Saturday 26 December 2015

----- ।। उत्तर-काण्ड ४५ ।। -----

शनिवार २६ दिसंबर, २०१५                                                                                           
सदा रघुबर सरन महुँ रहियो । कर छबि नयन चरन रहि गहियो ॥ 
बहोरि  सर्जन के करतारी । जग पालक जग प्रलयंकारी ॥ 
तुम सदैव उन भगवान रघुवीर की शरण में रहना, नेत्रों में उनकी छवि धारण किए सदैव उनके चरण ग्रहण किए रहना तदनन्तर सष्टि के कर्ताधर्ता जगतपालक व् प्रलयंकारी 

उपदेसत अस  सिउ भगवाना । भयउ आपहु अन्तरध्याना ॥ 
एहि बिधि तज सुर नगर निवासा । अनुचर संग चले कैलासा ॥ 
भगवान शंकर ऐसा उपदेश कर स्वयं भी अंतर्ध्यान हो गए | इस प्रकार सुरपुर का निवास त्याग कर  वह अपने अनुचरों के साथ कैलाश को प्रस्थान किए  | 

बहुि बीर मनि भंवर समाना । भगवन पदुम चरन करि ध्याना ॥ 
आपहु लेइ कटक चतुरंगा । चले महबीर सत्रुहन संगा ॥ 
तब वीरमणि ने भ्रमर के समान भगवान के पद्मचरणों का ध्यान किया और  चतुरंगी सेना लिए वह स्वयं भी महावीर हनुमत व् शत्रुध्न के  सहगामी हो गए | 

राम चरित जस सिंधु अपारा ।  एहु एकु तीर तरंगित धारा ॥ 
करत जे जसगान अवगाहीं । गावहि सपेम सुनिहि सुनाहीँ ॥ 
राम चरित्र अपार सिंधु के सादृश्य है यह एक प्रसंग उसके तट की एक तरंगित धारा है | उनका यशोगान करते जो इसका अवगाहन करते हैं व् इस प्रसंग का गायन कर इसे प्रेमपूर्वक सुनते व सुनाते हैं | 

रोग सोक बियोग संग तिन संताप न जोहिं ।  
सिअ राम पेम रस पाए के जीवन रसमय होंहि ॥
उन्हें रोग,शोक, व् वियोग संतप्त नहीं करते सीता राम का प्रेम रस प्राप्तकर उनका जीवन रसमय हो जाता है | 

सोमवार, २८ दिसंबर, २०१५                                                                                      

कहत अहिपत पुनि हे द्विजबर । तदनन्तर सो बाजि मनोहर । 
मोर पंख मनि चँवर सुसोहित । कोटिक समर सूर सों रच्छित ॥ 
अहिपति शेष जी पुनश्च कहते हैं : - तदनन्तर हे द्विजवर ! मोरपंख व् मणियों के चंवर से सुशोभित वह मनोहर अश्व करोड़ो रणवीरों से रच्छित होकर   

भारत के अंते अस्थाना । हेमकूट परबत चलि आना ॥ 
सहस दसह जोजन लमनायो । बिस्तारित चहुँ पास पुरायो ॥ 
 भारत वर्ष के अन्त्यस्थान पर स्थित जगद्विख्यात हेमकूट पर्वत पर आगमित हुवा | इसका विस्तार सहस्त्र दश योजन लम्बाई तक यह चारों दिशाओं में विस्तृत है | 

धातु जुगत सिखि श्रृंग सुसोभा  । रजत संग सुबरन मन लोभा ॥ 
तलहट एकु उद्यान बिसाला । जाके तीर तीर तरुमाला ॥ 
रजत व् स्वर्ण धातु से युक्त श्रृंग से सुशोभित वह मन को लुभाता प्रतीत होता हैं | इसकी तलहटी में एक विशाल उद्यान है जिसके तटवर्ती क्षेत्र वृक्षों की शृंखला शोभायमान  है 

रचे धरा जिमि सिरु कल केसा । मार्जक जस तहँ बाजि प्रबेसा ॥ 
सुनहु महमन तहाँ ता संगा । भए एकु अचरज कारि प्रसंगा ॥ 
इस पर्वत श्रेणी के रूप में मानो धरती ने अपने  शीश पर सुन्दर केश रचना करती प्रतीत हो रही थी |  केशमाराजक का स्वरूप धारण कर वह अश्व  जैसे ही वहां प्रविष्ट हुवा महमना ! सुनो ! उसके साथ  एक विस्मयकारी घटना घटित हुई | 

ताहि कहउँ मैं तोहि सुधीरा । अकस्मात पुनि तासु सरीरा ॥ 
टारे न टरे भए जड़ताई । केहि भाँति नहि चलिहि चलाईं ॥ 
हे सुधीर ! उसे में आपसे कहता हूँ | फिर अकस्मात उसका शरीर जड़ हो गया  विचलित करने पर भी अविचल ही रहा और परिचालन करने पर भी वह किसी भी प्रकार से  परिचालित नहीं हुवा | 

ठाढ़ि तहाँ अविचल तुरग प्रतीति नग संकास । 
 पुकार करतब राखिता गै पुनि सत्रुहन पास ॥ 
जड़ता प्राप्त वह निश्चल अश्व हेमकूट  पर्वत की ही भांति  प्रतीत होने लगा  | अश्व के रक्षक पुकार करते फिर शत्रुध्न के पास गए | 

 जाइ सब बृत्तांत सुनाईं । नहि जानत हम कस गोसाईं ॥ 
भयउ तासु जड़तम सब अंगा । बिचरत गए अह जहाँ तुरंगा ॥ 
वहां जाकर उन्होंने अश्व की निश्चलता का सम्पूर्ण वृतांत का वर्णन कर कहा  स्वामी ! यह कैसे हुवा हमें ज्ञात नहीं, वह अश्व विचरण करते जहाँ गया आह! वहां उसके समस्त अंग स्तब्ध  हो गए | 

ताहि बिचारत किछु बन परि जौ  । जो करि उचित जान सो कीजो ॥ 
सत्रुहन पल्किन पट बिस्तारै । भए चौपट दुहु नयन दुवारे ॥ 
उसका विचार करते हुवे जो युक्ति युक्तिगत हो और जिसे करना उचित हो आप फिर वही कीजिए | (यह  श्रवण कर ) शत्रुध्न के पलक-पट विस्तृत किए तो उनके दोनों नेत्र द्वार उद्धट्टित हो गए 

लिए सहुँ सकल सुभट मुनिराए । तुरतै तासु निकट चली आए ॥ 
सरभस चरत फिरिहि सब देसा । होहि दसा अस रहि न अँदेसा ॥ 
मुनिराज  फिर वह अपने समस्त उत्तम योद्धाओं को संग लिए  तत्काल उस अश्व के निकट गए | जिस अश्व ने ग्रास चरते समस्त देशों में प्रसन्नतापूर्वक विचरण करता रहा उसकी यह दशा होगी ऐसा अंदेशा नहीं था  | 

गहे चरन पुष्कल निज बाही । किए जुगत उपरे न उपराही ॥ 
टारे जब नहि टरे तुरंगा । पूछिहि सत्रुहन सुमतिहि संगा ॥ 
पुष्कल ने अपनी भुजाओं से उसके चरण ग्रहण कर उसे उठाने का प्रयत्न किया किन्तु वह टस से मस न हुवा | तब शत्रुध्न ने सुमति से प्रश्न किया : -- 

होइँहि अस काह कि गहिहि सकल देहि जड़ताए । 
अजहुँ इहाँ मंत्रि बर करि चाहिअ कवन उपाए ॥ 
'मंत्रिवर !ऐसा क्या हुवा कि इसकी समस्त देह अविचल हो गई अब इस स्थित में क्या करना उचित होगा ? 

बुधवार, ३० दिसंबर, २०१५                                                                            

जेहि सों चालक बल बहुराए । महोदय करिहउ सोइ उपाए ॥ 
गतिहि कोउ मत मतिगति तोरे ।  कहे मंत्रि एहि नहि बस मोरे ॥ 
जिस युक्ति से इसका परिचालन बल यथास्थित हो महोदय अब वही उपाय कीजिए | आपकी विचारसरणी में कोई विचरण प्रसारित हो आप उसे कहें अब यह स्थति मेरे वश की नहीं है | 

जानिहुँ मैं प्रभु आँखन देखी । तासों अतीत मोहि न लेखी ॥ 
दरस बिषय होइहिं जग जोहीं । ताहि माहि मोरे गति होंही ॥ 
सुमति ने कहा : -' प्रभु! प्रत्यक्ष घटनाक्रम ही मुझे संज्ञात है इससे परोक्ष मुझे कुछ ज्ञात नहीं  है  इस लोक के प्रत्यक्ष दर्शी विषयों में ही मेरी गति है   | 
हेर फिरत अब सब बन डेरे । चाहिए करि अस रिषि मुनि हेरे ॥ 
जो एहि  जानन महुँ कुसलाता । भई इहाँ अस कस एहि बाता ॥ 
अब हमें वन आश्रमों में ऐसे ऋषि मुनियों की टोह करनी चाहिए जो यह संज्ञान करने में कुशल हो कि यहाँ ऐसी घटना कैसे हुई | 

सत्रुहन पुनि निज अनुचर ताईं । कुसल रिषि मुनि करिअ हेराईं ॥ 
एक अनुचर प्राचिहि दिक् पठाए । चरत सो जोजन भर चलि आए ॥ 
फिर शत्रुध्न ने अपने अनुचरों द्वारा उन कुशल ऋषि मुनियों का शोधन कराया | एक अनुचर को पूर्व दिशा की ओर भेजा वह जब योजन भर की दूरी तक चला आया | 

चलिअ बदन हरखनि पवन बिषाद घन बिथुराइ । 
तहाँ ते एकु अति सुंदर आश्रमु दिए देखाइ ॥ 
एक स्थान पर  मुखमण्डल को हर्षाति पवन ने विषाद के मेघों को छिन्न-भिन्न कर दिया वहां उसे एक अति सुन्दर आश्रम दर्शित हुवा | 

 मानुस सन पसु पाँखि जहाँ के । बिचरहि बैर  भाव बिसरा के  ॥ 
कारन सबहिं  गंगा अस्नाए । तासु सकल अघ गयउ दूराए ॥ 
जहाँ के मनुष्य, पशु-पक्षी सभी वैर विस्मृत कर संग-संग विचरण कर रहे थे |  गंगाजी में स्नान के कारण उन सभी के पाप नष्ट हो गए थे | 

होइहि रुचिर रहस चहुँ फेरे ।  रहि आश्रमु शौनक मुनि केरे ॥  
लिए रनी एहि  बात के हेरा । चरन फेर आइहिं निज डेरा ॥ 
वहां चारों ओर का वातावरण रहस्यमय किन्तु रोचक था  वह सुन्दर आश्रम शौनक मुनि का है इस बात को शोधकर वह योद्धा अपने विश्रामस्थल में लौट आया  | 

 भइ अतिसय बिसमय कर बानी । समाचार जब कहत बखानी ॥ 
अनुचर जैसेउ निगदन कहीँ । हरखिहि सत्रुहन बहु मन मनही ॥ 
यह वृत्तांत कथन करते उसकी वाणी अतिसय विस्मृत हो गई | अनुचर ने जैसे ही अपनी वार्ता समाप्त की शत्रुध्न मन ही मन अत्यंत हर्षित हुवे | 

हनुमन पुष्कलादि लिए संगा । आए मुनिहि पहि तूल तुरंगा ॥ 
गहे चरन सुमिरत श्री रामा । भयउ दंडबत करिहि प्रनामा ॥ 
हनुमंत व् पुष्कलादि योद्धाओं को संग लिए वह मन की गति के समतुल गति से मुनि के पास आए | और भगवान श्रीराम का स्मरण करते हुवे चरण ग्रहण करके उन्हें दंडवत प्रणाम किया | 

बलबन में महा बलबन सत्रुहन आवब जान । 
सौनक किए स्वागत  पाद्यार्ध प्रदान ॥ 
बलियों में महाबली शत्रुध्न का आगमन हुवा संज्ञानकर शौनक मुनि ने पदयार्द्ध आदि से उनका स्वागत किया | 

बृहस्पतिवार, ३१ दिसंबर, २०१५                                                                                

भेंट सपेम  दीन्हि सुआसन । बैठे सब सुनि मुनि अनुसासन ॥ 
किए बिश्राम जब श्रम बहुराई । सकुचत मुनिबर पूछ बुझाईं ॥ 
प्रीतिसहित मिलाप करते मुनि ने उन्हें सुन्दर आसन प्रदान किया फिर आज्ञा प्राप्त कर शत्रुध्न आसान में विराजित हो गए | विश्रामादि के पश्चात जब शिथिलता दूर हो गई तब  मुनिवर ने  संकुचित होते हुवे  प्रश्न किया | 

काँकरि पथ बन भूमि पहारा । करि केहरि सहुँ सरित अपारा ॥ 
काल ब्याल कुरंग बिहंगा । चतुरंगिनी कटकु लिए संगा ॥ 
यह पथरीले पंथ , यह वनभूमि ये पहाड़ हाथी सिंह आदि सहित ये अपार सरिताएं ये काल के समरूप हिंसक पशु  और ये दुष्ट पक्षी | राजन !तुम  चतुरंगिणी सेना को साथ लिए -

घन ते घन बन गोचर जैसे । मारग अगम फिरिहु कहु कैसे ॥ 
धूरि भरे पग  करिहि बखाना । लमाए पंथ  दूर है जाना ॥ 
घन से भी अति घने विपिन के इस दुर्गम मार्ग में वनचरों के समान किस हेतु भ्रमण कर रहे हो | धूलिका से भरे तुम्हारे ये चरण प्रलंबित पंथ  की दूरगामी यात्रा का संकेत कर रहे हैं | 

सुनि सत्रुहन मुनिबर कर बाता ।  हरष तेउ पुलकित भै गाता ॥ 
हिलगिहि तसं पुनि जुग पानी । ए निगदत भई गदगद बानी ॥ 
मुनिवर की वार्ता श्रवण कर हर्ष से उनकी देह पुलकित हो उठी, अपना परिचय देते हुवे फिर वह गदगद वाणी से बोले : --

मुनिबर एकु नीक निकुंज कली कुसुम बिकसाए । 
घुर्मित मोर तुरग तहाँ, अकस्मात् चलि आए ॥ 
'मुनिवर !कुसुम कलियों को विकसित किए यहाँ एक सुन्दर निकुंज है परिभ्र्रमण करात हुवे मेरा अश्व अकस्मात्  वहां चला आया | 

शनिवार २ जनवरी, २०१६                                                                                  

प्रबसित तहँ एकु उपबन तीरा । भयउ तासु जड़वंत सरीरा ॥ 
हमरे मन अतिसय दुःख पाईं ।सूझे  नहि पुनि कोउ उपाई ॥ 
वहां प्रविष्ट होकर एक उपवन के तीर पर उसका शरीर शुन्य हो गया हमारा मन अत्यंत दुखित हो गया | हमें उसे जड़ता से मुक्त करने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था  | 

देखि गात स्तम्भित तुरंगे |  भए सब दीन तासु दुःख संगे । 
हमरे जस बड़ भागि न कोई । दैवात तोर दरसन होईं ॥ 
तुरंग का शरीर स्तंभित देख, उसके दुःख के साथ सभी दुखित हो गए | मुने! हमारे जैसा कोई सौभग्यमान नहीं है जो दैवात ही आपके दर्शन हो गए | 

आरत  अरनव मन अवगाहीं  ।  तरिता बनु तुम कीजौ पाहीं ॥ 
दहे ह्रदय सोच करि दाहा । तासु दसा कहु कारन काहा ॥ 
मन दुःख के समुद्र में अवगाहित हो रहा है आप नौका बनकर हमारी रक्षा कीजिए | तुरग की चिंता दहन  से हमारा ह्रदय  दह रहा है उसकी इस अवस्था का कारण क्या है ? 

यहु संकट मोचित जस होहीं । कहउ सो बिधि कृपाकर मोही ॥ 
सत्रुहन पारिहि पूछि  बिहाना । तब शौनक मुनिबर बिद्बाना ॥ 
यह संकट जैसे उन्मोचित होगा कृपाकर हमें उस विधि का बोध कराइये | शत्रुध्न के इस प्रकार प्रश्न करने पर फिर विद्वान शौनक मुनि ने | 
 दृग द्वारि पट ढार के, छिनुभर् धरे ध्यान । 
तनिक बेर लयलीन रह सकल रहस लिए जान ॥ 
 दृष्टिद्वार को पटाक्षेप कर क्षणभर के लिए ध्यानमग्न हो गए | किंचित समय तक लयलीन रहने के पश्चात उन्हें उक्त अश्व की ऐसी अवस्था का सम्पूर्ण  रहस्य ज्ञात हो गया | 

प्रफुरित होत चकित भए नैना । पुनि सत्रुहन सन बोलिहि बैना ॥  
बैसि संसइत सरि के तीरा ।  सत्रुहन श्रवन होए  गम्भीर ॥ 
उनके नेत्र विस्मय से प्रफुल्लित हो गए फिर वह शत्रुध्न से अश्व के गातस्तम्भ  का कारण कहने लगे |सरिता के तट पर विराजित संशयित शत्रुध्न उसे श्रवण करने के लिए गंभीर हो गए | 

भयउ तुरग कस गात स्तम्भा । कारन किए मुनि कहन अरंभा ॥ 
अहहीं गौड़ नाउ एक देसा । जहँ एकु बहु  रमनीक प्रदेसा ॥ 
उस अश्व का शरीर स्तंभित कैसे हुवा ऊनि ने इसका कारण कहना प्रारम्भ किया : -- ' गौड़ नामक एक देश है जहाँ एक अत्यंत रमणीक प्रदेश है, 

सातिक नामि द्विज तहँ बासिहिं । जसु तेज चहुँ पास प्रकासिहिं ॥ 
करिहीं तप कावेरी कूला । छन पल पहर रयन दिन भूला ॥ 
वहां सात्विक नामक एक ब्राह्मण निवास करते थे जिनके तेज से चारों दिशाएं प्रकाशित रहती थीं, वह कावेरी नदी के तट पर तपस्यारत थे | क्षण, पल, पहर, रयन, दिवस का उन्हें अनुमान ही नहीं था | 

एक दिन पयस दुज पवन पयाएँ । तीजे दिन सो कछुहू न पाए ॥ 
चलिहिं नेम ब्रत तप एहि भाँती । ऐसेउ बिरत रहि दिन राती ॥ 
वह एक दिन जल पान कर तो दूसरे दिन वायु पान करते, तीसरे दिवस वह निराहार ही रहते | उनका नियम व्रत व तप इसी भांति संचालित था उनके अहिर्निश इसी प्रकार से ही व्यतीत हो रहे थे  

सर्ब नासी काल तबहिं, गहे दंड कर पास । 
तपन चरन रत द्विजन्हि गयउ संग लए फाँस ॥  
कि तभी  सबका नाश करने वाला काल, तपस्यारत द्विज को दण्डपाश में फाँस कर अपने साथ ले गए गया | 

सोमवार, ४ जनवरी, २०१६                                                                                  


पहिरत रतन अभूषन नाना । सातिक नामि सो बिप्र बिहाना ॥ 
सोहामान बिमान चढ़ेऊ । मेरु गिरि सिखर गा उतरेऊ ॥ 
तत्पश्चात सात्विक नामक वह ब्राह्मण रत्नाभूषण अभरण किए एक शोभायमान विमान पर आरूढ़ हुवा और वहां से गमन कर वह मेरु गिरी के शिकार पर उतरा | 

जम्बालिनि तहँ  बहि चलि आई । बसिहि तासु तट रिषि मुनिराई ॥ 
तपन चरन  रत मगन ध्याना । रयन रयन दिनु दिनु बिनु  जाना ॥ 
वहां जम्बालिका नामक नदी प्रवाहित होती थी जिसके तट पर ऋषिमुनियों का समुदाय निवास करता था |  रात्रि को रात्रि व् दिवस को दिवस भान किए बिना वह ध्यानमग्न होकर निरंतर तपस्या में अनुरक्त रहते | 

सोए द्विज कीन्हि तहँ बासा । रहिहि अनंदित करिहि निबासा ॥ 
पुनि मनगत अभिलाषा जागे । सुर कामिनि सों बिहरन लागे ॥ 
उसे अपने वास स्थल में परिणित कर वह द्विज भी वहां आनंद पूर्वक निवास करने लगा | फिर मन की गोपित अभिलाषाएं जागृत हो गई वह स्वर्ग अप्सराओं के संग विहार करने लगा | 

कामोन्मत्त मन अस रंगा । बसिहि तहाँ रिसि महरिसि संगा॥ 
किए बर्ताउ न जाइ बखाना । भरे घमन कीन्हि अपमाना ॥ 
कामोन्मत्त होकर उसका मन ऐसा आसक्त हुवा कि वहां निवासित ऋषि मुनियों के साथ उसके द्वारा किया गया व्यवहार अनिर्वचनीय हो गया वह अहंकार से पूरित होकर उन्हें अपमानित करने लगा | 

तासु उद्दंड अजहुँ त बढ़े अधिकाधिकाइ । 
रिषि मुनि हेतु सो ब्रम्हन, भयऊ अति दुःख दाइ ॥ 
अब उसकी उद्दंडता अधिकाधिक बढ़ने लगी, ऋषिमुनियों के लिए वह ब्राह्मण अत्यंत दुःखदायी हो गया | 

मंगलवार, ०५ जनवरी, २०१६                                                                                    

दुखित रिषिहि मन कोपु ब्यापा । रिसत बिप्रन्हि दीन्हि श्रापा ॥ 
काढ़ि बचन मुख पुनि खिसियाईं । होहु कपटी निसाचरु जाई ॥ 
दुखान्वित ऋषि मुनियों के मन में कोप व्याप्त हो गया रुष्ट होकर अंतत: उन्होंने ब्राह्मण को श्राप दे दिया | उनके मुख से ये खीझ कर ये वचन निष्काषित किए : -- 'जा तू कपटी निशाचर हो जा,

तुम्हरे बदन गहे बिकारा । केहु भाँति नहिं जाइ सँवारा ॥ 
सुनिहि श्राप मिटिहि अभिमाना । बिप्रन्हि मन बहुतहि दुःख माना ॥ 
तुम्हारा मुखमण्डल विकार ग्रहण कर ले जो किसी भांति साकारित न हो सके | यह श्राप श्रवण कर ब्राह्मण का अभिमान विलुप्त हो गया और उसका मन संतापित हो उठा | 

जल बिनु बिकल मीन के नाईं । बोले सभीत सीस झुकाईं । 
सयान सुजान दीनदयाला । श्राप अनुगह करिहु कृपाला ॥ 
वह जल विहीन व्याकुल मीन के सदृश्य हो गए  और भयाकुल होते हुवे शीश अवनत कर बोले | ब्रह्मऋषियों ! आप सब अनुभवप्राप्त सुबुद्ध व् दीनों पर दया करने वाले हैं हे करपालु मुनियों! इस श्राप हेतु मुझपर अनुग्रह करें  | 
  मैं लघुबर बड़ मम अपराधा । अपकारत तुम्हहि मैं बाधा ॥ 
अनुग्रह करि तब रिषिहि सयाने । मधुर रूप एहि  बचन बखाने ॥ 
में अंश मात्र हूँ मेरा अपराध नृशंस है बाधक होकर मैने आपका अहित किया | तब उन प्रबुद्ध ऋषियों ने ब्राह्मण पर अनुग्रह करते हुवे ये मधुर वचन उद्भाषित किए : - 
  रघुबर कर तजि तुरग इहँ अइहीं कालहि पाएँ । 
होइहहु तब साप मुकुत करत ए  कछुक उपाएँ ॥  
अवसर को प्राप्त होकर यहाँ रघुवीर का त्यक्त अश्व का आगमन होगा, तब तुम ये कतिपय उपाय करके श्रापमुक्त हो जाओगे  | 

बृहस्पति /शुक्र , ०७/ ०८ जनवरी , २०१६                                                                                     

तेहि औसर त्याजित तुरंगा । करिहु थंभ निज बेगि प्रसंगा ॥ 
सुमधुर राम कथा तब होंही ।मिलिहीँ श्रवन सुअवसर तोहीं ॥ 
उस समय तुम उस त्याजित अश्व को अपने वेग से स्तंभित कर दोगे तब सुमधुर रामकथा होगी और तुम्हें उसके श्रवण का सुअवसर प्राप्त होगा | 

गहे सीस भयंकर श्रापा । होइहि तब तासों उदयापा ॥ 
अस्व गात थंभित जस होईं । करिहि श्रापित राकस सोई ॥ 
तब उससे शीर्षारूढ़ इस भयंकर श्राप का उद्यापन हो जाएगा | अश्व का जिस प्रकार गात्र-स्तम्भ हुवा वह उस श्रापित राक्षस का ही किया-धरा है | 

रिषिहि कहि हरि कीर्तन ताईं  । करिहौ राम कथा सुखदाई ॥ 
लागिहि श्राप कटिहि समूला । होइहिं सकल दसा अनुकूला ॥ 
ऋषियों के कथानुसार अब तुम हरिकीर्तन करते हुवे सुखदायिनी रामकथा का आयोजन करो जिससे उक्त निशाचर पर लगा श्राप समूलोन्मोचित हो जाए | 

रिपुदल बीर दमन करतारी । भए  सत्रुहन मन अचरजु भारी ॥ 
कर्म गति अति गूढ़ गम्भीरा । कहि हरिअर पुनि रन धीरा ॥ 
मुनि का कथन सुनकर शत्रुडक के गंजनों का दमन करने करने वाले शत्रुध्न के मन में अतिसय विस्मय हुवा | कर्म की गति अति गूढ़ व् गंभीर है 

सातिक  नाउ धर ब्रम्हन कर्म संग मुनिराए । 
अमरावती पैठत पुनि लहिहि राकस सुभाए ॥  
मुनीश्वर! सात्त्विक नामक वह ब्राह्मण के कर्म से अमरावती पहुँच कर भी राक्षस स्वभाव को ग्रहण किए रहा | 

कर्मानुसार गति जस होंही । तेहि बरनत कहउ मुनि मोही ॥ 
जेहि करम जस जमपुर लाही । कहिअ बुझाइ मोहि जन ताही ॥ 
कर्मानुसार जैसी गति होती है, मुझसे वह वर्णन कहिए  | जिन कर्मों से यमपुर प्राप्त होता है उसे प्रवचनपूर्वक कहते हुवे आप मेरा प्रबोधन कीजिए |'

बोले मुनि हे हंसकबंसा । धन्य तुम्ह रघुकुल अवतंसा ॥ 
तव बुधि सदा बचन अस बूझिहि । तासु अबर अरु कछु नहि सूझिहि ॥ 
तब मुनि बोले : - हे हंसवंशी ! हे रघुकुल श्रेष्ठ ! तुम धन्य हो | तुम्हारी बुद्धि सदैव इस प्रकार के ज्ञानमयी प्रश्न करती है इससे अन्यथा उसका कहीं ध्यान नहीं होता | 

चाहहु सुनै कर्म गति गूढ़ा । कीन्हिहु प्रस्न मनहु अति मूढ़ा ॥ 
तुम्हहि बिषय बिदित सब होईं । अहहि ताहि संदेहू न कोई ॥ 
तुम कर्म की गूढ़ गति के श्रवण हेतु अभिलाषित हो और मुझसे अबोध स्वरूप प्रश्न कर रहे हो जबकि तुम्हें यह विषय संविदित (पूर्णतया ज्ञात ) है | 

तथापि हित हुँत पूछ बुझाहू । मुनिबर मुनि  पुनि पुनि सुनि चाहू ॥ 
कर्म लेख धरि बिचित्र सरूपा । तेहि के गतिहि गहि बहु रूपा ॥ 
तथापि जनहित हेतु तुम मुझसे प्रश्न कर रहे हो और मुनियों के मुखों से उसे पून:पून: श्रवण करने को आकांक्षित हो | 

तात सुनिहु सादर मन लाईं । सुनिही सो भव मोचन पाईं ॥ 
हे तात ! अब ध्यानस्थ होकर उसे आदरपूर्वक सुनो क्योंकि  जो इस विषय को ध्यानपूर्वक श्रवण करता है वह भवबंधन  से उन्मोचित हो जाता है | 

जो सठ अपकारी परधन पर नारी उपर कुडीठ धरे । 
भोग बुद्धि कर पुनि बरियाई तापर अधिकार करे ॥ 
तासु बाँधि महाबली जम कर  दूत धरी ले जइहीं । 
काल रसी तिन करषत कसी तामसी नरक गिरइहीं ॥ 
जो दुष्ट बुद्धिवाला पुरुष परस्त्री, परधन-सम्पति  पर  कुदृष्टि करते हुवे जगत का अहित करता है और भोगबुद्धि के आशय से उसपर बलपूर्वक अधिकार स्थापित करता है | उसे यमराज के महाबली दूत बंधक बनाकर यमपुरी ले जाते हैं वहां उसे काल-पाश से कसकर फिर खैंचते हुवे तामिस्त्र नामक नरक में निपतित करते हैं | 

जातुहु तब लगि राखिहि जब लगि सहस बरस नहि पुरने । 
गहि कर दंड जमदूत प्रचंड पापकन्हि हनिहि घने ॥ 
पाप भोग तैं एहि बिधि भल भाँति  भोगत सो जातना । 
बाराहु जोनि जनमत पल पल लहे पुनि दुःख दारुना ॥ 
और वहां तबतक तक रखते हैं जबतक एक सहस्त्र वर्ष पूर्ण हों | यमराज के प्रचंड दंडधारी दूत वहां उस पापी को घोर आघात करते हैं | इस प्रकार अपने पापों के भुक्तान स्वरूप वह उस नर्क के यातनाओं को भोगकर वह शूकर की योनि में जन्म लेता है और वहां क्षण-क्षण भयंकर कष्टों को प्राप्त होता है | 

पाए बहुरि मानस जोनिहि क्रमबत सोई पाप करे । 
पुरबल जनम केर कलंक संसूचित चिन्हार धरे ॥ 
जो निज भरिमा भरिमन हुँत करें द्वेष पर प्रानिन्हि से । 
पापभिरत सो पापक निपतत अँध तामसि नरक बसे ॥ 
 अंत में वह मनुष्य योनि को प्राप्त होकर क्रमश: उन्हीं पापों में संलिप्त रहता है | पूर्वजन्म के कलंक को संसूचित करने वाले चिन्हों को धारण किए रहता है | जो अपने  कुटुंब के पालनपोषण हेतु अन्यान्य प्राणियों से द्रोह करता है  पापाभिरत वह पापी निपतित होकर अन्धतामिस्त्र नामक नरक में वास करता है 

जौ परहंता हतिरंता सो रौरव गिरएँ जाइहीं । 
तहँ कोपत रुरु पंखि छिति छत तेहि के देहि खाइहीं ॥ 
निज तात द्रोहि ब्रम्हन बिद्रोहि काल सूत नरक परे । 
लमनत जोइ  सहस दस जोजन खेतायत लग पसरे ॥ 
जो दूसरे प्राणियों की हत्या व् उन्हें हताहत करने में संलिप्त रहते हैं वह रौरव नामक नरक में निपतित होते हैं वहां  रुरु नाम का पक्षी रोष से आपूरित होकर उनके शरीर को परिछिन्न करते हैं | जो अपने मातापिता और ब्राह्मणों के द्रोही हैं उन्हें कालसूत्र नामक नरक निपातित किया जाता है इस नरक का विस्तार दस सहस्त्र योजन के विशाल क्षेत्र में विस्तारित है | 

चतुस्तनी बिद्रोही कर देइ दंड आघात । 
पचइहीं ताहि जमराज किंकर नरक निपात ॥  
जो गौंओं से विद्रोह करता है उसे यमराज दंड का आघात देते हुवे  किंकर नामक नरक में निपातित कर पकाते हैं | 

शनिवार, ०९ जनवरी, २०१५                                                                            

गौ तन रोम बरस गिनि जोरे । पचिहिं तहँ सो समउ न थोरे ॥ 
जोग पुरुख बिनु जो नर नाहू । देइ दंड अन्यानय काहू ॥ 
वह भी अल्प काल तक नहीं अपितु वहां उसे गौओं की देह के रोम को गिनकर उतने वर्षों तक पकाया जाता है | जो  किसी योग्यता रहित पुरुष को अन्यायपूर्वक दंड देता है | 

लोभ बिबस बिप्रन्हि दुःख दाइहिं । सोए नरक सो बहु दुःख पाइहिं ॥ 
तहाँ दूत सठ बदन बराहू । देइ ताहि तस दारुन दाहू ॥ 
और लोभ के वशीभूत किसी विप्र को कष्ट देता है वह भी उसी नरक में कष्ट भुक्तते हैं वहां  वराह मुख के समदृश्य दुष्ट यमदूत उसे वैसी ही असहनीय पीड़ा देते हैं | 

सेष पाप तब कस निबरा हीं । खल जोनिहि जब जनमत जाहीं ॥ 
कहत जति पुनि करम गति आगे । सत्रुहन चेत धरत सुनि लागे ॥ 
उसके शेष पातकों से तब फिर कैसे निवृत्त होते हैं जब वह निकृष्ट योनियों में जन्म लेकर उसके सुख-दुःख को सहते हैं | सचेत स्वरूप में श्रवण करते शत्रुध्न से कर्म गति का सतत व्याख्यान करते मुनिश्री आगे कहते हैं : -

मोह बिबस बिप्रन्हि गउ केरे । जीवन हेतु द्रब्य कर हेरे ॥ 
पठाइ जब परलोक बिधाता । अँधकूप नरक गिराइब जाता ॥ 
'जो मोह के विवश ब्राह्मणों एवं गौओं के जीविका, द्रव्य अथवा धन का हरण करने वालों को विधाता जब परलोक भेजते हैं तब वहां उन्हें अंधकूप नामक नर्क में गिराया जाता है || 
 जो को आपनि लौलुपताईं । जीहातुर मधुरान्न पाईं ॥ 
न त देवन्हि न सुहृदय देहीं। गिरएँ जाइ कृमि भोजन तेहीं ॥ 
जो कोई अपनी लौलुपता से जिह्वा हेतु आतुर होकर स्वयं ही मिष्ठान्न पाता है देवताओं तथा सुहृदयों को नहीं देता वह निश्चय ही कृमिभोजन नामक नरक निपातित किया जाता है | 

सुबरन कर अपहरन करि बिप्रन्हि धन अप हारि । 
संदंस नरक पतत सो भुगतिहि दुःख अति भारि ॥ 
जो मनुष्य स्वर्णादि का अपहरण अथवा ब्राह्मणों के धन की चोरी करता है , वह संदंश नामक नर्क में निपतित होकर वहां के असहनीय दुखों को भुक्तता है | 

मंगलवार, १२ जंनवरी, २०१६                                                                                     


उदरपरायन जो मति मूढ़ा । भरत पुरत निज तन भए बूढ़ा ॥ 
अबरु आप तें जनहि न आनै । लेइ जान जग देइ न जानै ॥ 
जो उदरपरायण होकर केवल अपने शरीर के पोषण में ही अनुरक्त रहता है और स्वयं से अन्यथा किसी से सम्बन्ध नहीं रखते हुवे केवल लेना जानता हो देना नहीं, ऐसा मूढ़बुद्धि मनुष्य 

तप्तक तापित तैल पुरावा । कुम्भी पाक गिरइँ सो जावा ॥ 
पामर पुरुख भोगमति संगा । चाहिँ गमन अगम्या प्रसंगा ॥ 
आतप्त तैल से परिपूर्ण कड़ाई के समदृश्य अत्यंत भयंकर कुम्भीपाक में जा गिरता है | नीमविचारधारा वाले पुरुष अपनी भोगबुद्धि के मोहवश अगम्य स्त्री के साथ प्रसंग करते हैं -

लोहित मूरति दूत तपइहीं  । तासंगत अँकबार करइहीं ॥ 
जो मद उन्मत निज बल ताईं । लंघिहि बेद सेतु बरियाईं ॥ 
उसे यमदूत उसी स्त्री की तापित लौहमई प्रतिमा के संग आलिंगन करवाते हैं | जो अपने बल से मदोन्मत्त होकर वेदों की मर्यादा का बलपूर्वक उल्लंघन करते हैं, 

पयसत रकत अमिष सो खाहीं । बैतरनी अरनी अवगाहीं ॥ 
छूद्र गेहिनि द्विज भए गेही । पुयोद नरकु निपातत तेहीं ॥ 
मृत्यु पश्चात वह वैतरणी नदी में अवगाहित होकर मांस व् रक्त भोजन करते हैं | द्विज होते हुवे जो क्षुद्र की गृहिणी को अपनी भार्या बनाकर जीवन यापन करता है वह पयोद नामक नरक में निपातित होता है | 

दँतुला दूत अस पेरिहि जस पेरन पेराइँ । 
तहाँ केर निबासित काल होतबहुँत दुःख दाइ ॥ 
वह विकराल दंष्ट्रा दूत उसे ऐसे पेरते हैं जैसे जैसे पेरन पेराता हैं वहां का निवासित काल अत्यंत ही दुखदायी होता है |  

शुक्रवार, १५ जनवरी, २०१६                                                                                         

जो धूत कृत कुचाल कुसाजा । लोगन्हि सोंहि करिहि ब्याजा ॥ 
दंभि खल दल दर्प कल ताईं । बैसस नरकहि जाइ गिराई ॥ 
जो धूर्तकृत ,कुचालि, कपटवेशी लोगों से छलपूरित व्यवहार करते हुवे दुष्टों के दल काप्रसंग कर दम्भ अहंकारपुरित वचनों का आश्रय लेते हैं वह वैशस नामक नर्क में गिरते हैं | 

सबरनी जोनि बीर त्याजिहि । अस पामर सहुँ लाजहु लाजिहि ॥ 
बीरहि कुण्ड सो जाए गिराए । पयसन छाँड़ि तिन बीर पियाएँ ॥ 
जो समानगोत्र वाली स्त्री जननेंद्रिय में वीर्यपात करते हैं ऐसे मूढ़ के सम्मुख स्वयं लज्जा भी लज्जित होती है और उसे वीर्य कुंड में गिराया जाता है जहाँ उसे जल की अपेक्षा वीर्यपान करके ही नर्क भोगना पड़ता है | 

जो खल जल जल लाग लगावैं । देइ गरल धन द्रव्य चुरावैं ॥ 
महपापक अपहारिहि गाँवा । सारमयादन सो गिरि आवा ॥ 
जो दुष्ट ईर्ष्यावश आग लगाते है जो विष देनेवाले हैं जो दूसरों के द्रव्य का अपहरण करते हैं और गावों को लूटने वाले हैं वह महापातकी जीव 'सारमेयादन'नामक में गिराए जाते हैं | 

करिहि संचय पाप कर रासी । बोले असाँच बहुंत सुपासी ॥ 
देइ अधमी असाँची साखिहि । अबीचि नरक जम तिन्ह राखिहि ॥ 
जो पाप की राशि का संचय करते हैं और विश्रामपूर्वक असत्यभाषण करते हैं, जो असत्य के साक्षी होते हैं उन्हें यमराज अवीचि नामक नरक में रखते हैं | 

धरत केस करषन करत नीच सीस करि डारि । 
कललत कलपत तहाँगत भुगत दुखारत भारि ॥ 
उसके केश धारण कर उसे खैंचते हुवे उक्त नरक में पतित किया जाता है वहां वह जीव जलनयुक्त पीड़ा से त्रस्त होकर विलाप करते हुवे भारी दुःख व् कष्टों को सहता है | 

Wednesday 23 December 2015

----- ॥ टिप्पणी ९ ॥ -----

>> राजू : -- हगने की कहीं प्रतियोगिता हो तो ये हगरू प्रथम स्थान प्राप्त  करेगा.....

>> ग़रज़ी गराँ कीमती उस चीज का क्या कीजिये,
        मिले जो गरीबे-ग़म से गुज़रने के बाद ही.....

>>  अधिकोषों ( बैंक ) में संचित हमारा धन लेकर भगोड़े उद्योगपति  नहीं भागेंगे इसकी क्या गारंटी है ?
धनादेश से भुगतान की अनिवार्यता समाप्त की जाए.....

कर चोरों और ऋण खोरों को विदेश भगाने में सभी सत्ताधारी मास्टर हैं.....जहाँ  सांसद ही देश का धन लेकर विदेश भाग रहे हों वहां कौन सा तंत्र होगा.....?

>> राष्ट्र-पुत्र बना देना चाहिए इस कार्टूनिष्ट को, जिन्हें माता से भय लगता हो आजकल ऐसे सपूत मिलते कहाँ हैं.....
>> पर्यावरण असंतुलन व् बढ़ते प्रदूषण के धक्के से ही विगत कई पी- एम. असाध्य रोगों से पीड़ित होकर गिरे और खटिया पकड़ के उठे, एक तो अब तक नहीं उठे हैं ।  ये भी चुन ले कि किस खटिया में गिरना है.....

>> आओ हम देसी गायों का पालन पोषण कर उसे किसी निर्धन निर्व्यसनी गोपाल को प्रदान करें,स्वयं के सह  देश को स्वस्थ् व् सुपोषित करने का संकल्प लें.....

राजू : -- और संसद के भोजन का क्या ? बनाने वाले जाने उसमें क्या क्या करते होंगे.....


>> मैने एक दूधवाली वाली से बोला संसद में बैठकर दही खाना कितना सरल है और गांय पालना कितना कठीन है, तो उसने कहा सरलता से प्राप्त हुवा दूध असली नहीं होता, होगी वो कुत्ते- बिल्लियों के दूध की दही.....

>> जनादेश की धज्जियाँ उड़ाती हुई संसद है ये.....

>> किसी चिटफंड कम्पनी के जैसे काम करती हुई सरकार,
     जन- साधारण का पैसा सकेल कर पांच साल में चम्पत होने वाली सरकार,
     यदि संसद में बैठकर उद्योग पतियों के हित में नियम बनाकर नीतियां निर्धारित करेगी तो कोई मानेगा.....? 

राजू : -- हाँ बजट भी यद्योगपतियों के हित में ही बनाएगी और किसानों के हित में दिखाएगी, चिटफंड के पैसे कोई उद्योग पति ही बनता है किसान नहीं इसीलिए.....  

>> मुल्क रियाज़त से बना करते हैं सियासत से नहीं..... सियासत बने मुल्क मुल्क नहीं होते..... 

>> राजू : - हाँ तो ! सत्ता के लालचियों द्वारा खेंची गई सीमा रेखाओं को कौन मानता है..... 

>> मिनिस्टर राजू : -- खोली है जो खाली हो जाएगी.....? 

 " उधर देख " 

मिनिस्टर राजू : -- किधर ? 

" उत्त्तर भारत की ओर.....देख खोली कैसे खाली हो रही है म्लेच्छ की नहीं.....भारत की 
क्यों ? क्योंकि सेना भारतीय नहीं है...... 

>> यदि सैन्यायुध कबाड़ न होते सैनिक कबाड़ी न होते, सेना भारतीय होती तब न केवल विभाजित भारत प्रत्युत शेष भारत भी म्लेच्छों से मुक्त हो गया होता..... 

>> गोरे नील की खेती को विवश करते थे, काले बिजली की खेती को विवश करते हैं और किसानों से खेत छीन कर उन्हें उद्योगों के बंधुआ श्रमिक होने पर विवश करते हैं, आज साप्ताहिक हाट में एक नई साड़ी मात्र इकत्तीस रूपए में उपलब्ध है और दाल डेड सौ रूपए प्रति किलो में, क्यों? क्योंकि उद्योगों को बिजली रेवड़ी जैसे बाँटी जा रही है , चोरी से दी जा रही है, श्रमिकों का शोषण  हो रहां है उद्योगों के टैक्स का अता-पता नहीं..... 

>> तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूंगा, तुम मुझे बड़ा हाऊस दो मैं तुम्हें धंधा दूँगा, तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हें ढेंगा दूगा..... 

इस लेन-देन की कुत्सित मानसिकता ने भारत को सवतंत्र होने ही नहीं दिया, पंद्रह अगस्त ने जहां  जनांदोलन का  दमन कर दिया वहीँ छब्बीस जनवरी ने भारत को दास बनाए रखा । 


>> राजू : -- हाँ ! इसके जैसे तो कुत्ते-बिल्ली भी नहीं लड़ते 
             कल मटर के छिलके से झाँक के टर्र टर्र करता बोला मेरी पुनर्जन्म की कहानी सुनाओ न.....

मैं बोला पहले ये बता तू इस ग्रीन हाऊस में कैसे पहुँचा.....वो बोला यही तो कहानी है.....


>>  राजू : - मास्टर जी ! आप महात्मा काहे नहीं बन जाते..... ? 

" बन तो जाऊँ पर बड़ा हाऊस कौन देगा.....? 

राजू : -- मास्टर जी ! इंटरनेट में सेयर कीजिए न वहाँ देने वाले बहुंत हैं..... 
>> तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूंगा, तुम मुझे बड़ा हाऊस दो मैं तुम्हें धंधा दूँगा, तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हें ढेंगा दूगा..... 

इस लेन-देन की कुत्सित मानसिकता ने भारत को सवतंत्र होने ही नहीं दिया, पंद्रह अगस्त ने जहां  जनांदोलन का  दमन कर दिया वहीँ छब्बीस जनवरी ने भारत को दास बनाए रखा । 
>> बहुत से फूल वाले ने यो भी बेरो कोणी कि उनको रतन जीवित भी सै की नहीं, समृति में कार्यक्रम आयोजित हो रिया था । भई दो चार फोटो सोटो दिखाओ और वस्तु स्थिति से अवगत कराओ..... 

औरों को लकवा आ आ कर मारता है, ये 'फूल' वाले लकवे को जा जा के मारते हैं , लगे तो गी ही.....

>> जाति क्या है इस भू. पू. प्रधानमंत्री की.....?

लड़का जब " आवारा गेंद" हो जाए तो वो मोटरसाइकिल उठाए फिरता है,
और कोई प्रधानमंत्री जब " आवारा गेंद" हो जाए तो वह हवाई जहाज उठाए फिरता है.....

हत्यारा डाकू धरे डाकू पकड़े चोर । 
पकड़ो पकड़ो चोर कह चोर मचावै सोर ॥ 

राजू : - सोर नहीं बाबा श्योर श्योर,

" ये शोर वाला शोर है "
राजू : - ये श्योर है
,तेरे को ज्यास्ती आता है

नई तेरे को आता है

पंजे छक्के कहीं के

चुप बे फूल

" बैठ जाओ.....बैठ जाओ.....
हराम खोर सहिंष्णु बन.....
अच्छा तू बना दे.....
ये भी कोई तरीका है.....
ये हमारी राष्टीय माँ  है.....
अच्छा फिर दादा कौन है.....
ये ले कुर्सी.....
ये ले अंडे.....
ये ले ये ले.....

सेवक स्वामि सबहि कू, पेट भरन सो काज । 
घुप अँधेरी नगरी में अनजाने करि राज ॥  
भावार्थ : - जहां सेवक हो अथवा स्वामी सभी स्वार्थ के परायण होकर अपने पेट की चिंता में ही लगे रहते हैं वहां नीति व् नियमों के अभाव में फिर पराए का शासन हो जाता है ॥ 













Wednesday 9 December 2015

----- ।। उत्तर-काण्ड ४४ ।। -----

सोमवार ०७ दिसंबर,२०१५ 

बहुरि जानकी रमन के हेता । लए औषध आइहिं रन खेता ॥ 
औषध सहित गयउ जब आवा । निरखत हनुमत सब सुख पावा ॥ 
फिर जानकी रमण श्रीराम के शुभेक्षु औषधि लिए रणक्षेत्र में आए | हनुमान जी औषधि सहित लौ आए यह दर्शकर सभी सुखी हो गए | 

भेंट तासु रिपु हो कि मिताईं । साधु साधु कह करिहिं बड़ाईं ॥ 
कपि गण महुँ अद्भुद कपि मानिहि । बली महुँ महबली पद दानिहि ॥ 
मित्र हो अथवा शत्रु उनसे भेंट कर साधु साधु कहते हुवे सभी उनकी प्रसंशा करने लगे | कपिगणों में उन्हें अद्भुत कपि मान और बाहुबलियों में महाबली पद प्रदान किया | 

महामना माहि महातिमही । बुला मंत्रिबर सुमति सों  कहीं ॥ 
जो निर्जिउ जिय देइ जियाइहिं । करिहौं अब मैं सोइ उपाइहिं ॥ 
फिर हनुमंत ने महामनाओं में महातिमहा मंत्रीवर सुमंत को बुलाकर बोले : - ' जो नीर्जिवो को प्राण देकर उन्हें जीवंत कर दे अब मैं वह उपाय करूंगा | 

लए भुजदल पुष्कल पुठबारे । पुनि हरिहर उर औषध धारे ॥ 
धर ते बिहुन तासु सिर लीन्हि । जुगत मन जुत जुगावत दीन्हि ॥ 
तदनन्तर पुष्कल के पृष्ठप्रदेश को भुजाओं में धारणकर उनके वक्षस्थल पर धीमे से वह औषधि रख दी व् धड़ से विहीन उनका शीश लिया और सावधानी पूर्वक युग्मित कर उसे धड़ से संयुक्त कर दिया | 

जुगे जोहि धर सोहि सिरु, पुष्कल देह सँभारि । 
द्रवत हरिदय हँकारि के कथे कथन हित कारि ॥ 
शीश ज्यों ही धड़ से संयोजित हुवा तब पुष्कल की देह को संयत कर द्रवित ह्रदय से पुकारते हुवे यह हितकारी कथन कहने लगे : - 

जो मन क्रम बचन ते मम होइ राम गोसाइँ | 
 तुरै ए सजीवन औषधि पुष्कल देइ जिआइँ || 
यदि मन क्रम वचन से रघुवीर मेरे स्वामी हैं तो यह प्राणदायिनी औषधि पुष्कल को तत्काल जीवित कर दे | 

बुधवार, ०९ दिसंबर, २०१५                                                                                   

एहि निगदन मुख निकसिहि जोहीं । बीर सिरोमनि पुष्कल तोहीँ ॥ 
जीअत उठि बैठे हरषाईं । भेंटत सकल हरष उर लाईं ॥ 
ज्यों ही मुख से यह उक्ति निष्कासितत्यों ही वीरों के शिरोमणि पुष्कल जीवित होकर उठ बैठे और अत्यंत हुवे हर्षित फिर सभी से भेंट कर उन्हें सहर्ष ह्रदय से लगा लिया | 

कटकटात पुनि दन्त रिसायो । सहज सरूप समर भुइँ आयो ॥ 
बजे पुनि घन घोर रन डंका । पचारि चला बयरु सो बंका ॥ 
वह रोष करते हुवे दांत कटकटाने लगे फिर सहज स्वरूप में संग्राम भूमि आए | पुनश्च घनघोर रण डंका बज उठा फिर वह वीर अपने वैरियों को ललकारते हुवे चला 

गयउ कहाँ सो राम बिद्रोही । आजु ताहि हठि मारिहुँ ओही ॥ 
कहँ सर धनु कहँ मोर निषंगा । बोलत  अस फरकिहिं अंगंगा ॥ 
 रामजी के वह विद्रोही कहाँ गए आज मैं उनका निश्चित ही वध कर दूंगा | मेरे धनुष-बाण कहाँ है मेरा निषंग कहाँ है ऐसा कहते पुष्कल के अंग-अंग फड़क उठे | 

तानि कान लग कटु कोदंडा । संधान रसन बान प्रचंडा ॥ 
दरसत ऐसेउ कपिबर ताहि । कहेउ कोमलि आन तिन पाहि ॥ 
रसना में प्रचंड बाण का संधान कर फिर उन्होंने अपने कठिन कोदंड को श्रुतिसाधन तक तन्य किया | उन्हें ऐसा दर्शकर कपिवर उनके निकट आकर कोमलता से बोले : - 

बीर भद्र मारेसि तोहि, तुम जीवन्मृत होहु । 
रघुबर चरन प्रसादु सों पुनि नव जीवन जोहु ॥ 
वीरभद्र ने तुम्हे हताहत किया तुम्हारे जीवन का अंत हो गया था | रघुवर के चरण-प्रसाद से तुम्हें नवजीवन प्राप्त हुवा है | 

शुक्रवार, ११  दिसंबर, २०१५                                                                                 

रामानुजहू मुरुछित होंही । जिअन सजीवन जोहत ओहीं ॥ 
लागेउ सिउ संभु के बाना । पीर परत भए साँसत प्राना ॥ 
रामानुज शत्रुध्न भी मूर्छित  होंगे वह भी जीवन हेतु संजीवनी की प्रतीक्षा कर रहे हैं | शिवशंभु का के बाण के प्रहार से पीड़ित हो उनके प्राण भी साँसत में हैं | 

परेउ होइ हताहत जहँवाँ  । अस कह दोनउ गयऊ तहँवाँ ॥ 
साँसत साँस बहोरत आने । तब हनुमत औषध उर दाने ॥ 
ऐसा कहकर वह दोनों वहां गए जहाँ शत्रुध्न हताहत हुवे भूमि पर धराशायी थे | हनुमत ने उनके ह्रदय पर औषधि का आधान कर उनके अवरुद्ध होती सांस को संयमित कर कहा : -

परेउ मुरुछि कहत रे भाई । मही माहि कादर के नाईं ॥ 
तुम बिक्रमी तुम मह बलबाना । नहि को बीर तुहरे समाना ॥ 
हे भाई ! तुम भीरुओं की भांति भूमि में मूर्छित पड़े हो ? तुम तो पराक्रमी व् महाबलवान हो तुम्हारे समकक्ष कोई वीर नहीं है | 

जो मैं जतनसील जनिकाला । अहउँ बम्हचर के परिपाला ॥ 
त सत्रुहन उठि बैठु छन माही । न तरु ब्रम्ह चरनिहि मैं नाही ॥ 
यदि मै जन्मकाल से  ब्रम्हचर्य सचेष्ट पालनकर्ता हूँ तो शत्रुध्न कहलन में ही स्वस्थ हो जाएं अन्यथा में ब्रम्हचारी नहीं हूँ | 

देइ पलक पट डीठ दुआरे । जिअत सत्रुहन ए  बचन उचारे ॥ 
दृष्टि द्वार पर पलक पट दिए शत्रुध्न जिवंत होकर फिर यह वचन कहने लगे : - 

सिउ कहँ संकर कहँ संभु, गयऊ कहँ रन छाँड़ि । 
 कहत अस रिस दहत नयन लपट बदन पर बाढ़ि ॥ 
शिव कहाँ हैं ? शम्भू कहाँ हैं ? संग्राम त्यागकर वह कहाँ चले गए ऐसा कहते उनके नेत्र क्रोधवश दग्ध हो उठे और उसकी शिखाएं मुखमण्डल पर प्रस्तारित हो चली | 

संग्राम सूर बीर बहुतेरे । पिनाका धारिहि मारि निबेरे ॥ 
महत्मन मह बीर हनुमंता । जतनत सबन्हि किए जीवंता ॥ 
पिनाकधारी भगवान शंकर ने संग्राम में बहुतक शूरवीरों का संहार कर दिया था महात्मा महावीर हनुमान जी  यातना करते हुवे सभी को जीवित कर दिया | 

तब सबहि गाताबरन सोंही  ।  साजत निज निज रथ अबरोहीँ ॥ 
रोष पूरनित हरिदे संगे । करेउ धुनि घन सब रन रंगे ॥ 
तब सभी कवचकुंडल आदि से सुसज्जित होकर  अपने अपने रथों पर आरूढ़ हो गए | और रोष आपूरित ह्रदय से रण हेतु उत्साहित हो घोर गर्जना करने लगे | 

बजे भेरि पुनि धनबन भेदी । चले रिपुपुर चढ़े रन बेदी ॥ 
बीरमनि सुभटन्हि सों घेरे । चले आपहिं अबहिं के फेरे ॥ 
रण भेरी पुनश्च गगन भेदी ध्वनि से निहनादित हो उठी वह सब रण वेदी पर आरोहित हो शत्रु की ओर निर्गत हुवे  | इस बार शूरवीरों से घिरे वीरमणि युद्ध हेतु स्वयं अग्रसर हुवे | 

भिरन जैसेउ सम्मुख होंही । देखि ताहि सत्रुहन अति कोहीं ॥ 
तापर आग्नेस्त्र चलाईं । तासों सकल कटक दवनाईं ॥ 
युद्ध हेतु वह जैसे ही सम्मुख हुवे उन्हें देखकर शत्रुध्न अत्यंत क्रोधित हो गए और उनपर आग्नेयास्त्र का प्रयोग किया इस आक्रमण से समूची सेना दग्ध होने लगी | 

अरि अरि दवारि समतूल दहत धुरोपर छाए । 

लपट चहुँ दिसि चपेटन्हि प्रचंड रूप धराए ॥  
प्रतिपक्ष का प्रत्येक शत्रु दावाग्नि के समतुल्य दाहित कराती वह अग्नि शीर्ष पर व्याप्त होने लगी उसकी शिखाओं ने फिर प्रचंड रूप धारण कर चारों दिशाओं को अपनी चपेट में ले लिया | 

शनिवार, १२ दिसंबर, २०१५                                                                        

देखि महायुध के दहनाई । सीवा रहित  कोप किए राई ॥ 
जरत बदन ज्वाल कन जागे । प्रत्यरथ बरुनास्त्र त्यागे ॥ 
इस महायुद्ध का दहन दर्शकर राजा को असीम कोप किया | कोप में जलाते राजा के मुख से चिंगारियां  विकरित होने लगी प्रतिकार में उन्होंने वरुणास्त्र प्रयोग किया  | 

मरम भेदि प्रहार के ताईं । सीतारत अनीक अकुलाईं ॥ 
कंपत  जब आरत अति गाढ़े । सत्रुहन तापर बायब छाँड़े ॥ 
इस मर्मभेदी प्रहार द्वारा शीत से पीड़ित होकर  सेना व्याकुल हो गई कंपकपाते हुवे जब उनकी पीड़ा बढ़ने लगी तब शत्रुध्न ने उसके निवारण हेतु वायव्यास्त्र छोड़ा | 

चले बेगि बहु बात कराली । बिभंजत घन भई बाताली ॥ 
घोराकार घटा घन काला । धार धार जिमि बदन ब्याला ॥ 
इससे वायु तीव्रतापूर्वक प्रसारित होने लगी और विकराल आंधी का रूप धारण कर उसने मेघ समूहों को विभंजित कर दिया |  काली घनघोर घटाएं घोराकृति वाली थी और धाराओं की मुखाकृति हिंसक जंतु की सी थी 

होइ जोहि बाताल अधीना । चहुँ दिसि छतबत भई बिलीना ॥ 
जोइ सैन रहि सीत दुखारी । बीतत दुःख पुनि होइ  सुखारी ॥ 
जैसे ही वह उस आंधी की वशीभूत हुई वह चीन-भिन्न होकर चारों दिशाओं में विलीन हो गई | जो सेना शीत के प्रकोप से पीड़ित थी अब उनकी पीड़ा विगत हो गई वह पुनश्च सुखानुभूत करने लगी | 

बीर मनि निज अनीक दिखि जब पीर गहाहि  । 
निबारक रिपु संहारक पर्बतास्त्र चलाहि ॥ 
वीर मणि ने जब अपनी सेना को पीड़ित देखा तब उन्होंने उस वायव्यास्त्र के निवारण हेतु शत्रु-संहारक पर्वतास्त्र का प्रयोग किया | 

रविवार, १३ दिसंबर, २०१५                                                                                     

बाताली परिहरै न कोपा । लेइ केतु करि चहुँदिसि रोपा ॥ 
परा समुख परबत गतिरोधा । बिहनए भए पूरन प्रतिसोधा ॥ 
आंधी कोप का त्याग ही नहीं कर रही थी वातकेतु लेकर उसने उसे चारों ओर आरोपित कर दिया | जब सम्मुख पर्वत का गतिरोध उत्पन्न हुवा तब अंत में उसका प्रतिशोध पूर्ण हो गया | 

प्रसर बिनु जब चरन पयाने । त सत्रुहन बज्रास्त्र संधाने ॥ 
मारि चोट अघात किए घोरा । बिनसिहि उपरुध उपल कठोरा ॥
प्रसारण न होने पर उसके चरण पलायन कर गए तो शत्रुध्न ने वज्रास्त्र का संधान किया फिर घोर आघात कर  गंभीर चोट देते हुवे कठोर उपल को घेरकर विनष्ट कर दिया | 

बहोरि सिल पट रहे न कोई । तिल तिल कर सब कन कन होईं । 
रिपुदल बीर बिदारन लागिहि । अंग अंग सुरंग में पागिहि ॥ 
तत्पश्चात उस पर्वत में कोई भी शिलापट न रहा तिल-तिल करके वह सब चूर्ण हो गए  | फिर वह अस्त्र शत्रुदल के वीरों को विदीर्ण करने लगा उनके अंग अंग लाल रक्त में अनुरक्त हो रहे थे | 

रिसत रुधिरु तन सोहहिं ऐसे । सुबरन संग सुभग के जैसे ॥ 
दरसि दिरिस यह बिसमय कारी । देख न हारे देखनहारी ॥ 
 द्रवीभूत होता रुधिर देह पर ऐसे शोभित हो रहा था जैसे स्वर्ण के संग  सुहागा सुशोभित होता है | यह विस्मयकृत दृश्य दर्शकर दर्शकगण एकटक रह गए | 

बहोरि होत रिसान, रहइ न सीवाँ कोप कर । 
ब्रम्हास्त्र संधान बीर मनि कसै कोदंड ॥ 
फिर तो रुष्ट होते वीरमणि के क्रोध की सीमा न रही उन्होंने कोदंड कर्षित कर ब्रह्मास्त्र का संधान किया | 

सोमवार, १४ दिसंबर, २०१५                                                                                


ब्रम्हास्त्र बहु अचरजकारी । जहँ जा लागिहि तहँ रिपु जारीं ॥ 
सोए बीरमनि सन रन रंगा । चढ़ेउ रसना छाँड़ निषंगा ॥ 
यह ब्रह्मास्त्र अत्यंत विस्मयकारी था जहाँ का लक्ष्य करता वहां शत्रु को दग्ध कर देता | वीरमणि शयनित युद्धोत्साह जागृत हो गया वह अस्त्र  निषंग त्याग कर प्रत्यंचा पर आरोहित हो गया | 

तासों छूट चला रिपु ओरा । छुटत  टँकारिहि गुन घन घोरा ॥ 
 तब लग सत्रुहन कर सोहा । तुरत आन आयुध मन मोहा ॥ 
और जैसे ही मुक्त हुवा वह शत्रु की ओर बढ़ चला उसके मुक्त होते ही प्रत्यंचा ने घोर टंकार किया | तब तक शत्रुध्न के हस्त में तत्काल मोहनास्त्र धारित हुवा | 
  बिद्युत गति सम धाए प्रचंडा । बम्हास्त्र छन किए दुइ खंडा ॥ 
राउन्हि उर घन अघात करे । मुरुछित बिकल धरनि खसि परे ॥ 
उसने विद्युत् की सी गति दौड़कर उस प्रचंड ब्रह्मास्त्र के दो खंड कर दिए और राजा के वक्षस्थल पर गहरा आघात किया वह विचलित हो कर  मूर्छित अवस्था में पृथ्वी पर गिर पड़े | 

क्रोध अगन  लोचन न समायो । रोहित रथ सिउ नृप पहि आयो ॥ 
सत्रुहन औचकहि तेहि औसर । चढ़ा प्रत्यंचा  कसे धनु सर ॥ 
लोचन में क्रोधाग्नि समा नहीं रही थी शिवजी रथारूढ़ होकर राजा वीरमणि के निकट आए | उस समय  शत्रुध्न सहसा ही धनुष कर्षकर प्रत्यंचा चढ़ाई | 

आयउ बढ़ि त्रै लोचन आगे । करि गहन रन जुझावन लागे ॥ 
एक पाली रिपुहन एक संकर । भयउ बीच संग्राम भयंकर ॥ 
और त्रिलोचन के सम्मुख बढे चले आए फिर वह उनके साथ युद्ध कर घनघोर  संघर्ष करने लगे | एक पाले में शत्रुध्न तो दूसरे में भगवान शंकर, दोनों के मध्य भयंकर संग्राम होने लगा | 

चलेउ सस्त्रास्त्र बिकट, आयुध बहुंत प्रकार । 
परे चमक चिङ्गारि कन सबहि दिसा उजियार ॥ 
फिर चिंगारियों से चमकते हुवे सभी दिशाएँ उद्दीप्त करते  नाना भांति के आयुध व् विकराल शस्त्रास्त्र प्रक्षेपित होने लगे | 

बुध/बृहस्पति , १६/१७  दिसंबर, २०१५                                                                             

लरत भिरत त्रै लोचनसंगा । भए सत्रुधन्हि सिथिर सब अंगा ॥ 
आकुल हिअ अरु जिअ नहि जोहीं । तब हनुमत उपदेसन सोही ॥ 
त्रिलोचन के संग लड़ते-भिड़ते शत्रुध्न के सभी अंग शिथिल हो गए | व्याकुल ह्रदय और देह प्राण संयोजित नहीं हो रही थी तब हनुमंत के उपदेश से उन्होंने : - 

सुमिरै मन ही मन गोसाईं । आरत नाद कहत रे भाई ॥ 
धरे संभु रन रूप भयंकर । लेहि प्रान हाँ गहे धनुषकर ॥ 
मन ही मन अपने स्वामी श्रीराम चंद्र जी का स्मरण किया व् आर्तनाद से बोले हा नाथ ! हां  शम्भु ने इस संग्राम में भयंकर रूप धारण कर लिया है धनुष ग्रहण किए अवश्य ही वे मेरे प्राण ले लेंगे | 

टीस  देन जिअ लेन उतारू । पाहि पाहि प्रनतारत हारू ॥ 
राम राम जो राम पुकारे । भए भव पारग सो दुखियारे ॥ 
ये पीड़ा देने व् प्राण लेने हेतु उतारू हैं हे शरणागत के पीड़ा को हरण करने ! वाले मेरी रक्षा करो | जो कोई राम राम कहके आपका आह्वान करता है वह दुःखार्त इस भव सिंधु से पारगम्य हो जाते  है | 

कहि गए साधक सिद्ध सुजाना । दीन दयाकर कृपानि धाना ॥ 
मिटे दोष सब मोर हिया के । दुराइहौ दुःख एहु दुखिया के ॥ 
ऐसा साधक सिद्ध व विद्वान कह गए हैं | हे दीनदयाकर ! हे कृपानिधान ! मेरे ह्रदय के दोष समाप्त हो जाएं इस दुखित के दुःख भी दूर कीजिए  सत्रुहन निगदित ए गदन जोहीं । प्रगसिहिं सम्मुख रघुबर तोहीं ॥ 
दरस प्रभो निज पीर बिजोगे । करे अस्तुति सत्रुहन कर जोगे ॥ 
शत्रुध्न ने ज्योंही उक्त उक्ति कही उनके सम्मुख श्रीरामजी प्रकट हो गए | प्रभु को साक्षात दर्शकर वह अपनी पीड़ा विमुक्त हो गए और हस्त आबद्ध कर उनकी स्तुति करने लगे : - 

कुण्डलाय शिरो कुंतलम् । लसितम्  ललित ललाटूलम् ॥
नयनाभिराम नलीन सम । श्रीराम श्याम सुन्दरम् ॥
जिनके शीश पर कुंडलित केश हैं जो उनके सुन्दर ललाट पर  सुशोभित हो रहे हैं | नलीन के समान वह श्रीरामश्याम सुन्दर नेत्रों को प्रिय हैं | 

परम धाम ज्योतिः परो । सर्वार्थ सर्वेश्वरम् ॥

सर्वकाम्योनंत लील:। प्रद्युम्नो जगद्मोहनम् ॥
सर्वोत्तम वैकुण्ठधाम निर्गुण परमात्मा हैं  सूर्यादि को भी प्रकाशित करने वाला जिनका सर्वोत्कृष्ट ज्योर्तिमय स्वरूप है महाबली कामदेव के समान अपने अलौकिक लावण्य  से सम्पूर्ण विश्व को मोहने वाले | 

कंदर्प कोटि लावण्यम । तीर्थ कोटि समाह्वयं ॥

शम्भुकोटि महेश्वराय । कोटीन्दु जगदानन्दम् ॥
करोड़ों कामदेवों के समान मनोहर कांतिवाले, करोड़ों तीर्थों के समान पवित्रनाम वाले, करोड़ों शंकर के समान महा ऐश्वर्य शाली, करोड़ों चंद्रमाओं की भांति जगत को आनन्दित करने वाले | 

सर्वदेवैकदेवता : । जगन्नाथो जगदपिता: ॥

नित्य श्री : श्री निकेतनम् । नित्यवक्ष स्थलस्थ श्रीधरं ॥
समस्त देवताओं के एकमात्र आराध्य देव जगत के स्वामी , सम्पूर्ण जगत के जन्मदाता, नित्य स्थिर रहने वाली भगवती लक्ष्मी की शोभा से युक्त व् लक्ष्मी के ह्रदय में निवास करने वाले, जिनके वक्षस्थल में लक्ष्मी सदा निवास करती है ऐसे भगवान विष्णु | 


हृषिकेशाय हंसो क्षरो । पीयुषोत्पत्ति कारणम् ॥ 

स्मृतसर्वाघविनाशन: । तीर्थमयी जनार्दन: ॥ 
समस्त इन्द्रियों के स्वामी , हंसरूप धारण कर संतों को उपदेश देनेवाले अक्षय परमात्मा, क्षीरसागर से  अमृत की उत्पत्ति के कारणभूत, समस्त पापों के नाशक, तीर्थस्वरूप जनार्दन | 

श्रीरामो भद्र शास्वता । विश्वामित्रप्रियो दांता ॥ 
खरध्वंसी कौशलेयम्   । वेदांतपारात्मनम् ॥ 
शास्वत व् कल्याणमय ईश्वर,  विश्वामित्रजी के प्रिय, जितेन्द्रिय,  हे खर नामक राक्षश का विध्वंश करने वाले कौशल्या पुत्र ! हे वेदान्त से भी अतीत् आत्म स्वरूप् ईश्वर ! 

जामदग्न्य दर्प: दलनम्   । कामद् कोदंड खण्डनम् ॥ 
सत्यवाच्य विक्रमो व्रते । श्रीमान जानकी: पते ॥ 
परशुरामजी के महान अभिमान काचूर्ण करने वाले ! शिवजी के धनुष का विखंडन करने वाले, सत्यवादी, सत्य पराक्रमी, श्रीमान जानकी पति !

दासरथि सद्गुणार्णव: । रविवंश रामो राघव: ॥ 
पित्राज्ञा त्यक्त राज्य : । कंदरार्पितैश्वर्य: ॥ 
अयोध्या के चक्रवर्ती नरेश महाराज दशरथ के प्राणाधिक प्रिय पुत्र, सूर्यवंशी योगीजन के रमन हेतु नित्यानन्दस्वरूप रघुकुल में जन्म ग्रहण करने वाले भगवान श्रीराम !  पिता की आज्ञा से समस्त भू मंडल के साम्राज्य  कात्याग करने वाले 

चित्रकूटाप्त रत्नादृ: । श्यामाङ्ग सुन्दरो शूर: ॥  
पीताम्बरी धनुर्धर: । यथेष्टामोद्यास्त्र:॥ 
चित्रकूट को निवासस्थल में परिणित कर उसे रत्नमय पर्वत की महत्ता प्रदान करने वाले ! श्यामविग्रह वाले परम मनोहर शौर्य संपन्न वीर ! पीतवस्त्र व् धनुर धारण करने वाले, जिनके सभी अस्त्र इच्छाचारी व् अमोद्य हैं 

महासार पुण्योदयो । ब्रह्मण्यो मुनिसोत्तम: ॥ 
देवेंद्रनंदनाक्षिहा ।  मारीचध्न : विराधहा ॥ 
 ब्राम्हण व् मुनियों के सर्वोत्तम पुरुष ! देवराज इंद्र के पुत्र जयंत के नेत्र विक्षिप्त करने वाले, मायामय मृग का रूप धारणकरने वाले मारीच के विध्वंशक व् विराध के का वध करने वाले 

 निर्गुणीश्वरादि देवा । ध्वस्तपाताल दानवा ॥ 
दण्डकारण्यपवित्र  कृते ।   हस्ताचल : हनुमत पते ॥ 
 पातालनिवासी दानवों के विनाशक दंडकारण्य अपने निवास से पवित्र करने वाले, करतल में पर्वत को धारण करने वाले हनुमंत के स्वामी ! 

वालि प्रमथन जनार्दन: ।  सुग्रीवस्थिरोराज्यप्रद:॥ 
जटायुषो ग्नि दातार: । धीरोदत्तगुणोत्तर : ॥ 
बालि का प्रमथन करने वाले जनार्दन ! सुग्रीव को स्थिर राज्य प्रदान करने वाले ! जटायु का दाहसंस्कार कर उन्हें उत्तम गति प्रदान करने वाले  सिंहल द्वीप ध्वंशनम् । सुबद्धे सेतु :सागरम्  ॥  
द्वितीय सौमित्रि लक्ष्मण: । प्रहतेन्द्रजिता राघव : ॥ 
 समुद्र में सुन्दर सेतु आबद्ध कर लंका द्वीप का विध्वंश करने वाले 

विराध दुषण त्रिशरो S रि: । दशग्रीव शिरो हर: हरि: ॥ 
पौलत्स्य वंश कृन्तन: । कुम्भकर्ण च रावणिध्न :॥  
विराध, दूषण व त्रिशिरा नामक दैत्यों के शत्रु दशाशीश के मस्तकों का हनन करने वाले हरि | कुम्भकरण सहित रावण का वध कर विश्व हेतु कंटक स्वरूप पौलत्स्य के वंश को समूल नष्ट करने वाले | 

परं ज्योति: परं धाम । पराकाशो परोत्पर : ॥ 
परेशोपारो पारग: । सर्वभूतात्मक: शिवा ॥  
परम प्रकाशमय साकेतधामस्वरूप, त्रिपाद विभूति में स्थित परमव्योम नामक वैकुण्ठधामरूप, इन्द्रिय मन बुद्धि आदि से परे ईश्वर ! सर्वोत्कृष्ट शासक, सबसे परे, भवसागर से पार लगाने वाले सर्वभूतस्वरूप वह कल्याणमय ईश्वर ! 

जाग दीछित पुुरुख भेष गहे हस्त मृग शृंग । 
कमल नयन चरन सरोज सत्रुहन भयऊ भृंग ॥ 
हस्त में मृगश्रृंग लिए यज्ञ दीक्षित पुरुष का वेश धारण किए जिनके नेत्र कमल व् चरण सरोज के समान हैं स्तुति करते हुवे शत्रुध्न ऐसे भगवान विष्णु के भृंग स्वरूप हो गए 

शनिवार, १९ दिसंबर, २०१५                                                                               

हरैं पीर जो प्रनताजन के  । सत्रुहन सो अभिराम नयनके ॥ 
साखिहि समुख जब दरसन पाए । हरिदे के सब दुख्ख दूराए ॥ 
जो शरणागतों की पीड़ा का हरण करते हैं फिर शत्रुध्न ने अपने सम्मुख नेत्रप्रिय उस विष्णु अवतार भगवान श्रीराम के साक्षात दर्शन किए तब शत्रुध्न का  ह्रदय सभी दुखों से मुक्त हो गया  | 

हनुमंतहु  दरसिहि रघुनाथा । गिरे चरन बहु अचरज साथा ॥ 
ते औसर ऐसो हर्षाईं । तृषावन्त  जिमि जल दरसाईं ॥ 
रघुनाथ ने हनुमंत को दर्शन दिए | भगवान के दर्शन प्राप्तकर हनुमंत साश्चर्य उनके चरणों में गिर गए | उस समय वह ऐसे हर्षित हुवे मानो तृष्णावंत को जल के दर्शन हो गए हों | 

जोइ भगत रच्छन हुँत आईं । पुलकित तिन्ह कहे गोसाईं ॥ 
भगतन के सब बिधि कृत पाला । भगवन हेतु जोग सब काला ॥ 
जो भक्तों की रक्षा हेतु आए थे हुनमान जी ने पुलकित होते हुवे उनसे कहा : - ' स्वामी ! भक्तों का  सभी प्रकार से पालन करना आप भगवन हेतु सभी काल में सर्वथा योग्य है | 

धन्य धन्य हम हे रघुनंदन । एहि औसर भए तुहरे दरसन ॥ 
कृपा सिंधु सों कृपा तिहारी । होहि बिजय कर कटक हमारी ॥ 
हे रघुनन्दन! हम धन्य हुवे ! आज इस अवसर पर हमें आपके दर्शन प्राप्त हुवे | हे करपा के सिंधु ! अब आपकी कृपा से हमारी सेना विजित होगी | 

जोगिन्हि ध्यान गोचर रघुबर आगत जानि । 
सिव संकर होइँ अगुसर गहे चरन जुग पानि ॥ 
उस समय योगियों के ध्यानगोचर भगवान शिवशंकर को भगवान श्रीराम के आगमन सूचना प्राप्त हुई तब अग्रसर होकर उन्होंने  उनके चरणों में करबद्ध प्रणाम अर्पित किया |  

करिहि सुवागत करत प्रनामा । बिनयाबत एहि बचन उचारी ॥ 

हे सरनागत के भय हारी । धनुरु धारि बनचर असुरारी ॥ 
और प्रणाम अर्पण करने के पश्चात उनका स्वागत करते वह विनम्रतापूर्वक बोले : - 'हे शरणागतो का भय हरण करने वाले ! दैत्यों के शत्रु ! हे वनचारी धनुर्धर !

पारब्रम्ह प्रकृति के स्वामी । पुरुष रूप तुम अंतरयामी ॥ 
आपनि अंस कलावतारे। सरजत पालत जग संहारे ॥ 
स्वामी ! एकमात्र आप ही अंतर्यामी पुरुष हैं और प्रकृति से परे परब्रह्मा कहलाते हैं | जो अपनी अंश-कला से  विश्व का सृजन, पालन और संहार करते हैं | 

सरजन काल बिधात सरूपा । पालन काल चतुर भुज रूपा ॥ 

प्रलय काल में सर्ब नाउ धर । मोर रूप में भयो साखि हर ॥ 
सृष्टिकाल में विधाता, पालनकाल में चतृर्भुजस्वरूप व् प्रलयकाल में शर्व नाम से विख्यात साक्षात मेरे अर्थात हर के स्वरूप हैं | 

मैं भगत कृतत उपकारा । बाधत तुहरे काज बिगारा ॥ 

दया सील हे दीन दयालू । छिमा मोर अपराध कृपालू  ॥ 
मैंने अपने भक्त का उपकार करने के लिए आपके कार्य में अवरोध उत्पन्न किया | हे दयाशील दीन दयाल ! हे कृपालु ! मेरे इस अपराध को क्षमा करें | 

साँच करन कहि आपनी मो सों एहि कृत होइ । 
भगवन ता संगत अबरु मोए दोष न कोइ ॥ 
अपने कथन को सत्य सिद्ध करने हेतु मुझसे यह कृत हुवा है भगवन ! इसके अतिरिक्त मेरा और कोई दोष नहीं है | 

सोमवार, २१ दिसंबर, २०१५                                                                            

जानतहुँ प्रभो तोर प्रभाउब । रच्छन भगत इहाँ मैं आउब ॥ 
कहे संभु पुनि नत सिरु संगा । पुरब काल भयऊ ए पसंगा ॥ 
प्रभो ! मुझे आपका प्रभाव ज्ञात है यहाँ में भक्तों की रक्षा हेतु आया हूँ संभु ने विनयित शीश से पुनश्च कहा : - 'पूर्वकाल का यह प्रसंग है  --

एकु समऊ सुनु यहु महराई । छपा नदिहि तट आन  न्हाई ॥ 
उज्जेनि महकाल देवाला ।  कीन्हेसि तप कठिन कराला ॥ 
एक समय इस राजा ने क्षिप्रा नदी के तट पर आकर स्नान किया था, उज्जैन नगर में महाकाल -देवालय में इसने अत्यंत कठोर  तपस्या की थी | 

धरनिहि भर के तपो निधानी । निरख तासु तप अचरज मानीं ॥ 
निरखत तपरत नृप तेहि समउ । मोरेउ मन बहु प्रमुदित भयउ ॥ 
समस्त भूमण्डल के तपो-निधान उनके तप को देखकर विस्,विस्मित रह गए  उस समय तपरत नृप को विलोक मेरा मनमानस अत्यंत हर्षित हो उठा | 

बर दायन मम कर बढ़ि आईं ।  बोलेउ ताहि करत बड़ाई ॥ 
तुहरे तप परिपूरन होईं । मँगो भूप मो सों बर कोई ॥ 
वरदायन हेतु मेरे हस्त अग्रसारित हुवे उसकी प्रशंसा करते मैने कहा : -'  तुम्हारी तपस्या परिपूर्ण हो गई | राजन ! मुझसे कोई वर मांगो |
 
सुरपुर के अखंड  राज मँगे भूप बर माहि । 
तासु कथनानुहार के बढे हस्त बर दाहि ॥ 
तब भूपति ने वर में सुरपुर का अखंड राज्य माँगा | उसके कथनों का अनुशरण करके मेरे अग्रसारित हस्त ने उसे फिर वह वर दान दिया | 

मंगलवार, २२ दिसंबर, २०१५                                                                             

तदनन्तर प्रभु मैं कहि पारें । होए देवपुर राज तिहारे ॥ 
अवधेसु के मेधीअ बाहिहिं ।  जब एहि देउ नगरि पुर आहिहि ॥ 
प्रभु ! उसके पश्चात मैने कह दिया कि देवपुर में तुम्हारा राज्य होगा, तुम्हारे नगर की और  जब  अवध नरेश के मेधीय अश्व  का देवनगरी में आगमन होगा,

तुहरे हितहुत तेहि बसबासा | तबलगि मैंहु रहिहौं निबासा ||| 
एहि भाँति बर दान मैं दायउँ । दिया बचन ता संग बँधायउँ ॥ 
तुम्हारे हितों की रक्षा हेतु तब तक में भी उस स्थान में निवासित रहूंगा | ' इस प्रकार में उसे वरदान दिया और उस वरदान में दिए वचन के साथ मैं विबन्धित हो गया | 

आयउ अजहुँ समउ सो भगवन ।  सुजन सुत सहित सो जागि जवन  ॥ 
नृप तव चरन समर्पन करिहि । बंदत भव सिंधु पार उतरहिं॥ 
भगवन ! वह अवसर आ गया कि अब वह राजा अपने  पुत्र व् बंधू-बांधवों सहित उस याज्ञिक यवन को वह नरेश आपके चरणों में समर्पित करेगा और उन चरणों की वंदना कर भवसिंधु से पारगम्य होगा | 

तब सिव सों बोले रघुराई । देवन्हि धरम भगत भलाई ॥ 
एहि औसर जस रखिहउ राई । भले काज भी तुहरे ताईं ॥ 
तब भगवान रघुवीर शिवजी से बोले : - भक्त का कल्याण करना देवताओं का तो धर्म  ही है, इस समय आपने जैसे अपने भक्त राजन का संरक्षण किया यह आपके द्वारा अति उत्तम कार्य हुवा | 

हर के हरिदय होइँ हरि हरि हरिदै हर होइँ । 
हम दुनहु के बीच परस्पर अंतर भेद न कोइ ॥ 
हर के हृदय में हरि निवासित हैं  हरि के ह्रदय में हर निवासित हैं | हम दोनों के  मध्य कोई पारस्परिक अंतर्भेद नहीं है | 

बुधवार, २३ दिसंबर, २०१५                                                                          

को मूरख मलीन मति जाकी । करें भेद मुख दीठ न वाकी ॥ 
धूप किरन जिमि किरनहि धूपा । दरसित हम तिमि एक सम रूपा ॥ 
कोई मूढ़ जिसकी बुद्धि दूषित   है जिनका मुख है न दृष्टि वही हम दोनों में भेद करते हैं | जिस प्रकार धूप ही किरण व् किरण ही धूप है हमारा स्वरूप भी वैसा ही एकसम है | 

हरि हर बीच भेद मति राखा ।  होंहि तासु लोचन बिनु लाखा ॥ 
अहहीं महादेउ जो तोरे । धर्मी पुरुख भगत सो मोरे ॥ 
हरि हर के मध्य जो भेदबुद्धि रखते हैं उनकी दृष्टि गोचर विहीन है | महादेव ! जो धर्मी पुरुष आपके भक्त हैं वह मेरे भी भक्त हैं | 

जैसेउ मोर चरन जुहारें । परत बिनत सो चरन  तिहारे  ॥ 
कहत शेष हे सुबुध सुजाना । रघुबीर बचनन्हि दे काना ॥ 
वे जैसे मेरी चरणवंदना करते हैं आपके चरणों में उनकी वैसी ही अनुरक्ति है | शेशभगवान कहते हैं : - हे बुद्धिमान ! हे विद्वान !रघुवीर के वचनों को श्रवण कर 

परसादि सों सिउ भगवंता । जिअ हीन जिअ करिहिं जीयन्ता ॥ 
बाण पीरित बीर मनि संगा । भयउ सचेत सकल चतुरंगा ॥ 
फिर भगवान शिव ने स्पर्शादि से जीवनांत प्राण को जीवंत कर दिया बाण पीड़ित राजा वीरमणि सहित समूची सेना चैतन्य हो उठी | 

रथारोहि कि पदचर हो हितू कर हो कि हेत ।  

एहि बिधि भूपत सुत सहित सब जन भयउ सचेत ॥  
वह रथ पर आरोहित हो अथवा पदचर  हो अथवा हितार्थी हो अथवा बंधू-बांधव हों इस प्रकार भूपति व् उनके पुत्र सहित सभी सचेष्ट हो गए | 

 शुक्रवार, २५ दिसंबर, २०१५                                                                      


तदनन्तर हे वात्स्यायन । धन्य धन्य सो सुरपुर राजन ॥ 
जोग नीठ कि तपोबल ताईं । केहि भाँति दुर्लभ गोसाईं ॥ 
तदनन्तर हे वात्स्यायन ! वह राजा धन्य धन्य हुवे स्वामी ! यज्ञनिष्ठा अथवा तपोबलादि अन्य किसी भी विधि से दुर्लभ हैं | 

जोगि जन जिन्ह दरस न पावा । तिन्हनि जगजीवन दरसावा ॥ 
दरस समुख भगवन श्री रामा । कुटुम सहित निप करिहि प्रनामा ॥ 
जो योगीगण को भी दर्शनातीत है वह जगजीवन उन्हें दर्शित हुवे | भगवान श्रीराम को के सम्मुख दर्शन प्राप्तकर नृप ने उन्हें कौटुम्ब सहित प्रणाम किया | 

परिहि पदुम चरनन सब कोई । गहे असीर कृतारथ होईं ॥ 
दुर्लभ मानुष  देहि गही के । भयउ सफल जीवन सबहीं के ॥ 
सभी ने उनके पद्मचरणों को स्पर्श किया और आशीर्वाद ग्रहण कर कृत कृत हो गए | मानव की दुर्लभ देह धारण कर सभी का जीवन सफल हो गया | 

सारद सेष ब्रम्हादि सहिता । भयउ देवन्हि केर पूजिता ॥ 
सत्रुहन हनुमन सरिस सुजाना । करिअहि नित जिनके जस गाना ॥ 
शारदा, शेष व् ब्रह्मादि सहित जो देवों के द्वारा पूजित हैं; शत्रुध्न हनुमान जैसे विदूषक जिनका यशोगान करते हैं | 

तेहि रघुबर चरन सिरु नाईं । अरपिहि अस्व बीर मनि राई ॥ 
उन भगवान रघुवीर के चरणों में नतशीश से फिर वीरमणि ने वह मेधीय अश्व समर्पित कर दिया | 

जानि निज भगत अनुकूल, ससिधर कहि अनुहारि । 
समर्पित सकल राज पुनि जोए पानि पग धारि ॥  
अपने भक्त को अनुकूल संज्ञान कर व् शशिधर भगवान शंकर के कथन का अनुशरण करते हुवे अपना सम्पूर्ण राज्य समर्पित कर हाथ जोड़ते हुवे श्रीराम जी के चरण ग्रहण कर लिए | 

सुनु बिप्रबर बहोरि रघुनाथा । हसित बिहर्षित रिपुदल साथा ॥ 
निज सेवक सों वन्दित होहीं । मंजुल मनिमय रथावरोही ॥ 
हे विप्रवर सुनो ! तत्पश्चात  रघुनाथ ने हर्षित शत्रुदल सहित अपने सेवकों से अभिवन्दित होकर विहास करते हुवे अति सुन्दर मणिमय रथ पर आरूढ़ हुवे और 

होत पीठासीत् भगवाना । छन माहि भए अन्तरध्याना ॥ 
जगवन्दित  रामहि जगजीवन । समझिहु न ताहि मनुज सधारन ॥ 
फिर  उसपर पीठासित होते ही भगवान अंर्तध्यान हो गए | विश्ववन्दित राम ही संसार के जीवनदाता हैं मुने ! आप उन्हें साधारण मनुष्य रूप में संज्ञापित न करना | 

जल में थल में अम्बर तल में । भगवन ब्यापित चलाचल में ॥ 
सबके अंत: करन निवासित । श्रीबर रूप सर्वत्र प्रकासित ॥ 
जल में, स्थल में, गगनतल, चल व् अचल  में वह भगवान ही व्याप्त  हैं वह सबके अंत:कारन में निवास करते हैं और श्री के वर स्वरूप वह सर्वत्र प्रकाशित हैं | 

कहेउ बचन सन पन पुराए । संकर संभुहु चरन बहुराए ॥ 
माँगत बिदा चलन जब लागे । कहत कहत ए ठाढ़ भए आगे ॥ 
अपने कहे वचन सहित अपनी  प्रतिज्ञा पूर्ण कर भगवान शंकर भी लौट चले | विदा माँगते हुवे जब वह प्रस्थान करने लगे तब यह कहते-कहते ठिठक गए : -- 

राजन दुर्गम जगत में दुर्लभ बस्तु न कोइ । 
एकु रघुनंदन के सरन सबते दुर्लभ होइ ॥ 
'राजन ! इस दुर्गम जगत में कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है एक रघुनाथ जी का आश्रय ही सबसे दुर्लभ है |