Monday, 1 September 2014

----- ॥ उत्तर-काण्ड १८ ॥ ----

शुक्र/शनि, २९/३० अगस्त, २०१४                                                                                          

दनु देह बसी मति बिपरीता । एहि कारन निर्बल जिउ जीता ॥  

परबोधत अस रबि कुल कंता । किए बली देइ बल रिपुहंता ॥ 
दानव के देह में विपरीत बुद्धि का वास हो गया है गया है यही कारण है कि वह निर्बल निरीह जीवों पर अत्याचार कर रहा है ॥ रघु कुल कान्त श्रीरामजी  ने ऐसा प्रबोधन करते हुवे भ्राता शत्रुध्न को दानव के नाश हेतु दिव्य बल देकर  उन्हें बलवंत कर दिया था ॥ 

लेइ संग निज तनुभव दोई । समर सूर जग जीतन जोईं ॥ 
पैहत आयसु सैन पयाने । निह्नादत नभ बजे निसाने ॥
तब शत्रुध्न अपने दोनों पुत्रों के संग लिया और संसार के पाठकों पर विजय प्राप्त करने हेतु वीर युयुधान को  संजोया । जैसे ही सेना को उनकी आज्ञा प्राप्त हुई ।  वह नभ को निह्नादित करती हुई प्रयाण-पटह का वादन करते चली ॥ 

चाक चरन रथ दिए पथ दाने ॥ चले सहस दस छतर बिताने ।।
गरजत गज जूथ हय हिंसाए । धुर ऊपर धूरि धूसर छाए ॥
दस सहस्त्र रथ छत्रों से युक्त होकर अपने चक्रों से पथों पर चिन्ह अंकित किए चल पड़े । गज समूह गरजने लगे हाय हिनहिनाने लगे । धुर ऊपर धूलि की धूसरता छ गई ॥ 

दुंदुभि तुरहि संख मुख पूरयो । चपल कटक दनु लेइ घेरयो ।।
तरजें सुभट जूँ निसान हने । धनबन प्रति ध्वनि कहत न बने ॥
 मुख से दुदुंभियां, तुरही, शंख आदि स्वर-नाद निह्नादित होने लगे । तब विशाल कटक ने  लवणासुर को चपलतापूर्वक घेर लिया ॥ सैनिकों ने ऐसी जैसे नगाड़े ध्वनिवन्त् होते हैंउस तर्जना से  आकाश में जिस भांति की  प्रतिध्वनि उठी  वह वर्णनातीत  है ॥  

भए अस घमरौले घमंक बोले जसघनब घन घनकयो ।
घनबाही बादे  तस निह्नादे  बरखत जल बल झरयो  ।।
 उम उमगाई तरंग के नाई सींवा पारगमन करियो । 
एक एक बीर बिंदु जुगत भए बृन्दु सिंधु सरि रूप बरियो ॥ 
 वहां ऐसा घमासान मच गया, घूंसे मुष्टिक के प्रहार ऐसे बोलने लगे जैसे आकाश में घन मेघ गर्जना कर रहे हों । सैनिकों के प्रहार की धवनि हथौड़ी के चोट की धवनी जैसी ही थी ॥ उनका जल बना बल शत्रु के ऊपर बरस पड़ा ॥जैसे  तरंग तटों पर  उमड़ आती है वैसे ही वे सैनिक दनुज के  नगर की सीमा पारगमन करने लगे ॥ सेना के एक एक शूरवीर एक एक वीर बिंदु परस्पर संयोजित होकर  बिंदु-वृन्द हो गए, और  उन्होंने सिंधु के जैसा रूप वरण  कर लिया ॥


हँकारत चहुँ दिसि बाढ़त,  कोट कलस चढ़ि आन । 
रजरत रथ चरन रवनत रव मुख अनक निसान ।। 
शत्रुओं को युद्ध हेतु  आह्वान कर युधवीर चारों दिशाओं में बढ़ते हुवे कोट के कंगूरों पर चढ़ गए ॥ उस समय धुलीवंत होकर रथ चरणों से ध्वनि कर रहे हैं ढोल एवं डंके मुख से ध्वनिवन्त्  थे  ॥ 

तेजस तुरग तजे मख बेदी । हर्ष घोष किए गगन बिभेदी ॥ 
अमित बिक्रमी बीर बहुतेरे । घार घेर चहुँ फेरी घेरे  ॥ 
 गगन विभेदी हर्ष धवनी करते शक्तिशाली एवं प्रतापी वीर एकत्र हो गए ।  यज्ञ वेदी से त्यागा हुवे तेजस्वी राज स्कंद को  उन्होंने चारो ओर से घेर रखा था ॥ 

चले बाहि ले रथ कर पूला । छाए धुरोपर धूलहि धूला ॥ 
परिगत  कोट कटक लिए घेरी। दुहु पाँख मुख बजे रन भेरी ॥ 
रथ रश्मियों को मुट्ठा किए सारथी रथ लिए चल रहे थे धुर ऊपर धूल ही धूल छा गई थी ॥ दनुज के गढ़ पर व्याप्त  होकर उन्होंने उसकी सेना को चारों ओर से घेर लिया । फिर क्या था दोनों पक्ष से रण की भेरी बजने लगी ॥  

निज निज स्वामि जब जय बोले। डोलि कुधर भू समुद हिलोले ॥ 
जोड़ जुगत निज निज बल केरे । बाहु बलि किए पल माहि ढेरे ॥ 
जब वे अपने अपने स्वामियों का जयकारा लगाते पर्वत डोलने लगते,भूमि कांप उठती, समुद्र छलकने लगता  ॥ अपने अपने बल के  अनुसार जोड़ी बनाकर सुभट प्रतिभट को पल में ढेर कर देते ॥ 

 लरहि सुभट निज निज जय कारन । बर्नातीत रन बात्स्यायन ॥ 
कंठी माल किए काल कलिते । लवणासुर अनी भइ बिचलिते ॥ 
सभी भट प्रतिभट अपनी  अपनी विजय हेतु रणोत्कंठित थे  । हे मुनिवर वात्स्यायन ! यह युद्ध तो वर्णनातीत हुवा जा रहा है ॥ कारण की काल की कंठी माल को कलित किए लवणासुर की सेना विचलित हो गई ॥ 

चाप हरि चाप कटक घन, भए गरजन टंकार । 
होइहि नभ सन निरंतर , तीर तीर बौछार ॥   
हस्तगत  धनुर् इन्द्रधनुष हो गए,  कटक घन स्वरूप हो गई है । प्रत्यंचा की  टंकार मानो घन की गर्जना हो गई और नभ से निरंतर तीरों की वृष्टि होने लगी है ॥ 

धरे पुंख भए बान बिहंगा । उरत आन लगि अबयब अंगा ।।  
गूठे दनुज भयउ उतरंगा । पठइँ केतु मतंग सुत  संगा ॥ 
पुंख ( वाण का पंख युक्त पश्च देश)  धारण किए वाण  जैसे विहंग हो चले । वह गगन में विचरते हुवे आते और शरीर के अवयवों को बाधित करते । लवणासुर जो कहीं छिपा हुवा था वह क्षुब्ध हो गया । फिर उसने अपने दोनों पुत्रों केतु एवं मतंग को युद्ध भूमि में एक साथ उतारा  ॥ 


बलि सुबाहु बर सुत सत्रुहन के । अगुसरे मतंग मीच बन के ॥ 
 बाहु गुन  सीध बाँधत साधे । संधानि बान हिय हत बाधे ॥ 
शत्रुध्न के ज्येष्ठ सुपुत्र सुबाहु जो अत्यधिक बलवान था वह मतंग का काल बनते हुवे आगे बड़ा । उसकी भुजाओं ने लक्ष्य वेध कर प्रत्यंचा साधी  । संधानित वाण को मतंग के ह्रदय में उतार कर उसे हताहत कर दिया ॥ 

जूपकेतु लघु तनय  हँकारा  । करत कोप बहु केतु पचारा ॥ 
राम राम मुख मंत्र उचारे । दनु कर पद धार पहुम् पछारे ॥ 
लघु सुपुत्र यूपकेतु ने अत्यधिक क्रुद्ध होकर दानव के लघुज केतु को ललकारा ॥ मुख से राम नाम के मंत्र का उच्चारण किया और उस दानव के हाथ पाँव  पकड़ कर उसे भूमि पर दे मारा  ॥ 



दुष्ट दनुज तब किए छल छाया । सायुध सुर प्रगसे बन माया ।।  
भरम भीत भट भए हत चेते । केहि हेत किए केहि अहेते ॥ 
तब दुष्ट लवणासुर ने छल -कपट करते हुवे माया रची । उस माया से अायुधों  से युक्त होकर सुर का रूप धारण किए बहुंत से असुर प्रकट हो गए ॥ रामजी की  सेना के सैनिक भ्रम के वशीभूत होकर विस्मित से हो उठे  । उन्हें यह समझ  नहीं आया  की किससे प्रीति रखे किससे घृणा करें ॥ 

धरे कर कुधर खंड प्रचंडा । परिगत परिघ किए खंड खंडा ॥ 
सैल सूल श्रृंगी सृक छाँड़े । आन कटक चढ़ि आगिन बाढ़े ॥ 
उस  सुर-झुण्ड  के हाथों में पहाड़ों के प्रचंड खंड थे । जिसके आघात ने कोट में व्याप्त सैन्य व्यूह को छिन्न-भिन्न कर दिया । वे श्रृंगी शैल के सदृश्य शूल युक्त वाणों को त्यागते हुवे  कटक के ऊपर चढ़ाई कर आगे बढ़ आए ॥ 

सहस्त्रो सहस्त्र ससस्त्र, असुर केर सुर जूथ । 
रघुबर जुधा भयउ त्रस्त्र, लोकत बिबिध बरूथ ॥  
असुरों का यह सुर-यूथ सहस्त्रो-सहस्त्र शास्त्रों से युक्त था । भगवान श्रीराम जी के योद्धा मायावी झुण्ड को देखकर व्याकुल हो गए ॥ 

रविवार, ३१ अगस्त, २०१४                                                                                                    

उत दनुपत इत रघुबर नामा । लै अप्रतिबीर  किए जय कामा ॥ 
देखन्हि छल छाइ सुर ठट्टा । सु बिहिन भट्ट भयउ सुभट्टा ॥ 
उधर दनुज लवण की,  इधर अतुलनीय वीर प्रभु श्री राम के नाम लेकर विजय की कामना कर रहे थे ॥ सुर-यूथ का छल-कपट देख वे सुभट्ट सु विहीन हो  गए ॥ 

तब अरिहत प्रभु दिए बल जोगे । खैंच सरासन बान बिजोगे ।। 
तमहर कर भू तम हरन करे  । तस सर दनु केरि माया हरे ॥ 
तब रिपुहंत नेप्रभु श्रीरामचन्द्रजी द्वारा प्रदत्त बल का प्रयोग कर धनुष को खैंचकर उसे वाणों से विमुक्त किया । जैसे तमोध्न की रश्मियाँ धरती पर अवतरण कर उसके अन्धकार का हरा कर एटी हाँ वैसे ही उन वाण रूपी रश्मियों ने उस असुर की आसुरी माया को हर लिया ॥ 

आँगन सुर बृंदा बिनु देखे । बीर सुबाहु काल भर भेखे ॥ 
गहि गदा कहि खल सूल धारी ।  अजहुँ निरखिहु माया हमारी ॥ 
जब रणांगण को सुर-यूथ से विहीन देखा तब काल का वेश धारण किए वीर सुबाहु ने गदा ग्रहण कर लवणा सुर से कहा  रे दुष्ट ! रे शूल धारी ! अब तू हमारी माया देख ॥ 

खाल कर माल सूल सँभारे । अस कह उरस गदा दिए मारे । 
किए घींच अघात अस तेजा । सूल बल तेज किए निहतेजा ॥ 
रे अधमी करमालाओं में अपना शूल संभाल ले  । ऐसा कहकर उसने उस दनुज के  हृदयस्थल पर गदा दे मारा ॥ फिर उसके कंठी पर ऐसा तेज प्रहार किया कि उसके शूल के बल का तेज निस्तेज हो गया ॥ 

बान बिषिख काटे जाल, माया देइ बिखेर । 
लवनासुर मुरुछित परे, भूमि माझ भए ढेर ॥ 
श्रृंगी वाणों ने उस दुष्ट के कपट जाल को काटकर उसकी माया को छिन्न -भिन्न  कर दिया है । लवणासुर रन धरा के मध्य शायी 
होकर मूर्छित पड़ा है ॥ 

सोमवार, १ सितम्बर, २०१४                                                                                                     

डरपत प्रतिभट जहँ तहँ धाईं । रन रंगन सब  दिए बिसराई ॥  
तब रन बांकुर कैटभ नामा । दानउ दल मह बल के धामा ॥ 
 रन उत्कंठा का त्याग कर शत्रु पक्ष के सैनिक जहाँ-तहाँ भाग खड़े हुवे ॥ तब दानव दल में महा बलशाली कैटभ नाम का रणबांकुर : - 

दलाधिपत हत चेतस देखा । धरे तड़ित सम सूल बिसेखा ॥ 
जूपकेतु के सौमुख आवा । परम क्रोध किए संग जुझावा ॥ 
ने जब दलाधिपति को मूर्छित देखा तब वह तड़ित के सदृश्य विशेष शूल धारी दानव यूपकेतु के सम्मुख पकट हुवा और अत्यधिक क्रोध करते हुवे उसके साथ युद्ध करने लगा ॥ 

घात मर्म जब हिय दिए भेदा । घनमुख घन रस भयउ स्वेदा ॥ 
राम राम हाँ राम हँकारा । हत प्रभ लोचन भ्रात  निहारा ॥ 
उसने यूपकेतु के मर्म पर आघात कर उसके ह्रदय को भेद दिया । जिससे उसका मुख मेघ के सदृश्य हो गया एवं स्वेद बिंदु, मेघ बिंदु हो गई । वह राम नाम की पुकार करता हुवा हतप्रभ लोचन से भ्राता सुबाहु की ओर देखने लगा ॥ 

सुबाहु जब हत बंधू बिलोका । पचारि दनु चहुँपुर अबलोका ॥ 
लै  त्रै कोटिक बान कराले । छाँड़त बहे रुधिरु परनाले ॥ 

सुबाहु ने जब अपने बंधु को घायल अवस्था में देखा तब वह चारों ओर दृष्टि कर दनुज को ललकारने लगा ॥ उसने तीन करोड़ बाणों का संधान किया जब वह छूटे तब रुधिर के जैसे बड़ा  नाला बहने  लगा ॥ ( इन वाणों से कैटभ भी मारा गया ) 

इत  दानउ दल  सबहि बिधि, आजुध करत प्रजोग । 
उत दपटि, झपटि जोग हठि, सर गुन होत बिजोग  ॥  
इधर  दानव दल सभी प्रकार के आयुधों का प्रयोग कर रहे थे । उधर उधर प्रभु के सेनानियों के धनुर की प्रत्यंचाओं से वाण वियोजित होकर हाथ योग वरण किए उनपर टूट पड़ते ॥ 

मंगलवार, २ सितम्बर, २०१४                                                                                                       

 इत रघुकुल दीपक  भए आकुल  । उत सुबाहु दनु करत ब्याकुल ॥ 
आए अचिरम भ्रात संकासे । लगे साँग उर देइ निकासे ॥ 
इधर रघुकु के तिलक यूपकेतु झटपटा  रहा था ।  उधर सुबाहु क्रोधित होकर  दनुज को व्याकुल कर द्रुत गति से लघु भ्राता के निकट आया  उसने ह्रदय में लगे श्रृंग को निष्कासित कर दिया ॥ 

जूपकेतु सुहसित उठि ठाढ़े । बान निषंग मुठिक धरि बाढ़े ॥ 
निसिचर  के चेतनहु जाग्यो । देख लगी आपुनी लाग्यो ॥ 
श्रृंग के बाहर आते ही यूपकेतु सुहासित मुख से उठ खड़ा हुवा  । वह धनुष वाण को मुट्ठियों में कस कर आगे बढ़ा ॥इधर निशिचर लवण  की भी  चेतना जागृत हो उठी । रण संकुलता को देखकर वह स्वयं भी सम्मिलित हो गया ॥ 

चल्यो भ्रात कुमुक लिए संगा । हारिहि संग सेन चतुरंगा ॥ 
साजि बाजि गज  हनत निसाना । कोप निधाना बहु बलबाना ॥ 
उसने अपने भ्राता कुमुक को साथ लिया जो रघुवर की चतुरंगिणी सेना के सैनिकों द्वारा पराजित हो गया । तब घोड़े -हाथी की सेना सजा कर डंके बजाते हुवे क्रोध का भंडार एवं अत्यधिक बलशाली : -- 

लवनासुर तब भए संक्रोधा । अरिहंत संग सीधहि जोधा ।। 
उठे चिँगारी लागहि लोहा । रनांगण रज रुधिरु पथ जोहा ॥ 
लवणासुर अतिशय क्रोध के साथ सीधे रामानुज शत्रुध्न से भीड़ गया । लोहे बजने लगे चिंगारियां उठने लगी रण प्रांगण की धूल रक्तरंजित होने की प्रतीक्षा करने लगी ॥ 

 दनुज माझ भट भीर, सत्रुहन तकि लिए लस्तकी । 
छाँड़े तेजस तीर, श्रीराम चरन सुरति किए  ॥    
दनुज सैनिकों की भीड़ से के मध्य खड़ा था शत्रुध्न ने लस्तकी से उसका लक्ष्य किया और श्री राम के चरणों का स्मरण कर दिव्य तीर त्यागा ॥ 

बुधवार, ३ सितम्बर, २०१४                                                                                                      

धनु गुन बिथुरत चले नराचा । मर्म भेद लिगु लगे पिसाचा ॥
सुने मरण दनु जब सुर बृंदा । धरे चरन घन जान अलिंदा ॥ 
धनुष की बाहु रूपी प्रत्यन्चाओं से वियुक्त होकर वाण चले । मर्म भेदन करते हुवे वे सीधे पिशाच के ह्रदय में लगे ॥  देवताओं ने जब पिशाचों का मरण सुना तब उन्होंने घन रूपी यान के अलिंद में अपने पदुम चरण विराजित किए  : --  

चढ़ि चढ़ि नभ बैसत बहु हरषहिं । मुकुलित हस्त पुहुप पत्त बरखहि ॥ 
सत्रुहन तहाँ जुग  नगर रचाए । सासन सूत दुहु तनय धराए ॥ 
तत्पश्चात उसके अंदर में आसित होकर  नभ में चढ़ते हुवे वह अतिशय हर्षित हुवे । उनके मुकुलित हस्त से मेघ पुष्प की वर्षा होने लगी ॥ शत्रुध्न ने उस स्थान पर युगल नगरों की रचना की । उसके शासन की बागडोर अपने दोनों  पुत्रों के हाथों सौंप दी ॥ 

एक सूरप जासु जग जस गाए । दूजे  बिदित जिमि निगम कहाए ॥ 
सुबाहु भए सूरप महिपाला ।  बिदित देस नृप भए लघु लाला ॥ 
एक नगर का नाम मधुरा था संसार भर में जिसका यशगान होता है । दूसरे नगर का नाम विदित था जैसा वेदों में वर्णित है ॥ सुबाहु मथुरा नगरी के राजा हुवे । लघु पुत्र यूपकेतु विदित नमक स्थान के अजा हुवे ॥ 

सचिवन्हि सुत रखत  तिन संगा ।  अगुसरी पताकिनि चतुरंगा ॥ 
मेध अश्व किए सत्रुहन आगिन । भट सपयादिक भए अनुगामिन ॥ 
राम-राज्य के सचिव-पता उनके सचिव घोषित कर चतुरंगनी सेना आगे चली ॥ शत्रुध्न ने मेधीय अश्व को सेना कको सबसे आगे किया पयादिक सैनिकों सहित सेना उसके पीछे चलने लगी ॥ 

रजत रथ सुबरनइ रसन, बांधे बर बर बाहि । 
बरे गज गति सूर समर, अगूत अगुसर जाहि ॥ 
रजतमयी रथों में स्वर्णमयी रश्मियों से ऊतम उत्तम अश्व बंधे थे । समर शूर गौरव से पूर्णित धीमी चाल से आगे ही आगे बढ़ाते चले जा रहे थे ॥ 

बृहस्पतिवार, ४ सितम्बर, २०१४                                                                                       

चलेउ गह गह कटकु अपारा । बही बहा जस लहि बहु धारा ॥ 
कंठ घोष जिमि केहरि नादे । भय बरु बिहबल  करत प्रमादे ॥ 
फिर वह विशाल सेना उत्साहित होकर ऐसे चली जैसे बहुंत सी धाराओं को संग किए कोई नदी बही चली आ रही हो । सैनि-यूह  जब  केसरी के जैसे  गर्जना  करते  तब वह गर्जना  भय को भी व्याकुलित करते हुवे उसे विक्षिप्त कर देती ॥ 

एकै ताल अस  पग भू धरहीं । निज निज बल पौरुख उच्चरहीं ॥ 
हस्त मुकुल रबि मेघ गहाही । पथ पथ पख कौसुम बरखाही ॥ 
चरणों का परस्पर  मेल कर भू ऊपर अवधारित करात हुवे जैसे वे अपने अपने पौरुष का ही उच्चरण कर रहे हों । यह देखकर सूर्यदेव  के भी मुकुलित हस्त में मेघ उतर आते  । और वह पंथ पताः कुसुम वृष्टि करते जाते ॥ 

 अंसुक अस उत्तोलि पताका । जिमि तड़ाकत तड़ित रिपु ताका ॥ 
नेकानेक नगर नग आली । भँवर कारि बहु संपन साली ॥ 
राम-राज्य की ध्वजा-चिन्ह अपने अंशुक पर  ऐसे उत्तोलित हो उठी जैसे मेघों के मध्य तड़कती हुई तड़िता शत्रुओं को लक्ष्य कर रही हो ॥ भ्रमणशील एवं संपन्न शाली अनेकानेक  नगरों एवं पर्वत श्रेणियों : -- 

 सरित बनिक बन सैल नहाके । चले समीर बेगि हय हाँके ।।  
पँचाल कुरु कुरोतर देसे । नाँघ दसारन देस प्रबेसे ॥ 
सरिताएँ, वनिकाएँ, वन एवं शैल शिवालों को पार कर वायु के वेग से चलती हुई वह सेना  अश्व को रक्षा करते हुवे  इस प्रकार पाञ्चाल, कुरू , कुरोत्तर देशों को लाँघ कर मथुरा होते हुवे  दशार्ण ( मध्य भारत के विदिशा, मुरैना के आसपास का क्षेत्र ) में प्रवेशित हुई  ॥ 

सुहा संपन सेन सहित, सत्रुहन जहँ जहँ जाएँ । 
जन जन मुख हरि कीर्तन, कानन श्रवन सुहाए ॥   
 भ्राता शत्रुध्न उस सेना की शोभा से संपन्न होकर जहां जहां जाते । वहां के नागरिक के मुख से भगवान का कीर्तन-भजन उनके कानों में श्रुति गम्य होकर अति प्रिय लगते ॥  

शुक्रवार, ०५ सितम्बर, २०१४                                                                                                    

हरिहि कीरत करत मृदु बानी । करएँ  सुआगत तहँ जुग  पानी ॥ 
जसोगान श्रुत सह संतोखे । याचकिन्ह बहु भाँति परितोखें ॥ 
वहां मृदुल वाणी से पूरित श्रीरामचन्द्रजी की सपूर्ण सुयश की कथा ही सुनाई पड़ती  । सभी जन  युगल-पाणि से सेना का स्वागत करते । इस प्रकार प्रभु का यशोगान करने वालों से संतुष्ट होकर वे याचक गण  को सभी प्रकार से परितोषित करते ॥ 

बिधा प्रबीन अचल संग्रामा । रहिहि सचिउ एक सुमति सुनामा ॥ 
बलि संग बलि तेज सों तेजस । समर भूमि मैं सचित सचेतस ॥ 
रघुवर की सभा में विधा- प्रवीण संग्राम में अचल सूक्ति नाम के एक सचिव था जो  बली से भी अत्यंत बली एवं तेजों से भी तेज व् समर भूमि में सतर्क एवं प्रज्ञावान था  ॥ 

रक्छत कच्छ आन सँग सोई । सत्रुहन के बर अनुचर होई ॥ 
तिनके संगति किए मह धीरा । पैठि ऐसेउ  भारत भीरा ॥ 
वह सेना के पृष्ठ भाग का रक्षक एवं उसका अनुगामी होकर आया था  वह भ्राता  शत्रुध्न का श्रेष्ठ अनुचर था ॥ इस प्रकार महाधीर ने उसकी सुसंगतीप्रात कर मध्य भारत में प्रवेश किया ॥ 

अनेको जनांत किए पारा । अस्व किरन पर कोउ न धारा ॥ 
बिबिध  देस धिनायक धिराया । समर सूर जानिहि बहु माया ॥ 
सेना ने अनेकों प्रांतों को पर किया किन्तु अश्व की किरण हरण करने का साहस किसी ने भी नहीं था ॥ विवध देश थे जिसमें राज भी थे राजाधिराज भी थे समर शूर भी थे जो बहुंत प्रकार की विद्या जानते थे ॥ 

अतुलित बल संग संपन, जुगए कटक चौरंग । 
सरबतस दच्छ रहि जदपि सर्ब धुरिन के संग ॥ 
वे अतुलनीय बल से संपन्न चतुरंगिणी पताकिनी सेना से युक्त थे । जो  सर्वतस दक्ष एवं सभी प्रकार की वाहिनियों पर विजय प्राप्त करने के योग्य थी ॥ 

सेना -कक्ष 

शनिवार, ०६ सितम्बर, २०१४                                                                                                 

तद्यपि सकल भूपत उठि धाइ । सैन सुरक्छी चरन गहि आइ ॥ 
बार बार किए बिनइत निगदन । हे रामानुज हे रघुनन्दन ॥ 
तथापि सभी भूपत सैना के अभिभावक भ्राता शत्रुध्न के चरण सुश्रुता हेतु दौड़े आते । वे वारंवार विनम्रता पूर्वक यही कथन करते कि हे रामानुज ! हे रघुनन्दन !

राज पाट जुजुधान मान जस ।बंधु सहित  तव हमरे सरबस ॥ 
गाँउ नगर नग नदी पहारा । तासु माहि किछु नहीं हमारा ॥ 
राज्यशक्ति, वीर योद्धा, मान-सम्मान, यश- कीर्ति, निकट सम्बन्धियों की समष्टि सहित हमारा सर्वस्व आप ही का है । यह गांव नगर यह पर्वत नदी ये पहाड़, इसमें लेशमात्र भी हमारा अंश नहीं है ॥ 

 निगदे औरु का तासु अधिके । भगतिल भगत भगनंदनहि के ॥ 
सुनत  तिन्हहि धरे बहु धीरा  । समर मूर्धन् सत्रुहन बीरा ॥ 
 इससे अधिक और क्या कहें । विश्वासी भक्त स्वयं भगनन्दन ही के हैं ॥ विपक्षी वीरों का हनन करने वाले संग्राम शूर में अग्रणी भ्राता शत्रुध्न उनके वचन  धीरवंत होकर सुनते ॥ 
  
तेहि थरी निज आयसु घोषए । जनपर्दिन बहु बिधि परितोषए ॥ 
हर्षित मन तिन्हनि लिए संगा । चलए अगुसार कटक चतुरंगा ॥ 
उन स्थलों पर अपनी आज्ञप्ति की घोषणा करते हुवे जन पर्दिनों को बहुंत प्रकार से परितोषित करते । तदनंतर  हर्षित मन से उन्हें संग लिए  चतुरंगिणी कटक आगे बढ़ जाती ॥ 

किए जन पर्दिन  पबित पुनीते । देस नहीं जन निलयन जीते । 

आए सरन सो नाथ अपनाएँ  । हत कारिन हंतब जीतत जाएँ ॥ 
इस प्रकार जान शासकों को पापों से रहित कर वह सेना देशो पर नहीं  अपितु हृदयों पर विजय प्राप्त करती । जो उअसके शरण अत संरक्षक उन्हें स्वीकार कर लेते जो हत हनन  के योग्य हत-कारियों का सर्वनाश करते चलते ॥ 

अमित तेजस बीर बिक्रमी क्रमबर चरन बढ़ाए ।
अति रमनीअ अहिच्छत्रा पूरी पौर पैठाए ॥
इस प्रकार अतुलनीय तेज से युक्त वे पराक्रमी क्रमश: आगे बढ़ाते गए एवं (दक्षिण )पांचाल नामक  रमणीय नगरी की ड्योढ़ी में प्रवेश किये ॥ 



अहिच्छत्रा = दक्षिण पांचाल 

रविवार, ०७ सितम्बर, २०१४                                                                                                   

जुगत धनुर धन जोजन  बाना । रहे कटक भट अवध समाना ॥   
जन नख रूप नेमि सम राऊ । सेन सत रिषि सुमद धर नाऊ ॥ 
उस नगरी के रक्षक  धनुष एवं तीर-तूणीर से युक्त होकर अवध के रक्षकों के समतुल्य प्रतीत होते थे ॥ प्रजा पालक का नाम था । उस  राज्य  गगन वह स्वयं  नेमि,  प्रजा नक्षत्र के तो सेना सप्तऋषि के सदृश्य थी ॥ 

बसे जहाँ जन मानस नाना । दिविज राउ ब्रम्हन अन्याना ॥
बिषय बिमुख जितबारी लोका ।  पुरंजनी बर पुनी पुरौका ॥
वह रमणीय नगरी में ब्राह्मण एवं अन्यान्य द्विजों के सह नाना भांति के जनमानस निवासित थे । प्रजा  विषय विमुख एवं जितात्मन् थी प्रजाजन श्रेष्ठि, प्रज्ञावान एवं पुण्य पुरुष थे ॥ 

सील बंत सब सद आचारी । अधर सत्य सम सुधा अधारी ॥ 
सो सुठि अस्थरि  अनेकनेका । स्याम मनि सर परम प्रबेका ॥ 
बहु बिधान हिरन संग साजे । बिचित्र मनिक पथ कूल बिराजे ॥ 
ताड तोरन बढ़ावहि सोभा । दरसत बसति बसन मन लोभा ॥ 
सभी जन शीलवन्त एवं सदाचारी थे उनके अधरों पर सत्य स्वरूपी सुधा का आधार था ॥ उस सुन्दर सथली के तरोँसों पर नीलम हीरे आदि उत्तम रत्नों एवं स्वर्ण खचित अनेकानेक बहुरंगी  प्रासाद सुसज्जित थे ॥  ऊँचे तोरणउस नगर की शोभा में वृद्धि कर रहे थे । जो उस वसति को देखता वह वहां वासित होने को लालायित हो जाता ॥ 

पौर पौर पूरित उद्यान । पुष्कल 
पुष्कर बहुत बिधाना ॥ 
सीत  दीठ जहँ  केतुहु कंता । छहो रितु संग बसे बसंता ॥ 
द्वारी द्वारि उद्यान सुशोभित हो रहे थे जो बहुंत सी प्रजाति के के पद्म पुष्पों से भरे हुवे थे । जहां केतुकांत की दृष्टि सदैव शीतल ही रहती थी एवं ऋतुराज वसंत छहों ऋतुओं के संग निवास करते थे ॥ 

उदोद्घाटन रतन धर, पग पग परबत माल । 
परसत रही प्रथम किरन तलहट ताल तमाल ॥ 
 पग पग पर उदक एवं रत्नों को उद्घाटित करते हुवे पर्वत श्रृंग जिन्हे भोर की प्रथम किरण  स्पर्श किया करती थी ।  तलहटी में सुन्दर ताल  तमाल वृक्ष से शोभित थे  ॥ 

सोमवार, ०८ सितम्बर, २०१४                                                                                     

दरसिहि एक बन बट संकासे । क्यारि क्यारि कुसुम बिकासे ॥ 
अवनत नभ नदि नर्तित नौका  । तेहि नगर बर मानि पुरौका ॥ 
चूँकि वह नगरी उद्यानों से परिपूर्ण थी अत:उसके  निकट जाते ही भ्राता शत्रुध्न को एक उद्यान दिखाई दिया । जिसकी क्यारी क्यारी में कुसुम विकसित थे । नतमस्तक नभ एवं नदी के संग नृत्य करती हुई नौकाएं । यह उद्यान सभी उद्यानों से श्रेष्ठ है ऐसा  उस नगर के वासियों का कहना था ॥ 

सोई सुठि कानन पैसारे । हबि है इत उत चरत बिहारे ॥ 
हरिद परन  गहि घन घन गाछे । अरु फिरि सत्रुहन पाछिहि पाछे ॥ 
उस सुन्दर उद्यान में प्रवेश कर मेधीय अश्व फिर जहाँ-तहाँ विचरण करने लगा । हरे-हरे पत्तों से युक्त वृक्षों के झुरमुट में भ्राता शत्रुध्न उसके पीछे हो लिए ॥ 

अनुगामिन भए अनुचर नेका । जुजुधान जूह माहि प्रबेका ॥ 
जहँ एक सुन्दर देउ निकाई । तहँ गमन तेहि  देइ दिखाई ॥ 
योद्धाओं के झुण्ड में श्रेष्ठ योद्धा एवं अनेक  अनुचर उनके अनुगामी हो गए ॥  उस उद्यान में एक सुन्दर देवालय भी स्थित था जो उन्हें अंतर्गत होने पर  दिखाई पड़ा ॥ 

भीत भीत अस चिते चितेरे  । परमम कृति जस  कारू केरे ॥ 
लसे कंचन  कलस कैलासा । देइ  भास जस हिमधर कासा ॥ 
मंदिर की  प्रत्येक भित्तियों को चितेरे ने ऐसे चित्रित किया था मानो वह उस कलाकार की परम कृति हो ॥ वह कैलाश के हिरण्य मयी कंगूरे के सदृश्य दमक रहा था  एवं हिमालय पर्वत की कंचन मयी कांति को आभासित कर रहा था  ॥ 

दसरथज रामानुज दृग , दरसिहि देवल जोह । 
आह !अनुपम अकस्मात् निकसे श्रीमुख सोंह ॥ 
दशरथ नंदन रामानुज के दृष्टि ने जैसे ही उस देवालय के दर्शन किए । आह! अनुपम ! उनके श्रीमुख से ये शब्द अनायास ही निकल पड़े ॥ 

मंगलवार, ०९ सितम्बर, २०१४                                                                                          

बहुरि  भ्रात रघोत्तम जी के । सुमति सोंही प्रस्न किए नीके ॥ 
अहो सचिवबर मोहि बुझावा । मम दीठ जोइ दिरिस दिखावा ॥ 

धौला गृह उम उम उजियारा । सुरुचित कृत एहि भवन अकारा ॥ 
अहइँ का कोउ देव दुआरा । कि को राजाधिराज अगारा ॥ 

को हित कारन कृत को काजा । कहहु सो केहि हेतु बिराजा ॥ 
सुबुध सचिव अतीव सुग्याता । भंवर नगरजानिहि सब बाता ॥ 

पूछ बुझावत कहत बखाना । बीरबरसुनौ देइ ध्याना ॥ 
हिरनई भवन धरि दृढ नेई । इहँ बिराजित कामखा देई ॥ 

बंदनीअ जगज्जननी, के एक अरुअ सरूप । 
सर्वार्थानुसाधिनी, मंगल कारिनि रूप ॥ 

बुधवार, १० सितम्बर, २०१४                                                                                                

किए बहु अर्चन पूरब काला । अहिच्छत्रा पर के प्रतिपाला ॥ 
तब भगवती रूप कामखी । इहाँ बिराजित सोहिहि साखी ॥ 

तब सों भगतन के दुख हरिहइँ । मनोकामना पूरन करिहइँ ॥ 
जपन जोग देई के नामा । अस कहत सुमति करे प्रनामा ॥ 

अरिहंत सचिउ चरन नुहारा  । प्रनमत  सिरु नत  बारहि बारा ।। 
पूछिहि बांधत बचन के सेतु । प्रगसि देई इहाँ केहि हेतु ॥ 

कवन टप किए इहाँ के राऊ । पर ऐसेउ जसु प्रभाऊ ॥ 
सकल लोकिन्हि के महतारी । भयउ मुदित इहँ आन पधारी ॥ 

जगत प्रतीत एक परबत अहहीं । हेमकूट निगमागम कहहीं ॥ 
सकल देवन्हि के सँग सोहिहि । जहां एक बिमल तीरथ होहिहिं ॥ 

जो अगजग के महा रिसि अरु मुनिबर के ठोर । 
तहहीं अहिच्छत्रा राउ, करे तपस्या घोर ॥ 

बृहस्पतिवार, ११ सितम्बर, २०१४                                                                                           

तासु देस सामंत नरेसा । रहहि खल रहे भल के भेसा ॥ 
तपस्यारत नृप हेमकूटा । सोइ  नरेस भयउ एक जूटा ॥ 

जोग जुगति सब मेल मिलाई । अहिच्छत्रा ऊपर किए चढ़ाई ॥ 
भल कि खलमन  होहिहि जब एका । सौंह एकंग नल कील टेका ॥ 

नागर जन सह संत अराधे । मात  पिता सँग  किए हत बाधे ॥ 
पीड़ित पुरजन भए असहाई । गवनइ तहँ जहँ टप किए राई ॥ 

तीनि बछर लग एक पग ठाढ़े । ध्यात मात करे तप गाढ़े ॥ 
लगाए  लोचन नासिक नोका । तेहि माझ कभु नभ  न बिलोका ॥ 

ताहि परतस  तीनि बछर, भखत सूखित पात । 
करत घोर कठोर ताप, भए अति दुर्बल गात ॥ 

शुक्रवार, १२ सितम्बर, २०१४                                                                                                         


तीन बछर धरि नेम कठोरा ।  सीत काल जल गहि कोरा ॥ 
तापस रितु सेवत पंचागा । पावस उन्मुख तोए तड़ागा ॥ 

तीन बछर सो राउ सुबोधा । अंतर प्रान बायु अवरोधा ।। 
बरे बर  बरन बोलि सुबानी ।  जपे निरंतर  नाउ भवानी ॥ 

तेहि काल दृग एक जग माई अबर न  कोउ देइ देखाई ॥ 
बिधि मुष्टिका काल रज रीते । एहि बिधि दुआदस बरसि बीते । 

तपो बल देइ चरन  हिलोले । सुरपत के सिंहासन डोले ॥ 
तपोसील जब  राउ निहारे । तापर बहुतहि सोचि बिचारे ॥ 

ए  तप निधि तप चरन संग, लीन्हि आसन जीत । 
मन ही मन सिहात सुरप, भए अतिसय भय भीत ॥ 

शनिवार, १३ सितम्बर, २०१४                                                                                                    

अचिरम तमि षीचि बोलि पठाए । प्रिय बंधु बसंत लेइ बुलाए ॥ 
आए काम सुर सह परिबारू  । बोलि सुरप मम कहि अनुहारू ॥ 

हे रे सखा सबहि मन मोही । सखता तव सख कर्मन जोही ॥ 
अहइँ मोर एक अति प्रिय काजा । तप चरनानुरत सुमद राजा ॥ 

काम बान जुगि तुहरी सोभा । कोटि  कला सों  उपजहि लोभा ॥ 
देउराउ के कहि सिरु धारे । मृदुलित बोलि चिंता न कारें ॥ 

करब मैं अवसि काजु तुहारा । मम सिरु पर तुहरे उपकारा ॥ 
बिनयाबत प्रनमत सुर नाथा । अस कह कमन कुटुम किए साथा ॥ 

अपछरा बृंद संग लिए, धर बसंत कर बाहि । 

संजुग हो चलेउ सकल, हेमकूट के पाहि ॥ 

रविवार, १४, सितम्बर, २०१४                                                                                              

पहुँच तहँ भए कमन कोदंडा । गह पंचम कौसुम सर षण्डा ॥ 
तब आपन प्रभाउ प्रस्तारा । कुञ्ज कुटीरु बसंत बिहारा ॥ 

गह गह गेह गेह तहवाँ के । प्रफुरित फुर नयन माहि झाँके ॥ 
डार डार कोइर कुहुकारी । कली कली चंचरि गुंजारी ॥ 

मंद चर सीतर बायु गंधे । तट तट लवंग कुसुम सुगंधे ।। 
संगम करहि तलाउ तलाई । तपसि तपोबन तपस भुलाईं ॥ 

गहन सिंधु  के बाहु बिसाला । बही चली करषत कृतमाला ।\ 
कोटि कला करि काम सहाई । कमन की सुहा सब कहुँ छाई ॥ 

सब के ह्रदय नयन अभिलाखा । लतिक निहारि नवहि तरु साखा ॥ 
भयउ पुहुप मय जब सब लोका । पुहुप केतु भर नैन बिलोका ॥ 

गह हरिद परनिका लह लतिका कुञ्ज कुञ्ज अरु गली गली । 
तरु तरु तरियाई,हरिअरि छाई भै कुसुमित कली कली ॥ 
भुज सेखर हारे कंठन घारे गुंजारे अली अली । 
गंधर्ब नगरि डगरि डगरि मंजुल गति गमनि चली ॥ 

सुर नारी मह महा नारी, आलि माहि महा आलि । 
सिरु बहु कर कंठ कलित, मंजिम मंजरि मालि ॥ 

सोमवार, १५ सितम्बर, २०१४                                                                                              

परम सुर नारि रम्भा नामा । रजत रूपसी नयनभिरामा ॥ 
घिरि  सखिन्हि अस चहुँ फेरे । अलि प्रिया जस पुंडरी घेरे ॥ 

सकल सखिन्ह लिए संग माही । पहुँची सुमद अधि राउ पाहीं ॥ 
 मुखरित मुख सों मँजीरि बाजे । गमन गति अस हंसिनी लाजे ॥ 

पटह नाद महुँ रही प्रबीनी । कोमल हृदय लय माहि लीनी ॥ 
कंठ बसाए छहो कल रागा ।  सुर संपन जिमि सोन सुहागा ॥ 

लखे सुमद पुनि बहु अनुरागा । सकल लजौनि भूषन त्यागी ॥ 
श्रुति मधुरित जब गान बिताने । सोइ अगान सुने जब काने ॥ 

भंगइ ध्यान जगे अधीसा । छबाय बसंत छटा छतीसा ॥ 

दीठ धववात चहुँ दिसा, लेख माहि नृप आनि । 
छंदब छाया मई किए कमान कला जग जानि ॥ 





























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