Sunday, 23 March 2014

----- ॥ दोहा-पद॥ -----


स्वतंत्रता चिंघाडी, जगि द्रोह की ज्वाल । 
चमक उठी फिर अँधियारि, जले चिता में लाल ।१३६५-क। 

स्वत्व यहाँ मेरा कह मुखर हुवा जब मौन । 
सत्ता गर्जि क्या कहा,  बता कि है तू कौन ।१३६५-ख। 

फिर तमक कर बोली सब  यहाँ मेरे नियंत । 
रह भारत मेरा दास तू जीवन पर्यन्त ।१३६५-ग । 

जल जल भस्मी भूत हुए, कितने ही कर्पूर । 
बुझि कितनी दीप शिखाएँ, बुझा न मेरा सूर ।१३६५ -घ । 

रक्त के रज रंजन से, उतरी एक एक बिंदु । 
डूबा रक्तिम सूर उस, लवन बिंदु के सिंधु ।१३६५-ङ। 

मंत्रपटु शव साधन किए, मारे ऐसा मंत्र । 
कसी रही पग बेड़ियाँ, मिला नहीं स्वातंत्र ।१३६५-च। 

हे जन हे जगद्जीवन तू सिंहासन योग । 
व्यवस्था कब तक सहे, आह !तेरा वियोग ।१३६५-छ। 

रक्त-रज = सिंदूर 
रक्त-रंजन = मेहँदी 
रक्तिम = रक्तमय 
लवन बूंद = अश्रु 
मंत्रपटु = तंत्र-मंत्र जानने वाले, तांत्रिक, सेवड़े  
शव-साधन = श्मशान में पर शव पर बाथ कर मंत्र जगां की तंत्र शास्त्रोक्त क्रिया 
जगद्जीवन = जगत क जीवन रूप ईश्वर 

3 comments:

  1. उम्दा रचना… बहुत खूब लिखा है आपने...

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  2. हुए कुर्बान वतन पर, हँस कर दे दी जान।
    भगत, राज, सुखदेव का, व्यर्थ न हो बलिदान।।

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  3. नीतू सिंघल जी।
    आपकी बात गले नहीं उतर रही है।
    कहाँ है चर्चा मंच में विज्ञापन।
    --
    यह बात अलग है कि आपकी पोस्ट कभी-कभार ही ली जाती है।
    --
    वैसे भी आपका अपना सृजन तो कुछ भी नहीं है।
    पुस्तक से नकल मार कर आप चट-पट पोस्ट लगाती हो।
    हम केवल स्वरचित सृजन को ही चर्चा मंच पर स्थान देना पसंद करते हैं।

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