Tuesday, 1 October 2013

----- ॥ उत्तर-काण्ड १२ ॥ -----

बृहस्पति/रवि , १५/१८ मई, २०१४                                                                                                        

अग जग जीवन पोषत जोई । अस तिनके जम जातक होई ॥ 
कहत कहनि आगीं अहिराऊ । सुनत मुनिबर ध्यान धराऊ ॥ 
चराचर जगत के पालनहार  को यमज अर्थात जुड़वा  पुत्र रत्नों की प्राप्ति हुई ॥ अहिराज प्रभु शेष प्रभु की इस पावन कथा को विस्तारित करते हैं । मुनिवर वात्स्यायन अतिशय ध्यान पूर्वक उस कथारस का श्रवनपान कर रहे हैं ।। 

पिया बिरह पर को कर केही । काल बितावति बन बैदेही ॥ 
दौ सुत सह सिय भइ बनबासी । पल छिनु दिनु दिनु भए मासी ॥
वैदेही अपना विरहकाल वन ही में बिता रही थी । प्रियतम के बिछोह का दुःख कहती भी तो किससे ॥ निवास की वासिनी  दो पुत्रों के साथ पूर्णत: वन की निवासी हो गई ।  पल क्षण में,क्षण दिवस में और दिवस मास में परिवर्तित होने लगे

धरे  नाउ जो रिषिहि कुमारे  । सोइ सकल जन कहत पुकारे ॥ 
लव कहे त लव चमकत देखे । कुस कहे त कुस लोचन पेखे ॥ 

 महर्षि वाल्मीकि के द्वारा ही  उन राम कुमारों के नाम का निरूपण हुवा । अब सभी वन चरणी उन्हें  उसी नाम से पुकारते । जब लव कहते तब लव चमक कर निहारते जब कुश कहते तब कुश के लोचन निरिक्षण करते कि उन्हें किसने पुकारा है ॥  

दोउ बिलग पर एकै सरूपा । दोउ राम सम दरस अनूपा ॥ 
छांड घुटरू चरि भयउ पयादे । भूषन बन बन कन कन नादे ॥ 
विलगित होकर भी यमज होने के कारण दोनों कुंवर प्रभु श्रीरामचन्द्र का प्रतिबिम्ब थे एक ही स्वरूप में उनकी छवि अद्भुद थी ॥ उन्होंने घुटनों पर चलना छोड़ दिया है  अब वह पादचारी हो गए  उनके पदों में वन के कण कण भूषण बनकर निह्नादित हो उठते ॥ 

हरिएँहरि घन गगन जूँ गाढ़े । हरिएँहरि दक धरी जूँ बाढ़े ॥ 
दुनो कुँवर अस बाढ़ बढाईं । ह्रदय हीर घर कंचन काई ॥ 
जिस प्रकार गगन रूपी दर्पण में घन की मलिनता शनै शनै ही गहराती है । जल धारण कर हरियाली भी शनै शनै हरी होती है ॥उसी प्रकार हीरे से ह्रदय में कंचन सी काया को आवरित किये दोनों कुमारों की आयु भी शनै शनै वर्द्धित होने लगी ॥ 

लागे दुनहु रूप के धूरी । नख सों सिस रोचिस अस रूरी ॥ 
अंग भंगिमा आह बहु रंगी । संग करे बर सुन्दर संगी ॥ 
नख से शीर्ष तक दोनों की शोभा भी शनै शनै  भ्राजती गई और वे रूप की धूरि ही प्रतीत होने लगे ॥ उनकी अंगों की मनोहारी चेष्टाएँ अहा ! बहु रंगी थी और वे सुन्दर साथियों का संग किये हुवे थे ॥ 

कोदंड सोंह कोदंड, लोइन लोइन भाथ ।
मुनि बलकल जटा मंडल, अहा मनोहर माथ ॥ 
धनुष के जैसी भृकुटि लावण्यमयी नेत्र तूणीर के जैसे । मुनि का वल्कल ओढे शीश पर जूड़े के रूप में बाँधी हुई जटा से युक्त  उनका मस्तक आह ! कैसा मनोहारी था ॥ 

अभिराम तन स्याम गौर, हृदय इंदु प्रकास । 
एक सैल राउ एक सिबिर, मनोहारि करि हास ॥ 
मन को मोहित करने वाला तन एक गिरिराज हिमालय एक समुद्र का आभासित करते श्याम एवं गौर वर्ण के उन कुमारों के  अंतरतम में मानो चन्द्रमा प्रकाशित था । 

मात सिया श्रीराम कृपाला । अजहुँ दुहु कुंवर भा बे बाला ॥ 
बंधु सखा सँग लेहिं बोलाहि । तपोभूमि नित खेलि सोहाहि ॥ 
माता सीता व् कृपा करने वाले श्रीरामचन्द्र के वे दोनों कुमार शिशु अवस्था से बाल्य अवस्था को प्राप्त हो गए ॥ वे अपने बंधू सखाओं को बुलाकर साथ में ले लेते एवं तपोभूमि में नित्य क्रीड़ा करते अत्यंत सुहावने प्रतीत होते ॥ 

द्रुम दल सकल फूल फल पाखे । खग मृग जीउ जंतु बन साखे ॥
पलत दोउ आश्रम सुर धामा । रघुकुल दीपक नयनभिरामा ॥ 
वृक्षों के दल फूल फल एवं उनकी पत्ते और पक्षी, मृग आदि समस्त जीव जंतु भी उनके साथी बन गए रघुकुल  के ये नेत्रप्रिय दीपक, देव धाम स्वरूप उस वन आश्रम में पलने लगे ॥ 

बट रसरिहि कभु डारि उछंगे । कास कटि केरि लावन लंगे ॥ 
नील मनि सम सरीर सुरंगे । तूल तिलक तल निटिल नियंगे ॥ 
 कटि ऊपर सुन्दर कछनी कसे कभी वट वृक्ष की जटा तथा कभी उसकी डालियाँ पकड़ कर उछलते ॥ शरीर ने नीलम के सदृश्य मोहक नीलवर्ण वरण कर लिया था ॥ और माथे पर लाल तिलक का चिन्ह सुशोभित हो रहा था ॥ 

नक नख सिख सह मुखारविन्दे । दिव्य दरस दृग रतनन निंदे ॥ 
ललित कलित कुंतल घुँघराले । घुटरु  पदोपर चले मराले ॥ 
कमल मुख नासिका सहित नख  से शीर्ष तक अलौकिक दर्शन दे रहे थे और दृष्टि मानो रत्नों की भी निंदा कर रही हों ॥ केश कुंडलित होकर सुशोभित हो रहे थे । और घुटनों पर चलने वाले वे बालक अब हंस के जैसी मनोरम चाल चलने लगे ॥ 

लइ ललनइ छबि नयनभिरामा । प्रभा बदन प्रति बिम्बित रामा ॥
सुहासन ससी किरन सूचिते । सुधा श्रवाधर  अधार सहिते ॥
दुलारों की छवियाँ नेत्र प्रिय हो गईं । जो श्रीराम के मुख मंडल की आभा  प्रतिबिंबित करने लगी  ॥ मुख की सुन्दर मंद हँसी मानो चंद्रमा की किरणों की ही सूचक हों और अधर अमृत बरसाने वाले चन्द्रमा ही से युक्त हों ॥ 

किलकत कौतुकिय करत, बालक कुञ्ज कुटीर । 
हरि भै भूइ ब्रम्ह बरत पा हरि के दौ हीर ॥ 
लतागृह में दोनों बाल कुंवर खिलखिलाते और कौतुहल करते , ब्रम्हा वर्त की वह भूमि, श्री हरी के उन दो रत्नों को प्राप्त कर अत्यंत प्रसन्न चित हो उठी  ॥ 


काल चाक चर गति कर बाढ़े । हरियर सुतबर बपुधर गाढ़े ॥
वासों मुकुन मनोहरताई । सित पाँखि ससि सों बर्द्धनाई ।। 
समय का चक्र अपनी गति अनुसार बढ़ता चला गया और उन श्रेष्ठपुत्रों की सुन्दर देह आकृति, धीरे धीरे स्वरूप लेने लगी ॥ उसके सह उन बाल मुकुलों की मनोहरता शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा के सदृश्य वर्द्धित होती गई ॥  

बाल्मिकीहि महर्षि मंडिते। मसि पथ के रहि महा पंडिते ॥
बहुरि दुहु सिस सहि अंग बेदा  ।  रहस सहित धनु बेद बिभेदा ॥ 
महर्षि उपाधि से विभूषित वाल्मीकि ऋषि, लेखनी के महा विद्वान पंडित थे ॥ फिर  शिष्यों को अङ्गों सहित वेदों का अध्ययन कराया एवं रहस्यों सहित धनुर्वेद के भेद बताए ॥ 

धनु बिधा तिन्ह निपुनित किन्ही । जुद्ध कला के दीक्षन दिन्ही॥
स्तुति गीत पद मुख कल नादें । निगमागम बालक वद वादें 
उन्होंने उन युगल पुत्रों को धनुष विद्या में निपुण किया । और युद्ध कला की दीक्षा दी । बालक स्तुति, गीत, पद आदि को मधुर स्वर में गाते, और वेद शास्त्र का कथन करते हुवे शास्त्रार्थ किया करते ॥ 

धर जमज चित ज्ञान के नेईं ।  फेर बाँध सब दीक्षा देईं ॥ 
सास्त्रार्थ सँग बेद बिधाना । सार तत्व के दिए सब ज्ञाना ॥ 
फिर उन यमजात के चित्त में ज्ञान की नीव का आधान करते हुवे क्रमवार से सभी उपनयन संस्कार दिए । शास्त्रों  के अर्थ सहित वेद के विधानों का सार एवं उसके तत्वों का ज्ञान देकर दोनों भ्राताओं को शात्रज्ञ एवं वेदज्ञ किया ॥ 

बालमीकि मुनि महा मनीषी । मंत्रकार मह बर बिचिचीषी ॥ 
जग्योपबित सब कारु कीन्हि । जम जात सिखा सूतक दीन्हि ॥ 
वाल्मीकि मुनि जो परम विचारक हैं जो मन्त्रवेत्ताओं श्रेष्ठ एवं विचिचीषु हैं । उन्होंने फिर समास यज्ञोपवित कार्य सम्पन्न किए यमजात को विद्वज्जन के चिन्ह से युक्त किया ॥ 

सिय राम कुँवर कालनुसारे । वेद बिदित बर दिए संस्कारे ॥
द्विज जाति जे शास्त्र बिहिते । बारह मनु सोलह अन्य कृते ।। 
इस प्रकार गुरुवर वाल्मीकि द्वारा सियाराम के उन कुंवारों को समयानुसार वेद विधान में विदित श्रेष्ठ संस्कारों दिए गए ॥ द्विजातियों के शास्त्र विहित कृत्य जो मनु अनुसार बारह और कुछ अन्य लोगों के अनुसार सोलह हैं॥ 

यत् गर्भाधान च पुंसवन सीमंतोन्न्यन: जातकर्म: ।
यद नाम कर्माय च निष्क्रमणाय च अन्न्प्राशनम कर्म: ॥ 
चूड़ाकर्मोपनयन केशान्तवं समावर्तन: विवाह: । 
अन्य: कर्णभेदम विद्यारंभ वेदारभ: अंत्येष्टि:॥ 
जो हैं गर्भाधान,और पुंसवन,सीमंतोन्न्यन,जातकर्म तथा नामकर्म, निष्क्रमण, अन्नप्राशन का कर्म, चूड़ाकर्म, उपनयन, केशांत, समावर्तन, विवाह; अन्य चार हैं कर्णभेद, विद्यारम्भ, वेदारम्भ, अंत्येष्टि ॥  

कबि कोबिद के मुख वाद, दोनौ सुत  बन लोक । 
निगमागम निगदित नाद गावहिं सकल श्लोक ॥ 
विद्वान कवि के मुखागान से उस विहड़ वनक्षेत्र में जगमोहन प्रभु श्रीराम चन्द्रजी के वे दोनों यमज पुत्र वेदादि के सभी स्त्रोतों का पून: पून: अभ्यास करते ॥ 

शनिवार ३१ मई २०१४                                                                                                             

ज्ञान दान सुभकारन लोका ।  चातुर बीसी सहस सलोका ॥ 
पाँच सत सरग सह सत कांडे । आदि कबिबर गाथ लिख मांडे ॥ 
ज्ञान दायन एवं लोककल्याण हेतु आदि कविवर श्री वाल्मीकि जी ने सहस्त्र चतुर्विषम् श्लोकों को पंच शतक सर्ग में आबद्ध करते हुवे उन्हें सात कांडों में विभक्त कर एक महतिमह काव्य गाथा को रचा ॥ 

जब जे गाथा पूरन रचाए । सोचे कबिन्द्र कवनै सुनाए ॥ 
कि तबहि कहुँ सन आनइ भागे । जमज भ्रात गुरु चरनन लागे ॥ 
गाथा जब पूर्णता को प्राप्त हुई । यह गाथा रच तो ली अब सुनाऊँ किसे ? महाकवि इस विचार में नमग्न थे कि तभी कहीं से यमज भ्राता दौड़ते हुवे आए और गुरुवार के चरणों से लिपट गए ॥ 
  निरखे गुरु दुहु राजकुमारा । भरे हृदय मह हर्ष अपारा ॥ 
बेद दल कुसल मह मतिमंता । पढ़ाए तिन्हनि कबिबर संता ॥ 
जब गुरुवार ने उन दोनों राजकुमारों को देखा तब उनका ह्रदय हर्ष से भर गया ।  कविवर श्री वालमीकि ने, चारों वेदों में कुशल उन महा बुद्धिमन्त को फिर उस गाथा का पाठ कराया ॥ 

गायन पठन जे परम चरिता । सुमधुरित त्रै प्रमानइ जुगिता ॥ 
बांधे अस सप्तक सुर साधन । गान जोग कल बीना बादन ॥ 
यह परम चरित्र गायन में पठनपाठन में अत्यंत सुमधुरित एवं तीनों प्रमाणों ( द्रुत,मध्य एवं विलम्बित ) से युक्त है । स्वरों के अभ्यास से सप्तसमूह के सह यह काव्य गाथा कल वीना के संगती कर, गायन योग्य है ॥ 

यह नौरसमय प्रबंधन, भरे सबहि लंकार । 
रघुकुल दीप साधत सुर, नित निज कंठ उचार ॥ 
यह नाउ रसमय प्रबंधन सभी अलंकारों से युक्त है । रघुकुल के ये द्वि दीप जब इस रचना का अपने कंठ से उच्चारण कर इस गीतिकाव्य का नित्यप्रतिदिन अभ्यास  करते ॥ 




सोमवार, १९ मई, २०१४                                                                                                                  

श्री रामायन स्वयं रचिते । कंठ हार कृत कंठ गत कृते ॥
गावैं जब बन सह सुर पूंजे । लागे जस कहुँ मधुकर गूंजे ॥ 
इस प्रकार श्री रामायण जो आदि कवि श्रीवाल्मीकि द्वारा स्वयं रची गई थीं उसे कंठ का हार करते हुवे उन दोनों बालकों ने कंठस्थ कर लिया ॥ 
सुरग्राम के सह जब वह उस गाथा का गायन करते तब ऐसा लगता जैसे कहीं कोई मधुकर गुंजायमान है ॥ 

गुरुबर कर बिद्या बरदाने । पाए दान भए अति धनबाने ॥ 
ता परतस्  हस्तक तल तेही । कनक भूषित कोदंड देही ॥ 
गुरुवर के कमलहस्त ने विद्या का वरदान दिया । ऐसे दान को प्राप्त कर शिष्य अतिशय धनवान हो गए । उसके पश्चात उनके हस्त तल में कनक विभूषित धनुष प्रदान किया ॥ 

जाकी लस्तक रहि अतिसय बर । जूथारि हुँते बहस भयंकर ॥  
मर्म गाह कर भेदन भेदी । मर्म थान परसत बिच्छेदी ॥ 
जिसकी प्रत्यंचा अत्यधिक श्रेष्ठ थी जो शत्रु सैन्य हेतु बहुंत ही विकराल थी ॥ वह शत्रु के रहस्य को भांप कर उसे बाण से ऐसे भेदती कि ये बाण शत्रु के मर्म स्थान को स्पर्श करते ही उसे विच्छेदित कर देते ॥ 

होही जोइ कहुँ मर्मर धूनी । करत अघात धार धर दूनी ॥ 
संग दिए बिय अछत तूणीरा ।  भर प्रचंड मुखि तेजस तीरा॥ 
कहीं पर पत्तों की चरमराहट से कोई ध्वनि होती तब यह धनुर्गुण दुगुनी धार के सह शत्रु पर आघात करते । ऋषिवर उस स्वर्ण मंडित धनुष के साथ अति तीव्र अग्नि मुखी तीरों से भरे दो अक्षय तूणीर भी प्रदान किए ॥ 

दोइ धाराल धारा सारी । अरु अनगिनत अभेदक ढारी ॥ 
जानकिहि कुँवर प्रनिधाने । सिरु अजेइ के असीर दाने ॥ 
 धार से युक्त दो खड्ग और अनगिनत अभेद्य ढालें माता जानकी के उन वीर सुपुत्रों को सौंपी औए साथ में उन्हें  शत्रुओं से अविजित का आशीर्वाद दिया ॥ 

कृत परमम जोधा, वीर वयोधा, सकल बिद्या दीन्ही । 
रहै जो बिधन्वन कृत तिन धनबन गुरुबर कुसल कीन्ही ॥ 
धर पुंज पुंग सर पीतम परिकर करधन कोषज कलिते । 
अरु दुनहु धनुर्धर बिचरत गुरुघर जस कोउ राख रखिते ॥ 
इस प्रकार गुरुवार श्री वाल्मीकि ने समस्त दीक्षा दान कर उन यमज पुत्रों को एक  शक्तिशाली वीर एवं परम योद्धा का स्वरूप दिया जो धनुष से रहित थे उन्हें धनुर्धर पदवी दी और उन्हें सभी प्रकार से कुशल कर दिया । पीतम वस्त्र के घेर से घिरी करधनी में पुंग युक्त वाणसमूहों तूणीर भवन में सुशोभित हो  एवं दोनों धनुर्धर गुरु के उस पावन आश्रम की रक्षा करते हुवे विचरण कर रहे हैं ॥ 

तपोबन दुनहु ठोट के, अस हतप्रभ छब छाइ । 
जस असबिनी कुमार के, सुठि सुहाहि सोहाइ ॥ 
तपोवन में उन दोनों कुमारों की हतप्रभ कर देने वाली छवि इस भांति छाई हुई है मानो सूर्य की अर्द्धांगिनी प्रभा से उत्पन्न यमज कुमारों की सुन्दर शोभा ही सुशोभित हो रही हो ॥ 

मंगलवार, २० मई, २ ० १ ४                                                                                                   

मुने नाथ प्रति सेष बखाने । बहुसहि पावन जेइ अगाने ॥ 
हरि कुल साखी बरधनहारू । बंसानुकीर्तन मैं कारूँ ॥ 
अहिराज प्रभु शेष ने मुनि वात्स्यायन के प्रति इस अति पावन महान कथा वृत्तांत  का व्याख्यान करते हुवे कहते हैं  भगवान श्रीरामचन्द्रजी के कुल की शाखाओं को वर्द्धन करने वाले वंशवृक्ष की मैं विरदावली कहता हूँ  ॥ 

अस्व मेघ उत्सव कस कारे । सिय पत हमारे पालन हारे ॥ 
जाके सपुत लव कुस पुकारे । जग पालक सिय राम दुलारे ॥ 

जनक पुत्री सीता के पति एवं हमारे पालनहार ने कैसे अश्वमेध यज्ञ का उत्सव किया ( अब मैं उसका वर्णन करता हूँ ) ।  जिनके सुपुत्र जिन्हें लव-कुश के नाम से जाना गया जो जगत के पालक एवं माता सीता के दुलारे हैं ॥  

मह समर सूर भए बल धामा । अलप बयस महुँ गुरु कर श्रामा ॥ 

तिनके  असीर कृपा उप कृते । दुहु भ्रात सब दीक्षा धृते ॥ 
गुरुवर वाल्मीकि के हस्त की छाया में वे महा शूरवीर अल्प अवस्था में ही ( अतुलित ) बलशील हो गए । उनके आशीष एवं कृपा से उपकृत होकर  दोनों भ्राताओं ने समस्त दीक्षा प्राप्त कर ली  ॥ 

मात भगत दुहु परम समीती । करत परस्पर बहुतहि प्रीती ॥ 
सिय श्री मुख कभु देइ न भाने । एहि कर दुहु पितु नाउ न जाने ॥ 
दोनों ही माता क परम भक्त हुवे एवं मेल मिलाप कर एक दूसरे पर अत्यधिक अनुराग रखते । माता सीता के श्रीमुख ने कभी उन्हें  भान नहीं कराया । इस कारण वे दोनों अपने पिता भी नहीं जानते थे ॥

समर के सबहि साधन साजे । दुनो सिय कुँवर अतिसय भ्राजे ॥  
पास देस धरि धारा सारी । तीख तेजतस मुख  दुइ धारी ॥ 
संग्राम  के सभी योगों  संयोजित होकर दोनों  कुमार अत्यधिक  सुशोभित हो रहे हैं ॥ पार्श्व देश में तीक्षण तेजस्वी मुख वाली द्वि धारी खड्ग  विराजित है ॥ 

ढार धरे कर धनु कंधेरा । सर समूह करि करधन घेरा ॥ 
करतल बान धनुष अति सोहा । जे तेज रूप अगजग मोहा ॥ 
ढाल युक्त हस्त है धनुष का कंधेरा है । करधनी के घेर में वाणसमूह विराजित हैं । जब यह बाण एवं धनुष करतल में होते हैं तब यह और अधिक शोभित हो जाते हैं  उनका यह दिव्य स्वरूप चराचर को सम्मोहित करने वाला है ॥ 

खैंच करन लग जब गुन छोरें । भेदै गगन वाके टँकोरे ॥ 
दुनउ ऐसौ रूप जब देखी । रहहि मात सिय मुदित बिसेषी ।। 
कान तक वितान कर जब उसकी प्रत्यंचा को छोड़ते हैं तब उसकी टंकार ध्वनि आकाश का भी विभेदन करती है । माता सीता जब अपने पुत्रों रूप देखती हैं तब विशेष प्रसन्न होती हैं ॥ 

आपन सतबत सपुत सुपाता  । दरस हरष नहि कहु को माता ॥ 
जे जगजननी जनित जनाना । हे मुनिबर जिन मम मुख गाना ॥   
रघुकुल कैरव दसरथ लाला । रामचन्द्र के चरित बिसाला ॥ 
छमिअ चहत जे अवगुन मोरा । जो कछु कहहुँ सो सब थोरा ।। 
अपने पराक्रमी सुपात्र  सुपुत्रों को देखकर किस माता को प्रसन्नता नहीं होती ॥  हे मुनिवर ! जगज जननी माता सीता के जन्म दिए हुवे जनिमन का मेरे मुख से यशो गान हुवा रघुकुल के कौमुद एवं दशरथ लाल श्रीराम चन्द्रजी का चरित्र अत्यधिक विशाल है । मेरा यह अवगुण क्षमा का प्रार्थी है जो कुछ मैने कहा वह सब संक्षेप में ही कहा ॥ 

सुठि बाल जनायो दुइ सुत पायो सिय गोदी भरि रहियो ।
भा बढ़ भागी जे कथा तियागी लिख्या लिख लख कहियो ॥ 
जो सीता पति के लव कुस जनि के अगान सादर सुनिही । 
जीव जीउ राखन करहि दान पुन जे भव सागर तरिहीं ॥ 
 इस प्रकार माता सीता जिन्होंने सुन्दर बालकों को जन्म दिया और दो पुत्र रत्न की प्राप्ति की भुजांतर सर्वदा पुत्रों से भरी रहे । वह लेखनी सौभाग्य शाली है जिसने माता के त्याग की कथा कही । जो सीता पति की भगवान श्रीरामचन्द्र जी की लव कुश की जननी माता सीता जी की आगान आदर पूर्वक सुनेंगे एवं संसार के धारियों की रक्षा हेतु न्यायोचित साधनों से स्वयं का श्रम योजित कर धर्म पुण्य करेंगे वे सज्जन अवश्य ही इस भव सागर के पारगमन के अधिकारी होंगे ॥ 

सघन बन लए बाल जनम, जने राम की जानि । 
जो सपेम बाँची तिन्ह , होहि पावनु बानि ॥ 
सघन विपिन में बालकों जन्म हुवा जगत पिता भगवान श्रीरामचन्द्र की अर्द्धांगिनी जगज्जननी सीता ने उन्हें जन्म दिया  जो इस कथा को प्रेम पूर्वक पाठ करेगा उसकी वाणी अवश्य ही पवित्र होगी ॥ 

अस्व मेध मख पूरने, हय परिहरन प्रसंग । 
हे मुनि जेइ बरनन मैं बरनौ आपनि ढंग ॥   
हे मुनिवर ! अब मैं अश्व मेध यज्ञ को पूर्ण करने हेतु अश्व के परिहरण का प्रसंग की व्याख्या  अपने अनुमान एवं समझ के अनुसार वर्णित करता हूँ ॥ 





मंगल/बुध, २५/२१ जून/मई, २ ० १ ३/१४                                                                                    

दिवा साँझ साँझी भइ भोरे । दोनौ बालक भयउ किसोरे । 
दिव्य दरस दिए देह अकारे । तन स्याम मन मृदु सुकुमारे ॥ 
दिवस साँझ में परिवर्तित होते गए साँझ भोर में परिवर्तित होती गई  दोनों बालक अब  किशोर अवस्था को  प्राप्त हो गए ॥ उनकी देह आकृति दिव्य  दर्शन देने लगी ।  उसका वर्ण  श्यामल और उस देह का अंतरतम मृदुल और सुकुमार्य था ॥  

बिधा निपुन बुध गुन आगारे । सकल ज्ञान गिन चितबन घारे ॥ 
बेद श्रुतिहि अस मधुर बखाने । सारद सेषहु अचरज माने ॥ 
विद्या में निपुण एवं प्रबुद्ध होकर वे गुणों के भंडार स्वरूप हो गए । उन्होंने समस्त ज्ञान की जैसे गणना कर ली हो  और उसे  चित्त में संचित कर लिया हो ॥वे निगमागम का ऐसा मीठा गान करते कि शारदा एवं भेष भी  चकित रह जाते ॥  

रचि रामायन श्री गिरि बानी । बाल्मीकि कबिबर अभिधानी ॥ 
तेहि मह ग्रंथन दोउ भाई । कंठ कलित कल रव कर गाई ॥ 
गिरिवाणी में रचित श्री रामायण आदिकवि की उपाधि को प्राप्त कविवर श्री वाल्मीकि द्वारा रची गई ॥ दोनों यमज भ्राता उस महा ग्रन्थ को अपने कंठ में विभूषित कर मधुर स्वर में गान करते ॥ 

मधुर गान अस तान पूरितें । कंठी तालउ सकल सुर जिते  ॥ 
मंद धुनी मुख महिमा  मांडे ।  पाए सकल श्री सप्तक कांडे ॥ 
वह मधुर गान ऐसी तान में बंधता कि कंठ एवं तालव्य समस्त सुरग्राम को ही जीत लेता ॥ मुख की मंद ध्वनि सभी सात काण्ड ( पञ्च शतक सर्ग एवं सहस्त्र चतुर्विश श्लोक सहित ) के शृंगार श्री  को प्राप्त होकर श्री रामायण ग्रन्थ की महिमा  मंडित करती  ॥ 

रुप सिन्धु ज्ञान के कुञ्ज, भयउ दूनउ किसोर । 
नयन मुँदत रयन जाके, नयन उघारे भोर ॥ 
वे दोनों किशोर रूप के सिंधु एवं ज्ञान के कुञ्ज ही थे जिनके नयनावरण से ही रात्रि होती,  और अनावरण से ही उस तपोभूमि का प्रभात होता ॥ 

बृहस्पतिवार, २२ मई, २०१४                                                                                                

जब ते गुरुघर जमज जन्माए । पाए पय पुरस बयस बरधाए ॥ 
सींकत धनबन घन रस बारी । हरियारए बन भूर दवारी ॥ 
जब से गुरुवार वाल्मीकि जी के आश्रम में उन यमजातकों ने जन्म लिया और पियूष एवं खाद्यान को प्राप्त कर वयस विवर्द्धन किया । आकाश किए घन अस के सीकर की सीकता को प्राप्त कर जैसे दावानल विस्मृत हो गई और वह दाव हरीतिमा को प्राप्य हो गया ॥ 

इहाँ तजत जब सिय बन गयऊ  । राज प्रसाद सोक मह गहऊ ॥ 
मुख पट ढार नयन रह मूँदी । बरसै रैन गगन जल बूँदी ॥ 
इधर जबसे प्रभु द्वारा त्यागी गई माता सीता ने वनगम्य हो गई । तब ाजप्रसाद शोक में  गहरा गया । उसके मुख्य द्वार पटल सलग्न होकर आवृत रहते । रयनी में गगन से अश्रु स्वरूप जलकण बरसा करते ॥ 

कह प्रभु अह सिय गई बिछोही । जे कारज तो भल नहि होही ॥ 
पलक माहि तिन देइ त्यागे । भए सुभाग पुनि भयउ अभागे ॥ 
प्रभु श्रीरामचन्द्र कहते आह! वैदेही मुझसे बिछड़ गई । पलक भर में ही मैने उसका त्याग कर दिया,  यह कार्य भला नहीं हुवा ॥  लंका से रावण के पाश मुक्त कर उसका संग प्राप्त होने से मुझे जो सौभाग्य प्राप्त हुवा वह पून: हतभाग्य में परिवर्तित हो गया ॥ 

 परिहरत लषन आह फिरि आही । जहँ निसिचर गोचर बन माही ॥
जान का होइ दसा तुहारी । हे री मैं तव दूषन हारी ॥ 
आह ! लक्ष्मण भी उसे  उस वन में छोड़ आया जिस वन में निशाचर विचरण करते हैं ॥  हे वैदेही न जाने वहां तुम्हारी क्या दशा हुई होगी । हे प्रिया ! मैं तुम्हारा दोषी हूँ ॥ 

हा गुन खानि जानकी सीता । रूप सील ब्रत नेम पुनीता ॥ 
हे खग मृग हे तरु नग श्रेनी । राखहु जोख मम हिरन नैनी ॥ 
आह ! गुणों की भण्डार जनक पुत्री वैदेह कुमारी तुम रूपशील एवं व्रत नियम में बंधी परम पुनीत हो अत: तुम्हे परिहरण का कोई कारण नहीं है ॥ हे पक्षियों, मृगों, हे तरु ! पर्वत की श्रेणियाँ तुम मेरी उस हिरण्ाेनी को संभाल कर रखना ॥ 

विभो बिरहागनी बरत, रोवत भए निस रात । 
तात तात हाँ तात कह होवत रुदत प्रभात ॥ 
इस प्रकार विभो विरह अग्नि में जलते, उन्हें देख कर रुदन करती रात होती । तात तात हाँ तात कहते हुवे रुदन करता हुवा प्रभात होता ॥ 

शुक्रवार, २३ मई, २ ० १ ४                                                                                                         

रैन भयावनि दिन भए भारी । छाई चहुँ पुर दुःख अँधियारी ॥ 
निलय नागर नगर नर नारी । फिरै चाह पथ जोहत हारी ॥ 
रैन भयावह हो गई थी दिवस भारी हो गए थे । चारों और दुःख की अंधियारी छाई हुई थी ।। घर में प्रिय नागर नगर में सभी नर नारी माता के लौटने की अभिलाषा में प्रतीक्षा कर हार मान गए थे ॥ 

बहुरि नैन बिरहापन देखे । भाग बलिआत बिपलउ लेखे ॥ 
अवध जन प्रभु चरन अनुरागी । भाजन दुःख बढ़ि आगिन आगी ॥ 
उनके लोचन ने पूण: माता का वियोग देखा । भाग्य ने बलात् ही विप्लव लिख दिया था । अवधवासी प्रभु के चरणों में अनुराग रखे उनका दुःख के भाजक होने को आगे रहते ॥ 

 जुबक जुबती बिरधा कि बाला । पद धरि प्रभु जहँ धरि करताला ॥ 
बैठ चहत तहँ पलक  दसावैं । बसन चहत तँह हृदय बसावैं ॥ 
युवक हो कि युवती हो वृद्ध हो कि बालक हों जहां प्रभु के चरण पड़ते वह वहा हथेली रखते ॥ वो बैठना चाहते तो ये अपनी पलकें बिछा देते वो बसना चाहते तो ये अपने ह्रदय में बसा लेते ॥ 

कुल कीरत  करत मुख नहि सुखे । मात सुमिरत हरिदै बहु दुखे ।। 
जहाँ राम तहँ सकल समाजू । जहाँ नाम तहँ भा बर काजू ॥ 

रघुकुल की कीर्ति करते उनका मुख नहीं सूखता । जब वह माता का स्मरण करते तब ह्रदय अत्यधक दुखित होता । जहां भगवान श्री राम होते वहां सारा समाज जुट जाता । जहां उनका नाम होता वहां बड़े से बड़े कार्य सिद्ध हो जाते ॥ 

राम महातम पार है, नाम हैं  परम्पार । 

राम सों एक अवध तरे, नाम सों सब सँसार ॥ 
राम का महात्मय पारगम्य है किन्तु राम  नाम अपरम्पार है । राम से तो एक अयोध्या ही उद्धृत हुई किन्तु राम-नाम से सारे संसार का उद्धार हो गया  ॥ 

राम त एकु मुनि पतिनी तारी । नाम सों तरे सब नर नारी ॥
राम सों तरे एकै तारके । नसे भव कलुष नाम धार के ॥ 
श्री राम ने तो एक अहिल्या का उद्धार किया । किन्तु श्री राम के नाम ने समस्त संसार के नर-नारी के हृदयों की अहिल्याओं का उद्धार कर दिया । श्री राम चन्द्र के हाथों एक ताड़का का ही नाश हुवा । किन्तु उनके नाम ने भव  सागर की कलुषता का नाश कर दिया ॥ 

हरि पद दण्डक बन हरियारै । हरि हरि कर घर घर भरुहारे ॥ 
दीरघ दिरिसा सबरी दासा । श्रमित हृदय प्रभु देइ सुपासा ॥ 
दानउ खल खर निसिचर मारे । नाउ सों नगन भीत निबारे ॥ 
हरिपत बिभीषन दाए श्रामा । नाउ सो केत  पाए बिश्रामा ॥ 
हरि के चरणचिन्हों ने तो एक दण्डकारण्य  हराभरा किया । किन्तु हरि हरि करते घर घर भरेपूरे हो गए ।। प्रभु ने तो   एक जटायु,सबरी जैसे सेवकों के ह्रदय को ही विश्राम दिया ।सुग्रीव एवं वभीषण को अपना शरण मंडप दिया ॥ किन्तु प्रभु के नाम के सह जाने कितने ही शरणागत होकर विश्राम को प्राप्त हुवे ॥ 

राम एकै जुग के भगवाने । नाम जुग जुग जन कृपा दाने । 
राम भलुक कपि सेन जुगाईं । नाम धरे तो सेतु बँधाई ॥ 
श्रीराम केवल एक युग के भगवान हुवे । किन्तु श्री राम के नाम ने कृपा प्रदान कर युग युग के जनों को अनुग्रहित किया ॥ श्री राम ने भाुओं एवं वानरों की सेना संयोजित की । किन्तु उनके नाम ने ही उसे सिंधु के पार पहुंचाया ॥ 

लंका बहोर एक अवध राम राज अभिधानि । 
नाम लए जन जन बिचरत, आपन सुख के धानि ॥ 
लंका से लौट कर उन्होंने एक अवध में ही राम-राज की स्थापना की और वे वहां के  राजा हुवे । किन्तु उनका नाम लेकर अपने सुख की धानी  में विचरण करते हुवे अयोध्या नगरी के जन जन राजा हो गए ॥ 

राम चरन पंकज प्रनय, करत दिनु रैन गान । 
आह प्रभु मात परिहरै, हमरे हुँत कल्यान ।  
अद्यावधि वे भगवान श्रीराम के चरणों की रति कर दिन रात उनका भजन करते ॥ और कहते आह! हमारे ही कल्याण के लिए प्रभु ने माता सीता का त्याग कर दिया ॥ 
  शनिवार, २४ मई, २०१४                                                                                                        

अजहुँ राउ भए प्रानपियारे । पेम पागि जन नैन निहारे ॥ 
एकहि एक देइ उपदेसू । तजे राउ हम जानि कलेसू ॥ 

जब ते मारज मुख प्रति सीया । दुर्भाव भरि भाषन कहहिया ॥ 
तब ते पुर जनिन्ह मन माही । भूर तेहु कछु कहबत नाही ॥ 

कहत तासु कटु बचन घनेरे । माता प्रति कहि का सठ हे रे ॥ 
भरे बान सम बादन नाना । सीध बाँध सुठि साध न जाना ॥ 

मारज को उतरु देइ नाही । धानि बॉस रह नैन निचाई ॥ 
पुरजन उर दुःख पावक दहहीं । कभुचौपाल परस्पर कहहीं ॥ 

धृतात्मन धरनी धरून धीरजु धरम धुरीन । 
बैरी बिरहन तेहि कस, कारे सोक अधीन ॥ 

रविवार, २५ मई, २०१४                                                                                                           

एहि बिधि कहि कहि जन प्रिय बाता । सुरतै निसपल पितु प्रिय माता ॥ 
आपन हेतु  हेत अस देखी । नेहि प्रभु निज धन्यमन लेखी ॥ 

दारुन दुःख उरस अस ब्यापे । कछु कर होइ न सीतर तापे ॥ 
सिया सरिस निज हिया बसाही । अजहुँ प्रजा सम प्रिय को नाहीं ॥ 

अवध प्रजा सिय चिंतन करके । ससी दिवाकर निसदिन ढरकें ॥ 
भयउ दिवस ने नीति निर्धारे । सोइ जोइ जन के हित कारे ॥ 

राज परसादु रैन एकाकी । दे सिय पटतर सस मुख ताकी ॥  
रैन गवन पर भोर बहूरे । देवन सुख जन निज दुःख भूरे ॥ 

जे दुसह दुःख घन घन भए, प्रीत भरे मन मीर । 
पाहन नयन नीर बहे, राम सिया दुइ तीर ॥ 

सोमवार, २६ मई, २ ० १ ४                                                                                          

एक बपुधर मुनि भेस न होई । न त किए ब्रत ब्यबहारु सोई ॥ 
छाँड़ सुख सयन साथरि सोईं । कंद मूल फल भोजन होईं ॥ 

नव गवन्दु इब रघुनायक मन । अलान सरिस भयउ सिंहासन ॥ 
जाके पंथ काटि को लोहा । अतिसय कठिनइ पद जग बोहा॥ 

बिकल नयन निरखे जन नेहा । हिलगित हरिदै उमगि सनेहा ॥ 
नेह पैह जान जो सुख पावै । सोई बिरहा दुःख बिसरावै  

पूछे फिरि फिरि जन कुसलाता । सेवा लगे संग लघु भ्राता ॥ 
करे राज जब पति त्रइलोका  । हर्षित मन रहि सब हिन सोका ॥ 

राम नाम एक राम प्रतापा । भरि सुखहि सुख हरे जग तापा ॥ 
रामनुसासन राम परायन । सौ हरिदै जन जन मुदितायन । 

सर्वान्तरस्थ आपहि सब जन आरत जानि ।  
रोग सोक के पीर हरत, मन सुख सम्पद दानि ॥ 

बुधवार, २८ मई, २ ० १ ४                                                                                                          

जेइ दान के ऐसिहु सोभा । अवरु धाम धन मन नहि लोभा ।। 
भयउ सबइ जन पूरन कामी । तन धरनी भए मन नभ गामी ॥ 

देहि हरनी साँस की लेबा । जदपि जीव जग काल कलेबा ॥ 
अवध ग्रसे न कोउ अकाला । पास गहे जस को फुर माला ॥ 

कछुक समउ बिरते एहि भाँती । दिनु दमकत द्यु रात बिभाती ॥ 
दरसत  दरसत भए बहु काला । उत तपबन् बरधए प्रभु लाला ॥ 

दोइ जमजात सुठि सुत होई । प्रभु माया बस जान न कोई ॥ 
प्रभु उर ररत  आह कहँ सीता । राज रचन रत बहुस सुभीता ॥ 

जनिन्ह पेम जमोग के, जोगत सो सिय प्रीति । 
मति मथनी मत मथानी, सारे भल भल नीति ॥ 

बृहस्पतिवार, २९ मई, २०१४                                                                                                   

बहोरि एकु दिवस महमति रघु राए । बिराजित आसन सभा सजाए ॥ 
रसन सायं भवन सुख त्यागे । रागित  लोचन अति प्रिय लागे । 

भरे सभा गह सब आभूषन । साजे सुठि सुबरन सिंहासन ॥ 
छतर चँवर पख असि ढाला । रखे द्वारि पाल धर भाला ॥ 

बैसि पाहि सह तीनहुँ भ्राता । मंत्र कुसलग्य मंतर दाता ॥ 
मंत्रणा करात मथत बिचारा । अगजग सुखकर जनहित कारा ॥ 

कहत प्रभो मृदु जेइ भल नीति । कहु बन्धौ का आप के रीति ॥ 
सुन प्रभो बचन ए मगन सब भए । प्रकांड मात्य मंत्र कछु दए ॥ 

कि तबहि मुनिबर महात्मन के । दिए धुनी करन चाप चरन के ॥ 
सभा सदन भुइ पावन कारे । पूजनी मुनि कुम्भज पधारे ॥ 

बिस्मित बहु पुलकित चितब बहु चकित विभौ निजासान छाँड़े । 
श्री मुख सुख भ्राजित तन मन हरषित पद पर दुइ कर बाढ़े ॥ 
दूरहि ते प्रणमत जे बचन कहत अहोह भाग हमारे ।  
तव दरसन धृते भए उपकृते जो आपने चरन पधारे ॥ 

कर धर सिरु पर मह मुने, देइ प्रभु सुभासीस  । 
होइ जगत सब बिधि कुसल,तुहरे कृत हे धीस ॥  

शुक्रवार, ३० मई, २०१४                                                                                                       

सभा सदहु आगत सत्कारे ॥ मान करत बहु चरन जुहारे ॥ 
आप निकट सुख आसन दाई । पूछेसि प्रभु जोग कुसलाई ॥  

बहुरि तासु बांधत संवादे । बोले प्रभु हे मम आराधे ॥ 
कारत मुनि गुन ग्राम अगाना । कहे महभाग तपो निधाना ॥ 

 तुहरे दरसन अवसिहि आजू । भयउ कृतारथ अवध समाजू ॥ 
सकल सभा सद कौटुम सहिता । पैह प्रसंग तव भयउ पुनिता ॥ 

ए भुइ मंडल अस को न होहहि । जो तुहारे तपस् बिघन बोहिहि ॥ 
लोपामुद्रा अर्द्धांगिनी । बहुतहि सुभाग सील संगिनी ॥ 

वाके पतिब्रत धर्म प्रभावा । गाढ़े सुबह कारिण चिंतक भावा ॥ 
मुनि तुम धर्म साखी सरीरा ।  करून दिरिस हर अगजग पीरा ॥ 

सद के सोभा, तुम सोषक लोभा लवनालय मुनि हे । 
काज सवारौं  का सेवा कारौं रिषिबर कृपाकर कहे ॥ 
हे महात्मन आपही साधन आपही साधक साधना । 
कृत फल होई कारे जोई तव संकल्प के कल्पना ॥ 
हे सभा की शोभा ! हे मुनिवर !!आप लोभ के सागर को शोषित करने वाले हो । मैं पाका कौन क्या सेवा करूँ कौन सा कार्य संवारूँ हे ऋषिवर कृपया कर कहें ॥ हे महात्मन ! आप तो स्वयं ही कार्य का साधन हैं आप स्वयं ही साधक है एवं कार्य सिद्ध करने वाले हैं । हे मुनिवर जो आपके संकल्प की कल्पना करने से ही  कार्य सिद्ध  हो जाते है ॥ 

कहत प्रभो अहिनाथ, मुने अवध अधिप अधिपति । 
जोरत प्रभु दुइ हाथ, बिनय पूरित बचन कहे  ॥ 

शनिवार, ३१ मई, २ ० १ ४                                                                                                 

महर्षि कुम्भज कहत स्वामी । तुम सर्वग्य अंतरजामी ॥ 
तुहरे दरसन सुलभ न होई । जिन पावन सुरगन पथ जोई ॥ 

एही बिचारत हे रघुराया । अजहुँ तुहरे दुअरि मैं आया ॥ 
मम आगम अरु कछु नहि लेखे । निज दरसनार्थी सम देखे ॥ 

दीनबंधु करुना के सागर । भए हन रावन तुहरे श्रीकर ॥ 
अगजग हुँत रहि कंटक सोई । देइ निबारइ जे भल होई ॥ 

बिभीषन भयउ लंका राजा । सुखकर मानए देउ समाजा ।। 
यहु बिषय प्रभो परम सुभागा । ए कर दरसन मनोरथ जागा ॥ 

दरस अर्थ पावत भरे, मोरे मन के कोष । 
जोइ अधरमन नास करे, करत धर्म के पोष ॥ 
    

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