शुक्र/शनि, २९/३० अगस्त, २०१४
दनु देह बसी मति बिपरीता । एहि कारन निर्बल जिउ जीता ॥
परबोधत अस रबि कुल कंता । किए बली देइ बल रिपुहंता ॥
दानव के देह में विपरीत बुद्धि का वास हो गया है गया है यही कारण है कि वह निर्बल निरीह जीवों पर अत्याचार कर रहा है ॥ रघु कुल कान्त श्रीरामजी ने ऐसा प्रबोधन करते हुवे भ्राता शत्रुध्न को दानव के नाश हेतु दिव्य बल देकर उन्हें बलवंत कर दिया था ॥
लेइ संग निज तनुभव दोई । समर सूर जग जीतन जोईं ॥
पैहत आयसु सैन पयाने । निह्नादत नभ बजे निसाने ॥
तब शत्रुध्न अपने दोनों पुत्रों के संग लिया और संसार के पाठकों पर विजय प्राप्त करने हेतु वीर युयुधान को संजोया । जैसे ही सेना को उनकी आज्ञा प्राप्त हुई । वह नभ को निह्नादित करती हुई प्रयाण-पटह का वादन करते चली ॥
चाक चरन रथ दिए पथ दाने ॥ चले सहस दस छतर बिताने ।।
गरजत गज जूथ हय हिंसाए । धुर ऊपर धूरि धूसर छाए ॥
दस सहस्त्र रथ छत्रों से युक्त होकर अपने चक्रों से पथों पर चिन्ह अंकित किए चल पड़े । गज समूह गरजने लगे हाय हिनहिनाने लगे । धुर ऊपर धूलि की धूसरता छ गई ॥
दुंदुभि तुरहि संख मुख पूरयो । चपल कटक दनु लेइ घेरयो ।।
तरजें सुभट जूँ निसान हने । धनबन प्रति ध्वनि कहत न बने ॥
मुख से दुदुंभियां, तुरही, शंख आदि स्वर-नाद निह्नादित होने लगे । तब विशाल कटक ने लवणासुर को चपलतापूर्वक घेर लिया ॥ सैनिकों ने ऐसी जैसे नगाड़े ध्वनिवन्त् होते हैंउस तर्जना से आकाश में जिस भांति की प्रतिध्वनि उठी वह वर्णनातीत है ॥
भए अस घमरौले घमंक बोले जसघनब घन घनकयो ।
घनबाही बादे तस निह्नादे बरखत जल बल झरयो ।।
उम उमगाई तरंग के नाई सींवा पारगमन करियो ।
एक एक बीर बिंदु जुगत भए बृन्दु सिंधु सरि रूप बरियो ॥
वहां ऐसा घमासान मच गया, घूंसे मुष्टिक के प्रहार ऐसे बोलने लगे जैसे आकाश में घन मेघ गर्जना कर रहे हों । सैनिकों के प्रहार की धवनि हथौड़ी के चोट की धवनी जैसी ही थी ॥ उनका जल बना बल शत्रु के ऊपर बरस पड़ा ॥जैसे तरंग तटों पर उमड़ आती है वैसे ही वे सैनिक दनुज के नगर की सीमा पारगमन करने लगे ॥ सेना के एक एक शूरवीर एक एक वीर बिंदु परस्पर संयोजित होकर बिंदु-वृन्द हो गए, और उन्होंने सिंधु के जैसा रूप वरण कर लिया ॥
हँकारत चहुँ दिसि बाढ़त, कोट कलस चढ़ि आन ।
रजरत रथ चरन रवनत रव मुख अनक निसान ।।
शत्रुओं को युद्ध हेतु आह्वान कर युधवीर चारों दिशाओं में बढ़ते हुवे कोट के कंगूरों पर चढ़ गए ॥ उस समय धुलीवंत होकर रथ चरणों से ध्वनि कर रहे हैं ढोल एवं डंके मुख से ध्वनिवन्त् थे ॥
तेजस तुरग तजे मख बेदी । हर्ष घोष किए गगन बिभेदी ॥
अमित बिक्रमी बीर बहुतेरे । घार घेर चहुँ फेरी घेरे ॥
गगन विभेदी हर्ष धवनी करते शक्तिशाली एवं प्रतापी वीर एकत्र हो गए । यज्ञ वेदी से त्यागा हुवे तेजस्वी राज स्कंद को उन्होंने चारो ओर से घेर रखा था ॥
चले बाहि ले रथ कर पूला । छाए धुरोपर धूलहि धूला ॥
परिगत कोट कटक लिए घेरी। दुहु पाँख मुख बजे रन भेरी ॥
रथ रश्मियों को मुट्ठा किए सारथी रथ लिए चल रहे थे धुर ऊपर धूल ही धूल छा गई थी ॥ दनुज के गढ़ पर व्याप्त होकर उन्होंने उसकी सेना को चारों ओर से घेर लिया । फिर क्या था दोनों पक्ष से रण की भेरी बजने लगी ॥
निज निज स्वामि जब जय बोले। डोलि कुधर भू समुद हिलोले ॥
जोड़ जुगत निज निज बल केरे । बाहु बलि किए पल माहि ढेरे ॥
जब वे अपने अपने स्वामियों का जयकारा लगाते पर्वत डोलने लगते,भूमि कांप उठती, समुद्र छलकने लगता ॥ अपने अपने बल के अनुसार जोड़ी बनाकर सुभट प्रतिभट को पल में ढेर कर देते ॥
लरहि सुभट निज निज जय कारन । बर्नातीत रन बात्स्यायन ॥
कंठी माल किए काल कलिते । लवणासुर अनी भइ बिचलिते ॥
सभी भट प्रतिभट अपनी अपनी विजय हेतु रणोत्कंठित थे । हे मुनिवर वात्स्यायन ! यह युद्ध तो वर्णनातीत हुवा जा रहा है ॥ कारण की काल की कंठी माल को कलित किए लवणासुर की सेना विचलित हो गई ॥
चाप हरि चाप कटक घन, भए गरजन टंकार ।
होइहि नभ सन निरंतर , तीर तीर बौछार ॥
हस्तगत धनुर् इन्द्रधनुष हो गए, कटक घन स्वरूप हो गई है । प्रत्यंचा की टंकार मानो घन की गर्जना हो गई और नभ से निरंतर तीरों की वृष्टि होने लगी है ॥
धरे पुंख भए बान बिहंगा । उरत आन लगि अबयब अंगा ।।
गूठे दनुज भयउ उतरंगा । पठइँ केतु मतंग सुत संगा ॥
पुंख ( वाण का पंख युक्त पश्च देश) धारण किए वाण जैसे विहंग हो चले । वह गगन में विचरते हुवे आते और शरीर के अवयवों को बाधित करते । लवणासुर जो कहीं छिपा हुवा था वह क्षुब्ध हो गया । फिर उसने अपने दोनों पुत्रों केतु एवं मतंग को युद्ध भूमि में एक साथ उतारा ॥
बलि सुबाहु बर सुत सत्रुहन के । अगुसरे मतंग मीच बन के ॥
बाहु गुन सीध बाँधत साधे । संधानि बान हिय हत बाधे ॥
शत्रुध्न के ज्येष्ठ सुपुत्र सुबाहु जो अत्यधिक बलवान था वह मतंग का काल बनते हुवे आगे बड़ा । उसकी भुजाओं ने लक्ष्य वेध कर प्रत्यंचा साधी । संधानित वाण को मतंग के ह्रदय में उतार कर उसे हताहत कर दिया ॥
जूपकेतु लघु तनय हँकारा । करत कोप बहु केतु पचारा ॥
राम राम मुख मंत्र उचारे । दनु कर पद धार पहुम् पछारे ॥
लघु सुपुत्र यूपकेतु ने अत्यधिक क्रुद्ध होकर दानव के लघुज केतु को ललकारा ॥ मुख से राम नाम के मंत्र का उच्चारण किया और उस दानव के हाथ पाँव पकड़ कर उसे भूमि पर दे मारा ॥
दुष्ट दनुज तब किए छल छाया । सायुध सुर प्रगसे बन माया ।।
भरम भीत भट भए हत चेते । केहि हेत किए केहि अहेते ॥
तब दुष्ट लवणासुर ने छल -कपट करते हुवे माया रची । उस माया से अायुधों से युक्त होकर सुर का रूप धारण किए बहुंत से असुर प्रकट हो गए ॥ रामजी की सेना के सैनिक भ्रम के वशीभूत होकर विस्मित से हो उठे । उन्हें यह समझ नहीं आया की किससे प्रीति रखे किससे घृणा करें ॥
धरे कर कुधर खंड प्रचंडा । परिगत परिघ किए खंड खंडा ॥
सैल सूल श्रृंगी सृक छाँड़े । आन कटक चढ़ि आगिन बाढ़े ॥
उस सुर-झुण्ड के हाथों में पहाड़ों के प्रचंड खंड थे । जिसके आघात ने कोट में व्याप्त सैन्य व्यूह को छिन्न-भिन्न कर दिया । वे श्रृंगी शैल के सदृश्य शूल युक्त वाणों को त्यागते हुवे कटक के ऊपर चढ़ाई कर आगे बढ़ आए ॥
सहस्त्रो सहस्त्र ससस्त्र, असुर केर सुर जूथ ।
रघुबर जुधा भयउ त्रस्त्र, लोकत बिबिध बरूथ ॥
असुरों का यह सुर-यूथ सहस्त्रो-सहस्त्र शास्त्रों से युक्त था । भगवान श्रीराम जी के योद्धा मायावी झुण्ड को देखकर व्याकुल हो गए ॥
रविवार, ३१ अगस्त, २०१४
उत दनुपत इत रघुबर नामा । लै अप्रतिबीर किए जय कामा ॥
देखन्हि छल छाइ सुर ठट्टा । सु बिहिन भट्ट भयउ सुभट्टा ॥
उधर दनुज लवण की, इधर अतुलनीय वीर प्रभु श्री राम के नाम लेकर विजय की कामना कर रहे थे ॥ सुर-यूथ का छल-कपट देख वे सुभट्ट सु विहीन हो गए ॥
तब अरिहत प्रभु दिए बल जोगे । खैंच सरासन बान बिजोगे ।।
तमहर कर भू तम हरन करे । तस सर दनु केरि माया हरे ॥
तब रिपुहंत नेप्रभु श्रीरामचन्द्रजी द्वारा प्रदत्त बल का प्रयोग कर धनुष को खैंचकर उसे वाणों से विमुक्त किया । जैसे तमोध्न की रश्मियाँ धरती पर अवतरण कर उसके अन्धकार का हरा कर एटी हाँ वैसे ही उन वाण रूपी रश्मियों ने उस असुर की आसुरी माया को हर लिया ॥
आँगन सुर बृंदा बिनु देखे । बीर सुबाहु काल भर भेखे ॥
गहि गदा कहि खल सूल धारी । अजहुँ निरखिहु माया हमारी ॥
जब रणांगण को सुर-यूथ से विहीन देखा तब काल का वेश धारण किए वीर सुबाहु ने गदा ग्रहण कर लवणा सुर से कहा रे दुष्ट ! रे शूल धारी ! अब तू हमारी माया देख ॥
खाल कर माल सूल सँभारे । अस कह उरस गदा दिए मारे ।
किए घींच अघात अस तेजा । सूल बल तेज किए निहतेजा ॥
रे अधमी करमालाओं में अपना शूल संभाल ले । ऐसा कहकर उसने उस दनुज के हृदयस्थल पर गदा दे मारा ॥ फिर उसके कंठी पर ऐसा तेज प्रहार किया कि उसके शूल के बल का तेज निस्तेज हो गया ॥
बान बिषिख काटे जाल, माया देइ बिखेर ।
लवनासुर मुरुछित परे, भूमि माझ भए ढेर ॥
श्रृंगी वाणों ने उस दुष्ट के कपट जाल को काटकर उसकी माया को छिन्न -भिन्न कर दिया है । लवणासुर रन धरा के मध्य शायी
होकर मूर्छित पड़ा है ॥
सोमवार, १ सितम्बर, २०१४
डरपत प्रतिभट जहँ तहँ धाईं । रन रंगन सब दिए बिसराई ॥
तब रन बांकुर कैटभ नामा । दानउ दल मह बल के धामा ॥
रन उत्कंठा का त्याग कर शत्रु पक्ष के सैनिक जहाँ-तहाँ भाग खड़े हुवे ॥ तब दानव दल में महा बलशाली कैटभ नाम का रणबांकुर : -
दलाधिपत हत चेतस देखा । धरे तड़ित सम सूल बिसेखा ॥
जूपकेतु के सौमुख आवा । परम क्रोध किए संग जुझावा ॥
ने जब दलाधिपति को मूर्छित देखा तब वह तड़ित के सदृश्य विशेष शूल धारी दानव यूपकेतु के सम्मुख पकट हुवा और अत्यधिक क्रोध करते हुवे उसके साथ युद्ध करने लगा ॥
घात मर्म जब हिय दिए भेदा । घनमुख घन रस भयउ स्वेदा ॥
राम राम हाँ राम हँकारा । हत प्रभ लोचन भ्रात निहारा ॥
उसने यूपकेतु के मर्म पर आघात कर उसके ह्रदय को भेद दिया । जिससे उसका मुख मेघ के सदृश्य हो गया एवं स्वेद बिंदु, मेघ बिंदु हो गई । वह राम नाम की पुकार करता हुवा हतप्रभ लोचन से भ्राता सुबाहु की ओर देखने लगा ॥
सुबाहु जब हत बंधू बिलोका । पचारि दनु चहुँपुर अबलोका ॥
लै त्रै कोटिक बान कराले । छाँड़त बहे रुधिरु परनाले ॥
सुबाहु ने जब अपने बंधु को घायल अवस्था में देखा तब वह चारों ओर दृष्टि कर दनुज को ललकारने लगा ॥ उसने तीन करोड़ बाणों का संधान किया जब वह छूटे तब रुधिर के जैसे बड़ा नाला बहने लगा ॥ ( इन वाणों से कैटभ भी मारा गया )
इत दानउ दल सबहि बिधि, आजुध करत प्रजोग ।
उत दपटि, झपटि जोग हठि, सर गुन होत बिजोग ॥
इधर दानव दल सभी प्रकार के आयुधों का प्रयोग कर रहे थे । उधर उधर प्रभु के सेनानियों के धनुर की प्रत्यंचाओं से वाण वियोजित होकर हाथ योग वरण किए उनपर टूट पड़ते ॥
मंगलवार, २ सितम्बर, २०१४
इत रघुकुल दीपक भए आकुल । उत सुबाहु दनु करत ब्याकुल ॥
आए अचिरम भ्रात संकासे । लगे साँग उर देइ निकासे ॥
इधर रघुकु के तिलक यूपकेतु झटपटा रहा था । उधर सुबाहु क्रोधित होकर दनुज को व्याकुल कर द्रुत गति से लघु भ्राता के निकट आया उसने ह्रदय में लगे श्रृंग को निष्कासित कर दिया ॥
जूपकेतु सुहसित उठि ठाढ़े । बान निषंग मुठिक धरि बाढ़े ॥
निसिचर के चेतनहु जाग्यो । देख लगी आपुनी लाग्यो ॥
श्रृंग के बाहर आते ही यूपकेतु सुहासित मुख से उठ खड़ा हुवा । वह धनुष वाण को मुट्ठियों में कस कर आगे बढ़ा ॥इधर निशिचर लवण की भी चेतना जागृत हो उठी । रण संकुलता को देखकर वह स्वयं भी सम्मिलित हो गया ॥
चल्यो भ्रात कुमुक लिए संगा । हारिहि संग सेन चतुरंगा ॥
साजि बाजि गज हनत निसाना । कोप निधाना बहु बलबाना ॥
उसने अपने भ्राता कुमुक को साथ लिया जो रघुवर की चतुरंगिणी सेना के सैनिकों द्वारा पराजित हो गया । तब घोड़े -हाथी की सेना सजा कर डंके बजाते हुवे क्रोध का भंडार एवं अत्यधिक बलशाली : --
लवनासुर तब भए संक्रोधा । अरिहंत संग सीधहि जोधा ।।
उठे चिँगारी लागहि लोहा । रनांगण रज रुधिरु पथ जोहा ॥
लवणासुर अतिशय क्रोध के साथ सीधे रामानुज शत्रुध्न से भीड़ गया । लोहे बजने लगे चिंगारियां उठने लगी रण प्रांगण की धूल रक्तरंजित होने की प्रतीक्षा करने लगी ॥
दनुज माझ भट भीर, सत्रुहन तकि लिए लस्तकी ।
छाँड़े तेजस तीर, श्रीराम चरन सुरति किए ॥
दनुज सैनिकों की भीड़ से के मध्य खड़ा था शत्रुध्न ने लस्तकी से उसका लक्ष्य किया और श्री राम के चरणों का स्मरण कर दिव्य तीर त्यागा ॥
बुधवार, ३ सितम्बर, २०१४
धनु गुन बिथुरत चले नराचा । मर्म भेद लिगु लगे पिसाचा ॥
सुने मरण दनु जब सुर बृंदा । धरे चरन घन जान अलिंदा ॥
धनुष की बाहु रूपी प्रत्यन्चाओं से वियुक्त होकर वाण चले । मर्म भेदन करते हुवे वे सीधे पिशाच के ह्रदय में लगे ॥ देवताओं ने जब पिशाचों का मरण सुना तब उन्होंने घन रूपी यान के अलिंद में अपने पदुम चरण विराजित किए : --
चढ़ि चढ़ि नभ बैसत बहु हरषहिं । मुकुलित हस्त पुहुप पत्त बरखहि ॥
सत्रुहन तहाँ जुग नगर रचाए । सासन सूत दुहु तनय धराए ॥
तत्पश्चात उसके अंदर में आसित होकर नभ में चढ़ते हुवे वह अतिशय हर्षित हुवे । उनके मुकुलित हस्त से मेघ पुष्प की वर्षा होने लगी ॥ शत्रुध्न ने उस स्थान पर युगल नगरों की रचना की । उसके शासन की बागडोर अपने दोनों पुत्रों के हाथों सौंप दी ॥
एक सूरप जासु जग जस गाए । दूजे बिदित जिमि निगम कहाए ॥
सुबाहु भए सूरप महिपाला । बिदित देस नृप भए लघु लाला ॥
एक नगर का नाम मधुरा था संसार भर में जिसका यशगान होता है । दूसरे नगर का नाम विदित था जैसा वेदों में वर्णित है ॥ सुबाहु मथुरा नगरी के राजा हुवे । लघु पुत्र यूपकेतु विदित नमक स्थान के अजा हुवे ॥
सचिवन्हि सुत रखत तिन संगा । अगुसरी पताकिनि चतुरंगा ॥
मेध अश्व किए सत्रुहन आगिन । भट सपयादिक भए अनुगामिन ॥
राम-राज्य के सचिव-पता उनके सचिव घोषित कर चतुरंगनी सेना आगे चली ॥ शत्रुध्न ने मेधीय अश्व को सेना कको सबसे आगे किया पयादिक सैनिकों सहित सेना उसके पीछे चलने लगी ॥
रजत रथ सुबरनइ रसन, बांधे बर बर बाहि ।
बरे गज गति सूर समर, अगूत अगुसर जाहि ॥
रजतमयी रथों में स्वर्णमयी रश्मियों से ऊतम उत्तम अश्व बंधे थे । समर शूर गौरव से पूर्णित धीमी चाल से आगे ही आगे बढ़ाते चले जा रहे थे ॥
बृहस्पतिवार, ४ सितम्बर, २०१४
चलेउ गह गह कटकु अपारा । बही बहा जस लहि बहु धारा ॥
कंठ घोष जिमि केहरि नादे । भय बरु बिहबल करत प्रमादे ॥
फिर वह विशाल सेना उत्साहित होकर ऐसे चली जैसे बहुंत सी धाराओं को संग किए कोई नदी बही चली आ रही हो । सैनि-यूह जब केसरी के जैसे गर्जना करते तब वह गर्जना भय को भी व्याकुलित करते हुवे उसे विक्षिप्त कर देती ॥
एकै ताल अस पग भू धरहीं । निज निज बल पौरुख उच्चरहीं ॥
हस्त मुकुल रबि मेघ गहाही । पथ पथ पख कौसुम बरखाही ॥
चरणों का परस्पर मेल कर भू ऊपर अवधारित करात हुवे जैसे वे अपने अपने पौरुष का ही उच्चरण कर रहे हों । यह देखकर सूर्यदेव के भी मुकुलित हस्त में मेघ उतर आते । और वह पंथ पताः कुसुम वृष्टि करते जाते ॥
अंसुक अस उत्तोलि पताका । जिमि तड़ाकत तड़ित रिपु ताका ॥
नेकानेक नगर नग आली । भँवर कारि बहु संपन साली ॥
राम-राज्य की ध्वजा-चिन्ह अपने अंशुक पर ऐसे उत्तोलित हो उठी जैसे मेघों के मध्य तड़कती हुई तड़िता शत्रुओं को लक्ष्य कर रही हो ॥ भ्रमणशील एवं संपन्न शाली अनेकानेक नगरों एवं पर्वत श्रेणियों : --
सरित बनिक बन सैल नहाके । चले समीर बेगि हय हाँके ।।
पँचाल कुरु कुरोतर देसे । नाँघ दसारन देस प्रबेसे ॥
सरिताएँ, वनिकाएँ, वन एवं शैल शिवालों को पार कर वायु के वेग से चलती हुई वह सेना अश्व को रक्षा करते हुवे इस प्रकार पाञ्चाल, कुरू , कुरोत्तर देशों को लाँघ कर मथुरा होते हुवे दशार्ण ( मध्य भारत के विदिशा, मुरैना के आसपास का क्षेत्र ) में प्रवेशित हुई ॥
सुहा संपन सेन सहित, सत्रुहन जहँ जहँ जाएँ ।
जन जन मुख हरि कीर्तन, कानन श्रवन सुहाए ॥
भ्राता शत्रुध्न उस सेना की शोभा से संपन्न होकर जहां जहां जाते । वहां के नागरिक के मुख से भगवान का कीर्तन-भजन उनके कानों में श्रुति गम्य होकर अति प्रिय लगते ॥
शुक्रवार, ०५ सितम्बर, २०१४
हरिहि कीरत करत मृदु बानी । करएँ सुआगत तहँ जुग पानी ॥
जसोगान श्रुत सह संतोखे । याचकिन्ह बहु भाँति परितोखें ॥
वहां मृदुल वाणी से पूरित श्रीरामचन्द्रजी की सपूर्ण सुयश की कथा ही सुनाई पड़ती । सभी जन युगल-पाणि से सेना का स्वागत करते । इस प्रकार प्रभु का यशोगान करने वालों से संतुष्ट होकर वे याचक गण को सभी प्रकार से परितोषित करते ॥
बिधा प्रबीन अचल संग्रामा । रहिहि सचिउ एक सुमति सुनामा ॥
बलि संग बलि तेज सों तेजस । समर भूमि मैं सचित सचेतस ॥
रघुवर की सभा में विधा- प्रवीण संग्राम में अचल सूक्ति नाम के एक सचिव था जो बली से भी अत्यंत बली एवं तेजों से भी तेज व् समर भूमि में सतर्क एवं प्रज्ञावान था ॥
रक्छत कच्छ आन सँग सोई । सत्रुहन के बर अनुचर होई ॥
तिनके संगति किए मह धीरा । पैठि ऐसेउ भारत भीरा ॥
वह सेना के पृष्ठ भाग का रक्षक एवं उसका अनुगामी होकर आया था वह भ्राता शत्रुध्न का श्रेष्ठ अनुचर था ॥ इस प्रकार महाधीर ने उसकी सुसंगतीप्रात कर मध्य भारत में प्रवेश किया ॥
अनेको जनांत किए पारा । अस्व किरन पर कोउ न धारा ॥
बिबिध देस धिनायक धिराया । समर सूर जानिहि बहु माया ॥
सेना ने अनेकों प्रांतों को पर किया किन्तु अश्व की किरण हरण करने का साहस किसी ने भी नहीं था ॥ विवध देश थे जिसमें राज भी थे राजाधिराज भी थे समर शूर भी थे जो बहुंत प्रकार की विद्या जानते थे ॥
अतुलित बल संग संपन, जुगए कटक चौरंग ।
सरबतस दच्छ रहि जदपि सर्ब धुरिन के संग ॥
वे अतुलनीय बल से संपन्न चतुरंगिणी पताकिनी सेना से युक्त थे । जो सर्वतस दक्ष एवं सभी प्रकार की वाहिनियों पर विजय प्राप्त करने के योग्य थी ॥
सेना -कक्ष
शनिवार, ०६ सितम्बर, २०१४
तद्यपि सकल भूपत उठि धाइ । सैन सुरक्छी चरन गहि आइ ॥
बार बार किए बिनइत निगदन । हे रामानुज हे रघुनन्दन ॥
तथापि सभी भूपत सैना के अभिभावक भ्राता शत्रुध्न के चरण सुश्रुता हेतु दौड़े आते । वे वारंवार विनम्रता पूर्वक यही कथन करते कि हे रामानुज ! हे रघुनन्दन !
राज पाट जुजुधान मान जस ।बंधु सहित तव हमरे सरबस ॥
गाँउ नगर नग नदी पहारा । तासु माहि किछु नहीं हमारा ॥
राज्यशक्ति, वीर योद्धा, मान-सम्मान, यश- कीर्ति, निकट सम्बन्धियों की समष्टि सहित हमारा सर्वस्व आप ही का है । यह गांव नगर यह पर्वत नदी ये पहाड़, इसमें लेशमात्र भी हमारा अंश नहीं है ॥
निगदे औरु का तासु अधिके । भगतिल भगत भगनंदनहि के ॥
सुनत तिन्हहि धरे बहु धीरा । समर मूर्धन् सत्रुहन बीरा ॥
इससे अधिक और क्या कहें । विश्वासी भक्त स्वयं भगनन्दन ही के हैं ॥ विपक्षी वीरों का हनन करने वाले संग्राम शूर में अग्रणी भ्राता शत्रुध्न उनके वचन धीरवंत होकर सुनते ॥
तेहि थरी निज आयसु घोषए । जनपर्दिन बहु बिधि परितोषए ॥
हर्षित मन तिन्हनि लिए संगा । चलए अगुसार कटक चतुरंगा ॥
उन स्थलों पर अपनी आज्ञप्ति की घोषणा करते हुवे जन पर्दिनों को बहुंत प्रकार से परितोषित करते । तदनंतर हर्षित मन से उन्हें संग लिए चतुरंगिणी कटक आगे बढ़ जाती ॥
किए जन पर्दिन पबित पुनीते । देस नहीं जन निलयन जीते ।
आए सरन सो नाथ अपनाएँ । हत कारिन हंतब जीतत जाएँ ॥
इस प्रकार जान शासकों को पापों से रहित कर वह सेना देशो पर नहीं अपितु हृदयों पर विजय प्राप्त करती । जो उअसके शरण अत संरक्षक उन्हें स्वीकार कर लेते जो हत हनन के योग्य हत-कारियों का सर्वनाश करते चलते ॥
अमित तेजस बीर बिक्रमी क्रमबर चरन बढ़ाए ।
अति रमनीअ अहिच्छत्रा पूरी पौर पैठाए ॥
इस प्रकार अतुलनीय तेज से युक्त वे पराक्रमी क्रमश: आगे बढ़ाते गए एवं (दक्षिण )पांचाल नामक रमणीय नगरी की ड्योढ़ी में प्रवेश किये ॥
अहिच्छत्रा = दक्षिण पांचाल
रविवार, ०७ सितम्बर, २०१४
जुगत धनुर धन जोजन बाना । रहे कटक भट अवध समाना ॥
जन नख रूप नेमि सम राऊ । सेन सत रिषि सुमद धर नाऊ ॥
उस नगरी के रक्षक धनुष एवं तीर-तूणीर से युक्त होकर अवध के रक्षकों के समतुल्य प्रतीत होते थे ॥ प्रजा पालक का नाम था । उस राज्य गगन वह स्वयं नेमि, प्रजा नक्षत्र के तो सेना सप्तऋषि के सदृश्य थी ॥
बसे जहाँ जन मानस नाना । दिविज राउ ब्रम्हन अन्याना ॥
बिषय बिमुख जितबारी लोका । पुरंजनी बर पुनी पुरौका ॥
वह रमणीय नगरी में ब्राह्मण एवं अन्यान्य द्विजों के सह नाना भांति के जनमानस निवासित थे । प्रजा विषय विमुख एवं जितात्मन् थी प्रजाजन श्रेष्ठि, प्रज्ञावान एवं पुण्य पुरुष थे ॥
सील बंत सब सद आचारी । अधर सत्य सम सुधा अधारी ॥
सो सुठि अस्थरि अनेकनेका । स्याम मनि सर परम प्रबेका ॥
बहु बिधान हिरन संग साजे । बिचित्र मनिक पथ कूल बिराजे ॥
ताड तोरन बढ़ावहि सोभा । दरसत बसति बसन मन लोभा ॥
सभी जन शीलवन्त एवं सदाचारी थे उनके अधरों पर सत्य स्वरूपी सुधा का आधार था ॥ उस सुन्दर सथली के तरोँसों पर नीलम हीरे आदि उत्तम रत्नों एवं स्वर्ण खचित अनेकानेक बहुरंगी प्रासाद सुसज्जित थे ॥ ऊँचे तोरणउस नगर की शोभा में वृद्धि कर रहे थे । जो उस वसति को देखता वह वहां वासित होने को लालायित हो जाता ॥
पौर पौर पूरित उद्यान । पुष्कल पुष्कर बहुत बिधाना ॥
सीत दीठ जहँ केतुहु कंता । छहो रितु संग बसे बसंता ॥
द्वारी द्वारि उद्यान सुशोभित हो रहे थे जो बहुंत सी प्रजाति के के पद्म पुष्पों से भरे हुवे थे । जहां केतुकांत की दृष्टि सदैव शीतल ही रहती थी एवं ऋतुराज वसंत छहों ऋतुओं के संग निवास करते थे ॥
उदोद्घाटन रतन धर, पग पग परबत माल ।
परसत रही प्रथम किरन तलहट ताल तमाल ॥
पग पग पर उदक एवं रत्नों को उद्घाटित करते हुवे पर्वत श्रृंग जिन्हे भोर की प्रथम किरण स्पर्श किया करती थी । तलहटी में सुन्दर ताल तमाल वृक्ष से शोभित थे ॥
सोमवार, ०८ सितम्बर, २०१४
दरसिहि एक बन बट संकासे । क्यारि क्यारि कुसुम बिकासे ॥
अवनत नभ नदि नर्तित नौका । तेहि नगर बर मानि पुरौका ॥
चूँकि वह नगरी उद्यानों से परिपूर्ण थी अत:उसके निकट जाते ही भ्राता शत्रुध्न को एक उद्यान दिखाई दिया । जिसकी क्यारी क्यारी में कुसुम विकसित थे । नतमस्तक नभ एवं नदी के संग नृत्य करती हुई नौकाएं । यह उद्यान सभी उद्यानों से श्रेष्ठ है ऐसा उस नगर के वासियों का कहना था ॥
सोई सुठि कानन पैसारे । हबि है इत उत चरत बिहारे ॥
हरिद परन गहि घन घन गाछे । अरु फिरि सत्रुहन पाछिहि पाछे ॥
उस सुन्दर उद्यान में प्रवेश कर मेधीय अश्व फिर जहाँ-तहाँ विचरण करने लगा । हरे-हरे पत्तों से युक्त वृक्षों के झुरमुट में भ्राता शत्रुध्न उसके पीछे हो लिए ॥
अनुगामिन भए अनुचर नेका । जुजुधान जूह माहि प्रबेका ॥
जहँ एक सुन्दर देउ निकाई । तहँ गमन तेहि देइ दिखाई ॥
योद्धाओं के झुण्ड में श्रेष्ठ योद्धा एवं अनेक अनुचर उनके अनुगामी हो गए ॥ उस उद्यान में एक सुन्दर देवालय भी स्थित था जो उन्हें अंतर्गत होने पर दिखाई पड़ा ॥
भीत भीत अस चिते चितेरे । परमम कृति जस कारू केरे ॥
लसे कंचन कलस कैलासा । देइ भास जस हिमधर कासा ॥
मंदिर की प्रत्येक भित्तियों को चितेरे ने ऐसे चित्रित किया था मानो वह उस कलाकार की परम कृति हो ॥ वह कैलाश के हिरण्य मयी कंगूरे के सदृश्य दमक रहा था एवं हिमालय पर्वत की कंचन मयी कांति को आभासित कर रहा था ॥
दसरथज रामानुज दृग , दरसिहि देवल जोह ।
आह !अनुपम अकस्मात् निकसे श्रीमुख सोंह ॥
दशरथ नंदन रामानुज के दृष्टि ने जैसे ही उस देवालय के दर्शन किए । आह! अनुपम ! उनके श्रीमुख से ये शब्द अनायास ही निकल पड़े ॥
मंगलवार, ०९ सितम्बर, २०१४
बहुरि भ्रात रघोत्तम जी के । सुमति सोंही प्रस्न किए नीके ॥
अहो सचिवबर मोहि बुझावा । मम दीठ जोइ दिरिस दिखावा ॥
धौला गृह उम उम उजियारा । सुरुचित कृत एहि भवन अकारा ॥
अहइँ का कोउ देव दुआरा । कि को राजाधिराज अगारा ॥
को हित कारन कृत को काजा । कहहु सो केहि हेतु बिराजा ॥
सुबुध सचिव अतीव सुग्याता । भंवर नगरजानिहि सब बाता ॥
पूछ बुझावत कहत बखाना । बीरबरसुनौ देइ ध्याना ॥
हिरनई भवन धरि दृढ नेई । इहँ बिराजित कामखा देई ॥
बंदनीअ जगज्जननी, के एक अरुअ सरूप ।
सर्वार्थानुसाधिनी, मंगल कारिनि रूप ॥
बुधवार, १० सितम्बर, २०१४
किए बहु अर्चन पूरब काला । अहिच्छत्रा पर के प्रतिपाला ॥
तब भगवती रूप कामखी । इहाँ बिराजित सोहिहि साखी ॥
तब सों भगतन के दुख हरिहइँ । मनोकामना पूरन करिहइँ ॥
जपन जोग देई के नामा । अस कहत सुमति करे प्रनामा ॥
अरिहंत सचिउ चरन नुहारा । प्रनमत सिरु नत बारहि बारा ।।
पूछिहि बांधत बचन के सेतु । प्रगसि देई इहाँ केहि हेतु ॥
कवन टप किए इहाँ के राऊ । पर ऐसेउ जसु प्रभाऊ ॥
सकल लोकिन्हि के महतारी । भयउ मुदित इहँ आन पधारी ॥
जगत प्रतीत एक परबत अहहीं । हेमकूट निगमागम कहहीं ॥
सकल देवन्हि के सँग सोहिहि । जहां एक बिमल तीरथ होहिहिं ॥
जो अगजग के महा रिसि अरु मुनिबर के ठोर ।
तहहीं अहिच्छत्रा राउ, करे तपस्या घोर ॥
बृहस्पतिवार, ११ सितम्बर, २०१४
तासु देस सामंत नरेसा । रहहि खल रहे भल के भेसा ॥
तपस्यारत नृप हेमकूटा । सोइ नरेस भयउ एक जूटा ॥
जोग जुगति सब मेल मिलाई । अहिच्छत्रा ऊपर किए चढ़ाई ॥
भल कि खलमन होहिहि जब एका । सौंह एकंग नल कील टेका ॥
नागर जन सह संत अराधे । मात पिता सँग किए हत बाधे ॥
पीड़ित पुरजन भए असहाई । गवनइ तहँ जहँ टप किए राई ॥
तीनि बछर लग एक पग ठाढ़े । ध्यात मात करे तप गाढ़े ॥
लगाए लोचन नासिक नोका । तेहि माझ कभु नभ न बिलोका ॥
ताहि परतस तीनि बछर, भखत सूखित पात ।
करत घोर कठोर ताप, भए अति दुर्बल गात ॥
शुक्रवार, १२ सितम्बर, २०१४
तीन बछर धरि नेम कठोरा । सीत काल जल गहि कोरा ॥
तापस रितु सेवत पंचागा । पावस उन्मुख तोए तड़ागा ॥
तीन बछर सो राउ सुबोधा । अंतर प्रान बायु अवरोधा ।।
बरे बर बरन बोलि सुबानी । जपे निरंतर नाउ भवानी ॥
तेहि काल दृग एक जग माई अबर न कोउ देइ देखाई ॥
बिधि मुष्टिका काल रज रीते । एहि बिधि दुआदस बरसि बीते ।
तपो बल देइ चरन हिलोले । सुरपत के सिंहासन डोले ॥
तपोसील जब राउ निहारे । तापर बहुतहि सोचि बिचारे ॥
ए तप निधि तप चरन संग, लीन्हि आसन जीत ।
मन ही मन सिहात सुरप, भए अतिसय भय भीत ॥
शनिवार, १३ सितम्बर, २०१४
अचिरम तमि षीचि बोलि पठाए । प्रिय बंधु बसंत लेइ बुलाए ॥
आए काम सुर सह परिबारू । बोलि सुरप मम कहि अनुहारू ॥
हे रे सखा सबहि मन मोही । सखता तव सख कर्मन जोही ॥
अहइँ मोर एक अति प्रिय काजा । तप चरनानुरत सुमद राजा ॥
काम बान जुगि तुहरी सोभा । कोटि कला सों उपजहि लोभा ॥
देउराउ के कहि सिरु धारे । मृदुलित बोलि चिंता न कारें ॥
करब मैं अवसि काजु तुहारा । मम सिरु पर तुहरे उपकारा ॥
बिनयाबत प्रनमत सुर नाथा । अस कह कमन कुटुम किए साथा ॥
अपछरा बृंद संग लिए, धर बसंत कर बाहि ।
संजुग हो चलेउ सकल, हेमकूट के पाहि ॥
रविवार, १४, सितम्बर, २०१४
पहुँच तहँ भए कमन कोदंडा । गह पंचम कौसुम सर षण्डा ॥
तब आपन प्रभाउ प्रस्तारा । कुञ्ज कुटीरु बसंत बिहारा ॥
गह गह गेह गेह तहवाँ के । प्रफुरित फुर नयन माहि झाँके ॥
डार डार कोइर कुहुकारी । कली कली चंचरि गुंजारी ॥
मंद चर सीतर बायु गंधे । तट तट लवंग कुसुम सुगंधे ।।
संगम करहि तलाउ तलाई । तपसि तपोबन तपस भुलाईं ॥
गहन सिंधु के बाहु बिसाला । बही चली करषत कृतमाला ।\
कोटि कला करि काम सहाई । कमन की सुहा सब कहुँ छाई ॥
सब के ह्रदय नयन अभिलाखा । लतिक निहारि नवहि तरु साखा ॥
भयउ पुहुप मय जब सब लोका । पुहुप केतु भर नैन बिलोका ॥
गह हरिद परनिका लह लतिका कुञ्ज कुञ्ज अरु गली गली ।
तरु तरु तरियाई,हरिअरि छाई भै कुसुमित कली कली ॥
भुज सेखर हारे कंठन घारे गुंजारे अली अली ।
गंधर्ब नगरि डगरि डगरि मंजुल गति गमनि चली ॥
सुर नारी मह महा नारी, आलि माहि महा आलि ।
सिरु बहु कर कंठ कलित, मंजिम मंजरि मालि ॥
सोमवार, १५ सितम्बर, २०१४
परम सुर नारि रम्भा नामा । रजत रूपसी नयनभिरामा ॥
घिरि सखिन्हि अस चहुँ फेरे । अलि प्रिया जस पुंडरी घेरे ॥
सकल सखिन्ह लिए संग माही । पहुँची सुमद अधि राउ पाहीं ॥
मुखरित मुख सों मँजीरि बाजे । गमन गति अस हंसिनी लाजे ॥
पटह नाद महुँ रही प्रबीनी । कोमल हृदय लय माहि लीनी ॥
कंठ बसाए छहो कल रागा । सुर संपन जिमि सोन सुहागा ॥
लखे सुमद पुनि बहु अनुरागा । सकल लजौनि भूषन त्यागी ॥
श्रुति मधुरित जब गान बिताने । सोइ अगान सुने जब काने ॥
भंगइ ध्यान जगे अधीसा । छबाय बसंत छटा छतीसा ॥
दीठ धववात चहुँ दिसा, लेख माहि नृप आनि ।
छंदब छाया मई किए कमान कला जग जानि ॥
दनु देह बसी मति बिपरीता । एहि कारन निर्बल जिउ जीता ॥
परबोधत अस रबि कुल कंता । किए बली देइ बल रिपुहंता ॥
दानव के देह में विपरीत बुद्धि का वास हो गया है गया है यही कारण है कि वह निर्बल निरीह जीवों पर अत्याचार कर रहा है ॥ रघु कुल कान्त श्रीरामजी ने ऐसा प्रबोधन करते हुवे भ्राता शत्रुध्न को दानव के नाश हेतु दिव्य बल देकर उन्हें बलवंत कर दिया था ॥
लेइ संग निज तनुभव दोई । समर सूर जग जीतन जोईं ॥
पैहत आयसु सैन पयाने । निह्नादत नभ बजे निसाने ॥
तब शत्रुध्न अपने दोनों पुत्रों के संग लिया और संसार के पाठकों पर विजय प्राप्त करने हेतु वीर युयुधान को संजोया । जैसे ही सेना को उनकी आज्ञा प्राप्त हुई । वह नभ को निह्नादित करती हुई प्रयाण-पटह का वादन करते चली ॥
चाक चरन रथ दिए पथ दाने ॥ चले सहस दस छतर बिताने ।।
गरजत गज जूथ हय हिंसाए । धुर ऊपर धूरि धूसर छाए ॥
दस सहस्त्र रथ छत्रों से युक्त होकर अपने चक्रों से पथों पर चिन्ह अंकित किए चल पड़े । गज समूह गरजने लगे हाय हिनहिनाने लगे । धुर ऊपर धूलि की धूसरता छ गई ॥
दुंदुभि तुरहि संख मुख पूरयो । चपल कटक दनु लेइ घेरयो ।।
तरजें सुभट जूँ निसान हने । धनबन प्रति ध्वनि कहत न बने ॥
मुख से दुदुंभियां, तुरही, शंख आदि स्वर-नाद निह्नादित होने लगे । तब विशाल कटक ने लवणासुर को चपलतापूर्वक घेर लिया ॥ सैनिकों ने ऐसी जैसे नगाड़े ध्वनिवन्त् होते हैंउस तर्जना से आकाश में जिस भांति की प्रतिध्वनि उठी वह वर्णनातीत है ॥
भए अस घमरौले घमंक बोले जसघनब घन घनकयो ।
घनबाही बादे तस निह्नादे बरखत जल बल झरयो ।।
उम उमगाई तरंग के नाई सींवा पारगमन करियो ।
एक एक बीर बिंदु जुगत भए बृन्दु सिंधु सरि रूप बरियो ॥
वहां ऐसा घमासान मच गया, घूंसे मुष्टिक के प्रहार ऐसे बोलने लगे जैसे आकाश में घन मेघ गर्जना कर रहे हों । सैनिकों के प्रहार की धवनि हथौड़ी के चोट की धवनी जैसी ही थी ॥ उनका जल बना बल शत्रु के ऊपर बरस पड़ा ॥जैसे तरंग तटों पर उमड़ आती है वैसे ही वे सैनिक दनुज के नगर की सीमा पारगमन करने लगे ॥ सेना के एक एक शूरवीर एक एक वीर बिंदु परस्पर संयोजित होकर बिंदु-वृन्द हो गए, और उन्होंने सिंधु के जैसा रूप वरण कर लिया ॥
हँकारत चहुँ दिसि बाढ़त, कोट कलस चढ़ि आन ।
रजरत रथ चरन रवनत रव मुख अनक निसान ।।
शत्रुओं को युद्ध हेतु आह्वान कर युधवीर चारों दिशाओं में बढ़ते हुवे कोट के कंगूरों पर चढ़ गए ॥ उस समय धुलीवंत होकर रथ चरणों से ध्वनि कर रहे हैं ढोल एवं डंके मुख से ध्वनिवन्त् थे ॥
तेजस तुरग तजे मख बेदी । हर्ष घोष किए गगन बिभेदी ॥
अमित बिक्रमी बीर बहुतेरे । घार घेर चहुँ फेरी घेरे ॥
गगन विभेदी हर्ष धवनी करते शक्तिशाली एवं प्रतापी वीर एकत्र हो गए । यज्ञ वेदी से त्यागा हुवे तेजस्वी राज स्कंद को उन्होंने चारो ओर से घेर रखा था ॥
चले बाहि ले रथ कर पूला । छाए धुरोपर धूलहि धूला ॥
परिगत कोट कटक लिए घेरी। दुहु पाँख मुख बजे रन भेरी ॥
रथ रश्मियों को मुट्ठा किए सारथी रथ लिए चल रहे थे धुर ऊपर धूल ही धूल छा गई थी ॥ दनुज के गढ़ पर व्याप्त होकर उन्होंने उसकी सेना को चारों ओर से घेर लिया । फिर क्या था दोनों पक्ष से रण की भेरी बजने लगी ॥
निज निज स्वामि जब जय बोले। डोलि कुधर भू समुद हिलोले ॥
जोड़ जुगत निज निज बल केरे । बाहु बलि किए पल माहि ढेरे ॥
जब वे अपने अपने स्वामियों का जयकारा लगाते पर्वत डोलने लगते,भूमि कांप उठती, समुद्र छलकने लगता ॥ अपने अपने बल के अनुसार जोड़ी बनाकर सुभट प्रतिभट को पल में ढेर कर देते ॥
लरहि सुभट निज निज जय कारन । बर्नातीत रन बात्स्यायन ॥
कंठी माल किए काल कलिते । लवणासुर अनी भइ बिचलिते ॥
सभी भट प्रतिभट अपनी अपनी विजय हेतु रणोत्कंठित थे । हे मुनिवर वात्स्यायन ! यह युद्ध तो वर्णनातीत हुवा जा रहा है ॥ कारण की काल की कंठी माल को कलित किए लवणासुर की सेना विचलित हो गई ॥
चाप हरि चाप कटक घन, भए गरजन टंकार ।
होइहि नभ सन निरंतर , तीर तीर बौछार ॥
हस्तगत धनुर् इन्द्रधनुष हो गए, कटक घन स्वरूप हो गई है । प्रत्यंचा की टंकार मानो घन की गर्जना हो गई और नभ से निरंतर तीरों की वृष्टि होने लगी है ॥
धरे पुंख भए बान बिहंगा । उरत आन लगि अबयब अंगा ।।
गूठे दनुज भयउ उतरंगा । पठइँ केतु मतंग सुत संगा ॥
पुंख ( वाण का पंख युक्त पश्च देश) धारण किए वाण जैसे विहंग हो चले । वह गगन में विचरते हुवे आते और शरीर के अवयवों को बाधित करते । लवणासुर जो कहीं छिपा हुवा था वह क्षुब्ध हो गया । फिर उसने अपने दोनों पुत्रों केतु एवं मतंग को युद्ध भूमि में एक साथ उतारा ॥
बलि सुबाहु बर सुत सत्रुहन के । अगुसरे मतंग मीच बन के ॥
बाहु गुन सीध बाँधत साधे । संधानि बान हिय हत बाधे ॥
शत्रुध्न के ज्येष्ठ सुपुत्र सुबाहु जो अत्यधिक बलवान था वह मतंग का काल बनते हुवे आगे बड़ा । उसकी भुजाओं ने लक्ष्य वेध कर प्रत्यंचा साधी । संधानित वाण को मतंग के ह्रदय में उतार कर उसे हताहत कर दिया ॥
जूपकेतु लघु तनय हँकारा । करत कोप बहु केतु पचारा ॥
राम राम मुख मंत्र उचारे । दनु कर पद धार पहुम् पछारे ॥
लघु सुपुत्र यूपकेतु ने अत्यधिक क्रुद्ध होकर दानव के लघुज केतु को ललकारा ॥ मुख से राम नाम के मंत्र का उच्चारण किया और उस दानव के हाथ पाँव पकड़ कर उसे भूमि पर दे मारा ॥
दुष्ट दनुज तब किए छल छाया । सायुध सुर प्रगसे बन माया ।।
भरम भीत भट भए हत चेते । केहि हेत किए केहि अहेते ॥
तब दुष्ट लवणासुर ने छल -कपट करते हुवे माया रची । उस माया से अायुधों से युक्त होकर सुर का रूप धारण किए बहुंत से असुर प्रकट हो गए ॥ रामजी की सेना के सैनिक भ्रम के वशीभूत होकर विस्मित से हो उठे । उन्हें यह समझ नहीं आया की किससे प्रीति रखे किससे घृणा करें ॥
धरे कर कुधर खंड प्रचंडा । परिगत परिघ किए खंड खंडा ॥
सैल सूल श्रृंगी सृक छाँड़े । आन कटक चढ़ि आगिन बाढ़े ॥
उस सुर-झुण्ड के हाथों में पहाड़ों के प्रचंड खंड थे । जिसके आघात ने कोट में व्याप्त सैन्य व्यूह को छिन्न-भिन्न कर दिया । वे श्रृंगी शैल के सदृश्य शूल युक्त वाणों को त्यागते हुवे कटक के ऊपर चढ़ाई कर आगे बढ़ आए ॥
सहस्त्रो सहस्त्र ससस्त्र, असुर केर सुर जूथ ।
रघुबर जुधा भयउ त्रस्त्र, लोकत बिबिध बरूथ ॥
असुरों का यह सुर-यूथ सहस्त्रो-सहस्त्र शास्त्रों से युक्त था । भगवान श्रीराम जी के योद्धा मायावी झुण्ड को देखकर व्याकुल हो गए ॥
रविवार, ३१ अगस्त, २०१४
उत दनुपत इत रघुबर नामा । लै अप्रतिबीर किए जय कामा ॥
देखन्हि छल छाइ सुर ठट्टा । सु बिहिन भट्ट भयउ सुभट्टा ॥
उधर दनुज लवण की, इधर अतुलनीय वीर प्रभु श्री राम के नाम लेकर विजय की कामना कर रहे थे ॥ सुर-यूथ का छल-कपट देख वे सुभट्ट सु विहीन हो गए ॥
तब अरिहत प्रभु दिए बल जोगे । खैंच सरासन बान बिजोगे ।।
तमहर कर भू तम हरन करे । तस सर दनु केरि माया हरे ॥
तब रिपुहंत नेप्रभु श्रीरामचन्द्रजी द्वारा प्रदत्त बल का प्रयोग कर धनुष को खैंचकर उसे वाणों से विमुक्त किया । जैसे तमोध्न की रश्मियाँ धरती पर अवतरण कर उसके अन्धकार का हरा कर एटी हाँ वैसे ही उन वाण रूपी रश्मियों ने उस असुर की आसुरी माया को हर लिया ॥
आँगन सुर बृंदा बिनु देखे । बीर सुबाहु काल भर भेखे ॥
गहि गदा कहि खल सूल धारी । अजहुँ निरखिहु माया हमारी ॥
जब रणांगण को सुर-यूथ से विहीन देखा तब काल का वेश धारण किए वीर सुबाहु ने गदा ग्रहण कर लवणा सुर से कहा रे दुष्ट ! रे शूल धारी ! अब तू हमारी माया देख ॥
खाल कर माल सूल सँभारे । अस कह उरस गदा दिए मारे ।
किए घींच अघात अस तेजा । सूल बल तेज किए निहतेजा ॥
रे अधमी करमालाओं में अपना शूल संभाल ले । ऐसा कहकर उसने उस दनुज के हृदयस्थल पर गदा दे मारा ॥ फिर उसके कंठी पर ऐसा तेज प्रहार किया कि उसके शूल के बल का तेज निस्तेज हो गया ॥
बान बिषिख काटे जाल, माया देइ बिखेर ।
लवनासुर मुरुछित परे, भूमि माझ भए ढेर ॥
श्रृंगी वाणों ने उस दुष्ट के कपट जाल को काटकर उसकी माया को छिन्न -भिन्न कर दिया है । लवणासुर रन धरा के मध्य शायी
होकर मूर्छित पड़ा है ॥
सोमवार, १ सितम्बर, २०१४
डरपत प्रतिभट जहँ तहँ धाईं । रन रंगन सब दिए बिसराई ॥
तब रन बांकुर कैटभ नामा । दानउ दल मह बल के धामा ॥
रन उत्कंठा का त्याग कर शत्रु पक्ष के सैनिक जहाँ-तहाँ भाग खड़े हुवे ॥ तब दानव दल में महा बलशाली कैटभ नाम का रणबांकुर : -
दलाधिपत हत चेतस देखा । धरे तड़ित सम सूल बिसेखा ॥
जूपकेतु के सौमुख आवा । परम क्रोध किए संग जुझावा ॥
ने जब दलाधिपति को मूर्छित देखा तब वह तड़ित के सदृश्य विशेष शूल धारी दानव यूपकेतु के सम्मुख पकट हुवा और अत्यधिक क्रोध करते हुवे उसके साथ युद्ध करने लगा ॥
घात मर्म जब हिय दिए भेदा । घनमुख घन रस भयउ स्वेदा ॥
राम राम हाँ राम हँकारा । हत प्रभ लोचन भ्रात निहारा ॥
उसने यूपकेतु के मर्म पर आघात कर उसके ह्रदय को भेद दिया । जिससे उसका मुख मेघ के सदृश्य हो गया एवं स्वेद बिंदु, मेघ बिंदु हो गई । वह राम नाम की पुकार करता हुवा हतप्रभ लोचन से भ्राता सुबाहु की ओर देखने लगा ॥
सुबाहु जब हत बंधू बिलोका । पचारि दनु चहुँपुर अबलोका ॥
लै त्रै कोटिक बान कराले । छाँड़त बहे रुधिरु परनाले ॥
सुबाहु ने जब अपने बंधु को घायल अवस्था में देखा तब वह चारों ओर दृष्टि कर दनुज को ललकारने लगा ॥ उसने तीन करोड़ बाणों का संधान किया जब वह छूटे तब रुधिर के जैसे बड़ा नाला बहने लगा ॥ ( इन वाणों से कैटभ भी मारा गया )
इत दानउ दल सबहि बिधि, आजुध करत प्रजोग ।
उत दपटि, झपटि जोग हठि, सर गुन होत बिजोग ॥
इधर दानव दल सभी प्रकार के आयुधों का प्रयोग कर रहे थे । उधर उधर प्रभु के सेनानियों के धनुर की प्रत्यंचाओं से वाण वियोजित होकर हाथ योग वरण किए उनपर टूट पड़ते ॥
मंगलवार, २ सितम्बर, २०१४
इत रघुकुल दीपक भए आकुल । उत सुबाहु दनु करत ब्याकुल ॥
आए अचिरम भ्रात संकासे । लगे साँग उर देइ निकासे ॥
इधर रघुकु के तिलक यूपकेतु झटपटा रहा था । उधर सुबाहु क्रोधित होकर दनुज को व्याकुल कर द्रुत गति से लघु भ्राता के निकट आया उसने ह्रदय में लगे श्रृंग को निष्कासित कर दिया ॥
जूपकेतु सुहसित उठि ठाढ़े । बान निषंग मुठिक धरि बाढ़े ॥
निसिचर के चेतनहु जाग्यो । देख लगी आपुनी लाग्यो ॥
श्रृंग के बाहर आते ही यूपकेतु सुहासित मुख से उठ खड़ा हुवा । वह धनुष वाण को मुट्ठियों में कस कर आगे बढ़ा ॥इधर निशिचर लवण की भी चेतना जागृत हो उठी । रण संकुलता को देखकर वह स्वयं भी सम्मिलित हो गया ॥
चल्यो भ्रात कुमुक लिए संगा । हारिहि संग सेन चतुरंगा ॥
साजि बाजि गज हनत निसाना । कोप निधाना बहु बलबाना ॥
उसने अपने भ्राता कुमुक को साथ लिया जो रघुवर की चतुरंगिणी सेना के सैनिकों द्वारा पराजित हो गया । तब घोड़े -हाथी की सेना सजा कर डंके बजाते हुवे क्रोध का भंडार एवं अत्यधिक बलशाली : --
लवनासुर तब भए संक्रोधा । अरिहंत संग सीधहि जोधा ।।
उठे चिँगारी लागहि लोहा । रनांगण रज रुधिरु पथ जोहा ॥
लवणासुर अतिशय क्रोध के साथ सीधे रामानुज शत्रुध्न से भीड़ गया । लोहे बजने लगे चिंगारियां उठने लगी रण प्रांगण की धूल रक्तरंजित होने की प्रतीक्षा करने लगी ॥
दनुज माझ भट भीर, सत्रुहन तकि लिए लस्तकी ।
छाँड़े तेजस तीर, श्रीराम चरन सुरति किए ॥
दनुज सैनिकों की भीड़ से के मध्य खड़ा था शत्रुध्न ने लस्तकी से उसका लक्ष्य किया और श्री राम के चरणों का स्मरण कर दिव्य तीर त्यागा ॥
बुधवार, ३ सितम्बर, २०१४
धनु गुन बिथुरत चले नराचा । मर्म भेद लिगु लगे पिसाचा ॥
सुने मरण दनु जब सुर बृंदा । धरे चरन घन जान अलिंदा ॥
धनुष की बाहु रूपी प्रत्यन्चाओं से वियुक्त होकर वाण चले । मर्म भेदन करते हुवे वे सीधे पिशाच के ह्रदय में लगे ॥ देवताओं ने जब पिशाचों का मरण सुना तब उन्होंने घन रूपी यान के अलिंद में अपने पदुम चरण विराजित किए : --
चढ़ि चढ़ि नभ बैसत बहु हरषहिं । मुकुलित हस्त पुहुप पत्त बरखहि ॥
सत्रुहन तहाँ जुग नगर रचाए । सासन सूत दुहु तनय धराए ॥
तत्पश्चात उसके अंदर में आसित होकर नभ में चढ़ते हुवे वह अतिशय हर्षित हुवे । उनके मुकुलित हस्त से मेघ पुष्प की वर्षा होने लगी ॥ शत्रुध्न ने उस स्थान पर युगल नगरों की रचना की । उसके शासन की बागडोर अपने दोनों पुत्रों के हाथों सौंप दी ॥
एक सूरप जासु जग जस गाए । दूजे बिदित जिमि निगम कहाए ॥
सुबाहु भए सूरप महिपाला । बिदित देस नृप भए लघु लाला ॥
एक नगर का नाम मधुरा था संसार भर में जिसका यशगान होता है । दूसरे नगर का नाम विदित था जैसा वेदों में वर्णित है ॥ सुबाहु मथुरा नगरी के राजा हुवे । लघु पुत्र यूपकेतु विदित नमक स्थान के अजा हुवे ॥
सचिवन्हि सुत रखत तिन संगा । अगुसरी पताकिनि चतुरंगा ॥
मेध अश्व किए सत्रुहन आगिन । भट सपयादिक भए अनुगामिन ॥
राम-राज्य के सचिव-पता उनके सचिव घोषित कर चतुरंगनी सेना आगे चली ॥ शत्रुध्न ने मेधीय अश्व को सेना कको सबसे आगे किया पयादिक सैनिकों सहित सेना उसके पीछे चलने लगी ॥
रजत रथ सुबरनइ रसन, बांधे बर बर बाहि ।
बरे गज गति सूर समर, अगूत अगुसर जाहि ॥
रजतमयी रथों में स्वर्णमयी रश्मियों से ऊतम उत्तम अश्व बंधे थे । समर शूर गौरव से पूर्णित धीमी चाल से आगे ही आगे बढ़ाते चले जा रहे थे ॥
बृहस्पतिवार, ४ सितम्बर, २०१४
चलेउ गह गह कटकु अपारा । बही बहा जस लहि बहु धारा ॥
कंठ घोष जिमि केहरि नादे । भय बरु बिहबल करत प्रमादे ॥
फिर वह विशाल सेना उत्साहित होकर ऐसे चली जैसे बहुंत सी धाराओं को संग किए कोई नदी बही चली आ रही हो । सैनि-यूह जब केसरी के जैसे गर्जना करते तब वह गर्जना भय को भी व्याकुलित करते हुवे उसे विक्षिप्त कर देती ॥
एकै ताल अस पग भू धरहीं । निज निज बल पौरुख उच्चरहीं ॥
हस्त मुकुल रबि मेघ गहाही । पथ पथ पख कौसुम बरखाही ॥
चरणों का परस्पर मेल कर भू ऊपर अवधारित करात हुवे जैसे वे अपने अपने पौरुष का ही उच्चरण कर रहे हों । यह देखकर सूर्यदेव के भी मुकुलित हस्त में मेघ उतर आते । और वह पंथ पताः कुसुम वृष्टि करते जाते ॥
अंसुक अस उत्तोलि पताका । जिमि तड़ाकत तड़ित रिपु ताका ॥
नेकानेक नगर नग आली । भँवर कारि बहु संपन साली ॥
राम-राज्य की ध्वजा-चिन्ह अपने अंशुक पर ऐसे उत्तोलित हो उठी जैसे मेघों के मध्य तड़कती हुई तड़िता शत्रुओं को लक्ष्य कर रही हो ॥ भ्रमणशील एवं संपन्न शाली अनेकानेक नगरों एवं पर्वत श्रेणियों : --
सरित बनिक बन सैल नहाके । चले समीर बेगि हय हाँके ।।
पँचाल कुरु कुरोतर देसे । नाँघ दसारन देस प्रबेसे ॥
सरिताएँ, वनिकाएँ, वन एवं शैल शिवालों को पार कर वायु के वेग से चलती हुई वह सेना अश्व को रक्षा करते हुवे इस प्रकार पाञ्चाल, कुरू , कुरोत्तर देशों को लाँघ कर मथुरा होते हुवे दशार्ण ( मध्य भारत के विदिशा, मुरैना के आसपास का क्षेत्र ) में प्रवेशित हुई ॥
सुहा संपन सेन सहित, सत्रुहन जहँ जहँ जाएँ ।
जन जन मुख हरि कीर्तन, कानन श्रवन सुहाए ॥
भ्राता शत्रुध्न उस सेना की शोभा से संपन्न होकर जहां जहां जाते । वहां के नागरिक के मुख से भगवान का कीर्तन-भजन उनके कानों में श्रुति गम्य होकर अति प्रिय लगते ॥
शुक्रवार, ०५ सितम्बर, २०१४
हरिहि कीरत करत मृदु बानी । करएँ सुआगत तहँ जुग पानी ॥
जसोगान श्रुत सह संतोखे । याचकिन्ह बहु भाँति परितोखें ॥
वहां मृदुल वाणी से पूरित श्रीरामचन्द्रजी की सपूर्ण सुयश की कथा ही सुनाई पड़ती । सभी जन युगल-पाणि से सेना का स्वागत करते । इस प्रकार प्रभु का यशोगान करने वालों से संतुष्ट होकर वे याचक गण को सभी प्रकार से परितोषित करते ॥
बिधा प्रबीन अचल संग्रामा । रहिहि सचिउ एक सुमति सुनामा ॥
बलि संग बलि तेज सों तेजस । समर भूमि मैं सचित सचेतस ॥
रघुवर की सभा में विधा- प्रवीण संग्राम में अचल सूक्ति नाम के एक सचिव था जो बली से भी अत्यंत बली एवं तेजों से भी तेज व् समर भूमि में सतर्क एवं प्रज्ञावान था ॥
रक्छत कच्छ आन सँग सोई । सत्रुहन के बर अनुचर होई ॥
तिनके संगति किए मह धीरा । पैठि ऐसेउ भारत भीरा ॥
वह सेना के पृष्ठ भाग का रक्षक एवं उसका अनुगामी होकर आया था वह भ्राता शत्रुध्न का श्रेष्ठ अनुचर था ॥ इस प्रकार महाधीर ने उसकी सुसंगतीप्रात कर मध्य भारत में प्रवेश किया ॥
अनेको जनांत किए पारा । अस्व किरन पर कोउ न धारा ॥
बिबिध देस धिनायक धिराया । समर सूर जानिहि बहु माया ॥
सेना ने अनेकों प्रांतों को पर किया किन्तु अश्व की किरण हरण करने का साहस किसी ने भी नहीं था ॥ विवध देश थे जिसमें राज भी थे राजाधिराज भी थे समर शूर भी थे जो बहुंत प्रकार की विद्या जानते थे ॥
अतुलित बल संग संपन, जुगए कटक चौरंग ।
सरबतस दच्छ रहि जदपि सर्ब धुरिन के संग ॥
वे अतुलनीय बल से संपन्न चतुरंगिणी पताकिनी सेना से युक्त थे । जो सर्वतस दक्ष एवं सभी प्रकार की वाहिनियों पर विजय प्राप्त करने के योग्य थी ॥
सेना -कक्ष
शनिवार, ०६ सितम्बर, २०१४
तद्यपि सकल भूपत उठि धाइ । सैन सुरक्छी चरन गहि आइ ॥
बार बार किए बिनइत निगदन । हे रामानुज हे रघुनन्दन ॥
तथापि सभी भूपत सैना के अभिभावक भ्राता शत्रुध्न के चरण सुश्रुता हेतु दौड़े आते । वे वारंवार विनम्रता पूर्वक यही कथन करते कि हे रामानुज ! हे रघुनन्दन !
राज पाट जुजुधान मान जस ।बंधु सहित तव हमरे सरबस ॥
गाँउ नगर नग नदी पहारा । तासु माहि किछु नहीं हमारा ॥
राज्यशक्ति, वीर योद्धा, मान-सम्मान, यश- कीर्ति, निकट सम्बन्धियों की समष्टि सहित हमारा सर्वस्व आप ही का है । यह गांव नगर यह पर्वत नदी ये पहाड़, इसमें लेशमात्र भी हमारा अंश नहीं है ॥
निगदे औरु का तासु अधिके । भगतिल भगत भगनंदनहि के ॥
सुनत तिन्हहि धरे बहु धीरा । समर मूर्धन् सत्रुहन बीरा ॥
इससे अधिक और क्या कहें । विश्वासी भक्त स्वयं भगनन्दन ही के हैं ॥ विपक्षी वीरों का हनन करने वाले संग्राम शूर में अग्रणी भ्राता शत्रुध्न उनके वचन धीरवंत होकर सुनते ॥
तेहि थरी निज आयसु घोषए । जनपर्दिन बहु बिधि परितोषए ॥
हर्षित मन तिन्हनि लिए संगा । चलए अगुसार कटक चतुरंगा ॥
उन स्थलों पर अपनी आज्ञप्ति की घोषणा करते हुवे जन पर्दिनों को बहुंत प्रकार से परितोषित करते । तदनंतर हर्षित मन से उन्हें संग लिए चतुरंगिणी कटक आगे बढ़ जाती ॥
किए जन पर्दिन पबित पुनीते । देस नहीं जन निलयन जीते ।
आए सरन सो नाथ अपनाएँ । हत कारिन हंतब जीतत जाएँ ॥
इस प्रकार जान शासकों को पापों से रहित कर वह सेना देशो पर नहीं अपितु हृदयों पर विजय प्राप्त करती । जो उअसके शरण अत संरक्षक उन्हें स्वीकार कर लेते जो हत हनन के योग्य हत-कारियों का सर्वनाश करते चलते ॥
अमित तेजस बीर बिक्रमी क्रमबर चरन बढ़ाए ।
अति रमनीअ अहिच्छत्रा पूरी पौर पैठाए ॥
इस प्रकार अतुलनीय तेज से युक्त वे पराक्रमी क्रमश: आगे बढ़ाते गए एवं (दक्षिण )पांचाल नामक रमणीय नगरी की ड्योढ़ी में प्रवेश किये ॥
अहिच्छत्रा = दक्षिण पांचाल
रविवार, ०७ सितम्बर, २०१४
जुगत धनुर धन जोजन बाना । रहे कटक भट अवध समाना ॥
जन नख रूप नेमि सम राऊ । सेन सत रिषि सुमद धर नाऊ ॥
उस नगरी के रक्षक धनुष एवं तीर-तूणीर से युक्त होकर अवध के रक्षकों के समतुल्य प्रतीत होते थे ॥ प्रजा पालक का नाम था । उस राज्य गगन वह स्वयं नेमि, प्रजा नक्षत्र के तो सेना सप्तऋषि के सदृश्य थी ॥
बसे जहाँ जन मानस नाना । दिविज राउ ब्रम्हन अन्याना ॥
बिषय बिमुख जितबारी लोका । पुरंजनी बर पुनी पुरौका ॥
वह रमणीय नगरी में ब्राह्मण एवं अन्यान्य द्विजों के सह नाना भांति के जनमानस निवासित थे । प्रजा विषय विमुख एवं जितात्मन् थी प्रजाजन श्रेष्ठि, प्रज्ञावान एवं पुण्य पुरुष थे ॥
सील बंत सब सद आचारी । अधर सत्य सम सुधा अधारी ॥
सो सुठि अस्थरि अनेकनेका । स्याम मनि सर परम प्रबेका ॥
बहु बिधान हिरन संग साजे । बिचित्र मनिक पथ कूल बिराजे ॥
ताड तोरन बढ़ावहि सोभा । दरसत बसति बसन मन लोभा ॥
सभी जन शीलवन्त एवं सदाचारी थे उनके अधरों पर सत्य स्वरूपी सुधा का आधार था ॥ उस सुन्दर सथली के तरोँसों पर नीलम हीरे आदि उत्तम रत्नों एवं स्वर्ण खचित अनेकानेक बहुरंगी प्रासाद सुसज्जित थे ॥ ऊँचे तोरणउस नगर की शोभा में वृद्धि कर रहे थे । जो उस वसति को देखता वह वहां वासित होने को लालायित हो जाता ॥
पौर पौर पूरित उद्यान । पुष्कल पुष्कर बहुत बिधाना ॥
सीत दीठ जहँ केतुहु कंता । छहो रितु संग बसे बसंता ॥
द्वारी द्वारि उद्यान सुशोभित हो रहे थे जो बहुंत सी प्रजाति के के पद्म पुष्पों से भरे हुवे थे । जहां केतुकांत की दृष्टि सदैव शीतल ही रहती थी एवं ऋतुराज वसंत छहों ऋतुओं के संग निवास करते थे ॥
उदोद्घाटन रतन धर, पग पग परबत माल ।
परसत रही प्रथम किरन तलहट ताल तमाल ॥
पग पग पर उदक एवं रत्नों को उद्घाटित करते हुवे पर्वत श्रृंग जिन्हे भोर की प्रथम किरण स्पर्श किया करती थी । तलहटी में सुन्दर ताल तमाल वृक्ष से शोभित थे ॥
सोमवार, ०८ सितम्बर, २०१४
दरसिहि एक बन बट संकासे । क्यारि क्यारि कुसुम बिकासे ॥
अवनत नभ नदि नर्तित नौका । तेहि नगर बर मानि पुरौका ॥
चूँकि वह नगरी उद्यानों से परिपूर्ण थी अत:उसके निकट जाते ही भ्राता शत्रुध्न को एक उद्यान दिखाई दिया । जिसकी क्यारी क्यारी में कुसुम विकसित थे । नतमस्तक नभ एवं नदी के संग नृत्य करती हुई नौकाएं । यह उद्यान सभी उद्यानों से श्रेष्ठ है ऐसा उस नगर के वासियों का कहना था ॥
सोई सुठि कानन पैसारे । हबि है इत उत चरत बिहारे ॥
हरिद परन गहि घन घन गाछे । अरु फिरि सत्रुहन पाछिहि पाछे ॥
उस सुन्दर उद्यान में प्रवेश कर मेधीय अश्व फिर जहाँ-तहाँ विचरण करने लगा । हरे-हरे पत्तों से युक्त वृक्षों के झुरमुट में भ्राता शत्रुध्न उसके पीछे हो लिए ॥
अनुगामिन भए अनुचर नेका । जुजुधान जूह माहि प्रबेका ॥
जहँ एक सुन्दर देउ निकाई । तहँ गमन तेहि देइ दिखाई ॥
योद्धाओं के झुण्ड में श्रेष्ठ योद्धा एवं अनेक अनुचर उनके अनुगामी हो गए ॥ उस उद्यान में एक सुन्दर देवालय भी स्थित था जो उन्हें अंतर्गत होने पर दिखाई पड़ा ॥
भीत भीत अस चिते चितेरे । परमम कृति जस कारू केरे ॥
लसे कंचन कलस कैलासा । देइ भास जस हिमधर कासा ॥
मंदिर की प्रत्येक भित्तियों को चितेरे ने ऐसे चित्रित किया था मानो वह उस कलाकार की परम कृति हो ॥ वह कैलाश के हिरण्य मयी कंगूरे के सदृश्य दमक रहा था एवं हिमालय पर्वत की कंचन मयी कांति को आभासित कर रहा था ॥
दसरथज रामानुज दृग , दरसिहि देवल जोह ।
आह !अनुपम अकस्मात् निकसे श्रीमुख सोंह ॥
दशरथ नंदन रामानुज के दृष्टि ने जैसे ही उस देवालय के दर्शन किए । आह! अनुपम ! उनके श्रीमुख से ये शब्द अनायास ही निकल पड़े ॥
मंगलवार, ०९ सितम्बर, २०१४
बहुरि भ्रात रघोत्तम जी के । सुमति सोंही प्रस्न किए नीके ॥
अहो सचिवबर मोहि बुझावा । मम दीठ जोइ दिरिस दिखावा ॥
धौला गृह उम उम उजियारा । सुरुचित कृत एहि भवन अकारा ॥
अहइँ का कोउ देव दुआरा । कि को राजाधिराज अगारा ॥
को हित कारन कृत को काजा । कहहु सो केहि हेतु बिराजा ॥
सुबुध सचिव अतीव सुग्याता । भंवर नगरजानिहि सब बाता ॥
पूछ बुझावत कहत बखाना । बीरबरसुनौ देइ ध्याना ॥
हिरनई भवन धरि दृढ नेई । इहँ बिराजित कामखा देई ॥
बंदनीअ जगज्जननी, के एक अरुअ सरूप ।
सर्वार्थानुसाधिनी, मंगल कारिनि रूप ॥
बुधवार, १० सितम्बर, २०१४
किए बहु अर्चन पूरब काला । अहिच्छत्रा पर के प्रतिपाला ॥
तब भगवती रूप कामखी । इहाँ बिराजित सोहिहि साखी ॥
तब सों भगतन के दुख हरिहइँ । मनोकामना पूरन करिहइँ ॥
जपन जोग देई के नामा । अस कहत सुमति करे प्रनामा ॥
अरिहंत सचिउ चरन नुहारा । प्रनमत सिरु नत बारहि बारा ।।
पूछिहि बांधत बचन के सेतु । प्रगसि देई इहाँ केहि हेतु ॥
कवन टप किए इहाँ के राऊ । पर ऐसेउ जसु प्रभाऊ ॥
सकल लोकिन्हि के महतारी । भयउ मुदित इहँ आन पधारी ॥
जगत प्रतीत एक परबत अहहीं । हेमकूट निगमागम कहहीं ॥
सकल देवन्हि के सँग सोहिहि । जहां एक बिमल तीरथ होहिहिं ॥
जो अगजग के महा रिसि अरु मुनिबर के ठोर ।
तहहीं अहिच्छत्रा राउ, करे तपस्या घोर ॥
बृहस्पतिवार, ११ सितम्बर, २०१४
तासु देस सामंत नरेसा । रहहि खल रहे भल के भेसा ॥
तपस्यारत नृप हेमकूटा । सोइ नरेस भयउ एक जूटा ॥
जोग जुगति सब मेल मिलाई । अहिच्छत्रा ऊपर किए चढ़ाई ॥
भल कि खलमन होहिहि जब एका । सौंह एकंग नल कील टेका ॥
नागर जन सह संत अराधे । मात पिता सँग किए हत बाधे ॥
पीड़ित पुरजन भए असहाई । गवनइ तहँ जहँ टप किए राई ॥
तीनि बछर लग एक पग ठाढ़े । ध्यात मात करे तप गाढ़े ॥
लगाए लोचन नासिक नोका । तेहि माझ कभु नभ न बिलोका ॥
ताहि परतस तीनि बछर, भखत सूखित पात ।
करत घोर कठोर ताप, भए अति दुर्बल गात ॥
शुक्रवार, १२ सितम्बर, २०१४
तीन बछर धरि नेम कठोरा । सीत काल जल गहि कोरा ॥
तापस रितु सेवत पंचागा । पावस उन्मुख तोए तड़ागा ॥
तीन बछर सो राउ सुबोधा । अंतर प्रान बायु अवरोधा ।।
बरे बर बरन बोलि सुबानी । जपे निरंतर नाउ भवानी ॥
तेहि काल दृग एक जग माई अबर न कोउ देइ देखाई ॥
बिधि मुष्टिका काल रज रीते । एहि बिधि दुआदस बरसि बीते ।
तपो बल देइ चरन हिलोले । सुरपत के सिंहासन डोले ॥
तपोसील जब राउ निहारे । तापर बहुतहि सोचि बिचारे ॥
ए तप निधि तप चरन संग, लीन्हि आसन जीत ।
मन ही मन सिहात सुरप, भए अतिसय भय भीत ॥
शनिवार, १३ सितम्बर, २०१४
अचिरम तमि षीचि बोलि पठाए । प्रिय बंधु बसंत लेइ बुलाए ॥
आए काम सुर सह परिबारू । बोलि सुरप मम कहि अनुहारू ॥
हे रे सखा सबहि मन मोही । सखता तव सख कर्मन जोही ॥
अहइँ मोर एक अति प्रिय काजा । तप चरनानुरत सुमद राजा ॥
काम बान जुगि तुहरी सोभा । कोटि कला सों उपजहि लोभा ॥
देउराउ के कहि सिरु धारे । मृदुलित बोलि चिंता न कारें ॥
करब मैं अवसि काजु तुहारा । मम सिरु पर तुहरे उपकारा ॥
बिनयाबत प्रनमत सुर नाथा । अस कह कमन कुटुम किए साथा ॥
अपछरा बृंद संग लिए, धर बसंत कर बाहि ।
संजुग हो चलेउ सकल, हेमकूट के पाहि ॥
रविवार, १४, सितम्बर, २०१४
पहुँच तहँ भए कमन कोदंडा । गह पंचम कौसुम सर षण्डा ॥
तब आपन प्रभाउ प्रस्तारा । कुञ्ज कुटीरु बसंत बिहारा ॥
गह गह गेह गेह तहवाँ के । प्रफुरित फुर नयन माहि झाँके ॥
डार डार कोइर कुहुकारी । कली कली चंचरि गुंजारी ॥
मंद चर सीतर बायु गंधे । तट तट लवंग कुसुम सुगंधे ।।
संगम करहि तलाउ तलाई । तपसि तपोबन तपस भुलाईं ॥
गहन सिंधु के बाहु बिसाला । बही चली करषत कृतमाला ।\
कोटि कला करि काम सहाई । कमन की सुहा सब कहुँ छाई ॥
सब के ह्रदय नयन अभिलाखा । लतिक निहारि नवहि तरु साखा ॥
भयउ पुहुप मय जब सब लोका । पुहुप केतु भर नैन बिलोका ॥
गह हरिद परनिका लह लतिका कुञ्ज कुञ्ज अरु गली गली ।
तरु तरु तरियाई,हरिअरि छाई भै कुसुमित कली कली ॥
भुज सेखर हारे कंठन घारे गुंजारे अली अली ।
गंधर्ब नगरि डगरि डगरि मंजुल गति गमनि चली ॥
सुर नारी मह महा नारी, आलि माहि महा आलि ।
सिरु बहु कर कंठ कलित, मंजिम मंजरि मालि ॥
सोमवार, १५ सितम्बर, २०१४
परम सुर नारि रम्भा नामा । रजत रूपसी नयनभिरामा ॥
घिरि सखिन्हि अस चहुँ फेरे । अलि प्रिया जस पुंडरी घेरे ॥
सकल सखिन्ह लिए संग माही । पहुँची सुमद अधि राउ पाहीं ॥
मुखरित मुख सों मँजीरि बाजे । गमन गति अस हंसिनी लाजे ॥
पटह नाद महुँ रही प्रबीनी । कोमल हृदय लय माहि लीनी ॥
कंठ बसाए छहो कल रागा । सुर संपन जिमि सोन सुहागा ॥
लखे सुमद पुनि बहु अनुरागा । सकल लजौनि भूषन त्यागी ॥
श्रुति मधुरित जब गान बिताने । सोइ अगान सुने जब काने ॥
भंगइ ध्यान जगे अधीसा । छबाय बसंत छटा छतीसा ॥
दीठ धववात चहुँ दिसा, लेख माहि नृप आनि ।
छंदब छाया मई किए कमान कला जग जानि ॥
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