Thursday 16 October 2014

----- ॥ उत्तर-काण्ड २१ ॥ ----

बृहस्पतिवार, १६ अक्तूबर, २०१४                                                                                         

 कहत सुमति हे सुमित्रानंदन । फिरत शर्याति मुनिबर च्यवन ॥ 
पानि ग्रहन करि भयउ बिबाहू । नृपु कनिआँ कर मुनि भए नाहू ॥ 
सुमति  ने कहा : - हे सुमित्रानंदन इस प्रकार राजा शर्याति अपनी राज धानी लौट गए । पाणिग्रहण कर विवाह संपन्न  हुवा और राजा शर्याति की सुकुंवारी कन्या को मुनिवर च्यवन पति रूप में प्राप्त हुवे । 

बहुरि निज परिनीता प्रसंगे । बसिहि कुटी बहुंतहि सुख संगे ॥ 
मान मुनि सुकनिआ पति देबा । भाउ पूरित करिअ नित सेबा ।। 
 अब वह अपनी अर्धांगिनी संग  कुटीर में सुखपूर्वक निवास करने लगे  ।  सुकन्या भी वयोवृद्ध ऋषि पति को  देवता मान  भाव से परिपूर्ण होकर उनकी  सेवा में अनुरत रहती ॥ 

जद्यपि मुनि रहि लोचन हीना । बय संपन जुवपन सन दीना ॥ 
तद्यपि दंपति रहि अस संगे । रहसि सची जस नाथ प्रसंगे  ॥ 
यद्यपि मुनिवर दृष्टिहीन, आयु से सम्पन व् यौवन  से दरिद्र थे । तथापि  वे दंपति ऐसे संगमित रहते जैसे शची इंद्र की सेवा में तत्पर होकर प्रसन्नता प्राप्त करती हो ॥ 
एक तो सती तापर सुन्दरी । सुकोमल अधर मृदु बानि धरी ॥ 
सेवत पत रागी भाउ जगे । संगिनि संगि प्रिय प्रीतम लगे ॥ 
 एक तो पतिव्रता उसपर लावण्य श्री सुकोमल अधरों पर मृदुल वाणी । नित्य सुश्रुता करते पतिदेव के भी पत्नी के  प्रति अनुरागी भाव जागृत हो उठा संगिनी को संगी प्रियतम के सदृश्य प्रतीत होने लगा ॥ 

प्रेमबती पुत्लिका के, प्रीतम प्रान अधार । 
गहन मनोभाउ लिए रहि, तपबल के भंडार ॥    
प्रेमिका प्रेमपुत्लिका हैं प्रियतम प्राण आधार हैं । जो गंभीर मनोभाव ग्रहण किए तपोबल के भंडारी हैं ॥ 

शुक्रवार, १७ अक्तूबर, २०१४                                                                                               

जान जानि  मुनि मनोभावा  । ध्यान रति गति समुझ सुभावा ॥ 
जुगत सकल सुभ लछन सुभागी । प्रतिछन सेवा मह रहि लागी ॥ 
मुनि के मनोभावों को संज्ञान कर ध्यानस्थ दशा  व्  स्वभाव को समझ कर समस्त शुभ लक्षणों से युक्त मुनिपत्नी प्रतिक्षण पति की सेवा में ही मगन रहती ॥ 

कृसांगि फल कंद मूल खाए  । जब जल पाए तब तीस बुझाए ॥ 
सब दिनु पति आयसु अनुहारी । जेहि कही सिरु ऊपर धारी ॥ 
यद्यपि वह कृशांगि थी तथापि कंद मूल व् फल-फूल का ही आहार करती । जब जल प्राप्त होता  तभी तृष्णा शांत करती । वह सदा पतिदेव की आज्ञा का पालन करती मुनि के मुख का  कहा शीश पर धारण करती , पतिदेव का वाक्य पत्नी के लिए ब्रम्ह वाक्य होता ॥ 

पति  पद पूजत समउ बितावै । सकल बन जीउ ह्रदय लगावै ॥ 
सेवारत चित चेतन जागे । काम क्रोध मद लोभ त्यागे ॥ 
पतिदेव के चरण-वंदन में ही ( अर्थात गृहगृहस्थी में ) समय व्यतीत करती वह वन्य -जीवन को ह्रदय से लगा रखती । सेवा में अभिरत होने के कारण चित्त में विवेक जागृत हो गया इसक सुखद परिणाम यह हुवा कि उसने काम क्रोध लोभ व् मोह का त्याग  कर दिया ॥ 

मन क्रम बचन सील सुभाऊ ।  परिचरिजा सो हे महराऊ ॥ 
करे जतन बहु रखे धिआना । पैह संग तिअ मुनि सुख माना ॥ 
 हे महानुभाव सेवाभिरत वह सेविका मन क्रम एवं वचन एवं शील स्वभाव  से यत्न पूर्वक पति का ध्यान  रखती उस नारी का संग प्राप्त कर मुनिवर भी सुख की अनुभूति करने लगे ॥ 

एहि बिधि बितए सहस बरस, बसत तपोबन धाम । 
परगस बिनु अंतर रखे , कुँअरि निज मनोभाउ ॥ 
इस प्रकार उन दम्पति को तपोभूमि में निवास करते एक सहस्त्र वर्ष व्यतीत हो गए । किंतु सुकुमारी ऋषि पत्नी ने तपस्वी पति  के सम्मुख अपनी कामनाओं  को कभी प्रकट नहीं किया ॥ 

शनिवार, १८ अक्तूबर,२०१४                                                                                                      

देउ  बैद अस्बिनी कुआरे  । पुनि एकु दिन बन कुटी पधारे ॥ 
दंपति आगति बहु सनमाने । पाए पखार बरासन दाने ॥ 
 एक दिन मुनिवर च्यवन की उस वन कुटिया  में देवताओं के वैद्य दोनों अश्विनी  कुमार का आगमन हुवा । दंती ने आगंतुक का बहुंत सम्मान किया । प्रथमतस उनके चरण प्रच्छालन किया तदोपरांत उन्हें आदरपूर्वक उत्तम आसन दिया ॥ 

पूजित सरयाति धिए पदुम कर । पह अरग पाद दोउ रबि कुॅअर ।। 
होए दोउ मन मोदु न थोरा । मीर मनस जल हरष हिलोरा ॥ 
शर्यातिकुमारी के हस्तकमलों से पूजित हो अर्घार्ह प्राप्त कर दोनों कुमार के मन-में अत्यधिक  प्रसन्नता  हुई  ।  जलधि रूपी मन हर्ष रूपी जल-तरंगों से तरंगित हो गया ॥ 

अवनी कर देवन रमझोले। दुहु सुत दत्तचित्त सो बोले ॥ 
हे देई तुअ मांगहु को बर । भिति भय परिहर मुकुत कंठ कर ॥ 
वह धरती के हस्त में नुपुर सदृश जलकण प्रदाय  करने हेतु दोनों कुमार दत्तचित्त से बोले : -- हे देवी तुम अपने अंतर्मन से भय त्याग कर मुक्त कंठ से कोई उत्तम वर मांगो ॥ 

देखि कुँअरि रबि सुत संतोखे । मति सरनि मँग मनोगति पोषे ॥ 
लच्छ करति लखि पति देबा । संतोख जोग जो मम सेबा  ॥ 
सुकन्या ने जब उन दोनों कुमारों को अपनी सुश्रूषा से संतुष्ट पाया तब उसकी मति मार्ग में वर मांगने की इच्छा को गति प्राप्त हो गई ॥ तब उसने अपने पतिदेव को अभिलक्षित करते  हुवे कहा : -- हे अश्विनी कुमार यदि मेरी सेवा संतोषजनक़  है : -- 

डीठि बिहीन मम प्रियतम, अह हे दयानिधान ।  
अस कहत कंठ भरि हहरि ,देउ दीठ बरदान  ॥ 
हे दया निधान !  मेरे प्रियतम दृष्टिहीन हैं  आप वर देना चाहते हैं तो कृपाकर आप उन्हें दृष्टि का वरदान दीजिए । कंपवाणी से ऐसा कहते हुवे सुकन्या का कण्ठ भर आया  ॥ 
रविवार, १९ अक्तूबर, २०१४                                                                                                     

सुनि कनी गिरा माँग बिसेखे । अरु पुनि तासु सतीपन देखे ।। 
कहत बैदु जो नाथ तुहारे । देओचित मख भाग हमारे ॥ 
सुकन्या की वांछित अभिलाषा दृष्टिगत कर उसकी इस विशेष याचना के सह अश्विनी पुत्रों ने उसकी सतीत्व के दर्शन करते हुवे कहा : -- हे देवी ! यदि तुम्हारे प्राणाधार हमें यज्ञ का देवोचित भाग अर्पण कर सकें : -- 

मान सहित जो आसन दाहीं  । हमरे तोष नयन निकसाहीं॥ 
 नाथ सौमुह ए कहत बखाने । मुनि भुक देवन सम्मति दाने ॥ 
एवं सादर आसन प्रदान करें तब उनके दिए हुवे सम्मान से प्रसन्न होकर उनकी दृष्टि में दर्शन उत्पन्न कर देंगे ॥ तब सुकन्या ने अपने प्राणाधार से सारा  वृत्तांत  कहा  । तब मुनि ने  यज्ञ  भाक् प्रदान करने की सम्मति दे दी ॥ 

भयउ मुदित अस्बिनी सुत दोउ । कहे तुअ सम जजमान न कोउ ॥ 
मुने अजहुँ सब साज समाजौ । मख करता पद माहि बिराजौ ॥ 
दोनों अश्विनी पुत्र अश्विनी पुत्र  अत्यंत  प्रसन्न हुवे । उन्होंने कहा : -आपके जैसा यज्ञकर्त्ता कदाचित ही कोई होगा ॥ हे मुनिवर ! अब आप यज्ञ संबधी सभी समिधा संकलित कर यज्ञकर्त्ता के पद पर विराजित होइए ॥ 

दरसे देह नारि चहुँ पासा । भयउ बिरधा बयस के ग्रासा ॥ 
अस मह परतापस कृष काई । जोग समिध सुठि भवन रचाईं ॥ 
जिनकी देह की नाड़ियां दर्शित हो रही थीं  नाड़ी देह से प्रतीत हो रहे थे  जो वृद्धवस्था के ग्रास हो चुके थे । ऐसे कृषकाई किन्तु श्रेष्ठ तपस्वी ने समिधाएँ संकलित कर एक  हविर् भवन की रचना की ॥ 

हबि भवन महु रसन जब दाहा । किए निज हुति अरु कहे सुवाहा ॥ 
दोनउ कुँअर संग पैसारे । सुकनिआ तिन्ह चितबत निहारे ॥ 
हवन कुण्ड में जब ह्वीरसन की हूति हो रही थी तब स्वाहा कहते हुवे तपस्वी  यज्ञकर्त्ता ने स्वयं को भी कुण्ड में आहूत कर दिया दोनों अश्विनी कुमार  उसके साथ ही कुण्ड में प्रवेश कर गए, सुकन्या उन्हें चित्रवत निहारती रही ॥ 

प्रगसे तबहि तीनि पुरुख, हबिरु रसन के सोंह । 
तिनहु देहि नयन भिराम, छबि अतिसय मन मोहि ॥ 
तभी  हविर् कुण्ड से तीन पुरुष प्रकट हुवे नयनाभिराम देह लिए उन तीनों पुरुषों की छवि अति मनमोहक थी ॥  सोमवार, २० अक्तूबर, २०१४                                                                                                  

होइहि तीनहुँ एक सम रूपा । वर्चबान रतिनाथ सरूपा ॥ 
 बपुरधर् सुन्दर बसन सँजोहै । कंठ हार कर  कंकन सोहैँ।।  
उन तीनों पुरुषीं का स्वरूप एक जैसा था वे तेजस्वी रति नाथ का साक्षात स्वरूप ही प्रतीत हो रहे थे ॥ शरीर सुन्दर वस्त्रों से युक्त था, कंठ में  कंठश्री व् हस्त-पुच्छ में कंकण सुशोभित हो रहे थे॥  

अभिराम छटा सुहा बिसेखी । सुलोचनि सुकुआँरि जब देखी ॥ 
 भई मति भ्रमित परख न होई । को प्रान नाथ को सुत दोई ॥ 
सुकोमल सुकन्या ने जब उनकी लोचन प्रिय छवि व विशेष शोभा के दर्शन किए तब उसकी छणभर के लिए उसकी बुद्धि भ्रमित हो गई वह परख न पाई कि इन तीनों में उसके नाथ कौन हैं व् अश्विनी कुमार कौन है ॥ 

कुअँर सहुँ जब जाचना कीन्हि । तासु नाथ मुख दरसन दीन्हि  ॥ 
ले अनुमति पुनि सुत दिनमाना । चले सुरग पथ बैस बिमाना ॥ 
सुकन्या ने जब उन कुमारों के सम्मुख याचना की तब उसे उसके नाथ के दर्शन हुवे ॥ तब सूर्य पुत्रों ने आज्ञा ली व् दिव्य विमान में विराजित होकर स्वर्ग पथ को प्रस्थान किए ॥ 

पैह मान  भए मोदु न थोरे । हर्ष बदन दुहु चरन बहोरे ॥ 
अजहुँ भई तिन दृढ़ प्रत्यासा । देहिहि मुनि अवसिहि मख ग्रासा ॥ 
यज्ञ में सामान प्राप्त कर उन्हें परम  हर्ष हुवा हर्षित मुख से दोनों लौट गए । अब उन्हें पूर्णत: विश्वास हो गया था कि  ऋषिवर च्यवनउन्हें वश्य ही यज्ञ में भाग अर्पित करेंगे ॥ 

तदनन्तर केहि अवसर, सरयातिहि मन माह । 
मख अहूत देउ पूजौं , उपजे जे सुठि चाह ॥ 
ततपश्चात किसी समय राजा शर्याति के मन में यह सुन्दर कामना जागृत हुई  कि देव पूजन हेतु क्यों न मैं  एक यज्ञ आहूत करूँ ॥ 

मंगलवार, २१ अक्तूबर, २०१४                                                                                                  

महा जग्य पुनि जोजन ठानै । भवन भवन रच भवन बिहानै ॥ 
मोर पखा के लिखिनी रचाए । पलक पतरी मह बरन सजाए ॥ 
तब महायज्ञ का आयोजन का संकल्प किया भवन भवन में यज्ञ मंडप रचे गए  मोर पंखी लेखनी की रचना कर पलकों सी पत्री में वर्णों का श्रृंगार किया ॥ 

तेहि अवसरु दूत के ताईं । च्यवन मुनिबर बुला पठाईं ॥ 
मुनि मख नेउता पतरी पाए । अर्द्धांगिनि सहित तहँ आए ॥
उस सुअवसर पर दूत व् अभ्युषित भेज कर मुनिवर च्यवन को निमंत्रित किया गया ।  निमंत्रण पत्रिका प्राप्त होते ही मुनिवर सपरिवार वहां पधारे ॥  

तपोचरन कर  पालनहारति  । पाकि सोइ पति पद अनुहारति  ॥ 
जहाँ जुगित बहु जुगल समाजे । सोइ जुगल सिरुमनि सम भ्राजे ॥ 
तपस्वियों के आचार-विचारों का पालन व् अपने स्वामी का अनुशरण करती हुई सुकन्या स्वयं परिपक्व तपस्विनी हो गई थी  । यज्ञ स्थली में बहुंत से युगल दम्पत्तियों का समाज समागम  हुवा वहां वह युगल उनके सिरोमणि के सदृश्य सुशोभित हो रहे थे ॥ 

लगे दुहु जस हंस के जौरा । निरख तिन्ह नृप भए चितभौंरा ॥ 
हो चितबत अरु अपलक देखे । एक पलछिन तिन  किछु नहि लेखे । 
उपस्थित  युगलों में ये हंस युगल से प्रतीत हो रहे थे । जिन्हें देखकर राजा का चित विभ्रमित  हो गया । वे स्तब्ध होकर अपलक  देखते रहे एक पल के लिए उन्हें कुछ न सूझा ॥  

जासु तेज तमहर जस गाढ़े । मम धिअ सन ए कौन हैं ठाढ़े ॥ 
मति पथ बिचरन किए ए बिचारा ।  तबहि कुअँर बढ़ नृप पग धारा ॥ 
मेरी पुत्री के साथ यह कौन है ? जिसका  तेज अन्धकार  के नाशक जैसा तीव्र है ॥ राजन के मति पंथ में यह विचार  विचरण कर ही रहा था  तभी उस कुँअर ने आगे बढ़ते हुवे उनके चरण ग्रहण किए ॥ 


आसीरु  बचन देत सकोचए । धिअ तैं चिंतत पुनि पुनि सोचए ॥ 
अमुदि मुद्रा मुख नयन हिलोले । समऊ जोग धिआ सो बोले ॥ 
आशीर्वाद प्रदान करते हुवे वह संकोच कर अपनी पुत्री के विषय में वारंवार विचार करने लगे ॥ अप्रसन्न मुद्रा में उनके नेत्र  कांपने लगे समय देखकर उन्होंने अपनी पुत्री से प्रश्न किया ॥ 

हे री मोरि सों कहु तौ केहि संग तुअ आन । 
कहँ सबकहुँ बंदनिअ मुनि तुहरे प्रान निधान ॥ 
हे री मेरी बिटिया कहो तो तुम ये किसके साथ आई हो ? जगत वन्दनीय तुम्हारे प्राण निधान कहाँ है ॥ 

बुधवार, २२ अक्तूबर, २०१४                                                                                                        

करेउ रिषि का को छल छाया । आए न मोहि समुझ एहि माया ॥ 
कि तजे जान बिरध पति देबा । करिहहु जार पुरुख के सेबा ॥ 
उस ऋषि  सातयः कोई छल तो नहीं किया यह माया मेरी समझ से परे है  ॥ कहीं तुमने अपने पतिदेव को वृद्ध जान कर उनका त्याग तो नहीं कर दिया और  अब इस जार पुरष की सेवा  कर रही हो ॥ 

लेइँ जनम तुम बर कुल माही । एहि  कारज तुहरे जुग नाही ॥ 
यह कुकरम हा राम दुहाई । री दुनहु कुल नरक लए जाईं ॥ 
तुमने एक उत्तम कुल में जन्म लिया है यह कृत्य तुम्हारे योग्य नहीं था । हे भगवान  ! ये कुकर्म दोनों कुल को नरक में ले जाएगा ॥ 
पालक मुख जब अस उद्भासी  । सुहासिनी धिए मधुर सुहाँसी  ॥ 
कहे ए अबर पुरुख नहि कोई । भृगुनन्दन च्यवन ही होई ॥ 
जब पालक के मुख से ऐसा वक्तव्य उद्भाषित हुवा तब वह सुहासिनी पुत्री हंसकर मधुरतापूर्वक बोली हे तात ! ये कोई अन्य पुरुष नहीं है ये भृगुनन्दन महर्षि च्यवन ही हैं ॥ 

पाए रिषि जस बयस नबिनाई । तदनंतर तात कह सुनाई ॥ 
प्रफुरित  नयन बहु अचरज बस्यो । तात सुता हरिदै लए कस्यो ॥ 
ततपश्चात पिता  को महर्षि की नव अवस्था व् सौंदर्य प्राप्ति का  प्रसंग कह सुनाया । यह श्रवण कर राजा शर्याति के प्रफुल्लित नेत्रों में विस्मय  निवास करने लगा उन्होंने पुत्री को ह्रदय से लगा लिया ॥ 

बहोरि च्यवन जजी भए प्रजा नाथ जजमान । 
तिन्ह हुँत सोमहोम के, करे बृहद अनुठान ॥ 
तत्पश्चात महर्षि च्यवन याज्ञिन हुवे और यज्ञवान प्रजापति के लिए सोम यज्ञ का महा अनुष्ठान किया ॥  

शनिवार, २५  अक्तूबर, २०१४                                                                                              

जद्यपि अस्बिनि तनुभव  दोई । सोम पान के जोग न होई ॥ 
तद्यपि दोउ कर भाग पहि आए  । निज तेज सहुँ रस पान कराए ॥ 
यद्यपि दोनों कुमार सोमपान के अधिकारी  नहीं थे तद्यपि दोनों का भाग निश्चित किया और अपने तेज से निकट आकर दोनों मुनिवर ने दोनों कुमारों को यज्ञामृत  का पान कराया ॥ 

दोउ कुअँर अस्बिनी के आहि । सुर समाज मह गनि तिन्ह नाहि ॥ 
तेहि  दिवस पंगत देवन्हीं । जजमान बर आसन दीन्ही ॥ 
वैद्य होने के कारण अश्विनी कुमारों की देवताओं में गणना नहीं होती थी ॥ उस दिन ब्रम्हाण श्रेष्ठ महर्षि च्यवन ने उन्हें देवताओं की पंक्ति में आबद्ध होने का अधिकार दिया  यज्ञवान ने उन्हें उत्तम आसान प्रदान किया ॥ 

दरस अस भए छुभित सुरनाथा । सकोप लेइ कुलिस धर हाथा ॥ 
मारन कर जैसेउ सहारे   । महर्षि च्यवन घोर हँकारे ॥ 
 यह देखकर देवराज इंद्र क्षुब्ध हो गए व्रज हस्तगत  कर क्रोधवश जैसे ही उनका वध करने हेतु उद्यत हुवे , महर्षि च्यवन ने एक हुंकार भरी : -- 

पुनि बजर बाहु थीर थंभ किए । दरसत जन दीठ दिखाई दिए ॥ 
कि सुरपत बाहु भए जड़वंता । भै का पुनि सुनु भूसुत कंता ॥ 
मुनिवर उस समय उपस्थित महानुभावों के देखते ही देखते महर्षि ने सुरनाथ की वज्रबाहु को स्तभित कर दिया। देवराज की भुजाएं जड़वत  हो गई (शेष जी कहते हैं )हे विप्रवर ! फिर जो घटना हुई उसे सुनो ॥  

घात हुँत बजर धरे जब  भुजा सिखर भए थम्भ । 
तब सुरप के चेत जगे,  किए अस्तुति अरम्भ ॥ 
वध के लिए उठी हुई महर्षि की भुजाएं जब जड़वत हो गई तब देवराज सचेत हुवे और उन्होंने उनकी  स्तुति  प्रारम्भ कर दी ॥ 

रविवार, २६ अक्तूबर, २०१४                                                                                                

कहि सुरपत हे तापस चारी । कोपु के बस भूल भइ भारी ॥ 
अजहुँ मम सोहि होहि न बाधा । छिमा दान जो किए अपराधा ॥ 
सुरपति ने मुनि की स्तुति करते  हुवे कहा  हे तपस्वी ! क्रोधवश मुझसे  अतिशय भूल हो गई आप अश्विनी कुमारों को यज्ञ का अंश अर्पित कीजिए अब कोई गतिरोध न होगा  अज्ञान वश मुझसे जो अपराध हुवा  उस हेतु मैं क्षमा का प्रार्थी हूँ ॥ 

सुर पंगत बर आसन दीजौ । चाहु जिन्ह भुक अर्पन कीजौ ॥ 
होत बिनेबत दुइ कर जोरी ।  छिमा हेतु पुनि दुइ पल होरी ॥ 
जिन्हें आप उचित समझे देवों  की पक्ति में उत्तम आसन प्रदान कर यज्ञ का अंश अर्पण करावें । विनयवत होकर करबद्ध स्वरूप में क्षमा याचना करते फिर सुरपति मौन हो गए ।। 

बजरधर ऐसेउ बोलि पाए ।  महर्षि आपनु छोभ बिसराए ॥ 
जोई बाहु रहइ जड़वंता । भयउ बंध सो मुकुत तुरंता ।। 
वज्रधारी को इस भांति क्षमा याचक जानकर महर्षि ने भी  क्रोध विस्मृत कर दिया । जो भुजाएं जड़वत हो गई थीं वह तत्काल ही बंधन से मुक्त हो गई  ॥ 

 ए दिब दिरिस दरसिहि जो कोई । तिन्हनि बहु कौतूहल होई ।। 
अचरज ऐत कि नयन न समाही । दुर्लभ तपबल सबहि सराही ॥ 
यह दिव्य दृश्य जिस किसी ने भी देखा वह कौतुहल से भर गया विस्मय इतना था कि दृष्टि में समाहित नहीं हो रहा था विप्रवर के इस द्रुर्लभ तपोबल की सभी ने प्रशंसा की ॥ 

तदनन्तर अरि संताप देनधारि महराए । 
भूसुत  के चरनन गहत  नाना बस्तु प्रदाए ॥ 
तदनन्तर शत्रुओं को सन्ताप देने वाले महाराज शर्याति ने विप्र गण के चरणों में प्रणाम अर्पित कर उन्हें बहुंत सा धन दान किया ॥  सोमवार, २७  अक्तूबर, २०१४                                                                                                

भए अस पूरन हवन बिहाना । किए सकुटुम् अवभृथ अस्नाना ॥ 
सुमित्रानंदन रे मम भायो । तुअ जो मम सों पूछ बुझायो ॥ 
इस प्रकार सोमयज्ञ की पूर्णाहुति हुई और राजन ने सकुटुम्ब अवभृथ-स्नान किया ॥ हे भ्राता सुमित्रानंदन उत्सुकतावश तुमने जो जिज्ञासा प्रकट की ॥ 

जेतक मोर लेख महु आइहि  । मम मुख सो सब कहत सुनाइहि ॥ 
होंहि महर्षि तपोबल धामा ।  तिन्हनि सादर करो प्रनामा ॥ 
मेरे मुख ने यथाज्ञान  तुम्हें वह सब कह सुनाया । यह महर्षि तपोबल संपन्न  है तुम इनको सादर प्रणाम करो  ।। 

चरन  परत  बिजयासीर गहौ । महा मख माहि पधारानु कहौ ॥ 
बाँध कथोपकथन के पाँती । कहत अहिपत त्रिमुख एहि भाँती ।। 
इनके चरणों में नमन कर विजयाशीर ग्रहण करो ॥ इस महा यज्ञ में आगमन हेतु प्रार्थना करो ॥ कथोपकथन को पंक्त्तिबद्ध कर अहिराज भगवान शेष ने कहा हे द्विजवर !! 

सत्रुहन सुमति दोउ अनुरागे ।  तपसि के बत कही महि लागे ॥
मेधिआ तुरग ऐतक माही । तपो धाम  के भीत समाही ॥ 
शत्रुध्न एवं सुमति  अनुरागपूर्वक उक्त तपस्वी महात्मा से संबंधित वार्तालाप में मग्न थे इतने में ही वह मेधिय अश्व उस तपोधाम के अंतर में समाहित हो गया ॥ 

कबहु भँवरे भू ऊपर, कबहु उरे आगास । 
अखुआए हरित पात दल  , चरत करत मुख ग्रास ॥  
और मुख के अग्रभाग से दूब के कोमलपत्रों के दलों का ग्रास किए वह कभी भूमि पर भ्रमण करता कभी आकाश में उड्डयन करता प्रतीत होता ॥ 

मंगलवार, २८ अक्तूबर, २०१४                                                                                                      

मुनि ठाउँ निकट निकसिहि जाईं । पिछु चरत सत्रुहनहु पैठाईं ॥ 
बट के तलहट किए तहँ पीठे । सुकनिआ संग महर्षि डीठे ॥ 
इस प्रकार गए निकल कर जब वह मेधिय अश्व आश्रम के निकट पहुंचा तब उसके पीछे-पीछे शत्रुध्न भी च्यमन मुनि के उस शोभायमान आश्रम पर पहुंच गए । 

दरसिहि कस तपोनीठ अनूपा । तिपित तपनोपल के सरूपा ॥ 
आगत सौमुह करत प्रनामा । सुमित्रा सुत कहेउ निज नामा ॥
तपस्या के मूर्तिमान महर्षि च्यमन ऐसे अनुपम दर्शित हो रहे थे जैसे वह तप्त सूर्यकांत मणि का स्वरूप हों । 

दास अरिहंत कहत पुकारे । अह मोरे अभिवादन सकारें  ॥ 
रचत बचन अस परिचय दाईं  । मुनि मैं रघुबर के लघु भाई ॥ 
सुमित्रा नंदन बोले   हे मुनीश्वर !  मेरा अभिवादन स्वीकार कीजिये । और विन्यासित वचनों से अपना परिचय देते हुवे कहा  मैं अयोध्यापति राजा राम चन्द्र का लघु भ्राता हूँ । 

रामानुज दसरथ नंदन एहि  । अस पा परिचय मुनि च्यवन कहि ॥ 
अस्व मेध तैं मैं सब जाना । नरबर हो तुहरे कल्याना ॥ 
यह दशरथ नंदन श्री राम का लघु भ्राता है इस प्रकार शत्रुध्न का परिचय प्राप्त कर महर्षि च्यमन ने कहा । इस मेधिय अश्व के विषय में में भिज्ञ हूँ  'नरश्रेष्ठ शत्रुध्न ! तुम्हारा कल्याण हो ।  

प्रभो मेध अनुठान किए, हेतु जगत उद्धार । 
तुम्हरे कुल कीरत के, होहि अवसि बिस्तार ॥ 
प्रभु श्री राम चन्द्र जी ने जगत उद्धार के हेतु अश्व मेध यज्ञ का अनुष्ठान किया है  इस अश्व के पालन से संसार में अवश्य ही तुम्हारे कुल की कीर्ति का विस्तार होगा । 

बुधवार, २९ अक्तूबर, २०१४                                                                                                   

बसे कुटीरु भूसुत सुबोधे । पुनि महर्षि तिन्हनि सम्बोधे ॥ 
कहे ब्रम्ह रिषिन्हि किछु लेखौ । चित्रित कारु जे अचरज देखौ ॥ 
तत्पश्चात महर्षि च्यमन ने आश्रमवासी सुबुद्ध ब्राम्हणों से संबोधित होकर बोले ब्रम्हार्षियों कुछ समझे  चित्रलिखित करने वाली इस आश्चर्य को तनिक  देखो और विचार करो । 

जासु नाउ सुमिरन भर पावा । पाप समूरी होत नसावा ॥ 
जासु सुरत निज पाप नसावै । कामि पुरुषहु परम गति पावै ॥
जिनके नामों के स्मरण मात्र से मनुष्य के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं । जिनके स्मरण से  लम्पट पुरुष भी अपने पापों को नष्ट कर परम गति को प्राप्त होते हैं । 
जाके चरण कमल कर धूरी । अहिलिआ जड़ता करिहि दूरी ॥ 
परस भई मुनि गौतम नारी । तुरतै गहि रूपु मनोहारी ॥ 
जिनकी चरण-कमलों की धूलि के स्पर्श से श्राप के वशीभूत पाषाण मूर्ति भी मनोहर रूप धारण कर तत्क्षण गौतम मुनि की धर्म पत्नी हो गई । 
सुनहु बचन मम  साधु सुजाना । करिहिं जाग सोई भगवाना ॥ 
रनभुइ दरसत  मनहर रूपा । भए दनु ता सम निगुन सरुपा ॥ 
हे साधू सज्जनों सुनो वही श्री राम भगवान यज्ञ का अनुष्ठान करने वाले हैं । रणभूमि में श्रीराम के मनोहारी रूप के दर्शन करके दैत्य भी  उन्ही के जैसे निर्विकार स्वरूप को प्राप्त हो गए । 

 धरइ जोगिजन जासु ध्याना । भव बंधन तैं छुटै बिहाना ॥ 
पाए परम पद भए बड़ भागा । जगनाथ जो करिहि सो जागा ॥ 
योगीजन जिनका ध्यान करते हुवे अंत में भव बंधन से मुक्त होकर परम पद को प्राप्त हो बड़े भाग्य वाले सिद्ध होते हैं ॥ वह जगत के स्वामी यज्ञ कर रहे हैं । 
 होइहि कस प्रसंग अद्भूता । अहो भाग जौ जगद्बिभूता ॥ 
तासु अनुज मोर पहि आवा । मख कर सादर देइ बुलावा ॥ 
यह कैसा अद्भुद प्रसंग हुवा,  अहो भाग्य !जो श्री राम चंद्र जी जगत  के ईश्वर हैं उनके अनुज का आगमन हुवा और वह मुझे महान यज्ञ हेतु निमंत्रण दे रहे हैं । 

जासु नाउ भर निज मुख धर के । पूजन भजन कीर्तन करके ॥ 
महा पातकी कामग चारी । होए परम गति के अधिकारी ॥
जिनके नामों का उच्चारण मात्र से व् जिनकी पूजा ,भजन व् कीर्तन करके महा पापी व् लम्पट भी परम गति के अधिकार को प्राप्त हो जाते हैं । 
जासु निमेसा  अखि पटल प्रदेसा जलद जल उपमा कहे । 
नासा अति सुन्दर भृकुटि चाप धर छबि मनोहर मुख अहे ॥ 
प्रभु अनुरागी भए सो बड़ भागी जोइ अस झाँकी लखे ।
कहत मुनि रोहि  आनंद बस होहि ब्रम्ह रिषिहु मोर सखे ।। 
जिनके नेत्रों का प्रांत भाग मेघों के जल की समानता करता हो । जिनकी नासिका अति सुन्दर हैं भौंहें कोदंड के सदृश्य अथात विनय  कुछ झुकी हुई है अहा ! जिनका मुख मनोहर छवि लिए हुवे है । हे ब्रह्मर्षियों हे मेरे मित्रों वह अनुरागी भाग्यशाली  है जो प्रभु की ऐसी झांकी  का दर्शन करे इस प्रकार मुनिवर आनंद के वशिभूत होकर भावविभोर हो गए  और कहने लगे : -- 

जिहा हैं फिर सोइ जिहा जो हरि कीरति कारि । 
गहत बिपरीत आचरन, होत सरिस बिषधारि ॥ 
जिह्वा वही जिह्वा है जो है नाम का कीर्तन करे जो इसके विपरीत आचरण करती हो वह विषधर की जिह्वा के समान हैं ॥ 

बृहस्पतिवार, ३० अक्तूबर, २०१४                                                                                                

होत कहत एहि हरष बहूँता । तपसी तप भयो फलि भूता ॥ 
करे मनोरथ मम  मन जोई । नाथ कृपा सों पूरन होई ॥ 
यह कहते हुवे अत्यंत हर्ष होता है कि आज इस तपस्वी को तपस्या का फल प्राप्त हो गया  मेरे  मनोरथ किए थे नाथ  की कृपा से वह पूर्ण हुवे । जाके दरस अस दूर्लभाए । ब्रम्हादि  देवहु दरस न पाए ॥ 
धन्य मैं मख भूमि पधारिहउँ । विभो छबि निज नयन निहारिहउँ ॥ 
जिनके दर्शन ब्रम्हादि देव को भी दुर्लभ हैं । मेरा धन्य भाग मैं  यज्ञ स्थली में पधारूँगा और अपने नेत्रों से विभो की छवि के दर्शन करूँगा । 

तासु चरन रज धर निज सीसा । होइहउँ पबित मुनिरु मनीषा ॥ 
 बिचित्र बार्ता करिहउँ बरनन  । मम रसना होइहिं अति पावन ॥  
हे मनीषी मुनियों उनके चरण -रज को सिरोधार्य कर पवित्र हो जाऊंगा । प्रभु की विचित्र वार्ता का वर्णन से मेरी जिह्वा अत्यंत पवित्र हो जाएगी । 

एहि बिधि महर्षि बातहि लागे । प्रेम भाउ अंतर मन जागे ॥ 
राम चंदु निज चक रूप लही । रघुपति सुधि सहुँ निज सुध न रही ॥ 
इस प्रकार वार्तालाप करते -करते श्री रामचन्द्र जी का स्मरण होने से महर्षि का प्रेमभाव जागृत हो उठा । भगवन राम को चन्द्रमा व् स्वयं की चकोर पक्षी से तुलना करते हुवे रघुपति की संचेतना के सम्मुख  की चेतना विलुप्त सी हो गई । 

गदगद बानि संग निलय भए जस जलद अधार । 
भाउ घन नयन भए गगन, बहि अँसुअन की धार ॥ 
हर्षपूरित वाणी से उनका ह्रदय जैसे महा जलाशय हो गया मानों भावों ने गहन का व् नेत्रों ने गगन का रूप धर लिया  और वह अश्रुधारा बहाने लगे ॥   शुक्रवार, ३१ अक्तूबर, २०१४                                                                                              

भाउ कलित कल कंठ गुहारे । कहाँ अहैं रघुनाथ हमारे ॥ 
जोहत पाहन लोचन हारे ।राम चंदु हे जगद अधारे ॥ 
वे मुनि मंडल के समक्ष अश्रुपूरित कण्ठ से पुकारने लगे  - ' हे श्री रामचंद्र ! हे रघुनाथ ! दयासिंधु हे जगदाधार  ! आपकी प्रतीक्षा करते पाषाण हुवे ये नेत्र अब शिथिल हो चले हैं । 

सुझे न एकउ अंग उपाऊ । रजत मन रथ मनोरथ राऊ ॥  
ऊँच रुचिकर मति भई पोची । प्रभु दरसन बस किछु नहि सोची ॥ 
आपके अतिरिक्त मुझे कोई उपाय नहीं सूझता  मनोरथ रूपी राजा मन रूपी रथ में विराजित हुवा चाहता है । इस नीच बुद्धि की रूचि बहुंत ऊँची है यह आपके दर्शन के अतिरिक्त कुछ अभिलाषा नहीं करती । 

धर्म मूरत मोहि उद्धारो ।  पदुम पलक पत पौर पधारो ॥ 
कहत  ए रिषि भए मगन धिआना । आपन पर के  रहि न ग्याना ॥ 
धीर धुरन्धर धाम मूर्ति हे इस संसार से मेरा उद्धार हो ऐसा प्रयत्न कीजिए पदमिन पलकों के पत्र रूपी द्वार पर  पधारिये । इतना कहते-कहते महर्षि ध्यान मग्न हो गए उन्हें अपने-पराए की सुध न रही । 

सत्रुहन लोचन देखि न जाई । सोच रहे कहुँ का रे भाई ।। 
दुबिध दसा भरि माथ स्वेदा । चार बचन पुनि चरन निबेदे ॥ 
शत्रुध्न के नेत्रों से यह दृश्य देखा न गया वह विचार काने लगे कि अब क्या कहूँ । दुविधा की स्थिति ने मस्तक पर जल कण बिखेर दिए । ततपश्चात कतिपय वचनों को मुनि के चरणों में निवेदन कर कहा : -- 

कहे स्वामि मख हमरे आपनि आन जुहारि । 
दास सहित सकल पुरजन, ठाढ़ि अवध दुआरि ॥  
हे स्वामि ! हमारा यह यज्ञ प्रतिक्षण आपके आगमन की प्रतीक्षा कर रहा है क्या दास क्या पुरजन आपके स्वागत हेतु सभी अवध के द्वार पर उपस्थित हैं ।  शनिवार, ०१ नवम्बर, २०१४                                                                                                         

सर्वात्मनातिथि अनुरागी । रघु बंस तिलक भा बड़ भागी । 
तपसिहि अंतस पबित अबासा । हमरे प्रभु तहाँ किए निवासा ॥ 
हे अर्हत (परम ज्ञानी ) अतिथि हे अनुरागी ! तपस्वियों के अंत:करण एक पवित्र गृह होता है । यह रघु वंश के तिलक श्री राम चंद्र जी का परम सौभाग्य है की वह वहां निवास करते हैं  । 

अस सुन मुनि भए भाउ बिभोरा । सकल अगनि अरु कौटुम जोरे । 
संग सकल तपोनिधि लिए चले । पयादिक जूथ सो लागि भले ॥ 
शत्रुध्न के वचनों को श्रवण कर मुनि भावविह्वल हो गए । अपनी समस्त अग्नियों सहित कुटुम्ब को संकलित किया उन्हें साथ लिए तपोनिहि महर्षि प्रस्थान किए । उक्त पादुकचारी समूह में वह मुनि अतिशय सज्जन प्रतीत हो रहे थे । 

बातज रिषि प्रभु भगता लेखे । चरन रिपुहु अघात जब देखे ।। 
बिनय पूर्णित गिरा मुख लहे । सत्रुहन सों कोमल हरिअ कहे ॥ 
वातज अर्थात वायुपुत्र ने मुनिवर को प्रभु श्रीराम चन्द्र का भक्त जानकर जब उनके चरणों में कंटकों का आघात देखा तब अपने श्रीमुख को विनय वाणी से पूर्णित किया और  शत्रुध्न से उन्मुख होकर कोमल व् मन्द स्वर में बोले : -- 

हो आयसु जो तुहरे भाऊ । रिषन्हि आपनि पुरी लए जाऊँ ॥ 
भयउ मुदित सत्रुहन मन माही । गवनु कहत कहि काहे नाही ॥ 
महोदय ! यदि आपकी आज्ञा हो ऋषि को  मैं स्वयं अपनी पुरी लिए चलता हूँ । वानर वीर के यह वचन श्रवण कर शत्रुध्न  प्रसन्न होते हुवे कहा 'हाँ ! क्यों नहीं अवश्य  लिए चलो ' । 

तब हनुमत मुनिरु सकुटुम्, पिढ़ाए पीठ बिसाल । 
सर्बत्र चारि बहि सोंह, लिए पहुंचे तत्काल ॥ 
तब हनुमान जी ने मुनि को कुटुम्ब सहित अपनी विशाल पीठ पर विराजित किया व् सर्वत्र विचरने वाली वायु की भाँति तत्काल ही अयोध्या पुरी पहुँच गए । 


   
































Friday 3 October 2014

----- ॥ उत्तर-काण्ड २० ॥ ----

शुक्रवार, ०३ अक्तूबर, २०१४                                                                                               

सकल रच्छक सह चले पीठे । तीरहि तीर तपो भुइ  डीठे ॥ 
कुंजरासन कुसा के छाईं । मुनि मनीषि दृग देइ दिखाईं ॥ 
 समस्त योद्धा साथ देते उनके पीछे चल रहे थे । पथ के तीर तीर तपोभूमि दृश्यमान हो रही थी ॥ पीपल के पेड़  एवं कुश की छाया किए मुनि मनीषी दृष्टिगत हो रहे थे ॥ 

रघुनाथ के कीरत अगाने । सकल जुजुधान सुनत पयाने ॥ 
हितकृत गिरा जहँ दिए सुनाई । यह जग्य के है चलिहि जाईं ॥ 
समस्त योद्धा उनके श्री मुख से रघुनाथ जी की  कीर्ति - व्याख्यान सुनते जा रहे थे ॥ जहां यह कल्याण कारी वाणी सुनाई दे रही थी कि  श्रीराम चन्द्रजी  के द्वारा त्यागा गया मेधीय अश्व है जो बढ़ता ही चला जा रहा है इसे हनन करने का साहस किसी में नहीं है ॥ 

श्री हरिहि के अंस अवतारा । रामानुज रिपुहंत द्वारा ॥ 
रच्छितमान जोइ चहु फेरे । बीर बानर बीथि  के घेरे ॥ 
यह श्रीहरिः के अंशावतार श्रीराम के अनुज शत्रुध्न द्वारा चारों ओर से रक्षित है उसपर वीर वानरों की  पंक्तियों  का व्यूह है ॥  

जासु रति हरि चरनिन्हि रागी । चित के बृत्ति भजन मह लागी ॥ 
तासु  निगदन श्रवन श्रुत साधन । भए तोषित सत्रुहन मन ही मन ॥ 
जिनकी अनुरक्ति हरि चरणों को  अलक्तक करती हैं एवं जिनकी चित्त की वृत्ति सदा हरि भजन में ही लगी रहती  । उन मुनि मनीषा के  कथन अपने श्रुति साधनों से श्रवण कर भ्राता शत्रुध्न मन ही मन संतुष्ट होकर : -- 

अगत कहत पथ चिन्हिनि लेखे ।अगहुँन एक सुचि आश्रम देखे ॥ 
जोइ रहही अतिसय बिसेखा । बेद बचन तरु पत पत लेखा ॥ 
आगे बढ़ो : -- ऐसा कहते पथ में चिन्ह अंकित करते जा रहे थे । आगे उन्होंने एक अलौकिक आश्रम  देखा ॥ जो सभी आश्रमों में विशिष्ट आश्रम था  । जहां पत्र पत्र पर वेद वाक्य लिखे थे ॥ 

 अंग अंग धूनि मै हो जहँ गुंजहि चहुँ पास । 
घट घट हित के बास कर, करे अहित के नास ॥ 
वेद के अंग अंग ध्वनिाय होकर दसों दिशाओं में गुंजायमान थे । जो घट घट में अभ्युदय  का वास कर अहितकारी शक्तियों को नष्ट कर रहे थे ॥ 

शनिवार ०४ अक्तूबर, २०१४                                                                                                           

जहँ मुनि मनीष परम प्रबेका । रचे हबिर गह अनेकनेका ॥ 
दसहुँ दिसि केतन धूम धरिही । प्रान संभृत सुबासित करिहीं ॥ 
 जहां परम श्रेष्ठ मुनि मनीषियों ने अनेकानेक हविर् भवन रच रखे थे । दसों दिशाएं ह्वीरगाग्नि के धूम्र से व्याप्त  थीं जो प्राण वायु को सुवासित कर रही थीं ॥ 

का अवनी  अरु का आगासे । हबिस रसन त्रइ लोक  प्रगासे ॥ 
बयरु भाउ जहँ बरि तिल तिल के । बिल जीवी रहे बिनहि बिल के ॥ 
क्या धरती और क्या अंतरिक्ष हविरशन से तीन लोक प्रकाशित हो रहे थे ॥ कुण्ड में वैमनस्य तिल तिल कर भस्म होता जाता । बिल जीवी बिल हीन हो चले वे निर्भय होकर विचरण करते थे ॥ 

ग्रासे न कोउ मीच अकाला । राखैं गोकुल जहाँ ब्याला ॥ 
सरिसर्प रहे मोर प्रसंगा । खेली करत नेवला संगा ॥ 
अकाल मृत्यु का कोई भी ग्रास नहीं बनता था । हिंसक पशु जहां गौ वंश की रक्षा करते थे ॥ सृसर्प मोरों के प्रसंग में रहते, एवं नेवलों के साथ कौतुक करते ॥ 


गज मृग केसर करे मिताई । सबहीं  बयरु भाउ बिसराईं ॥ 
जल थल गगन बिहरे बिहागे । काहू के संग भय नहि लागे ॥ 
हिरन कुंजर व् सिंह में परस्पर मित्रता होती । सभी ने जैसे द्वेस भाव को त्याग दिया था ॥ पक्षी वहां गगन सहित जल थल में भी विहार करते । उन्हें किसी से भी भय नहीं लगता ॥ 

हिरनै लोचन हरितक ताके ।चतुस्तनि जहँ चले चरबाँके । 
ग्रास ग्रास रस अमरित भरिहीं । थन मंडल तट घट कृति धरिहीं  ॥ 
हरी हरी घाँस स्वयं हिरणों के लोचनों को ताका  करती कि वे कब हमें ग्रास बनाएं । जहाँ गौवें  स्वछंद विचरण किया करती थी उनके  ग्रासों में अमृत का वास था उनके  थन एवं उसके तट मण्डलित होकर जैसे कुम्भाकृति के हो गए थे ॥ 

तासु चरनन धूरि संग, भूमि भयउ भरतारि । 
निग्रह हविष्वती सरूप , कामन पूरन कारि ॥ 
उनकी चरणधूलिका के संग धरणी भी  धात्री  हो गई थी । उन गौवेंका श्रीनिग्रह  हविष्मती का स्वरूप होकर  सम्पूर्ण कामनाओं  को पूर्ण करने वाला था ॥ 

रविवार, ०५ अक्तूबर, २०१४                                                                                             

 मुनि मनीषि कर समिधा धारे । कुंड कुंड हबनायुस सारे ॥ 
नित्य नैमितक करम बिधाना । तपोबन किए जोग अनुठाना ॥ 
मुनि मनीषियों के हस्त समिंधन से सुशोभित थे । समस्त हविर् कुण्ड हवन द्रव्य से युक्त थे  । शास्त्राचारियों ने धार्मिक क्रियाओं द्वारा उस तपोभूमि को अनुष्ठान के योग बना रखा था ॥ 

सत्रुहन अस आश्रमु जब पेखे । श्रीराम सचिव सो पूछ देखे ॥ 
सूर अलोक सौम अति सुन्दर । रमनइ रयन बरसें सुधाकर ॥ 
भ्राता सह्त्रुध्न ने जब ऐसा पावन आश्रम देखा तब श्रीरामचन्द्र जी के सभा सचिव सुमति से पूछा । मान्यवर ! सूर्यालोक की सौम्यता जिसे अतिशय सौंदर्य प्रदान किए है जहाँ जब सुधा की वर्षा होती है तब रयन परिभ्रमण किया करती है ॥ 

जासु प्रभा दीपित राका सी । पल्लबित बिपिन बीथि प्रकासी ॥ 

अलौकिक आश्रमु सौमुँह एहू । कहु त कवन के हे मम नेहू ॥ 
जिसकी प्रदीप्ति पूर्णिमा की सी है जो पल्लवित विपिन के पंथ पंथ को प्रकाशित करती है । ऐसा आलौकिक आश्रम जो सम्मुख दर्शित हो रहा है मेरे स्नेही ! कहो तो वो किसका है ? 

तपसी तपस बिषमता खोई । बयरु ना करहि काहु  न कोई ॥ 
बिहरए गोचर हनन बिहीना । तपस्या फल अभय बर दीना ॥ 
यहाँ तपस्वियों की तपोनिधि के बल से विषमताएं जैसे मिट सी गई हैं कोई किसी से द्वेष नहीं करता। वन गोचर बाधाओं से रहित होकर विहार कर रहे हैं इन तपस्वियों की तपस्या यहाँ फलीभूत है गोचरों को अभय का वर मिला है ॥ 

जहँ लग दीठ तहँ दरसे, मुनि मंडल भरपूर । 
इहाँ विद्वेस भय सोक,  दरस न दूरिहि दूर ॥   
जहाँ तक दृष्टि जाती है वहां तक यह स्थली मनीषियों की मंडलियों से भरी पूरी दर्शित हो रही है । यहाँ विद्वेष, भय, शोक दूर दूर तक कहीं दिखाई नहीं देते ॥

सोमवार, ०६ अक्तूबर, २०१४                                                                                                   

सुमते एहि मोरी अभिलाखा । सुनिहौं मैं मुनिबर सम्भाखा ॥ 
सुनै बचन अतिसय बिद्याधर । जोरत दुहु कर बदने सादर ।। 
हे सुमते ! मेरी यह छोटी सी अभिलाषा है कि मैं मुनिवर का सम्भाषण के श्रुति का प्रसाद  ग्रहण करूँ  ॥ भ्राता शत्रुध्न के वचनों को सुनकर अतिशय विद्या धारी सुमति ने दोनों हाथ जोड़ते हुवे आदर सहित कहा  : --  

जो हमरे दृग दर्सित अहहैं ।  सो कुटीरु च्यवन रिषि रहहैं ॥ 
एहि भुवन तपोनिधि सन सोहहि ।  इहां जंतु मह बयरु न होइहिं ॥ 
महोदय ! हमारी दृष्टि में जो पवित्र कुटीर गोचर हो रही है वहां  महर्षि च्यवन निवास करते हैं ॥जिस भूमि पर यह कुटीर स्थित है वह  भूमि तपस्वियों से सुशोभित है । यहाँ जंतु द्वेष के भाव से शुन्य  हैं ॥ 

महर्षि च्यवन मुनिबर सोई । जासु कथा निगमागम जोईं ॥ 
जेहि मनुसुत सर्याति संगे । मख मह सुरपत मान प्रभंगे ॥ 
यह महर्षि च्यवन वही मुनीश्वर हैं जिनका वृत्तांत निगमागम में वर्णित है ॥ जिन्होंने मनु पुत्र राजा शर्याति के संग महान यज्ञ में इंद्रदेव का अभिमान प्रभञ्जित कर दिया था ॥ 

बुला पठइ अस्बिनी कुमारा । सुरन्हि पंगत मह बैठारे ॥ 
सत्रुहन पुनि पुनि पूछ बुझाई । बहुरि का भयउ रे मम भाई ॥ 
एवं अश्विनी के पुत्रों को देवताओं की पंक्त्ति में आसन दिया ॥ तत्पश्चात भ्राता शत्रुध्न  उत्सुकता वश वारंवार प्रश्न करने लगे यह कहते हुवे कि रे मेरे भ्राता फिर क्या हुवा ।। 

कहत सुमत बिधि बसात, सृष्टि कारु कुल जात । 
एकु महर्षि नाउ भृगु भए जो जग भर बिख्यात ॥ 
तब सुमति ने इस प्रकार उत्तर दिया : -- दैवयोग से सृष्टि कर्त्ता ब्रह्मा जी के कुल जातकों में एक महर्षि हुवे जिनका नाम भृगु है जो जग भर में सुविख्यात हैं ॥ 

मंगलवार, ०७ अक्तूबर, २०१४                                                                                              

एक बासर रिषि समिध सँजोउन । आन सुदूर भीते सघन बन । 
चलिहि मुनि औचक तेहि अवसर । परगसे  दमन नाउ निसाचर ॥ 
जान कहँ ते कवन दिसा सों  । बासर संग गहन निसा सों ॥ 
धरा कि गगन कि सोंह पताला । नग निरझरि सोंह सरि कि ताला ॥ 
एक दिन महर्षि भृगु समिंधन संकलित करने हेतु उसका अन्वेषण करते अपने आश्रम से दूर सघन वन के अंतर में समाहित हो गए ॥ मुनिवर चले जा रहे थे कि तत्समय औचक ही  दिवस से कि गहन निशा से धरती से कि गगन से की पाताल से पर्वत से झरने से की सरिता से की ताल से न  जाने कहाँ से कौन सी दिशा से दमन नाम का एक दानव प्रगट हो गया ॥ 

प्रगस हेतु मुनि जग्य बिनासा ।  दहन देव सों बरत कुभासा  ।।   
बिकराल बचन बोल भयंकर । सो कह चलेसि कहँ मोहि निंदर ॥ 
उसका प्राकट्य ऋषिवर के यज्ञ नष्ट करने के उद्देश्य से हुवा था । वह अग्नि देव को संबधित कर जब यह कहते हुवे कुभाषा का उपयोग करते हुवे करते हुवे  वह विकराल वक्तव्य के सह वह भयंकर  शब्द करते हुवे कहने लगा । मेरी निंदा करते हुवे जो यह ऋषि कहाँ जा रहा है । 

कहँ मख भवन सो अधमि मुनि के  । कहाँ सदन अकल्किता संगिनि के ॥ 
अगन देव निज भय बस जाना । मुनिहि ठिया दनु दरसन दाना ॥ 
उस अधमी मुनि का यज्ञ कुण्ड खान है एव्वं उसकी निष्कलंक संगिनी का सदन कहाँ  है ? ( मुझे तत्काल इसका संज्ञान कराओ ) तब अग्नि देव ने सवयं को भय के वशीभूत जान कर उस दानव को मुनिवर की कुटीर के  दर्शन करा दिए ॥ 

सोइ समउ सो नारि सती । मुनि अंस गहे रहि गर्भवती ॥ 
निसिचर तुरतै आन दुआरी । दन्त अछादन देइ उघारी ॥ 
उस समय वह पतिव्रता नारी महर्षि भृगु का अंश गर्भ में ग्रहण कर गाभिन थी । निशिचर को जैसे ही  महर्षि के सदन स्थली का ज्ञान हुवा वह तत्काल ही वहां पहुँच गया । उसने अपने दन्त आच्छादन का अनावरण कर : --

किए हास भयंकर, डोलिहि भूधर, तोयधि तरंग उछरे । 
खल  कर गहि नारि अबला बेचारि  बहु भाँति बिलाप करे ॥ 
कण्ठन किए भारी, घोर पुकारी, प्रान नाथ तपो निधे  । 
कह त्राहि मम त्राहि अस तलफलाहि अधम तैं साधि न सधे ॥ 
उसने ऐसा भयंकर अट्टाहस किया कि पर्वत डुलने लग गए , सिंधु की तरंगे उछल पड़ी । तब उस दुष्ट के कर पाश में बंधी वह बेचारी अबला नारी बहुंत प्रकार के विलाप करने लगी ॥ उसने भारी कंठ कर वह गहन गुहार लगाने लगी हे प्राणनाथ ! हे तपोनिधि आप कहाँ हो  इस  दानव से मेरी रक्षा करो प्रभु रक्षा करो  इस प्रकार विलाप कराती हुई वह जलहीन मीन के सदृश्य व्याकुल हो गई ऐसी अवस्था में उस दुष्ट दानव से साधी न जा रही थी ॥  

रिषि पतिनी पुकार रही  भरि अति आरत भाउ । 
लीन्हिसि तेहि कंधधरि, अधमी हिंस सुभाउ  ॥ 
महर्षि की पत्नी अत्यंत आर्त भावों से भर कर करुण पुकार कर रही थी । हिंसक स्वभाव वाले उस दुष्ट राक्षस ने उसे कंधे पर उठाया ॥ 

बुधवार, ०८ अक्तूबर, २०१४                                                                                                    

करेसि बिलखत बिबिध बिलापा । भरि मुख भय उर तोयधि तापा ॥ 
भयउ बहिर दनु अस ले धाईं  । बात रूष जस तृन लिए जाईं ॥ 
तब वह बिलखने लगी उसके विलाप में और अधिक विविधता आ गई उसका मुख भय से आक्रांत हो गया जिससे उसका  ह्रदय रूपी सिंधु  से संताप रूपी जल से परिपूर्ण हो गया ॥ आश्रम से बहिर्गमन कर दानव उस सती-साध्वी को कंधे में उठाए ऎसे दौड़ चला   तृण को लिए जैसे कोई अंधड़  दौड़ रहा हो ॥ 

 महनी रिषि के असूरपस्या । भएसि दनुज कर पाँसुल बस्या ॥ 
निगदत सठ  दुर्बादन नाना ।  दुर्बचन सन करे अपमाना ॥ 
महनीय ऋषि की सती-साध्वी दनुज के कर पांशुल के वश में हो गई । वह  दुष्ट बहुंत प्रकार के दुर्वचन कहते हुवे दुष्टत्ता भरे कथनों से उसे अपमानित करने लगा ॥ 

करे सती बिलाप अस भारी । भएउ  चराचर जीउ दुखारी ॥ 
गहन कंठ आरत निह्नादा । ससि कंत मुख भरे अवसादा ॥ 
तब  उस सतीव्रता ने ऐसा भारी विलाप किया की चरचर जगत के जीव संताप से ग्रसित हो गए ।  गहरे कंठ से सहायता हेतु करुण ध्वनि फूट पड़ी उसके शशि के सदृश्य सुकांत मुख अवसाद से भर गया ॥ 

भय भीत होत आकुल होई । गर्भ पतन के कारन जोई ॥ 
गहे अंस छन माहि निपाता । जुगित ज्वाल नयन नउ जाता ॥ 
वह भयके अधीन होकर व्याकुल  हो गई । यह व्याकुलता गर्भ के पतन का कारण  बनी । उसके गर्भ में महर्षि भृगु का जो अंश गृहीत था वह क्षण भर में उसका पतन हो गया । पतित नवजात की दृष्टि ज्वाला से युक्त थी ॥ 

ललाट हलरत ऐसेउ लसे । कि अगनी देउ साखी प्रगसे ॥ 
निरख निसा चर थर थर काँपा । रे दुर्जन कहत देइ सापा । 
वह ललाट पर कपकंपाते उसकी दृष्टि ऐसे प्रदीप्त हुई उस प्रदीप्ति से अग्निदेव साक्षात प्रकट हुवे   । जिसे देखकर वह निशाचर थर थर कांपने लगा । अग्नि एव ने उसे रे दुष्ट कहते हुव यह श्राप दिया : --  

असूरपस्या परस किए, धृष्ट ढीठ रे धूत । 
पोचक पाँवर अजहुँ तुअ, होइहु भस्मी भूत ॥  
कि तुमने एक पतिव्रता नारी का स्पर्श  किया है अरे लज्जाहीन अरे धृष्ट,  धूर्त,  तुच्छ प्राणी रे मूर्ख तुम अब भस्म होकर भूत हो जाओगे  ।। 

बृहस्पतिवार,०९ अक्तूबर,२०१४                                                                                            

इत रिषि तिआ मुख भय ब्यापा । उत पोच दनु  सुरति निज पापा ॥ 
अगन देउ आपन पो पोषा । ब्यापित होत दनु जल सोषा ॥ 
इधर ऋषि पत्नी के मुख पर भय व्याप्त था उधर वह अधम दानव अपने पापों का  स्मरण कर रहा था ॥ अग्नि देव ने अपने स्वत्व को पोषित कर चारों और व्याप्त  होकर फिर उस दानव रूपी जल को शोषित  कर लिया ॥ 

 तप के भए ऐसेउ  प्रतापा  । दानव तन उरि बन भापा ॥ 
मुए बालक जनि किए अँकवारी । करेसि क्रंदन घोर पुकारी ॥ 
उस तपस्विनी की तपस्या का प्रताप कुछ ऐसा था कि दानव की देह जल वाष्प बनकर  उड़ गई  उस दानव का अंत हो गया ॥ ततपश्चात मृत्यु को प्राप्त उस बालक को गोद में  लिए क्रंदन करते  हुवे वह साध्वी घोर पुकार करने लगी ॥ 

भरे मनस जस आश्रमु आई । तासु पीर लिखि बरनि न जाई ।। 
महर्षि बालक गति जब जाना । अग्नि देउ  करतूति नुमाना ॥ 
भरे मन से वह जिस भांति आश्रम में आई उसकी वह पीड़ा वर्णनातीत है ॥ महर्षि  को जब बालक की दशा का संज्ञान हुवा उन्होंने अनुमान लगाया कि यह सब अग्नि  देव का किया धरा है ॥ 

 सोक बिबस मुख भर अति क्रोधा । श्राप देत तिन अस सम्बोधा ॥ 
कहत हारि तुअँ अग्निहि देवा । रिषि मुनि प्रति अहहि ए सेवा  ॥ 
वे शोक के वशीभूत हो गए  उनका मुख क्रोध से भर गया । श्राप देते हुवे वे अग्नि देव से सम्बोधित हुवे  : -- 

रिपु सुमुख घर के भेद, रे खल बोल बताए । 
गर्भ गहि अबला तापर सुरारि देइ चढ़ाए ॥ 
उन्होंने कहा : -- अरे दुष्टात्मा  तुमने शत्रु के समक्ष घर का भेद प्रकट किया एक तो गर्भवती अबला उसपर वहां राक्षस को भेज दिया । 

शुक्रवार, १० अक्तूबर, २०१४                                                                                                         


अस  कह लोहित लोचन लाखी ।  अधुनै हो तुअ सब कछु भाखी ।। 
अगनि देउ तब भयउ दुखारी । हहर मुनिबर चरन लिए धारी ॥ 
ऐसा कहकर महर्षि ने उसे जलती हुई दृष्टि से देखते हुवे कहा : --  अब से तुम सर्वभक्षी हो जाओ ॥ तब अग्नि देव अत्यंत दुखित हो गए भय से कांपते हुवे उन्होंने महर्षि के चरण पकड़ लिए ॥ 

बोलइ बिधूनित बिक्लब बचन ।  दया अरु धरम के सिरु भूषन ।।
मोर सिरु निज कृपा कर धारे । असत भय दनु  भेद दे पारें  ॥ 
कांपते हुवे ही वे भय से पूर्णित नैराश्यपूर्ण वचन कहने लगे ( उन्होंने कहा ) हे दया व् धर्म के शिरोभूषण ।।  म्रेरे शीश पर आपकी कृपा बनी रहे एवं सदैव आपका सदा  हाथ रहे । मैने असत्य के भय से उस राक्षस  को आपकी कुटिया का भेद दे दिया ॥ 

हे मही देउ भाग बिधाता । मैं उतपाती तुम छम दाता ॥ 
अगने याचन दिए जब काना । तरस प्रतापस दया निधाना ॥ 
हे भूमिसुर हे भाग्य विधाता । मैं उत्पाती हूँ आप क्षमा के दातार हैं ॥ जब महर्षि भृगु ने अग्नि देव की याचना को सुना तब उन दया के भंडार व् श्रेष्ठ तपस्वी ने करूँणा  करते हुवे  : -- 

दय द्रवन बस बोले अस बचन । सापित  होत तुअ रहिहु पावन ॥ 
मंगल मय मही देउ बहोरि । नहान पर धरे कुस कर पोरि ॥ 
दया से द्रवित होकर ऐसे वचन कहे : -- हे अग्निदेव ! तुम मेरे शाप से अभिशप्त होते हुवे भी पवित्र रहोगे ॥ तत्पश्चात पृथ्वी के मंगलमय देवता ने स्नान आदि से पवित्र होकर करज में कुश धारण कर : - 

गर्भ निपतित निज पूत के , किए जात संस्कार । 
ते समउ मुनिजन च्यवन, तासु नाउ दिए धार ॥  
गर्भ से निपतित अपने पुत्र का जात-कर्म  संस्कार किया । उस समय गर्भ निपतित होने के कारण  वहां उपस्थित संपूर्ण तपस्वियों ने उस बालक का नामकरण च्यवन के रूप में किया ॥ 

शनिवार, ११ अक्तूबर, २०१४                                                                                                               

सित पख परिबा जस सस गाढ़े । च्यबन रिषि हरिअर तस बाढ़े ॥ 
जुगत बय  जब तनि बाड़ बढ़ाए  । तपस करन पुनि मन माहि आए॥ 
शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि से चन्द्रमा की कांति ज्यूँ ज्यूँ वर्धित होती है । च्यवन ऋषि भी त्यूं त्यूं वयस्कर होने लगे ॥ जब किंचित आयुष्मान होकर वयस्थ हो गए तब उन महर्षि के चित्त में तपस्या करने की अभिलाषा जागृत हुई ॥ 

 होइ जासु जल जीवन दाईं ।  सोइ नर्बदा तीर अवाईं ॥ 
तहाँ करे घन घोर तपस्या । निरंतर दस सहसै बरस्या ॥ 
जिसका पवित्र जल जगत हेतु जीवनद है उसी नर्मदा नदी के तट पर महर्षि का आगमन हुवा ॥ वहां फिर उन्होंने  दस सहस्त्र वर्षों तक निरंतर कठोर तपस्या की ॥ 

बाहु सिखर बिमौट लिए घेरी । संकलित किए मृदा के ढेरी ।।  
ता ऊपर दुइ बिटप बिकासे । पलत पात पथ फुरै पलासे  ।। 
उनकी भुजाओं पर मृदा का संकलन कर ढेरी लगाते हुवे  दीमको ने अपना घर बना लिया ॥ उस घर के ऊपर दो विटप पनप आए । उसपर पल्लव पलने लगे, उसकी शखाओं पर पलाश  के पुष्प फूलने लगे ॥ 

आन हिरन  धर गल गंडा । ले बच्छर सुख रगर प्रगंडा ॥ 
तासु  करनि मुनि भेद न पावैं । तपस मगन किछु नहि सुधियावै ॥ 
हिरण वहां आते अपने कंठ व् गालों को घर्षित कर मुनिवर के बिमौट रूपी देह भवन से वात्सल्य का सुख प्राप्त करते । उनके ऐसे कृत्य से महर्षि अनिभिज्ञ रहते तपस्थ अवस्था में उन्हें कुछ चेत नहीं रहता वे  अविचल भाव से स्थिर रहते ॥ 

एकु समउ के बात अहैं, सकल सँजोउनि साज । 
मनु पुत भूपति सरयाति, कौटुम सहित समाज ॥ 
एक समय की बात है जब मनु पुत्र रजा शर्याति सकल साज सामग्री से युक्त परिवार सहित तैयार होकर : --  रविवार, १२ अक्तूबर, २०१४                                                                                              

तीर्थाटन तरौंस अवाईं । पताकिनिहु पत सन मह आईं ॥ 
हर्षोत्करष मज्जनु कीन्हि । देउ पितरु गन तरपन दीन्हि ॥ 
तीर्थाटन हेतु  नर्मदा नदी के पावन  तट पर आए । चतुरंगिणी सेना भी अपने भूपति के साथ ही थी ॥  हर्ष एवं उत्कर्ष से फिर राजा शर्याति ने नर्मदा में निमज्जन कर अपने  देव व् पितृ जनों को तर्पण किया ॥ 

दान मान बहु बिबिध बिधाने । पेम सहित जाचक कर दाने ॥ 
प्रजापति के रही एक कनिआ । पूर्नेन्दु निभ रूप की धनिआ ॥ 
ततपश्चात  याचिताओं  को प्रेम सहित विभिन्न प्रकार के  दान एवं सम्मान प्रदान किया । उस प्रजापति की एक कन्या थी जो पूर्णिमा के चाँद के जैसे रूप की धनी थी ॥ 

तपित हिरन तन अभरन धारी । सखिन्हि सन बन माहि बिहारी ॥ 
निरखिहि तहँ एक भवन बिमौटा । लागिहि तिन जस परिगत कोटा ॥ 
तप्तवान् स्वर्ण के सदृश्य वपुर्धर में भूषण धारण किए वह सखियों के संग वन में विहार कर रही थी ॥ कि तभी वहां एक वल्मिक भवन दिखाई पड़ा जो किसी परिगत परकोट सा प्रतीत हो रहा था ॥ 

जासु भीत लसि तेजस कैसे ।  रतन जड़ित मनि मंडप जैसे ।। 
भयउ निमीलित रहित निमेखा । जोइ देखि सो रहि उन्मेखा ॥ 
उस भवन की आतंरिक प्रभा ऐसे दीप्त हो रही थी जैसे वह भवन रत्न जड़ित कोई मणि -द्वीप हो ॥ इसे जिस किसी ने भी देखा वह चेतनाहीन होकर निर्निमेष हो गया ॥ 

कौतुहल के बसीभूत, राउ कनी रहि ताक । 
हरिअइ गवनइ तासु पहि, कर धरे एक सलाक ॥ 
कौतुहल के वशीभूत होकर राजा शर्याति की वह कन्या उस भवन को एकटक निहारती रही । फिर वह धीरे से उस के पास गई, उस समय उसके हस्तमुकुल में एक शलाका थी ॥ 

सोमवार, १३ अक्तूबर, २०१४                                                                                                      

तेजस मुख चापत दिए फोड़े । बहि रुधिरु जस बाँध जल छोड़े ॥ 
बहत रकत कुँअरिहि जब देखे । भयउ सुकुअ री  खेद बिसेखा ॥ 
 उस के धारदार मुख से दाब देकर उसने  दीमक के भवन को फोड़ दिया । तब  उस भवन से रक्त-धार  ऐसे फूट पड़ी जैसे कि किसी बांध से जल छूटता हो । रक्त को बहते देख सुकन्या को विशेष खेद हुवा ॥  

दुःख संग  कातर सोक महु भरि ।  मूकबत मौनाबलम्बन धरि ॥ 
ध्वज प्रहरि रत  पत जस काँपी ।   अह !घटे ए का सोच संतापी ॥ 
दुःख से कातर होकर वह शोक संतप्त हो गई , मूकवत् होते हुवे उसने चुप्पी साध ली ॥ इस घटना से आहत होकर वह वायु युक्त पत्र के जैसे कम्पन करने लगी । तथा आह ! ये क्या हो गया यह विचार कर संताप करने लगी ॥ 

अबूझ बयस  बोध अपराधा । केहि सो कहन मह भए बाधा ॥ 
घटे प्रसंग किए न उजागर । तात मात सहुँ  कुँअरी भयकर ॥ 
किसी के सम्मुख अपराध का उद्बोधन करने में उसकी अवयस्क अवस्था बाधा बनी । उसने घटे हुवे प्रसंग को कहीं उजागर नहीं किया । उसे तात-मात से यह सब कहने में भय जनक लगा ॥ 

तेहि अवसर धरा अस हहरी । हलरु तरु साखि पत पत प्रहरी ॥ 
दसों दिसि मौली सिरी रंगे ।  करे रबिहि रथ रजस प्रसंगे ॥ 
उस समय धरती ऐसे कम्पन करने लगी की उसके कम्पन से वृक्ष हिलकोरे लेने लगे पत्ते फड़ फड़ की ध्वनि उत्पन्न करने लगे ॥ 

आतुर बातल किए अस हानी । न जान केत जीवन  नसानी ॥ 
आनि संगि सो करै कलेषा । अभय बसनि पति भए भय भेषा ॥ 
आतुरित अंधड़  ने  ऐसी हानि की कि उससे  कितना ही जीवन  नष्ट हो गया । राजा शर्याति के साथ आए सैनिकों में परस्पर क्लेश होने लगा ॥ निर्भयता का  वस्त्रधारी राजा भय के वेश के वष में हो गया ॥ 

किए उत्पात दीठपात्  भयउ बरन अ क्रांत । 
तासु मन उद्बेग जुगत, किए मलिन मुख कांत ॥ 
इस उत्पात दर्श कर वह भयवेश आक्रांति  के वर्ण का हो गया ॥  उद्वेग से युक्त मन-मानस ने उनके  कांतिवान मुख को भी मलिन  कर दिया था ॥ 

मंगलवार, १४ अक्तूबर,२०१४                                                                                                  

लोगिन्हि राउ पूछत सोधे । किए एहि दूषन कौन प्रबोधें ॥ 
जाने निज कनिआँ करतूती । हृदय भवन  दुःख भरे बहूँती ॥ 
राजा घटना- कर्त्ता के शोधन हेतु जन जन से पूछताछ करने लगे उन्होंने कहा  : --  कहो तो बिमौट भवन के भंजन का दोषी कौन है । जब उनको यह संज्ञान हुव कि उनकी कन्या ही इस कुकृत्य की दोषी हैं, उनक हृदय भवन दुःख से संकुलित हो गया ॥ 

 गयउ सैन सह तपसी  पाहीं । स्तमित नयन जव जल बोहाही ॥ 
 भरे कंठ गुन गावनु लागे  । पाए परस पद तपसी जागे ॥ 
वे सैन्य  सहित तपस्वी मुनि के पास गए । एवं उनके स्तमित नयन से धीरे धीरे अश्रु प्रवाहित होने लगे ।। भरे क्लांत से वे मुंवार की स्तुति गाने लगे ॥ तब चरणों में राजा शर्याति का स्पर्श प्राप्त कर मुनि की तंद्रा जगी ॥ 

श्रुत अस्तुति मुनि नयन प्रफूरे । दया कहत नृप दुहु कर जूरे ॥  
तब कहि मुनि मनीषि भृगु जाता । एहि तुहरे धिअ के उत्पाता ॥
स्तुति श्रवण कर मुनिवर के लोचन प्रसन्नता से खिल गए । नृप ने अवसर जान कर दया हो कहकर दोनों हाथ जोड़ लिए । तब भृगुपुत्र मनीषी च्यवन ने कहा ये तुम्हारी कन्या तो बड़ी उत्पाती है ॥ इसकी कौन सी जाति  है ॥ महाराज स्त्री जाति है ॥ 

बेध पलक मम दीठ प्रभंगे । चापत तेज सलाका संगे ॥ 
घटित प्रसंग तईं सब जानी । जान बूझ तोही भान न दानी ॥ 
अच्छा ! तेज मुखी शलाका से चाप कर इसने मेरी दृष्टि विभंजित कर दी। इस दुर्घटना का उसे पूर्ण संज्ञान है । तथापि जान बूझ कर तुम्हे बोध नहीं कराया ॥ 

 तापसी तन हानि दोष, तुहरे सिरु पर आन । 
अजहुँ हेरत सुजोग बर, दउ सो कनिआँ दान ॥ 
एक तपस्वी के शरीर की हानि का  दोष  तुंम्हारे शीश पर चढ़ गया है । अब तुम कोई सुयोग वर का अन्वेषण कर इस उत्पाती कन्या को उसे दान कर दो ॥ 

बुधवार, १५ अक्तूबर, २०१४                                                                                             

 जो तुअ दानिहु को निज जाता । होहि समन ए सकल उत्पाता ॥ 
बोलि भूप अस बर कहँ हेरें । कहे महर्षि अहहैं बहुतेरे ॥ 
जब तुम अपनी इस कन्या का पाणि किसी सुयोग्य वर को दान करोगे तब यह सभी उत्पात स्वमेव शांत हो जाएंगे । राजन ने कहा : -- हे मुनिवर औचक ऐसा सुयोग्य वर कहाँ ढूंडे । तब महर्षि ने कहा ऐसे वर बहुंत हैं ॥ 

एकु सुकुँअर तुहरे सों होहीं । जोई पानि ग्रहन पथ जोहीं ॥ 
सुनि मुनि बचन राउ दुःख माने । धनु तन धिअ नउ बय संधाने ॥ 
एक सुकुमार तो तुम्हारे सम्मुख विराजित है जो पाणि-ग्रहण हेतु प्रतीक्षारत है । मुनि के ऐसे वचन श्रवण कर राजन 
को बहुंत कष्ट हुवा । धनुष जैसी तनुज और उसपर नवयौवन रूपी सर का संधान ॥ 

अंग अंग जस रसरी कासी  । सब गुन सम्पन अरु मृदु भासी ॥ 
बयो बिरध मुनि अँधरा कूपा । दानिहि तिन निज कनि को भूपा ॥ 
अंग नग ऐसा जैसे उस पर कसी हुई प्रत्यंचा हो जो सर्वगुण सम्पन होते हुवे अति मृदुल भाषी है ॥ और यह मुनि वयोवृद्ध उसपर अँधेरा कुॅंआ । कौन राजन उस कुँए अपनी कन्या को धक्का देगा ॥ अर्थात यह मुनि इस कन्या हेतु  योग्य नहीं है राजा शर्याति के मन ने ऐसा विचार किया ॥ 

कुअँरि कनी पर भय बस नाहा । निरनय अँध रिषि संग बिबाह ॥ 
भूपति पाहन उर पर धारी । पूरनेन्दु मुखि प्रान प्यारी ।। 
किन्तु भय के वशीभूत होकर  राजा ने अंधे ऋषि च्यवन के संग अपनी कन्या का विवाह करने का निर्णय लिया । फिर हृदय पर पत्थर रखकर अपनी पूर्णिमा के विधु के जैसी प्राणों से प्यारी, 

नव पल्लव पुरइन के नाई । धीदा धिअ जब रिषि कर दाईं ॥ 
मुनि रिस परगसि जोइ क्लाँती । भए समन परे सब कहुँ साँती ॥ 
 पद्म पुष्प के नव पल्लव सी उस गुणी कन्या वृद्ध ऋषि  को दान कर दी  । तब मुनिवर के क्रोध के कारणवश जो क्लांति प्रकट हुई थी उसका तत्काल ही शमन हो गया, सभी ओर शांति निवास करने लगी ॥ 

एहि बिधि सरयाति निज धिए दे च्यवन कर दान । 
दुखि मन सन गरुबर चरन , आपनि धानी आन ॥  
इस परकर राजा शर्याति ने कन्या महर्षि च्यवन को सौंप कर दुखित हृदय एवं भारी चरणों के साथ अपनी धानी में लौट आए ॥