल लाल चमके रे बिंदिया तुहरे भाल पे.....

Wednesday 14 November 2018

----- ॥ टिप्पणी १५ ॥ -----,


>> अरे मूरख मीडिया/नेता यहाँ घर पर देश पर, उसकी अस्मिता शह पड़ी हुई है उसे बचाओ, पीछे विकास और रोजगार के प्यादे दौड़ना.....

>> यदि कोई चीनी जर्मनी इटालियन दो दिन में भारत की नागरिकता लेकर कहेगा कि मेरा धर्म मेरी जाति-गोत्र तिरंगा है मुझे प्रधानमन्त्री बना दो..... आप बना दोगे.....?

>> जिनके हाथों के लोहामयी हल पर
       चमकते प्रस्वेद कणों के बलपर
        दसों दिशाएं ज्योतिर होती थी
         वह किसान कहो कौन थे.....

यह देश सोने की चिड़िया कहलाया

>> यदि ये भारत भूमि हमारे पूर्वजों की जन्म व् कर्म भूमि है तो हम भारतीय है..

>> सत्ता लौलुपी रथ की चाल चले.., 
        लक्ष्य इनके समक्ष कुछ और था.., 
         पक्ष कुछ और था तो विपक्ष कुछ और था.., 
          सत्ता मिलते दोनों एक हुवे.., 
           अब इनका लक्ष्य कुछ और था..... 

>> उद्योगजगत की दासी पत्रकारिता कहती है 'भीड़ बनाएगी क्या मंदिर ?' ये भीड़ भक्तों की है यदि भक्त मंदिर नहीं बनाएंगे तो क्या गौमांस भक्षण करने वाले अध्यक्ष का चुनावी दल मंदिर बनाएगा.....?

>> इंसानी तरक्क़ी में जिंदगी फ़ना हो गई..,
        रह गए चंद महलो-दीवारें बेजान.....

>> सिद्ध कीजिए कि भारत की वैदिक या ब्राह्मणवादी पितृ सत्त्तात्मक व्यवस्था दोषपूर्ण हैं और पाश्चात्यवादी मातृसत्तामक व्यवस्था एक उत्तम सामाजिक व्यवस्था है.....

राजू : - इनकी वाली में व्यवस्था में तो संतान को अपने पिता का नाम ही ज्ञात नहीं होता
 हमारे में माता-पिता के वंशजों के नाम का वंशवृक्ष निर्मित किया जाता है..,

इनकी वाली में केवल पुत्री को माता की सम्पति प्राप्त होती पुत्र को कुछ नहीं मिलता
हमारी वाली में पुत्र को माता-पिता दोनों की और पुत्री को सास-श्वसुर की सम्पति प्राप्त होती है.....


>> पितृ सत्तात्मक व्यवस्था  भारत की अपनी अबाध्य आतंरिक सामाजिक व्यवस्था है यह कोई वैश्विक व्यवस्था नहीं है इसमें अन्यान्य का हस्तक्षेप निंदनीय है.....



>>  अभिनेता भारतीय सामाजिक व्यवस्था को दूषित करने में लगे हैं और नेता उसे विकृत करने में लगे हैं, यदि ऐसा ही चलता रहा तो भारतीयता शेष से अवशेष मात्र रह जाएगी.....



>> जिन्हें स्वयं के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं देता.., ऐसे लोग अब हमारे देश की दशा व् दिशा के प्रदर्शक बने हुवे हैं.....
बहिरा बैसा कान दे गूंगा राग सुनाए |
अँधा पथ प्रबोधिआ कुचरित चरित बताए ||

>> आस्था के नाम पर चुनावी दल अपना उल्लू सीधा करते रहें क्या इसलिए हमें मतदान करना चाहिए.....?

>> साँच तप अरु दान दया जे कुल चारी मर्म |
    कहत गोसाईं तुलसी होतब सोई धर्म ||
भावार्थ : - गोस्वामी तुलसी दास जी कहते हैं सत्य,तप, दया और दान इन चार मर्म ही धर्म है |

>> जो परस्वामित्व के विकारों को सुधार कर उन्हें यथावत नहीं करते उनको दासत्व स्वीकार्य होता   है..यदि भारत वास्तव में स्वतन्त्र हुवा था तो यह कार्य अंग्रेजों के भारत छोड़ने के पश्चात ही हो जाना चाहिए था.....

>> खेद का विषय है कि सत्तर वर्ष व्यतीत होने के पश्चात भी गांधी-नेहरू से किसी विपक्ष नहीं पूछा कि भारत विभाजन का उद्देश्य क्या था.....

>> सत्तर वर्ष व्यतीत हो गए किन्तु गांधी-नेहरू से किसी विपक्ष ने प्रश्न किया कि यदि अभारतीय मुसलमानों को ही राज देना था तो अंग्रेज क्या बुरे थे.....

>> अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश बनने के पश्चात भी ये मुसलमान भारत की छाँती पर मूंग दलते रहे इन मुसलमानों के लिए इस देस के और कितने टुकड़े होंगे.....


  अभी तक जिन दलों ने इस देश पर शासन किया उन्होंने कांग्रेस के विचारों का ही अनुकरण किया एतएव उनके विचार भी कांग्रेस से पृथक नहीं है इस कांग्रेसी रावण का नाभि कुंड भारत का संविधान है इस देश को प्रतीक्षा है तो केवल एक राम की.....               





Thursday 8 November 2018

----- ॥पद्म-पद २५ ॥ -----,

लाल लाल तिलक रेख बसत पिया के भाल रे..,
हिलमेलती उरु रुचिरु गज मुकुतालि माल रे''..,

पीत बसन देह बसे नैनन में नेह रे'..,
बहुरि बहुरि मोहि कसे बहियन में लेह रे..,
दीप माल थाल धरे मोरे कुमकुम करताल रे..,

गली गली मनि दीपक की अलियाँ सँवार के..,
छाँड़त रे फूरझरी श्री की आरती उतार के..,
आजु अली सुबरनी भए गगन घनकाल रे..,

देख देख छबि छटा छन लोचन अभिराम जूँ..,
बारिअहिं अंग अंग कोटिकोटि सत काम जूँ..,
झरोखन्हि लगी जुवतीं होवति निहाल रे..,

बाँकी बर करधनि कर निरखत घनस्याम से..,
चितबत चित चोरि लेहि रे झलक देत राम से..,
अपलक भए पलक चलत जब मंजुल मराल रे..,

मिलत कंठ लाई पुर के लोगन्हि बिलोक के..,
हँसत कहत कहिबत कछु डगरी रोक रोक के..,
सोहत दए पाटल पट  भुज सेखर बिसाल रे.....

----- ॥पद्म-पद २४ ॥ -----,

करतालि अस्थाल धरे  दीपन केरी मालि |
धन लखी का रूप बरे आई सुभ देवालि || 

हिरन सकासि साँझि करत करत रूपहरि भोर |
रिद्धि सिद्धि, समृद्धि संग चली गाँउ कहुँ ओर ||

पहिरी ससि कर मंजरी धरनि करी श्रृंगार |
धामधाम धन धान ते भरे पुरे भंडार ||

संपन्न सबहि काल भए भयो दारिदर दूर |
गह गह सुख सौभाग की भइ सम्पद भर पूर ||

धवल भीति पट पहिर के पहिरे मनिमय जाल |
पुरट छटा छन छबि धरत छहरत कमलिनि ताल ||

भाँति भाँति कर बस्तु लिए बैसि हाट बनिहारु |
भइ सुंदर सब गलीं भए चारु चौंक चौबारु ||

हरितक गौमय घोरि के, गह आँगन कहुँ लीप |
नव पट पहिरें गेहनी गेहि सजावहिं दीप ||

चारु चौंक पुराई के बाँधे बंदनिवार |
पुहुप भूषित भइ देहरि कंदिल देइ द्वार ||

पीत लाल हरि केसरी रंगोरी के रंग |
चित्रित कीन्हि गंगोत्री निकसत पावनि गंग ||

पाक बनाई रसवती बिंजन बहु पकवान |
मधुराई मुख घोरते मधुर मधुर मिष्ठान ||

भरे भेस मनभावते साजत सबहि सुसाज |
बहुरि पुरजन करन लगे पूजन केर समाज ||

उदये मंगल काल जब दीपक भरे अलोक |
भूति मई भू करत भए ज्योतिर्मय त्रिलोक ||

सुभ महूरत अगन धरत उजयारत चहुँ कोत |
जगमग जगमग जग करत जागिहि जगती जोत ||

जगजननि जग मंगल कर भूषन भेस सुसाजि |
कुमकुम चरनन धरत पुनि  अम्बुजासन बिराजि ||

परन बेलि के गंठि ते गुम्फित नलिन मृनाल |
ललित माल सों कलित कर किए अर्पित निर्माल |

भूषन भूषित श्री भई बसा अरुनमय भेस  |
दाहिन बाम बिराजते सोहत गिरा गनेस ||

लछित सिंदूरि साथिआ बहियन गयो लिखाए |
जगद बिभूति संग रहें गनपति सदा सहाए |

मंगल मौलि बँधेउ कर तिलक रेख दए भाल |
अक्षत कर्पूर गहे  पुनि सजी आरती थाल ||

किए नाद मुख संख पुरे बाजहिं पनव  मृदंग |
गावहिं सुमधुर बंदना पेम मुदित सब संग ||

पंचगव के चरनोदक पंच पात्र कर योग |
गहत पंचोपचार पुनि जगज्जननि गहि भोग ||

फुरझरी नभ छूटती ए सनेसा दए सुहाए |
दुख दारिद दुराई के सुख सम्पद नियराए ||

करतलों के थाल ने दीपकमाला को धारण कर लिया है, धन लक्ष्मी का रूप वरण किए शुभ-दीपावली के उत्सव का आगमन हो गया है | संध्या को स्वर्णमयी व् भोर को रजतमयी करते हुवे रीढ़ी सीधी के संग समृद्धि अब गांव की ओर चल पड़ी | अनाज की बालियों को अभरित कर धरती ने श्रृंगार किया तो अब प्रत्येक भवन धन-धान्य के भण्डार से भर गए | अब कहीं विपन्नता नहीं रही दरिद्रता को दूर करते सभी काल संपन्न काल हो गए, घर-घर सुख सौभाग्य की सम्पदा से परिपूर्ण हो गए  | इस सम्पदा को प्रकाशित करते चूने से लेपित भित्तियों में मणिमय झालरें आभारित की हुई हैं इन मणिमय झालरों की स्वर्णिम आभा विधुत की सी क्षणिक प्रभा धारण किए कमलिनी से युक्त सरोवर में बिखर रही है | विभिन्न प्रकार की वस्तुएं लेकर वणिक पणग्रंथि में विराजित  हैं | सभी गलियां और सभी चौंक-चौपंथ अत्यंत सुहावने व् शोभान्वित प्रतीत हो रही है | गायों के तत्कालोत्सर्जित हरित गोमय से घर-आँगन को लीपित कर नवल-नवल परिधानों को धारण किए गृहणियां व् गृहस्वामी दीपकों की सुसज्जा में व्यस्त हैं | द्वारों पर केला की शाखऐं प्रदानकर देहली को पुष्पाभूषणों से विभूषित किया तदनन्तर सुन्दर चौंक (आते से रचित आयाताकार चौकोण ) रचना से परिपूरित कर बंधनवार विबन्धित किए गए | पीतम, लाल हरी केसर आदि रंगों से रंगोली से गंगोत्री चित्रित की गई जहाँ से परम पावनि गंगा का उद्गम  हो रहा था| रसोई ने मुख में मधुरता घोलते मधुर-मधुर मिष्ठान के सह
अनेक प्रकार के व्यंजन व् पकवान रचित किए| मन को लुभाने वाले वेशभूषा व् सभी साज-सामग्रियों से सुसज्जित पुरजन ततपश्चात जगद-विभूति के नीराजन की तैयारी में जूट गए | मंगल बेला के उदयित होने पर दीपकों में आलोक प्रतिष्ठित हुवा,भूमि को ऐश्वर्य से युक्त करते हुवे तीनों लोक उद्दीप्त हो उठे | दिशा-दिशा को उज्जवलित कर जगताजगत को जगमग करते हुवे शभु मुहूर्त में अग्निधारण किए अखंड ज्योत जागृत हुई | जगज्जननी ने जग हेतु मंगलकर वेशाभूषणों से सुसज्जित हुईं ततपश्चात कुंकुंमाय चरणों को न्यासित करते अम्बुजासन में विराजित हुईं| पर्ण बेलों की ग्रंथियों से गूँथी नलिन मृणाल की सुन्दर मालिका कलित कर जगज्जननी को निर्माल्य अर्पित किए गए |जगद विभूति अरुणमयी वस्त्र धारणकर भूषणों से विभूषित हुईं जिनके दाहिन-वाम में माता सरस्वती व् भगवान गणेश जी विराजते सुशोभित हो रहे हैं| सैन्दूरी स्वास्तिक से लक्षित कर बही खातों में उल्लेखित किया गया 'जगद्विभूति के संगत श्री गणपति सदा सहाए रहें'|हस्त में मंगल मौली बांधकर श्री के भालपर तिलक लक्षित किया गया अक्षत व् कर्पूर ग्रहण किए तत्पश्चात आरती थाल सुसज्जित हुई |मुखापुरित शंख निह्नादित हो उठे पणव व् मृदंग आदि बजने लगे प्रेममुदित होते हुवे सभी एक साथ श्री की आरती-वंदना का गान करने लगे | पंचगव्य का चरणामृत व् पञ्च-पात्र में संयोजित पंचोपचार ग्राह्य कर नैवेद्य ग्रहण किया | नभ में छूटती फूलझड़ियां यह सन्देश देते सुशोभित हो रही हैं कि दुख-दरिद्रता दूर करते हुवे सुख-समृद्धि निकट आए | 

अस्थाल = थाल
सकासि =समरूप, जैसी
ससि मंजरी =अन्न कीबालियाँ
बनिहारु =वाणिज्यक 
चारु =सुन्दर 
हरितक गौमय =तुरंत का हरा गोवर
पट=वस्त्र 
कंदिल=केले की शाखें 
रसवती =रसोई 
बिंजन =व्यञ्जन 
समाज =तैयारी
गिरा =सरस्वती 
बहियन =बही -खाता 
परन बेलि =पान की बेले 
भाल =मस्तक 
पनव  =पणव,एक प्रकार ढोलक
पंचगव्य =देशी गाय के गोमय,मूत्र,दुग्ध,दधी,घृत का मेल
पंचोपचार =धूप,दीप,गंध,पुष्प,नैवेद्य इन पांच द्रव्यों से किया गया पूजन 
नियराना =निकट आना
सनेसा =सन्देश
आई सुभदीपावली गहे दीप कर माल |
धन लखिहि के रूप धरे कृत सम्पन सब काल ||

क्षीरोदधि केरि धिअदा सुख सम्पद करि दात |
अगजग सिस नवाए तिन्ह कहत आपुनी मात ||

रजत मई सांझी संग करत सुनहरी भोर |
अँधियारा समिटाए के चहुँ पुर भरत अँजोर ||



नन्हे नन्हे दीप
अगनि संगत सार गहे करत जगत उद्दीप 

Monday 5 November 2018

----- ॥पद्म-पद २३ ॥ -----,

                 ----- || राग-ललित || -----

रैन ज्योति नैन ज्योति जगा ज्योति जग जगमगे | कनक कंगूरे कलस ज्योति अगत जगत जगरत जगे ||
नलिन ज्योति मृनाल ज्योति ताल ताल ज्योतिर्मई |
उदयत मंगल काल ज्योति घोर गहन घन तम जई ||


दमकत दीपक माल ज्योति ज्योतिर्मय सुभ दीपावली | 
भीति भीति मनि जाल ज्योति बीथि बीथि सब गली गली ||
उदयत मंगल काल ज्योति दीप बरे
तिलक लषन दिए भाल ज्योति जग जोए पानि बंदन करे |
तिलक लषन दए भाल ज्योति तिलक

करतल हिरन थाल ज्योति छजत छत छत पंगत परी |
लखत लालमलाल ज्योति छूटत जब नभ फूरझरी ||

कलित किरीट कपाल ज्योति मञ्जुलित मुख मंडलम |
धन लखि के निर्माल ज्योति सुभोदय सुभदर्शनम ||
ज्योतिर ललाटुलम |



भव ज्योति भव भूमि ज्योति ज्योति ज्योति त्रिभुवनं

भवन भवन ज्योतिर करत भूतिमई भई भगवते |
करत पूजन सब धरत ज्योति भरे भेस मन भावते |
सोहत गिरा संग गनपति दाहिन बाम बिराजते ||
गिरा ज्योति ज्योतिर्मय श्री गनपते |





Saturday 3 November 2018

----- || मायने || -----

  हर उम्मीदें बर आईं हर खाहिशें हुई पूरी..,
लबे-तर से पुरकशीश वो तिश्नगी जाती रही..... 
.....................
अहले चमन मेरे बागे-वतन मेरी जाँ ओ चश्मेबद्दूर 
आफताब सा पुरताब रहे जहाँ में तेरा नूर 
----------------------------------------------------------------------------- 

चमकते हुवे जुगनू कभी भी सूर नहीं होते.., 
    बुझे दीपकों से अँधेरे दूर नहीं होते..... 

सत्ता साधन हेतु जे करते सबहि कुकर्म | 
कापर पटतर आपुना बदलें नाम रु धर्म || 
भावार्थ : - सत्ता साधने के लिए ये नेता क्या कुकर्म नहीं करते नाम व् धर्म को तो ये कपड़ों के जैसे बदलते हैं | 

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धरम तजे
धर्म बच्छर धरम राज धर्म सेतु कर धारि धजे
हे धनंजय धीर धरौ

धर्म जुद्ध करौ
धर्मखेत कुरु खेत सँजूते | संजै मम अरु पाँडु सपूते ||
रनोन्मत्त कहा कीन्ही | संजै तब एहि उतरु दीन्ही ||

ते औसर दुरजोधन रायो | पाँडु ब्यूहित सैन लखायो ||
द्रोनाचारज पाहि गयेऊ | हे राजन एहि बचन कहेऊ ||

तुम्ह पितामह भीष्म रु करन | तस हीँ अस्वत्थामा बिकरन ||

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बाज उठी रणभेरी
राजस्थान रो देस जब बाज उठी रणभेरी
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एकमात्र ईश्वर पर.....
राग देश
सरगम के सतरंगी धागों से..,  राग सारे सुर में बंधे..,
कल कुणिका

के कंठ गाँठ ..,
सरस्वती के करतल उतरे

kar ke khnkar se
राग सारे सुर में बंधे

दिअरी सहुँ द्वारि सों लागे
नैन सारी रैन जगे

धूम धरि कारे
प्रान ते प्यारे पिय लागे
पी ते प्यारी प्रीत लगे

---------------------------------------------------
नभ सांझ ढरे
डूबे सूरज नभ सिंधु
निकसत चंदा उडुगन
मणि मुक्ता जाल परे
गै दीपक द्वार धरे
---------------------------------------------------------
जनिमें गोकुल में नन्द के लाल
माई गोद भरावन चली
भयो  नंद  गोपाल
कोई मांगे मनिया नी कोई मांगे मोतिया

कोई मनियारी मुक्ता के माल

गहैं पद तुम्हरे
-----------------------------------------------
जागो हे

----- || राग- सारंग ||-----
पिय हमहि ए कलि कलह न भावै |
निर्जर नैनि भई निर्झरनी झरझर नीर बहावै ||१ ||
पलक पहारी कहत कपोलक असुँअन ढर ढर आवै ||
तुम्हरे गह घरी घरी आनि हम्ह सोंहि बिरुझावै || २ ||
करिअ कर सब कृत करतब काजु दोषु धरिअ बिसरावै ||
हरिदय पावक बूझ चहे तव पेम पवन जौं पावै || ३ ||
भेदिनि बैरन परम बैर करि हठि घृत देइ दहावै ||
कुटिल कोदंड खैंच खैंचि के बियंग बैन चलावै  || ४ ||
मरमु भेद घन चोटि करिअ बहु बहु खरि खोटि सुनावै ||
जौ मुख आवै सो कहि निस दिन गरज गरज गरियावै || ५ ||
आपुनि गोई अरु कहि हमरी आगत कहत बतावै  ||
लषन सदगुन गनिहै न मोरे गनि गनि औगुन गावै || ६  ||
करुबर कहनाई कहि कहि के अनकहि कहन कहावै ||
पल छन पहर पिहर के आँगन सुमिरत मन बिरमावै || ७ ||


----- || राग-भैरवी || -----
काहे कीज्यो बाबुल मोहे पराई रे
कहहु कहा छन भर कहुँ तोहे मोरी सुरति नाहि आई रे || १ ||
प्रान दान दए मोहि जियायो काहे परदेस पठाई रे |

पोस्यो बहु बरस लगे बिछुरत लागि न बारि |
पिय के गाँव पठाए के  पल महि दियो बिसारि || २ || 

चारि गलीं दुइ चौंहटीं अजहुँ छितिज लगी दूर दुराई रे |
निकट बसत कबहुँ न मिलि आयो अह एहि तोरी निठुराई रे || ३ ||

हम्हरेहि हुँते लहुरी भई का तुहरी गह अँगनाई रे |
बैस पंखि गहि पवन खटोरे उड़िअ गगन अतुराई रे || ४ ||

गह्यो पियबर पानि जूँ सीस दियो सिंदूर | 
गाँव पराया देइ के कियो नैन ते दूर || ५ || 

दहरी द्वार पट पारि करत जइहउ करतल कसि धाई रे ||
बरखत नैन बिन सावन कहियो घन काल घटा गहराई रे || ६ ||

पवन पँखुरि पाइ के री पतिआ पितु के देस |
करतल गहि दए गलबहीँ  एहि दिज्यो संदेस  || ७ ||

पवन पाँख गहि गगन बीथिका मम पितु गेह तुम्ह जाई रे |
लिखिअ ए सनेसा कह्यो दियो  भरि कंठहियो लपटाई रे || ८ ||

कंठ लपटाइ के जिन्ह  रख्यो जी ते लाइ  ||
ओ रे मोरा बाबुला ओहे लिजो बुलाइ || ९ ||











रे नैना काहे जागे सारी रैन
सी लागै सारी रैन
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राग ललित
सकल पुष्करो भए पद्मपुष्कल
तरंग माल करे हंस कलकल


डब डब अँखियन ते लखे, ए री अँखिए जर भर नहीं लखिए 


बाबुल की प्यारी गली..,
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 पिया बतिया मोरि समुझत नाहि रे
 कहु अलि ताते प्यारो को जग आहि  रे
  मोपे सो तो बिगुरे छन माहि रे


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 बैन दुसह पिया हम ना सहेंगे
दरस-परस बिनु पेम पयस बिनु मीन सरिस तलफेंगे || १ ||
पंखी पपीही पटतर पिय पिय पलछिन प्रति ररिहेंगे ||
जानत दारुढ़ दुसह दहन बरु बिरहा अगन दहेंगे ||  २ ||
छाँड़ देस गह गहस तिहारे नैहर गह जा रहेँगे ||
रहेंगे अजहुँ तुम सहुँ दूरी पद पितु पंथ गहेंगे || ३ ||
बासर चैन न रैन सैन नहि नैनन नींद लहेँगे ||
चहेंगे तुम्हरे हरिदय देस तुमकहुँ नाहि चहेंगे || ४ ||
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बाबुल मोरा पीतम रूठो रे हाय
कैसे पिय के संग सिधारैं आन कोऊ समुझाए
सो दिन घनघन रंगे जौ दिन पीतम रंग रँगाए
अलि पिय निलयन चरन पधारें कहि द्यो कवन उपाए
दिनु रैन नैन घटा बिन सावन घन बरखाए
घनहु गै हारे

पीतम दिए तुम्हने नैनन में जलधारे
जिन सहुँ बरख बरख घन हारे
काजर घोरे सांझ अरु भोरे




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झन झन करत झांझरी बाजे.....
सुर बिराजे

मोहि लेव नहि जाए
अब जा कोउ मनाए
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 तुम्ह सों हितु पिय दुसरो को है

हम्हरे भाग बिरचो है
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जग में सब ते न्यारा म्हारा देस
जन जन का प्यारा म्हारा देस
ग्यान दीप का
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राग-पहाड़ी
चलिहि रे चलिहि रे चली रे भर के
नैय्या तू धीरहि धीर
गंगा के भर के  अँचरा में असुंवन के हीर
चलो रे चलो रे हलकी हलकी पुरवाई
 प्रभो गंगा के तीर

गह तब लगि नाहि बिहाए |
जब लगि ताहि राख रखे मानस माहि समाए || १ || 
भावार्थ : दरिद्रता  जब तक मनोस्तिष्क में समाहित रहती है तब तक दूर नहीं होती 
मनमानस जब लग नाहि बिहाइ समाए जब लगि रहे समाए

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----- || राजस्थानी-धुन || -----

कर्यो तिलक लिलारा केसर्यो..,

चौक पुराया आँगणियो प्यारो पावणा पधर्यो ..,
मेल्यो जोड़ो रो लस्करिआ पिचरंगी पागड़ो पहर्यो..,

पगां लखीना मोचड़ा जी हाथ हीराजड़ मूंदड़ा
सो व सोरठड़ी कटियार करधन उप्पर फेंटा फिर्यो

सोवनी ऊछली घोड़ी बरणी सै जी राजकुमारी
कान्हो बजावै बंसरी नगरी तावड़िया पग धर्यो

ओजी रंगाद्यो बाला चुनड़ी घढ़ द्यो बैंयारो चुडलो..,
न्यारो नौलड़ी रा हार जी ढोला बांकड़ा मनहर्यो..,

मांग्यो मेलियो सोहाग बर परमेश्वर धण भाग रो
जीवणजोति हरि को रूप महान्यो ब्यावण चढ़्यो 

हाल्दि उबटणों अन्हायो रांच्यो मेहन्दड़ि हथेलवो..,
घाल्यो कोयाँ रो काजलों जी ढोला सांवड़ा सँवर्यो..,

म्हारो बिंदणों म्हारो कानड़ो सो तो म्हारो राज..,
पल्लो जिरंजीव को डुपटो घुल घुल गाँठा पड़्यो.....

----- || राग-दरबार || -----
लो फिर हर शै हुई ज़ाहिरॉ.., 
ए चाँद तेरे नूर से..,
अपनी शम्मे-रु को अब..,
मैं किस तरह अर्जे-हाल करूँ..,

शाम ज़रा स्याहे-गूँ तो हो..,
लम्हे भर को तू हिज़ाब कर..,
सिल्के-गौहरे-गुल के दस्त..,
 मैँ ख्वाबे-शब विसाल करूँ.....

तिरी बंद गिरहों से छूट के
चार शूँ रौनके हैं बिखर रही 
तू कम जमीले-सवाब कर
मैँ ज़ौक़-नज्जारह-ज़माल करूँ

ख़ामा-ए-ख़्याल करूँ
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तिश्नगी में लब को जाँ
औ हम चाहकन को ढूंढते 
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सरद रितु की भोर भई खिली रूपहरि धूप |(रे)
सहुँ सरोजल दरपन दृग दरसत रूप अनूप ||(रे)

जग जगराति ज्योति जौं सैनि पलकन्हि मूँद |
निद्रालस मुखमण्डल तौं गिरीं ओस की बूँद ||

नैन वैन मलिहाए के गहे मलिन मुख ओज |
नभगत बिकसत बालरबि सरसत सरस सरोज ||

रुर जल नूपुर चरन पुर चलत सरित सुर मेलि |
तीर तरंगित माल लिए भेला संगत भेलि ||

कटितट मटुकी देइ के घट लग घूँघट घारि |
आन लगी पनिया भरन पनघट पे पनहारि ||

पुहुप रथ पथ चरन धरत प्रस्तारत पत पुञ्ज | 
सुरभित भई कुञ्ज  गलीं कुसमित भयो निकुञ्ज ||

जगार करत रंभत गौ गोठ गोठ सब गेह | 
बाल बच्छ मुख चुम्बती बरखत नेह सनेह ||

रैन बसेरा बिहुर के छाँड़ बहुरि तरु साखि |
पंगत बाँधत उड़ि चले गहे पाँख नव पाँखि ||

मंदिरु खंखन देइ रे अपुरावत मुख संख |
अब लगि बिकसे न ललना तुहरे पलकनि पंख ||

अगजजगज जगराए के रैनि चरन बिहुराए |
सुनहु लाल तू सो रहे निंदिया नैन बसाए ||
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लागे बिन लाग नही अनुराग नहीं होए रे
सैन रहे जो आपहीं तो जाग नहीं होए रे
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सोहत सिंदूरि चंदा जूँ रैन गगन काल पे..,
लाल लाल चमके रे बिंदिआ तुहरे भाल पे.....

कंगन कलाई कर पियतम संग डोलते
पाँव परे नूपुर सों छनन छनन बोलते
छत छत फिरत काहे  दीप गहे थाल पे
जब लाल लाल चमके रे बिंदिया तुहरे भाल पे..,

चरत डगरी रोकि रोकि बूझत ए बैन कहे
बिरुझे मोरे नैन सहुँ काहे तुहरे नैन कहे
देइ के पट पाटली भुज सेखर बिसाल पे
लाल लाल चमके रे बिंदिया तुहरे भाल पे

गुम्फित छदम मुक्ता हीर मनि बल के रे..,
करत छल छंद बहु छन छब सी झलके रे..,
रिझियो ना भीति केरी मनियारि जाल पे..,
लाल लाल चमके रे बिंदिया तुहरे भाल पे..,

जूँ निरखूं छबि अँगना के दरपन से ताल पे

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----- || राग-ललित || -----

रैन ज्योति नैन ज्योति जगत ज्योति जग जगमगे | कनक कंगूरे कलस ज्योति अगत जगत जगरत जगे ||
नलिन ज्योति मृणाल ज्योति ताल ताल ज्योतिर्मई |
तीर तरंगित माल ज्योति
तरत मराल सम धरत ज्योति सकल दीपक मृण्मई ||

झिलमिल ज्योति
उदयत मंगल काल ज्योति
तिलक चिन्हित भाल ज्योति ज्योतिर्मय मुख मञ्जुलम |
हिलमेलती उरमाल ज्योति कलित कुण्डल कल कंचनम |

दमकत दीपक माल ज्योति ज्योतिर्मय सुभ दीपावली |
भीति भीति मनि जाल ज्योति बीथि बीथि सब गली गली ||
करतल हिरन थाल ज्योति छजत छत छत पंगत परी |
लखत लालमलाल ज्योति छूटत जब नभ फूरझरी ||


दीपक माल ज्योति कृष्णा कृष्ण चन्द्र मुख मनोहरम्
छजत ज्योति छत छत छन छटा छतनार के

ज्योति
जरत जरत दीपक रीते 

----- || राग-देस || -----
बुए बिआ पिय पेम अँकूरे
अँख न आए नहि अंग बिकसाए अजहुँ पंख नहि पूरे
सुख सम्पद गह गह नियराई छाए मोदु मुख भए दुःख दूरे
गै परदेस पंखि परबासी चरन फिरावत देस बहूरे
भरम पास बस दिग भरमावत रे पंथी पंथ नाहि भूरे

----- || राग- केदार || -----
बुए बिआ पिय पेम अँकूरे
जो दिन तुम्हरे संग बिरुझे अजहुँ सो दिन गयउ रे भूरे || १ ||
सांझ भोर करि उड़ि उड़ि जावै पलपल पल छन पंख अपूरे ||
जो दुःख सों सुख मुख बिरुझायो अजहुँ त अखियन सों भए दूरे || २ ||
जो सुख सों दुःख मुख मलिनायो रे अजहुँ त सो सुख भए धूरे ||
हरिदय देस नैनन फुर बारि बिरवा प्रतीति फूर प्रफूरे || ३ ||
 डोरि देइ पिय पलक हिंडोरे पुलकित पेम डारि पर झूरे || 
हमरे बिन तुम आधे अधबर तुहरे बिन हम आध अधूरे || ४ ||
कहत ए डरपत मन रे साजन बैरि बिरहा बहुर न बहूरे ||
सुनहु पिया बर प्रीति ए साँची कहँ सौं लई तुहरे सहूँरे || ५ ||

बहुरि सो बैरन बिरहा बहुर न बहूरे 
जौ तुम्ह कहौ तो सहुँ कर जोरि कहूँरे

----- || राग -पीलू || -----

 माई गोद भरावन चली
कोई मांगे मनिया नी कोई मांगे मोतिया 
कोई हरी हरी चुनरिया 

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लाल लाल तिलक रेख बसत पिया के भाल रे
हिलमेलती उरु रुचिरु गज मुकुतालि माल रे

पीत बसन देह बसे नैनन में नेह रे
बहुरि बहुरि मोहि कसे बहियन में लेह रे
दीप माल थाल धरे मोरे कुमकुम करताल रे

गली गली मनि दीपक की अलियाँ सँवार के
छाँड़त रे फूरझरी श्री की आरती उतार के
आजु अली सुबरनी भए गगन घनकाल रे

देख देख छबि छटा छन लोचन अभिराम जूँ
बारिअहिं अंग अंग कोटिकोटि सत काम जूँ
झरोखन्हि लगी जुवतीं होवति निहाल रे

बाँकी बर करधनि कर निरखत घनस्याम से
चितबत चित चोरि लेहि रे झलक देत राम से
अपलक भए पलक चलत जब मंजुल मराल रे

मिलत कंठ लाई पुर के लोगन्हि बिलोक के
हँसत कहत कहिबत कछु डगरी रोक रोक के
सोहत दए पाटल पट  भुज सेखर बिसाल रे

ताल ताल  मुकुर
बाजत एक ताल रे

घन श्याम मनोहर मन भावन लागे 
निरख छटा छब बिनहि बेला  घन घन अनुरागे 
छन छन करि घुमरन लागे 
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----- || राग-बिहाग || -----
 जर जर मनोहर दीप अली 
जगुरावत घन तम निसि चहुँ दिसि कुञ्ज कुञ्ज सब गेह गली || १ || 

बेनु के बेढ़ब माहि प्रजरत,जिमि लाल मनि मुक्ता बली || 
सकल कला गह बिकसहि चंदा बिकसाइ सब कुमोद कली || २ || 

बरन दिगंतर गौरज बेला  साँझि गहे बरमाल चली || 
सीस धरे पिय के पग धुरी अभरत सुभग सेंदुर ढली || ३ || 

पाँव पधारत पँवरी पँवरी लागहि साँवरि रैन भली || 
दीपित मत मुख अंचल ढाँकी समीप सहुँ सकुचात चली || ४ ||

सोन सलोनी 

मृग मृगी निरखि थकिअ  निहारे


सिंदूरी संध्या वरमाला हस्तगत अन्धकार को वरण करने चल पड़ी, शिरोपर अपने प्रियतम के चरण धूलिका धारण कर वह अस्तांचल गामी हो गई | ड्योढ़ी ड्योढ़ी पर पदार्पण करते श्यामल रयनी मनोहर प्रतीत हो रही है 



बिलसत तरु पल्लब पट पहरे 

----- ॥ दोहा-पद॥ -----

जगत जगत बिरती रे रतिया,  
बिरतै रतिया रे जगज उठे,
बिरताइ रतिया रे जगज उठे, 

अरुन उदयो अँजोरा सुधयो तज सैय्या सूरज उठे |                     हाँ तज सैय्या सूरज उठे ..
बिराज पुनि रथ उतरे छितिज पथ, परस चरन सिरु रज उठे ||    हाँss परस चरन सिरु रज उठे.. 
सरस सरोजर जोरे पानि सिस नाई पद पंकज उठे |                   सिस नाई पद पंकज उठे.. 
देय ताल मृदुल मंदिरु मंदिरु ढोल मजीरु मुरज उठे ||                  ढोल मजीरु मूरज उठे ..

सुर मालि पुर मधुर मनोहर संख नूपुर सहुँ बज उठे |                  हाँ संख नूपुर सहुँ बज उठे ..
सहस किरन बिनिन्दत गरुअत कलसी सिखर कर ध्वज उठे ||   कलसी सिखर कर ध्वज उठे ..
करत आरती सकल भारती भरि भेस भूषन सज उठे |                भरि भेस भूषन सज उठे.. 
बसहि बासि जिमि चहुँ कोत बासत कोटि कोटि मलयज उठे ||    हाँ कोटि कोटि मलयज उठे..  

अगज-जगज जगत भए सब जीव जगत के जाग |  
हरिअरी हरिदय निकेत जाग उठे अनुराग || 

अरुन उदयो = भोर हुई 
अँजोरा = उजाला
रज = कण, पराग कण 
पाणि = हाथ 
मजीरु मुरज = मंजीर मृदंग,
मलयज = चन्दन 
हरिअरी = धीरे धीरे 






----- ॥ दोहा-पद॥ -----,

जगत-जगत बिरतै रे रतिया 
अम्बरु अंत लग जग जागे, जागत जरत जोति बरतिया | 
दिसै कमन बहु कुटिल करमचँद, कहत जगत कहि सुनी बतिया ||

करमन कर लेखा पढ़त फिरै, पढ़ी सकै चिठिया न पतिया | 
बैनन्हि के बिँग बैनाउरि कसि कसि छाँड़ बिँधे उत्खतिया  ||  

जो ये बस्ती भई बैरागि तो जा पड़े को परबतिया | 
बिरुझत बिदूखत बैरु करेउ भूतेसु के रे बरतिया || 

भक्तिकाल 

सँवरे सँवरे मोरे सँवरिए चितइ नहि देउ मूरतिया | 
बिरज उजारी दए झिरकारी  भयउब भूरि दुरगतिया || 

जोति बरतिया = ज्योति वर्तिका 
कुटिल करमचँद = कुटिल कर्मों से युक्त 
बिंग = व्यंग 
बैनाउरि = बाणावली 
बिदूखत = दोषारोपण करना 

बिरज उजारी = ब्रज को उजाड़ने वाली, वर्जना और जलाने वाली
झिरकारी=फटकार 



लागे मोही तुहरी दुनिया बिरानी,
नैनन के मोती बहि भए पानी पानी..,


ओ रे पिया ए रतन अमोलक, हाय ये मोल जानी,
लागे मोही तुहरी दुनिया बिरानी,
नैनन के मोती बहि बहि भए पानी पानी..,

निसदिन करि ए कहि बतिया, गह गह गयउ बखानी
लागे मोही तुहरी दुनिया बिरानी
नैनन के मोती बहि बहि भए पानी पानी


कासे कहें कहँ जा सुनावैं, ए हमरी राम कहानी,
लागे मोही तुहरी दुनिया बिरानी,
नैनन के मोती बहि बहि भए पानी पानी..,

हम सहुँ कहुँ परोसहु बैरि जनिहि न राम कि बानी,
लागे मोही तुहरी दुनिया बिरानी,
नैनन के मोती बहि बहि भए पानी पानी..,

अजहुँ त परबत परतस लागे, हिय करि पीर पिरानी,
लागे मोही तुहरी दुनिया बिरानी,
नैनन के मोती बहि बहि भए पानी पानी.....



जौ बाति कहउँ मैं साँचि
हेरि मुख भीत फनिस सी, घरि घरि एहि रसना नाचि,
बाँचि सबहि जग कर कहनि अरि हरि कथा न बाँचि..,
सुनु प्रसंगु एहि कल कीर्तन छाँड़ि मन रंजन बहु राँचि,
पढ़ि सब पढ़नि पढ़ि न हरिप्रिया कर आखरि पै पाँचि..,
जगवनि सबु रस कंठ करि बरु भगवनि भू दे कांचि,
जग बिरुझ भरिअ कुलाँचे जिमि हिरनी मारि कुलाँचि..,
बाहिर पुनि लीन्ही हरिदय मोरे अंतर करि जाँचि..,
साँचि असाँचे बिंग बैन बैनत भयउ नाराचि.....
कहत झूठे बैन जगत अरु जग ते में साँचि.....

अब तो नज़रे उस हर्फ़े-दुआ को पढ़े है,
 ले जाए कोई ये पैग़ाम बराए-दर.....
                          *****

बाबूजी मोहे नैहर लीजो बुलाए, 

नैन घटा घन बरसन लागै घिर घिर ज्यों सावन आए, 
पेम बिबस ठयऊ सनेहु रस जबु दोइ पलक जुड़ाए.., 

भेजि दियो करि ह्रदय कठोरे  काहु रे देस पराए, 
बैनन की ए बूंदि बिदौरि छन छन पग धुनि सुनाए..,

मैं तोरि बगियन केरि कलियन फुरि चुनि पुनि दए बिहाए,
ए री पवन ये मोरि चिठिया बाबुल कर दियो जाए..,

पिय नगरी महुँ सब कहुँ मंगल चारिहुँ पुर भए कुसलाए, 
सुक सारिका अहइँ सबु कैसे पिंजर जिन रखिअ पढ़ाए.....

                                     ******
खोल के पुरट-पट घन स्याम रँग दिखाए है, 
होरी हाथ जोरि मोहे सबहि ढंग मनाए है 

पाए पाति पवन संग नभ बढ़ि चढ़ि पतंग 
कासि थोरि थोरि डोरि अपने सँग मिलाए है 


सपन नव दए के नैन रैन चरन भए बिहंग 
भोरी चोरि चोरि रंग में भंग मिलाए है 

प्रीतम हरि लाल सरि करि ताल धरि रँग-बिरंग 
हो री होरी होरी बिन रे मोहे अंग लगाए है 

पुरट-पट = सुनहरा घूँघट, बिजली का घूँघट 

                    *****
खोल के चश्मे-जद यूँ शाम रंग दिखाए 
दस्ते -सफ़हे पे शफ़क़ टूट के बिखरे   
                     ******

जाग उठे प्यारी भोरी के ये गीत-जाग उठे प्यारी होरी के ये गीत 
जागी सरगम जग रागे संगीत 
कंठ कूनिका कर महुँ धारौ, हे कलामई कुलिका सारौ 
रागौ  सबहि रीत 


होरी पतंगी उरि जाहु, रारी करिअ तुम काहु 
सूति डारी के पौ पुर पंखन पाहु 


होरी पतंगी कहँ जाहु, बहुरि प्रिया पठइ तोहि काहु 

होरी पतंगि कहँ उरि जाहु, 
तुहरि प्रिया एहि कहि कर दियो पुनि रार करन पिय आहु || १ || 
छितिजिहि  पारि हियपिय पिहरियो  छितिज परस न बहुराहु 
पैसिहु गह प्रीति पूरित सब रीति री प्रियातिथि तहँ पाहु || २ || 
भेंटिहि जननी तोहि उर लाइ जलज नयन भरी बाहु 
त मोर हरिदय कर कहनि कहहु  जनि जनित सहित सब काहु || ३ || 
कर गहि जौ  तोहि भाई भउजाइँ सलिल सनेह बरखाहु  
जोरि पानि जुग ए बिनती करिहौ  बाबुल मोहि लए लाहु || ४ || 







हे री हारि के नहि थिरियो, 
तिरत फिरत बिहंग संग, भँवरि भरत न तरियाहु 




मोरे नयन घनस्याम 


खोल के पुरट-पट घन स्याम रंग दिखराए रे, 
हाय हरियारा सावन झुम के नियराए रे..,

रूप हरे धूप भरे इंद्रधनुष कहुँ चंग दै, 
गरज-गरज घोर घनी काली घटा छाए रे.., 

गौर गगन ग्वाल कर लेइ जल तरंग माल,
थिरकत जमुना के तट स्याम उर मिलाए रे..,

बिरुझाइ लट बेनि बट करधनी तट घट किये,
होरी पनघट पे गोरि नैन पंथ लाए रे..,

बैरन सहुँ बैर पड़े डास डँसे बिरहन घन, 
पिय के पेमदूत बन बूँद-बूँद बरखाए रे.., 

बाबुल मोरे मोहे नैहर लीजो बुलाए.....
  

कहुँ = को या कहीं 
चंग = खेंचना , लटकाना 
गौर गगन ग्वाल = उज्जवल आकाश रूपी ग्वाल, मित्र  
कर = हाथ 
उर = हृदय 


करत रारी भयउ रे भोरा 
सजन चित्चोरा 



खोल के चश्मे-जद यूँ शाम रंग दिखाए 

दस्ते-सफ़हे पे शफ़क़ टूट के बिखरे   

जलज माल कल कंठ करन चलिअ मग 

ए री गोरी पिहरवा ना जइ हो री 
        ----- || राग-भैरवी ||-----

ओ री मोरी सजनी तुअ नैहर न जइहो | 
न जइहो न जइहो तुअ नैहर न जइहो || १ || 

मैं सावन अरु तुम बन मेहा  नेहु घन रस बरखइयो | 
मैं पावस तुम घोर घटा री  घेरि गगन गहरइयो || २ || 

मैं सागर सहुँ तुम सुर गंगा हरिदय बहि बहि अइयो |  
पेम के एहि संगम तीरथ ए तीरथ नहि बिसरइयो  || ३  || 

देइब चीठी फेरिहु दीठी जोहि बिरहि घन दइयो | 
कमनिअ कंचन कमन कनीठी मोर कनि कने पइयो || ४  || 

कनक कली कर कानन करिके मोहि न कनखि लखइयो |
कंगन कलिइन लेइ बलइयाँ  मोर कंठन खनकइयो || ५ ||

नैन झरोखे पलक पट देइ हिय गिह पिय पौढ़इयों | 
रैन अँजोरे धरै अँजुरी प्रीत करि जोत जगइयो || ६  ||


अरी मेघा मृग जल सरिता न करिहउ 
भरी भोर = प्रथम काल 


सनेह सहित हरिदय राखि कै गलबहियाँ बलाइ हो री 

जनिह जगत एहि भाँवर देइ मम सोंहि तुअ सों लइयो हो री 

गमन बिदेस न लेस क्लेस को बरु तनि सकुचाइ हो री

----- || रागललित || -----

ख़ुदा की ये दुन्या खुदा की ये राहें,
हरेक उफ़ तलक हों रहम की निगाहें..,

वो सतहे पे हो याके बह्रे-तबक़ पे,
जो क़दमों तले हो सुनो उसकी आहें..,

ख़ुदा-बंद का ही है ये काऱखाना,
हो मासूमो-महरूब के हक़ में पनाहें..,

दयानत से उठे हाथ दुआ के लिए,
के हों दरियादिल हम गाहे-बेगाहे.....


बह्रे-तबक़ = समुद्र की तलहटी
मासूम = निर्दोष 
महरूब = मारा गया, घायल 
ख़ुदा का कारख़ाना = जगत प्रपंच 

जलज माल जुग कर सरोज करिअ, राज मराल गति गवनी
कमल नयन कल कंठ करिअ पिअ रहिअ मेलि हरिदय अवनी
                                          *****

जलज माल जुग कर सरोज धरिअ, बाल मराल गति गवनी |
कमल नयन कल कंठ करिअ सिअ  रहिअ मेलि हरिदय अवनी ||


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----- || राग- भूपाली || -----
लोभ लाह बहु नाच नचावै..,
करि न चहिए सो कर करि जावै || १ ||
यह मोहनि माया बहु ठगनी मूरख मन सब जान ढगावै |
यह लाहन सोइ जोहै जोइ अंत चले कछु काम न आवै || २ ||
पथ भटकावत दृक भरमावै दीठिहु ऐसो दोष धरावै |
पर दूषन दृग दरसत फिरती नाहि अपुना दोष दरसावै|| ३ ||
झूठे संगत करत मिताई अरु साँचे कू झूठ कहावै |
अधर्मी अजहुँ सनमान गहे धर्मी धरम करत सकुचावै || ४ ||
कुटिल चालि चलि करत कुचाली कुल कुल कलि कारन उपजावै |
कूट बचन कह  कलहु कारि के मन महु बहु बहु करष बढ़ावै || ५ ||


भई रीत जग बिपरीत करनी नव नव

कलुषित करनी ता संगत कलि काल कहावै

पंथ परचन पूछ्यो लघुत बृहद निज नाम बतावै

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ये साहिले-साकिन जहाज़ों की रानी
बड़ा ख़ूबसूरत है समंदर का पानी
कौन कहता है ये किसी काम का नहीं
इसके दोश-ए-दम पे है बारानी

होरी सखी घन गगन न ठाढ़एँ
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भुज कंठ माल दै जाए लपटि लरिकाई सी
गहि बाहु उर लहि निज कूंख तेउ जाई सी
भुजाई सो माई सी
जग कहँ सनेहिल छबि अस भाई सी

लागि पीर पराई सी

ललाई निरत करके बिजुरिया
बूड़त गहनइ घनस्याम घन
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भई निरदई प्रीतमा मोरी
चंदा भावै सूरजु भावै  मोरि प्रीति ना भावै थोरी
करतब जोरा जोरी

गगन परस जूँ पवन जगे
पाहन परस जूँ अगन जगे
यौवन परस जूँ लगन जगे
निद्रालस नयन जगे

पेम भाव मन एकै से बिलग बिलग स्वभाए | को पात फल फूल भखे को मारी जिउ खाए ||

बिलग बिलग सब गेह जूँ बिलग बिलग यूँ देस |
बिलग देस धर्म सों बिलग भेस परिबेस


पांच मिनट तक उबला पानी, हम पर डाला जाता। आधी गर्दन काट हमारी, खून निकाला जाता।।सुनो!सुनो!ए ?.... तत्काल पेट में एक छेदकर, हवा भरी उसमें जाती। आधी जीवित मेरे तन से, चमड़ी उतारी जाती।। चमड़ी उतार कर मेरे तन के , टुकड़े चार किये जाते । गर्दन, पैर, हड्डी अरु धड़ का, भाग अलग वे करते।।सुनो!सुनो!ए ..... सबसे विशाल एशिया प्रांत की, है महाराष्ट्र में वधशाला। काटे जाते मेरे वंशज, बहता खून का परनाला।। मेरी माता, बहिनें, बेटे , भाई हजारों कटते। पाकर ताजा मांस विदेशी, पेट स्वयं का भरते ।।सुनो!सुनो!ए ..... मेरे! पुत्रों सुनी आपने, हृदय विदारक अन्तर्कथा। निश्चित मन में जागी होगी, मर्मान्तक मेरी व्यथा कथा।। बहती थी जिस देश में पावन दूध, दही की निर्मल धारा। बहती आज उसी भारत में, गौ माता के खून की धारा।।सुनो!सुनो!ए ..... हे! संतजनों ? माँ भक्तों जागों? सर कफन बांध संघर्ष करो। मेरे दूध की लाज बचाने, केहरि बल हुंकार भरो।। गूंगे, बहरे, लोलुप, निष्ठुर, शासन से दो हाथ करो ? गौ हत्या प्रतिबंधित करने, सत्याग्रह कर जेल भरो।।सुनो!सुनो!ए ..... राम, कृष्ण, शिव, राणा, शिवा, के, वंशज सुनो पुकार। मुझ निरीह के प्राण बचाओ ? मैं करती यही पुकार।। ‘शास्त्री’ करता विनय आपसे, हो जाओ तैयार। गौ संस्कृति रक्षार्थ उठो ? तुम लेकर जौहर ज्वार।।सुनो!सुनो!ए .....


गौ मातु कर करुन पुकार |
सुनहु हे धर्म प्रान बँधुओं || १ ||
भयउ अजहुँ करषक निरमोहि निहठुर निरदय हरिदय होहि |
करे न मोहि पेम प्यार || २ ||
गौचर मोरि पहुमि हर लियो चारा  न बाँटा न नीरहु दियो |
भटकत मैं फिरूँ द्वार-द्वार || ३ ||
अजहुँ त भए सब सुवारथ के साथि, मारै मोहि लकुटि धर हाथि |
करैं अगनित अत्याचार || ४ ||
मैं बस ग्रास तृन तिनकाहि पाति अरु मीठा- मीठा क्षीर पिलाति |
तापर करे नहि मो से दुलार || ५ ||
होत बिरध सो वध मेरे प्रान लें निर्मम हो कस बलवत बलिदान लें |
देखु मोरि दसा एकु बार || ६ ||
कहँ ए कातर करुन कर बानि सुनु अब मोरि ब्यथा कि कहानि |
दे ध्यान करु मो पै उपकार || ७ ||
आँध्र नाउ प्रदेसु बिसाला तहँ एक 'अल-कबीर' बधसाला |
गह गह तहँ देइँ मोहि डार || ८ ||
दए पाषंड दंड मारि मारि के  जहँ नारकि कूप महुँ डारिके |
रखैं मोहि भूखि दिन चार || ९ ||
हत हत मोहि करैं बलहीना चोट दें घाउ दे पुनि करें दीना ||
तड़पत मैं गिरूँ बार बार || १० ||
फाँस दै दै के पाँव बाँध पुला पीट पीट करे अधमरे समतुला ||
उबाल देइ जल डार डार  || ११ ||
प्रथम अरध मोहि काटि धड़े ते पुनि रक्त ते निज कुंड भरें रे ||
कलपूँ मैं प्रान कर धार  || १२ ||
उदर छेद कर हवा पैसारे अध् जिअतें मोरि चमरि निकारें ||
पुनि तन के करें टुक चार || १३ ||
अह!बहँ तहँ मम रुधिरु परनाला बँसुरि धरे जहँ जनमें गोपाला, ||
अजहुँ यहँ जनमें खर सिआर || १४ ||

वर्द्धमान विश्व वरणता विनाशयित विकास को  
शिरोधार्य करो नमन स्वर्णमयी इतिहास को

उच्च श्रृंग श्लाका  को श्लेष कर उत्तोलती
दीप शिखा सी ध्वजा वो छू रही आकाश को

मेघों की प्रगर्जना में प्रकृति का प्रसव निह्नाद
जन्म देती नित्य जहाँ उत्सव और उल्लास को  

विभव क्षयित वर्तमान के सोपान पर आरोह
दिशा-दिशा में ढूंढती पूर्वाशा निज प्रकाश को

भूमि-भूमि पर 
विप्रमयी व्योम का उस व्यास के विभास को 

सूरदास रचित : --
बरखा ऋतु आई देखु माई,
उमगि घटा चहुँ दिसि ते जुर जुर बिजुरी चमक सुहाई |
दादुर मोर पपहिया बोलत कोयर कूँज सुहाई |
निसदिन रहत सदा प्रीतम सँग निरखत नैन अघाई |
घन जमुना घन उलिन मनोहर बायु बहत सुखदाई |
सूरदास प्रभु की छब ऊपर नैनन नीर बहाई |

----- ॥ दोहा-पद 10 ॥ -----

-----|| राग मेघ-मल्हार || -----

घेरि घटा घनकत घन घोरा |
छाए पिया पावस चहुँ ओरा || १ ||

थिरकत नदि जल झर झर झरे, पाँउ परे झनकत रमझोरा || २ ||

भर घमंड ए काल न देख्यो, बिनु नूपुर नाचहिं बन मोरा || ३ ||

बँट दै तरुवरि हरिअरि रसरी, पाए पवन हलै रे हिँडौरा  || ४ ||

ढूँढत जलनिधि सुध बुध भुल्यौ, पँवर पँवर भँवरत चितचोरा || ५ ||

साँझी दिवस सोंहि गठ जोरे, परिनय करत रैन अरु भोरा || ६ ||

दूरबा कर  बिछेउ बिछौने, तपन ऋतु कर न होए बहोरा || ७ ||


 रमझोरा = घुंघरू
पँवर पँवर = द्वार-द्वार
चितचोरा = घनश्याम
पँवरहि = ढूंढ़ना


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घेरि घटा घन घनकत घोरा |
छाए पिया पावस चहुँ ओरा || १ ||

बेनु हरित अहि बेलरि डारै | बंदनिवारे परे दुआरे ||
भयउ मगन मन मोदु न थोरा || २ ||

काल घना की काजर पूरी | माँग भरे भइ साँझ सिँदूरी ||
दिसत झरोखै करत निहोरा || ३ ||

बरसि बरसि बादल पनिहारे | भर भर कलसि करषि कर धारे ||
तृपित कंठ भा चकित चकोरा || ४ ||

यह तापस रितुवन की बेला | जलधि नभ चढ़ि करिहिं का खेला ||
उड़त पतंगिहि भँवरत भौंरा || ५ ||

उरहि पतंगी भंवरहि भौंरा = आंधी में पत्तो और धूल का बवंडर, पतंग और भौंरे (लट्टू) का खेल




  दिन रात से बोले रे सुन ओ मेरी प्रिये..,
तेरी पदचाप को सुनकर जल उठते है दिये.....

कोई लो लाल न कोई लो पीलो,
साँवर सलौने  न करो रे रंगीलो,
कोमल कोमल कपोलन मल के ,
पाछे धर धर के पिचकारी मारो.....

होरी आई रे मोहन पर रंग डारो
कोई लो लाल न कोई लो पीलो, साँवर सलौने न करो रे रंगीलो, कोमल कोमल कपोलन मल के, पाछे धर धर के पिचकारी मारो..... सुरभित गंध फूर कस्तूरिया.., कुमकुम संग केसर मनहरिया.., कनक कलस भरयो चंदन सो.., भरु थारी अबीरन बउछारों .....


चल रे चल ओ मोरेअँखियाँ नु लखियाँ
अब ये देस हुवा बिराना
भई मोरी बैरन सारी दुनिया
जिअ लइ के ये दे बिरहाना
सारी दुन्या
मोरे साजन
है ये प्रीत की रीत पुरानी

----- || राग- काफी || ----
रे जगत तू ! भोगत भवहि भुलायो
भरियब भवन भूति बिभूति बरु भरमन महि भरमायो || १ ||

बनि बैसा सो आपहि भगवन भगति भजन बिसरायो || २ ||

भोग कलप जौ न भाग लिखाहि भाग भाग तिन पायो || ३ || 
आपनु झौंरा दियो बिखेरा औरन जोड़न धायो  || 

भावार्थ : - रे जगत ! तुम पृथ्वी के भोगों को भोगने में लगे हो | भवन में धन संपत्ति का अम्बार लगा है तथापि 
तुम धनार्जन में व्यस्त रहते हो | ईश्वर 

सांझ सलोनी अति भाई

ढरती साँझी मन भाई | (देखु भाई)
( देखु माई )
चारु चंद्र की कनक कनी सी बिंदिया माथ सुहाई || १ ||

उरत सिरोपर सैंदूरि धूरि जगत लखत न अघाई || २ ||

अरुन रथी की रश्मि लेइ के बीथि बीथि बिहराई || ३ ||

दीप अली दुआरि लग जौंहे लौनी लौ न लगाई || ४ ||

बिरत भई गौ धूरिहि बेला रैनि चरन बहुराई || ५ ||


नैनन सोंहि दुराई

अरुन रथी = सूर्य
  रश्मि = किरण
बीथि बीथि बिहराई = पथ पथ में या बाजारों में घूमती फिरती


(हे) दीप धूम करि धुजा धरो
अँधियारोजग जोत भरो

निद्रालस भयो देस दियारा अँजोरन जोहत पंथि हारा
बर्तिका संग सार बरो

अग्यान हरो
कण्ठन राम कै नाम सुहाए
राम नाम मनि दाम सुहाए
दाहिन भ्रात लखन मन मोहें श्री सरूप सिय बाम सुहाए
श्रीहरि सागर साथरि सयनै सिस छतर बलराम सुहाए
श्रम जीबी कर्मन कर सौंहे अकरम सील कू काम सुहाए
सो गह जहँ पिय नयनाभिराम सुहाए

----- || राग बैरागी भैरवी || -----

जगलग ज्योत जगाओ रे, 

चहुँपुर निबिर अंधियार भयो अब रैनी चरन बहुराओ.., 

पंथ कुपंथ मोहि न बूझे, चलेउ कहाँ अजहुँ न सूझे, 

रबि सारथी नियराओ.., 

धरिअ करतल प्रभा प्रसंगा उतरो हे देव रथ संगा.., 

दिसि-बिदिसि अरुनाओ..... 


दिसि -बिदिसि = दिशा व्  दिशाओं के कोण 


जगलग ज्योत जगाओ रे, 

चहुँपुर निबिर अंधियार भयो हे जगन्मई पधराओ रे .., 

धरिअ करतल प्रभा प्रसंगा प्रगसो हे देवि हरि संगा.., 


दिसि-बिदिसि उजराओ रे ..... 

पंथ कुपंथ केहि न बूझे, चलेउ कहाँ अजहुँ न सूझे, 

माया मोह दुराओ रे .., 

जल जल भयउ दीपक रीते यह मावस करि रतिया न बीते


भूति बिभूति भर जाओ रे.,

दीपक संग जोत जगे  देहरि संग द्वार | 


प्रगसो हे ज्योतिर्मइ दूर करो अँधिआर ||






राग मालकोश = गायन समय - रात्रि -तृतीय पहर 


राग मारू बिहाग का संक्षिप्त परिचय-
राग मारु बिहाग - गायन समय-रात्रि का द्वितीय प्रहर
राग गौड़ सारंग और राग पटदीप, राग मारवा  - गायन समय -  दिवस -चतुर्थ प्रहर 
राग काफी -गायन समय-मध्य रात्रि

लखि मोहे नहि भाए ए दूरी 


हेरी कली ए अली अनूठे 
हेरि अलि सम पिया अनूठे 
तापन हो कि हो  केहू बेला | तनिक सकुचै न बोलन झूठे 
सुमन सुमन भा मधुबन गंधा | गंधे सुरभित सार सुगंधा 
रूठे रूठे 

हर्फ़े-दुआ याद आई

 के बाद आई

सनेसो = सन्देश

----- || राग दरबारी गायन समय मध्य रात्रि || -----
दीप मनोहर दुआरी लगे चौंकी अधरावत चौंक पुरो |
हे बरति हरदी तैल चढ़े अबु दीप रूप सुकुँअरहु बरो ||
पिय प्रेम हंस के मनमानस रे हंसिनि हंसक चरन धरो |
रे सोहागिनि करहु आरती तुम भाल मनोहर तिलक करो ||


चलिअ दुलहिनि राज मराल गति हे बर माल तुम कंठ उतरो ||
हरिन अहिबेलि मंडपु दै मंगल द्रव्य सोहि कलस भरो ||
जनम जनम दृढ़ साँठि करे हे दम्पति सूत तुम्ह गाँठि परो |
भई हे बर सुभ लगन करि बेला परिनद्ध पानि गहन करो |
अगनि देउ भए तुहरे साखी लेइ सौंह सातौं बचन भरो ||


बर मुँदरी गह दान दियो हे सुभग सैन्दूर माँगु अवतरो |
जीवन संगनि के पानि गहे हे बर सातहुँ फेरे भँवरो ||
हे गनेसाय महाकाय तुम्ह भर्मन पंथ के बिघन हरो  |
बरखा काल के घन माल से हे नभ उपवन के सुमन झरो ||

पट गठ बंधन बाँध कै देइ हाथ में हाथ |
ओरे बोले बाबुला जाउ पिया के साथ ||






----- || राग -भैरवी || -----
ओ रे पिया  दिअरी से द्वारि लगे
बिरहा कर अगनि में जर जर जगे


रतिया भर दिअरी से जर जर जगे


सारी रैना दिअरी से जरे
जगराते जरे

ओरे नैना दिअरी से द्वार धरे..,
सारी रैना पियहि को जुहार जरे.....

ओ रे  दियरी से द्वार धरे
सारी रैना नैना निहार जरे  .....


ओरे नैना अँसुअन की धार धरे
सारी रैना पियहि को जुहार जरे.....

ओरे नैना दिअरी से द्वार धरे.., सारी रैना पियहि को जुहार जरे..... ओरे नैना अँसुअन की धार धरे सारी रैना दिअरी से जगरत जरे..... दिअरी = छोटा दीया


ओरे नैना दिअरी से द्वार धरे
सारी रैना पिय को जुहार जरे

देखु जग कर रीति ए कस रे भाई
हिय करि टूक जिय दे ज्यायो  सात भँवर करि दियो परायो

ये हमरी पिंजर करि पाँखी पंख परत रे दियो उड़ायो
फूरि भई पिय लेवनु आयो

----- || राग पीलू || -----
हम तुहारे तुहारे तुहारे बलम..,
हे शम्भो प्रभो शीश गंगा धरं | लसद्भाल बालेन्दु कण्ठे भुजङ्गम ||
निराकारमोङ्कार

राग-पीलू
सूर देउ  सिस चढ़ि आए..,
सिउ सहुँ रौद्र रूप दिखराए.....

पट गठ बाँधनि बाँध कै देइ हाथ में हाथ |
बोले मोरे बाबुला जाउ पिया के साथ ||


काहे मोहि कीजौ पराए, 
ओरे मोरे बाबुला 
जनम दियो पलकन्हि राख्यो जिअ तै रहेउ लगाए 

 पौनन के डोला कियो रे बादल कियो कहार | 
 बरखा कर  दियो बरसन दूज द्वार || 
मैं तोरी नैनन की बुंदिया पल पलकैं ढार ढरकाए 

देइ पराई देहरी दियो पिया के देस | 
दूरत दुआरि आपनी पलक कियो परदेस || 
करे अँकोरी सनेह कर डोरी गोद हिंडोरी झुराए 

नैनन को नैया कियो पलकन को पतवार | 
पिय की नगरि भेजि दियो दए अँसुअन की धार || 
कहत ए नीर भरी निर्झरनि निज परबत ते बिहुराए 

कै नैहर कै पिया घर बधियो दोइ किनार | 
नदिया तोरी दोइ गति,  कै इत पार कै उत पार || 
नैन घटा घन बरखत बाबुल रे लीज्यो मोहि बुलाए 


----- || राग-पहाड़ी || -----
नीर भरी निरझरनी 
पहाड़ानु छोड़ चली 
डब डब अँखियन ते लखे 
बाबुल की प्यारी गली 

नैनन की नैया पलक पतवारा 

हरियारे आँचल में अँसुअन की धारा 
 दोई कठारन दोई कहारा 
दोई कहारन पे 
अन्न धन की धानी ले के 
दो तीर्थों को जोड़ चली 

ये साधु संतों की कही बानी 
नारी नदी तेरी एक कहानी 
आँचल में प्रीति पलकों में पानी 
पलकों में पानी लिए  
नई प्रेम कहानि कहने 
देखो सागर की रानी चली 

आँचल में बाँध के आंसुओं के बादल

पलकों में भर के बदरा की  काजल

 पैरों में बरसीली बूंदों की पायल



करि निज नगरि ते दुराए 

फुरवाई फिरिहउ कर मोरी अँगुरी गहाए 

हिय करि टूक जिय दे ज्याए 

जन्माए 


नदिया रे तू कहँ बहिरायो
पैरन महुँ तोरे झाँझ परी पग पग कंटक बिथुरायो


 पैर तोरे कंकरी
 डग तोरी सँकरी

दूर पी की नगरी
बाँध के किनारों पे
दो कहारों पे



चाँदी के पटौहन पे सोने का पलका
    की चित्र पटि पे चाँद का झलका
चाँद का घूंघट ढलका ढलका



पग पग कंटक काँकरी


----- || सोहर || -----
बादहि बादल देउ बधइयाँ
आईं बहियर बरखा रानी ए सुभ सँदेसा दायो
अइने द्वार बरतिया
मैंया कुअँरु मनोहर लइने जी बहियर
बाबा लुटावै रुपइया भैया धेनु गइया
गोतिया लुटावै मोहर


फेरि बारी

दिए भू  माई भूरि बधाई जौ  जौ जेहि मन भायो


कौमुद संग निहार

सदरी रैनि लाग रहे  देहरि संग द्वार
अलका पलका देइ के पलक पटोहाँ ढार
सुमन सुमन भा रयन सुहागा | बसे पिया के मन अनुरागा ||


उरत धूरि घन नभ धूसराए । बरखा रानी अजहुँ  दूराए ॥ 

जल में बासे कौमुदिनी चंदा बसे आकास
जो है जाको भावना सो ताहिन के पास
 ----- || संत कबीर || ----- 
              
दीपक संग जोत लगे  देहरि संग द्वार

सुमन सुमन चहुँ कोत
जगे प्रीति का जोत

हरिदय रतन सिँहासन बैस  स्याम सलोने साजन रे

सखि गाओ री सोहर जी मंगल सुअवसर कुँअर मनोहर जी सुनु अति सुन्दर दूल्हा बनइयो जी हो, रामा दूल्हा बनइयो जी हो..... करधन करधर पाटली परिकर अरु बर बर बसन बसइयो जी हो, रामा बसन बसइयो जी हो..... कल किरीट कपाला कंकनि माला अरु मनिहर रतन सजइयो जी हो रामा रतन सजइयो जी हो..... चारु चँवर हलरई सिरु छतर दसई के अरु हरियर लगन करइयो जी हो, रामा लगन करइयो जी हो.....



भयो दिवस भए दीप मलीना

रजस अलस बस तामस जागै सतो जगत भा नींद अधीना
दिवस हो आया दीप मलीन हो गए | सतो गुण निद्रा के अधीन है ,रजस गुण आलस्य के वशीभूत है  तामस गुण पूर्ण जागृत है | 


 नौ दुलहनिया दुआर खड़ी रे 
झूरत जल करि झलरी रे 

------ || राग-मल्हार -|| -----

घरि घरि गरजहिं घन घन घोरा 

भरि भरि सरिता  ताल तलावा 
नाचहि मोरु नूपुर धर पाँवा 


मेघ माल रे जोबन रंगे ।
 बिरहा करै सब रँग  निरंगे ।।
आह बैरी भयो रे बहोरा 


कहाँ गयो साजन चित चोरा 


सहुँ सागर सखि बूँद पियासे  
पिया बिनु बरखा ऋतु  न रासै 
प्रेम पयस तरसै मन मोरा 

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हेरी घटा तू बरख न भुलियो 
पान बेलि के रसियन घारे अँगना परी गयो झुलियो 
कुञ्ज गली मंडपु मंड्यो फुलियो 
ताप ऋतु  भई बैरन जी की पिय तन झुरसावन तुलियो 
देइँ लोग तिन्ह गन गन गारि सकल जगत तुअ 
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घुमड़ घुमड़ पिय बरखहिं मेहा 
निपतहि नैनहि नन्हि नन्हि बूँदी उपरनन्हि भीनै सनेहा 
                                                  आँचल 
कहु हिय पीरन कहिहु रे केहा 
भरिहि रे भैहा (भय )


रैन कृष्ना नैन कृष्ना कृष्णी मय सब जगत लगे | कनक कंगूरे कलस कृष्ना कृष्ण कृष्ण कह जगत जगै ||

गाल कृष्णा भाल कृष्णा कलित कुंडल कल कुन्तलम् |
कंबोज् कण्ठ कपाल कृष्णा कृष्ण चन्द्र मुख मनोहरम्

भावार्थ : - कृष्णमई रयनि के नयन में मानो कृष्ण है समस्त संसार ही कृष्णमय रयनि के समरूप प्रतीत हो रहा है | स्वर्ण कंगूरे से युक्त मंदिर में कृष्ण है कृष्ण कृष्ण कहते संसार जागृत हो रहा है | जिसके गाल कृष्ण हैं जिसके मस्तक पर काले घुंघराले सुन्दर केश सुसज्जित हैं उन शंखाकृति कंठ व् कृष्णमयी कपाल वाले कृष्ण का मुख चन्द्रमा के समान मनोहर है |

भयउ रजस रजस कृष्णा त कृष्ण

सवैया
रविकर
चीर चुराय चढ़े तरु पे   यमुना तट पे  जब ग्वालिन न्हावै।
३ ४ ३ २ २ ---- ४ २ २ ----- २ ५ ५
हरिगीतिका छंद 
जय देवकी जसुमति जयतु जय राधिके जय रुक्मनी
२ ५ ४ -----३ २ ५ २ ५
मोरे पिछरवा के अँगनवा मैं बोले रे कोयरिया
रीति रीति  अमराई



----- || राग -मियाँ की तोड़ी || -----

हे जग बंदन अब अवतरौ तुम्ह..,
कलि काल कर कलुष हरौ तुम्ह..,

हिय संताप नैन भर बारी | धेनु रूप धर धरति पुकारी ||
तरस प्रभु दृग दरस परौ तुम्ह..,

तलफत भू कलपत बहु रोई | तुम्ह सोंहि प्रभु अबर न कोई ||
मोर हरिदय चरन धरौ तुम्ह..,

बोहि बोह सिरु पाप अगाधा | गहबर पंथ चरन गहि बाधा ||
पातक भारु हरन करौ तुम्ह..,

गिरि सरि सागर हरुबर मोही | भा गरुबर एक धर्म बिद्रोही ||
प्रगस सगुन सरूप धरौ तुम्ह..,


दुःख दारुन कर रैन मँझारे  | धरै दीप सम नैन दुआरे ||
दिनकर के रूप अभरौ तुम्ह

चारिहुँ ओर घोर अँधियारा | निद्रालस बस भयो संसारा ||
करत भोर अँजोर भरौ तुम्ह


दुःख व् दरिद्रता की अर्ध रात्रि में द्वार पर धरे दीपक के समान ये नयन प्रतीक्षारत है  | हे प्रभु ! अब आप दिनकांत के रूप का आभरण करो | चारों और घोर अन्धकार व्याप्त है संसार निद्रा व् आलस्य के वशीभूत हो गया है हे भगवन ! अब भोर कर अपनी दीप्ती से जगत में उजाला भर दो

 


जगत भयऊ मोर बिपरीता | अपकरनि ते भयहु भयभीता ||
भवहि केरि बिभूति बरौ तुम्ह.....

भावार्थ : - हे जगत वंदनीय ईश्वर अब आप अवतार लो | और अवतार लेकर कलियुग की कलुषता से मुक्त करो || ह्रदय में संताप और नेत्रों में जल भरकर  गाय रूप धारण की हुई  धरती ने आर्त होकर भगवान को पुकार कर कहा -- हे भगवन ! अब दया कर इन अश्रुपूरित नेत्रों को अपना दर्शन दो || तड़पती हुवे रूदन के द्वारा  अपनी अंतर वेदना को व्यक्त करती हुई भूमि ने फिर कहा हे प्रभु! आपके अतिरिक्त इस संसार में मरा कोई नहीं है मेरे ह्रदय में अपने चरण धरो | मेरे शीश पर अगाध पाप के गठरी का बोझ है मेरा भ्रमण पंथ दुर्गम है उसपर मेरे चरण आपदा स्वरूप बाधाओं से बंधे हैं, प्रभु! अब आप इन पापों का हरण करो | पर्वत, सरिताएं और सागर भी मुझे भारहीन  प्रतीत होते हैं किन्तु एक धर्म विद्रोही का भार अतिशय भारी प्रतीत होने लगा है | हे अन्तर्यामी ! अब प्रकट होओ और सगुण स्वरूप धारण करो | यस संसार मेरे विपरीत हो चला है | कुकर्मों से तो स्वयं भय भी भयभीत है अब इस लोक की वैभव विभूति को वरण करो हे राम अवतरण करो तुम्ह.....




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----- || राग-मालकौंस || -----

श्री रामायन कलिमल हरनी.., पुनीत पबित जगत अनुसरनी.....


सिय के पिय की प्रीति सुठि रीति कल कंठ कलित कर बरनी.., 
थकै पंथि हुँत तरुबर छाईं तिसनित हुँत यहु निरझरनी.., 
एहि भव सागर सरिस अपारा तासु तरन हेतु यह तरनी.., 
जगति राति की जरति जोत सी अगजग जोतिर्मय करनी.., 
अधबर पंथ अँधियारे पाँखि महुँ यह उजियारा भरनी.., 
श्रवन मृदु मधुरिम श्रुति रंजन गायन मंजुल मनहरनी.., 
 भगवन्मय यहु भगति भगवती सरूप भगवद पद परनी.., 
भव बंधन मुकुति कर मुकुता गहै याके मारग चरनी.., 
साधू सज्जन संत जन सहित दीन दुखियन केरि सरनी.., 

त्रिभुवन की भूति अभरनी 



गह घन नैन पलक जल धारा  ।
कंज कलस कर  करधन धर के । नाचिहि बरखा छम छम कर के ॥ 
नीरज नुपूर गिरि गिरि आवा । समिट समिट सरि सरित तलावा ॥ 
सकल महिका हरिन्मय होई । भए सब धनिमन दीन न कोई ॥ 

चले चरन भुज प्रभु पद ओरा । बरखिहि बारि पलक पट तोरा ॥ 

रैन भई पिय 
चहुँ पुर रजनी गंधा गंधे 

एकहु पल मिलिहि न पलकिन् पाँति सदरी रैनि जागत गई ॥ 
घोरत अंजन भा घन रंगिहि बिरते बिरति न भोर भई || 

बादहि बादल बजहि बधावा,
पिया भवनन मोदु प्रमोदु मन सावन घन घमंडु भरि छावा || 
मधुरिम धुनि पूरत अगासा परत रे पनवा माहि घावा  |  
हेरी माई देउ सगुनिया परिअ दुअरि दुलहिन के पाँवा ||  
कंठि हारु कर करिअ निछावरि बलिहारत सिरु बारि फिरावा |  
सकल ननदिया आरती करहि पावै सोइ जोइ मनभावा || 
लोक रीति करि पाएँ पखारै गोतिनि कंगन द्युत खिलावा | 
गह करतल पिय बारहिबारा ,जय पावत पुनि मन सकुचावा || 
छुटत कंगन खोरत कर गाँठि हारत गए पिय खोरि न पावा  | 
गावैं जहँ तहँ लोग लुगाई निरख नयन भर पियहि बिहावा || 

पनवा = नगाड़ा  घावा = चोट 

साँझ सैँदूरि जोहती पिया मिलन की रैन | 
हरिदय प्रीति बिबस भयो भयो पलक बस नैन || 

स्वजन सोँहि बैनत गए नैन पिया के पास | 
लखत लजावत पियहि मुख बिथुरी अधर सुहास || 

ना निलयन ते दूर हैं न नैनन ते दूर | 
सौमुख मोरे साँवरे तापर बिरह अपूर || 

हेली मेली मेलि जूँ हेलि मिले पुनि कोइ | 
मिले नहीं पर पिया सहुँ घरी मिलन की दोइ || 

अंजन कू अंजन कियो पलकनि करियो पाति | 
नैना ठहरे बावरे बैने हिय की बाति || 


----- || राग-बिहाग | -----
बाँध मोहि ए प्रेम के धागे प्यारे पिय पहि खैंचन लागे  | 
अँखिया मोरि पियहि को निरखे औरु निरखे नाहि कछु आगे ||
निरखै ज्योंहि पिय तो सकुचै आनि झुकत कपोलन रागे |
ढरती बेला सों मनुहारत  कर जोर मन मिलन छन मागे ||
दिसि दिसि निसि उपरागत जब सखि गै साँझी नभ चंदा जागे | 
मिले दुइ छनहि त कर गहि चुपहि पद चापत पिया लेइ भागे ||
धरे करतल भरे पिय बैंयाँ सब लोकलाज दियो त्यागे |
बँध्यो तन मन पेम के पासु मोरे रोम रोम अनुरागे  ||
चितब रहिउ कहँ पिय मोहि काहु त गिरे पलक पियहि समुहागे |
करनन्हि फूर परस प्रफूरे पैह पिया के अधर परागे ||
लगन मिले ऐसो सजन मिले एहि भा हमरे सौभागे ||

 रैनी द्वार बिराजहि लेइ सुख सौभाग |
सुहासिनि मधुरिम मधुरिम गावत रहि सोहाग ||


भावार्थ = प्रिया कहती है -- देखो ( सखी )ये प्रेम के धागे मुझे प्यारे प्रीतम के पास खैंचने लगे हैं | मेरे नयन प्रीतम को ही देख रहे हैं इन्हे आगे और कुछ भी नहीं दिखाई देता ||  प्रीतम ने ज्योंहि मुझे देखते हुवे देखा तब लज्जावश  नयन झुक आए और  कपोलों को सुरागित कर दिया || ढलती हुई बेला से मनुहार करते मन ने मिलन के क्षण मांगे || संध्यावसान के पश्चात दिशा दिशा में निशा को अरुणिम करते हुवे जब नभ में चंद्रोदयित हुवा तब मिलन के दो क्षण प्राप्त हुवे तब प्रीतम ने चुपके से मेरा हाथ पकड़ा और मुझे दबे पाँव ले भागे || प्रीतम ने सभी लोक मर्यादाओं का त्याग करते हुवे प्रीतम ने करतल धरे जब उन्होंने मुझे भुजाओं में भरा तब हे सखी ! तनमन प्रेम पाश के बंध गए और रोम रोम अनुराग से परिपूरित हो गए  | मुझे क्यूँ देख रही थीं ? जब प्रीतम ने यह पूछा  तो ये पलकें उनके सम्मुख अवनत हो गईं  | प्रीतम के अधर परागों के स्पर्श को प्राप्तकर कर्णफूल जैसे प्रफुल्लित हो उठे | लग्न उदयित हुवे तो ऐसे प्रीतम मिले हे सखी यह मेरा सौभाग्य है |



----- ॥ गीतिका ॥ -----
हरिहरि हरिअ पौढ़इयो, जी मोरे ललना को पलन में.,
बल बल भुज बलि जइयो, जी मोरे ललना को पलन में., 

बिढ़वन मंजुल मंजि मंजीरी, 
कुञ्ज निकुंजनु जइयो, जइयो जी मधुकरी केरे बन में..... 

बल बल बौरि घवरि बल्लीरी,
सुठि सुठि सँटियाँ लगइयो लगइयो जी छरहरी रसियन में.....

 पलने में परि पटिया पटीरी, 
बल बल बेलिया बनइयो बनइयो जी मोरे ललना के पलन में..... 

दए दए दसावन ओ री बधूरी , 
सुरभित गंध बसइयो बसइयो जी मोरे ललना के पलन में.....


हरिहरि हरिअ  = धीरे से 
हरुबरि = मंद-मंद 
बिढ़बन = संचय करने 
मंजि-मंजीरी = पुष्प गुच्छ, कोपलें पत्र इत्यादि 
मधुकरी केरे बन = भौंरो के वन में- मधुवन 
बल बल बौरि घवरि बल्लीरी =  आम के बौर से युक्त लतिकाएं । बढ़िया से गुम्फित कर 
पटिया पटीरी =चन्दन की पटनियाँ 
बल बल बेलिया = घुमावदार बेलियां 
दसावन = बिछावन 



हे रघुनन्दन असुर निकंदन औसर भए महि भार हरो | 
कहत सनकादि मुनि देव सब अब चरनास्तुति सकार करो || 
चरन अस्तुति सकार करो 

चले अवध सिय सों रघुराई । होंहि सगुन सुन्दर सुख दाई ॥ बैस जान भए गगन बिहंगे । सिंहासन मनि रचि बहु रंगे ॥ नखत नेमि नत पथ दरसाईं|| देखु देखु इँह सेतु बँधायो । हरष प्रभु जानकिहि दिखरायो ।। अह रामेसर दरसन दाईं ||


भोर भई चलो हरि दरसन को 


आई रे बरखा पवन हिंडोले,
छनिक छटा दै लट लग घूँघट लाल ललामि हिलोले
चमक चाँदनि सी छबि दरसै स्याम घना पट खोले
चरन धरे मन मानस उतरे राजत अधर कपोले
बरसै रे घन घन बादल से बैसे उड़न खटोले
दियरी सी निसि रिस रिस रीते प्रीति राज रस घोले
हरिदय भुवन मोल लियो बिन मोले

----- || राग -मेघमल्हार || -----
आई रे बरखा पवन हिंडोरे,
छनिक छटा दै घट लग घूँघट स्याम घना पट खोरे |
 छुद्र घंटिका कटि तट सोहे लाल ललामि हिलोरे ||
सजि नव सपत चाँद सी चमकत, लियो पियहि चितचोरे |
भयो अपलक पलक छबि दरसै लेइ हरिदै हिलोरे |
 परसि जूँ पिय त छम छम बोले पाँव परे रमझोरे |
दए भुज हारे रूप निहारे नैन सों नैनन जोरे ||
बूँद बूँद बन तन पै बरसे अधर सुधा रस घोरे |
नेह सनेह की झरी लगाए भिँज्यो रे मन मोरे ||
चरन धरे मन मानस उतरे राजत अधर कपोरे |
गगन सदन सुख सय्या साजी जलज झालरी झौंरे ||
सुहाग भरीं विभाबरि सोभा जो कछु कहौं सो थोरे |
नीझरि सी निसि रिस रिस रीते भयउ रे रतिगर थोरे ||



आई रे बरखा पवन हिंडोले,
जलज माल कल कंठ घरे पाउँ परे रमझोले
नद परबत उतरी
तरत परबत चरत पगडंडी  पग डगमग डोले
बरसै रे घन घन बादल से बैसे उड़न खटोले





 बैसे  बादल उड़न खटोले

घट = ह्रदय/कुम्भ/करधन पर आधारित कुम्भ
 ह्रदय = रीतिकाल
करधन = पौराणिक काल
लट लग घूँघट = आधुनिक काल      
आई रे बरखा पवन हिंडोरे ,
छनिक छटा दै लट लगि घूँघट स्याम घना पट खोरे
परन बेलि कू रसियन घारे हिलोले 
चमक चाँदनि सी छबि दरसै  पहिरे  पटोले
निसि रिस रिस रीते
 लट उपरागै कपोले
चम् चम् चमकत नाचि बिजुरिया पग गहि बुंदिया छम छम बोले
भीजे तन मन बरसै घन घन बैसे सावन उड़न खटोले
मनि मोतियन रोले

होइब जगत पाप पदासीन | करम बिनु सह धर्म उदासीन || 
नेम नियंतन सो बिनु बाँधे |  गाँठ न पूरे आँखिन आँधे || 

मरयादा न ताहि मन आवा | करिअ चहँ सो जोइ मन भावा || 



जिन हाथों के लोहमयी हल पर..,
चमकते प्रस्वेद कणों के बल पर..,
दसों दिशाएं ज्योतिर होती थीं..,
वो किसान कहो कौन थे..,


जिनके श्रम-बिंदु संच कर धरती.., 
कणिक-कणिका कनकमय करती..,
माणिक मुक्ता माल पिरोती थी..,
वो किसान कहो कौन थे .....