गुलपोशों-दामन वाबस्ता, शोला-बयाँ रुखसार तिरा..,
इज़ाफ़तो-उल्फ़त में फ़ना, हाले-तबाह बीमार तिरा..,
कुल्फ़त भी सदाएं देती हैं ..,
इजहार किए तकरीरी मिरी जा-बज़ा इंकार तिरा.....
-------------------------------------------------------------------------------------------
तू चलाएगा दुन्या हाले-सूरत है तिरी..,
दो गज़ जमीं बस वज़ू-ए-कूवत है तिरी.....
--------------------------------------------------------------------------------
सत्ता की दौड़ में जब सब पीछे छूट जाता है..,
तभी कोई पत्र पुंज वर्ण के पत्थर उठाता है.....
----------------------------------------------------------------------------------------------------
तख्ते-हयात पे रखे चंद सफ़हे-बस्त पुराने..,
अल्फाजों का मकड़ जाल हर्फ़ के सायबाने..,
ख्यालों के सन्नाटे में खिजाओं के फाफुंदे ..,
जेबो-ज़र मकतूब वही रोटियों के अफसाने.....
सायबान = छतो-छप्पर
फाफुंदे = कोई कीड़ा, झींगुर
जेबो-ज़र मकतूब = जेब रखे पैसों पर लिखी
----------------------------------------------------------------------------------------------------
सारी मुहब्बत बर्बाद हो गई सिर्फ एक सवाल पे..,
यो बाप कू जमाई की उपरी कमाई कितणी है......
----- ॥ अज्ञात ॥ -----
--------------------------------------------------------------------------------------------------------
लानतों-मलामत उस शरीके-हयात को..,
जो मसाइल होके शामिलो-मिसिल है.....
मसाइल = समस्या
शामिलो-मिसिल = मुकद्दमें के कागजात के साथ नत्थी
--------------------------------------------------------------------------------------------------
चमन चमन-ओ-गुल बदन मुझको हाँक दे रहे..,
गुदगुदा के गुलगुला के गुल पंजो शाख़ दे रहे..,
शाद-ओ-सब्ज़ पोश होके गुदाज़ पाँख दे रहे..,
गंगो-जमन रौ-ए-रौज़न खादो-खुराक़ दे रहे..,
क़दम क़दम तनज़ील कर आबो-तबाख दे रहे..,
चमन चमन-ओ-गुल बदन मुझको हाँक दे रहे..,
उड़ी वो शोखो-सुर्ख़ अबीर सग़ीरी नौ बहार पे..,
सुरमई कलम किए निग़ाहो-रुख निगार पे..,
ज़री ज़री है ज़र्द ज़र्र ज़मीनो-ज़रीं कार के..,
रुबरु शामे-रौशनाई दराज़ गेसूएँ संवार के..,
चमन चमन-ओ-गुल बदन मुझको हाँक दे रहे.....
मुश्को-मकतूब इश्कई निग़ाहों के आशियाने..,
शादाबो-शादो-शबनमी वो पलकोँ के सायबाने..,
दीवाने संगमरमरी पोशीदा शिंगरूफी शहाने..,
बालाई बाहों सी सहर गही छाँव के सह-खाने..,
चमन चमन-ओ-गुल बदन मुझको हाँक दे रहे.....
पंजो शाख़ = शाखों वाले
तनज़ील = मेहमानवाज़ी
आबो-तबाख = हयात की तश्तरी
मुश्को-मकतूब= स्याही से लिखे
इश्कई = चाह भरी
शिंगरूफी शहाने = सुन्दर लाल रंग
बालाई बाहें = मलाई सी बाहें
------------------------------------------------------------------------------------------------
मेरी नज्म साज साज है मेरी नब्ज नाज़ो-नियाज़ है..,
इज़ाफ़तो-उल्फ़त में फ़ना, हाले-तबाह बीमार तिरा..,
कुल्फ़त भी सदाएं देती हैं ..,
इजहार किए तकरीरी मिरी जा-बज़ा इंकार तिरा.....
-------------------------------------------------------------------------------------------
तू चलाएगा दुन्या हाले-सूरत है तिरी..,
दो गज़ जमीं बस वज़ू-ए-कूवत है तिरी.....
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सत्ता की दौड़ में जब सब पीछे छूट जाता है..,
तभी कोई पत्र पुंज वर्ण के पत्थर उठाता है.....
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तख्ते-हयात पे रखे चंद सफ़हे-बस्त पुराने..,
अल्फाजों का मकड़ जाल हर्फ़ के सायबाने..,
ख्यालों के सन्नाटे में खिजाओं के फाफुंदे ..,
जेबो-ज़र मकतूब वही रोटियों के अफसाने.....
सायबान = छतो-छप्पर
फाफुंदे = कोई कीड़ा, झींगुर
जेबो-ज़र मकतूब = जेब रखे पैसों पर लिखी
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सारी मुहब्बत बर्बाद हो गई सिर्फ एक सवाल पे..,
यो बाप कू जमाई की उपरी कमाई कितणी है......
----- ॥ अज्ञात ॥ -----
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लानतों-मलामत उस शरीके-हयात को..,
जो मसाइल होके शामिलो-मिसिल है.....
मसाइल = समस्या
शामिलो-मिसिल = मुकद्दमें के कागजात के साथ नत्थी
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चमन चमन-ओ-गुल बदन मुझको हाँक दे रहे..,
गुदगुदा के गुलगुला के गुल पंजो शाख़ दे रहे..,
शाद-ओ-सब्ज़ पोश होके गुदाज़ पाँख दे रहे..,
गंगो-जमन रौ-ए-रौज़न खादो-खुराक़ दे रहे..,
क़दम क़दम तनज़ील कर आबो-तबाख दे रहे..,
चमन चमन-ओ-गुल बदन मुझको हाँक दे रहे..,
उड़ी वो शोखो-सुर्ख़ अबीर सग़ीरी नौ बहार पे..,
सुरमई कलम किए निग़ाहो-रुख निगार पे..,
ज़री ज़री है ज़र्द ज़र्र ज़मीनो-ज़रीं कार के..,
रुबरु शामे-रौशनाई दराज़ गेसूएँ संवार के..,
चमन चमन-ओ-गुल बदन मुझको हाँक दे रहे.....
मुश्को-मकतूब इश्कई निग़ाहों के आशियाने..,
शादाबो-शादो-शबनमी वो पलकोँ के सायबाने..,
दीवाने संगमरमरी पोशीदा शिंगरूफी शहाने..,
बालाई बाहों सी सहर गही छाँव के सह-खाने..,
चमन चमन-ओ-गुल बदन मुझको हाँक दे रहे.....
पंजो शाख़ = शाखों वाले
तनज़ील = मेहमानवाज़ी
आबो-तबाख = हयात की तश्तरी
मुश्को-मकतूब= स्याही से लिखे
इश्कई = चाह भरी
शिंगरूफी शहाने = सुन्दर लाल रंग
बालाई बाहें = मलाई सी बाहें
------------------------------------------------------------------------------------------------
मेरी नज्म साज साज है मेरी नब्ज नाज़ो-नियाज़ है..,
मेरे हर्फ़ सोज़े-गुदाज है ये तस्दीह भी हुई आखरी .....
नाजो-नियाज़ = नाजनीं को सप्रेम भेंट
तस्दीह = पीड़ा
आखरी = अद्वितीय
-------------------------------------------------------------------रोज़ो सोजे-दिल साहिल लहरोँ से ये गिला करे..,
सुब्हो सियाही वफ़ा लिखे शाम हुई मिटा दिया.....
---------------------------------------------------------------------
जबाँ ज़ेबो- ज़मील है मगर वकूफ़ का क्या कीजिए..,
जो फ़नकार फ़र्द फ़न फ़न कहे हजूर को नाग लगे.....
सीम-ओ-अंदाम ये हुस्ने-खुदादाद..,
खौफ में हूँ कि ताब जदा न हो जाए.....
सीम-ओ-अंदाम = गोरा
ताब जदा = धूप में जला
-------------------------------------------------------------------
अहले-आशिक़ी में यूं आश्ना होते हैं..,
जलती है शमा परवाने फ़ना होते हैं.....
आशना = आसक्त
--------------------------------------------------------------
खाक़ बदने-दम का नबी हिसाब लगाए..,
जाह-जलाली में जला वो लहू कितना था.....
खिदमते गुज़ार में जला वो लहू कितना था..,
ख़ाम ख़याली में जला वो लहू कितना था.....
जाह-जलाली = शानो-शौकत
ख़ाम ख़याली = बेवकूफ़ी
---------------------------------------------------------
साहेब-बहादुर जब मुल्के-वाली हुवे..,
बंदगी बाहर हुई बुत ख़ाने खाली हुवे.....
साहेब-बहादुर कौन ?
----------------------------------------------------------
फ़राजे-दिल पे मैं सोज़ो-गुदाज़ का समंदर हूँ..,
तेरी पाक निगाहों से उतरूँ तो कतरा हो जाऊँ.....
सोजे-जिग़र पे मैं अहसास का समनदर हूँ..,
तेरी पाक निगाहों से उतरूँ तो कतरा हो जाऊँ.....
फ़राज = ऊँचा
सोज़ो-गुदाज़ = करुण रस का उत्पादक भाव
--------------------------------------------------------------
हर उम्मीद बर आती है शब वो सईद होती है..,
सनम बेपर्दा होता है फिर अपनी ईद होती है.....
-------------------------------------------------------------
तख्ते-पॉश पे बदन यूँ बिसात बिछाए..,
अमा किस बख्ते-हर्फ़ की बरात में आए.....
बख्ते-हर्फ़ = सौभाग्यशाली वर्ण, अक्षर, बात
-----------------------------------------------------------
हज़रे-असवदो-क़ाबा लिखा कुछ न कहेगा..,
जाँ हर्फे-कलीसा लिखा तो मजहब पूछेगा.....
----------------------------------------------------------- इस दौरे-जहान मुश्किल है ग़ालिब..,
मुतअल्लुक़ी उम्मीदें मुख़्तसर रखना.....
-----------------------------------------------------------
ऐ अहदे-शिकन बादबाँ कहाँ जानिबे-मंज़िल है..,
तूफ़ानों में किश्ती है, कहाँ तुम्हारा साहिल है.....
-------------------------------------------------------
पुर बहाराँ में खुशरंग गुल खिल के कह रहा..,
जहां सुबहे सादिक हुई वहीँ उम्मीदे-बर है.....
-----------------------------------------------------------
सुर्ख-निग़ाह कह रही शबनम से रोए हो..,
ये कहो किस फ़िरदौस के अजाब धोए हो..,
शब् के रोने से कहीं अजाब धुला करते हैं..,
ख़ास-ओ-महालो-ख्याल में कहाँ खोए हो.....
फ़िरदौस = चमन, बिहिश्त, मुल्क
ख़ास-ओ- महाल = वह सम्पति जिसका प्रबंध शासन स्वयं करे
सवानहि उमरी (फ़ा) = जीवन चरित्र
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महलो-मनक्कस बुजुर्गो-बीमार मरते हैं..,
या के मुरदार वो मर्दुमे- आज़ार मरते हैं..,
गर गरीब है गुरबत में है ऐ गरीबो-परवर
वहाँ बच्चों के सरपरस्त सरदार मरते हैं.....
मुरदार= मरे हुवे
मर्दुम- आज़ार= अत्याचारी
सरदार = घर के मुखया
----------------------------------------------------------------
हज़ार शरीअतें लिखीं, लिख लिख के फाड़ दीं..,
मेरी मस्लिहतों की कश्ती, कागज़ से बनी थीं.....
------------------------------------------------------------
सन्नाटे पसरी रिहायसी, श्मशानों में है इक शोर ..,
भूँकता था रोज़ो मिरे दर, ला हो बिला अच्छा हुवा.....
सन्नाटे पसरी रिहायसी, श्मशानों में है इक शोर ..,
भूँकता था रोज़ो मिरे दर, ला हो बिला वो ज़िंदा है.....
---------------------------------------------------------------------------------------
तुझपे आसना हम्दो-सना चार सू करते..,
हुजूरे बहरे तिरी बंदगी कू-ब- कू करते..,
कौले-कलम हमारी कलमा-ए-ख़ैर करती..,
ज़िंदा रहते तो तिरे नामे ये वजू करते.....
-------------------------------------------------------------------
दरिया मानिंद दुनिया, सतहे-आब ये जिस्मी जहाज़..,
मंजिल साहिले-अल्लाह, राही बंदा ये रहबर निवाज़.....
---------------------------------------------------------------------------------
फूटी सुब्हे फूटे करम कोई परेशाँ पानी से..,
कोई उम्रे-पैमाँ से कोई ज़ईफ़ी जवानी से.....
ज़ईफ़ी जवानी = बुढ़ापे वाली जवानी
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साज़े-सितार को छू करके, लबे-गुलनार सदा देते हैं..,
महकी हवाओं में गुमगश्त तिरे अशआर सदा देते हैं.....
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शहसवार शाहाना दरबार सजाए कहर ढाए..,
सियासत हरइक फ़साद को ज़ेहादी बताती है.....
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ये कौन बसवास है, ये कौन सी शै है..,
लाए रिन्दे-रह ये कौन मरहला मुझे.....
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अदा उसकी अता उसकी अल्ल उसका आब उसका..,
ज़र्रे उसके जमीं उसकी फ़लको-मह्र महताब उसका.....
----------------------------------------------------------------------------------
है ये सियासी सल्तनत हज़ूर जमहूरियत नाम दिया..,
ऐय्याशी को ज़रूरियात कह ऐशो-बा-आराम किया.....
ज़रूरियात = जीवन की आवश्यक वस्तुएं
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मुल्के खुदा की जागीर के ज़र्रे ज़र देखते हैं..,
अलस्सबहे नौ बहार गुल खिलकर देखते हैं..,
माहो-अख़तर तुम अपनी तफ़ावत में ही रहो..,
टाट बाफ़ तुम्हे मुश्तबहा की नजर देखते है.....
तफ़ावत = दूरी
टाट बाफ़ = काट चोबिया
मुश्तबहा = संदिग्ध
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लिखे है मुरसिल मुझे मुरस्सा निगार के..,
शम्मे-रुखसार पे वो मुरकियाँ सँवार के..,
कमानी कस निगाहें औ स्याही भरी भरी..,
लिल्लाह लबो किनारी सुर्खियाँ उतार के.....
मुरसिल = ख़त लिखने वाला/वाली
मुरस्सा = वह गद्य या पद्य जिसमें दुसरा लफ्ज़ पहले लफ्ज़ का हमवजन और काफिया होता है
मिरजई मयानी सफ्हे कलफ़ किनार के
-------------------------------------------------------------------------------------
सीना जो खन्जर को नहीं पसेमाँ ही सही..,
मिले न बादे-वफ़ा दर्द का तूफाँ ही सही..,
यूँ कहकर बूझ सा गया आखरी चिराग़..,
पेशानी-ख़त में तारीके-आसमाँ ही सही.....
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लाल किले के पसे चोर बाज़ारा में मिले है..,
चाँदनी चौंक के फुटकल पसारा में मिले है..,
सूना है के सस्ता हुवा ये ईमान का तमगा..,
हर गली वो हर कूचे हरेक पारा में मिले है.....
पारा = मुहल्ला
-------------------------------------------------------------------------------------
जर्द जर्रों की तिश्नगी को हाय क्या कहिए..,
मिरे चश्मे-आब खुदाया समंदर हो जाए.....
------------------------------------------------------------------------------------------
छबि अनुपम कल कल जल लाखी । प्रसून धर तल तरुबर साखी ॥
रबि चित्र कारत रुचिर रचायो । बन बन सुबरन रंग धरायो ॥
भावार्थ : -- कल-कल करते हुवे जल की सतह पर पत्र पुष्प फल धारण किये श्रेष्ठ वृक्षों कि शाखाओं का प्रतिबिम्ब अद्वितीय है । सूर्य- देव चित्रकारी करते हुवे वनों को सुनहरा करते हुवे सुन्दर रचना कर रहे हैं ।
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ऐ मुहब्बत तिरी वफ़ा के फूल से चाक-दामन रफू किया..,
और जिस्म महकता रहा कोई इंतेखाबी इतर की तरह.....
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सितारें उलझे ही रहेंगें अपने पेचो-ख़म में..,
कब शब् रुखसत हो कब आफताब निकले.....
-----------------------------------------------------------------------------
ऐ वारफ्ते-जाँ रस्मे-वफ़ा से पूछ लेते..,
यह कहने के अव्वल वालिदा से पूछ लेते.....
वारफ्ते-जाँ = सुध बुध भुला हुवा शख्स
-----------------------------------------------------------------------------
वो चोर है शातिर लाल क़िले पे खड़ा ..,
बताता खुद को वो शहंशाह है बड़ा..,
जम्हूरी दौलत नामे उसका खानदान..,
हर रह जिसके रिश्तेमंद का नाम जड़ा.....
वो चोर है शातिर लाल क़िले पे मुँह दिखाए ..,
मुगलई शहंशाह खुद को वो कह के जाए ..,
जम्हूरी दौलत और नामे उसका खानदान..,
हर रह जिसके रिश्तेमंद की तख्ती लगाए .....
जम्हूर = जनता
------------------------------------------------------------------
मौज़ों ने गुफ्तगू की चश्मे-तर कनारे से..,
हमको मुहब्बत हो गई सुब्हे के सितारे से.....
---------------------------------------------------------------
हजूरे हुजूरी में सँभाल के रखिए कदम..,
हुक्मे बंदगी में जी हुजूरी है बहोत.....
---------------------------------------------------------
आमदे -रफ्तनी यहाँ की रहे-रिवाज़..,
बा-मुलाहिज़ा के मुल्के-खुदा है ये..,
कहीं दरो-दरबार के दहाने पे लिखा..,
मुरदारों का आखरी मरहला है ये.....
आमदे-रफ्त = आयात-निर्यात
मुल्के-खुदा = संसार
मरहला = पड़ाव
आमदे -रफ्तनी यहाँ की राहे-रस्म..,
मुल्के-खुदा है ये काफिले सालार कहाँ है ..,
कहीं दरो-दरबार के दहाने पे लिखा..,
आखरी मरहला है ये फिर मुर्दार कहाँ है .....
आमदे-रफ्त = आयात-निर्यात
मुल्के-खुदा = संसार
मरहला = पड़ाव
-----------------------------------------------------------------------------------
कब तलक रहें हम लब-कनारी सिये हुवे..,
उल्फ़त हो गई हो तो इक़रार की बात करें..,
ख़ोशा-ओ-खैल-ओ-गुल के ख़्वाबों को कौन गिने..,
अपने बागबानों की गुल-बहार की बात करें..,
बदनों के कफ़न लूट के
अपने अलवान के ज़रनिगार की बात करें
ख़ोशा = फलों के गुच्छे, अनाज कि बालियां
खैल = दल
----------------------------------------------------------------------------------
यादों को मौजे दिल के साहिल पे छोड़ती..,
शर्मा के निगाहें मिरी हिजाब में आ जाती.....
यादों को मौजे दिल के साहिल पे छोड़ती..,
शफ्फाफ़ शम्मे-सुर्खो-रु, नकाब चाँद का.....
शर्माए निगाहें मिरी और हिजाब चाँद का.....
----------------------------------------------------------------------
दिलबर की इस पर्देदारी को क़ासिद कहें क्या..,
उल्फत भी नहीं, उल्फत के परवाने भी भेजे है.....
सुखन चीनी क़लम कारी को रब्बा ब-असर रखे ..,
नज़र आते भी नहीं चाँद से नजराने भी भेजे.....
-------------------------------------------------------------------
हो जो शम्मे-रुखो-रौशन, रूबरू तशरीफ़ लाए..,
दीवारों-दर के परदे से अब कोई हा न हू करे.....
--------------------------------------------------------------------
इक सर्दो- स्याह तारीक और सरहदें पहलु बदले..,
शबे-गिर्द-ब-रौ को तिरी निगहबानी से क्या लेना.....
इक सर्दो- स्याह तारीक और सरहदें पहलु बदले..,
ऐ ख़ाबे गफ़लत तिरी निगहबानी अब कौन करे.....
-------------------------------------------------------------------------------
फ़लक की रौशनी माँद हो शब-ब-ख़ैर कहे..,
ये बात गैर की है मगर ये नात हमारी है.....
----------------------------------------------------------------------------------
तंग हो के ज़ईफ़ी से वो ज़ेरे-ख़ाक हो गए..,
जन्नत नशीं से अपनी भी आदत नहीं मिलती.....
ज़ईफ़ी = बुढ़ापा
-------------------------------------------------------------------------------------
ज़रूरी नहीं के रूबरू हो हरेक बखत शीशा..,
मैं शीशे-दिल इक अक्स मिरे दीदावर से चाहूँ.....
----------------------------------------------------------------------------------------
आपको हमारी कसम अदीब को न यूं रुसवा करें
लुगत तराशें नफ़ीसी नामे-वफ़ा को उन्वान करें
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हर गुज़र गुमराह से ही राह पूछता..,
चार शूँ तख़्त पे है इश्तिहार आदमी.....
---------------------------------------------------------------------------------------
पुर- बहारोँ में ही गुल गुलज़ार हुवा करते हैं..,
मैं खिजाओं में भी तिरा साथ निभाऊंगा.....
-----------------------------------------------------------------------------------
लफ्जों की हसीँ सीपियाँ, हर्फों के नरम दाने..,
किश्तियाँ लगा के लाए, नाखुदा इनके माने.....
नज़रों की हसीँ सीपियाँ, अश्कों के नरम दाने..,
किश्तियाँ लगा के लाए, नाखुदा इनके माने.....
--------------------------------------------------------------------------------------
हर शोरा सुब्हे आती है नए सवाब लेकर..,
शाम ढलती जाती है, नए अजाब देकर..,
रोज़े सवाल करती है रोजी रोजीदारों से..,
कोई शब नहीं आती इनके जवाब लेकर.....
------------------------------------------------------------------------------
नक़्शे-पा अल्फाज हर ज़र्रा मुझे नुक़ता लगे..,
ऐ ज़मीं तिरी रफ्तार कभी तो आहिस्ता लगे.....
---------------------------------------------------------------------------------
लफ्ज़ों के बलंदे-बुरुज को बुज़ुर्गियत चाहिए..,
इल्मों-ईमान और जऱा सी तबीयत चाहिए.....
बुरुजे-बुर्द = ऊंची मनार
बुजुर्गियत = अनुभव
---------------------------------------------------------------------------
गुलों ने गुफ्तगू की साज़ गुनगुनाने लगे..,
सजा कोई रूबरू आईने मुस्कराने लगे.....
----------------------------------------------------------------------------------------------------
औरों के सजे चमन में जश्न नहीं मनाते..,
जब आजाद हिन्द है तो क्यूँ नहीं सजाते.....
-----------------------------------------------------------------------------------------------------
" हसीनो के दर सर झुका चाहता हूँ..,
मोहब्बत में हूँ और वफ़ा चाहता हूँ..,
कहीं मर न जाऊँ अहदे सिकन से..,
इस बीमारे-गम की दवा चाहता हूँ.....
--------------------------------------------------------------------------------
ये हुस्ने-ख़ुदादाद है आईनों की नज़र करो..,
होठों को रहने दो मिरी आवाजों के वास्ते.....
ये हुस्ने-ख़ुदादाद है आईनों की नज़र करो..,
बस लबों को रहने दो मिरे लबे-कनार पर.....
--------------------------------------------------------------------------------
फिर इक जश्ने-रोज़ ग़रीब गर्दो-गुरबत में जी लिए..,
इक प्यादा एक घोड़ा इक बादशाह छोड़ गए हम.…
--------------------------------------------------------------------------------
जो तुम निर्मल बादरी, तो मैं कुलिस कठोर ।
एक बत्सर घन एके घर, दोनों के हो ठोर ॥
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आया ख़याल यक-ब-यक मेरे जहन में..,
पिरोई हुई ये रूहे-दम पाजेबे-बदन में..,
लम्हों से उलझी वो बिखरी यूँ टूट के..,
ले गई समेट मौत उसे एक कफ़न में.....
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जबाँ जाने कहाँ की है, ज़ेरे- ख़ाक इसी जमीं की है..,
मजहब उसका कुछ भी हो, जात उसकी आदमी की है.....
---------------------------------------------------------------------------------
जहां सुधा का सिन्धु श्रवा कर धरा का ह्रदय भिगोता है..,
दिव्य दिवाकर प्रथम किरण ले, पद पंकज को धोता है..,
जहां की बाला बाला सिया, जहां बच्चा बच्चा राम है..,
सुरसरि जिसकी कंठ भूषण उस भरत भूमि को प्रणाम है.....
हिमवर लावन बिंदु धरे, धाराएँ पग नूपुर पिरोती हैं..,
कर कल वादन वृन्द वरे, जहां सरिताएँ सुर संजोती हैं..,
दिशाएँ स्वयं पथ दर्शाएँ, जहां चरण रवण अविराम है..,
सुरसरि जिसकी कंठ भूषण उस भरत भूमि को प्रणाम है..,
----- एक भजन से अभिप्रेरित
------------------------------------------------------------------------------
यादों की गलियाँ राहे-गुजर हुई
इक शबे तारिक यूं भी बसर हुई
माहे-माशूक के ख्वाबे-खाहिस्त
इधर आँख लगी उधर सहर हुई
---------------------------------------------------------------------------
कुर्बानी हो तो खुद की हो, बेजबाँ क्यूँ शहीद हो..,
तोड़ दे रवायतें फिर, कुछ इस तरह की ईद हो.….
---------------------------------------------------------------------------
चल पड़े कदम एक जानिबे-रिन्दे-राह पर.
लिए जो दम आखिरी हुवा सफर तमाम
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शमा के मानिंद फिर इक शाम जल गई..,
बाद बालूदानी से स्याह शब् फिसल गई.….
एक मुश्ते सुभे दम
-----------------------------------------------------------------------------
मेरे पेशान सितारों की शनासी को सँवारों..,
ये बुलंद हो के चमके के ज़री ग़र को पुकारो.….
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ज़र लगे ज़र्रा, लगे ज़र्रा हजरे-असवद..,
अपनी हरेक नज्म खुदा बंद को प्यारी.....
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रहेगी आरजू जब तलक इल्म-ओ- ईमान की..,
रहेगी खुशबू तब तलक मेरे गुलिस्तान की.....
-----------------------------------------------------------------------------------
सुब्हे-दम का है सुबुक, कहीं उतरे हैं नीम शब्..,
दरीचे-दराजे-दीद-ओ-दरबार का खुलना..,
ज़ीने पे ज़री तार- ओ -तिलस्मात तोड़ के..,
जीनते-ज़ेरो-पाज़ेब-ओ-पैज़ार का खुलना..,
सरो-बंद स्याह जुल्फ कुछ इस तरह खुली..,
के जैसे रुखे-बाग़े-नौ बहार का खुलना..,
वो अंदाजे-बयाँ उनका वो शोख़ शीरीं बयानी..,
धीरे से हलके हलके लब कनार का खुलना..,
जैसे के बाग़बाँ में नौबहारे-शिगुफ्ता..,
फ़र फंद बूटे बंद गुले-गुलनार खुलना.....
----------------------------------------------------------------------------------------
दरीचे-दीदे-दीवार का अब तक खुला दरबार है.....
कहीं अलस्सबाह की शफक कहीं उतरे हैं नीम शब्..,
दरीचे-दीद मेरे दिलदार का अब तक खुला दरबार है.....
कहीं अलस्सबाह की शफक कहीं उतरे हैं नीम शब्..,
दरीचा-दीद दिलदार का अब तक खुला दरबार है.....
दराज-ओ-दरबार का खुलना
रौशन दान r -------------------------------------------------------------
रोज़े-शब् ब-आराम सुलाती है ज़िंदगी..,
शाहों को भी भूखे ही उठाती है जिंदगी..,
शाम को सुब्हे किए सुब्हे को किए शाम ..,
आईने क्या क्या न बनाती है ज़िंदगी..,
मज़लूम को गले से लगाती है जिन्दगी..,
मखदूम हो तो सर भी झुकाती है जिन्दगी..,
हो मीनो-मनारों पे तिरे कद की कामत..,
तो ज़ेरे-ख़ाक में औक़ात बताती है जिन्दगी..,
बदन को जिल्दे-स़ाज के एक सिराज़ा किए..,
काफ़ूरी पुर सुर्ख़ रु-ए-खूँन को ताज़ा किए..,
कुवते गुलेखन में फिर बादे-कशीदा कर..,
नफ्से-नूर दिए जाँ को जलाती है जिन्दगी..,
ख़ुदाया उम्र के पेमाने को भर जाने से डर..,
दम कुशाई में ही इस उम्र को ज़ाया न कर..,
शुमारे-कुनिंदा ने ब-कश दम की शुमारी की..,
आती नहीं इक बार जो जाती है जिन्दगी.....
आईने = आइना, कानून
सिराज़ा = चराग़
शुमारे-कुनिंदा = गिनती करने वाला
ब-कश = कंजूसी पूर्वक
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हिजाबे-पलकें नाज़नीं, निगाहें सुरमई..,
उतरी फलक से यक-ब-यक, शबनम नई नई.....
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तबक़ा-ए-बाला कोई नूर चमके..,
गुलेगूँ चारसूँ चश्मे-बद्दूर चमके..,
मीनो-मनक्कस अर्शो-कोहिस्ताँ..,
अलमासे-आला कोहिनूर चमके.....
तबका-ए-बाला =ऊपर की छत
अर्शो-कोहिस्ताँ = आकाश और पर्वत मालाओ पर
अलमासे-आला = बड़िया हीरा
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तबक़ा-ए-बाला कोहिनूर चमके
सिराजे-फलक दूर दूर चमके
याँ शब् नमें निगाहों से उतरी
वाँ वो मग़रिबे-मगरूर चमके
तबका-ए-बाला =ऊपर की छत
सिराज=दीपक,सूर्य
मग़रिबे-मगरूर =पश्चिम में मगरूर
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लम्हों की लकीरें रोज़े-रोज के सफ्हे..,
माहे-बाब के जुजे-बंद बरसों के बस्ते..,
सदीयों के सफ़ीने सदरे-वर्क़ दरो-पेश..,
जो उनवाँ ब-तशरीफ़ वो है 'तवारीख़'......
माहे-बाब =महीनों के अध्याय
जुज बंद =क्रमबद्धता
सफ़ीना =किताब
सदरे-वर्क़ = मुख्य पृष्ठ
उनवान = शीर्षक
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आप्रपदीनम् कंचुकम् करवस्त्रम् पच्चोलम् ।
पादत्राणाम् पादयाम: छत्रं वर्णवर्तिका: ॥
इति छात्र उपयोगिते वस्तु:
पतलून
कमीज
रुमाल
मोज़े
जूते
पाजामा
छाता
लेखनी
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सदक़े के चौराहों पे ये फ़तवा कीजिए..,
पहले बदी बदनीयती से तौबा कीजिए.....
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शाख़े-शाँ थे शाख़े-साँ हो गए, दस्ते-गुल तन्हा हो गए..,
सब्जे-बख्त, सब्जे-पा हो गए, वादियों का वाकया हो गए..,
मस्लहते-वक्त निभाते चले, मुश्तबहा ख़ातूना हो गए..,
क्या कहें तुमको वादा शिकन, तुम तो अहदे-वफ़ा हो गए..,
गुज़रे लम्हों की ये रानाई थी, गुल से हम गुलकदा हो गए..,
नज़राना दिल, सदके जाँ हो गई, वाजिबुल अर्ज अदा हो गए..,
श़के-फ़र्शे-ज़मीं दोजाँ हुवे,लो रुखसते जहाँ हो गए..
जाँनिसा सज़ायाफ़्ता , जिन्दगी से रिहा हो गए.....
शाख़शान = शाखों के कंधे
शाख़सान = तोहमत जदा, कलंकित
सब्जे-बख्त, सब्जे-पा = भाग्यवान, अभागा
मस्लहते-वक्त = समय का आदेश
मुश्तभा ख़ातूना = संदिग्ध नारी
वाजिबुल अर्ज अदा होना = जिनको निभाना आवश्यक हो कर्त्तव्यों की ऐसी प्रतिज्ञा
श़के-फ़र्शे-ज़मीं = जमीं का फटना और दफ़्न होना
सब्त = लेख
वज़ा = रीतियाँ, ढंग, कारण, सबब
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दिल के दोज़े-दराजा में इक दर्दे-ग़म का दरिया है..,
पलकों की फलक परवाजों पे कतरा होना पड़ता है.….
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काफ़ तलक दुन्या है खुदा बंद का कारख़ाना है..,
जिस्मों की ज़र निगारी है रूहों का तानाबाना है.....
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बाल मन भरे भुराई, जान न जीवन सार ।
भावार्थ : -- बाल मन भोलापन लिए होता है, उसे जीवन के अर्थ का संज्ञान नहीं होता ।
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इंसाँ ने खुदा के सदके इक ऩात लिख दी..,
उसने खुश हो के सारी कायनात लिख दी.....
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ऐ फरिश्तों ढूंड लाओ, उसको लुग़त-ओ-मानी से..,
मज़मून-ओ-मुंसीकार, है हरुफ़ में कहीं खोया हुवा.....
ऐ फरिश्तों ढूंड लाओ, उनको लुग़त-ओ-मानी से
हरुफ़ में कहीं खोये हुवे मज़मून-ओ- मुंसीकार हैं
लुग़त-ओ-मानी = शब्द कोष एवं शब्दार्थ
हरुफ़ = हर्फ़ का बहुवचन
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कंकणी करधन कंज निकुंजन, सजाए सुन्दर सिरमोर पखियाँ ।
बृंदा बन रास बिहारि मोहन, चराए धेनु धरे लकुटियाँ ।।
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इक हुस्ने-नाजनीं के मुरीद हम भी आखरी..,
उसकी क़जअदाई भी मासूम सी अदा लगे.....
इक हुस्ने-नाजनीं के मुरीद हम भी आखरी..,
उसकी क़जअदाई भी मासूम अदा हो गई .....
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है इन्तेहा अँधेरे दिले-दामन में मेरे..,
इलाही इल्मे-शम्स-ओ-शमा पेश आए.....
दामन = शामियाना
है इन्तेहा अँधेरे दिले-दामन में मेरे..,
दरबार इल्मे-शम्स-ओ-शमा पेश हो.....
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हैं कहीं सुर्खे-रँगे-चाँद में इक आबे -हयात.,
ये रंग तेरे हुस्न वो आब लबों से मिलता है.....
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पलकों के दरवाजे से चलके ख्वाबों के जीने से..,
सिल्के-गौहर से छलके चश्में-आब वो मीने से..,
जिसकी हस्ती-चाँद रही याके तुर्के-चीन कोई.,
उस दिल को चुरा लाए हम दिलबर के सीने से.....
सिल्के-गौहर = मोतियों की लड़ी
तुर्के-चीन = सूर्य
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तेरे जबहे-ज़बर जो ये ज़रे-दौलते-जुनू है..,
सर जमींने-दम-ओ-दामन का ही लहू है.....
जबहा = माथा
ज़बर = अत्यधिक
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अच्युतं केशवं लक्ष्मी: नारायणम् । सहस्त्र पद लोचनं मूर्ति: मूर्धनम् ॥
पद्म पत्र वासिनी: पद्म संकाशनी:। कमलं कांत पते स्वामी पदारूढम्॥
सर्व भाव: भूताय मंगला वल्लभम् । सर्व लोकेश महेश वागीशेश्वरम् ॥
सर्वत: सर्वदा विद सर्वतश्लोकनं। गदा: शंखे पद्मं चक्र चातुर्य भुजं ॥
रूपाखिलात्मन् स्वरुपविश्व मोहनम्। विश्रांत् कर्ण युगले विश्रुति श्रुति:स्वरं॥
त्वमेव तमोध्न हर तेजस्वान् त्वं । त्वमेवानंजनंत वीर्य शीर्षकं ॥
विश्वायनावसोधिवाधारातीतं । विश्व गुरु गोचरं तनु धारणि धारणं ॥
नीलकान्तंग्नाय निभ् नीलांबुजं । नमस्तुभ्यम् नमन: नरोत्तम नमोनम् ॥
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वल्लाह निगाहें-नाजनीं उफक पलक किनार..,
उठी तो सुब्हे झुकी तो अवध की शाम कहा..,
शोला बदन, नुरे-चमन, ऐ रु-ए-शम्मे रौशनी..,
चमकते रदीफ़ ने यूँ सलामो-एहतराम कहा.….
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सीना-ए-साहिल से कोई सोजे-लहर टकराए है
दम से दिल के दरकने की आव़ाज सी आए है
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लबे-किनार पे लरज़िशे शबनम है इस तरह..,
उठते आबे-शार कोई सरगम हो जिस तरह.....
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गर हो अल्फाजे-पानी, मिरे अश्क के मानी..,
ग़मे -तसनीफ़ का फिर कोई तर्जुमा न करे.....
गर हो अल्फाजे-पानी, जो मिरे अश्क के मानी..,
ग़मे-तसनीफ़ की तर्जुमाइ दौलत का क्या करूँ .....
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जिस्म रु-ए-ऱौ-ए-शब् जवाँ ये हुस्ने-चाँद मगर..,
बुझा हुवा सा मिरा सितारा है इन दिनों.....
जिस्म रु-ए-ऱौ-ए-शब् और जवाँ ये हुस्ने-चाँद ..,
दामन को मेरे सलमा सितारों से सजा दो.....
मेरे सरापे को जेहन में जगह दो..,
के मुस्कराने की कोई तो वजह दो.....
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मौजुदे-मुक़ाम पे जब कोई मकीं होता है..,
बाशिंदा कोई होता है, और वो कहीं होता है.....
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बाशिंदे हुवे पसे-परिंदे इस फ़रमाँबरदारी में..,
शहरे-शमला बिरानी से नौ शहरयार न मांगो.....
पस = अन्तत:, आख़िरकर
शहरे-शमला = अंधेर नगरी
बाशिंदे हुवे पसे-परिंदे इस फ़रमाँबरदारी में..,
शहरे-शमला अब नौ बरदार का क्या कीजै.....
पस = अन्तत:, आख़िरकर
शहरे-शमला = अंधेर नगरी
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नदियाँ इनकी दरिया इनका, इनकी ही सब किश्तियाँ..,
ये नन्हीं नन्हीं नेकियाँ, ऐ दिल अब फेंकें भी तो कहाँ.....
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तिस्नगी को आबे-दस्त भी न हो मयस्सर..,
तो उसे चाँद पे नहीं, सर-जमीं पे तलाशिये.....
अर्थात : -- जब तृषालु हो और शौच का पानी भी उपलब्ध न हो,
तो उसे चन्द्रमा पर नहीं अपनी धरती पर ढूँडना चाहिए.....
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ये एक शाहे-आशिकी अजीम शह्कारी किए
ये संगे-गुल निगारी है कौमी लहू ने रंग दिए
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सालों-साल सजती रही, रौनके-रंगे-आजादी..,
मगर कौमी नजरों को क्यूँ ये नाज़ नहीं देती.....
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लूटी सबने क़ौमियतें, वो सैयद हो कि सैयदा हो..,
कुछ पैदा होने से पहले, एक दरिया दिल पैदा हो.….
सैयद = नेता
सैयदा = नेत्री, नेता की पत्नी
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बंद दरवाजे सुनो गरीबाँ का गराँ ग़म न दिखाना..,
ऐ तस्वीरे-रंग निकला हुवा मिरा दम न दिखाना.....
गराँ = नागवार
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इस दौर के दैरो-हरम भी बा-कमाल हैं..,
ज़रो-माल खुदा, बंदगी जाहे-जलाल है.….
जाहे-जलाल = शान-शौकत
मसीहे-दम ये लफ्ज मेरे और क्या कहें..,
बहरे अछूत नापाक-ज़ाद जो फटेहाल है.....
अब ये बता तू क्या है.….?
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हरेक फिर के पहलू में एक काफ़िर छुपा होता है..,
पीरो-दरो-दीवार के पसे एक बेपीर छुपा होता है.....
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रुस्तखेज़ हो के चाँद रौशन जो फलक पे हो..,
ज़ेबा ज़रखेज जमीनों की फिर ईद मनती है..,
चश्मे-हैवाँ लब किनार और ताब दहक के हो..,
सुर्ख पोश हो के हसीनों की फिर ईद मनती है.....
रुस्तखेज़=
ज़ेबा = सुजलाम
ज़रखेज़=सुफलाम
है आबिदों को त‘अत-ओ-तजरीद की ख़ुशी
और ज़ाहिदों को जुहाद की तमहीद की ख़ुशी
रिन्द आशिकों को है कई उम्मीद की ख़ुशी
कुछ दिलबरों के वल की कुछ दीद की ख़ुशी
आबिद=उपासक; त‘अत=उपासना; तजरीद=एकान्त;
ज़ाहिद=धर्मोपदेशक; जुहद की तमहीद=धार्मिक बात का आरम्भ
ऐसी न शब-ए-बरात न बक़रीद की ख़ुशी
जैसी हर एक दिल में है इस ईद की ख़ुशी
पिछले पहर से उठ के नहाने की धूम है
शीर-ओ-शकर सिवईयाँ पकाने की धूम है
पीर-ओ-जवान को नेम‘तें खाने की धूम है
लड़कों को ईद-गाह के जाने की धूम है
पीर=बूढ़े; नेम‘तें=पकवान
ऐसी न शब-ए-बरात न बक़रीद की ख़ुशी
जैसी हर एक दिल में है इस ईद की ख़ुशी
कोई तो मस्त फिरता है जाम-ए-शराब से
कोई पुकारता है कि छूटे अज़ाब से
कल्ला किसी का फूला है लड्डू की चाब से
चटकारें जी में भरते हैं नान-ओ-कबाब से
अज़ाब=पीड़ा,कठिनाई; कल्ला=गाल
ऐसी न शब-ए-बरात न बक़रीद की ख़ुशी
जैसी हर एक दिल में है इस ईद की ख़ुशी
क्या है मुआन्क़े की मची है उलट पलट
मिलते हैं दौड़ दौड़ के बाहम झपट झपट
फिरते हैं दिल-बरों के भी गलियों में गट के गट
आशिक मज़े उड़ाते हैं हर दम लिपट लिपट
मुआनिक़=आलिंगन; गट=भीड़
ऐसी न शब-ए-बरात न बक़रीद की ख़ुशी
जैसी हर एक दिल में है इस ईद की ख़ुशी
\काजल हिना ग़ज़ब मसी-ओ-पान की धड़ी
पिशवाज़ें सुर्ख़ सौसनी लाही की फुलझड़ी
कुर्ती कभी दिखा कभी अंगिया कसी कड़ी
कह “ईद ईद” लूटें हैं दिल को घड़ी घड़ी
पिशवाज़=घाघरा
ऐसी न शब-ए-बरात न बक़रीद की ख़ुशी
जैसी हर एक दिल में है इस ईद की ख़ुशी
रोज़े की ख़ुश्कियों से जो हैं ज़र्द ज़र्द गाल
ख़ुश हो गये वो देखते ही ईद का हिलाल
पोशाकें तन में ज़र्द, सुनहरी सफेद लाल
दिल क्या कि हँस रहा है पड़ा तन का बाल बाल
रोज़ा=उपवास; हिलाल=ईद का चाँद
ऐसी न शब-ए-बरात न बक़रीद की ख़ुशी
जैसी हर एक दिल में है इस ईद की ख़ुशी
जो जो कि उन के हुस्न की रखते हैं दिल से चाह
जाते हैं उन के साथ ता बा-ईद-गाह
तोपों के शोर और दोगानों की रस्म-ओ-राह
मयाने, खिलोने, सैर, मज़े, ऐश, वाह-वाह
ऐसी न शब-ए-बरात न बक़रीद की ख़ुशी
जैसी हर एक दिल में है इस ईद की ख़ुशी
रोज़ों की सख़्तियों में न होते अगर अमीर
तो ऐसी ईद की न ख़ुशी होती दिल-पज़ीर
सब शाद हैं गदा से लगा शाह ता वज़ीर
देखा जो हम ने ख़ूब तो सच है मियां ‘नज़ीर‘
दिल-पज़ीर=दिल पर समायी हुई; गदा=गरीब
ऐसी न शब-ए-बरात न बक़रीद की ख़ुशी
जैसी हर एक दिल में है इस ईद की ख़ुशी
--नज़ीर अकबराबादी
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दीदे-आब को रुद खूने-रंग को रवानी लिखे..,
किश्ती-ए-क़ल्मे-दिल फिर इक कहानी लिखे.....
रुद =नदी, गीत
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छीन लिए पोशाके-रु बादे-खिजाँ ने..,
हमने धनक खैंच के पोशीदे-सर किया.....
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दिखाई दिए है शबे-गूँ जो तारीके-निशाँ..,
वो मेरा हाल मेरी हस्ती की शनासाई है..,
मेरे रुखसारो-सरो-पा की है ज़िंदा तस्वीर..,
कैसे कह दूँ ये फकत मेरी दस्ते परछाई है.....
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बिक रहा ख़बर में हर अखबार आदमी..,
ख़रीदे है सरकार, हो खबरदार आदमी..,
मालोमता पास है तो ही है वो असरदार..,
हो ग़रीबो-गुरबां तो है वो बेक़ार आदमी.....
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राहे-रवा बागे-रवी कोई रहबर हो तो अच्छा..,
कदम-ब-कदम रब्ते-जमीँ हमसफ़र हो तो अच्छा.....
रवा =हितैषी, उचित
रवी = बहार
रब्त = रिश्ता, संबंधी
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चरागे-सहर सफ़हे-हस्ती उठाए..,
और शामे-मजस्सम पर्दा किए है..,
निगाहें-गुले-गूँ हम शबनम जलाए..,
और शम्मे-हरम शबे-गिर्दां किए है.....
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गुजर ही जाएगी तारीके-शब् ब-खैर..,
ये शम्मे-रु, सहरे-हद जो हमकदम बने.....
शबे-ग़म गुजार दूँ, यूँ मैं तेरे इन्तजार में
ये शम्मे-रु, सहरे-हद जो हमकदम बने.....
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सरोपा जो सब्ज पोश थे, गुलची ने छीन लिए..,
बर्बाद चमन रोए है आबो-हवा के वास्ते.....
सरोपा जो सब्ज पोश थे, गुलची ने छीन लिए..,
आबो-दीद चमन तलाशे है फिर नौ-बहार को.….
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नौलासी अल्फाज वो जरा कम बोलते हैं..,अदब से बोलिए तो मुँह से बम बोलते हैं.….
नौलासी = नर्म
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मौजे वही मंजर वही पानी औ समंदर भी वही है..,
माज़ी वही मंजिल वही जीने का पत्थर भी वही है..,
सिर्फ रूहों ने ही नौ जहान में बदले पहरने-बदन..,
महरो-माह वही सिपहर वही तबक़गर भी वही है.….
माज़ी = इतिहास
तबक़गर = सोने चाँदी आदि के पत्तर बनाने वाला
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बा-रफ्तारे-हाल कहे, परिंदों ने आसमानों के..,
हमने भी खोल दिए, बस्ते-बंद बादबानों के.....
देखे जहाँ हर सम्त वहाँ बद तहजीब नजर आए
दो तकरीर में बंद किए, दस्ते बदखू-जबानों के
बदखू = बुरे स्वभाव वाले
बदजबान = बुरे बुरे लफ्ज कहने वाले
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बेपीर जहां से हमने सदा, चाही थी तर्के-दुन्या..,
उसके ही हक़, माँगी दुआ, मारे पत्थर हँस के दुन्या.....
मौजे-मुजाहिम मुतअद्दी पुरजोर उठा तुफान कहीं..,
मुजक्किर ये दिल दरिया, मारे पत्थर हंस के दुन्या.....
तर्के-दुन्या = फकीर हो जाना
मौजे-मुजहिम = बंधी हुई लहरें
मुतअद्दी= साहिलों-सरहद पर कब्जा करने वाला/वाली, अनेकों
मुजक्किर= ईश्वर की उपासना करने वाला
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दिल से उठे नज़रों पे रुके पलकों ने तर्के-हाल किया..,
सोख स्याही अश्क लिखे हाय आशिक़ी यहाँ कौन करे.....
दिल से उठे नज़रों पे रुके पलकों ने तर्के-हाल किया..,
सोख स्याही अश्क लिखे हाय आशिक़ी हमसे न हुई.....
तर्के-हाल = परित्याग करना
स्याही = काजल, स्याही ----------------------------------------------------------------
तेरी शबे-तन्हाई में इक लबे-आव़ाज तन्हा है..,
एक रुदो-रखता एक नग्मा एक साज तनहा है.....
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जंगारी जेबाँ नूर लिए है समंदर का पानी..,
ये इक निगाहे अंदाज है इन्तहाई बेमानी.....
जंगारी = नीला
जेबाँ = शोभाजनक
नूर = तेज
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चराग़े-सुब्ह सुबुक जो हो वो शाम आखरी..,
सफ़र पे परस्तिसे-कयाम वो काम आख़री..,
या अल्लाह तौफ़ीक मेरी कुछ इस तरीके हो..,
लबे-बाम मेरे महबूब का हो नाम आखरी.....
चरागे-सुब्ह = बुझता हुवा चराग
सुबुक = सुन्दर
सफ़र= रवानगी
परस्तिसे-कयाम = उपासना-स्थली
तौफ़ीक= हिम्मत
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उस इक दिलगुदाज शाखे-समर ने शर्मा के कहा..,
किस किस को मिलूँ मैं के यहाँ दामन हजार हैं.....
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बाद ऱोज-ए-कयामत के, रसूखदार कौन होगा..,
अलमासो-लालो-गौहर का, खरीदार कौन होगा.....
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रुख से मुत्तसिर मगर ग़म से सामना नहीं होता..,
वर्ना आदमकद के मुक़ाबिल आइना नहीं होता.....?
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बा-मुलाहिजा इन्साफ का ये दरबार है..,
जुबाँ बंद दीदे-पोश खुद ये खतावार है.....
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चाहो हजूर न हमको, यूं हज़ार जान से..,
हम हैं सोज़े-शायरान, ज़रा बेइमान से.....
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उठो ! की नभस नयन प्रभा..,
नभ किरण किरण कर रहे..,
उठो ! की नभचर गति कर..,
नवीन वीथी पर विचर रहे.....
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18-7-11
अश्कों के शहर में समंदर ढूंडा किये..,
दिलों के पत्थर में खँडहर ढूंडा किये..,
खबरदार को ही इक खबर न हुई..,
जिसे रह रहकर हम बेखबर ढूंडा किये.....
तेरी बातों की महक देखी, शगल करने को जी चाहा..,
फ़रिश्ता मैं नहीं लेकिन, फजल करने को जी चाहा..,
किसी बाँहों को बाँहों में, भरे दिल से तुम रोये थे..,
ना जाने कितने मोती तुमने दामन में पिरोये थे..,
तेरे अश्कों को एहले गम की, फसल कहने को जी चाहा..,
फ़रिश्ता मैं नहीं लेकिन, फजल करने को जी चाहा..,
दिल के दर दीवारों पे कितने फतवे लिखे थे..,
किसी गुलशन के वो गुल थे, अश्कों से जो सींचे थे..,
तेरी मुश्किल को हर सूं, शकल करने को जी चाहा..,
फ़रिश्ता मैं नहीं लेकिन, फजल करने को जी चाहा..,
तेरी नज़रों के नज़ारे थे,नींदों से नवाजा था..,
खुली पलकें वो शबभर थी, गुनाहों का तकाजा था..,
तेरे ख्वाबों को न जाने क्यूँ, असल करने को जी चाहा..,
फ़रिश्ता मैं नहीं लेकिन, फजल करने को जी चाहा.....
इश्के-हक़ीक़ी खुदा से जुदा नहीं होता..,
तराशे हुवे पत्थरों में खुदा नहीं होता.....
इश्के-हक़ीक़ी = वासना रहित प्रेम
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बिसात न पूछिये, जाबिरो-जब्हे-जात की..,
कब्र नापिए तो यही कुछ होगी दो हाथ की.....
जाबिर = जालिम, अत्याचारी
जब्हे-जात = गला काट कर जान लेने का काम करने वाले
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समझ सके हैं हम दुनिया को बस इतना..,
के यहीं पे दोज़ख है यहीं पे जन्नत है.....
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मसीहा-ए-दम से बराए इल्तजा मांगी है.,
खतावार मुहिब्ब, मुहब्बत ने सज़ा मांगी ही..,
नब्ज़ छूटे तो दिलदार के दिले-दम से मिले..,
पुर इसरार ये खुबसूरत हमने कज़ा मांगी है.....
मसीहा-ए-दम से बराए इल्तजा चाही है.,
खतावार मुहिब्ब, मुहब्बत ने सज़ा चाही है ..,
नब्ज़ छूटे तो दिलदार के दिले-दम से मिले..,
पुर इसरार खुबसूरत ये हमने कज़ा चाही है.....
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लुकछुप चुपके, चुपके से
चाँद गगन पर आता है
सागर आहें भरता है
जब चाँद मंद मुस्काता है
Chaandi Ki Chanchal Paayal Me..,
Sat Gungharu Sinjan Karate Hai..,
Kiranon Ki Dipak Dipti Se..,
Sat Taarit Niraajan Karate Hai..,
चांदी की चंचल पायल में
घूंघरू सुर सिंजन करते हैं
किरणों की दीप्त कलिका से
सुर सप्तक निराजन करते हैं
Chand Chandan Ke Dole Se..,
Jyoti Kalash Chalkaataa Hai..,
Jab Saagar Se Takaraataa Hai..,
Prem Sudhaa Varshaataa Hai..,
Dhup Se Sundar Moti Lekar..,
Sindur-Saanjh Jaymaal Piroti Hai..,
Dvaaron Ko Bandanvaaron Se..,
Svar Sringaar Sangit Sanjoti Hai..,
Saagar Se Tarange Nikalati Hai..,
Paaras Yovan Chu Jaati Hai..,
Asaa Paavan Priyatam Paakar..,
Chandra Palak Jhuk Jaati Hai..,
Lavanaalay Ki Lavanaa Lekar..,
Lahar Laharili Laavanyaa Lekar..,
Sneh Bundon Ki Tarunaa Lekar..,
Nayan Patal Par Karunaa Lekar..,
Chandramani Ke Prastar Path Par..,
Chaand Sarmaa Kar Jaataa Hai..,
Jab Peer Si Laharen Udhati Hai..,
Saagar Hilor Laharaataa Hai.....
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कहीं जाँ निसाँ की लाश कहीं ज़िगर के लख्ते हैं..,
हुक्मराँ लबलहक के वाँ भी तख़्त रखते हैं.....
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दिले-आज़ारी दिखाए है नए रंग जमाने वाले..,
कहाँ है ! कहाँ हैं ! कहाँ है चमन सजाने वाले..,
क़हर उठा कहरी कहे ये कज़ा-ए-अब्रे-इलाही..,
कहाँ हैं! कहाँ हैं ! कहाँ हैं बिजलि गिराने वाले.....
रंग = अद्भुद दृश्य, चमत्कार
क़ज-ए-इलाही= ईश्वर का आदेश
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सब्ज़ा ज़मीं शादाब शजर एक अकेला क्या करे..,
हलब-ए-हसीं आदाब मगर एक अकेला क्या करे.....
हलब = हलब का आइना, बहुंत बड़ा आइना
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"शिक्षा योग्यता की मापक स्वरूप है और ज्ञान योजन का....."
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निकृष्ट कर्म द्वारा उपार्जित अर्थ के दान का क्या अर्थ.....?
विभिन्न आपदाओं के पश्चात् 'दान' की जो दुकानें खुल जाती हैं कृपा कर कोई उसे बंद करवाए
ये दुकाने प्राय: संपन्न वर्ग द्वारा ही संचालित होती है
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यदि कोई स्त्री माँ है तो वह किसी की प्रियतमा भी है.....
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यह जीवन है, और जीवन कोई खेल नहीं है.....
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धर्म-निरपेक्ष अथवा धर्मनिर्पक्ष का भवन परस्पर सौहार्द की आधार शिला पर ही स्थापित हो सकता है, दैहिक संबंधों पर नहीं.....
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योजन, ऐसा होना चाहिए जो योग्यता को संतुष्ट करने में समर्थ हो..,
और योग्यता ऐसी होनी चाहिए जो योजना को संतुष्ट करने में समर्थ हो.…।
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"भाषाऐं, वाणी की वस्त्र-आभूषण हैं,
भाषाओं में में भाव विनिमय एवं विचार अभिव्यक्ति की अद्भुद शक्ति होती है, किसी भाषा की उत्कृष्टता इस शक्ति की प्रबलता पर ही निर्भर करती है.…."
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"मनुष्य में गुण उसके धर्म से विकसित होते हैं,
गुण क्या है ? .....गुण, ज्ञानेन्द्रियों का ऐसा विषय है जो व्यक्तिक स्वभाव को इंगित करता है एवं किसी कार्य को कारित करने में निपुणता उत्पन्न करता है और कार्य के परिणाम को अधिकाधिक प्रभावी करते हुवे लाभ कारी निरुपित करता है"
अत: "गुणों की प्राप्ति के लिए धर्म आवश्यक है"
अब धर्म क्या है ? .....इ तो संविधान से पूछो कि धर्म का है.…? जाति किसे कहते हैं.....?धर्म-धर्म, जाति-जाति
रटने से थोड़े ही कछु सिद्ध होगा.....उ नहीं बताता तो उ.....उ.....मदिरालय में अश्लील नृत्यों का मंच बनाने बाले ठिकादार.....माने की सर्बोच्च नियायालय से पूछो.....पूछो-पूछो.....
भारत के विद्यमान जन संचालन तंत्र (जिसे की लोकतंत्र कहते है) की चुनाव प्रणाली ने , चुने हुवे सदस्यों को इस प्रकार से अधिकार सम्पन्न का दिया है कि, वे संविधान के नियम उपबंधों से स्वयं को मुक्त कर सकते हैं अर्थात भारत का संविधान, भारत के एक सामान्य नागरिक पर तो लागू होगा किन्तु उसके चुने हुवे सदस्य
संविधान के उपबंधों से मुक्त रहेंगे.....
" और आप कुछ नहीं कर सकेंगे.....कुछ भी नहीं....."
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किसी राष्ट्र के शासकीय, अर्धशासकीय, अशासकीय अधिकरण,निकाय,समिति, संगठन, ईकाई, निगम,
केंद्र, न्यास, अर्ध न्यास, या अन्य स्थानों में किसी भाषा विशेष की अनिवार्यता, अन्य भाषाओं में निहित ज्ञान के अमृत से वंचित कर देती है.….
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तुम चरण उद्धृत करो, पथ स्वयं रचित हो जाएंगे.....
-------------------------------------------------------------------------
जीवों के क्रमिक एवं तीव्रतम विकास में परस्पर प्रतिस्पर्द्धा का महत्वपूर्ण योगदान रहा, ऐसा जिव-विज्ञान कहता है.….
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अद्यतनीय भारत में भी अस्पृश्यता, अपने यथा स्वरूप में स्थित है, अंतर केवल यह है कि पूर्व में यह जाति एवं वर्ण पर आधारित थी, वर्तमान में इसका आधार आर्थिक हो गया है.....
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मनुष्योचित भाव जैसे उत्तम गुण, दया, धर्म, बुद्धि,सौजन्य, व्रत आदि व्यवहारों के संकोच ने ही पृथ्वी पर अत्याचारों को संवर्द्धित किया है.….
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'स्त्री केवल भोग विलास की विषय वस्तु है ' यह विचार अति पौराणिक एवं अवनतिशील है,
उत्तम वेश भूषा, अनुकूल वातावरण, एवं उच्चतम स्थान पर पीठासित होकर ऐसे विचार न तो आधुनिक होंगे न ही प्रगतिशील,
"हाँ! ऐसे विचारों का विरोधाचरण कारी, अवश्य ही आधुनिकता एवं प्रगतिशीलता का द्योतक होगा....."
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"जल ही जीवन है,
नदियाँ, राष्ट्र की जीवन रेखाएँ होती हैं, जो वाहनियों में सतत प्रवाहित होकर उस राष्ट्र के ह्रदय को स्पंदित करती है.…."
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अंतरिक्ष पर मानवीय क्रिया कलापों में अंश मात्र की त्रुटियों भी, पृथ्वी के अस्तित्व पर संकट उत्पन्न कर सकती है, हमें ऐसे क्रिया कलापों का नियमन कर उन्हें नियंत्रित करना चाहिए । जिसके अंतर्गत यह उपबन्ध हो कि किसी भी राष्ट्र को यदि अंतरिक्ष में गतिविधियाँ संचालित करनी हो तो वह पृथ्वी के समस्त राष्ट्रों की अनुमति लें और राष्ट्र अपने नागरिकों की अनुमति लें.….
( क्योंकि : -- ठोकर चाँद को मारी जाती है..,
तो जलजले जमीं पर आते हैं.….)
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बचपन में पढ़ा था : -- "साहित्य कला एवं संस्कृति से सम्बंधित क्रियाकलाप समाज एवं देश की छवि प्रस्तुत करते हैं" हमरे पी. एम. कुछ नया ही पढ़ा रहे हैं.....
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आविष्कारक अपना आविष्कार मानव कल्याण के उद्देश्य से करता है, भव भोग के ऊद्देश्य हेतु नहीं.....
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बौद्धिक परतंत्रता पर स्वतंत्रता, बुद्धिमता ही से प्राप्त की जा सकती है.….
शाही ऐय्याशी ही हिन्दुस्तानी गुलामी की वजह रही.….
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"साहित्य,संगीत, कला, सेवा जैसे शब्दों के सह जब 'व्यवसाय' संयोजित हो जाता है, तो ये शब्द भाव उद्देश्यों को विभ्रमित कर अपने मूल अर्थों में अंतर व्युत्पन्न कर देते हैं । जब इनमें भ्रष्ट आचरण संलग्न होता है, तब ये शब्द सामाजिक तंत्र में विकृत विषयों का प्रादुर्भाव कर उनका अनुकरण करने लगते हैं"
"साहित्य,संगीत, कला, सेवा जैसे शब्दों के सह जब 'व्यवसाय' संयोजित हो जाता है, तो इन शब्दों का अर्थ लुप्त हो जाता है और इनका उद्देश्य भटक जाता है । जब इनमें भ्रष्ट आचरण संलग्न होता है, तब सामाजिक तंत्र में विकृतियाँ जन्म लेने लगती हैं"
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"सत्य आचरण का विषय है, भाषण का नहीं....."
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>> विद्यमान वैश्विक परिदृश्य में, शुद्ध चित्त और सेवा भाव लिये यदि किसी क्षेत्र में पदार्पण किया जाए तो उस क्षेत्र का उच्च से उच्च पद पलक पावडे बिछाए प्रतीक्षा कर रहा है..,
>> यदि जिवोकोपार्जन के उद्देश्य से किसी क्षेत्र में प्रवेश किया जाए तो एक सवास्थ प्रतिस्पर्द्धा उन पदों की रक्षा कर रही है..,
>> यदि जीविकोपार्जन के सह व्यवसाय के उद्देश्य से किसी क्षेत्र में प्रवेश किया जाए तो एक कठिन प्रतिस्पर्धा के और एक विचित्र प्रकार की मारामारी उन पदों की रक्षा कर रही है..,
>> और यदी व्यवसाय के सह भ्रष्ट आचरण करने के उद्देश्य से किसी क्षेत्र में प्रवेश किया जाए तो फिर एक गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा और एक विचित्र प्रकार की मारामारी के सह एक अंतहीन संघर्ष उन पदों की रक्षा कर रहा है.....
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"विद्यमान समय में साहित्य,संगीत,कला,पत्रकारिता,लोकतंत्र आदि क्षेत्रों को भक्षकों की नहीं अपितु ऐसे भक्तों की आवश्यकता है, जो इनकी निस्वार्थ सेवा करने में समर्थ हों....."
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तुलसी दास कृत राम चरित मानस काव्य ग्रन्थ की ज्ञान धारा, साहित्य भूमि पर सतत स्वरूप में प्रवाहित रही । इस अलौकिक ग्रन्थ को न केवल साक्षर अपितु निरक्षर वर्ग ने भी श्रुति साधन से अध्ययन रत होकर, अध्याप्त सार को आत्म सात कर इसके सर्वांग सुन्दर आदर्श चरित्र का अनुगमन करते हुवे स्वयं का उद्धार किया.....
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साधना के स्पर्श से सुप्त साहित्य एवं अचेत कला स्पंदित होकर सजीव हो उठते हैं.....
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"देश, समाज का सुधारीकरण कर उसकी उन्नती चाहते हैं, तो सर्वप्रथम विलासिता के पूजारियों को पूजना छोड़ें....."
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लोक से राष्ट्र का अस्तित्व है, राष्ट्र से लोक का नहीं.....
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अलप केलि कर बहुस पढाई । जेइ चरन सिस सकल सुहाईं ॥
भावार्थ : --'खेल थोड़ा अधिक पढाई' शिष्य का यह आचरण सर्वप्रिय है.....
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क्या उत्तम है ? कला का दुरुपयोग कर विषयों का अर्जन, अथवा विषयों का सदुपयोग कर कला का सृजन.....
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कल्प कार के कर कमलों से सृष्टि की रचना हुई, साथ ही साहित्य और कला भी व्युत्पन्न हुवे, वेदों ने इन्हें अमर कर दिया, और फिर सामवेद से गन्धर्व अर्थात संगीतशास्त्र रचा गया या संगीत का आविष्कार हुवा ।
पत्राकारिता अभी शैशवावस्था में है । विद्यमानसमय में भारतीय पत्रकारिता के पठन, श्रवण, एवं दृष्यादि सभी माध्यम व्यभिचारिता के सहकारी दृष्टी गोचर हो रहें हैं । यदि यही स्थिति रही, तब इसका हश्र भी बुलबुले के सदृश्य ही होगा जो कि क्षण में प्रकट होता है, और क्षण में अदृश्य हो जाता है.....
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उत्सव, मान्यताएँ, रीतियाँ संबंधों को प्रगाढ़ करते हैं.....
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जाति, धर्म,समुदाय, समाजवाद के संगठन से राष्ट्रवाद का जन्म हुवा, इनके विघटन के सह राष्ट्र वाद का भी विघटन तय है ।
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मत दान करने अथवा न करने से यदि व्यभिचारी चुने जाते हों, तब चुनाव पद्धती के सह समस्त शासन प्रणाली ही संदेहास्पद हो जाती है.....
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अंग्रेज भारत आए, राज किया और चले गए। स्वतंत्रता प्राप्त हुई, किन्तु भारत और भारतीय शिक्षा स्वतन्त्र न हुवे। स्वतंत्रता संग्राम अविराम है, अद्यावधि इन त्राणहिनों के सम्मुख राजनीति, खेल और अभिनय के महारथी हैं.....
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स्त्री चाहे पत्नी हो चाहे माँ हो, देसी हो या विदेशी, भारतीय पुरुष उसे वश में कर ही लेते हैं.....
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देश के न्यायाधीश कैसे होने चाहिए ? : -- ईश्वर के जैसे !
न्याय कैसा होना चाहिए ? : -- प्रसाद के जैसा !!
न्यायालय कैसे होने चाहिए ? : -- पूजा गृह के जैसे !!!
ये हैं कैसे ? : -- सापिंग माल के जैसे !!!!
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हमारे भारत देश का विलासित वर्ग यह चाहता है कि, हम उन्हें अपनी धरती दे दें, अपने खेत दे दें, अपने सारे प्राकृतिक सम्पदा इन्हें दे दें, अपने मंदिरों का सारा सोना दे दें । जिसके कुछ अंशों से उनकी विलासिता अद्यतन अर्थात अप-टू-डेट रहे बाकी सारा माल विदेशी अधिकोषों अर्थात बैंकों में काला धन बनकर संचित हो जाएगा ।
ये सब शिष्ट व्यवस्था से सम्भव है नहीं, और हम अपना मत भी इन्हें दे दें । जिससे यह भ्रष्ट व्यवस्था पोषित होती रहे और इनकी यह विलासिता सात पीढ़ियों तक भी नहीं नीमड़े.....
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मत मिलाने से पहले जनता : -- ये नेता कौन है ?
मत प्राप्त होने के बाद नेता : -- ये जनता कौन है ?
समय आ गया है हम इस भ्रष्ट व्यवस्था संचालकों के कान पकड़ कर पहले उनके किए कुकर्मों को उन्हें ही दिखाएँ ,उन्हें घर बैठाएं, फिर व्यवस्था शिष्ट करें.....
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"यदि विचार आत्मा है, तो शब्द शरीर है....."
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धर्म क्या है ? सुविचारों का संग्रह है । जो विचार देश काल एवं परिश्थिति के अनुसार अनुकूल नहीं है वह परिवर्तनीय हैं। वैदिक युग में भारतीय समाज चातुर्वर्ण्य( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ) में विभाजित था। क्षत्रिय वर्ण को पशु ह्त्या का अधिकार प्राप्त था यह अधिकार प्राणों की रक्षा के विरुद्ध एवं हवन कार्य हेतु प्राप्त था । कालान्तर में सामजिक सुधार कार्यक्रमों द्वारा इन विचारों को संशोधित किया गया । तात्पर्य यह है कि कोई भी धर्म निकृष्ट नहीं है । देश,कालानुसार उसके कुछ विचार संशोधन करने आवश्यक हैं.....
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कोई परिवर्तन तभी स्वीकार्य होता है, जब वह संसार के लिए कल्याणकारी हो.....
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विवाह, दाम्पत्य (एक स्त्री एवं एक पुरुष का योग) सूत्र में आबद्ध होने की रीति पर आधारित एक शपथ है, एक सौगंध है अन्यथा रिलेशन अर्थात संबद्ध में तो सभी हैं.....
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विषय भोग में डूबे एक अकर्मण्य व्यक्ति केलिए प्रत्येक कार्य असम्भव है, सरल चित्त एवं कर्मनिष्ठ व्यक्ति के लिए कोई भी कार्य सम्भव है.....
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एलोपेथिक एवं आयुर्वेदिक में मूलभूत अंतर यह है कि आयुर्वेदिक में रासायनिक औषधीय तत्वों को पौधों के परिष्करणोंपरांत ही ग्रहण किये जाते है, जबकि एलोपेथिक में यह सीधे ही ग्राह्य है जिस कारण इसके कई पार्श्व प्रभाव परिलक्षित होते हैं |
ऍलोपेथिक चिकित्सा ने शल्य क्रिया में एक क्रान्ति लाई जिस कारण यह विश्व में सर्वमान्य हुई.....
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दूसरों पर नियंत्रण स्थापित करने से पूर्व स्वयं को नियंत्रित होना आवश्यक है.....
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नियोजित लेखनी की स्वतन्त्र अभिव्यक्ति भी नियोजक के अधीन है
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वतर्मान के सामाजिक परिदृश्य में एक विधवा अथवा एक विधुर, का पुनर विवाह एक निश्चित आयु तक ही शोभनीय होगा । अन्यथा यह सम्बन्ध परिवार एवं समाज में विकृतियों को जन्म देगा,क्योंकि विवाह का उद्देश्य स्वयं तक सिमित न होकर सर्वव्यापित होता है.....
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महान आत्माएँ गोली-गोलों से नहीं मरतीं, क्योंकि महान आत्माओं का कोई शत्रु नहीं होता.....
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एक व्यभिचारी स्त्री को यह ज्ञात रहता है कि उसकी कितनी संतान हैं एवं कहाँ हैं ( ऊपर गई कि अभी नीचे ही हैं ) । एक व्यभिचारी पुरुष को यह ज्ञात ही नहीं रहता कि उसकी कितनी संताने हैं, जब यह ज्ञात नहीं कि कितनी हैं तब कहाँ का कहाँ से ज्ञात होगा.....
संविधान के उपबंधों से मुक्त रहेंगे.....
" और आप कुछ नहीं कर सकेंगे.....कुछ भी नहीं....."
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किसी राष्ट्र के शासकीय, अर्धशासकीय, अशासकीय अधिकरण,निकाय,समिति, संगठन, ईकाई, निगम,
केंद्र, न्यास, अर्ध न्यास, या अन्य स्थानों में किसी भाषा विशेष की अनिवार्यता, अन्य भाषाओं में निहित ज्ञान के अमृत से वंचित कर देती है.….
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तुम चरण उद्धृत करो, पथ स्वयं रचित हो जाएंगे.....
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जीवों के क्रमिक एवं तीव्रतम विकास में परस्पर प्रतिस्पर्द्धा का महत्वपूर्ण योगदान रहा, ऐसा जिव-विज्ञान कहता है.….
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अद्यतनीय भारत में भी अस्पृश्यता, अपने यथा स्वरूप में स्थित है, अंतर केवल यह है कि पूर्व में यह जाति एवं वर्ण पर आधारित थी, वर्तमान में इसका आधार आर्थिक हो गया है.....
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मनुष्योचित भाव जैसे उत्तम गुण, दया, धर्म, बुद्धि,सौजन्य, व्रत आदि व्यवहारों के संकोच ने ही पृथ्वी पर अत्याचारों को संवर्द्धित किया है.….
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'स्त्री केवल भोग विलास की विषय वस्तु है ' यह विचार अति पौराणिक एवं अवनतिशील है,
उत्तम वेश भूषा, अनुकूल वातावरण, एवं उच्चतम स्थान पर पीठासित होकर ऐसे विचार न तो आधुनिक होंगे न ही प्रगतिशील,
"हाँ! ऐसे विचारों का विरोधाचरण कारी, अवश्य ही आधुनिकता एवं प्रगतिशीलता का द्योतक होगा....."
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"जल ही जीवन है,
नदियाँ, राष्ट्र की जीवन रेखाएँ होती हैं, जो वाहनियों में सतत प्रवाहित होकर उस राष्ट्र के ह्रदय को स्पंदित करती है.…."
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अंतरिक्ष पर मानवीय क्रिया कलापों में अंश मात्र की त्रुटियों भी, पृथ्वी के अस्तित्व पर संकट उत्पन्न कर सकती है, हमें ऐसे क्रिया कलापों का नियमन कर उन्हें नियंत्रित करना चाहिए । जिसके अंतर्गत यह उपबन्ध हो कि किसी भी राष्ट्र को यदि अंतरिक्ष में गतिविधियाँ संचालित करनी हो तो वह पृथ्वी के समस्त राष्ट्रों की अनुमति लें और राष्ट्र अपने नागरिकों की अनुमति लें.….
( क्योंकि : -- ठोकर चाँद को मारी जाती है..,
तो जलजले जमीं पर आते हैं.….)
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बचपन में पढ़ा था : -- "साहित्य कला एवं संस्कृति से सम्बंधित क्रियाकलाप समाज एवं देश की छवि प्रस्तुत करते हैं" हमरे पी. एम. कुछ नया ही पढ़ा रहे हैं.....
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आविष्कारक अपना आविष्कार मानव कल्याण के उद्देश्य से करता है, भव भोग के ऊद्देश्य हेतु नहीं.....
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बौद्धिक परतंत्रता पर स्वतंत्रता, बुद्धिमता ही से प्राप्त की जा सकती है.….
शाही ऐय्याशी ही हिन्दुस्तानी गुलामी की वजह रही.….
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"साहित्य,संगीत, कला, सेवा जैसे शब्दों के सह जब 'व्यवसाय' संयोजित हो जाता है, तो ये शब्द भाव उद्देश्यों को विभ्रमित कर अपने मूल अर्थों में अंतर व्युत्पन्न कर देते हैं । जब इनमें भ्रष्ट आचरण संलग्न होता है, तब ये शब्द सामाजिक तंत्र में विकृत विषयों का प्रादुर्भाव कर उनका अनुकरण करने लगते हैं"
"साहित्य,संगीत, कला, सेवा जैसे शब्दों के सह जब 'व्यवसाय' संयोजित हो जाता है, तो इन शब्दों का अर्थ लुप्त हो जाता है और इनका उद्देश्य भटक जाता है । जब इनमें भ्रष्ट आचरण संलग्न होता है, तब सामाजिक तंत्र में विकृतियाँ जन्म लेने लगती हैं"
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"सत्य आचरण का विषय है, भाषण का नहीं....."
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>> विद्यमान वैश्विक परिदृश्य में, शुद्ध चित्त और सेवा भाव लिये यदि किसी क्षेत्र में पदार्पण किया जाए तो उस क्षेत्र का उच्च से उच्च पद पलक पावडे बिछाए प्रतीक्षा कर रहा है..,
>> यदि जिवोकोपार्जन के उद्देश्य से किसी क्षेत्र में प्रवेश किया जाए तो एक सवास्थ प्रतिस्पर्द्धा उन पदों की रक्षा कर रही है..,
>> यदि जीविकोपार्जन के सह व्यवसाय के उद्देश्य से किसी क्षेत्र में प्रवेश किया जाए तो एक कठिन प्रतिस्पर्धा के और एक विचित्र प्रकार की मारामारी उन पदों की रक्षा कर रही है..,
>> और यदी व्यवसाय के सह भ्रष्ट आचरण करने के उद्देश्य से किसी क्षेत्र में प्रवेश किया जाए तो फिर एक गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा और एक विचित्र प्रकार की मारामारी के सह एक अंतहीन संघर्ष उन पदों की रक्षा कर रहा है.....
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"विद्यमान समय में साहित्य,संगीत,कला,पत्रकारिता,लोकतंत्र आदि क्षेत्रों को भक्षकों की नहीं अपितु ऐसे भक्तों की आवश्यकता है, जो इनकी निस्वार्थ सेवा करने में समर्थ हों....."
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तुलसी दास कृत राम चरित मानस काव्य ग्रन्थ की ज्ञान धारा, साहित्य भूमि पर सतत स्वरूप में प्रवाहित रही । इस अलौकिक ग्रन्थ को न केवल साक्षर अपितु निरक्षर वर्ग ने भी श्रुति साधन से अध्ययन रत होकर, अध्याप्त सार को आत्म सात कर इसके सर्वांग सुन्दर आदर्श चरित्र का अनुगमन करते हुवे स्वयं का उद्धार किया.....
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साधना के स्पर्श से सुप्त साहित्य एवं अचेत कला स्पंदित होकर सजीव हो उठते हैं.....
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"देश, समाज का सुधारीकरण कर उसकी उन्नती चाहते हैं, तो सर्वप्रथम विलासिता के पूजारियों को पूजना छोड़ें....."
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लोक से राष्ट्र का अस्तित्व है, राष्ट्र से लोक का नहीं.....
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अलप केलि कर बहुस पढाई । जेइ चरन सिस सकल सुहाईं ॥
भावार्थ : --'खेल थोड़ा अधिक पढाई' शिष्य का यह आचरण सर्वप्रिय है.....
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क्या उत्तम है ? कला का दुरुपयोग कर विषयों का अर्जन, अथवा विषयों का सदुपयोग कर कला का सृजन.....
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कल्प कार के कर कमलों से सृष्टि की रचना हुई, साथ ही साहित्य और कला भी व्युत्पन्न हुवे, वेदों ने इन्हें अमर कर दिया, और फिर सामवेद से गन्धर्व अर्थात संगीतशास्त्र रचा गया या संगीत का आविष्कार हुवा ।
पत्राकारिता अभी शैशवावस्था में है । विद्यमानसमय में भारतीय पत्रकारिता के पठन, श्रवण, एवं दृष्यादि सभी माध्यम व्यभिचारिता के सहकारी दृष्टी गोचर हो रहें हैं । यदि यही स्थिति रही, तब इसका हश्र भी बुलबुले के सदृश्य ही होगा जो कि क्षण में प्रकट होता है, और क्षण में अदृश्य हो जाता है.....
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उत्सव, मान्यताएँ, रीतियाँ संबंधों को प्रगाढ़ करते हैं.....
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जाति, धर्म,समुदाय, समाजवाद के संगठन से राष्ट्रवाद का जन्म हुवा, इनके विघटन के सह राष्ट्र वाद का भी विघटन तय है ।
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मत दान करने अथवा न करने से यदि व्यभिचारी चुने जाते हों, तब चुनाव पद्धती के सह समस्त शासन प्रणाली ही संदेहास्पद हो जाती है.....
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अंग्रेज भारत आए, राज किया और चले गए। स्वतंत्रता प्राप्त हुई, किन्तु भारत और भारतीय शिक्षा स्वतन्त्र न हुवे। स्वतंत्रता संग्राम अविराम है, अद्यावधि इन त्राणहिनों के सम्मुख राजनीति, खेल और अभिनय के महारथी हैं.....
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स्त्री चाहे पत्नी हो चाहे माँ हो, देसी हो या विदेशी, भारतीय पुरुष उसे वश में कर ही लेते हैं.....
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देश के न्यायाधीश कैसे होने चाहिए ? : -- ईश्वर के जैसे !
न्याय कैसा होना चाहिए ? : -- प्रसाद के जैसा !!
न्यायालय कैसे होने चाहिए ? : -- पूजा गृह के जैसे !!!
ये हैं कैसे ? : -- सापिंग माल के जैसे !!!!
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हमारे भारत देश का विलासित वर्ग यह चाहता है कि, हम उन्हें अपनी धरती दे दें, अपने खेत दे दें, अपने सारे प्राकृतिक सम्पदा इन्हें दे दें, अपने मंदिरों का सारा सोना दे दें । जिसके कुछ अंशों से उनकी विलासिता अद्यतन अर्थात अप-टू-डेट रहे बाकी सारा माल विदेशी अधिकोषों अर्थात बैंकों में काला धन बनकर संचित हो जाएगा ।
ये सब शिष्ट व्यवस्था से सम्भव है नहीं, और हम अपना मत भी इन्हें दे दें । जिससे यह भ्रष्ट व्यवस्था पोषित होती रहे और इनकी यह विलासिता सात पीढ़ियों तक भी नहीं नीमड़े.....
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मत मिलाने से पहले जनता : -- ये नेता कौन है ?
मत प्राप्त होने के बाद नेता : -- ये जनता कौन है ?
समय आ गया है हम इस भ्रष्ट व्यवस्था संचालकों के कान पकड़ कर पहले उनके किए कुकर्मों को उन्हें ही दिखाएँ ,उन्हें घर बैठाएं, फिर व्यवस्था शिष्ट करें.....
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"यदि विचार आत्मा है, तो शब्द शरीर है....."
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धर्म क्या है ? सुविचारों का संग्रह है । जो विचार देश काल एवं परिश्थिति के अनुसार अनुकूल नहीं है वह परिवर्तनीय हैं। वैदिक युग में भारतीय समाज चातुर्वर्ण्य( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ) में विभाजित था। क्षत्रिय वर्ण को पशु ह्त्या का अधिकार प्राप्त था यह अधिकार प्राणों की रक्षा के विरुद्ध एवं हवन कार्य हेतु प्राप्त था । कालान्तर में सामजिक सुधार कार्यक्रमों द्वारा इन विचारों को संशोधित किया गया । तात्पर्य यह है कि कोई भी धर्म निकृष्ट नहीं है । देश,कालानुसार उसके कुछ विचार संशोधन करने आवश्यक हैं.....
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कोई परिवर्तन तभी स्वीकार्य होता है, जब वह संसार के लिए कल्याणकारी हो.....
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विवाह, दाम्पत्य (एक स्त्री एवं एक पुरुष का योग) सूत्र में आबद्ध होने की रीति पर आधारित एक शपथ है, एक सौगंध है अन्यथा रिलेशन अर्थात संबद्ध में तो सभी हैं.....
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विषय भोग में डूबे एक अकर्मण्य व्यक्ति केलिए प्रत्येक कार्य असम्भव है, सरल चित्त एवं कर्मनिष्ठ व्यक्ति के लिए कोई भी कार्य सम्भव है.....
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एलोपेथिक एवं आयुर्वेदिक में मूलभूत अंतर यह है कि आयुर्वेदिक में रासायनिक औषधीय तत्वों को पौधों के परिष्करणोंपरांत ही ग्रहण किये जाते है, जबकि एलोपेथिक में यह सीधे ही ग्राह्य है जिस कारण इसके कई पार्श्व प्रभाव परिलक्षित होते हैं |
ऍलोपेथिक चिकित्सा ने शल्य क्रिया में एक क्रान्ति लाई जिस कारण यह विश्व में सर्वमान्य हुई.....
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दूसरों पर नियंत्रण स्थापित करने से पूर्व स्वयं को नियंत्रित होना आवश्यक है.....
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नियोजित लेखनी की स्वतन्त्र अभिव्यक्ति भी नियोजक के अधीन है
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वतर्मान के सामाजिक परिदृश्य में एक विधवा अथवा एक विधुर, का पुनर विवाह एक निश्चित आयु तक ही शोभनीय होगा । अन्यथा यह सम्बन्ध परिवार एवं समाज में विकृतियों को जन्म देगा,क्योंकि विवाह का उद्देश्य स्वयं तक सिमित न होकर सर्वव्यापित होता है.....
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महान आत्माएँ गोली-गोलों से नहीं मरतीं, क्योंकि महान आत्माओं का कोई शत्रु नहीं होता.....
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एक व्यभिचारी स्त्री को यह ज्ञात रहता है कि उसकी कितनी संतान हैं एवं कहाँ हैं ( ऊपर गई कि अभी नीचे ही हैं ) । एक व्यभिचारी पुरुष को यह ज्ञात ही नहीं रहता कि उसकी कितनी संताने हैं, जब यह ज्ञात नहीं कि कितनी हैं तब कहाँ का कहाँ से ज्ञात होगा.....
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