Sunday, 18 May 2014

----- ॥ उत्तर-काण्ड १५॥ -----

बृहस्पतिवार, २६ जून, २०१४                                                                                                   

रामचंद्र तब नगर अजोधा । लै सद सम्मति परम सुबोधा ॥
कहत मुने प्रभु पद अनुरागा । अवनि हेतु प्रभु परम सुभागा ॥ 
तब फिर श्री राम चन्द्र ने अयोध्या नगर में समस्त श्रेष्ठ ज्ञानवान के यथोचित विचार ग्रहण भी प्राप्त किए । प्रभु चरणों के अनुरागी ऋषि जनों ने कहा हे पभु आप इस विश्वम्भरा हेतु परम सौभाग्यशाली हैं ॥ 

सुर मुनि तव पद सीस नवाई । दसरथ नंदन मम गोसाईं ॥ 
कुल कीर्ति सुख चहत अनंता । अगनी चित अहबानु तुरंता ॥ 
हे दशरथ नंदन हे हमारे आदृत  स्वामी समस्त देव एवं मुनि गण आपके चरणों पर प्रणाम अर्पित करते हैं ॥ अब आप कुल के शौर्य की कीर्ति एवं धरा के सुख की कामना में तत्काल ही अग्निहोत्र  का आह्वान कीजिए ॥ 

सुनत  बचन प्रभु मुनि मनुहारी । सकल मनोहर साज सँभारी ॥ 
प्रभो पुनि दृढ़ संकलप धारे । महा जज्ञ के अयोजन कारे ॥
इस प्रकार मुनि मनीषियों के  मनुहार भरे वचनों को सुनकर भगवान ने फिर  मनोहर सामग्रियों की व्यवस्था कर अश्वमेध यज्ञ के महा अनुष्ठान का दृढ संकल्प किया  ।। 

तदनन्तर सँग लिए मुनि बृंदा । आगत सरजू सरित अलिंदा ।। 
हस्त कलित कल सुबरन लाँगल । होहिहि चहुँपुर सगुन सुमंगल ॥ 

तदनन्तर मुनि समुदाय को साथ लेकर भगवान सरयू नदी के तीर पर आए ॥ उनके युगल हस्त कांति से युक्त एक सुन्दर हल धारण कर फिर उहोने उस हल से चार योजन के माप की लम्बी-चौड़ी 

चारिन योजन चौखन खेही । बिदहन हल मारग बिय देही ॥ 

किए सजाउनि छाज अनेका । सब संभारी एक ते ऐका ॥ 
मुनि समादेसन जस दायो । जोनिहि मेखल कुण्ड रचायो ॥ 

मनोहारी मनि मंडप, सुछ्द सुछ्त्र छिति ढार । 

श्री सौभाग जहां करत, प्रगस सरूप बिहार ॥ 

शुक्रवार, २७ जून,२०१४                                                                                                               

राज भवन श्री जोहत जैसे । भवन भवन प्रति सोहत तैसे ॥ 
चित्रकारी कर भीत बहीरा । नयन बदन दिए पटल पटीरा ॥ 
राज भवन जिस प्रकार  सौंदर्य-साधन से युक्त था प्रत्येक भवन उसी प्रकार शोभायमान हो रहे थे । भवनों के बाहर भीतर चित्रकारियां की गई थी । मुख्या द्वार एवं गवाक्ष सुन्दर आवरण से सुसज्जित थे ॥ 

 रसन मंजरी रसरी गाँठे । घिरे हीर जस मरकत साँठे ॥ 
बँधे दुआरी बंदन बारे । धरे कंठ जैसे कल हारे ॥ 
वसंत द्रुम की मंजरियाँ रश्मियाँ से इस प्रकार अवगुंठित थी मानो हरिन्मणि से गूँथे होरे ही जड़े हों  ।  द्वार-द्वार  ऐसे वन्दनवारों से सुशोभित हो रहे थे  उनके कंठ ने जैसे हीरक माल्य ही कलित कर लिए हों ॥ 

गोपुर ध्वजा धरि बहु रंगे । पथ पथ प्रहरत पवन प्रसंगे ॥ 
चित्रिकृत चारू चौंक पुरायौ । भाँति भांति  के साज सजायौ ॥ 
बहुंत सी बहुरंगी ध्वज पताकाएं नगर द्वार से होते हुवे पथ पथ पर पवन का प्रसंग किए प्रहारित हो रही थी ॥  सुन्दर चित्रकृत चौंक पुराए गए थे साथ में बांटी भाँती के साज सजाये गए थे ॥ 

चौंक गली बट  बाट बाटिका । पहिरे जैसे हरित साटिका ॥ 
कमन क्यारी पात सँवारे । पुहुप काल के पंथ जुहारे ॥ 
गलियाँ चौंपथ , मुख्य मार्ग वन वाटिकाएं ने जैसे हरिद साटिकाएं धारण कर ली थी । उसपर सुन्दर क्यारियों में पत्र संवार कर वह वसंत काल की  प्रतीक्षा करने लगे ॥ 

परेहि नाहि चीन्ह, तौं दसरथ पुरी देखिअ  । 
नवनइ  दुलहि कीन्ह, जौं षोडसों सिंगार ।।  
 सभी दशरथ पुरी को ऐसे  देखते जैसे उनकी दृष्टि यह निश्चय करने में अक्षम है यह दशरतः पुरी है कि किसी नव दुल्हन ने षोडस श्रृंगार किए हैं ॥ 

शनिवार, २८ जून, २०१४                                                                                                     

बेद बिहित जस कारज लागे । मह रिषि बसिष्ठ परम सुभागे ॥ 
तेहि भाँति सब काज सँवारे । बिधि पूर्वक करत अनुहारे ॥ 
वेद शास्त्रों में निर्देश करते हुवे यज्ञ की जिस प्रकार विधि बताई गई परम शौभाग्यशाली महर्षि वशिष्ट उन्ही विहित विधान एवं निर्देशों का अनुकरण करते हुवे समस्त कार्य संपन्न करने में जुट गए ॥ 

सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई ।  बेद बिहित अनुठान धराई ॥ 
बरन दीप मख बरनन  कीन्हि । दीवट पत्रिका सिस कर दीन्हि । 
शुभ दिवस, शुभ नक्षत्र, शुभ घडी शोध करते हुवे वेद में वर्णित विधि अनुसार यज्ञ का अनुष्ठान का संकल्प किया गया ॥ वर्ण रूपी दीप्तियों से यज्ञ के आयोजन का वर्णन  वर्ण दीप्ति के आधार दीवट पत्रिका को शिष्यों के करतल में आधारित कर : -- 

सकल दिसा सब कोत पठायो ।  एक एक बासि नेउता दायो ।।  
जब मुनिबर आश्रम पथ पायो ।  वादकरन निज बचन कहायो ॥ 
समस्त दिशाओं में सभी और उन्हें भेजा । एवं एक एक वासी को आतिथ्याशय युक्त निमंत्रण निवेदित किया । जब शिष्यों को मुनि समुदाय के आश्रमों का पंथ प्राप्त हुवा तब महर्षि विशिष्ठ ने वाद्यमान स्वरूप में अपने निमंत्रण सन्देश कहलवाया ॥ 

श्रीयुत रवन त्रिभुवनपत हरे  । महास्व मेध कृतन मन धरे ॥ 
हे राजभवन लोचन सोभा । तुहरे दरसन हरिदै लोभा ॥ 
क्या कहलवाया ? श्री एवं शोभा से युक्त त्रिभुवन के पति श्रीहरि ने महा अश्व मेध यज्ञ के अनुष्ठान करने हेतु उद्यत हुवे हैं ॥ हे राज भवन के लोचन की शोभा आपके दर्शन हेतु भवन के अंतर्जगत आपके  दर्शनों  का आकांक्षी है ॥ 

नैन दुआरी पलक पँवारे । अगौरएँ पदम चरन तुहारे ॥ 
कौसल नगरि पंथ कर जोहहि । आगत तुहरे सब सिध होहहि ॥ 
 नयनों की द्वारी और पलकों की  ड्योढ़ीयाँ आपके चरण कमल की प्रतीक्षा  कर रहे हैं ॥ कौसल नगरी क पंथ कर जुहारे कह रहे हैं 
आपके आगमन से ही इस मंगल कार्य की सिद्धि है । 

एहि बिधि पैहत मुनि नउताई । भए आतुर दरसन रघुराई ॥ 
उत्कंठित जग नाथ प्यारे । सोध दिवस सब आन पधारे ॥ 
इस प्रकार समस्त प्राणी-जगत मनुज दनुज सहित मुनिश्री आमंत्र ण प्राप्त कर  श्रीराम चन्द्र के दर्शन हेतु लालायित हो उठे ॥ जगत के नाथ को प्रिय वह आमंत्रित अतिथि अतिशय उत्साह के सह शोधित किए गए दिवस में अयोध्या नगरी  पधार गए ॥ 

नारद असित कपिल मुने, जातूकरन अङ्गीर । 
आर्ष्टिषेण महर्षि अत्रि  भयउ अतिथि रघुबीर ॥ 
राजर्षि नारद, मुनिवर असित एवं कपिलमुनि जातूकर्ण्य, अङ्गीरा, आर्ष्टीषेण  महर्षि अत्रि यह सब रघुवीर के अतिथि हुवे ॥ 

हारीत गौतम रिषिवर,जाग्यबलयक आप । 
आन पधारे संवर्त बर्धन विभो प्रताप ॥   
महर्षि हारीत, मुंवार गौतम ऋषिवर याज्ञवल्यक आप स्वयं संवर्त सहित विभो का पताप वर्द्धन हेतु आन पधारे ॥ 

रविवार, २९ जून, २०१४                                                                                                               


निरख सँभारी बहु हरषाईं । जनक पुरी प्रभु दूत पठाईं ॥ 

अचिर धुति गति दूत चलि आए । नगर वासिन अगुसार अगवाए ॥ 

अवध नगरी ते पत्री आईं । सुनत जनक सहसा उठ धाईं ॥ 

भरे ह्रदय भित द्रवनै भावा । ताप तपित लोचन जल छावा ॥ 

बढ़े प्रीति संग सिथिर अंग तबहि दूत मुख दरस दियो । 
दरस दूत बहु भाव अभिभूत दुअरिहि मिलि भेंटि कियो ॥ 
पूछे कुसलाती नृप सब भाँती मात भ्रात सिय पिय के । 
नया निर्झारा बहि अबिरल धारा पूछि कुसल जब सिय के ॥ 

जल बनु नाउ थल बिनु पौउ दाहिन बिनु जस बाम । 
दिरिस नयन बिनु दया मन सीया बिनु तस राम ॥ 

दूत गन बहु भाव प्रबन, करत दंड परनाम । 
कहे ऐसिहु पढ़त पत्री, बिदेह पति के नाम ॥ 

बुधवार,३० जुलाई,२०१४                                                                                                       

बाँचत उरस न प्रीत समाई ।  दिए न्योति तुमको हे राई ॥ 
होवै अवध मह मख के तियारी । छाए अनंद जनक हिय भारी ॥ 

मंगल द्रब्य सुभ साज सुभिता । साजित चतुरंगी सेन सहिता ॥ 

चले जनक कर मुनिगन साथा । दूर नगर अरु चारिन हाथा ॥ 

पैठि सकल जान सरजू तीरा । आए लेवनु तिन्ह रघुबीरा ॥ 

दिए आसन सादर बैठारे । सेवा सुश्रुता भरत सँभारे ॥ 

देत पत्री पुनि दूत पठावा । देस देस के नृप बोलावा ॥ 

आगंतु के करत अभिनन्दन । भए गद गद जब प्रभु किए वंदन ॥ 

हाट बाट के बानि बनावा । देख देख नृप मन हरषावा ॥ 

कहुँ रबि सस कहुँ उडुगन के खचना । द्वारि द्वारि रचि भलि रचना ॥ 

भरे भेस बर बासिहि धानी । मुख धरि मृदुल मनोहर बानी ॥ 

मनगाहक मंदिर सब के रे । चित्कृत किए रतिनाथ चितेरे ॥ 

ललित लता मंडप कहूँ  कंचन मंच बिसाल । 
आसन मंडल लसेजहँ बैठिहिं तहँ महिपाल ॥ 


पयादिक गोपुर गए लवाई । पुलकित मन प्रभु किए अगवाई ॥ 
भक्ति बीथी भीर भइ भारी ।  भरी भगत सों बछर  दुआरी ।। 
भगवान उन्हें पयादिक ही लेने गए और अत्यानयत ही पंकित स्वरूप में उन सभी की आगवानी की ।  भक्ति के पंथ में भारी भीड़ उमड़ पड़ी । भक्त वत्सल की द्वारि भक्तों से अट गई ॥ 

आनै भवन अभ्यागत अनेका । जल थल नभ चर मनु एक ऐका  ॥ 
अतिथि देव कह चरन पखारे ।  बरासन देइ निकट बैठारे ॥ 
भगवद भवन में अनेकानेक अभ्यागत का आगमन हुवा । जल थल नभ चर सहित एक एक मनुष्य आमंत्रित हुवे ॥ 

सब कछु सकुसल पूछ बुझावै । पैह अति नेह सब सकुचावै ॥ 
किन्ही सेबा प्रभु सब जन की । प्रिय जीव जगत पर परिजन की ॥ 
भगवान से सब की कुशलता पूछी । इतना स्नेह प्राप्त कर सभी संकोच होने लगा  । पभु श्रीरामचन्द्रजी ने प्रिय जीव -जगत पुरजन परिजन आदि सभी जनों की श्रद्धा पूर्वक सेवा की ॥ 

सर्वाप्रिय प्रभु  अंतरजामी । अजहुँ भए सेबक जग स्वामी ॥ 
पुनि भए आसन आसन दाईं । कहत निबेदत पाक पवाई ॥ 
जो सभी जान को प्रिय है सर्वेश्वर है अन्तर्यामी हैं जो सर्व स्वामी है आज वह सेवक स्वरूप हो गए ॥   तत्पश्चात आशन अर्थात परोसने वाला का स्वरूप ग्रहण कर सभी को आदर सहित बैठाया  एवं साग्रह सुमधुर पाक प्रसाद निवेदित कर कहा  : --    

तुहरे चरन रज सरोज, मम सिरु सरिरुह जागि । 
बरधै नगरानन ओज, अहो हमहि बड़ भागि ॥ 
हे अतिथि देव ! आपके चरणों के रज सरोज मेरे शीश के सरोवर में विकसित हुवे । इससे मेरे नगरानंन का ओज बढ़ गया, अहो !यह मेरा बड़ा सौभाग्य हुवा ॥ 

सोमवार, ३० जून,२०१४                                                                                                              

कहत सेष ब्रम्हन एहि भाँती । लगे भवन मनीषि के पाँती ॥ 
जुग दरसे अस सुधि समुदाई ।  सूर दरस जस पंकज फुराइ ॥ 
 भगवान शेष जी कहते है : -- हे भूमिदेव ! इस प्रकार प्रभु के भवन में मुनि मनीषियों का ताँता लग गया ॥ वहां विद्वान सत्कर्मी एकत्र हुवे   ऐसे दर्श रहे थे जैसे       ॥ 

बरनाश्रम बिषयक अनुकूला । कहि बत देस काल समकूला ॥ 
संत समाज सतसंग सोही । मुनि तहँ प्रतिमुख आपहु होहीं ।। 
स्वभाव धर्म एव व्युत्पत्ति मूलक विषयों के अनुकूल एवं देश काल के सम कूल वार्त्ता होने लगी ॥  हे विप्रवर !संत समाज की उस संगोष्ठी में  स्वयं भी तो उपस्थित थे ॥ 

मोर अंतर सुरति भइ छूछा । कह मुनि एहि कर सादर पूछा ॥ 
कवन ग्यान ग्यानदँ दाईं  । धरम जुगत को कथन कहाई ॥ 
मेरी अंतर स्मृतियाँ समय के साथ विस्मृत हो गई हैं यह कहकर विप्रवर ने भगवान शेष जी से आदर सहित प्रश्न किया : -- भगवन ! ज्ञान विदों ने वहां कौन-सा  अद्भुत ज्ञान दिया धर्म के विषय में  क्या  कथोपकथन हुवे ॥ 

महात्मन जब किए सत्संगा ।  कह  बचन केहि बिषय प्रसंगा ॥ 
किए बखान को कथा मुनिंदा । मोहि लेखु निज मुखारविंदा ॥ 
जब महा आत्माओं ने सत्संग किया तब उन्होंने किस विषय के समंध में चर्चा की ॥ हे प्रभु ! वहां मुनि गण ने कौन सी कथाएँ कहीं ? फिरउनका किस प्रकार समाख्यान किया ? यह सब मुझे आप अपने मुखारविंदसे समझाएं ॥ 

अहिबर पुनि अस प्रतिमुख दाई । मुने पुरुषोत्तम रघुराई ॥ 
सब साधौ जब संजुग देखे । बर्नाश्रम बिषय पूछ पेखे ॥ 
अहिराज ने तब भूमिदेव के प्रश्न का इस प्रकार उत्तर दिया हे मनीषी ! पुरुषों में सर्वतः उत्तम पुरुष रघकुल के राजा श्रीरामचन्द्र जी ! ने सभी विद्वान को अपने भवन में एकत्र हुवे देखा तब वर्ण एवं आश्रम के विषय में प्रश्न करते हुवे अपनी जिज्ञासा प्रकट की ॥ 

 कहौं अजहूँ सोइ जोइ  बूझ तईं रघुबीर । 
बरनि जे गुन कारि धर्म, सुनु ध्यान धर धीर ॥  
रघुवीर के द्वारा  किए गए प्रश्न के  प्रत्युत्तर में उन महर्षियों ने जिन-जिन गुणकारी धर्मों का वर्णन किया  अब मैं उन्हें ज्यों की त्यों प्रस्तुत करता हूँ आप उसे ध्यान एवं धैर्य पूर्वक सुनें ॥ 

 मंगलवार, ०१ जुलाई २०१४                                                                                                         

बिप्र धर्म  कर्मन जग्य बाहा । करत गायन बेद गुन गाहा ॥ 
ब्रह्म चर्य के आश्रम महही  । बैरमन होत जो को चहहीं ॥ 
होत बेरागि बिरति अपनाएँ । न तरु गेहस आश्रम महु जाएँ ॥ 
अधमीहि के टहल जिउताई  । द्विज हुँत  जे करम बरजाई ॥ 
द्विज का यह धर्म है कि यज्ञ कर्म में प्रवृत्त  होकर  निगमागम की गुण गाथा का गायन  करते रहे ॥ वह ब्रह्मचर्य-आश्रम में वैरमण होने पर यदि उसकी अभिलाषा  हो तो वैराग्य-जीवन  अंगीकृत करते हुवे सांसारिक विषयों से उदासीन हो जाए । अन्यथा गृहस्थ -आश्रम में प्रवेश करे ।  निकृष्ट जनों की सुश्रुता द्वारा जीविकार्जन, द्विज हेतु यह कार्य सर्वथा निषिद्ध किया गया है ॥ 

वेदानुवचन  भगवद पूजा । करै सदा ते काज न दूजा ॥ 
दीन मलिन कि दारिद दुखारी । कबहु बिपदा आन भै भारी ॥ 
वह वेद वचन करे भगवद वंदना से ही जविकोपार्जन करे  इसके अतिरिक्त अन्य किसी सेवावृत्ति से जीवन निर्वाह न करे ॥ चाहे कितनी दुर्दशा से ग्रस्त हो जाए दारिद्रता से व्यथित हो,  चाहे कैसी भी गहन विपत्ति उसे घेर लेवे : -- 

धरम काज के परे दुकाला । चाहे सब कहुँ अन्न अकाला ॥ 
नीचक सेवा टहल निजोगे । तिन्हिनि बिप्र कहत न जग लोगे ॥ 
धार्मिक कार्यों का अकाल ही क्यों न पड़ जाए  चाहे सर्वतस अन्न का अकाल ही क्यों न हो जाए । ऐसी स्थिति में भी वह यदि अधमी की सेवा में नियुक्त होता है तब  देश-समाज में उसे ब्राह्मण नहीं कहा जाता॥

तजत तेहि प्रासन दाए पतित जन रसन साँच बास रहे ॥ 
ब्रह्म विवेचन बेदाध्ययन रत कामोदर तेज सहे ।। 
सत कृत सों मन, मन सो नयन नयन सों कर पद राख करे । 
नीर निमज्जन सांध्यतर्पन कर नित स्वाध्याय करे ॥ 
जो पतित जनों द्वारा दाय हो उसे उस का भी त्याग कर देना चाहिए उसकी जिह्वा पर सदा सत्य का निवास होना चाहिए । ब्रह्म तत्व की विवेचना करते हुवे वेदाध्ययन में प्रवृत्त होकर उसे काम एवं जठराग्नि के  तेज का सहिष्णु होना चाहिए । इस हेतु उसे सत्कृत के सह मन मन के सह नयन, नयनों के सह कर-चरण की रक्षा करनी चाहिए । वह नित्य नीर-निमज्जन कर सांध्य-तर्पण एवं  स्वाध्याय में रत रहे ॥  

करत परस्पर संगाति  संगत किए बिद्बान । 
तदनन्तर देइ गुरुजन , गेहस जीवन ज्ञान ॥ 
इस प्रकार सत्संग -साधन से विद्वान एवं मनीषी गण ज्ञान-गम्य वार्त्तालाप कर रहे थे । तानंतर गुरुजनों ने गृहस्थ -जीवन का ज्ञान दिया ॥ 

बुधवार, ०२ जुलाई, २०१४                                                                                              

जनक जननि जो जातक चाहीँ । सँग न उचित रज दरसन माही ॥ 
बैदक बयकृत हेतुक संगा । किए बर्जित एहि काल प्रसंगा ॥ 
संतान की आकांक्षा से  रजोदर्शन अवधि में जनक एवं जननी का समागम उचित नहीं होता ।  स्वास्थ्य गत दृष्टि से इस काल में स्त्री पुरुष का प्रसंग चिकित्सा शास्त्रों में भी वर्जित है ॥ 

दिवस समागम आयुर नासा । पितृ पख बरजै काज बिलासा ॥ 
परब दिवस मह द्विज मनु सिद्धे । पति पतिनी सँग हेतु निषिद्धें ॥ 
दिवस काल के संपर्क से पुरुषों की आयु क्षीण होती हैं ।  पितृपक्ष में विलास क्रीड़ाएं सर्वथा वर्जित होती हैं । हे द्विजवर सिद्ध मुनिगण सभी पर्व पति-पत्नी के प्रसंग हेतु निषिद्ध है ॥ 

कहे काल जो सँग को मोही । तासु धर्म सब दूषित होही ॥ 
कही गए बिरध साधौ संता । तजे तिन्हनि पुरुख मतिबंता ॥ 
कह गए उपरोक्त काल में भी जो महाशय मोहवश संपर्क करता है उसका धर्म दूषित हो जाता है ॥ बड़े बूढ़े एवं संत महात्मा कह गए हैं बुद्धिमान पुरुषों को इनका त्याग करना चाहिए ॥ 

एक नर एक नारी ब्रत नेमा । करत परस्पर अतिसय प्रेमा ॥ 
काम क्रोध मद लोभ बियोगे । गह बाल बिरध भल बिधि जोगे ॥ 
एक नर एवं एक नारी व्रत का नियम अंगीकृत कर परस्पर अतिशय अनुराग रखते हुवे काम क्रोध मद एवं लोभ से वियोजित होकर घर के बालकों एवं वृद्धों की भली प्रकार से देख-भाल करते हुवे : -- 

पतिनी सती पति परतिय, कुदीठ निपतत नाहि । 
सोइ गेहस ब्रह्म चरन, लेखि सदा जग माहि ॥ 
गेही एवं गेहिनी में यदि गेहिनी पतिव्रता हो एवं गेही परायी स्त्री की कुदृष्टि न रखता हो तब उस गृहस्थी को संसार में सदैव ब्रम्हचारी ही समझा जाता है ॥ 

बृहस्पति वार, ०३ जुलाई, २०१४                                                                               

रितु मुख लेई षोडस रैनी । ते अवधि रितु काल कह बैनी ॥ 
प्रथमहिं चारि तमि तासु माही । रजोदरसनी अवधि कहाही ॥ 
ऋतु मुख से लेकर षोडश यामिनी तक की अवधि को ऋतुकाल का कहा जाता है ॥ इनमें से प्रथम चार यामिनी को रजोदर्शन काल कहा जाता है ॥ 

सोइ काल बहु निन्दित होई ।  परसि न पतिनी  पति हो कोई ॥ 
सेष काल तिय गामिन जोगे । जातक जनमन अति संजोगे ॥ 
रजोदर्शन काल अत्यंत  निंदितकाल है । इस अवधि में पति को चाहिए की वह पत्नी के संसर्ग से दूर रहे ॥ शेष काल अर्थात शेष द्वादस दिवस स्त्री गामीण के योग्य हैं । इस का में संतान उत्पत्ति की अधिक संभावना होती है ॥ 

जोइ असम संख्यक धारी । होत  कन्या जनम कृतकारी ॥ 
सम संख्यक जामिनी माही । जननी जातक जात जनाही ।। 
सहष द्वादस अयानी में से सम संख्या वाली यामिनी  ( जैसे ऋतुमुख से छठवीं, आठवीं, दसवीं ) के संसर्ग के परिणाम स्वरूप जननी पुत्र जातक को जन्म देती है ॥ 

जब ससि निज हुँत दूषन लागे  । मघा मूल नखतु परित्यागे ॥ 
पुरुष बाचक श्रवन सम नावा ॥ करत समागम पावन भावा ॥ 
जिस दिन  चन्द्रमा  अपने लिए दूषित हो  और मेघा मूल आदि नक्षत्रों का भी परित्याग किया जाए अर्थात पुर्लिङ्ग नाम धारी नक्षत्र जैसे श्रवण आदि देखकर यदि अत्यंत पवित्र भाव से समागम किया जाए : -- 

तासु चतुर पुरुषार्थ धारी । होहि साधक सुत सदाचारी ॥ 
स्त्री बाचक नखतु रितु स्नाता । जन्मे सुबुद्ध सील सुजाता ॥ 
उससे चतुर पुरुषार्थ से युक्त साधक एवं शुद्ध सदाचारी पुत्र का जन्म होता है ॥  स्त्रीवाचक नक्षत्र में ऋतु स्नाता सुबुद्ध, सुशील, एवं चरित्रवान कुलीन कन्या को जन्म देती है ॥ 

जे श्रीमन श्रीमति हेतु, रजस काल  निर्देस । 
दोष अदोष गुन अवगुन  के पुनि दिए उपदेस ॥ 
यह श्रीमान एवं श्रीमती हेतु रजस का में दिए गए हितकारी निर्देश थे । तत्पश्चात मुनि मनीषीयों दोष-अदोष, गन-अवगुण के हितोपदेश दिए ॥  


शुक्रवार, ०४ जून, २०१४                                                                                                             

कनिआँ पानि दान के बिखिआ ।  माँग धरे तहुँ देइ न भिखिआ ॥ 
करे बिपनन कोउ बिपनाही । पापधी जगत  ते सम नाहीं ॥ 
कन्या का पाणि दान का विषय है, भिक्षा का नहीं है । यदि कोई कन्या का अभ्यर्थन करे तब ऐसे अभ्यर्थी को  कन्या  नहीं देनी चाहिए ॥ जो कोई विक्रेता कन्या का विक्रय करता है संसार में फिर उसके सदृश्य कोई पापाचारी नहीं है ॥ 

 द्विज राइ हेतु ब्यबहारा । नृपन्हि टहल जोग परिहारा ॥ 
बेदाभ्यास जेहि त्यागे । धिंग धरम धंधन मह लागे ॥ 
द्विज राज हेतु लेन -देन एवं राजाओं की सेवा सुश्रुता त्याज्य है । जिस द्विज  ने वेदाभ्यास का त्याग कर दिया हो जो द्विज धिंग धर्म के धंधे में लगे हैं ॥ 

 किए अस परिनय जो जग निंदा । कहि सुधि बुधि जन कह मुनि बृंदा ।।  
लुपुत नित करमि अस कुबिहाता । सकल बंस  दए नीच निपाता ॥ 
 जिसने ऐसा परिणय किया हो जो संसार में सर्वथा निंदनीय हो । मुनिगण एवं बुद्धिमान सुधितजन कह गए हैं ऐसे ब्राह्मण एवं कुविवाहित अपने नित्यकर्मों को विलुप्त कर  समस्त ब्रह्मवंश का पतन कर देते हैं ॥ 

गेहस आश्रम मेँ  बसि बासी । अतिथि देउ के आन निबासी ।\ 
सादर बर आसन बैठारें । फूल मूल फल सों सत्कारेँ ।। 
गृहस्थ आश्रम में वासित गृहवासी के निवास में जब अतिथि देव का आगमन हो तब वे उन्हें आदर सहित उत्तम आसन में विराजित कर फूल मूल फल दुग्ध आदि सात्विक पदार्थों से उनका सत्कार करें ॥ 

आगंतुक सत्कार के आसा ।  पवाए बिनु जो फिरैं निवासा ॥ 
सरनागत को सरन न पावे । छुधा तीस  अन्नजल न दावे ॥  जो कोई आगंतुक सत्कार की आशा  में हो और सत्कृत हुवे बिना ही गृहस्त के निवास से लौट जाए । जिस गृहस्थ के  निवास में शरणागत को शरण प्राप्त नहीं होता क्षुधित एवं क्षुधा तृष्णा को जो अन्न जल न देवे ॥ 

दान धरम पुन कृत करम, जीवन भर संजोइ  । 
अस गेहस छिनु मह तासु  , फल सों  बंचित होइ  ॥ 
ऐसे गृहस्थ  जीवन भर के संचित दान धर्म, पुण्य कर्म के फल से क्षण मात्र में ही वंचित हो जाते  है ॥ 

शनिवार, ०५ जुलाई, २०१४                                                                                            

 गेहस हेतुक नेम धराईं । बलिबिसदेउ करम के ताईं ॥ 
देत भाग सुर पीतर मनु जन ।  सेषासन तासु हुँत सुधासन ॥ 
गृहस्थ हेतु यह नियम निर्धारित कि वह बलिवैश्वदेव -कर्म के द्वारा सर्वप्रथम देवताओं, पतृजनों एवं अमनुष्यों को भाग दे तत्पश्चात शेष अन्न का भोजन करे तो वह भोजन उस हेतु अमृत हैं ॥ 

दान बिनु जोइ आपहि पावैं । आप पकावै आपहि खावै ॥ 
सो पोषक सम सोइ कलापा । आप श्रवन जो आप अलापा ॥ 
जो गृहस्थ दान न देता हो जो केवल अपने ही उदर के परायण होकर अपना पकाया हुवा आपही खाता हो वह पोषक उस कलाधर के सदृश्य है जो अपने आलाप को आपही सुनता है ॥ 

मिषाहार मह पाप निवासे । छठइ अठमी सार मह बासे ॥ 
चतुर्दसि छौर करम  त्यागे । तिय समागम अमावस लागे ॥ 
मांसाहार में सदैव पाप का निवास होता है अत: ऐसे आहार का परित्याग करना चाहिए किसी भी पक्ष की षष्टी एवं अष्टमी  को तेल में पाप का वास होता है अत: उक्त तिथि तेल निषिद्धवत है ॥ चतुर्दसी को क्षौर कर्म का त्याग करना चाहिए अमावस्या को समागम का परत्याग करना चाहिए ॥ 

एक बसन धार साथरी आसिन्हे । अन्न प्रासन बर्जित कीन्हे ॥ 
जो नर निज तेजस के  कामा । लखे न भोजन पावत भामा ॥ 
एक वस्त्र धारण कर तथा चटाई के आसन पर आसीत होकर भोजन करना वर्जित है ॥ स्वयं में तेज की कामना करने वाले पुरुष भोजन कराती हुई स्त्री पर दृष्टी न करें ॥ 

मुख सोंह कोउ अगन न फूँके । नगन तन दरसे न कोहू के ॥
पय पात बछर न छेड़ लगाए । दूजनहि हरि चाप न देखाएँ ॥ 
मुख से अग्नी नहीं फुँकनी चाहिए इस हेतु फूँकनी का उपयोग करना चाहिए । किसी भी वस्त्र हैं की और दृष्टी न करें । पायस पाते उवे बछड़े को न छेड़ें । दूसरों को इंद्रधनुष नहीं दिखाना चाहिए ॥ 

निसा काल दधी प्रासन, पूरन बर्जित होइ । 
न अगन पद तपै न हूँते को अपबित सँजोइ ॥ 
निशाकाल में दधि का प्रासन पूर्णतस वर्जित है । अग्नी को चरण नहीं दर्शाना चाहिए न ही उसमें अपवित्र वस्तु आहूत न करें ॥ 

शुक्रवार, २५ जुलाई, २०१४                                                                                                    

सबहि जीउ निज प्रान पियारे । एतदर्थ को हंत ना कारें ॥ 
निसा काल अल्पहि आहारहू । दुहु संधि समउ मह परिहारहू ॥ 
सभी जीवों को अपने प्राण प्यारे होते हैं । अत: किसी भी जीव की न तो हत्या करनी चाहिए न ही कष्ट देना चाहिए । निशा काल में अल्प आहार ग्रहण करना चाहिए एवं दोनों संधि काल के मध्य किसी भी भाँती खान-पान से वियोजित रहना चाहिए ॥ 

बिषइ संग सुख भोग बिलासा । करत सदकृत चरित के नासा ॥ 
काँस पात्र  मह चरन पखारन । झूठन भंजन भाजन प्रासन ॥ 
सयन  दसामह प्रास मनाया॥ प्रगसे नहीं कहुँ मर्म पराया ॥ 
आर्द्र चरन  दसा ना सयनै । झूठे मुख कर कहूँ न गवने ॥ 
विषयों का संग किए भोग विलास में संलिप्त  होने से सङ्कृत्य चरित्र नष्ट -भ्रष्ट हो जाते हैं॥ सोते हुवे भोजन ग्रहण करने की मनाही है । किसी के भेद को अन्यत्र प्रकट नहीं करना चाहिए ॥ आद्र चरण की अवस्था में शयन न करें झूठे मुख कहीं भी न जाएँ ॥ 

एहि बिधि गेहस धरम पूरनित ॥ सद्कर्मन कृत कारज जगहित ॥ 
मनीषि मन मनोभंग भेसे  । तीजक आश्रम माहि प्रबेसे ॥ 
सद्कर्म एवं जग हित के कार्य करते हुवे इस प्रकार गृहस्थ-धर्म का समय पूर्ण कर विचारशील मानस के सह जग से उदासीन होकर तीसरे आश्रम अर्थात वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करें ॥ 

चाहे त बिरति पूर्बक, रहे संगनी संग । 
न तरु  तिय कर सौपत गह , गवनु तपबन् एकंग ॥ 
चाहें तो विरक्ति पूर्वक स्त्री के संग रहे । अन्यथा स्त्री को घर-गृहस्थी सौंपकर एकाकी ही  तपोवन हेतु प्रस्थान करें ॥ 

शनिवार, २६ जुलाई, २०१४                                                                                                     

जगप्रति पूर्ण होत उदासा । ता परतस लए लै सन्यासा ॥ 
तेहि समउ सदोगत् सुजाने । किए धर्मं के अनेक बखाने ॥ 
संसार के प्रति पूर्ण रूप से उदासीन होकर वानप्रस्था आश्रम के पश्चात पूर्णत: संन्यास ले लेवें ॥ उस समय सभा में उपस्थित सुबुद्धिजनों ने धर्म के अनेक व्याख्यान किए ॥ 

 सर्ब हितकर सर्बोपकारी । हमरे हरिदै के अधिकारी ॥ 
सुने सबइ बहु देइ धिआना । ग्यान  पूरित धर्म अगाना ॥ 
सभी का कल्याण करने वाले सब पर उपकार करने वाले हमारे ह्रदय के अधिकारी जगत्पति  श्रीरामचन्द्रजी ने सभी सज्जनों के ज्ञान पूर्णित धर्माख्यान को ध्यान पूर्वक सुना ॥ 

कहत सेष हे वात्स्यायन । एहि बिधि तनिक काल लग भगवन ॥ 
ग्यानिन्हि मुख नीति बिबेका । सुनत रहे प्रभु बरन अनेका ॥ 
भगवान शेषजी कहते हैं : --  हे वात्स्यायन !इस प्रकार कुछ समय तक भगवान ज्ञानियों के मुखारविंद से विवेकशील नीतियाँ के अनेकोनेक वर्णन सुनते रहे ॥ 

आइ पुहुप रितु ऐतक माही । फरे फूर सुभ कर्मन बाही ॥ 
 वसंत काल को जब आगत देखे । बसिष्ठ मुनिहि सुभ महूरत लेखे ॥ 
इतने में ही पुष्प ऋतु का आगमन हुवा  पुष्प पुष्पित हो उठे, मुनिवर वशिष्ट ने जब कर्म काण्ड के संचालक वसंत काल को आते हुवे देखा । तब यज्ञ काण्ड हेतु शुभ मुहूर्त लिखा ॥ 

करे  बिदा निर्गत सरद, बसिष्ठ मुनि मतिबंत । 
कमन कियारि भरत कुसुम, बिथि बिथि छाए बसंत ।। 
 फिर विधिदर्शी बुद्धिवंत मुनिवर वशिष्ट ने जाते हुवे शरद को ससम्मान विदा किया । हरिद साटिकाओं की सुन्दर क्यारियाँ पुष्पमयी हो गईं, गली गली में फिर वसंत छा गया ॥ 

रविवार, २७ जुलाई, २०१४                                                                                                     


जहँ जहँ पुहुप रथ चरन धराए । पुहुप प्रफुरित फर फरित सुहाए ॥ 
होत समुख तब जानकी जानी । गहत मुनि बर जथोचित बानी ॥ 
पुष्य रथ के चक्र जहां जहां जाते ।  पुष्प प्रफुलित हो जाते, फल फलित हो जाते । तब भगवान श्री रामचन्द्रजी के सम्मुख प्रस्तुत  होकर विधिदर्शी वशिष्ट ने  यथोचित वाणी ग्रहण  की  : --

  पुलकित निलय संग सिरु नाई ॥ कहत प्रभु हे जगत गोंसाई ॥ 
जिन हेतु  पलक पंथ जुहारे  । सो अबसरु अब आन पधारे ॥ 
शीश नमन कर हर्षयुक्त ह्रदय से वे बोले  : -- हे प्रभु ! हे जगत्पति ! जिसके लिए यह  युगल पलक  पंथ पर लगी  हैं
। वह अवसर अब आ गया है ॥  


जेहिं मेधीय अस्व चयनिते  । तासु भल भाँति करत सदकृते ॥ 
कलित राजोपकरण कल केतु । परिहरउ महि मह भरमन हेतु ॥ 
जिस योग्य अश्व का मेध हेतु चयन किया गया है । उसका भली भांति सत्कार करते हुवे उसे राज्य के समस्त चिन्हों एवं ध्वज पताकाओं से सुसज्जित करें जिससे वह पृथ्वी भ्रमण हेतु त्याग जाए ॥ 

मेध हुँत सुभ जोइन संजोएँ । जग द्विज राउन्हि बोलि पठोएँ । 
आगंतु के करत सत्कारे । आपही अगुसर चरन पखारें ॥ 
यज्ञ  हेतु सभी मंगल पदार्थों का संकलन करें । एवं जगत भर के ब्राह्मणों एवं नरेशों को निमंत्रित करें । आगंतुक का स्वागत सत्कार करते हुवे अग्रसर होकर आप स्वयं उनके चरण धोएं ॥ 

करत सेबाभृत बिधिबत जाचक गन दएँ मान । 
तासु मन जो लहन चहए, सोई करें प्रदान ॥ 
विधिवत सेवासुश्रुता  कर याचक गण को यथोचित सम्मान देवें उन्हें उनकी मनचाही वस्तुएं प्रदान करें ॥ 

सोमवार, २८ जुलाई,२०१४                                                                                          

ससि रबि  हर बिरंचि सनकादी । आगत सुर जे परम अनादी ॥ 
आवहि मुनिगन जूथ घनेरे । देत कृपानिधि सुन्दर डेरे ॥ 

उमा सरूप जानकिहि संगे ।  लए मख दीखा हे श्री रंगे ।।  
करत पालन तासु ब्रत नेमा । बढ़ा चरन चर रह सह प्रेमा ।। 

सयनहु महि तल तृण पल डासी । भीषय भोग प्रति रहत उदासी ॥ 
आपनि कमनिअ कल कटि भागा । करत कलित कटि सूत सुभागा ॥ 

धारन कर हिरन श्रृंग चामा । धरे दंड पुनि करतल बामा ॥ 
सबहि भाँति के जोइनु सँजोएँ । मंगल द्रब्य सन सोभित होए ॥ 

सुनत रिसिहि के सद बचन, बुद्धि बंत  रघु राए । 
हर्षित होत मन ही मन, लघु भ्रातिन्ह बुलाए ॥ 

मंगलवार, २९ जुलाई,२०१४                                                                                                      

आए भ्रात सौमुख सिरु नवाइ । जथारथ बचन जुगत अभिप्राइ ॥ 
 भाउ थीत कहि राम सुजाना । सुनौ बचन मम देइ धिआना ॥ 

सुनत तासु तुर् पालन कारौ । अस्वमेध हुँत साज सँभारौ ॥ 
सत्रुहन लखमन देखो भालौ । अतिथिगन सहित सैन सँभालौ ॥ 

उठहु भरत अब तुरतै गवनै । मेधीय है संग लय लवनै ॥ 
बुला सेबक सचिवन्हि कहहीं । रचे बितान बान निरखहहीं ॥ 

भरत सत्रुहन तुरतै गवन के । करे सुश्रुता आगतगन के ॥ 
दोउ भ्रात सन लखन पयाना । होत  समुख कहि सेन प्रधाना ।\ 

अविजित सेना के बाहि  समर सूर हे वीर । 
पुनि लखन प्रियअगान किए, बरत बानि गंभीर ॥  



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