Monday 23 July 2018

----- ॥ दोहा-पद २० ॥ -----,

----- || राग -मेघमल्हार || -----
आई रे बरखा पवन हिंडोरे,
छनिक छटा दै घट लग घूँघट स्याम घना पट खोरे |
 छुद्र घंटिका कटि तट सोहे लाल ललामि हिलोरे ||
सजि नव सपत चाँद सी चमकत, लियो पियहि चितचोरे |
भयो अपलक पलक छबि दरसै लेइ हरिदै हिलोरे |
परसि जूँ पिय त छम छम बोले पाँव परे रमझोरे |
दए भुज हारे रूप निहारे नैन सों नैनन जोरे ||
बूँद बूँद बन तन पै बरसे अधर सुधा रस घोरे |
नेह सनेह की झरी लगाए भिँज्यो रे मन मोरे ||
चरन धरे मन मानस उतरे राजत अधर कपोरे |
गगन सदन सुख सय्या साजी जलज झालरी झौंरे ||
सुहाग भरीं विभाबरि सोभा जो कछु कहौं सो थोरे |
नीझरि सी निसि रिस रिस रीते भयउ रे रतिगर थोरे ||







Thursday 12 July 2018

----- ॥ दोहा-पद १९ ॥ -----,

                   ----- ॥ गीतिका ॥ -----
हरिहरि हरिअ पौढ़इयो, जी मोरे ललना को पलन में.,
बल बल भुज बलि जइयो, जी मोरे ललना को पलन में.,

बिढ़वन मंजुल मंजि मंजीरी, 
कुञ्ज निकुंजनु जइयो, जइयो जी मधुकरी केरे बन में..... 

बल बल बौरि घवरि बल्लीरी,
सुठि सुठि सँटियाँ लगइयो लगइयो जी छरहरी रसियन में.....

 पलने में परि पटिया पटीरी, 
बल बल बेलिया बनइयो बनइयो जी मोरे ललना के पलन में..... 

दए दए दसावन ओ री बधूरी , 
सुरभित गंध बसइयो बसइयो जी मोरे ललना के पलन में.....


हरिहरि हरिअ  = धीरे से 
हरुबरि = मंद-मंद 
बिढ़बन = संचय करने 
मंजि-मंजीरी = पुष्प गुच्छ, कोपलें पत्र इत्यादि 
मधुकरी केरे बन = भौंरो के वन में- मधुवन 
बल बल बौरि घवरि बल्लीरी =  आम के बौर से युक्त लतिकाएं । बढ़िया से गुम्फित कर 
पटिया पटीरी =चन्दन की पटनियाँ 
बल बल बेलिया = घुमावदार बेलियां 
दसावन = बिछावन 

Wednesday 11 July 2018

----- ॥ दोहा-पद १८ ॥ -----,


            ----- || राग-बिहाग | -----
बाँध मोहि ए प्रेम के धागे प्यारे पिय पहि खैंचन लागे  |
अँखिया मोरि पियहि को निरखे औरु निरखे नाहि कछु आगे ||
निरखै ज्योंहि पिय तो सकुचै आनि झुकत कपोलन रागे |
ढरती बेला सों मनुहारत  कर जोर मन मिलन छन मागे ||
दिसि दिसि निसि उपरागत जब सखि गै साँझी नभ चंदा जागे | 
मिले दुइ छनहि त कर गहि चुपहि पद चापत पिया लेइ भागे ||
धरे करतल भरे पिय बैंयाँ सब लोकलाज दियो त्यागे |
बँध्यो तन मन पेम के पासु मोरे रोम रोम अनुरागे  ||
चितब रहिउ कहँ पिय मोहि काहु त गिरे पलक पियहि समुहागे |
करनन्हि फूर परस प्रफूरे पैह पिया के अधर परागे ||
लगन मिले ऐसो सजन मिले एहि भा हमरे सौभागे ||

 रैनी द्वार बिराजहि लेइ सुख सौभाग |
सुहासिनि मधुरिम मधुरिम गावत रहि सोहाग ||

भावार्थ = प्रिया कहती है -- देखो ( सखी )ये प्रेम के धागे मुझे प्यारे प्रीतम के पास खैंचने लगे हैं | मेरे नयन प्रीतम को ही देख रहे हैं इन्हे आगे और कुछ भी नहीं दिखाई देता ||  प्रीतम ने ज्योंहि मुझे देखते हुवे देखा तब लज्जावश  नयन झुक आए और  कपोलों को सुरागित कर दिया || ढलती हुई बेला से मनुहार करते मन ने मिलन के क्षण मांगे || संध्यावसान के पश्चात दिशा दिशा में निशा को अरुणिम करते हुवे जब नभ में चंद्रोदयित हुवा तब मिलन के दो क्षण प्राप्त हुवे तब प्रीतम ने चुपके से मेरा हाथ पकड़ा और मुझे दबे पाँव ले भागे || प्रीतम ने सभी लोक मर्यादाओं का त्याग करते हुवे प्रीतम ने करतल धरे जब उन्होंने मुझे भुजाओं में भरा तब हे सखी ! तनमन प्रेम पाश के बंध गए और रोम रोम अनुराग से परिपूरित हो गए  | मुझे क्यूँ देख रही थीं ? जब प्रीतम ने यह पूछा  तो ये पलकें उनके सम्मुख अवनत हो गईं  | प्रीतम के अधर परागों के स्पर्श को प्राप्तकर कर्णफूल जैसे प्रफुल्लित हो उठे | लग्न उदयित हुवे तो ऐसे प्रीतम मिले हे सखी यह मेरा सौभाग्य है |

----- || राग-दरबार || -----
लो फिर हर शै हुई ज़ाहिरॉ.., 
ए चाँद तेरे नूर से..,
अपनी शम्मे-रु को अब..,
मैं किस तरह अर्जे-हाल करूँ..,

शाम ज़रा स्याहे-गूँ तो हो..,
लम्हे भर को तू हिज़ाब कर..,
सिल्के-गौहरे-गुल के दस्त..,
 मैँ ख्वाबे-शब विसाल करूँ.....

Sunday 8 July 2018

----- ॥ दोहा-पद १७ ॥ -----,


साँझ सैँदूरि जोहती पिया मिलन की रैन | 
रीति के बस दिवस भयो भयो प्रीति बस नैन || 

स्वजन सोँहि बैनत गए नैन पिया के पास | 
लखत लजावत पियहि मुख बिथुरी अधर सुहास || 

ना निलयन ते दूर हैं न नैनन ते दूर | 
सौमुख मोरे साँवरे तापर बिरह अपूर || 

हेली मेली मेलि जूँ हेलि मिले पुनि कोइ | 
मिले नहीं पर पिया सहुँ घरी मिलन की दोइ || 

अंजन कू अंजन कियो पलकनि करियो पाति | 
नैना ठहरे बावरे बैने हिय की बाति || 

भावार्थ : - सिन्दूरमयी संध्या प्रियतम के मिलन-रात्रि की प्रतीक्षा में थी  दिवस रीतियों के अधीन तो प्रिया के नेत्र प्रीति के अधीन हो चले थे || १ || स्वजनों से वार्तालाप करते जब प्रीतिपूरित नेत्र प्रियतम के पास गए तब प्रियतम के लज्जाशील मुख-मंडल को देखकर प्रिया के अधरों पर एक मंद हास बिखर गई || २ || न ह्रदय  से दूर थे  न ही नेत्रों से दूर थे प्रियतम  सम्मुख उपस्थित थे तथापि वियोग भरपूर था  || ३ || संगी-साथी  मेल मिलाप कर लौटते तो प्रियतम को फिर कोई और पुकार लेता इस प्रकार दिवसभर में प्रियतम को प्रिया से मिलाप हेतु दो क्षण तक नहीं मिले || ५ || प्रीति की अधीनता ने काजल को मसि व् पलकों को पत्र में परिणित किया और बावरे नैन अंतर्मन की बातों को व्यक्त करते चले गए ( जिसे न जाने कब प्रियतम ने पढ़ लिया )|

Tuesday 3 July 2018

----- ॥ दोहा-पद १६ ॥ -----,

बादहि बादल बजहि बधावा,
पिया भवनन मोदु प्रमोदु मन सावन घन घमंडु भरि छावा | 
मंगल धुनि पूरत अगासा परत रे पनवा माहि घावा  ||   
हेरी माई देउ सगुनिया परिअ दुअरि दुलहिन के पाँवा |  
कंठि हारु कर करिअ निछावरि तृन तोरत सिरु बारि फिरावा ||   
सकल ननदिया आरती करहि पावै सोइ जोइ मनभावा | 
लोक रीति करि पाएँ पखारै दूब पयस मय थार धरावा ||  
छुटत कंगन खोरत कर गाँठि हारत गए पिय खोरि न पावा  |  
दूबि संगत धरेउ बरायन गोतिनि कंगन द्युत खिलावा || 
गह करतल पिय बारहिबारा ,जय पावत मुख बिहँस सुहावा  |  
गावैं जहँ तहँ लोग लुगाई निरख नयन भर पियहि बिहावा || 

भावार्थ : - बादल वादन कर रहे हैं जिसमें 'बधाई' बज रही है | प्रीतम के भवन पर परिजनों के मन में आनंदोल्लास, सावन के मेघों जैसे घुमड़ कर छा रहे हैं | नगाड़ों पर चोट पड़ रही है, मंगल ध्वनि से आकाश परिपूरित हो रहा है | वधु के आगमन का सन्देश देते हुवे देवर ने कहा अरी जननी शगुन दो तुम्हारे द्वार पर दुलहन का आगमन हो रहा है तब  होती जननी बलैयाँ लेती कंठ पर के हार को वधु के शीश पर वार कर न्यौछावरी देती हैं | सभी ननदें वधु की आरती उतारती हैं और रूचि अनुसार भेंट प्राप्त करती हैं | लोक रीति का निर्वहन करते वरवधू का चरण प्रक्षालन किया गया दूर्वा पायस से युक्त थाल सामुख आधरित की गई | सप्त-ग्रंथि पड़े कंगन खोलने के खेल में  प्रीतम की हार होती हैं वह ग्रंथि खोल नहीं पाते | तदनन्तरखोले गए कंगन के छल्ले को दूर्वा के साथ पयस भरी थाल में ज्येष्ठ पत्नी वरवधू को कंगन के पण की क्रीड़ा करवाती हैं | प्रीतम छल्ला न ढूंढ कर वारंवार वधु का करतल ग्रहण करते हैं तथापि उक्त क्रीड़ा में वह विजय प्राप्त करते हैं उनके मुख का सुहास अतिशय सुहावना प्रतीत हो रहा है | प्रियवर के इस विवाह का दर्शन कर नर नारियां उसकी शोभा को जहाँ-तहाँ वर्णन करते हैं | 

पनवा = नगाड़ा 
घावा = चोट 
तृण तोड़ना = बलैया लेना 
बरायन = विवाह के समय दूल्हा-दुल्हन को कंगन के साथ पहनाया जाने वाला छल्ला 
गोतिनि = कुल वधु, जेष्ट की स्त्री 
द्युत = पण