स्वतंत्रता चिंघाडी, जगि द्रोह की ज्वाल ।
चमक उठी फिर अँधियारि, जले चिता में लाल ।१३६५-क।
स्वत्व यहाँ मेरा कह मुखर हुवा जब मौन ।
सत्ता गर्जि क्या कहा, बता कि है तू कौन ।१३६५-ख।
फिर तमक कर बोली सब यहाँ मेरे नियंत ।
रह भारत मेरा दास तू जीवन पर्यन्त ।१३६५-ग ।
जल जल भस्मी भूत हुए, कितने ही कर्पूर ।
बुझि कितनी दीप शिखाएँ, बुझा न मेरा सूर ।१३६५ -घ ।
रक्त के रज रंजन से, उतरी एक एक बिंदु ।
डूबा रक्तिम सूर उस, लवन बिंदु के सिंधु ।१३६५-ङ।
मंत्रपटु शव साधन किए, मारे ऐसा मंत्र ।
कसी रही पग बेड़ियाँ, मिला नहीं स्वातंत्र ।१३६५-च।
हे जन हे जगद्जीवन तू सिंहासन योग ।
व्यवस्था कब तक सहे, आह !तेरा वियोग ।१३६५-छ।
रक्त-रज = सिंदूर
रक्त-रंजन = मेहँदी
रक्तिम = रक्तमय
लवन बूंद = अश्रु
मंत्रपटु = तंत्र-मंत्र जानने वाले, तांत्रिक, सेवड़े
शव-साधन = श्मशान में पर शव पर बाथ कर मंत्र जगां की तंत्र शास्त्रोक्त क्रिया
जगद्जीवन = जगत क जीवन रूप ईश्वर
उम्दा रचना… बहुत खूब लिखा है आपने...
ReplyDeleteहुए कुर्बान वतन पर, हँस कर दे दी जान।
ReplyDeleteभगत, राज, सुखदेव का, व्यर्थ न हो बलिदान।।
नीतू सिंघल जी।
ReplyDeleteआपकी बात गले नहीं उतर रही है।
कहाँ है चर्चा मंच में विज्ञापन।
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यह बात अलग है कि आपकी पोस्ट कभी-कभार ही ली जाती है।
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वैसे भी आपका अपना सृजन तो कुछ भी नहीं है।
पुस्तक से नकल मार कर आप चट-पट पोस्ट लगाती हो।
हम केवल स्वरचित सृजन को ही चर्चा मंच पर स्थान देना पसंद करते हैं।