Friday, 19 June 2015

----- ॥ उत्तर-काण्ड ३५ ॥ -----


मंगलवार, १६ जून २०१५                                                                                             

दिए रघुबर सिय सिर सिंदूरी । भूर भुअन जिमि सस कर कूरी ॥ 
देख निहारिहि देख न हारे । निर्निमेष सुध बुधी बिसारे ॥ 
भगवान रघुवीर ने सीता जी के शीश सिंदूर दान दिया जो ऐसा प्रतीत हुवा मानो चन्द्रमा की किरणे जगत को विस्मृत कर माता के केशविन्यास पर ही एकत्रित हो गई हों |  अपने चैतन्य को विस्मृत किए उपस्थित जनों के नेत्र उस सुन्दर जोड़े को  अपलक निहारते शिथिल नहीं होते थे | 

जेउनार बहु भाँति रचवाए  । जनक सादर जनेत बुलवाए ॥ 
जथाजोग पद पीठक दीन्हि । बिनै बत बहुँत सुश्रुता कीन्हि ॥ 
जनक जी ने बहुंत भाँती की जेवनार रचवाई थी तत्पश्चात जनेत को सादर आमंत्रित कर यथायोग्य पद पृष्ठिका अर्पित की और  बारातियों की सविनय व् अतिशय सेवा शुश्रुता की | 

परुसनी बान चारि भाँति के । भरि भरि भाजन बहुंत जाति के ॥ 
छरस बिंजन बहु रुचिरु रसोई । रस रसमस गन सकै न कोई ॥ 
चर्व्य, चोष्य, लेह, पेय ये चार प्रकार के पकवान भांति-भांति के भाजनों में भरपूरित थे | षाड्रसिक व्यञ्जनों की सुरुचिपूर्ण रसोई थी रसों की गणनिय थे किन्तु उससे प्राप्त आनंद की गणना भला कौन कर सकता था | 

सिअ सिअबर छब लखि तित छाहीं । मनिअरि मनि बसि मन मन माहीं ॥ 
जसि रघुबर ब्याहु बिधि गाहा । सकल कुँअर तसि करनि बियाहा ॥ 
सीता  व् श्रीराम् चन्द्रजी के छवि का प्रतिबिम्ब जहाँ देखो वहां लक्षित हो रहा था प्रतिबिम्ब की शोभा युक्त मणि उपस्थित गणों के मनो में  स्थित हो गई | रघुवर जी के विवाह की विधि के अनुसार अन्य सभी कुमार बंधुओं का विवाह भी संपन्न हुवा | 

दयो अमित नाना उपहारे । हंस हिरन हरिमनि सिंगारे ॥ 
कंकन किंकनि नूपुर नौघर । कनक आभूषन बसन बर बर ॥ 
जनक जी ने नाना भांति के अगणित उपहार दिए | रजत स्वर्ण व् पन्ना आदि से अलंकृत  नक्षत्र मंडल के सदृश्य नूपुरमय कंठहार सहित सौंदर्य पूरित आभूषण तथा उत्तम उत्तम वस्त्र दिए | 

दायो जौतक जनक बहूँती  । दिए दान जिमि सकल भव भूती ॥ 
बहुरन की अब बेला आई । दसरथ सह बधु माँगि बिदाई ॥ 
उसके साथ ही जनक जी ने अतिशय दायज दिया, उनका दान ऐसा था मानों  उन्होंने जगत की समस्त विभूति ही दे दी हो | विदाई की अब बेला आ गई दशरथ जी ने वधु सहित विदाई मांगी | 
यौतक = दायज,दहेज 

जनक राज के दिए  दाए  को कर बरनि न जाए । 
छह मास लग अहोरि के, पुनि बरात बहुराए ॥ 
जनकराज का दिया कन्या -दान किसी भाँती वर्णित नहीं किया जा सकता | षड मास तक का आतिथ्य के पश्चात बरात वधु लेकर लौट गई | 
  शुक्रवार,१९जून २०१५                                                                                           

भरे कंठ जननी उर लाई । जात सुता गुन चारि सिखाईं ॥ 
चारि अतिथि उर देउ सरूपा । लाखिहि लोचन भर भर भूपा ॥ 
माताओं का कंठ भर आया पुत्रियों को हृदय से लगाए चार सद्गुण सिखाए  | चार अतिथि हृदय के देव स्वरूप थे जिन्हें विलोक  कर राजा जनक के नेत्र भर आए | 

प्रमुदित मानस निछाबरि करिहीं । सिआ पद बारहि बार बहुरहीं ॥ 
मंँगै बिदा रघुबर नत सीसा । भ्रात सहित बहु पाएं असीसा ॥ 
प्रमुदित मन-मानस से न्योछावरियाँ  दीं  सीता जी के चरण वारंवार लौट आते  | भगवान रघुवर जी ने भी भ्राताओं सहित नतमस्तक होकर विदाई मांगी  और अतिशय आशीर्वाद प्राप्त किया | 

कुँअरि  चढ़ाईं पलक पालकी । बहुरि बरात दसरथ लाल की ॥ 
करुनारन बिरहा भइ मेहा । बरसत भीजत सकल बिदेहा ।। 
सभी कुमारियों को पलकों की पालकियों में अवरोहित कर दशरथ लाल की बरात लौट चली | करुण अर्ण(जल )  तो विरह मेघ स्वरूप हो गए और अश्रुवर्षा से समूची जनकनगरी भीग गई | 

दरसिहिं मग मग लोग लुगाईं । तासु नयन सुख कही न जाई ॥ 
जग लग सुखकर दिवस पुनीता । पहुँची अबध जनेत लिए सीता ॥ 
मार्गों पर दर्शन करते  स्त्री-पुरुषों के नेत्रों का सुख अनिर्वचनीय है | जगत भर को सुखी करते पावन दिवस में बारात सीताजी को लिए अयोध्या पहुँच गई | 

पथ जुहारत हारत जब आबत अकनि बरात । 
लगैं  सँवारन  निज सदन पुरजन पुलकित गात  ॥ 
प्रतीक्षारत पुरजन के शिथिल हुवे कानों को जब जनेत आगमन की सुचना प्राप्त हुई तब वह सभी अपने अपने सदन को संवारने लगे | 

रविवार, 21 जून 2015                                                                                                        

दरसन सिया राम के जोरी | पुरजन लोचन ललक न थोरी || 

बरसिहि सुर कर सुमन सुगंधे  | सगुन केर सुभ साजहु गंधे || 
सकुचत अच्छत फुर पत  रोरी | लखत तुलसि  मंजरि  कर जोरी || 
सुस्वागत के साज समाजे  | लवन  लाज एक संग बिराजे || 
सीताराम जी की जोड़ी के दर्शन हेतु पुर्जनों के लोचन में थोड़ी लालसा न थी अर्थात यह अतिशय थी | देवताओं के हस्त सुंगंधित पुष्पों की वर्षा करने लगे शगुनों से भरी मंगल सामग्रियां भी सुगन्धित हो उठी | अक्षत, पुष्प, रोली संकुचित हो गई तुलसी की मंजरियाँ हाथ जोड़े भगवान की प्रतीक्षारत थी सुस्वागत की इन सामग्रियों के समाज सहित सौंदर्य व् लज्जा एक संग विराजित हुवे | 


सँजो सबन्हि कनक मय थारी  | खनकन रत कर धरी द्वारी || 
मनुज देहि धरेउ सब कोई  | सुधिहि  बिसारि पेम बस होइ   ||  
सबको एकत्रीभूत किए हुई खनकती स्वर्णमयी आलवाल हाथों में आधारित होकर द्वार पर उपस्थित हुई |रघुनाथजी के प्रेम से विवश होकर इन सभी ने मनुष्य देह धारण कर ली  था और प्रभु की प्रतीक्षा में उनकी  चेतना विस्मृत हो गई थी |                                                                                                               


पुनि गुरुबर अग्या कह पारे | रघुकुल मनि पद पुर  पैसारे || 
जै जुहार कीन्हि नर नारी | देखि  दुलहिनि उहार उहारी || 
तत्पश्चात गुरुवर की आज्ञा लेकर रघुकुल के शिरोमणि  रामचन्द्रजी के चरण नगर में प्रवेशित हुवे | नर नारी प्रणाम पूर्वक उनका स्वागत करने लगे, पालकियों की ओहारों से वह दुलहिनों का दर्शन करने लगी |  

लोक बेद कहि  बिधि अनुहार | किए दुआर किछु मंगल चारे | 
सुवासिनि रिती रही  न कोई | नेग जोग जस रुचि तस जोईं || 
लोक तथा वेदों में वर्णित विधि का अनुशरण कर द्वार पर कतिपय मंगलाचार हुवा कोई भी सुहागिनी रिक्त न रही द्रव्य-वस्त्र आदि शगुन को सभी ने रूचिनुसार प्राप्त किया | 

सोध सुदिन सुभ लगन में कर कंकन दिए छोर | 
होअहि सबहि मन मंगल मोदु बिनोदु न थोर  || 
शुभ दिन का शोधन कर शुभ महूर्त में कंकण छोड़े गए सभी के मन मंगलमय हो गए, आमोद प्रमोद की तो कोई सीमा ही नहीं थी | 

मुनिबर जब तें राम बिबाही |  भे नित नव मङगल जग माही || 
सघन तोख घन  घर घर बरखे |  घनकत  घन सुख संपत करखे || 
हे मुनिवर! जब से रामजी का विवाह हुवा तब से संसार में नित नव मंगल होने लगे | सुख की सघन सम्पतियों का कर्षण कर संतोष के सघन घन  गर्जना करते घर घर में वर्षा करने लगे |

एही बिधि किछु सुख दिवस बिहाने | पुनि  दसरथ  के मन महुँ आने || 
रघुबीर जुबराज पद दायउ | सुअवसर गुरहि जाइ सुनायउ || 
इस प्रकार कुछ समय सुखपूर्वक व्यतीत हुवा तदनन्तर  दशरथ राज के मन में विचार आया कि रघुवीर को युवराज के पद से विभूषित किया जाए शुभ अवसर देखकर गुरुजनों के सम्मुख यह अभिलाषा व्यक्त की | 

श्रवनहि समीप भए सित केसा | एहि  कृत मोहि करे उपदेसा ||  
राजतिलक के भयउ समाजा   |  भले लगन भल काल  बिराजा || 
कानों के पास के केश श्वेत हो चुके हैं इस हेतु आप मुझे राम के राजतिलक का उपदेश कीजिए |  शुभ समय व् शुभ मुहूर्त विराजित हुवे भगवान के राजतिलक की तैयारी होने लगी | 

सुर कहुँ  प्रेरि गिरा कहुँ आगी | कैकेइ केर बचन गै  लागी ||  
कोप भवनन बहु स्वाँग भरे |  दसरथ दिए बर कर माँग  करे || 
देवताओं द्वारा प्रेरित माता सरस्वती की आग कैकेई की वाणी को जा लगी | कोपभवन में उन्होंने बहुंत से स्वांग किए और दशरथ के दिए वर की मांग की | 

मूढ़ मंदमति मंथरा, कैकइ की एक चेरि । 
कुबरी कुटिल कुचाल करि, कन खौरी मति फेरि ॥ 
कैकेई की एक दासी  मंथरा थी जो मूर्ख व् हत-बुद्धि थी वह कुबड़ी थी कुटिल थी और कुचालों से भरी थी | उसने कैकेई के कानभरकर उसकी बुद्धि फेर दी | 

सोमवार, २२ जून २०१५                                                                                            

पठबए भूप भरतु ननिअउरें । भरी कुबेष कोपु गृह पँउरें ॥ 
भरत हुँत जुबराजु पद चहती । दिए दुइ बर देन गई कहती ॥ 
राजा दशरथ ने भरत को प्रथमतः ही ननिहाल भेज दिया था | कोप गृह की देहरी पर कुवेश धारण किए भारत हेतु युवराज पद की अभिलाषा करती दशरथ राज द्वारा पूर्व में दिए गए दो वरों के दायन हेतु कहने लगी | 

दाएँ भूप भरतहि अभिषेका । कह कडु कटुक माँगए बर एका । 
दूजी माँग राम बनबासा । चौदह बरिस बिसेष उदासा ॥ 
राजा  भरत को राजतिलक दे ऐसा कहकर अत्यंत कड़वी व् कठोर वाणी से प्रथम वर की मांग की | द्रितीय वर में उसने चतुर्दश वर्ष की अवधि का राम का वनवास माँगा जो सांसारिकता से उदासीन व् विरक्त तपस्वियों की भांति हो | 

रसन रसन धनु मन सर बानी । लच्छ राउ जिन जियँ नहि जानी ॥
नृप हिअ  राम तिलक अभिलासा  । श्री कांत मुख छाए हतासा ॥ 
उसकी जिह्वा प्रत्यंचा की भाँती मन धनुष की भांति हो गए और  वाणी बाणों की भाँती हो गई | लक्ष्य राजा दशरथ का किया जो उसे प्राणों से अधिक प्रिय न थे | दशरथ जी के हृदय में राम के राजतिलक की अभिलाषा थी कैकेई के वचन श्रवण कर उनके कान्तमय मुख मंडल पर मलिनता रूपी हताशा व्याप्त हो गई | 

भई  भीर  इत राज दुआरी  । राज तिलक के किए तैयारी ॥ 
नयन नयन रय रयन निहारे । चितबहि भोरु चौंक चौबारे ॥ 
इधर राजद्वारि जनाकीर्ण से युक्त थी सभी भगवान के राजतिलक की तैयारी में व्यस्त थे | प्रत्येक नेत्र रात्रि के व्यतीत होने की प्रतीक्षा कर रहे थे और चौंक चौबारों पर भोर के आगमन को अभिलाषित थे | 

उत केकइ बहु बिधि समुझायो । सूखित कंठु सिथिल भए रायो ॥ 
भई भोर नृप राम बुलाईं । दिए  दुइ बर नृप मातु बताईं ॥ 
उधर राजा दशरथ विभिन्न भांति से कैकेई के प्रबोधन का प्रयास कर रहे थे | देह  शैथिल्य हो गई थी कंठ शुष्क हो चला था | भोर हुई तब राजा ने रामजी को बुला भेजा व् कैकेई माता को दान की दो वरों  का संज्ञान कराया | 

हतचेत चितबत सुत पितु रामहि राम पुकारि । 
राम जान निज बनबास सुस्मित अधरु निहारि ॥ 
पुत्र को चेतनाहीन दृष्टि से देखते पिता दशरथ  राम-राम की पुकार करने लगे |  अपने वनवास की सुचना प्राप्तकर राम जी सुस्मित अधरों से पिता का अवलोकन करने लगे | 

मंगलवार, २३ जून, २०१५                                                                                                    

करुनायन सुकोमल सुभाऊ । कहसि मातु सो सब मन भाऊ ॥ 
सुने अवनिप रामु पग धारे । निरखहिं  कातर पलक उघारे ॥ 
करुणा के आयतन का स्वभाव अत्यंत ही कोमल है माता ने जो वचन कहे वह उन्हें प्रिय लगे | राजा दशरथ के कथनों को श्रवण कर भगवान ने उनके चरण पकड़ लिए | राजा दशरथ रामजी को कातर स्वरूप में  अपलक दृष्टि से विलोकने  लगे | 

 लागि दुःख पाउ अति लघु बाता । अस कहिबत  रघुबर निज ताता | 
परे चरन पुनि माँग बिदाई । चले बसन घन बन रघुराई ॥ 
इतनी छोटी बात के लिए आप इतने अधिक दुखित न होइए  ऐसा कहकर रामजी ने अपने पिता के चरण स्पर्श किए और उनसे आज्ञा प्राप्त की तदोपरांत सघन विपिन में निवास करने हेतु चल पड़े | 

थंभ रहँ जहँ  सुनइ जो कोई । धुरज धूरि जस धीरजु खोई ॥ 
कहहि करक कैकइहि कुबाता । होइहि दुर्बाचस कस माता ॥ 
'राम का वनवास' जिसने भी यह सुना वह स्तम्भित रह गया | धैर्य की धुरी धारण करने वालों में अग्रणी अयोध्यावासियों ने भी अपना धीरज विस्मृत कर दिया |  माता कैकेई ऐसी दुर्वचनीय कैसे हो गईं यह कहकर उन्होंने कैकेई को कर्कश व् अप्रिय बाते कहीं | 

कौसल्या पहिं गए गोसाईं । देइ असीस उर भर ल्याई ॥ 
जानि नहि नृप केहि अपराधा । देन बास बन एहि दिन साधा ॥ 
जगत स्वामी श्री राचन्द्र माता कौशल्या के पास गए आशीष देते समय माता का ह्रदय भर लाईं ,यह कहते हुवे कि न जाने कौन से अपराध के दंड स्वरूप राजा ने तुम्हें वनवास देने हेतु इस दिन का चयन किया | 

बिधाता केरि गति रहि  सदा बाम सब काहु  । 
चारु चन्द्रमा चित्र लिखत  लखत लखत लिखि राहु ॥ 
विधाता की गति तो सभी के लिए सदैव विरोधी ही रही है चन्द्रमा के सौंदर्य का चित्रण करते करते उसने राहु को भी चित्रांकित कर दिया जो उसे आए दिन ग्रस लिया करता है | 

बुधवार, २४ जून २०१५                                                                                                

सुनि सब चलन चहति सिय साथा । तनु  बिनु जिआ तिआ बिनु नाथा ॥ 
कराल ब्याल काल बन भूरि । कहँ बिष बटि कहँ सजीवन मूरि ॥ 
समस्त घटना को श्रवण कर सीताजी भी अपने प्रभु के साथ वन गमन की इच्छा कर कहती हैं कि हे माता ! प्राणनाथ रहित स्त्री प्राण रहित देह के समान है | तब माता उनका प्रबोधन कर उत्तर देती हैं उस अन्धकार युक्त वन में विकराल हिंसक जंतु हैं कहाँ तुम संजीवनी मूली के समान कहाँ वह वन विष की वटिका, दोनों का भला क्या मेल है | 

भय के दुःख सनेह के घेरे । कहै बचन जनि सिय बहुतेरे ॥ 
दीन दसा करि देखि न जाई । कहइ चलहु पुनि बन रघुराई ॥ 
भय, दुःख व् सनेह से घिरी सीताजी जननी को बहुंत प्रकार के वचन निवेदन करती हैं | सीताजी की दीनन दशा प्रभु से देखी न गई तब उन्होंने सीताजी को अपने संग वनगमन की अनुमति दे दी | 

गहि पद साधु देइ उर लीन्हि । असीस सों बहुतस सिख दीन्हि  ॥ 
होउ अचल अहिबात  अभंगे । जब लगि जग जमुना जल गङगे ॥ 
सीताजी ने अपनी साधु देवी के चरण स्पर्श कर आज्ञा मांगी जननी ने उन्हें हृदय से लगा लिया  आशीर्वाद के सह बहुंत सी शिक्षा देते हुवे कहा तुम्हारा सुहाग तब तक अखंड रहे जब तक संसार में गंगा यमुना का जल स्थिर  है | 

उत लखमनहु चलन कहि पारा । दास दास मैं दास तिहारा ॥ 
मात पितु  गुर पद सेवकाई । तिन्ह सों गरुबर भए रघुराई || 
उधर भ्राता लक्ष्मण ने भी साथ चलने की अभिलाषा व्यक्त की यह कहते हुवे कि हे प्रभु !हे स्वामी ! मैं आपका दास हूँ  हे अन्तर्यामी ! माता पिता व् गुरु के चरणों की सेवा से भी आपकी सेवा सर्वोपरि है | 

गत जनि पहिं कहि माँगु बिदाई । चलो बेगि सब साज सजाई ॥ 
अपनी साध सिद्ध जब जानी । कैकइ मुनि भाजन लिए आनी ॥ 
उन्हें भी सहगमन की अनुमति देते हुवे प्रभु जननी के पास जाकर कहा --'हे जननी ! अब केवल विदाई की अभिलाषा है , और सभी को उद्यत करते हुवे शीघ्रता पूर्वक प्रस्थान करने हेतु कहा | अपनी साध को सिद्ध हुई अनुमान कर कैकेई मुनियों के भाजन ले आई और भगवान के हाथों में रख दिए | 

बंदत बिप्रबर गुर गहे चरन रघुबर बनबास चले । 
सीस जटा किए बलकल तन  जग तें होत उदास चले ॥ 
बिरहाहु बिरहन रूप भरि कहि चौदह बरसि प्रबास चले । 
रामु बिजोग सब लोग भाषि रे भानु कुल के प्रकास  चले ॥ 
गुरुजनों,विप्रवरों की चरण वंदना कर तत्पश्चात भगवान वन वास को चले | शीश पर तपस्वियों सी जटा तन पर वैरागियों के से वस्त्र खंड मन मानस को सांसारिकता से विरक्त कर प्रभु वनवास को चले | विरहा भी विरहन का रूप धारण कर विलाप कराती कहने लगी आह १ प्रभु चतुर्दश वर्ष के वन प्रवास को चले | राम से वियोजित होने की कल्पना कर पुरजन कह उठे रे भानु कुल का प्रकाश अन्धयारे वन  को चला | 

सीस जटाल बलकल तन मुनि के भेसु बनाए । 
बनिता बंधु कहुँ संग लिए चले बिपिन रघुराए ॥ 
शीश पर जटा जूट, तन पर तपस्वी वेश धारण किए वनिता व् बंधू को संग लिए तदनन्तर भगवान श्रीराम  विपिन प्रस्थित हुवे | 

बृहस्पतिवार, २५ जून २०१५                                                                                           

सकल अवध बिरहागन दाहू । का पुरजन अरु का नर नाहू ॥ 
गुरबर बसिष्ट लगे द्वारे । बिरहा अगन बदन मुरुझारे ॥ 
क्या पुरजन क्या राजा, समूची अयोध्या विरह अग्नि में दहल उठी | विरह अग्नि से मंद कांति हुए मुख मंडल के सह गुरुवर वशिष्ठ द्वार से लगे प्रभु को जाते हुवे बिलोक रहे थे | 

आरत मुख दुःख सोक बिषादू  । सकल विदारन वादन नादू ॥ 
पुरजन परिजन जिअहि न जाना । भयउ निबिड़ सब भवन मसाना ॥ 
मुख पर आर्त ,दुःख , शोक व् विषाद लिए सभी ह्रदय विदीर्ण करने वाली ध्वनि से चीत्कार उठे | पुरजन परिजन को जैसे जीवन से ही विरक्ति हो गई प्रभु से ारहित होकर अयोध्या के सभी भवन निर्जीव श्मशान से प्रतीत होने लगे | 

हरिदै हरिदै होए अधीरे । सिआ सहित भए राम बहीरे ॥ 
 लए आयसु रथ बेगि बनाई । गए सुमन्त्र  रहँ जहँ रघुराई ॥ 
सीताजी सहित प्रभु रामजी नगर से  बहिर्गत  हुवे तब सभी के ह्रदय अधीर हो उठे  |  सचिव सुमंत्र ने आज्ञा लेकर रथ तैयार किया और वहां आए जहाँ भगवान उपस्थित थे | 

रखे सम्मुख बहोरि कर जोही । करि बिनति रथ रामावरोही ॥ 
प्रथम दिवस लगि जन भय साथा । बसत तमसा तीर रघुनाथा ॥ 
तदनन्तर करबद्ध होकर भगवान को रथ निवेदन किया विनय-विनती के पश्चात भगवान उस रथ पर आरोहित हो गए | प्रथम दिवस में पुरजन उनके साथ हो लिए उस दिन उनका तमसा नदी के तट पर निवास हुवा | 

 सोक श्रम बस पलक पट झूरे । सोए लोग जब अगजग भूरे ॥ 
छाँड़ चले नहि आन उपाई  । शृंग बेर पुर पद पैठाईं ॥ 
शोक व् श्रम  से संतप्त पलकों के पट झूल गए सभी लोग जब जगत प्रपंच को विस्मृत कर  निद्राके वशीभूत हो गए तब भगवान उन्हें शयनित छोड़ चले अन्य कोई उपाय भी न था फिर उन्होंने श्रृंग वेर  पुर में पदार्पण किया | 

नेकानेक प्रसंग कहि नाथ गंग अन्हाइ । 
सुधि गुँह सपेम भेंट भरि   भगवन दरसन धाए ॥ 
अनेकानेक प्रसंग कहते नाथ ने गंगा स्नान किया | निषादराज को प्रभु के आगमन की सुचना प्राप्त हुई तब वह स्नेह पूरित भेंट लिए उनके दर्शन हेतु दौड़े चले आए | 

शुक्रवार, २६ जून, २०१५                                                                                            

बसि बन कारण नाथ जनाईं । किसलयमय साँथरी रचाईं ॥ 
पुटक भरिअ जल दिए फल फूले । खाए रुचिर तहँ प्रभु सय भूले ॥ 
नाथ ने विपिन में वासित होने का कारण कहा तब उसने कुश व् पत्ते की शायिका रचाई दोनों में भर कर जल व् फल-फूल दिए प्रभु ने उन्हें रुचिपूर्वक ग्रहण किया  और सुखपूर्वक वहां शयन किया | 

भोर भई जग जीवन जागे । सुमन्त्र फिरन प्रबोधन लागे ।। 
बिनहि राम सुमंत्र बहुराईं।  बहुरि बनिक जिमि तजत कमाई ॥ 
भोर हुई जगत का सुसुप्त जीवन जागृत हो उठा तब उन्होंने सुमंत्र लौटने हेतु कहा | (दशरथ राज का आदेश था राम यदि लौटने  की अभिलाषा करे तो उन्हें लेते आना ) रामजी को लिए बिना सुमंत्र इस भांति लौट गए मानो वाणिज्यक लाभार्जन को त्याग कर लौट रहा हो | 

पार गमनु गंगा तट आवा । मँगे नाउ केवटु न अनावा ॥ 
जासु परसत  सिला भै नारी । कहाँ कठिन यह नाउ हमारी ॥ 
पारग हेतु प्रभु गंगा के तट पर आए, निषादराज से नाव मांगी किन्तु निषादराज ने यह  कहते हुवे नाव नहीं दी  कि जिनके चरण स्पर्श से शिला नारी स्वरूप हो गई उन्हें नैया कैसे दें  हमारी नाव काठ की ही तो है भला  यह शिला से कहाँ कठोर है | यह भी यदि नारी हो गई तो हम कमावेंगे का और खावेंगे का ? 

पाउँ पखारिहुँ  चहौं न खेवा । कहए गमनु प्रभु देउ ए सेवा ॥ 
पखारि पयस पय सपरिवारा । राम लखन सिअ पार उतारा ॥ 
निषादराज प्रभु के चरण प्रक्षालन की अभिलाषा व्यक्त कर फिर बोले : - मैं  नाव नहीं खेऊँगा, प्रभु यदि पार जाना है तब ये सेवा तो आपको देनी पड़ेगी  |तत्पश्चात  निषादराज ने सपरिवार प्रभु के चरणों का प्रक्षालन किया | संसार के तारणहार भगवान राम को लक्ष्मण और सीता सहित गंगा के पार उतारा | 

सकुचि नाथ कछु देवन नाही । सिय पिय कर मनि मुदरी दाहीं ॥
किए गुहार प्रभु पर नहि लेई । फिरत बार लहुँ कहत फिरेई  ॥ 
नाथ संकुचित रह गए, पारिश्रमिक देना चाहा ,पास में  कुछ था नहीं तब माता सीता ने तर्जनी की अंगुष्ठिका प्रभु के हाथ पर रख दी | प्रभु ने अनुरोध किया कि ले लो केवट भैया  , केवट बोले ना , नई लें  फिरती बारी लए लेवेंगे ऐसा कहकर प्रभु को ही फिरा दिया | 

सिय लखनहि सखा गुह सहि पहुंचे तीरथ राज । 
किए निमज्जन सिउ बंदन जोग रहँ भरद्वाज ॥ 
लक्ष्मण, सीता व सखा निषाद सहित भगवान तीर्थ राज प्रयाग पर पहुंचे और निमज्जन के पश्चात  शिव जी की वंदना की  वहां भारद्वाज मुनि उनके आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे | 

शनिवार, २७ जून २०१५                                                                                            

गहे चरन प्रभु अवनत सीसा । दिए असीस बहु मुदित मुनीसा ॥ 
भाव भगति आनंद अघाने । माँग बिदा तहँ संग पयाने ॥ 
प्रभु ने नतमस्तक होकर मुनिवर के चरणों में प्रणाम अर्पित किया  मुनिवर ने प्रमुदित होकर अतिशय  आशीर्वाद दिया | भाव भक्ति के आनंद से तृप्त प्रभु ने मुनिवर से  अनुमति ली और वहां से प्रस्थान किया | 

उतरि तट जमुना जी अन्हाएँ  । सकल लोचन दरसन सुख पाएँ ॥ 
बोधि फिरइँ  प्रभु सखा निषादा । त्रान हीन चलि पाँउ पयादा ॥ 
तदनन्तर यमुनाजी को पारगमन कर उसके तट पर स्नान किया  के दर्शन कर सभी नेत्रों ने अपार सुख की अनुभूति की | सखा निषादराज को प्रभु ने समझा-बुझा कर लौटा दिया अब वह चरण पादुका से रहित चरणों से ही चल पड़े |  

गाँव निकट चहँ जहँ कहँ  जावैं । दरसन आस नारि  नर धावैं ॥ 
एक चितबन् चितबहि  अनुरागे । एक चितबत चित सँग मह लागे ॥ 
जब वह कहीं किसी ग्राम के निकट से निकलते तब उनके दर्शन की आस लिए नर नारी दौड़े चले आते | कोई अनुराग पूरित दृष्टि से उनके दर्शन कर ठिठक जाता,  तो कोई उनका दर्शन करते करते संग में चल पड़ता | 

गाँउ न जाने नाउ न जाने । जग मह प्रभु कहँ गए पहचाने ॥ 
छुधा उदर भाँवर रहि काया । सीस धूप धर पदतल छाया ॥ 
न तो उन्हें  नाम ही ज्ञात था न गाँव ही ज्ञात था | संसार में प्रभु पहचाने ही कहाँ गए हैं | उदर में क्षुधा का निवास किए काया भटक रही थी शीश पर तप्ती धुप चरण तल पर काया की छाया - 

गिर गहबरी पंथ पथरारी । तापर साथ सुकुअरी नारी ॥
लखन भ्रात पद प्रेम पियासे । सिया राम से राम सिया से ॥ 
दुर्गम पर्वत के पथरीले पंथ उसपर एक सुकुमारी नारी के साथ रामजी आगे जाते सीता के जैसे ही निरीह प्रतीत होते लक्ष्मण तो भ्राता के चरणों के स्नेह रस के प्यासे थे जो सीता-राम से ही  निरीह प्रतीत होते  | 

गुंजहि मधुरिम मधुप जहँ बन सरि सेल सुहाए । 
श्रमित भ्रात सिय सहित प्रभु बालमीकि कुटि आए ॥ 
नदी व् पर्वतों से युक्त होकर मधुकर की मधुरिम गुंजार से जहाँ का उपवन सुहावना प्रतीत होता | शिथिल भ्रात व् सीता सहित प्रभु वहां स्थित वाल्मीकि की कुटिया पर पधारे | 

रविवार, २८ जून २०१५                                                                                                      

धन्य भए मुनि कीन्हि प्रनामा । पाए पहुना रूप श्री रामा ॥ 
जेहि भाँति बन रानी दीन्हि । सबहि कथा तस बरनन कीन्हि ॥ 
भगवान श्री राम को अतिथि स्वरूप में प्राप्त कर मुनिवर धन्य हो गए प्रभु  ने उनके चरणों में प्रणाम अर्पित किया | कैकेई रानी जिस प्रकार वनवास की आज्ञा की वह सारा  वृत्तांत निवेदन किया | 

मुनिबर बिनीत बचन उचारे । धन्य भाग बन आप पधारे ॥ 
रहौं कहाँ  मैं पूछेउँ मोहि  । तुहरे निबास कहाँ नहि होंहि ॥ 
मुनिवर ने विनयवत ये वचन उद्धृत किए --अहो भाग्य ! आपका वन में पदार्पण हुवा | अब आप मुझसे पूछ रहे हैं मैं कहाँ निवास करूँ ? प्रभु !आपका निवास कहाँ नहीं है | 

जिन्हनि हरि तुअ प्रान  पियारे । बसिहु जहाँ अभिलाष तिहारे ॥ 
चित्रकूट गिरि  कामना करहीं । जोहहि अत्रि  कबु हरि  पद धरहीं ।। 
हे हरि ! जिन्हें आप  प्राणों से प्रिय हो तथा जहाँ आपकी अभिलाषा है आप वहां निवास कीजिए | चित्रकूट गिरि में अत्रि मुनि आपकी कामना करते प्रतीक्षा कर रहे है कि कब आपका आगमन हो | 

कोलकिरात रचे दुइ साला । चित्रकूट अस बसेउ कृपाला ॥ 
प्रमुदित जल थल गगन बिहारी ।  धन्य मान् बेहड़ बन चारी ।। 
कोल किरातों ने दो कर्णिक शालाएं रच दी इस प्रकार भगवान चित्रकूट के निवासी हुवे | प्रभु के निवासित होने से जलचर  थलचर  नभचर सभी प्रमुदित हो उठे, वन गोचर स्वयं को धन्य कहने लगे | 
  धन्य धन्य चित्रकूट भुइ बेलि बिटप बन जाति । 
परसि चरण राज रघुबरहि धन्य धन्य दिन राति ।। 
 बेलें,विटप, वनोपज सहित चित्रकुल की वनस्थली धन्य धन्य हो गई | वन के राजा रघुवीर के चरण स्पर्श कर वहां दिवस रात्रि भी धन्य हो उठीं | 

सोमवार, २९ जून २०१५                                                                                                 

बन मग पग पग सब बिधि सोधे । कोल किरातिहि पंथ प्रबोधे ॥ 
 द्युति दिया सिय पिया प्रसंगा । सासु ससुर भए मुनि तिय संगा ॥ 
वन मार्ग का चरण-चरण कोल -किरातों (आदिवासी )को भली भांति ज्ञात था एतएव उन्होंने प्रभु के पंथ का प्रबोधन किया | ज्योति दीपक के संग तो सीताजी भगवान राम के संग थी, मुनि व् उनकी धर्मपत्नियाँ सास-श्वसुर  थे | 

सुनहु सुमंत्र अवध जिमि आवा । बैठे बटोहि दिवस गवाँवा ॥ 
झांकत रथ हरि दरसन तरसे । पाए हीन भरि लोचन बरसे ॥ 
हे मुनिवर ! अब वह प्रसंग भी सुनिए जब सचिव सुमंत्र इस भांति अवध पहुंचे जैसे किसी पथिक ने दिवस व्यर्थ में व्यतीत कर दिया हो | हरि दर्शन को तरस रहे पुरजनों ने रथ में झांका उसे हरि विहीन देखकर उनके लोचन वर्षने लगे | 

पूँछहि जन जन पूँछहि रानी । कहहु कहाँ पर उतरु न आनी ॥ 
तरपत पितु निज मान अभागे  । परे धरा पुनि प्रान  त्यागे ॥ 
प्रत्येक पुरजन ने पूछा, रानियों ने पूछा हे सुमंत्र ! रामजी कहाँ हैं ? किन्तु सुमंत्र के पास कोई उत्तर न था | पिता पुत्र के वियोग में तड़पने लगे स्वयं को भाग्यहीन मान धरती पर गिर पड़े और प्राण त्याग दिए | 

बिबिध भाँति सब करहि बिलापा । नगरी घर घर सोक ब्यापा ।। 
धावत दूत भरत पहिं आईं । संसइत मन चरन  बहुराई ॥ 
सभी विविध भांति से विलाप करने लगे  घर घर में शोक व्याप्त हो चला | दूत दौड़ते हुवे भरत के पास पहुंचे संशयित चित्त से वह लौटे  | 

पूछ कुसल तहँ सबहि की अपनी कही बुझाइ  । 
कपट नीर भरि कैकई क्रमबत बोल बताइ ॥ 
अयोध्या पहुँच कर भरत ने अपनी  कुशलता  कह सबकी कुशलता  पूछी , तब कपट से भरी कैकेई ने सारा घटना क्रम कह सुनाया | 

मंगलवार, ३० जून २०१५                                                                                                 

सुनत भरत उर दुःख भर भारी । तात  तात चित्कार पुकारी ॥ 
तड़पत जल बिनु मीन जिअन मेँ । भ्रात भवन नहि तात मरन मेँ ॥ 
यह श्रवण कर भरत के हृदय में दुःख का समुद्र उमड़ पड़ा, भ्राता भवन में नहीं हैं और तात का देहांत हो गया , तात तात कहकर भरत चीत्कार कर उसी प्रकार तड़प उठे जिस प्रकार जल बिनु मीन जीवन हेतु तड़पती है | 

जान बेनु बन अगन अभागे ।  कलपत कौसल्या हिय लागे ॥ 
बीति  करुनामई जगराती । दाह क्रिया कीन्हि एहि भाँती ॥ 
वेणु के वन में अग्नि के सदृश्य स्वयं को अभागा जानकर भरत कल्पते हुवे माता कौशल्या के हृदय से लग गए | रात्रि करुणामयी रात्रि जागृत होकर व्यतीत हुई तदोपरांत डाह क्रिया कर पिता का दशगात्र किया | 

मरन पूरब भूपति  सँदेसा । बुला भरत मुनि करि उपदेसा ॥ 
राज तिलक जब साज समाजे । चले देन बन रामहि राजे ॥ 
भरत को बुलाकर मुनि वशिष्ट ने पिता द्वारा कहे मृत्यु पूर्व के सन्देश का उपदेश किया | राजतिलक की सामग्री तैयार हुई किन्तु रामजी को राज्य देने हेतु भरत वन को प्रस्थित हुवे | 

तमसा तट  भए  प्रथम निवासू । गोमती तीर दूसर बासू ॥ 
श्रृंग बेर पर पावनि गंंगा । करे पार लिए सब जन संगा ॥ 
तमसा का तट प्रथम तो गोमती का तीर द्वितीय निवास हुवा तदनतर सब को साथ लिए वह शृंग वेर में पावन गंगा  के पारगम्य हुवे | 

प्रयाग राज सहित प्रभो जहँ जहँ  बस बसाए । 
भाव बिहबल होत भरत तहँ तहँ परनत जाएँ ॥ 
प्रयागराज सहित प्रभु ने जहां-जहाँ निवास किया, भाव विह्वल  भरत उस उस स्थान को प्रणाम करते चले | 














































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