देखि रतिपतहु राउ जग आए । बहुरि पंचम सर पुंज चढ़ाए ॥
मयन कंटकी मुख मदनीआ । मदिरायतनैनी सरि तीआ ॥
संग आतुर गयउ नृप पाछे । चोट कारिन ओट किए गाछे ॥
एक सुर नारी ऐतक माही । सुमद सौंह घन पलक नचाही ॥
अति मन मोहक मुख मुद्रा बरे । अरु मंजुल गति सों निरत करे ॥
दुज सुर नारी सुमुख ठाढ़ी । कटाख निपात आगिन बाढी ॥
अति मन मोहक मुख मुद्रा वरण किए वह अप्सरा स्वयं भी मंजुल गति से नृत्य करने लगी ॥ तदनन्तर दूसरी अप्सरा सुमद के सम्मुख आई एवं कुटिल कटाक्ष निपात कर आगे बढ़ गई ।।
भाउ भंगिम बर मनोहारी । सेष षीचि चहुँ कोत बिहारी ॥
मंजुल गमना अस चहुँ फेरे । जितात्मन सिरुमनि लिए घेरी ॥
मनोहारी चेष्टाओं के संग शेष सभी अप्सराएं चारों दिशाओं में विहार करने लगी ॥ इस प्रकार इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वालों के शिरोमणि राजा सुमद को मंजुल गमनाओं ने चारों ओर से घेर लिया था ॥
तब पुरंजनी पुराधिप, भयऊ चिंतावान ।
कहत ए नारि करनी सँग , तप माहि ब्यबधान ॥
तब प्रज्ञावानों की नगरी के अधीश यह कहते हुवे चिंतित हो उठे । कि इन नारियों की करनी से तो मेरे तप में व्यवधान व्युतपन्न हो जाएगा ॥
बुध/बृहस्पति , १७/१८ सितम्बर, २०१४
एहि सब सुरपत कही पधारिहि । ते तासुहि अग्या अनुहारिहि ॥
अस भल भाँति बिबेचन कारे । बिन अस बचन उचारे ॥
हे सुर नारीं देई रम्भा । तुअ मम हुँत सरूप जगदम्बा ॥
जासु रूप सों अगजग भ्राजे । जोइ मम मन मंदिरु बिराजे ॥
ये अप्सराएं इंद्रदेव की प्रेरणा से ही यहां उपस्थित हुई हैं । ये उनकी आज्ञा का अनुशरण कर रही हैं ॥ इस प्रकार घटनाक्रम का भली भांति विवेचन कर सुमद विनयनवत होकर ऐसे वचन कहे : -- हे नारियों ! देवी रम्भा ! तुम मेरे लिए जगदम्बा के सदृश्य हो ॥ जिनके रूस्वरूप से यह संसार कांतिमान होता है जो मेरे मन मंदीर में विराजित है ॥
कहे कमन तुअ इहाँ बिलासिहु । सुरेकित सुरग सुख संभासिहु ॥
भाउ लीन मैं जेहि अराधा । सुंदरी तुम्ह घरिहउ बाधा ॥
कामदेव की प्रेरणा से ही तुम इतस्तत: भ्रमण कर रही हो । एवं स्वरैक्य स्वरूप में स्वर्ग के मनोहारिणी अनुभूतियों को संभाषित कर रही हो ॥ श्रद्धा एवं प्रेम में लीं होकर मैं जिनकी आराधना कर रहा हूँ हे सुंदरियों तुम उसमें व्यवधान उत्पन्न कर रही हो ॥
जासु कृपा कटाख के सोही । सत्य लोक पह बिधि मह होहीं ॥
तासु कृपा सहुँ सिवारि सिरि का । एहि हिरनमई सुमेरु गिरि का ॥
जिनकी कृपा कटाक्ष के द्वारा विधता ने सत्यलोक को प्राप्त करने में सफल हुवे । तब उनकी कृपा से शिवारि कामदेव एवं बसंत क्या यह स्वर्णमयी सुमेरु गिरी भी तुच्छ है ॥
तनि संताप किछु पुन संगा । करिहि सोइ दनु ताप प्रसंगा ॥
दीन्हि मात मोहि बरदाना । सौमुख सो सुख तृनइ समाना ॥
जिसे किंचित संताप एवं क्वचित पुण्य के साथ हो वह दानवों को व्याकुल कर देता है ॥ माता मुझ जो वरदान प्रदान करेंगी उसके सम्मुख तुम्हारे द्वारा किया गया स्वर्ग का सुख तृण के तुल्य है ॥
भूप बचनन कमन कन धारे । कुटिल भृकुटि कर करे प्रहारे ॥
राग रंग बहु भाँति लोभाए । परम धीर नहि चलहिं चलाए ॥
भूप के वचन जब वसंत बंधू के कानों में पड़े तब वे भृकुटि को कुटिल कर प्रहार करने में अभिरत रहे । राग-रंग नेउन्हें बहुंत प्रकार से लुभाया किन्तु परम धीर सुमद कमन के चलाए नहीं चले ॥
घनी घनी पाखा कुटिल कटाखा पथ मदन नयन उतरे ।
चंचल चित सन चरनालिंगन नुपूर रुर झंकार करे ॥
फिरि चहुँ फेरे पर मोह न घेरे बिहनइ तब हार बरे ।
तपरत नृप धूरे जैसे अहुरे तैसेउ बहुरत चरे ॥
गहरी पलकें उअपर कुटिल दृष्टि पथ से मदन नयनों में उत्तर गए चंचल चित्त से चरणों के आलिंगन हुवे घुंघरुओं से मधुर झंकार करने लगे । वे दिशा-विहार करने लगे तथापि जब राजा सुमद उनके मोहपाश में नहीं बंधे तब अन्त्तत: उन्होंने पराजय स्वीकार कर ली । तब वे तपनिष्ठ राजा के निकट जैसेआए थे वैसे ही लौट चले ॥
अरु बोलि पुरंदर सोहि, करि मुख घन गंभीर ।
राऊ अहैं जितात्मन् महस्बान अति धीर ॥
तथा लौटकर मेघों के सदृश्य गंभीर मुख मुद्रा वरण कर देवराज इंद्र से बोले : -- हे नाथ ! वह राजा जितेन्द्रिय, महस्वान एवं धीर- प्रशांत है ॥
( अत: उनपर हमारी छल माया नहीं चल सकती )
इत जग मोहि भगवती माई । परिखत अति दृढ चेतस राई ॥
प्रगसि देइ तिन दरसन साखा । जसु रूप लखि रबि सम लाखा ॥
इधर विश्व मोहिनी माता भगवती दृढ चेतस भूप परिक्षण कर देवी साक्षात प्रकट हो गई । उनका स्वरूप ऐसा था जैसे लाखों सूर्य एक साथ उदयमान हो गए हों ॥
तेजसी मुख चतुर भुज धारी । धनु सर अंकुस पाँसुल भारी ॥
अगन मई जब साखि निहारा । भयऊ महिपत मुदित अपारा ॥
उनका श्री मुख अति तेजस्वी था उनकी चार भुजाओं ने धनुष, वाण, अंकुश एवं भारी पाश ग्रहण किए थे ।सुमद ने जब अग्नि माई के साक्षात दर्शन किए तब अत्यधिक प्रमुदित हो गया ॥
सीस धरे कर देइ सुहासी । भूपत रोमावली बिकासी ॥
प्रनमत प्रनदित मात पुकारे । पद रज सिरु धर बारहि बारे ॥
देवी उनके सिर ऊपर हाथ रखे सुहासित मुद्रा में थी । भूपत की रोमावली हर्ष से युक्त हो गई । प्रणाम कर गुंजार कराती हुई ध्वनि से माता माता की पुकार करते हुवे उनके चरण धूलि को वारंवार शिरोधार्य करने लगे ॥
भरे अन्तह करन अस भावा । भाउ प्रबन् किछु मुख नहि आवा ॥
बोलि अधर गद गद सुर सोंही । अस्तुति आपनि आपहि होंही ॥
उनके अंत: कारन में ऐसी श्रद्धा से पूरित हो गया की भावुकता वष उनके मुख से कुछ बोला नहीं गया ॥ तब दंताच्छादन से गद गद स्वर के संग शब्दायमान हो उठे उनसे स्वमेव ही देवी स्तुति होने लगी ॥
जयति जय महा देइ भवानी सर्व कामद सर्बग्या ।
सर्वार्थानुसाधिनि सर्बत्र वासिनि सर्व जन के अर्ध्या ॥
श्रुतिमुख सह देवा सुरपत करिहैँ तुहरि सेवा साधना ।
नर मुनि बृंदा तव चरनरविंदा करे पूजन अर्चना ॥
हे देवी ! हे भवानी ! आपकी जय हो समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली शक्ति स्वरूपा । हे सर्वार्थानुसाधिनी सर्वत्र निवास करने वाली समस्त विश्व में पूज्यनीय । विधि सुर सहित सुरपति तुम्हारी सेवा साधना करते हैं । नर मुनि वृन्द तुम्हारे चर्णारविन्दु की पूजा अर्चना करते हैं ॥
जननि तेज सों बिस्वपा, रयनइ करत बिहान ।
बाहिर अंतर थीत हो,करे जगत कल्यान ॥
जननी का ही तेज लेकर विश्वपा रयनी को प्रभात में परिवर्तित करते हैं । एवं अंतर वाम बाह्य जगत में स्थित होकर विश्व का कल्याण करते हैं ॥
शनिवार, १९ सितम्बर, २०१४
बिस्व मोहिनी बिष्नुहु माया । बड़ भागी तव दरसन पाया ॥
केसर बाहिनी अदिति रूपा । तेजस्बी हे सक्ति सरुपा ॥
हे विश्व मोहिनी ! हे विष्णु की महामाया । मेरा बड़ा सौभाग्य हुवा जो आपके दर्शन प्राप्त हुवे । हे केशर वाहिनी ! आप अदिति का रूप हैं । हे तेजस्वी आप शक्ति का स्वरूप हैं ॥
हित काँछी जग पातक हारिनि । दानउ दल बादल संहारिनि ॥
जीव जुगत जग पालन हारिनि । आपही तिन्ह मोहित कारिनि ॥
आप जगत के कल्याण की आकांक्षी हो एवं उसके पातकों का हरण करने वाली हो । आप दानवों के बड़े बड़े दलों का संहार करने वाली हो । जीवों से युक्त इस जगत का पोषण करने वाली हे देवी ! उन जीवों को मोह पाश में बांधने वाली आप ही हो ।
सुर नर रिषि मुनि जो जग दुखिआ । पाए सिद्धि तव भए सब सुखिआ ॥
को घर जब संकट पद चीन्हि । तव सुमिरन तिन मोचित कीन्हि ।।
सुर हो नर हों कि ऋषि मुनिवर हों जग में जो भी दुखी रहता है वह वह आप की सिद्धियां प्राप्त कर सुखी हो जाता है ॥ किसी घर को जब संकट के चरण चिन्हित कर लेते हैं तब आपका स्मरण ही उस संकट से मुक्त करता है ॥
मैं सेवक तुम मम स्वामिनी । मैं खल कामि तुम हित कामिनी ॥
दया सरित निज सुत सम लखिहौ । पालत मोहि सब बिधि रखिहौ ॥
मैं सेवक हूँ आप स्वामिन हैं । मैं दुष्ट हूँ लम्पट हूँ आप कल्याण की आकांक्षी हैं हे दया की सरिता मुझे अपने पुत्र के सदृश्य संज्ञान कर मेरा सभी प्रकार से पालन पोषण करते हुवे मेरी रक्षा कीजिए ॥
एहि बिधि सुमद किए अस्तुति कृपा दीठ जनि राखि ।
प्रमुदित होत नृप ऊपर, अरु अति मधुरित भाखि ॥
सुमति ने कहा :-- इस प्रकार सुमद ने माता की स्तुति की तब अपनी कृपा दृष्टि रखते हुवे माता उस भूपति के ऊपर प्रसन्न हो गईं । एवं सुमद से उन्मुख होते हुवे अत्यंत मधुर स्वर में कहा : --
रविवार, २० सितम्बर, २०१४
हे रे मोरे तपसी बच्छर । माँगु दान मह को उत्तम बर ॥
भाउ पूरनित भगति बिसेखी । हे तपकर तव निहिठा मैं देखी ॥
तुहरी काई कस कृष जोहीं । अजहुँ तव तापस पूरन होंही ॥
मात बचन रास जब कन धारी । पुनी पुरुष भए पुलकित भारी ॥
मेरे तपस्वी पुत्र ! तुम मुझसे दान में कोई उत्तम वर मांगों । श्रद्धा से युक्त यह भक्ति विशिष्ट है ( मैं इस भक्ति से अभिभूत हूँ ) हे तपोमय ! तुम्हारी निष्ठां मैने देखी । तपस्या के कारणवश तुम्हारा शरीर दुर्बल हो चला है रे तनुभव ! अब यह तपस्या पूर्ण हुई ॥ पुण्यात्मा सुमद माता के ऐसे वचन सुनकर अतिशय पुलकित हो उठा ॥
अकंटक राज गयउ बहोरें । मम भगति तव चरन महु होरे ।।
पार गमन भव सिंधु बिहाना । पुरंजनी मांगे बरदाना ॥
फिर उस प्रज्ञावान ने खोया हुव अकंटक राज्य लौटाने, जगन्माता भवानी के चरणों में अविचल भक्ति, तथा अंत में संसार सागर से पारगमन करने वाली मुक्ति स्वरूप नैया का वरदान माँगा ॥
सुनत सुमद जब जननि सुहासी। मंजु मुकुल कुल प्रफुल बिकासी ॥
जगज भवानी कही एवमस्तु । मिलहिं तोहि मन चाही बस्तु ॥
सुमद के ऐसे वचन श्रवण कर जब महामाया सुहासित हुईं तब मंजुल मंजुल मुकुलों का समुदाय प्रफुल्लित होकर विकसित हो गया ॥ फिर जगज भवानी ने कहा : -- तथास्तु ! तुम्है तुम्हारी मनोवांछित वस्तुएं अवश्य ही प्राप्त होंगी ॥
दनु हन पातक हरन हुँत, जब प्रभु लिहि अवतार ।
अस्व मेध आहूत तव, होइहि राखन हार ॥
दानवों का दमन करने तथा पातकों का नाश करने जब प्रभु पृथ्वी पर अवतरित हिन्ज तब अश्व मेध यज्ञ का आयोजन कर वह तुम्हारे संरक्षक होंगे ॥
सोमवार, २१ सितम्बर, २०१४
अकंटक राज सह बर दाईं । पुनि भूपत भग्नापद पाईं ॥
गदगद गिरा नयन बह नीरा । गुन गावत भए पुलक सरीरा ॥
इस प्रकार माता ने भूपति को अकंटक राज्य का वर दान दिया । तत्पश्चात भूपति सुमद को भग्नापद की प्राप्ति हुई तब उसकी वाणी गदगद हो गई उसके नयनों से नीर झरने लगा तब माँ भवानी का यशोगान करते हुवे उसका शरीर पुलकित हो उठा ॥
देवासुर दुहु सों अभिवन्दिनि । अस जग पूजनि अभिनन्दिनि ।।
भगत बछर कर दै बारदाना । जननी भई अन्तरध्याना ॥
देव एवं दानव दोनों से ही अभिवन्दित एवं जगत भ में पजा अभिनन्दन के योग्य मातु भवानी ने अपने भक्त पुत्र को वरदान दे कर अंतर्ध्यान हो गई ॥
पुनि नृप कुटिलक देस बिद्रोही । सींवा लगे खेह के द्रोही ॥
दुष्ट दनुज सह सकल खल हने । अहिच्छत्रा के पुनि राउ बने ॥
फिर नृप ने कूट रचना करने वाले देश विद्रोहियों तथा राज्य की सीमा रेखा से लगे क्षेत्रों के द्रोहियों एवं दानवों के सहित समस्त दुष्टों पर विजय प्राप्त की । वे अहिच्छत्रा राज्य के पुनश्च भूप हुवे ॥
एहि सो राउ रजे जो नगरी । एहि अकंटक राज के डगरी ॥
अस सुन सत्रुहन नृप बल तोले । सुबुध सुमत तब तत्पर बोले ॥
यही वह राजा सुमद हैं यही वह नगरी है जहां उनका राज्य है । यह वह मार्ग है जो उस अकंटक राज्य की ओर ले जाता है । ऐसा सुनकर भ्राता सत्रुध्न सुमद की शक्ति के न्यूनाधिक्य पर विचार कर ही रहे थे कि मतिवन्त सुमत तत्पर होकर बोले --
जदपि सुमद बल बाहि सहि समर्थ सबहि बिधान ।
तदपि प्रभु चरन रति धरे, निज पत तिन्हनि मान ॥
हे महानुभाव ! यद्यपि राजा सुमद बल व् युद्धोपकरण के सह सभी विधि से सामर्थ्यवान हैं तथापि उनका अनुराग प्रभु श्रीराम चन्द्र जी के चरणों में ही स्थापित है वे उन्हें ही अपना स्वामी मानते हैं ॥
मंगलवार, २२ सितम्बर, २०१४
सो हवनिअ है हरन कस करिही । जो अपनी रति प्रभु पद धरिही ।।
तापर मातु भगत सो राया । जगज्जननि के कर बरदाया ॥
प्रभु श्री रामचन्द्रजी के चरणों में ही जिसकी श्रद्धा हो फिर वह उनके मेधीय अश्व का हरण कैसे कर सकते हैं ॥ उसपर वह धर्मभृत् जगज्जननी का भक्त है एवं उनके द्वारा दिए गए वरदान का ग्राही है ॥
सुने सुमति मुख सुमद बखाना । रामानुज मन महु सुख माना ॥
साधु साधु के बरन उचारे । जय जय जय कहि जगत अधारे ॥
राजमानुष सुमति के मुख से राजसिंह सुमद का वृत्तांत श्रवण कर श्री रामचन्द्र जी के अनुज के मन में सुख की अनुभूति हुई । वे 'साधु -साधु ' शब्द का स्वरघोष करते हुवे जगताधार की जय जय कार करने लगे ॥
छबि मुख दर्पन दीठ धराई । हरषित हलरन बरनि न जाई ॥
उत अहिच्छत्रा जन के नाथा । घिरे रहे सेवकगन साथा ॥
प्रभु की छवि दृष्टि रूपी दर्पण में उत्तर आई । हर्ष के कारण उस दर्पण की चंचलता वर्णनातीत है ॥ उधर अहिच्छत्रा जन के स्वामी अपने सेवकों से घिरे हुवे थे ॥
सभा सिखर सिंहासन राजे । तापर सो सुख सहित बिराजे ॥
श्रुता नबित बिद्वज्जन संगे । ने कोविद के बचन प्रसंगे ॥
सभा के शिखर भाग में सिंहासन राजित था उसपर वह राजाधिराज सुख सहित विराजमान थे ।। वेदज्ञ व् विद्वज्जनों उनके संग थे ने कोविद की नीति-वचनों का प्रसंग प्राप्त कर रहे थे ॥
धन धान्य सोंह संपन, धनिमन कृषक कुबेरु ।
अरु पुरंजनी प्रजा जन, घेरी गहि चहुँ फेर ॥
धन्य धन्य से संपन्न धनेश के सदृश धनवान कृषकगण एवं प्रज्ञवान प्रजा जन ने उन्हें चारों और से घेर रखा था ॥
बुधवार, २२ सितम्बर, २०१४
ते नउ साज जोउ के नाईं । राउ भवन के सुहा बढ़ाई ॥
को बिषयन नृप कहे परंतू । तेहि अवसर एकु अगंतू ॥
वे नवल साज-सामग्री के समरूप राज भवन की शोभा का संवर्द्धन कर रहे थे ॥ किसी विषय पर शंका व्यक्त करते हुवे प्रजा पालक ने जैसे ही परन्तु कहा तभी एक आगंतुक : --
आन बिनयत कहत गोसाईं । विचरत एक है देइ दिखाई ॥
न जान कहँ सों जान कवन के । लच्छन कहि है को राजन के ।।
ने आकर विनयपूर्वक कहा : -- स्वामी ! नगर के निकट एक राजस्कंद विचरण करता दर्शित हुवा है । वह न जाने कहाँ से आया है एवं जाने किसका है : -उसके लक्षण अभिकथन कर रहे हैं कि वह किसी राजाधिराज का स्कन्द है ॥
गौर बरन बर भूषन हारे । एक सुठि पटरी बँधे लिलारे ॥
रेख बरन लिखनी अस आँटे । हिरन किरन जस हिमबर साँटे ॥
वह गौर वर्ण है उसने उत्तम आभूषण सहित मणि मालाएं धारण की हुई हैं उसके मस्तक पर एक सुन्दर पत्री बंधी हुई है। उस पत्री की रेखाओं में लेखनी ने वर्णों को ऐसा गुंथा है जैसे किसी ने स्वर्णमई किरणों में मोतियों को सांठ रखा हो ॥
बाजि बरनन दूतक कह पाए । नृप निज अनुचर ए कहत पठाए । ।
प्रबसि नगरी सो है कवन के । ए भेद लगाएँ भेदक बन के ॥
दूत ने जैसे ही अश्व का सौंदर्य व्याख्या समाप्त की । प्रजापति ने अपने एक अनुचर को यह कहते हुवे उस अश्व के पास भेजा कि जिसने हमारे नगर की सीमाओं का अतिक्रमण किया है वह अश्व है किसका है जाओ भेदक बन कर यह भेद लाओ ।।
चपल अनुचर भेद लए आने । कहनई बिहनइ सँग बखाने ॥
चतुरंगिनी सैन सोंह आगे । चले अस्व ते राम त्यागे ॥
अनुचर छापा था वह तत्काल ही अश्व का भेद ले आया । उसने अश्व से सम्बंधित कहानी का व्याख्यान करना प्रारम्भ करते हुवे कहा महाराज ! जो अश्व चतुरंगिणी सेना के अग्रसर होकर चलायमान है वह जगत्पति प्रभु श्रीरामचन्द्रजी द्वारा त्यागा हुवा है ॥
मह जुजुधान सों सेवित नृप जब लिए संज्ञान ।
भय बिस्मित हबिरु है के साईं कृपा निधान ॥
महतिमह योद्धा उसकी सेवा में अनुरत है । प्रजापति सुमद को जब यह संज्ञान हुवा कि उस मेधीय अश्व के स्वामी कृपा निधान श्री रामचन्द्र जी हैं वह हतप्रभ हो गए ॥
बृहस्पतिवार, २५ सितम्बर, २०१४
तब अहिच्छत्रा के प्रतिपाला । चित चढ़ि आए प्राक्तन काला ॥
सबन्हि पुरजन अस आयसु दाई । आए दुअरिआ हमरे साईं ।
तब अहिच्छत्रा राज्य के प्रजापाल को अपना प्राक्तन समय स्मरण हो आया ॥ कामाख्या देवी के वरदान का ध्यान कर सभी नागरिक गण के प्रति सुमद द्वारा यह आदेश हुवा कि द्वार पर हमारे स्वामी का आगमन हुवा हैं॥
जो मेधीअ है संग आईं ॥ सो सब हमहि कुटुम के नाईं ।।
सब जन निज निज भवन दुआरे । तोरन माला संग सँवारें ॥
जो मेधीय अश्व के संग आए हैं वे सभी हमारे स्वजन समरूप हैं ॥ सभी नगरवासी अपने अपने भवन द्वारि को तोरण मालाओं के संग सुसज्जित करें ॥
तब लिए परिगह सुत सह रागी । गवन रिपु हंत चरनन लागी ॥
कहे राउ बड़ भाग हमारे । धाति धरा अरु मेघ पधारे ॥
ऐसा आदेश करने के पश्चात अपने परिग्रहों ,पुत्रों एवं अनुरागियों का साथ किये राजा सुमद शत्रुध्न के पास गए , वहां जाकर उन्होंने शत्रुध्न के चरण पकड़ लिए ॥ उन्होंने कहा : - हे राजन ! हमारा परम सौभाग्य ही है कि धरा प्यासी है और मेघों का आगमन हुवा ॥
मुख सों जपत श्रीहरिः नामा । बहुरी बहुरी करे प्रनामा ॥
कहि तव दरसन होउँ कृतारथ । असहाए मिलिहि सहज सहारथ ॥
वे मुख से श्रीहरि नाम का जाप करते हुवे पुरजन सहित उन्हें वारंवार प्रणाम करते हुवे क्रमश; बोले : -- आपका दर्शन प्रसाद प्राप्त कर मैं कृतार्थ हो गया । इस असहाय को सहायता सहज ही सुलभ हो गई ॥
आपनि श्री दरसन पैह, भयउ मोर सत्कार ।
बिभु छत्र छाइ संग होहि, दासोपर उपकार ॥
आपके ये श्री दर्शन प्राप्त कर स्वयं मेरा ही सत्कार हुवा । यदि विभो की छत्र छाया भी प्राप्त हो जाए तो यह दास कृत कृत हो जाएगा ॥
शुक्रवार, २६ सितम्बर, २०१४
चिर काल लग जिन्हनि अगोरा । आगमनु सोइ मेधिअ घोरा ॥
जगज जननि देई कामाखी । पूरब समउ मोहि जस भाखी ॥
जिसके लिए मैं चिरप्रतीक्षित था अधुनातन उस मेधीय अश्व का आगमन हुवा । जगज्जननी देवी कामाख्या ने पूर्व कल में मुझसे जैसा सम्भाषण किया ॥
सो सब अधुनै पूर्ण होई । रहे अजहूँ संसै न कोई ।।
तात मोहि निज भ्रातहि लेखौं । पद चिन्हत मम नगरी देखौ ॥
वह सब इस समय पूर्ण हो गया अब मरे मन मानस में कोई संसय नहीं रहा । हे तात ! आप मुझे अपना भ्राता ही समझते हुवे अपने चरण चिन्ह अंकित कर कृपया मेरी नगरी के दर्शन कीजिए ॥
अस कह नृप मुख ससि सम भ्राजा । आनई अचिरम एक गज राजा ॥
पुष्कल सह माह बीर अरोही । पीठ अपन पो आसित होही ॥
तासु अग्या सिरौ पर धारे । वादन धर जब कहि अनुहारे ॥
कहुँ दुंदुभि तुरही कहुँ भेरी । कंठ कूजिका कहुँ सुर हेरी ॥
अरु सकल तुमुल धूनि, चारु कोत बिस्तारि ॥
हरिअरि नगरि नागरि गन, सत्रुहन चरन जुहारि ॥
शनि/रवि , २७/२८ सितम्बर, २०१४
बिकीरनन रघु कुल सुजस केतु । कहि बढ़े सोइ सुभ ताति हेतु ॥
सूर बीर के संग सुसोहित । करत द्युति पत द्युति तिरोहित ॥
जिमि प्रभु रिपुहंत निग्रह माही । अगन जल पवन दरसन दाही ॥
अहिच्छत्रा पुर जस चरन धरे । जन जन अवतरन मंगल करे ॥
अस्व रतन कर रस्मिहि धारे । पैठिहि प्रभु जब राज अगारे ॥
द्वार तुरंगि तोरन साजे । दरसिन मुख सों तुरही बाजे ॥
चले रघु राइ आगिन आगे ।पुरौधिप तासु पाछिनु लागे ।।
जगज जीवन अनुज भर भेसे । राउ प्रासादु माहि प्रबेसे ॥
बैठि बरासन रिपु हंत राम बन सुमद करतल पद गहे ।
निलय निर्झरी नयन सोत करी अरु झर झर नीर बहे ॥
लगे पखारन पद बिंदु माल बन तल अवतरित अमृत भए ।
भूपत अस लाखा सङ्कृत तरु साखा लागिहि जिमि फल नए ॥
अर्चनीअ कृत अर्चना, दीन्हि अति सम्मान ।
आपनि सकल श्री सम्पद धरे चरनिन्ह लान ॥
तेजोमई ब्रम्हन पुनि , कहत सेष भगवान ।
बहुरि जन जन भए उत्सुक श्रवनन राम अगान ॥
सत्रुहन नृप तुषित दीठ लाखे । मधुरित धूनि संग संभासे ॥
सरसती कंठ अवतर आईं । राम चरित के कथा सुनाईं ॥
सरस गान जब गुन अनुवादें । वादन आपनि आपहि वादे ॥
बल रूप बिबाहु जब बाँचे । राग रागिनी रंगत नाचे ॥
पितु अग्या दिए भए बनबासी । तुमुल धूनि पर छाए उदासी ॥
चाखत सबरी बद्रिका दीने । नंद नदी मह जन जन लीने ॥
जब ऐ दनुज छल भेस भरे । छल छाया करे जननी हरे ॥
भटके बिपिन राम सिय हीना । होत द्रवित सब दया अधीना ।।
बाँध उदधि श्री राम जब , लंका पर चढ़ आए ।
हनत दनुज ले आन जनि, जन जन देइ बधाए ॥
सोमवार,२९ सितम्बर, २०१४
बोलि सुमद पुनि रामानुज ते । हे अर्चनीअ हे महामते ।
अगजग के जो सिरु मनि अहहैं । सोइ अवध सुख सहित तो रजिहैं ॥
जड़ चेतन के राखन हारे । पाप हनन भू लिए अवतारे ॥
तासु मुख अरविंदु पटतर दिए । भगती मकरंद जो पान किए ॥
सो सबहि आपनि धन्य माने । लोचन दर्पन प्रभु छबि दाने ॥
सुमद नयन भर कँह कर जोरी । अजहुँ कुल रीति नरबर मोरी ॥
राउ भूअ सह सकल सँजोई । हेतिहि हेतुहु कृतफल होई ॥
द्रवित दया सों होवनिहारा । मैं बड़ भागी बोल निहारा ॥
कामाखी देइ साखी, दरसन पूरब काल ।
करिहि कृपा बड़ मोहि पर, धरे सिरौ कर ताल ॥
मंगलवार, ३० सितम्बर, २०१४
नर मह केसर महीअस बीरा । गभस्तिमन मुख गद गद गीरा ॥
तीनि रयन सत्रुहन तँह होरी । लेइ अनुमति बहुरन बहोरी ॥
जान सुमद रिपुहंत अभिप्राय । आपनी तनय लक तिलक दाए ।।
अहिच्छत्राधिस तब सब अनुचर । नाना समदन समदित कर ॥
कनकाभूषन बहु बिचित्र रतन । नयनाभिराम बहु भेस बसन ॥
भूरि अरिहंत धरि कोदंडा । लिए चतुरंगिनि सैन प्रचंडा ॥
है गज रथ सह सुमद प्रसंगा । बहुग्य सचिव बर जुधा संगा ॥
पयादिक सोंह अगहुँ पयाने । राम प्रताप सुरत सुख माने ॥
चलि सैन सहित पयादिहि, मग नग नद किए पार ।
पैठ पयोषिनी नदि तट, चरन द्रुतै गति कार ॥
मयन कंटकी मुख मदनीआ । मदिरायतनैनी सरि तीआ ॥
संग आतुर गयउ नृप पाछे । चोट कारिन ओट किए गाछे ॥
एक सुर नारी ऐतक माही । सुमद सौंह घन पलक नचाही ॥
रतिनाथ ने भी जब देखा कि पुराध्यक्ष जागृत हो गए । तब उन्होंने पंचम वाण ( लालकमल, नील कमल अशोक, आम एवं चमेली के पुष्प ) का पुनश्च संधान किया । सात्त्विक अनुराग जनित रोमांच, राग जनित करने वाली मुखाकृति से युक्त मदनयनी रति को संग किए वे तत्परता पूर्वक अहिच्छत्राधीश के पीछे गए । ललित प्रहार के उद्देश्य से तत्काल ही वृक्षों के आश्रित हो गए ॥ इतने में ही अप्सराओं के समूह में से एक अप्सरा सुमद के सम्मुख हुई उसकी पलकें नृत्यरत थीं ॥
अति मन मोहक मुख मुद्रा बरे । अरु मंजुल गति सों निरत करे ॥
दुज सुर नारी सुमुख ठाढ़ी । कटाख निपात आगिन बाढी ॥
अति मन मोहक मुख मुद्रा वरण किए वह अप्सरा स्वयं भी मंजुल गति से नृत्य करने लगी ॥ तदनन्तर दूसरी अप्सरा सुमद के सम्मुख आई एवं कुटिल कटाक्ष निपात कर आगे बढ़ गई ।।
भाउ भंगिम बर मनोहारी । सेष षीचि चहुँ कोत बिहारी ॥
मंजुल गमना अस चहुँ फेरे । जितात्मन सिरुमनि लिए घेरी ॥
मनोहारी चेष्टाओं के संग शेष सभी अप्सराएं चारों दिशाओं में विहार करने लगी ॥ इस प्रकार इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वालों के शिरोमणि राजा सुमद को मंजुल गमनाओं ने चारों ओर से घेर लिया था ॥
तब पुरंजनी पुराधिप, भयऊ चिंतावान ।
कहत ए नारि करनी सँग , तप माहि ब्यबधान ॥
तब प्रज्ञावानों की नगरी के अधीश यह कहते हुवे चिंतित हो उठे । कि इन नारियों की करनी से तो मेरे तप में व्यवधान व्युतपन्न हो जाएगा ॥
बुध/बृहस्पति , १७/१८ सितम्बर, २०१४
एहि सब सुरपत कही पधारिहि । ते तासुहि अग्या अनुहारिहि ॥
अस भल भाँति बिबेचन कारे । बिन अस बचन उचारे ॥
हे सुर नारीं देई रम्भा । तुअ मम हुँत सरूप जगदम्बा ॥
जासु रूप सों अगजग भ्राजे । जोइ मम मन मंदिरु बिराजे ॥
ये अप्सराएं इंद्रदेव की प्रेरणा से ही यहां उपस्थित हुई हैं । ये उनकी आज्ञा का अनुशरण कर रही हैं ॥ इस प्रकार घटनाक्रम का भली भांति विवेचन कर सुमद विनयनवत होकर ऐसे वचन कहे : -- हे नारियों ! देवी रम्भा ! तुम मेरे लिए जगदम्बा के सदृश्य हो ॥ जिनके रूस्वरूप से यह संसार कांतिमान होता है जो मेरे मन मंदीर में विराजित है ॥
कहे कमन तुअ इहाँ बिलासिहु । सुरेकित सुरग सुख संभासिहु ॥
भाउ लीन मैं जेहि अराधा । सुंदरी तुम्ह घरिहउ बाधा ॥
कामदेव की प्रेरणा से ही तुम इतस्तत: भ्रमण कर रही हो । एवं स्वरैक्य स्वरूप में स्वर्ग के मनोहारिणी अनुभूतियों को संभाषित कर रही हो ॥ श्रद्धा एवं प्रेम में लीं होकर मैं जिनकी आराधना कर रहा हूँ हे सुंदरियों तुम उसमें व्यवधान उत्पन्न कर रही हो ॥
जासु कृपा कटाख के सोही । सत्य लोक पह बिधि मह होहीं ॥
तासु कृपा सहुँ सिवारि सिरि का । एहि हिरनमई सुमेरु गिरि का ॥
जिनकी कृपा कटाक्ष के द्वारा विधता ने सत्यलोक को प्राप्त करने में सफल हुवे । तब उनकी कृपा से शिवारि कामदेव एवं बसंत क्या यह स्वर्णमयी सुमेरु गिरी भी तुच्छ है ॥
तनि संताप किछु पुन संगा । करिहि सोइ दनु ताप प्रसंगा ॥
दीन्हि मात मोहि बरदाना । सौमुख सो सुख तृनइ समाना ॥
जिसे किंचित संताप एवं क्वचित पुण्य के साथ हो वह दानवों को व्याकुल कर देता है ॥ माता मुझ जो वरदान प्रदान करेंगी उसके सम्मुख तुम्हारे द्वारा किया गया स्वर्ग का सुख तृण के तुल्य है ॥
भूप बचनन कमन कन धारे । कुटिल भृकुटि कर करे प्रहारे ॥
राग रंग बहु भाँति लोभाए । परम धीर नहि चलहिं चलाए ॥
भूप के वचन जब वसंत बंधू के कानों में पड़े तब वे भृकुटि को कुटिल कर प्रहार करने में अभिरत रहे । राग-रंग नेउन्हें बहुंत प्रकार से लुभाया किन्तु परम धीर सुमद कमन के चलाए नहीं चले ॥
घनी घनी पाखा कुटिल कटाखा पथ मदन नयन उतरे ।
चंचल चित सन चरनालिंगन नुपूर रुर झंकार करे ॥
फिरि चहुँ फेरे पर मोह न घेरे बिहनइ तब हार बरे ।
तपरत नृप धूरे जैसे अहुरे तैसेउ बहुरत चरे ॥
गहरी पलकें उअपर कुटिल दृष्टि पथ से मदन नयनों में उत्तर गए चंचल चित्त से चरणों के आलिंगन हुवे घुंघरुओं से मधुर झंकार करने लगे । वे दिशा-विहार करने लगे तथापि जब राजा सुमद उनके मोहपाश में नहीं बंधे तब अन्त्तत: उन्होंने पराजय स्वीकार कर ली । तब वे तपनिष्ठ राजा के निकट जैसेआए थे वैसे ही लौट चले ॥
अरु बोलि पुरंदर सोहि, करि मुख घन गंभीर ।
राऊ अहैं जितात्मन् महस्बान अति धीर ॥
तथा लौटकर मेघों के सदृश्य गंभीर मुख मुद्रा वरण कर देवराज इंद्र से बोले : -- हे नाथ ! वह राजा जितेन्द्रिय, महस्वान एवं धीर- प्रशांत है ॥
( अत: उनपर हमारी छल माया नहीं चल सकती )
इत जग मोहि भगवती माई । परिखत अति दृढ चेतस राई ॥
प्रगसि देइ तिन दरसन साखा । जसु रूप लखि रबि सम लाखा ॥
इधर विश्व मोहिनी माता भगवती दृढ चेतस भूप परिक्षण कर देवी साक्षात प्रकट हो गई । उनका स्वरूप ऐसा था जैसे लाखों सूर्य एक साथ उदयमान हो गए हों ॥
तेजसी मुख चतुर भुज धारी । धनु सर अंकुस पाँसुल भारी ॥
अगन मई जब साखि निहारा । भयऊ महिपत मुदित अपारा ॥
उनका श्री मुख अति तेजस्वी था उनकी चार भुजाओं ने धनुष, वाण, अंकुश एवं भारी पाश ग्रहण किए थे ।सुमद ने जब अग्नि माई के साक्षात दर्शन किए तब अत्यधिक प्रमुदित हो गया ॥
सीस धरे कर देइ सुहासी । भूपत रोमावली बिकासी ॥
प्रनमत प्रनदित मात पुकारे । पद रज सिरु धर बारहि बारे ॥
देवी उनके सिर ऊपर हाथ रखे सुहासित मुद्रा में थी । भूपत की रोमावली हर्ष से युक्त हो गई । प्रणाम कर गुंजार कराती हुई ध्वनि से माता माता की पुकार करते हुवे उनके चरण धूलि को वारंवार शिरोधार्य करने लगे ॥
भरे अन्तह करन अस भावा । भाउ प्रबन् किछु मुख नहि आवा ॥
बोलि अधर गद गद सुर सोंही । अस्तुति आपनि आपहि होंही ॥
उनके अंत: कारन में ऐसी श्रद्धा से पूरित हो गया की भावुकता वष उनके मुख से कुछ बोला नहीं गया ॥ तब दंताच्छादन से गद गद स्वर के संग शब्दायमान हो उठे उनसे स्वमेव ही देवी स्तुति होने लगी ॥
जयति जय महा देइ भवानी सर्व कामद सर्बग्या ।
सर्वार्थानुसाधिनि सर्बत्र वासिनि सर्व जन के अर्ध्या ॥
श्रुतिमुख सह देवा सुरपत करिहैँ तुहरि सेवा साधना ।
नर मुनि बृंदा तव चरनरविंदा करे पूजन अर्चना ॥
हे देवी ! हे भवानी ! आपकी जय हो समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली शक्ति स्वरूपा । हे सर्वार्थानुसाधिनी सर्वत्र निवास करने वाली समस्त विश्व में पूज्यनीय । विधि सुर सहित सुरपति तुम्हारी सेवा साधना करते हैं । नर मुनि वृन्द तुम्हारे चर्णारविन्दु की पूजा अर्चना करते हैं ॥
जननि तेज सों बिस्वपा, रयनइ करत बिहान ।
बाहिर अंतर थीत हो,करे जगत कल्यान ॥
जननी का ही तेज लेकर विश्वपा रयनी को प्रभात में परिवर्तित करते हैं । एवं अंतर वाम बाह्य जगत में स्थित होकर विश्व का कल्याण करते हैं ॥
शनिवार, १९ सितम्बर, २०१४
बिस्व मोहिनी बिष्नुहु माया । बड़ भागी तव दरसन पाया ॥
केसर बाहिनी अदिति रूपा । तेजस्बी हे सक्ति सरुपा ॥
हे विश्व मोहिनी ! हे विष्णु की महामाया । मेरा बड़ा सौभाग्य हुवा जो आपके दर्शन प्राप्त हुवे । हे केशर वाहिनी ! आप अदिति का रूप हैं । हे तेजस्वी आप शक्ति का स्वरूप हैं ॥
हित काँछी जग पातक हारिनि । दानउ दल बादल संहारिनि ॥
जीव जुगत जग पालन हारिनि । आपही तिन्ह मोहित कारिनि ॥
आप जगत के कल्याण की आकांक्षी हो एवं उसके पातकों का हरण करने वाली हो । आप दानवों के बड़े बड़े दलों का संहार करने वाली हो । जीवों से युक्त इस जगत का पोषण करने वाली हे देवी ! उन जीवों को मोह पाश में बांधने वाली आप ही हो ।
सुर नर रिषि मुनि जो जग दुखिआ । पाए सिद्धि तव भए सब सुखिआ ॥
को घर जब संकट पद चीन्हि । तव सुमिरन तिन मोचित कीन्हि ।।
सुर हो नर हों कि ऋषि मुनिवर हों जग में जो भी दुखी रहता है वह वह आप की सिद्धियां प्राप्त कर सुखी हो जाता है ॥ किसी घर को जब संकट के चरण चिन्हित कर लेते हैं तब आपका स्मरण ही उस संकट से मुक्त करता है ॥
मैं सेवक तुम मम स्वामिनी । मैं खल कामि तुम हित कामिनी ॥
दया सरित निज सुत सम लखिहौ । पालत मोहि सब बिधि रखिहौ ॥
मैं सेवक हूँ आप स्वामिन हैं । मैं दुष्ट हूँ लम्पट हूँ आप कल्याण की आकांक्षी हैं हे दया की सरिता मुझे अपने पुत्र के सदृश्य संज्ञान कर मेरा सभी प्रकार से पालन पोषण करते हुवे मेरी रक्षा कीजिए ॥
एहि बिधि सुमद किए अस्तुति कृपा दीठ जनि राखि ।
प्रमुदित होत नृप ऊपर, अरु अति मधुरित भाखि ॥
सुमति ने कहा :-- इस प्रकार सुमद ने माता की स्तुति की तब अपनी कृपा दृष्टि रखते हुवे माता उस भूपति के ऊपर प्रसन्न हो गईं । एवं सुमद से उन्मुख होते हुवे अत्यंत मधुर स्वर में कहा : --
रविवार, २० सितम्बर, २०१४
हे रे मोरे तपसी बच्छर । माँगु दान मह को उत्तम बर ॥
भाउ पूरनित भगति बिसेखी । हे तपकर तव निहिठा मैं देखी ॥
तुहरी काई कस कृष जोहीं । अजहुँ तव तापस पूरन होंही ॥
मात बचन रास जब कन धारी । पुनी पुरुष भए पुलकित भारी ॥
मेरे तपस्वी पुत्र ! तुम मुझसे दान में कोई उत्तम वर मांगों । श्रद्धा से युक्त यह भक्ति विशिष्ट है ( मैं इस भक्ति से अभिभूत हूँ ) हे तपोमय ! तुम्हारी निष्ठां मैने देखी । तपस्या के कारणवश तुम्हारा शरीर दुर्बल हो चला है रे तनुभव ! अब यह तपस्या पूर्ण हुई ॥ पुण्यात्मा सुमद माता के ऐसे वचन सुनकर अतिशय पुलकित हो उठा ॥
अकंटक राज गयउ बहोरें । मम भगति तव चरन महु होरे ।।
पार गमन भव सिंधु बिहाना । पुरंजनी मांगे बरदाना ॥
फिर उस प्रज्ञावान ने खोया हुव अकंटक राज्य लौटाने, जगन्माता भवानी के चरणों में अविचल भक्ति, तथा अंत में संसार सागर से पारगमन करने वाली मुक्ति स्वरूप नैया का वरदान माँगा ॥
सुनत सुमद जब जननि सुहासी। मंजु मुकुल कुल प्रफुल बिकासी ॥
जगज भवानी कही एवमस्तु । मिलहिं तोहि मन चाही बस्तु ॥
सुमद के ऐसे वचन श्रवण कर जब महामाया सुहासित हुईं तब मंजुल मंजुल मुकुलों का समुदाय प्रफुल्लित होकर विकसित हो गया ॥ फिर जगज भवानी ने कहा : -- तथास्तु ! तुम्है तुम्हारी मनोवांछित वस्तुएं अवश्य ही प्राप्त होंगी ॥
दनु हन पातक हरन हुँत, जब प्रभु लिहि अवतार ।
अस्व मेध आहूत तव, होइहि राखन हार ॥
दानवों का दमन करने तथा पातकों का नाश करने जब प्रभु पृथ्वी पर अवतरित हिन्ज तब अश्व मेध यज्ञ का आयोजन कर वह तुम्हारे संरक्षक होंगे ॥
सोमवार, २१ सितम्बर, २०१४
अकंटक राज सह बर दाईं । पुनि भूपत भग्नापद पाईं ॥
गदगद गिरा नयन बह नीरा । गुन गावत भए पुलक सरीरा ॥
इस प्रकार माता ने भूपति को अकंटक राज्य का वर दान दिया । तत्पश्चात भूपति सुमद को भग्नापद की प्राप्ति हुई तब उसकी वाणी गदगद हो गई उसके नयनों से नीर झरने लगा तब माँ भवानी का यशोगान करते हुवे उसका शरीर पुलकित हो उठा ॥
देवासुर दुहु सों अभिवन्दिनि । अस जग पूजनि अभिनन्दिनि ।।
भगत बछर कर दै बारदाना । जननी भई अन्तरध्याना ॥
देव एवं दानव दोनों से ही अभिवन्दित एवं जगत भ में पजा अभिनन्दन के योग्य मातु भवानी ने अपने भक्त पुत्र को वरदान दे कर अंतर्ध्यान हो गई ॥
पुनि नृप कुटिलक देस बिद्रोही । सींवा लगे खेह के द्रोही ॥
दुष्ट दनुज सह सकल खल हने । अहिच्छत्रा के पुनि राउ बने ॥
फिर नृप ने कूट रचना करने वाले देश विद्रोहियों तथा राज्य की सीमा रेखा से लगे क्षेत्रों के द्रोहियों एवं दानवों के सहित समस्त दुष्टों पर विजय प्राप्त की । वे अहिच्छत्रा राज्य के पुनश्च भूप हुवे ॥
एहि सो राउ रजे जो नगरी । एहि अकंटक राज के डगरी ॥
अस सुन सत्रुहन नृप बल तोले । सुबुध सुमत तब तत्पर बोले ॥
यही वह राजा सुमद हैं यही वह नगरी है जहां उनका राज्य है । यह वह मार्ग है जो उस अकंटक राज्य की ओर ले जाता है । ऐसा सुनकर भ्राता सत्रुध्न सुमद की शक्ति के न्यूनाधिक्य पर विचार कर ही रहे थे कि मतिवन्त सुमत तत्पर होकर बोले --
जदपि सुमद बल बाहि सहि समर्थ सबहि बिधान ।
तदपि प्रभु चरन रति धरे, निज पत तिन्हनि मान ॥
हे महानुभाव ! यद्यपि राजा सुमद बल व् युद्धोपकरण के सह सभी विधि से सामर्थ्यवान हैं तथापि उनका अनुराग प्रभु श्रीराम चन्द्र जी के चरणों में ही स्थापित है वे उन्हें ही अपना स्वामी मानते हैं ॥
मंगलवार, २२ सितम्बर, २०१४
सो हवनिअ है हरन कस करिही । जो अपनी रति प्रभु पद धरिही ।।
तापर मातु भगत सो राया । जगज्जननि के कर बरदाया ॥
प्रभु श्री रामचन्द्रजी के चरणों में ही जिसकी श्रद्धा हो फिर वह उनके मेधीय अश्व का हरण कैसे कर सकते हैं ॥ उसपर वह धर्मभृत् जगज्जननी का भक्त है एवं उनके द्वारा दिए गए वरदान का ग्राही है ॥
सुने सुमति मुख सुमद बखाना । रामानुज मन महु सुख माना ॥
साधु साधु के बरन उचारे । जय जय जय कहि जगत अधारे ॥
राजमानुष सुमति के मुख से राजसिंह सुमद का वृत्तांत श्रवण कर श्री रामचन्द्र जी के अनुज के मन में सुख की अनुभूति हुई । वे 'साधु -साधु ' शब्द का स्वरघोष करते हुवे जगताधार की जय जय कार करने लगे ॥
छबि मुख दर्पन दीठ धराई । हरषित हलरन बरनि न जाई ॥
उत अहिच्छत्रा जन के नाथा । घिरे रहे सेवकगन साथा ॥
प्रभु की छवि दृष्टि रूपी दर्पण में उत्तर आई । हर्ष के कारण उस दर्पण की चंचलता वर्णनातीत है ॥ उधर अहिच्छत्रा जन के स्वामी अपने सेवकों से घिरे हुवे थे ॥
सभा सिखर सिंहासन राजे । तापर सो सुख सहित बिराजे ॥
श्रुता नबित बिद्वज्जन संगे । ने कोविद के बचन प्रसंगे ॥
सभा के शिखर भाग में सिंहासन राजित था उसपर वह राजाधिराज सुख सहित विराजमान थे ।। वेदज्ञ व् विद्वज्जनों उनके संग थे ने कोविद की नीति-वचनों का प्रसंग प्राप्त कर रहे थे ॥
धन धान्य सोंह संपन, धनिमन कृषक कुबेरु ।
अरु पुरंजनी प्रजा जन, घेरी गहि चहुँ फेर ॥
धन्य धन्य से संपन्न धनेश के सदृश धनवान कृषकगण एवं प्रज्ञवान प्रजा जन ने उन्हें चारों और से घेर रखा था ॥
बुधवार, २२ सितम्बर, २०१४
ते नउ साज जोउ के नाईं । राउ भवन के सुहा बढ़ाई ॥
को बिषयन नृप कहे परंतू । तेहि अवसर एकु अगंतू ॥
वे नवल साज-सामग्री के समरूप राज भवन की शोभा का संवर्द्धन कर रहे थे ॥ किसी विषय पर शंका व्यक्त करते हुवे प्रजा पालक ने जैसे ही परन्तु कहा तभी एक आगंतुक : --
आन बिनयत कहत गोसाईं । विचरत एक है देइ दिखाई ॥
न जान कहँ सों जान कवन के । लच्छन कहि है को राजन के ।।
ने आकर विनयपूर्वक कहा : -- स्वामी ! नगर के निकट एक राजस्कंद विचरण करता दर्शित हुवा है । वह न जाने कहाँ से आया है एवं जाने किसका है : -उसके लक्षण अभिकथन कर रहे हैं कि वह किसी राजाधिराज का स्कन्द है ॥
गौर बरन बर भूषन हारे । एक सुठि पटरी बँधे लिलारे ॥
रेख बरन लिखनी अस आँटे । हिरन किरन जस हिमबर साँटे ॥
वह गौर वर्ण है उसने उत्तम आभूषण सहित मणि मालाएं धारण की हुई हैं उसके मस्तक पर एक सुन्दर पत्री बंधी हुई है। उस पत्री की रेखाओं में लेखनी ने वर्णों को ऐसा गुंथा है जैसे किसी ने स्वर्णमई किरणों में मोतियों को सांठ रखा हो ॥
बाजि बरनन दूतक कह पाए । नृप निज अनुचर ए कहत पठाए । ।
प्रबसि नगरी सो है कवन के । ए भेद लगाएँ भेदक बन के ॥
दूत ने जैसे ही अश्व का सौंदर्य व्याख्या समाप्त की । प्रजापति ने अपने एक अनुचर को यह कहते हुवे उस अश्व के पास भेजा कि जिसने हमारे नगर की सीमाओं का अतिक्रमण किया है वह अश्व है किसका है जाओ भेदक बन कर यह भेद लाओ ।।
चपल अनुचर भेद लए आने । कहनई बिहनइ सँग बखाने ॥
चतुरंगिनी सैन सोंह आगे । चले अस्व ते राम त्यागे ॥
अनुचर छापा था वह तत्काल ही अश्व का भेद ले आया । उसने अश्व से सम्बंधित कहानी का व्याख्यान करना प्रारम्भ करते हुवे कहा महाराज ! जो अश्व चतुरंगिणी सेना के अग्रसर होकर चलायमान है वह जगत्पति प्रभु श्रीरामचन्द्रजी द्वारा त्यागा हुवा है ॥
मह जुजुधान सों सेवित नृप जब लिए संज्ञान ।
भय बिस्मित हबिरु है के साईं कृपा निधान ॥
महतिमह योद्धा उसकी सेवा में अनुरत है । प्रजापति सुमद को जब यह संज्ञान हुवा कि उस मेधीय अश्व के स्वामी कृपा निधान श्री रामचन्द्र जी हैं वह हतप्रभ हो गए ॥
बृहस्पतिवार, २५ सितम्बर, २०१४
तब अहिच्छत्रा के प्रतिपाला । चित चढ़ि आए प्राक्तन काला ॥
सबन्हि पुरजन अस आयसु दाई । आए दुअरिआ हमरे साईं ।
तब अहिच्छत्रा राज्य के प्रजापाल को अपना प्राक्तन समय स्मरण हो आया ॥ कामाख्या देवी के वरदान का ध्यान कर सभी नागरिक गण के प्रति सुमद द्वारा यह आदेश हुवा कि द्वार पर हमारे स्वामी का आगमन हुवा हैं॥
जो मेधीअ है संग आईं ॥ सो सब हमहि कुटुम के नाईं ।।
सब जन निज निज भवन दुआरे । तोरन माला संग सँवारें ॥
जो मेधीय अश्व के संग आए हैं वे सभी हमारे स्वजन समरूप हैं ॥ सभी नगरवासी अपने अपने भवन द्वारि को तोरण मालाओं के संग सुसज्जित करें ॥
तब लिए परिगह सुत सह रागी । गवन रिपु हंत चरनन लागी ॥
कहे राउ बड़ भाग हमारे । धाति धरा अरु मेघ पधारे ॥
ऐसा आदेश करने के पश्चात अपने परिग्रहों ,पुत्रों एवं अनुरागियों का साथ किये राजा सुमद शत्रुध्न के पास गए , वहां जाकर उन्होंने शत्रुध्न के चरण पकड़ लिए ॥ उन्होंने कहा : - हे राजन ! हमारा परम सौभाग्य ही है कि धरा प्यासी है और मेघों का आगमन हुवा ॥
मुख सों जपत श्रीहरिः नामा । बहुरी बहुरी करे प्रनामा ॥
कहि तव दरसन होउँ कृतारथ । असहाए मिलिहि सहज सहारथ ॥
वे मुख से श्रीहरि नाम का जाप करते हुवे पुरजन सहित उन्हें वारंवार प्रणाम करते हुवे क्रमश; बोले : -- आपका दर्शन प्रसाद प्राप्त कर मैं कृतार्थ हो गया । इस असहाय को सहायता सहज ही सुलभ हो गई ॥
आपनि श्री दरसन पैह, भयउ मोर सत्कार ।
बिभु छत्र छाइ संग होहि, दासोपर उपकार ॥
आपके ये श्री दर्शन प्राप्त कर स्वयं मेरा ही सत्कार हुवा । यदि विभो की छत्र छाया भी प्राप्त हो जाए तो यह दास कृत कृत हो जाएगा ॥
शुक्रवार, २६ सितम्बर, २०१४
चिर काल लग जिन्हनि अगोरा । आगमनु सोइ मेधिअ घोरा ॥
जगज जननि देई कामाखी । पूरब समउ मोहि जस भाखी ॥
जिसके लिए मैं चिरप्रतीक्षित था अधुनातन उस मेधीय अश्व का आगमन हुवा । जगज्जननी देवी कामाख्या ने पूर्व कल में मुझसे जैसा सम्भाषण किया ॥
सो सब अधुनै पूर्ण होई । रहे अजहूँ संसै न कोई ।।
तात मोहि निज भ्रातहि लेखौं । पद चिन्हत मम नगरी देखौ ॥
वह सब इस समय पूर्ण हो गया अब मरे मन मानस में कोई संसय नहीं रहा । हे तात ! आप मुझे अपना भ्राता ही समझते हुवे अपने चरण चिन्ह अंकित कर कृपया मेरी नगरी के दर्शन कीजिए ॥
अस कह नृप मुख ससि सम भ्राजा । आनई अचिरम एक गज राजा ॥
पुष्कल सह माह बीर अरोही । पीठ अपन पो आसित होही ॥
तासु अग्या सिरौ पर धारे । वादन धर जब कहि अनुहारे ॥
कहुँ दुंदुभि तुरही कहुँ भेरी । कंठ कूजिका कहुँ सुर हेरी ॥
अरु सकल तुमुल धूनि, चारु कोत बिस्तारि ॥
हरिअरि नगरि नागरि गन, सत्रुहन चरन जुहारि ॥
शनि/रवि , २७/२८ सितम्बर, २०१४
बिकीरनन रघु कुल सुजस केतु । कहि बढ़े सोइ सुभ ताति हेतु ॥
सूर बीर के संग सुसोहित । करत द्युति पत द्युति तिरोहित ॥
जिमि प्रभु रिपुहंत निग्रह माही । अगन जल पवन दरसन दाही ॥
अहिच्छत्रा पुर जस चरन धरे । जन जन अवतरन मंगल करे ॥
अस्व रतन कर रस्मिहि धारे । पैठिहि प्रभु जब राज अगारे ॥
द्वार तुरंगि तोरन साजे । दरसिन मुख सों तुरही बाजे ॥
चले रघु राइ आगिन आगे ।पुरौधिप तासु पाछिनु लागे ।।
जगज जीवन अनुज भर भेसे । राउ प्रासादु माहि प्रबेसे ॥
बैठि बरासन रिपु हंत राम बन सुमद करतल पद गहे ।
निलय निर्झरी नयन सोत करी अरु झर झर नीर बहे ॥
लगे पखारन पद बिंदु माल बन तल अवतरित अमृत भए ।
भूपत अस लाखा सङ्कृत तरु साखा लागिहि जिमि फल नए ॥
अर्चनीअ कृत अर्चना, दीन्हि अति सम्मान ।
आपनि सकल श्री सम्पद धरे चरनिन्ह लान ॥
तेजोमई ब्रम्हन पुनि , कहत सेष भगवान ।
बहुरि जन जन भए उत्सुक श्रवनन राम अगान ॥
सत्रुहन नृप तुषित दीठ लाखे । मधुरित धूनि संग संभासे ॥
सरसती कंठ अवतर आईं । राम चरित के कथा सुनाईं ॥
सरस गान जब गुन अनुवादें । वादन आपनि आपहि वादे ॥
बल रूप बिबाहु जब बाँचे । राग रागिनी रंगत नाचे ॥
पितु अग्या दिए भए बनबासी । तुमुल धूनि पर छाए उदासी ॥
चाखत सबरी बद्रिका दीने । नंद नदी मह जन जन लीने ॥
जब ऐ दनुज छल भेस भरे । छल छाया करे जननी हरे ॥
भटके बिपिन राम सिय हीना । होत द्रवित सब दया अधीना ।।
बाँध उदधि श्री राम जब , लंका पर चढ़ आए ।
हनत दनुज ले आन जनि, जन जन देइ बधाए ॥
सोमवार,२९ सितम्बर, २०१४
बोलि सुमद पुनि रामानुज ते । हे अर्चनीअ हे महामते ।
अगजग के जो सिरु मनि अहहैं । सोइ अवध सुख सहित तो रजिहैं ॥
जड़ चेतन के राखन हारे । पाप हनन भू लिए अवतारे ॥
तासु मुख अरविंदु पटतर दिए । भगती मकरंद जो पान किए ॥
सो सबहि आपनि धन्य माने । लोचन दर्पन प्रभु छबि दाने ॥
सुमद नयन भर कँह कर जोरी । अजहुँ कुल रीति नरबर मोरी ॥
राउ भूअ सह सकल सँजोई । हेतिहि हेतुहु कृतफल होई ॥
द्रवित दया सों होवनिहारा । मैं बड़ भागी बोल निहारा ॥
कामाखी देइ साखी, दरसन पूरब काल ।
करिहि कृपा बड़ मोहि पर, धरे सिरौ कर ताल ॥
मंगलवार, ३० सितम्बर, २०१४
नर मह केसर महीअस बीरा । गभस्तिमन मुख गद गद गीरा ॥
तीनि रयन सत्रुहन तँह होरी । लेइ अनुमति बहुरन बहोरी ॥
जान सुमद रिपुहंत अभिप्राय । आपनी तनय लक तिलक दाए ।।
अहिच्छत्राधिस तब सब अनुचर । नाना समदन समदित कर ॥
कनकाभूषन बहु बिचित्र रतन । नयनाभिराम बहु भेस बसन ॥
भूरि अरिहंत धरि कोदंडा । लिए चतुरंगिनि सैन प्रचंडा ॥
है गज रथ सह सुमद प्रसंगा । बहुग्य सचिव बर जुधा संगा ॥
पयादिक सोंह अगहुँ पयाने । राम प्रताप सुरत सुख माने ॥
चलि सैन सहित पयादिहि, मग नग नद किए पार ।
पैठ पयोषिनी नदि तट, चरन द्रुतै गति कार ॥
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