पहुँच आसु करि कुस कै आगे । अनेकानेक सर छाँड़न लागे ॥
बधि बधि भाल बदन कर बाहू । भेद मर्म दिए दारुन दाहू ॥
राजा सुरथ शीघ्रता पूर्वक वहां पहुंचे | रथ को कुश के सम्मुख करते हुवे वह अनेकानेक बाण छोड़ने लगे | भाल, वदन, हस्त व् बाहु में घात पर घात करते हुवे मर्म को भेदकर कुश को कठिन पीड़ा से संतप्त कर दिया |
करिअ बिकलतर अस रे भाई । घायल व्यथा कहि नहि जाई ॥
तब कुस रिजु कस सर दस मारे । सुरथन्हि रथ सोंहि महि डारे ॥
इस प्रकार वीरों के शिरोमणि राजा सुरथ ने कुश को ऐसे व्याकुल कर दिया कि घायल अवस्था में मुझसे उनकी व्यथा कही नहीं जाती | तब कुश ने भी प्रत्यंचा कर्षित कर दस बाण छोड़े और राजा सुरथ को रथ से भूमि पर धराशाई कर दिया |
पनच चढ़ेउ कठिन कोदंडा । काटि बेगवत किए खनखण्डा ॥
दिव्यास्त्र छाँड़ै केहि एका । दूज प्रतिहरन हनहि अनेका ॥
प्रत्यंचा चढ़ाए हुवे उनके सुदृढ़ धनुष को वेगपूर्वक काटते हुवे खंड-खंड कर दिया | जब उनमें से कोई एक दिव्यास्त्र का प्रयोग करता तब दुसरा उसका प्रतिकार करते हुवे अनेकाने अस्त्रों का प्रयोग करता |
छेपायुध जो कोउ प्रहारिहि । तुरगति प्रतिहति तुरति बिदारहि ॥
एहि भाँति भयउ दोनहु ओरा । लोमनु हरख समर घन घोरा ॥
जब एक पक्ष क्षेपायुध से प्रहार करता तब दूसरे पक्ष द्वारा आतुरता पूर्वक प्रतिघात करते हुवे उसका भी निवारण कर दिया जाता | इस प्रकार उन दोनों वीरों के मध्य लोमहर्षक घनघोर संग्राम होने लगा |
सोचि सिया कुँअरु अबु करि चाहिब कृत का मोहि ।
लेन जिआरी उद्यत अह सहुँ मम परम बिद्रोहि ॥
तदनन्तर सीता पुत्र कुश ने विचार किया अहो ! यह सुरथ मेरा परम विद्रोही हो गया है और मेरे प्राण लेने को उद्यत अब मुझे क्या करना चाहिए |
बुधवार १३ जुलाई, २०१६
करतब ठान लच्छ अनुमाना । गहेउ हस्त कटुक एकु बाना ॥
छूट सो काल अगन समाना । प्रजरत चला कला कृत नाना ॥
तब कर्तव्य का निश्चय कर लक्ष्य का अनुमान किया तथा एक तीक्ष्ण एवं भयंकर सायक हस्तगत किया | छूटते ही वह कालाग्नि के समान प्रज्वलित होकर नाना कलाएं करता आगे बढ़ा |
देख्यौ सुरथ आगत ताहीं । सोचि बिदारन जूँ मन माही ॥
त्योहिं कठिन कुलिस के भाँती । धँसा बेगि परिछेदत छाँती ॥
उसे अपने सम्मुख आते देख सुरथ ने ज्योंही मन में उसके निवारण का विचार किया, त्योंही वह महासायक तीव्रता पूर्वक उनके वक्ष में धंस गया |
परा रथोपर रन हिय हारे । तरपत हे रघुनाथ पुकारा ॥
सारथि निज पति हतचित पावा । रन भू सोंहि बहिर लय आवा ॥
सुरथ मूर्छा को प्राप्त होकर रथ पर गिर पड़े व् पीड़ा से तड़पते हुवे रघुनाथ को पुकारने लगे | सारथी ने अपने स्वामी को जब रथ में अचेत पाया वह तब वह उन्हें रणभूमि से बाहिर ले गया |
हार रन हिय सुरथ गिरि गयऊ । सिया कुँअर कर बिजई भयऊ ॥
देखियत इयहि पवन कुमारा । सहसा एकु बड़ साल उपारा ॥
इस प्रकार सुरथ परास्त होकर धराशाई होने पर और सीता पुत्र कुश विजयी हुवे-- यह देखकर पवन कुमार हनुमान जी ने सहसा एक विसहाल शाल का वृक्ष उखाड़ लिया |
धावत बेगि जाइ निकट, दए बल अतुल अपार ।
झटति डारेन्हि तापर, करियहि घोर प्रहार ॥
वेगपूर्वक दौड़ते वह कुश के निकट गए और अपरिमित बल के साथ उस वृक्ष को तत्क्षण प्रक्षेपित करके उनपर पर घोर प्रहार किया |
द्रुम घात तैं चोट गहावा । संहारास्त्र लेइ उठावा ॥
अजित अमोघ सकती अस होई । लागत सीध बचै नहि कोई ॥
उस वृक्ष के आघात से चोटिल होकर कुश ने संहारास्त्र उठाया जिसकी शक्ति ऐसी दुर्जय व् अचूक थी व् शत्रु पर सीधा प्रहार करती थी इससे किसी का बच पाना कठिन था |
बिलोकत ताहि प्रबल हनुमाना । बिघन हरन के करिहि ध्याना ।
देत घात घन ऐतक माही । हनुमन उरसिज आनि समाहीं ॥
उस अस्त्र का अवलोकन कर बलशील हनुमान विध्न हर्ता श्री राम चंद्र जी का ध्यान करने लगे | इतने में ही वह अस्त्र करारी चोट देते हुवे उनके वक्ष में समा गया |
होइहि अह ब्यथक सो भारी । पीर भरत करि बहुंत दुखारी ॥
हतत आतुर मूरुछा दयऊ ॥ सुनु मुनिबर आगिल का भयऊ ॥
आह ! वह चोट की उस गहन वेदना ने हनुमान जी को पीड़ा देते कष्ट से व्याकुल कर दिया | उस चोट से वह तत्काल ही मूर्छा को प्राप्त हो गए | हे मुनिवर ! 'तदनन्तर आगे जो हुवा उसे सुनो | '
हनुमत होइ गयउ हतचेता । सीता नंदन तब रनखेता ॥
कसि कसि रिजु असि बान चलायो ।एक एक तेउ सहस बनि धायो ॥
जब हनुमान भी मूर्छित हो गए तब सीता के पुत्रों ने राण क्षेत्र में प्रत्यंचा को कर्ष-कर्ष कर ऐसे बाण चलाए की वह एक एक बाण से सहस्त्र बाणों में परिणित होकर दौड़ने लगे |
लपक लपक लागेउ तिमि जिमि गहि कालहि खाहि ।
चतुरँगनि पराई चली, कहति त्राहि मम त्राहि ॥
ततपरता पूर्वक प्रतिपक्ष को ऐसे जा लगते जैसे उन्हें काल ही कवलित कर रहा हो | राम जी की चतुरंगिणी सेना इस आक्रमण से त्राहि त्राहिकर भाग खड़ी हुई |
बृहस्पतिवार १४ जुलाई २०१६
भाँपत ए सब मरनि निअराई । अति भय त्रसित न कोउ समुहाई ॥
कपि राजु सुग्रीउ तेहि काला । आनि सँभारेउ सैन बिसाला ॥
अब मृत्यु निकट है यह भांपते ही सब भय से अत्यधिक आक्रान्त हो उठे, फिर कोई सम्मुख नहीं हुवा | उस समय कपराज सुग्रीव ने उस विशालवाहिनी के संरक्षक हुवे |
ऊंच ऊंच सो बिटप उठावा । नभ रव पूरत कुस पहिं धावा ॥
देइ बिदारिहि बिनहि प्रयासू । टूक टूक होइब सब आसू ॥
वह ऊँचे ऊँचे वृक्षों को उठाकर नभ को शब्दवान करते कुश की ओर दौड़ पड़े | कुश ने उन्हें प्रयास के बिना उन सभी वृक्षों को शीग्रता पूर्वक विदीर्ण करके खंड-खंड |
तबु कपिप्रभु एकु सेल उपारा । ताकि तमकत माथ दए मारा ॥
बिहुरत बनावरि दरसत ताहीं । कन कन करि डारिहि छन माही ॥
तब कपिनाथ सुग्रीव ने एक भयंकर पर्वत उखाड़कर कुश के मस्तक का लक्ष्य करते हुवे उसे तमक कर दे मारा | उस पर्वत को आते देख कुश ने शीघ्र ही सैकड़ों बाणों का प्रहार करके उसे चूर्ण चूर्ण कर भूमि पर गिरा दिया |
करत धूर पुनि उड़इँ अगासा । भइ धूसर रन भुइ चहुँ पासा ॥
लगन जोग मह रूद्र समाना । भए सो भूधर भस्म प्रमाना ॥
तत्पश्चात उसे धूल-धूल कर आकाश में उड़ा दिया | रण- भूमि भी चारों और से धूल-धूसरित हो गई| वह पर्वत अब महा रूद्र के शरीर में लगाने योग्य भस्म सा हो गया था |
मारि भालु कपि घायल कीन्हि । जो उचित जस तस फल दीन्हि ॥
बालक के बल बिक्रम अतीवा । देखिहि अचरजु भरे सुग्रीवा ॥
भालू एवं कपियों को चोटिल कर उन्हें घायल अवस्था में पहुंचा दिया जिसके लिए जो उचित था उसे वही फल दिया | बालक का ऐसा महान पराक्रम देखकर सुग्रीव को अत्यंत आश्चर्य हुवा |
चित्रलिखित समेत कपिप्रभु चितवहि भर प्रतिसोध ।
प्रताड़न ताहि बिटप एकु गहि अतिसय कृत क्रोध ॥
ऐसी स्तब्ध दशा व् प्रतिशोध से भरी दृष्टि से सुग्रीव कुश को देखते रहे | फिर उन्होंने उसे प्रताड़ित करने के लिए रोषपूर्वक एक वृक्ष हाथ में लिया |
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ऐतक महुँ लव के बड़ भाई । बरनायुध चुनि चापु चढ़ाईं ॥
पुनि चित्रकृत निज बल दिखरायो । बरुण पास कपि सुदृढ़ बँधायो ॥
इतने में ही लव के बड़े भ्राता कुश ने वरुणायुध का चयन कर धनुष पर संधान किया | तत्पश्चात चित्रवत करने वाले बल का प्रदर्शन करते हुवे कपि नाथ सुग्रीव को वरुण पाश में बाँध लिया |
लपटाहि जिमि कोउ उरगारी । बँधत गिरे रन भूमि मझारी ॥
निरखिहि जुधिक परे निज नाथा । धाएउ इत उत भय के साथा ॥
वह पाश उनपर ऐसे वलयित हुवा जैसे वह कोई सर्प हो | उससे बंधते ही सुग्रीव रण भूमि पर गिर पड़े | अपने संरक्षक को धराशायी देखकर रण योद्धा भयाक्रात होकर इधर-उधर दौड़ने लगे |
बीरसिरोमनि भ्राता दोई । बहोरि बिजै कलस कर जोई ॥
पुष्कल अंगद कि प्रतापाग्रय । बीरमनि हो चहे अन्यानय ॥
वीरों के शिरोमणि उन दोनों भ्राताओं ने विजय कलश करोधार्य करते हुवे, पुष्कल, अंगद हो कि प्रतापाग्रय अथवा अन्यान्य वीरमणि ही क्यों हो |
करत हताहत सकल भुआला । दोउ भ्रात गहेउ जयमाला ॥
दोनउ भात परस्पर हेलिहि । हरषित मनस मुदित मन मेलिहि ॥
सभी राजाओं को हताहत कर दोनों भ्राताओं को विजयमाल ग्रहण की | दोनों भ्राता एक दूसरे का अभिनन्दन करते हुवे हर्षित एवं प्रमुदित मन से आलिंगन किया |
गहे गुरु चरण बसिहि सघन बन भेसु धरेउ जिमि कोउ जति ।
मख तुरग निबंधु दोनहु बंधु मह मह बीर ते बीर अति ॥
बाल मराल कोउ भुआल न सहुँ चतुरंगी बाहिनी ।
चले गगन सर भाल कराल तथापि जीति बिनहि अनी ।
गुरु के चरणों के शरण हुवे दुर्गम वन में निवासरत यति का वेश धारण किए वीरता में एक से बढ़कर एक उन युगल भ्राताओं ने भगवान के यज्ञ सम्बन्धी अश्व को परिबद्ध कर लिया | वे बाल हंस न कोई राजा थे न ही उनके पास कोई चतुरंगिणी वाहिनी ही थी | सेनारहित होने के पश्चात भी गगन में विकराल भालों एवं तीरों को चलाकर उन्होंने अद्भुद वीरता व् अदम्य साहस का परिचय देते हुवे विजयश्री प्राप्त की | सार यह है कि बल पर बुद्धि की विजय होती है |
हरखिहि सुर न त बरखिहि सुमन न कोउ अस्तुति गाए।
न कतहुँ दुंदुभि बजावहिं बिजित सुभट समुदाए ॥
न देवता ही हर्षित हुवे न पुष्पों की वर्षा हुई न कोई स्तुति गाई गई | वीरों के विजित समूह द्वारा न कहीं दुंदुभि ही निह्नादित हुई |
शुक्रवार १५ जुलाई, २०१६
मुदित मनस बहु हरखित गाता । बोलेउ लव सुनहु मम ताता ॥
होइहि तुहरी कृपा अपारा । समर सिंधु पायउँ मैं पारा ॥
ऐक सैनि सेना के उन दोनों वीर बालकों में से लव ने हर्षित देह व अत्यंत प्रसन्न मन से कहा : -- ' सुनों मेरे भ्राता ! तुम्हारी अपार कृपा के कारण ही मैं इस संग्राम सिंधु को पार करने में सफल हुवा |
अजहुँ भई रन बिजै हमारी । हेरै कोउ सुरति चिन्हारी ॥
कहत अस लव सहित निज भाई । प्रथमहि रिपुहन पहिं नियराईं ॥
इस रण में हमारी विजय हुई है जिसके प्रमाण हेतु हमें कोई स्मृति चिन्ह ढूंढ़ना चाहिए, ऐसा कहते ही लव अपने भ्राता के साथ सर्वप्रथम शत्रुध्न के पास गए |
गयउ तहाँ दुहु गहगह गहि कर । हिरनमई मनि मुकुट मनोहर ॥
आयउ जहँ पुष्कल महि पारे । कबेलाकृत किरीट उतारे ॥
वहां जाकर दोनों ने उत्साहपूर्वक शत्रुध्न के मस्तक का हरिण्य मय मनोहर मुकुट हाथों में लिए वहां आए जहाँ पुष्कल भूमिगत थे | प्रथमतः उनका कमलाकृत मुकुट उतारा |
बहुरी बाहु सिखर लगि पूरा । गहि तासु कल कनक केयूरा ॥
कवच कराल भाल सर चंडा । सकेरिहि कछु कठिन कोदंडा ॥
तत्पश्चात भुजाओं से कंधे तक आभूषित उनके सुन्दर स्वर्णमय केयूर लिया कवच, भयंकर भालों और प्रचंड सायकों सहित कुछ सुदृढ़ धनुषों को संकलित किया |
बांध्यो जाइ पहिं बानर राजु अरु महबली हनुमन्तहि ।
कहत लव निज भ्रात सों तात लै जइहौं कुटीरु दुनहु गहि ॥
तहँ मुनि बालक केलिहि ता सँग मोरु मन रोचन होइहीं ।
राख्यो निकट तुरग थल लाई दुहु बंधु करत अस बत कही ॥
तत्पश्चात वह बालक वानर राज सुग्रीव व् महाबली हनुमंत के पास गए और उन्हें बांध लिया | लव ने अपने भ्राता से कहा हम इन दोनों वानरों को पकड़ कर अपनी कुटिया लिए जाते हैं वहां मुनि के बालक इनके संग जब बालक्रीड़ा करेंगे तब वहां मेरा मनोरंजन हो जाएगा | ऐसी बातें करते उन दोनों भ्राताओं ने यज्ञ सम्बन्धी उस अश्व को ले जाकर आश्रम के एक निकट एक स्थान पर बाँध दिया |
जोहति सुतहि पंथ जगज जननि मातु श्री सोभामई ।
थिर थिर थकी ढरयो रबि दिनु बिरत्यो अरु साँझ भई ॥
अँधेरिया जग घेरिया जग जगमग जोत जुहार करे ।
बरति बिलग जोहहि द्वार लग दीपन मनि सार भरे ॥
(इधर) शोभामई जगज्जननी मातु श्री जानकी पुत्रों हेतु प्रतीक्षारत थीं | उनकी प्रतीक्षा में सूर्यदेव भी रुकते थमते अंतत:शिथिल होकर अस्त हो गए दिवसान हुवा और संध्या हो गई | अन्धकार ने संसार को घेर लिया वर्तिका से वियुक्त मणियों से दीपक सार भरकर द्वारों से आ लगे और सीता पुत्रों की प्रतीक्षा करने लगे अब जागृत हुई जगजग ज्योतियाँ भी उनके आगमन की प्रतीक्षा करने लगीं |
सुभ बसन भूषन बँधि कपिगन तुरग सहित सादर चले ।
जाइ सिया पहिं अरपिहि चरन नत भेँट भूषन जे भले ॥
आगत देखि दुहु बाल मराल मुदित बहु लोचन भरी ।
लाइ हरिदै सनेह सहित दुइ पलकन जल बिन्दु धरी ॥
शुभ्र वस्त्रों आभूषणों विबन्धित कपिगणों व् तुरंग सहित वह दोनों भ्राता उन्हें लिए सादर प्रस्थान किए | और माता सीता के पास जाकर उनके चरणों में प्रणाम कर ये सुन्दर आभूषण अर्पित कर दिए | दोनों बाल हंसों को आया देख प्रमुदित हुईं माता के नेत्र भर आए, फिर पलकों में दो बिंदु लिए उन्हें सस्नेह ह्रदय से लगा लिया |
चकित सकुचित बिस्मित बदन करि ढारि दृग पट हरयरी ।
परचत कपिगन भेंट भूषन सहसा सिहरति अति डरी ॥
उठि त्याजत निबंधु छोरि कहि सुत जाहु दुहु कै पग परौ ।
कपिराजु बली महबीर जे अबिलम अतुरै परिहरौ ॥
तत्पश्चात वह चकित संकोचित विस्मित मुख कर अपनी दृष्टि पटल को धीरे धीरे नीचे किया कपिगणों व् भेट आभूषणों को पहचानकर वह सहसा सिहरती हुई भयान्वित हो गईं | भेंट बुषाणों का त्याग करते वह उठीं और कपिगणों को विबन्धनों से मुक्त करके बालकों से बोलीं -जाओ उन दोनों के चरणों में प्रणाम अर्पित करो | यह कपिराज सुग्रीव व् महावीर हनुमंत हैं,अधिक विलम्ब न कर तुम इन्हें तत्काल विमुक्त करो |
जे महमन हनुमन भयउ रघुबर केर सहाइ ।
भस्म भई लंका पुरी दनुपत गयउ नसाइ ॥
ये महामना हनुमंत रघुवीर जी के सहायक हुवे तो लंकापुरी भस्म हुई और दानवपति दशानन का सर्वनाश संभव हुवा |
रविवार, १७ जुलाई, २०१६
जे बलबन कपि भल्लुक नाहा । कहु दोनहु अस बाँधिहु काहा।
मारि कुटत पुनि करिहु अनादर । रे बच्छर धिक् धिक् तुहरे पर ॥
ये वीर बलवान भालू व् वानरों के स्वामी हैं कहो तो तुमने इन दोनों को क्यों बांधा ? फिर मार कूटकर इनका अनादर भी किया अरे बालकों ! धिक्कार है तुमपर |
बोलेउ सुत सुनहु हे माता । राम नामु नृपु एकु बिख्याता ॥
बीर सिरो मनि बहु बलवंता । दसरथ तनय अवध के कंता ॥
माता के ऐसा कहने पर बालकों ने उत्तर दिया : -- हे जननी सुनो ! ' विश्व प्रसिद्द एक राजा हैं जिनका नाम राम है, वह महाबलवन्त वीरों के शिरोमणि हैं तथा दशरथ के पुत्र व् अवध के स्वामी हैं |
तेज तुंग एकु तुरग त्याजे। सुबरन पतिआ भाल बिराजे ॥
नाउ परच बल बिक्रम बिसेखे । परन परन बिबरन यहु लेखे ॥
उन्होंने तेज से युक्त एक ऊँचे अश्व का त्याग किया है उसके ललाट पर एक स्वर्ण-पत्रिका विराजित है जिसके पत्रों में उनका नाम व् विशेष पराक्रम का परिचय देते हुवे यह विवरण उत्कीर्ण हैं कि : --
बलबन आपनु समुझिहि जोई । हरिहु ताहि बढ़ सद् छत्रि सोई ॥
न त मम सम्मुख अवनत माथा । समरपिहु राज पाट जुग हाथा ॥
' जो स्वयं को बलवान मानता हो वह सद क्षत्रिय इस अश्व का हरण करे अन्यथा मेरे सम्मुख नतमस्तक होकर हाथ बांधे अपने राजपाट का समर्पण करे |'
दरस ढिठाई महिपु की साँच कहएँ हे मात ।
अहा हठात जाई पहिं बाँध लिये बरियात ॥
हे माता ! हम सत्य कहते हैं, उस महिप की यह धृष्टता देखकर हमने अश्व के पास जाकर उसका हठात हरण किया तत्पश्चात उसे बलपूर्वक बाँध लिया |
सोमवार, १८ जुलाई, २०१६
पुनि सो समर बीर बल पूरा । गरज गहन रन भेरि अपूरा ॥
बरूथ बरूथ भट हमहि पचारे । किए घन घोर समर गए मारे ॥
तदनन्तर बल से परिपूर्ण संग्राम वीरों से युक्त उस राजा ने गरजते हुवे रण भेरी निह्नादित कर गहन रण आरम्भ कर दिया, तब उस घमासान करते हुवे यूह के यूह योद्धा हमारे द्वारा परास्त होकर वीर गति को प्राप्त हुवे |
मौलि मुकुट एहि रिपुदवनू के । ए कल कंकन भरत नंदनू के ॥
बोलिहि मातु पुनि मुख नेहि के । गहिहु तुरग कहहु सो केहि के ॥
यह मुकुट रिपुहन के मस्तक का है और यह सुन्दर कंकण भरत नंदन पुष्कल का है | तब माता ने उनके मुख को स्नेह करते हुवे पूछा : - 'अच्छा यह बताओ जो अश्व तुमने पकड़ रखा है वह किसका है ?'
प्रथमहि हम जो तोहि जनाईं । सोए रघुबर तासु गोसाईँ ॥
रे बछर तुम करिहउ न न्याए । हरिहु तुरग रघुबीर परिहाए ॥
बालकों ने उत्तर दिया : - 'प्रारम्भ में हमने आपको जिनका परिचय दिया था वह राजा रामचंद्र जी इस अश्व के स्वामी हैं |' माता सीता ने कहा : - अरे मेरे बालकों ! रघुवीर के त्यागे हुवे तुरंग का हरण कर तुमने न्याय नहीं किया |
अनेकानेक बीरन्हि हनिहउ । पुनि बाँध कपिगन सुठि न करिहउ ॥
होए ए करतब कछु भल नाही । सुनु एहि बत नहि तुमहि जनाही ॥
अनेकानेक वीरों को हताहत करते हुवे इन कपियों को बांधकर तुमने उचित नहीं किया | जो हुवा सो अच्छा नहीं हुवा, तुम जिन बातों से अनभिज्ञ हो उसे ध्यान पूर्वक सुनो |
जनमदात सो पितु तुम्हारे । महा मेध हुँत हय परिहारे ॥
सुनु छाँड़त सादर कपि दोऊ । बँधे बाजि परिहरहउ सोऊ ॥
जिन्होंने इस यज्ञ सम्बन्धी अश्व का त्याग किया है वह तुम्हारे पिता है उन्होंने तुम्हें जन्म दिया है | अब मेरी बाते सुनो : - 'तुम इन दोनों वानरों को आदर सहित मुक्त करो | बंधे हुवे अश्व का भी विमोचन कर दो |'
सुनत मातु कर बत कही बाल बीर बलवंत ।
साधे मौन मूरत भए सो एकु पल परजंत ॥
माता के वचनों को श्रवण कर वह बलवंत बाल वीर मौन साध कर एक क्षण के लिए मूर्तिवत हो गए |
मंगलवार, १९ जुलाई, २०१६
पुनि बालक बोलिहि रे माता । अहहीं बेद बिदित एहि बाता ॥
सो छत्रि धरम हमहु अनुहारे । महमन महिप समर गए हारे ॥
तत्पश्चात बालक बोले : - 'हे माते ! जो वेद विदित निगदन है' हमने उसी क्षत्रिय धर्म का अनुशरण किया है जिससे वह महातिमह राजा संग्राम में परास्त हुवे |
छत्री धर्म अनुहर रन आगी । लागत जनि होत न हतभागी ॥
बालमीक मुनिबर पाहिं पढ़े । ए सिच्छा देइ सो हमहि गढ़े ॥
क्षत्रिय धर्म के अनुसार रण रूपी अग्नि के लगन से अन्याय का भागी नहीं होना पड़ता | मुनिवर वाल्मीकि जी से विद्या ग्रहण की है उन्होंने यह शिक्षा देते हुवे हमें गढ़ा है |
छात्र धर्म कह कहिब ग्याता । पिता ते पुत भ्रात ते भ्राता ॥
सिस समुह चहे गुरु किन होईं । जूझत रन भू पाप न होई ॥
क्षात्र धर्म का व्याख्यान करते हुवे विद्वानों ने कहा है -- 'पुत्र पिता के , भ्राता भ्राता के एवं शिष्य गुरु के सम्मुख ही क्यों न हो उनका युद्ध-भूमि में युद्ध करना दोष नहीं होता |
तद्यपि जसु तुहरे अनुसासन । बंधे बाजि बर करिअ बिमोचन ॥
ता संगत बहरिहिं कपि दोऊ । होइहि सोए कहब तुम जोऊ ॥
तद्यपि आपकी आज्ञा का पालन करते हुवे हम इस बंधे हुवे अश्व को विमोचित किए देते हैं तथा इन वानरों को भी मुक्त कर देते हैं | आपकी जैसा कहेंगी वैसा ही होगा |
अपूरत निज मंजुल मुख मध्यम मधुरित बानि ।
सिरु नत बहु बिन्यानबत दोउ जोग जुग पानि ॥
अपने मंजुल मुख को इस प्रकार की मध्यम व् मधुरिम वाणी से परिपूरित कर वह दोनों माता सीता के सम्मुख हाथ जोड़े अति विनम्रता से नतमस्तक हुवे |
बृहस्पतिवार, २१ जुलाई, २०१६
जग बंदित मातु अस कहयऊ । गए दुहु तहाँ जहाँ रन भयऊ ॥
लए कपीस गन आगिल बाढ़े । तुरंगम सहित दिए दुहु छाँड़े ॥
फिर जगद वंदिनी मातु के कथनानुसार वहां गए जहाँ यह महा संग्राम हुवा था वह उन दोनों कपीश्वरों को लेकर आगे बढे एवं उन्हें तुरंग सहित मुक्त कर दिया |
दुहु सुत करम कटकु बिनसाई । सुनिहि सुतहि मुख जबु जग माई ॥
प्रणति चरनन सुरति भगवाना । मन ही मन पुनि करति ध्याना ॥
अपने दोनों बालकों के मुख से उनके द्वारा सेना का मारा जाना सुनकर जगज्जननी भगवान श्रीराम चंद्र जी का स्मरण मन-ही मन उनके चरणों में प्रणाम अर्पित किया | भगवान का ध्यान करते हुवे : -
सदागतिबत सबहि के साखी । भगवन केतु कंत पुर लाखी ॥
कहि करुणित हे दिनकर देऊ । जौं मैँ मन क्रम बचनन तेऊ ॥
सदैव गतिवान सर्वसाक्षी सूर्यदेव का लक्ष्य कर करुणामयी वाणी से बोलीं : - हे दिनकर ! हे देव ! यदि में मन, क्रम, वचन से : -
बंदउँ चरन श्री रघुबरहि के । भजेउँ भजन न आन केहि के ॥
तौ मरनासन नृपु रिपुहन्ता । अजहुँ छन महुँ होएँ जीयन्ता ॥
अन्य किसी को न भज कर यदि मैं रघुवर जी की चरण-वन्दना करती हूँ तो मरणासन्न राजा शत्रुध्न इसी क्षण जीवंत हो जाएं |
बिरुझत बिदरत बहु बरियाईं । मोर तनय ते गयउ नसाई ॥
रकताकत अनी सोउ भारी । मोर सत सोहिं होए जियारी ॥
मेरे पुत्रों का सामना करने के कारण उनके बल की तीक्ष्णता से यह क्षत-विक्षत होकर रक्तारक्त हुई यह विशाल सेना मेरे सत के प्रभाव से पुनर्जिवि हो |
पतिब्रता सति जानकी जस अस बचन उचारि ।
तैसेउ मरति जिअत उठि बिनसि सैन सो भारि ॥
पतिव्रता सती सीता जी ने जैसे ही ऐसे वचनों को उच्चारित किया वैसे ही मृत्यु के सन्निकट वह विशाल सेना जीवित हो गई |
शुक्रवार, २२ जुलाई, २०१६
कहत सेष सुनु मुनि बिद्वाना । छन महुँ मुरुछा गयउ बिहाना ॥
जगएं जगज जिमि सयन त्यागे । मरनासन रिपुहन जिअ जागे ॥
शेष जी ने कहा हे विद्वान मुने सुनिए ! रयनावसान के पश्चात शयन का त्याग कर जिसप्रकार संसार जागृत होता है उसी प्रकार मरणासन्न शत्रुध्न जी की मूर्छा का भी क्षण मात्र में ही अवसान हो गया और वह भी जागृत होकर जीवंत हो उठे |
लहि सुभु लच्छन गहि गुन गाढ़े । देखि तुरग मम सम्मुख ठाढ़े ॥
मनि मुकुताबलि मुकुट न माथा । धनु बिनु कर भुज सिखर न भाथा ॥
उन्होंने देखा शुभ लक्षणों व् उत्तम गुणों से युक्त यज्ञ सम्बन्धी अश्व निर्बाध रूप में मेरे सम्मुख खड़ा है, मणि मुक्तावली से जटित मुकुट मस्तक पर नहीं है, हस्त धनुष से रहित हैं कंधे तूणीर से विहीन हैं |
निरजिउ परेउ अनि जिअ गयऊ । संकित मन बहु अचरज भयऊ ॥
चितबत चित्रकृत नयन अलोले । जागत सुबुध सुमति सहुँ बोले ॥
मृतप्राय सेना जीवित हो उठी है यह दृष्टिपात कर उनके सशंकित मन आश्चर्य से चकित रह गया | तब वह स्तब्ध होते हुवे स्थिर नेत्रों से मूर्छा से जगे बुद्धिमानों में श्रेष्ठ सुमति से बोले : --
जौ नहि जति नहि कोउ भुआला । कृपा करत सो बाल मराला ॥
बाँधेउ बाजि बल दिखरायो । मख अपूरनन दए बहुरायो ॥
जो न कोई सन्यासी है न नरेश ही हैं उन बाल हंसों ने इस अश्व को बांध कर अपने अभूतपूर्व बल का प्रदर्शन किया तथा हम पर कृपा करते हुवे यज्ञ पूर्ण करने के लिए उसे लौटा भी दिया |
गहरु करब कछु लाह न आही । चलहु बेगि अबु रघुबर पाहीं ॥
अब विलम्ब करने से कोई लाभ नहीं है हमें तत्परता से रघुवीर के पास चलना चाहिए
गहरु -विलम्ब
अह लोचन पथ लाइ के जोह रहे रघुराय ।
असि कहत चढ़ि राजहि रथ समर भूमि सिरु नाइ ॥
अहो ! पथ पर नयन लगाए रघुराज हमारी प्रतीक्षा कर रहे होंगे | ऐसा कहकर शत्रुधन समर-भूमि को नमस्कार करके रथ में विराजित हो गए |
शनिवार, २३ जुलाई, २०१६
राजत रथ रथि लेइ तुरंगा । चलइँ चरन पथ पवन प्रसंगा ॥
चतुरंग अनि आयसु सिरु धारे । चलिहि पाछु सबु साजु सँभारे ॥
रथी के विराजित होते ही उक्त श्रेष्ठ तुरंग को साथ लिए वह रथ पवन के प्रसंग पथ पर संचालित होने लगा | सेनापति की आज्ञा सिरोधार्य करते चतुरंगिणी सेना भी समस्त रनोपकरण को संजोए उसके पीछे चलने लगी |
बाजिहि भेरि न संख अपूरे । गयउ बेगि आश्रमु ते दूरे ॥
अगमु पंथ गहन बन गिरि ताला । तीर तीर तरि तरुबर माला ॥
न रणभेरी निह्नादित हुई न शंख ने ही विजय नाद किया ( रण में परास्त होने के पश्चात भी विजयी की भाँति ) वह आश्रम से दूर होते गए | अगम्य पंथ जो पर्वतों सरिताओं व् सरोवरों से युक्त सघन विपिन से परिपूर्ण था, तटों पर श्रेष्ठ वृक्षों की श्रेणियां उसे घेरे हुवे थीं |
देइ दरस जबु भयउ बिहंगा । तरंग माल सुसोहित गंगा ॥
पार गमन आयउ निज देसा । मरुत गति सों कीन्हि प्रबेसा ॥
जब वह लगभग उड्डयन करते चले तब उन्हें तरंग मालाओं से सुशोभित देवनदी श्रीगंगा के दर्शन होने लगे | गंगा पारगमन होते हुवे उन्होंने मारुत-गति से अवध प्रदेश में प्रवेश किया |
पौर पौर पुर नगर निकाई । पुरजन परिजन बसित सुहाईं ॥
कंध कठिन कोदण्ड सम्भारे । सैन सहित रिपुहन मन मारे ॥
चरण-चरण पर निवास से नगर व् पुर के निवासों में अधिवासित पुरजन एवं परिजन सुहावने प्रतीत होते थे | कन्धों पर सुदृढ़ धनुष को संधारण किए वैमनस्य होकर : -
बीर भरत कुँअर कर सथ लेइँ सुरथ सँग माहि ।
रथारोहित जाहिं चले रघुकुल कैरव पाहि ॥
रथ में आरोहित शत्रुध्न सेना सहित भरत पुत्र वीरवान पुष्कल व् सुबुद्ध सुरथ को साथ लिए रघुकुल कैरव श्री राम चंद्रजी के पास चले जा रहे थे |
सोमवार, २५ जुलाई २०१६
बहुरि बिहुरत चरत सब डगरी । आएँ समीप अजोधा नगरी ॥
अमरावति जसि अति मन मोही । रबि बंसज बन संग सुसोही ॥
तदनन्तर सभी पंथों को छोड़ते हुवे वह अयोध्या नगरी के निकट पहुंचे | यह अयोध्या स्वर्ग के जैसी अत्यंत मोहिनी थी जो सूर्यवंशी वृक्षों के वन से सुशोभित थी |
सोंहि रुचिर पर कोट अतीवाँ । जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ ॥
परस नभस धुर धुजा उतोले । हरुबर हरुबर पवन हिलोले ॥
मनोहर राजप्रासाद अत्यंत सुशोभित हो रहा था मानो वह तीनों लोकों के सौंदर्य की सीमा हो, शीर्ष पर उत्तोलित ध्वजा जैसे नभ को स्पर्श करती प्रतीत होती थी, पवन के मंद मंद झौंके उसे तरंगित कर रहे थे |
आए रिपुहन सुनिहि श्री रामा । सैन सहित हय पहुंचय धामा ॥
कह जय जय अतिसय हरषायो । बलबन लछमन पाहि पठायो ॥
भगवान श्रीराम ने जब सुना कि भ्राता शत्रुध्न का आगमन हो गया है सेना सहित अश्व भी आ पहुंचा है तब वह जयनाद करते अत्यंत हर्षित हुवे एवं वीर बलवान लक्ष्मण को अभिनन्दन हेतु शत्रुध्न के पास भेजा |
सैन सहित तहँ आयउ लषमन । भेंटि परबसिया भात मुदित मन ॥
रकतारकत चाम चहुँ पासा । पलउ पलउ जिमि पलय पलासा ॥
लक्ष्मण भी प्रमुदित मन से सेना का साथ कर प्रवास से आए हुवे लघु भ्राता से भेंट किए | आघात से शत्रुध्न की चाम ऐसे रक्तारक्त थी मानो पत्र पत्र पर पलास पल्ल्वित हो रहा हो |
कुसल छेम बुझाई कहि भाँति भाँति बहु बात ।
बलिहि बाहु फेरब भई अतिसय पुलकित गात ॥
उन्होंने उनका कुशल क्षेम पूछा तथा भांति भांति की वार्ता की | बाहु वलयित कर उनका आलिंगन करते समय देह पुलकित हो रही थी |
बुधवार २७ जुलाई, २०१६
लै रिपुहन सथ रथ महुँ बैठे । लछिमन नगर मझारिहि पैठे ॥
जहँ त्रिभुवन कर पावन पबिता । प्रभु पद परसति सरजू सरिता ॥
शत्रुध्न के साथ रथ में विराजित होकर महामना लक्ष्मण ने विशाल सेना सहित अयोध्या नगरी के मध्य में प्रवेश किया | शत्रुध्न के साथ रथ में विराजित होकर महामना लक्ष्मण ने विशाल सहित अयोध्या नगरी के मध्य में प्रवेश किया | जहाँ प्रभु के चरणों को स्पर्श करती हुई त्रिभुवन को पावन करने वाली पवित्र सरिता बह रही थी |
पद पद पदमन पुन्य पयूषा । सरनिहि सरनिहि सस मंजूषा ॥
लगए मग लग सुरग सोपाना । सोहति सारद ससी समाना ॥
कमलों से युक्त वह पुण्य सलिल चरण चरण पर प्रसारित हो रहा था धान्य मंजिरियों की श्रेणियों से युक्त मार्ग उससे संलग्न होकर स्वर्ग की सीढ़ियों का आभास देते हुवे वह शरत्कालीन शशि के समान सुशोभित हो रही थी |
भरत नंदनहि रिपुहन साथा । आगत दरस हरषि रघुनाथा ॥
सहित सुभट अति निकट बिलोके । उर अनंदु घन गयउ न रोके ॥
श्रीरघुनाथ जी शत्रुध्न को भरत नंदन पुष्कल के साथ आते देखकर प्रफुल्लित हुवे | वीर सैनिकों सहित जब उन्हें अपने सन्निकट देखा तब वह ह्रदय के आनदोल्लास को रोक न सके |
बिहबल मन मिलनब जूँ ठाड़े । तुरतई रिपुहनहि कर बाढ़े ॥
सघन घाउ नहि खात अघाई । पगु परि बिनय सील सो भाई ॥
विह्वल मन से मिलने के लिए वह ज्यूँ ही खड़े हुवे त्योंही शत्रुध्न के हस्त तत्परता से आगे बढ़े | आघात से अतृप्त गहरे घाव लिए उस विनयशील भ्राता ने भगवान के चरणों में प्रणाम निवेदन किया |
जनु महि लुठत स्नेह समेटे । उठइ भुजा कसि बरबसि भेँटें ॥
गहरईं घन गिरहि जल बूंदी । पेम निमगन पलकन्हि मूँदी ॥
भगवान ने मानो भूमि पर लोटते प्रेम को समेटकर उन्हें बलपूर्वक उठाया और ह्रदय से लगा लिया | आनंद का वह घन गहन हो गया उससे जलबिंदु झरने लगी प्रेम में निमग्न होकर उन्होंने पलकें मूँद लीं |
परइँ चरन भरतु नंदन सादर करइँ प्रनाम ।
उठइँ लै उर कसइँ बाहु द्रबित दरस पुनि राम ॥
भरत नंदन पुष्कल ने भी उनके चरणों में सादर प्रणाम निवेदन किया | भगवान श्रीराम ने द्रवीभूत देखकर उन्हें भी उठाया और अपनी भुजाओं में कर्ष लिया |
शुक्रवार, २९ जुलाई, २०१६
मिलि हनुमत पुनि लमनत बाहू । सुग्रीव सहित मेलिं सब काहू ।
पग परे नृपन्हि हरिदै लाए । भेंटें उमगि सनेहि बहुताए ॥
हनुमंत से भेंट करने के पश्चात बाहु प्रलंबित कर भगवान सुग्रीव सहित अन्य सभी वीरों से मिले | अन्य बहुतक स्नेहियों से उत्साहपूर्वक मधुर मिलन किया, चरणों में पड़े राजाओं को उन्होंने ह्रदय से लगा लिया |
समदत सन्नत सैन समाजू । छुधावंत जिमि पाए सुनाजू ॥
गहि पद लगे सुमति प्रभु अंका । जनु भेंटी सम्पद अति रंका ॥
सादर प्रणाम करते हुवे सैन्य समाज ने उनसे ऐसे मिला जैसी क्षुधावन्त को उत्तम अनाज प्राप्त हुवा हो | सुमति भी भक्तों पर अनुग्रह करने वाले भगवान श्रीरामचन्द्र जी से ऐसा गहन आलिंगन किया जैसे दरिद्र को अतिसय धन-धाम मिलता है |
प्रफुरित नयन ठाढत समुहाए । आयउ निकट उलसित रघुराए ॥
देखि सुमति गदगद गोसाईं । मधुर बचन ते पूछ बुझाईं ॥
श्रीरामचन्द्र जी प्रफुल्लित लोचन व् उल्लसित मन से सम्मुख खड़े हुवे अपने मंत्री सुमति के समीप आए व् उन्हें देखकर गदगद होते हुवे मधुर स्वर में प्रश्न किया : --
जगकर यहु सब राजाधिराजे । पाहुन बनि इहँ आनि बिराजे ॥
सब समेत धारिअ मम पाऊँ । बाँध क्रम कहु कवन सो राऊ ॥
मन्त्रिवर ! जगत भर के राजाधिराजा का अतिथि रूप में यहां आगमन हुवा हैं | इन सभी ने सम्मिलित होकर मेरे चरणों में प्रणाम निवेदन किया है, क्रमबद्ध रूप इनका परिचय देते हुवे कहो ये कौन हैं |
कहौ तुरंगम कहँ कहँ गयऊ । बाँधियब केहि केहि गहयऊ ॥
कुसल बंधु मम कवन उपाऊ । केहि बिधि कहु ल्याए छँड़ाऊ ॥
यह अश्व कहाँ-कहाँ गया किस-किस ने इसका हरण किया किस- किस ने इसे परिरुद्ध किया | मेरे इस कुशल बंधू ने किस युक्ति से तथा कौन सी विधि से उसका विमोचन किया ?'
कहत सुमति तुम सरबग्य कहु कह कहा जनाउँ ।
पूछिहउ मोहि जोए प्रभु सो बरनत सकुचाउँ ॥
सुमति ने कहा : -- 'भगवन ! आप तो सर्वज्ञ हैं, आपके समक्ष में क्या संज्ञान करूँ | सब कुछ ज्ञात होने पर भी आपने मुझसे जो प्रश्न किए हैं उनका उत्तर देते हुवे मुझे संकोच हो रहा है |
बधि बधि भाल बदन कर बाहू । भेद मर्म दिए दारुन दाहू ॥
राजा सुरथ शीघ्रता पूर्वक वहां पहुंचे | रथ को कुश के सम्मुख करते हुवे वह अनेकानेक बाण छोड़ने लगे | भाल, वदन, हस्त व् बाहु में घात पर घात करते हुवे मर्म को भेदकर कुश को कठिन पीड़ा से संतप्त कर दिया |
करिअ बिकलतर अस रे भाई । घायल व्यथा कहि नहि जाई ॥
तब कुस रिजु कस सर दस मारे । सुरथन्हि रथ सोंहि महि डारे ॥
इस प्रकार वीरों के शिरोमणि राजा सुरथ ने कुश को ऐसे व्याकुल कर दिया कि घायल अवस्था में मुझसे उनकी व्यथा कही नहीं जाती | तब कुश ने भी प्रत्यंचा कर्षित कर दस बाण छोड़े और राजा सुरथ को रथ से भूमि पर धराशाई कर दिया |
पनच चढ़ेउ कठिन कोदंडा । काटि बेगवत किए खनखण्डा ॥
दिव्यास्त्र छाँड़ै केहि एका । दूज प्रतिहरन हनहि अनेका ॥
प्रत्यंचा चढ़ाए हुवे उनके सुदृढ़ धनुष को वेगपूर्वक काटते हुवे खंड-खंड कर दिया | जब उनमें से कोई एक दिव्यास्त्र का प्रयोग करता तब दुसरा उसका प्रतिकार करते हुवे अनेकाने अस्त्रों का प्रयोग करता |
छेपायुध जो कोउ प्रहारिहि । तुरगति प्रतिहति तुरति बिदारहि ॥
एहि भाँति भयउ दोनहु ओरा । लोमनु हरख समर घन घोरा ॥
जब एक पक्ष क्षेपायुध से प्रहार करता तब दूसरे पक्ष द्वारा आतुरता पूर्वक प्रतिघात करते हुवे उसका भी निवारण कर दिया जाता | इस प्रकार उन दोनों वीरों के मध्य लोमहर्षक घनघोर संग्राम होने लगा |
सोचि सिया कुँअरु अबु करि चाहिब कृत का मोहि ।
लेन जिआरी उद्यत अह सहुँ मम परम बिद्रोहि ॥
तदनन्तर सीता पुत्र कुश ने विचार किया अहो ! यह सुरथ मेरा परम विद्रोही हो गया है और मेरे प्राण लेने को उद्यत अब मुझे क्या करना चाहिए |
करतब ठान लच्छ अनुमाना । गहेउ हस्त कटुक एकु बाना ॥
छूट सो काल अगन समाना । प्रजरत चला कला कृत नाना ॥
तब कर्तव्य का निश्चय कर लक्ष्य का अनुमान किया तथा एक तीक्ष्ण एवं भयंकर सायक हस्तगत किया | छूटते ही वह कालाग्नि के समान प्रज्वलित होकर नाना कलाएं करता आगे बढ़ा |
देख्यौ सुरथ आगत ताहीं । सोचि बिदारन जूँ मन माही ॥
त्योहिं कठिन कुलिस के भाँती । धँसा बेगि परिछेदत छाँती ॥
उसे अपने सम्मुख आते देख सुरथ ने ज्योंही मन में उसके निवारण का विचार किया, त्योंही वह महासायक तीव्रता पूर्वक उनके वक्ष में धंस गया |
परा रथोपर रन हिय हारे । तरपत हे रघुनाथ पुकारा ॥
सारथि निज पति हतचित पावा । रन भू सोंहि बहिर लय आवा ॥
सुरथ मूर्छा को प्राप्त होकर रथ पर गिर पड़े व् पीड़ा से तड़पते हुवे रघुनाथ को पुकारने लगे | सारथी ने अपने स्वामी को जब रथ में अचेत पाया वह तब वह उन्हें रणभूमि से बाहिर ले गया |
हार रन हिय सुरथ गिरि गयऊ । सिया कुँअर कर बिजई भयऊ ॥
देखियत इयहि पवन कुमारा । सहसा एकु बड़ साल उपारा ॥
इस प्रकार सुरथ परास्त होकर धराशाई होने पर और सीता पुत्र कुश विजयी हुवे-- यह देखकर पवन कुमार हनुमान जी ने सहसा एक विसहाल शाल का वृक्ष उखाड़ लिया |
धावत बेगि जाइ निकट, दए बल अतुल अपार ।
झटति डारेन्हि तापर, करियहि घोर प्रहार ॥
वेगपूर्वक दौड़ते वह कुश के निकट गए और अपरिमित बल के साथ उस वृक्ष को तत्क्षण प्रक्षेपित करके उनपर पर घोर प्रहार किया |
द्रुम घात तैं चोट गहावा । संहारास्त्र लेइ उठावा ॥
अजित अमोघ सकती अस होई । लागत सीध बचै नहि कोई ॥
उस वृक्ष के आघात से चोटिल होकर कुश ने संहारास्त्र उठाया जिसकी शक्ति ऐसी दुर्जय व् अचूक थी व् शत्रु पर सीधा प्रहार करती थी इससे किसी का बच पाना कठिन था |
बिलोकत ताहि प्रबल हनुमाना । बिघन हरन के करिहि ध्याना ।
देत घात घन ऐतक माही । हनुमन उरसिज आनि समाहीं ॥
उस अस्त्र का अवलोकन कर बलशील हनुमान विध्न हर्ता श्री राम चंद्र जी का ध्यान करने लगे | इतने में ही वह अस्त्र करारी चोट देते हुवे उनके वक्ष में समा गया |
होइहि अह ब्यथक सो भारी । पीर भरत करि बहुंत दुखारी ॥
हतत आतुर मूरुछा दयऊ ॥ सुनु मुनिबर आगिल का भयऊ ॥
आह ! वह चोट की उस गहन वेदना ने हनुमान जी को पीड़ा देते कष्ट से व्याकुल कर दिया | उस चोट से वह तत्काल ही मूर्छा को प्राप्त हो गए | हे मुनिवर ! 'तदनन्तर आगे जो हुवा उसे सुनो | '
हनुमत होइ गयउ हतचेता । सीता नंदन तब रनखेता ॥
कसि कसि रिजु असि बान चलायो ।एक एक तेउ सहस बनि धायो ॥
जब हनुमान भी मूर्छित हो गए तब सीता के पुत्रों ने राण क्षेत्र में प्रत्यंचा को कर्ष-कर्ष कर ऐसे बाण चलाए की वह एक एक बाण से सहस्त्र बाणों में परिणित होकर दौड़ने लगे |
लपक लपक लागेउ तिमि जिमि गहि कालहि खाहि ।
चतुरँगनि पराई चली, कहति त्राहि मम त्राहि ॥
ततपरता पूर्वक प्रतिपक्ष को ऐसे जा लगते जैसे उन्हें काल ही कवलित कर रहा हो | राम जी की चतुरंगिणी सेना इस आक्रमण से त्राहि त्राहिकर भाग खड़ी हुई |
बृहस्पतिवार १४ जुलाई २०१६
भाँपत ए सब मरनि निअराई । अति भय त्रसित न कोउ समुहाई ॥
कपि राजु सुग्रीउ तेहि काला । आनि सँभारेउ सैन बिसाला ॥
अब मृत्यु निकट है यह भांपते ही सब भय से अत्यधिक आक्रान्त हो उठे, फिर कोई सम्मुख नहीं हुवा | उस समय कपराज सुग्रीव ने उस विशालवाहिनी के संरक्षक हुवे |
ऊंच ऊंच सो बिटप उठावा । नभ रव पूरत कुस पहिं धावा ॥
देइ बिदारिहि बिनहि प्रयासू । टूक टूक होइब सब आसू ॥
वह ऊँचे ऊँचे वृक्षों को उठाकर नभ को शब्दवान करते कुश की ओर दौड़ पड़े | कुश ने उन्हें प्रयास के बिना उन सभी वृक्षों को शीग्रता पूर्वक विदीर्ण करके खंड-खंड |
तबु कपिप्रभु एकु सेल उपारा । ताकि तमकत माथ दए मारा ॥
बिहुरत बनावरि दरसत ताहीं । कन कन करि डारिहि छन माही ॥
तब कपिनाथ सुग्रीव ने एक भयंकर पर्वत उखाड़कर कुश के मस्तक का लक्ष्य करते हुवे उसे तमक कर दे मारा | उस पर्वत को आते देख कुश ने शीघ्र ही सैकड़ों बाणों का प्रहार करके उसे चूर्ण चूर्ण कर भूमि पर गिरा दिया |
करत धूर पुनि उड़इँ अगासा । भइ धूसर रन भुइ चहुँ पासा ॥
लगन जोग मह रूद्र समाना । भए सो भूधर भस्म प्रमाना ॥
तत्पश्चात उसे धूल-धूल कर आकाश में उड़ा दिया | रण- भूमि भी चारों और से धूल-धूसरित हो गई| वह पर्वत अब महा रूद्र के शरीर में लगाने योग्य भस्म सा हो गया था |
मारि भालु कपि घायल कीन्हि । जो उचित जस तस फल दीन्हि ॥
बालक के बल बिक्रम अतीवा । देखिहि अचरजु भरे सुग्रीवा ॥
भालू एवं कपियों को चोटिल कर उन्हें घायल अवस्था में पहुंचा दिया जिसके लिए जो उचित था उसे वही फल दिया | बालक का ऐसा महान पराक्रम देखकर सुग्रीव को अत्यंत आश्चर्य हुवा |
चित्रलिखित समेत कपिप्रभु चितवहि भर प्रतिसोध ।
प्रताड़न ताहि बिटप एकु गहि अतिसय कृत क्रोध ॥
ऐसी स्तब्ध दशा व् प्रतिशोध से भरी दृष्टि से सुग्रीव कुश को देखते रहे | फिर उन्होंने उसे प्रताड़ित करने के लिए रोषपूर्वक एक वृक्ष हाथ में लिया |
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ऐतक महुँ लव के बड़ भाई । बरनायुध चुनि चापु चढ़ाईं ॥
पुनि चित्रकृत निज बल दिखरायो । बरुण पास कपि सुदृढ़ बँधायो ॥
इतने में ही लव के बड़े भ्राता कुश ने वरुणायुध का चयन कर धनुष पर संधान किया | तत्पश्चात चित्रवत करने वाले बल का प्रदर्शन करते हुवे कपि नाथ सुग्रीव को वरुण पाश में बाँध लिया |
लपटाहि जिमि कोउ उरगारी । बँधत गिरे रन भूमि मझारी ॥
निरखिहि जुधिक परे निज नाथा । धाएउ इत उत भय के साथा ॥
वह पाश उनपर ऐसे वलयित हुवा जैसे वह कोई सर्प हो | उससे बंधते ही सुग्रीव रण भूमि पर गिर पड़े | अपने संरक्षक को धराशायी देखकर रण योद्धा भयाक्रात होकर इधर-उधर दौड़ने लगे |
बीरसिरोमनि भ्राता दोई । बहोरि बिजै कलस कर जोई ॥
पुष्कल अंगद कि प्रतापाग्रय । बीरमनि हो चहे अन्यानय ॥
वीरों के शिरोमणि उन दोनों भ्राताओं ने विजय कलश करोधार्य करते हुवे, पुष्कल, अंगद हो कि प्रतापाग्रय अथवा अन्यान्य वीरमणि ही क्यों हो |
करत हताहत सकल भुआला । दोउ भ्रात गहेउ जयमाला ॥
दोनउ भात परस्पर हेलिहि । हरषित मनस मुदित मन मेलिहि ॥
सभी राजाओं को हताहत कर दोनों भ्राताओं को विजयमाल ग्रहण की | दोनों भ्राता एक दूसरे का अभिनन्दन करते हुवे हर्षित एवं प्रमुदित मन से आलिंगन किया |
गहे गुरु चरण बसिहि सघन बन भेसु धरेउ जिमि कोउ जति ।
मख तुरग निबंधु दोनहु बंधु मह मह बीर ते बीर अति ॥
बाल मराल कोउ भुआल न सहुँ चतुरंगी बाहिनी ।
चले गगन सर भाल कराल तथापि जीति बिनहि अनी ।
गुरु के चरणों के शरण हुवे दुर्गम वन में निवासरत यति का वेश धारण किए वीरता में एक से बढ़कर एक उन युगल भ्राताओं ने भगवान के यज्ञ सम्बन्धी अश्व को परिबद्ध कर लिया | वे बाल हंस न कोई राजा थे न ही उनके पास कोई चतुरंगिणी वाहिनी ही थी | सेनारहित होने के पश्चात भी गगन में विकराल भालों एवं तीरों को चलाकर उन्होंने अद्भुद वीरता व् अदम्य साहस का परिचय देते हुवे विजयश्री प्राप्त की | सार यह है कि बल पर बुद्धि की विजय होती है |
हरखिहि सुर न त बरखिहि सुमन न कोउ अस्तुति गाए।
न कतहुँ दुंदुभि बजावहिं बिजित सुभट समुदाए ॥
न देवता ही हर्षित हुवे न पुष्पों की वर्षा हुई न कोई स्तुति गाई गई | वीरों के विजित समूह द्वारा न कहीं दुंदुभि ही निह्नादित हुई |
शुक्रवार १५ जुलाई, २०१६
मुदित मनस बहु हरखित गाता । बोलेउ लव सुनहु मम ताता ॥
होइहि तुहरी कृपा अपारा । समर सिंधु पायउँ मैं पारा ॥
ऐक सैनि सेना के उन दोनों वीर बालकों में से लव ने हर्षित देह व अत्यंत प्रसन्न मन से कहा : -- ' सुनों मेरे भ्राता ! तुम्हारी अपार कृपा के कारण ही मैं इस संग्राम सिंधु को पार करने में सफल हुवा |
अजहुँ भई रन बिजै हमारी । हेरै कोउ सुरति चिन्हारी ॥
कहत अस लव सहित निज भाई । प्रथमहि रिपुहन पहिं नियराईं ॥
इस रण में हमारी विजय हुई है जिसके प्रमाण हेतु हमें कोई स्मृति चिन्ह ढूंढ़ना चाहिए, ऐसा कहते ही लव अपने भ्राता के साथ सर्वप्रथम शत्रुध्न के पास गए |
गयउ तहाँ दुहु गहगह गहि कर । हिरनमई मनि मुकुट मनोहर ॥
आयउ जहँ पुष्कल महि पारे । कबेलाकृत किरीट उतारे ॥
वहां जाकर दोनों ने उत्साहपूर्वक शत्रुध्न के मस्तक का हरिण्य मय मनोहर मुकुट हाथों में लिए वहां आए जहाँ पुष्कल भूमिगत थे | प्रथमतः उनका कमलाकृत मुकुट उतारा |
बहुरी बाहु सिखर लगि पूरा । गहि तासु कल कनक केयूरा ॥
कवच कराल भाल सर चंडा । सकेरिहि कछु कठिन कोदंडा ॥
तत्पश्चात भुजाओं से कंधे तक आभूषित उनके सुन्दर स्वर्णमय केयूर लिया कवच, भयंकर भालों और प्रचंड सायकों सहित कुछ सुदृढ़ धनुषों को संकलित किया |
बांध्यो जाइ पहिं बानर राजु अरु महबली हनुमन्तहि ।
कहत लव निज भ्रात सों तात लै जइहौं कुटीरु दुनहु गहि ॥
तहँ मुनि बालक केलिहि ता सँग मोरु मन रोचन होइहीं ।
राख्यो निकट तुरग थल लाई दुहु बंधु करत अस बत कही ॥
तत्पश्चात वह बालक वानर राज सुग्रीव व् महाबली हनुमंत के पास गए और उन्हें बांध लिया | लव ने अपने भ्राता से कहा हम इन दोनों वानरों को पकड़ कर अपनी कुटिया लिए जाते हैं वहां मुनि के बालक इनके संग जब बालक्रीड़ा करेंगे तब वहां मेरा मनोरंजन हो जाएगा | ऐसी बातें करते उन दोनों भ्राताओं ने यज्ञ सम्बन्धी उस अश्व को ले जाकर आश्रम के एक निकट एक स्थान पर बाँध दिया |
जोहति सुतहि पंथ जगज जननि मातु श्री सोभामई ।
थिर थिर थकी ढरयो रबि दिनु बिरत्यो अरु साँझ भई ॥
अँधेरिया जग घेरिया जग जगमग जोत जुहार करे ।
बरति बिलग जोहहि द्वार लग दीपन मनि सार भरे ॥
(इधर) शोभामई जगज्जननी मातु श्री जानकी पुत्रों हेतु प्रतीक्षारत थीं | उनकी प्रतीक्षा में सूर्यदेव भी रुकते थमते अंतत:शिथिल होकर अस्त हो गए दिवसान हुवा और संध्या हो गई | अन्धकार ने संसार को घेर लिया वर्तिका से वियुक्त मणियों से दीपक सार भरकर द्वारों से आ लगे और सीता पुत्रों की प्रतीक्षा करने लगे अब जागृत हुई जगजग ज्योतियाँ भी उनके आगमन की प्रतीक्षा करने लगीं |
सुभ बसन भूषन बँधि कपिगन तुरग सहित सादर चले ।
जाइ सिया पहिं अरपिहि चरन नत भेँट भूषन जे भले ॥
आगत देखि दुहु बाल मराल मुदित बहु लोचन भरी ।
लाइ हरिदै सनेह सहित दुइ पलकन जल बिन्दु धरी ॥
शुभ्र वस्त्रों आभूषणों विबन्धित कपिगणों व् तुरंग सहित वह दोनों भ्राता उन्हें लिए सादर प्रस्थान किए | और माता सीता के पास जाकर उनके चरणों में प्रणाम कर ये सुन्दर आभूषण अर्पित कर दिए | दोनों बाल हंसों को आया देख प्रमुदित हुईं माता के नेत्र भर आए, फिर पलकों में दो बिंदु लिए उन्हें सस्नेह ह्रदय से लगा लिया |
चकित सकुचित बिस्मित बदन करि ढारि दृग पट हरयरी ।
परचत कपिगन भेंट भूषन सहसा सिहरति अति डरी ॥
उठि त्याजत निबंधु छोरि कहि सुत जाहु दुहु कै पग परौ ।
कपिराजु बली महबीर जे अबिलम अतुरै परिहरौ ॥
तत्पश्चात वह चकित संकोचित विस्मित मुख कर अपनी दृष्टि पटल को धीरे धीरे नीचे किया कपिगणों व् भेट आभूषणों को पहचानकर वह सहसा सिहरती हुई भयान्वित हो गईं | भेंट बुषाणों का त्याग करते वह उठीं और कपिगणों को विबन्धनों से मुक्त करके बालकों से बोलीं -जाओ उन दोनों के चरणों में प्रणाम अर्पित करो | यह कपिराज सुग्रीव व् महावीर हनुमंत हैं,अधिक विलम्ब न कर तुम इन्हें तत्काल विमुक्त करो |
जे महमन हनुमन भयउ रघुबर केर सहाइ ।
भस्म भई लंका पुरी दनुपत गयउ नसाइ ॥
ये महामना हनुमंत रघुवीर जी के सहायक हुवे तो लंकापुरी भस्म हुई और दानवपति दशानन का सर्वनाश संभव हुवा |
रविवार, १७ जुलाई, २०१६
जे बलबन कपि भल्लुक नाहा । कहु दोनहु अस बाँधिहु काहा।
मारि कुटत पुनि करिहु अनादर । रे बच्छर धिक् धिक् तुहरे पर ॥
ये वीर बलवान भालू व् वानरों के स्वामी हैं कहो तो तुमने इन दोनों को क्यों बांधा ? फिर मार कूटकर इनका अनादर भी किया अरे बालकों ! धिक्कार है तुमपर |
बोलेउ सुत सुनहु हे माता । राम नामु नृपु एकु बिख्याता ॥
बीर सिरो मनि बहु बलवंता । दसरथ तनय अवध के कंता ॥
माता के ऐसा कहने पर बालकों ने उत्तर दिया : -- हे जननी सुनो ! ' विश्व प्रसिद्द एक राजा हैं जिनका नाम राम है, वह महाबलवन्त वीरों के शिरोमणि हैं तथा दशरथ के पुत्र व् अवध के स्वामी हैं |
तेज तुंग एकु तुरग त्याजे। सुबरन पतिआ भाल बिराजे ॥
नाउ परच बल बिक्रम बिसेखे । परन परन बिबरन यहु लेखे ॥
उन्होंने तेज से युक्त एक ऊँचे अश्व का त्याग किया है उसके ललाट पर एक स्वर्ण-पत्रिका विराजित है जिसके पत्रों में उनका नाम व् विशेष पराक्रम का परिचय देते हुवे यह विवरण उत्कीर्ण हैं कि : --
बलबन आपनु समुझिहि जोई । हरिहु ताहि बढ़ सद् छत्रि सोई ॥
न त मम सम्मुख अवनत माथा । समरपिहु राज पाट जुग हाथा ॥
' जो स्वयं को बलवान मानता हो वह सद क्षत्रिय इस अश्व का हरण करे अन्यथा मेरे सम्मुख नतमस्तक होकर हाथ बांधे अपने राजपाट का समर्पण करे |'
दरस ढिठाई महिपु की साँच कहएँ हे मात ।
अहा हठात जाई पहिं बाँध लिये बरियात ॥
हे माता ! हम सत्य कहते हैं, उस महिप की यह धृष्टता देखकर हमने अश्व के पास जाकर उसका हठात हरण किया तत्पश्चात उसे बलपूर्वक बाँध लिया |
सोमवार, १८ जुलाई, २०१६
पुनि सो समर बीर बल पूरा । गरज गहन रन भेरि अपूरा ॥
बरूथ बरूथ भट हमहि पचारे । किए घन घोर समर गए मारे ॥
तदनन्तर बल से परिपूर्ण संग्राम वीरों से युक्त उस राजा ने गरजते हुवे रण भेरी निह्नादित कर गहन रण आरम्भ कर दिया, तब उस घमासान करते हुवे यूह के यूह योद्धा हमारे द्वारा परास्त होकर वीर गति को प्राप्त हुवे |
मौलि मुकुट एहि रिपुदवनू के । ए कल कंकन भरत नंदनू के ॥
बोलिहि मातु पुनि मुख नेहि के । गहिहु तुरग कहहु सो केहि के ॥
यह मुकुट रिपुहन के मस्तक का है और यह सुन्दर कंकण भरत नंदन पुष्कल का है | तब माता ने उनके मुख को स्नेह करते हुवे पूछा : - 'अच्छा यह बताओ जो अश्व तुमने पकड़ रखा है वह किसका है ?'
प्रथमहि हम जो तोहि जनाईं । सोए रघुबर तासु गोसाईँ ॥
रे बछर तुम करिहउ न न्याए । हरिहु तुरग रघुबीर परिहाए ॥
बालकों ने उत्तर दिया : - 'प्रारम्भ में हमने आपको जिनका परिचय दिया था वह राजा रामचंद्र जी इस अश्व के स्वामी हैं |' माता सीता ने कहा : - अरे मेरे बालकों ! रघुवीर के त्यागे हुवे तुरंग का हरण कर तुमने न्याय नहीं किया |
अनेकानेक बीरन्हि हनिहउ । पुनि बाँध कपिगन सुठि न करिहउ ॥
होए ए करतब कछु भल नाही । सुनु एहि बत नहि तुमहि जनाही ॥
अनेकानेक वीरों को हताहत करते हुवे इन कपियों को बांधकर तुमने उचित नहीं किया | जो हुवा सो अच्छा नहीं हुवा, तुम जिन बातों से अनभिज्ञ हो उसे ध्यान पूर्वक सुनो |
जनमदात सो पितु तुम्हारे । महा मेध हुँत हय परिहारे ॥
सुनु छाँड़त सादर कपि दोऊ । बँधे बाजि परिहरहउ सोऊ ॥
जिन्होंने इस यज्ञ सम्बन्धी अश्व का त्याग किया है वह तुम्हारे पिता है उन्होंने तुम्हें जन्म दिया है | अब मेरी बाते सुनो : - 'तुम इन दोनों वानरों को आदर सहित मुक्त करो | बंधे हुवे अश्व का भी विमोचन कर दो |'
सुनत मातु कर बत कही बाल बीर बलवंत ।
साधे मौन मूरत भए सो एकु पल परजंत ॥
माता के वचनों को श्रवण कर वह बलवंत बाल वीर मौन साध कर एक क्षण के लिए मूर्तिवत हो गए |
मंगलवार, १९ जुलाई, २०१६
पुनि बालक बोलिहि रे माता । अहहीं बेद बिदित एहि बाता ॥
सो छत्रि धरम हमहु अनुहारे । महमन महिप समर गए हारे ॥
तत्पश्चात बालक बोले : - 'हे माते ! जो वेद विदित निगदन है' हमने उसी क्षत्रिय धर्म का अनुशरण किया है जिससे वह महातिमह राजा संग्राम में परास्त हुवे |
छत्री धर्म अनुहर रन आगी । लागत जनि होत न हतभागी ॥
बालमीक मुनिबर पाहिं पढ़े । ए सिच्छा देइ सो हमहि गढ़े ॥
क्षत्रिय धर्म के अनुसार रण रूपी अग्नि के लगन से अन्याय का भागी नहीं होना पड़ता | मुनिवर वाल्मीकि जी से विद्या ग्रहण की है उन्होंने यह शिक्षा देते हुवे हमें गढ़ा है |
छात्र धर्म कह कहिब ग्याता । पिता ते पुत भ्रात ते भ्राता ॥
सिस समुह चहे गुरु किन होईं । जूझत रन भू पाप न होई ॥
क्षात्र धर्म का व्याख्यान करते हुवे विद्वानों ने कहा है -- 'पुत्र पिता के , भ्राता भ्राता के एवं शिष्य गुरु के सम्मुख ही क्यों न हो उनका युद्ध-भूमि में युद्ध करना दोष नहीं होता |
तद्यपि जसु तुहरे अनुसासन । बंधे बाजि बर करिअ बिमोचन ॥
ता संगत बहरिहिं कपि दोऊ । होइहि सोए कहब तुम जोऊ ॥
तद्यपि आपकी आज्ञा का पालन करते हुवे हम इस बंधे हुवे अश्व को विमोचित किए देते हैं तथा इन वानरों को भी मुक्त कर देते हैं | आपकी जैसा कहेंगी वैसा ही होगा |
अपूरत निज मंजुल मुख मध्यम मधुरित बानि ।
सिरु नत बहु बिन्यानबत दोउ जोग जुग पानि ॥
अपने मंजुल मुख को इस प्रकार की मध्यम व् मधुरिम वाणी से परिपूरित कर वह दोनों माता सीता के सम्मुख हाथ जोड़े अति विनम्रता से नतमस्तक हुवे |
बृहस्पतिवार, २१ जुलाई, २०१६
जग बंदित मातु अस कहयऊ । गए दुहु तहाँ जहाँ रन भयऊ ॥
लए कपीस गन आगिल बाढ़े । तुरंगम सहित दिए दुहु छाँड़े ॥
फिर जगद वंदिनी मातु के कथनानुसार वहां गए जहाँ यह महा संग्राम हुवा था वह उन दोनों कपीश्वरों को लेकर आगे बढे एवं उन्हें तुरंग सहित मुक्त कर दिया |
दुहु सुत करम कटकु बिनसाई । सुनिहि सुतहि मुख जबु जग माई ॥
प्रणति चरनन सुरति भगवाना । मन ही मन पुनि करति ध्याना ॥
अपने दोनों बालकों के मुख से उनके द्वारा सेना का मारा जाना सुनकर जगज्जननी भगवान श्रीराम चंद्र जी का स्मरण मन-ही मन उनके चरणों में प्रणाम अर्पित किया | भगवान का ध्यान करते हुवे : -
सदागतिबत सबहि के साखी । भगवन केतु कंत पुर लाखी ॥
कहि करुणित हे दिनकर देऊ । जौं मैँ मन क्रम बचनन तेऊ ॥
सदैव गतिवान सर्वसाक्षी सूर्यदेव का लक्ष्य कर करुणामयी वाणी से बोलीं : - हे दिनकर ! हे देव ! यदि में मन, क्रम, वचन से : -
बंदउँ चरन श्री रघुबरहि के । भजेउँ भजन न आन केहि के ॥
तौ मरनासन नृपु रिपुहन्ता । अजहुँ छन महुँ होएँ जीयन्ता ॥
अन्य किसी को न भज कर यदि मैं रघुवर जी की चरण-वन्दना करती हूँ तो मरणासन्न राजा शत्रुध्न इसी क्षण जीवंत हो जाएं |
बिरुझत बिदरत बहु बरियाईं । मोर तनय ते गयउ नसाई ॥
रकताकत अनी सोउ भारी । मोर सत सोहिं होए जियारी ॥
मेरे पुत्रों का सामना करने के कारण उनके बल की तीक्ष्णता से यह क्षत-विक्षत होकर रक्तारक्त हुई यह विशाल सेना मेरे सत के प्रभाव से पुनर्जिवि हो |
पतिब्रता सति जानकी जस अस बचन उचारि ।
तैसेउ मरति जिअत उठि बिनसि सैन सो भारि ॥
पतिव्रता सती सीता जी ने जैसे ही ऐसे वचनों को उच्चारित किया वैसे ही मृत्यु के सन्निकट वह विशाल सेना जीवित हो गई |
शुक्रवार, २२ जुलाई, २०१६
कहत सेष सुनु मुनि बिद्वाना । छन महुँ मुरुछा गयउ बिहाना ॥
जगएं जगज जिमि सयन त्यागे । मरनासन रिपुहन जिअ जागे ॥
शेष जी ने कहा हे विद्वान मुने सुनिए ! रयनावसान के पश्चात शयन का त्याग कर जिसप्रकार संसार जागृत होता है उसी प्रकार मरणासन्न शत्रुध्न जी की मूर्छा का भी क्षण मात्र में ही अवसान हो गया और वह भी जागृत होकर जीवंत हो उठे |
लहि सुभु लच्छन गहि गुन गाढ़े । देखि तुरग मम सम्मुख ठाढ़े ॥
मनि मुकुताबलि मुकुट न माथा । धनु बिनु कर भुज सिखर न भाथा ॥
उन्होंने देखा शुभ लक्षणों व् उत्तम गुणों से युक्त यज्ञ सम्बन्धी अश्व निर्बाध रूप में मेरे सम्मुख खड़ा है, मणि मुक्तावली से जटित मुकुट मस्तक पर नहीं है, हस्त धनुष से रहित हैं कंधे तूणीर से विहीन हैं |
निरजिउ परेउ अनि जिअ गयऊ । संकित मन बहु अचरज भयऊ ॥
चितबत चित्रकृत नयन अलोले । जागत सुबुध सुमति सहुँ बोले ॥
मृतप्राय सेना जीवित हो उठी है यह दृष्टिपात कर उनके सशंकित मन आश्चर्य से चकित रह गया | तब वह स्तब्ध होते हुवे स्थिर नेत्रों से मूर्छा से जगे बुद्धिमानों में श्रेष्ठ सुमति से बोले : --
जौ नहि जति नहि कोउ भुआला । कृपा करत सो बाल मराला ॥
बाँधेउ बाजि बल दिखरायो । मख अपूरनन दए बहुरायो ॥
जो न कोई सन्यासी है न नरेश ही हैं उन बाल हंसों ने इस अश्व को बांध कर अपने अभूतपूर्व बल का प्रदर्शन किया तथा हम पर कृपा करते हुवे यज्ञ पूर्ण करने के लिए उसे लौटा भी दिया |
गहरु करब कछु लाह न आही । चलहु बेगि अबु रघुबर पाहीं ॥
अब विलम्ब करने से कोई लाभ नहीं है हमें तत्परता से रघुवीर के पास चलना चाहिए
गहरु -विलम्ब
अह लोचन पथ लाइ के जोह रहे रघुराय ।
असि कहत चढ़ि राजहि रथ समर भूमि सिरु नाइ ॥
अहो ! पथ पर नयन लगाए रघुराज हमारी प्रतीक्षा कर रहे होंगे | ऐसा कहकर शत्रुधन समर-भूमि को नमस्कार करके रथ में विराजित हो गए |
शनिवार, २३ जुलाई, २०१६
राजत रथ रथि लेइ तुरंगा । चलइँ चरन पथ पवन प्रसंगा ॥
चतुरंग अनि आयसु सिरु धारे । चलिहि पाछु सबु साजु सँभारे ॥
रथी के विराजित होते ही उक्त श्रेष्ठ तुरंग को साथ लिए वह रथ पवन के प्रसंग पथ पर संचालित होने लगा | सेनापति की आज्ञा सिरोधार्य करते चतुरंगिणी सेना भी समस्त रनोपकरण को संजोए उसके पीछे चलने लगी |
बाजिहि भेरि न संख अपूरे । गयउ बेगि आश्रमु ते दूरे ॥
अगमु पंथ गहन बन गिरि ताला । तीर तीर तरि तरुबर माला ॥
न रणभेरी निह्नादित हुई न शंख ने ही विजय नाद किया ( रण में परास्त होने के पश्चात भी विजयी की भाँति ) वह आश्रम से दूर होते गए | अगम्य पंथ जो पर्वतों सरिताओं व् सरोवरों से युक्त सघन विपिन से परिपूर्ण था, तटों पर श्रेष्ठ वृक्षों की श्रेणियां उसे घेरे हुवे थीं |
देइ दरस जबु भयउ बिहंगा । तरंग माल सुसोहित गंगा ॥
पार गमन आयउ निज देसा । मरुत गति सों कीन्हि प्रबेसा ॥
जब वह लगभग उड्डयन करते चले तब उन्हें तरंग मालाओं से सुशोभित देवनदी श्रीगंगा के दर्शन होने लगे | गंगा पारगमन होते हुवे उन्होंने मारुत-गति से अवध प्रदेश में प्रवेश किया |
पौर पौर पुर नगर निकाई । पुरजन परिजन बसित सुहाईं ॥
कंध कठिन कोदण्ड सम्भारे । सैन सहित रिपुहन मन मारे ॥
चरण-चरण पर निवास से नगर व् पुर के निवासों में अधिवासित पुरजन एवं परिजन सुहावने प्रतीत होते थे | कन्धों पर सुदृढ़ धनुष को संधारण किए वैमनस्य होकर : -
बीर भरत कुँअर कर सथ लेइँ सुरथ सँग माहि ।
रथारोहित जाहिं चले रघुकुल कैरव पाहि ॥
रथ में आरोहित शत्रुध्न सेना सहित भरत पुत्र वीरवान पुष्कल व् सुबुद्ध सुरथ को साथ लिए रघुकुल कैरव श्री राम चंद्रजी के पास चले जा रहे थे |
सोमवार, २५ जुलाई २०१६
बहुरि बिहुरत चरत सब डगरी । आएँ समीप अजोधा नगरी ॥
अमरावति जसि अति मन मोही । रबि बंसज बन संग सुसोही ॥
तदनन्तर सभी पंथों को छोड़ते हुवे वह अयोध्या नगरी के निकट पहुंचे | यह अयोध्या स्वर्ग के जैसी अत्यंत मोहिनी थी जो सूर्यवंशी वृक्षों के वन से सुशोभित थी |
सोंहि रुचिर पर कोट अतीवाँ । जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ ॥
परस नभस धुर धुजा उतोले । हरुबर हरुबर पवन हिलोले ॥
मनोहर राजप्रासाद अत्यंत सुशोभित हो रहा था मानो वह तीनों लोकों के सौंदर्य की सीमा हो, शीर्ष पर उत्तोलित ध्वजा जैसे नभ को स्पर्श करती प्रतीत होती थी, पवन के मंद मंद झौंके उसे तरंगित कर रहे थे |
आए रिपुहन सुनिहि श्री रामा । सैन सहित हय पहुंचय धामा ॥
कह जय जय अतिसय हरषायो । बलबन लछमन पाहि पठायो ॥
भगवान श्रीराम ने जब सुना कि भ्राता शत्रुध्न का आगमन हो गया है सेना सहित अश्व भी आ पहुंचा है तब वह जयनाद करते अत्यंत हर्षित हुवे एवं वीर बलवान लक्ष्मण को अभिनन्दन हेतु शत्रुध्न के पास भेजा |
सैन सहित तहँ आयउ लषमन । भेंटि परबसिया भात मुदित मन ॥
रकतारकत चाम चहुँ पासा । पलउ पलउ जिमि पलय पलासा ॥
लक्ष्मण भी प्रमुदित मन से सेना का साथ कर प्रवास से आए हुवे लघु भ्राता से भेंट किए | आघात से शत्रुध्न की चाम ऐसे रक्तारक्त थी मानो पत्र पत्र पर पलास पल्ल्वित हो रहा हो |
कुसल छेम बुझाई कहि भाँति भाँति बहु बात ।
बलिहि बाहु फेरब भई अतिसय पुलकित गात ॥
उन्होंने उनका कुशल क्षेम पूछा तथा भांति भांति की वार्ता की | बाहु वलयित कर उनका आलिंगन करते समय देह पुलकित हो रही थी |
बुधवार २७ जुलाई, २०१६
लै रिपुहन सथ रथ महुँ बैठे । लछिमन नगर मझारिहि पैठे ॥
जहँ त्रिभुवन कर पावन पबिता । प्रभु पद परसति सरजू सरिता ॥
शत्रुध्न के साथ रथ में विराजित होकर महामना लक्ष्मण ने विशाल सेना सहित अयोध्या नगरी के मध्य में प्रवेश किया | शत्रुध्न के साथ रथ में विराजित होकर महामना लक्ष्मण ने विशाल सहित अयोध्या नगरी के मध्य में प्रवेश किया | जहाँ प्रभु के चरणों को स्पर्श करती हुई त्रिभुवन को पावन करने वाली पवित्र सरिता बह रही थी |
पद पद पदमन पुन्य पयूषा । सरनिहि सरनिहि सस मंजूषा ॥
लगए मग लग सुरग सोपाना । सोहति सारद ससी समाना ॥
कमलों से युक्त वह पुण्य सलिल चरण चरण पर प्रसारित हो रहा था धान्य मंजिरियों की श्रेणियों से युक्त मार्ग उससे संलग्न होकर स्वर्ग की सीढ़ियों का आभास देते हुवे वह शरत्कालीन शशि के समान सुशोभित हो रही थी |
भरत नंदनहि रिपुहन साथा । आगत दरस हरषि रघुनाथा ॥
सहित सुभट अति निकट बिलोके । उर अनंदु घन गयउ न रोके ॥
श्रीरघुनाथ जी शत्रुध्न को भरत नंदन पुष्कल के साथ आते देखकर प्रफुल्लित हुवे | वीर सैनिकों सहित जब उन्हें अपने सन्निकट देखा तब वह ह्रदय के आनदोल्लास को रोक न सके |
बिहबल मन मिलनब जूँ ठाड़े । तुरतई रिपुहनहि कर बाढ़े ॥
सघन घाउ नहि खात अघाई । पगु परि बिनय सील सो भाई ॥
विह्वल मन से मिलने के लिए वह ज्यूँ ही खड़े हुवे त्योंही शत्रुध्न के हस्त तत्परता से आगे बढ़े | आघात से अतृप्त गहरे घाव लिए उस विनयशील भ्राता ने भगवान के चरणों में प्रणाम निवेदन किया |
जनु महि लुठत स्नेह समेटे । उठइ भुजा कसि बरबसि भेँटें ॥
गहरईं घन गिरहि जल बूंदी । पेम निमगन पलकन्हि मूँदी ॥
भगवान ने मानो भूमि पर लोटते प्रेम को समेटकर उन्हें बलपूर्वक उठाया और ह्रदय से लगा लिया | आनंद का वह घन गहन हो गया उससे जलबिंदु झरने लगी प्रेम में निमग्न होकर उन्होंने पलकें मूँद लीं |
परइँ चरन भरतु नंदन सादर करइँ प्रनाम ।
उठइँ लै उर कसइँ बाहु द्रबित दरस पुनि राम ॥
भरत नंदन पुष्कल ने भी उनके चरणों में सादर प्रणाम निवेदन किया | भगवान श्रीराम ने द्रवीभूत देखकर उन्हें भी उठाया और अपनी भुजाओं में कर्ष लिया |
शुक्रवार, २९ जुलाई, २०१६
मिलि हनुमत पुनि लमनत बाहू । सुग्रीव सहित मेलिं सब काहू ।
पग परे नृपन्हि हरिदै लाए । भेंटें उमगि सनेहि बहुताए ॥
हनुमंत से भेंट करने के पश्चात बाहु प्रलंबित कर भगवान सुग्रीव सहित अन्य सभी वीरों से मिले | अन्य बहुतक स्नेहियों से उत्साहपूर्वक मधुर मिलन किया, चरणों में पड़े राजाओं को उन्होंने ह्रदय से लगा लिया |
समदत सन्नत सैन समाजू । छुधावंत जिमि पाए सुनाजू ॥
गहि पद लगे सुमति प्रभु अंका । जनु भेंटी सम्पद अति रंका ॥
सादर प्रणाम करते हुवे सैन्य समाज ने उनसे ऐसे मिला जैसी क्षुधावन्त को उत्तम अनाज प्राप्त हुवा हो | सुमति भी भक्तों पर अनुग्रह करने वाले भगवान श्रीरामचन्द्र जी से ऐसा गहन आलिंगन किया जैसे दरिद्र को अतिसय धन-धाम मिलता है |
प्रफुरित नयन ठाढत समुहाए । आयउ निकट उलसित रघुराए ॥
देखि सुमति गदगद गोसाईं । मधुर बचन ते पूछ बुझाईं ॥
श्रीरामचन्द्र जी प्रफुल्लित लोचन व् उल्लसित मन से सम्मुख खड़े हुवे अपने मंत्री सुमति के समीप आए व् उन्हें देखकर गदगद होते हुवे मधुर स्वर में प्रश्न किया : --
जगकर यहु सब राजाधिराजे । पाहुन बनि इहँ आनि बिराजे ॥
सब समेत धारिअ मम पाऊँ । बाँध क्रम कहु कवन सो राऊ ॥
मन्त्रिवर ! जगत भर के राजाधिराजा का अतिथि रूप में यहां आगमन हुवा हैं | इन सभी ने सम्मिलित होकर मेरे चरणों में प्रणाम निवेदन किया है, क्रमबद्ध रूप इनका परिचय देते हुवे कहो ये कौन हैं |
कहौ तुरंगम कहँ कहँ गयऊ । बाँधियब केहि केहि गहयऊ ॥
कुसल बंधु मम कवन उपाऊ । केहि बिधि कहु ल्याए छँड़ाऊ ॥
यह अश्व कहाँ-कहाँ गया किस-किस ने इसका हरण किया किस- किस ने इसे परिरुद्ध किया | मेरे इस कुशल बंधू ने किस युक्ति से तथा कौन सी विधि से उसका विमोचन किया ?'
कहत सुमति तुम सरबग्य कहु कह कहा जनाउँ ।
पूछिहउ मोहि जोए प्रभु सो बरनत सकुचाउँ ॥
सुमति ने कहा : -- 'भगवन ! आप तो सर्वज्ञ हैं, आपके समक्ष में क्या संज्ञान करूँ | सब कुछ ज्ञात होने पर भी आपने मुझसे जो प्रश्न किए हैं उनका उत्तर देते हुवे मुझे संकोच हो रहा है |
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