शुक्रवार, ०३ अक्तूबर, २०१४
सकल रच्छक सह चले पीठे । तीरहि तीर तपो भुइ डीठे ॥
कुंजरासन कुसा के छाईं । मुनि मनीषि दृग देइ दिखाईं ॥
समस्त योद्धा साथ देते उनके पीछे चल रहे थे । पथ के तीर तीर तपोभूमि दृश्यमान हो रही थी ॥ पीपल के पेड़ एवं कुश की छाया किए मुनि मनीषी दृष्टिगत हो रहे थे ॥
रघुनाथ के कीरत अगाने । सकल जुजुधान सुनत पयाने ॥
हितकृत गिरा जहँ दिए सुनाई । यह जग्य के है चलिहि जाईं ॥
समस्त योद्धा उनके श्री मुख से रघुनाथ जी की कीर्ति - व्याख्यान सुनते जा रहे थे ॥ जहां यह कल्याण कारी वाणी सुनाई दे रही थी कि श्रीराम चन्द्रजी के द्वारा त्यागा गया मेधीय अश्व है जो बढ़ता ही चला जा रहा है इसे हनन करने का साहस किसी में नहीं है ॥
श्री हरिहि के अंस अवतारा । रामानुज रिपुहंत द्वारा ॥
रच्छितमान जोइ चहु फेरे । बीर बानर बीथि के घेरे ॥
यह श्रीहरिः के अंशावतार श्रीराम के अनुज शत्रुध्न द्वारा चारों ओर से रक्षित है उसपर वीर वानरों की पंक्तियों का व्यूह है ॥
जासु रति हरि चरनिन्हि रागी । चित के बृत्ति भजन मह लागी ॥
तासु निगदन श्रवन श्रुत साधन । भए तोषित सत्रुहन मन ही मन ॥
जिनकी अनुरक्ति हरि चरणों को अलक्तक करती हैं एवं जिनकी चित्त की वृत्ति सदा हरि भजन में ही लगी रहती । उन मुनि मनीषा के कथन अपने श्रुति साधनों से श्रवण कर भ्राता शत्रुध्न मन ही मन संतुष्ट होकर : --
अगत कहत पथ चिन्हिनि लेखे ।अगहुँन एक सुचि आश्रम देखे ॥
जोइ रहही अतिसय बिसेखा । बेद बचन तरु पत पत लेखा ॥
आगे बढ़ो : -- ऐसा कहते पथ में चिन्ह अंकित करते जा रहे थे । आगे उन्होंने एक अलौकिक आश्रम देखा ॥ जो सभी आश्रमों में विशिष्ट आश्रम था । जहां पत्र पत्र पर वेद वाक्य लिखे थे ॥
अंग अंग धूनि मै हो जहँ गुंजहि चहुँ पास ।
घट घट हित के बास कर, करे अहित के नास ॥
वेद के अंग अंग ध्वनिाय होकर दसों दिशाओं में गुंजायमान थे । जो घट घट में अभ्युदय का वास कर अहितकारी शक्तियों को नष्ट कर रहे थे ॥
शनिवार ०४ अक्तूबर, २०१४
जहँ मुनि मनीष परम प्रबेका । रचे हबिर गह अनेकनेका ॥
दसहुँ दिसि केतन धूम धरिही । प्रान संभृत सुबासित करिहीं ॥
जहां परम श्रेष्ठ मुनि मनीषियों ने अनेकानेक हविर् भवन रच रखे थे । दसों दिशाएं ह्वीरगाग्नि के धूम्र से व्याप्त थीं जो प्राण वायु को सुवासित कर रही थीं ॥
का अवनी अरु का आगासे । हबिस रसन त्रइ लोक प्रगासे ॥
बयरु भाउ जहँ बरि तिल तिल के । बिल जीवी रहे बिनहि बिल के ॥
क्या धरती और क्या अंतरिक्ष हविरशन से तीन लोक प्रकाशित हो रहे थे ॥ कुण्ड में वैमनस्य तिल तिल कर भस्म होता जाता । बिल जीवी बिल हीन हो चले वे निर्भय होकर विचरण करते थे ॥
ग्रासे न कोउ मीच अकाला । राखैं गोकुल जहाँ ब्याला ॥
सरिसर्प रहे मोर प्रसंगा । खेली करत नेवला संगा ॥
अकाल मृत्यु का कोई भी ग्रास नहीं बनता था । हिंसक पशु जहां गौ वंश की रक्षा करते थे ॥ सृसर्प मोरों के प्रसंग में रहते, एवं नेवलों के साथ कौतुक करते ॥
गज मृग केसर करे मिताई । सबहीं बयरु भाउ बिसराईं ॥
जल थल गगन बिहरे बिहागे । काहू के संग भय नहि लागे ॥
हिरन कुंजर व् सिंह में परस्पर मित्रता होती । सभी ने जैसे द्वेस भाव को त्याग दिया था ॥ पक्षी वहां गगन सहित जल थल में भी विहार करते । उन्हें किसी से भी भय नहीं लगता ॥
हिरनै लोचन हरितक ताके ।चतुस्तनि जहँ चले चरबाँके ।
ग्रास ग्रास रस अमरित भरिहीं । थन मंडल तट घट कृति धरिहीं ॥
हरी हरी घाँस स्वयं हिरणों के लोचनों को ताका करती कि वे कब हमें ग्रास बनाएं । जहाँ गौवें स्वछंद विचरण किया करती थी उनके ग्रासों में अमृत का वास था उनके थन एवं उसके तट मण्डलित होकर जैसे कुम्भाकृति के हो गए थे ॥
तासु चरनन धूरि संग, भूमि भयउ भरतारि ।
निग्रह हविष्वती सरूप , कामन पूरन कारि ॥
उनकी चरणधूलिका के संग धरणी भी धात्री हो गई थी । उन गौवेंका श्रीनिग्रह हविष्मती का स्वरूप होकर सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाला था ॥
रविवार, ०५ अक्तूबर, २०१४
मुनि मनीषि कर समिधा धारे । कुंड कुंड हबनायुस सारे ॥
नित्य नैमितक करम बिधाना । तपोबन किए जोग अनुठाना ॥
मुनि मनीषियों के हस्त समिंधन से सुशोभित थे । समस्त हविर् कुण्ड हवन द्रव्य से युक्त थे । शास्त्राचारियों ने धार्मिक क्रियाओं द्वारा उस तपोभूमि को अनुष्ठान के योग बना रखा था ॥
सत्रुहन अस आश्रमु जब पेखे । श्रीराम सचिव सो पूछ देखे ॥
सूर अलोक सौम अति सुन्दर । रमनइ रयन बरसें सुधाकर ॥
भ्राता सह्त्रुध्न ने जब ऐसा पावन आश्रम देखा तब श्रीरामचन्द्र जी के सभा सचिव सुमति से पूछा । मान्यवर ! सूर्यालोक की सौम्यता जिसे अतिशय सौंदर्य प्रदान किए है जहाँ जब सुधा की वर्षा होती है तब रयन परिभ्रमण किया करती है ॥
जासु प्रभा दीपित राका सी । पल्लबित बिपिन बीथि प्रकासी ॥
अलौकिक आश्रमु सौमुँह एहू । कहु त कवन के हे मम नेहू ॥
जिसकी प्रदीप्ति पूर्णिमा की सी है जो पल्लवित विपिन के पंथ पंथ को प्रकाशित करती है । ऐसा आलौकिक आश्रम जो सम्मुख दर्शित हो रहा है मेरे स्नेही ! कहो तो वो किसका है ?
तपसी तपस बिषमता खोई । बयरु ना करहि काहु न कोई ॥
बिहरए गोचर हनन बिहीना । तपस्या फल अभय बर दीना ॥
यहाँ तपस्वियों की तपोनिधि के बल से विषमताएं जैसे मिट सी गई हैं कोई किसी से द्वेष नहीं करता। वन गोचर बाधाओं से रहित होकर विहार कर रहे हैं इन तपस्वियों की तपस्या यहाँ फलीभूत है गोचरों को अभय का वर मिला है ॥
जहँ लग दीठ तहँ दरसे, मुनि मंडल भरपूर ।
इहाँ विद्वेस भय सोक, दरस न दूरिहि दूर ॥
जहाँ तक दृष्टि जाती है वहां तक यह स्थली मनीषियों की मंडलियों से भरी पूरी दर्शित हो रही है । यहाँ विद्वेष, भय, शोक दूर दूर तक कहीं दिखाई नहीं देते ॥
सोमवार, ०६ अक्तूबर, २०१४
सुमते एहि मोरी अभिलाखा । सुनिहौं मैं मुनिबर सम्भाखा ॥
सुनै बचन अतिसय बिद्याधर । जोरत दुहु कर बदने सादर ।।
हे सुमते ! मेरी यह छोटी सी अभिलाषा है कि मैं मुनिवर का सम्भाषण के श्रुति का प्रसाद ग्रहण करूँ ॥ भ्राता शत्रुध्न के वचनों को सुनकर अतिशय विद्या धारी सुमति ने दोनों हाथ जोड़ते हुवे आदर सहित कहा : --
जो हमरे दृग दर्सित अहहैं । सो कुटीरु च्यवन रिषि रहहैं ॥
एहि भुवन तपोनिधि सन सोहहि । इहां जंतु मह बयरु न होइहिं ॥
महोदय ! हमारी दृष्टि में जो पवित्र कुटीर गोचर हो रही है वहां महर्षि च्यवन निवास करते हैं ॥जिस भूमि पर यह कुटीर स्थित है वह भूमि तपस्वियों से सुशोभित है । यहाँ जंतु द्वेष के भाव से शुन्य हैं ॥
महर्षि च्यवन मुनिबर सोई । जासु कथा निगमागम जोईं ॥
जेहि मनुसुत सर्याति संगे । मख मह सुरपत मान प्रभंगे ॥
यह महर्षि च्यवन वही मुनीश्वर हैं जिनका वृत्तांत निगमागम में वर्णित है ॥ जिन्होंने मनु पुत्र राजा शर्याति के संग महान यज्ञ में इंद्रदेव का अभिमान प्रभञ्जित कर दिया था ॥
बुला पठइ अस्बिनी कुमारा । सुरन्हि पंगत मह बैठारे ॥
सत्रुहन पुनि पुनि पूछ बुझाई । बहुरि का भयउ रे मम भाई ॥
एवं अश्विनी के पुत्रों को देवताओं की पंक्त्ति में आसन दिया ॥ तत्पश्चात भ्राता शत्रुध्न उत्सुकता वश वारंवार प्रश्न करने लगे यह कहते हुवे कि रे मेरे भ्राता फिर क्या हुवा ।।
कहत सुमत बिधि बसात, सृष्टि कारु कुल जात ।
एकु महर्षि नाउ भृगु भए जो जग भर बिख्यात ॥
तब सुमति ने इस प्रकार उत्तर दिया : -- दैवयोग से सृष्टि कर्त्ता ब्रह्मा जी के कुल जातकों में एक महर्षि हुवे जिनका नाम भृगु है जो जग भर में सुविख्यात हैं ॥
मंगलवार, ०७ अक्तूबर, २०१४
एक बासर रिषि समिध सँजोउन । आन सुदूर भीते सघन बन ।
चलिहि मुनि औचक तेहि अवसर । परगसे दमन नाउ निसाचर ॥
जान कहँ ते कवन दिसा सों । बासर संग गहन निसा सों ॥
धरा कि गगन कि सोंह पताला । नग निरझरि सोंह सरि कि ताला ॥
एक दिन महर्षि भृगु समिंधन संकलित करने हेतु उसका अन्वेषण करते अपने आश्रम से दूर सघन वन के अंतर में समाहित हो गए ॥ मुनिवर चले जा रहे थे कि तत्समय औचक ही दिवस से कि गहन निशा से धरती से कि गगन से की पाताल से पर्वत से झरने से की सरिता से की ताल से न जाने कहाँ से कौन सी दिशा से दमन नाम का एक दानव प्रगट हो गया ॥
प्रगस हेतु मुनि जग्य बिनासा । दहन देव सों बरत कुभासा ।।
बिकराल बचन बोल भयंकर । सो कह चलेसि कहँ मोहि निंदर ॥
उसका प्राकट्य ऋषिवर के यज्ञ नष्ट करने के उद्देश्य से हुवा था । वह अग्नि देव को संबधित कर जब यह कहते हुवे कुभाषा का उपयोग करते हुवे करते हुवे वह विकराल वक्तव्य के सह वह भयंकर शब्द करते हुवे कहने लगा । मेरी निंदा करते हुवे जो यह ऋषि कहाँ जा रहा है ।
कहँ मख भवन सो अधमि मुनि के । कहाँ सदन अकल्किता संगिनि के ॥
अगन देव निज भय बस जाना । मुनिहि ठिया दनु दरसन दाना ॥
उस अधमी मुनि का यज्ञ कुण्ड खान है एव्वं उसकी निष्कलंक संगिनी का सदन कहाँ है ? ( मुझे तत्काल इसका संज्ञान कराओ ) तब अग्नि देव ने सवयं को भय के वशीभूत जान कर उस दानव को मुनिवर की कुटीर के दर्शन करा दिए ॥
सोइ समउ सो नारि सती । मुनि अंस गहे रहि गर्भवती ॥
निसिचर तुरतै आन दुआरी । दन्त अछादन देइ उघारी ॥
उस समय वह पतिव्रता नारी महर्षि भृगु का अंश गर्भ में ग्रहण कर गाभिन थी । निशिचर को जैसे ही महर्षि के सदन स्थली का ज्ञान हुवा वह तत्काल ही वहां पहुँच गया । उसने अपने दन्त आच्छादन का अनावरण कर : --
किए हास भयंकर, डोलिहि भूधर, तोयधि तरंग उछरे ।
खल कर गहि नारि अबला बेचारि बहु भाँति बिलाप करे ॥
कण्ठन किए भारी, घोर पुकारी, प्रान नाथ तपो निधे ।
कह त्राहि मम त्राहि अस तलफलाहि अधम तैं साधि न सधे ॥
उसने ऐसा भयंकर अट्टाहस किया कि पर्वत डुलने लग गए , सिंधु की तरंगे उछल पड़ी । तब उस दुष्ट के कर पाश में बंधी वह बेचारी अबला नारी बहुंत प्रकार के विलाप करने लगी ॥ उसने भारी कंठ कर वह गहन गुहार लगाने लगी हे प्राणनाथ ! हे तपोनिधि आप कहाँ हो इस दानव से मेरी रक्षा करो प्रभु रक्षा करो इस प्रकार विलाप कराती हुई वह जलहीन मीन के सदृश्य व्याकुल हो गई ऐसी अवस्था में उस दुष्ट दानव से साधी न जा रही थी ॥
रिषि पतिनी पुकार रही भरि अति आरत भाउ ।
लीन्हिसि तेहि कंधधरि, अधमी हिंस सुभाउ ॥
महर्षि की पत्नी अत्यंत आर्त भावों से भर कर करुण पुकार कर रही थी । हिंसक स्वभाव वाले उस दुष्ट राक्षस ने उसे कंधे पर उठाया ॥
बुधवार, ०८ अक्तूबर, २०१४
करेसि बिलखत बिबिध बिलापा । भरि मुख भय उर तोयधि तापा ॥
भयउ बहिर दनु अस ले धाईं । बात रूष जस तृन लिए जाईं ॥
तब वह बिलखने लगी उसके विलाप में और अधिक विविधता आ गई उसका मुख भय से आक्रांत हो गया जिससे उसका ह्रदय रूपी सिंधु से संताप रूपी जल से परिपूर्ण हो गया ॥ आश्रम से बहिर्गमन कर दानव उस सती-साध्वी को कंधे में उठाए ऎसे दौड़ चला तृण को लिए जैसे कोई अंधड़ दौड़ रहा हो ॥
महनी रिषि के असूरपस्या । भएसि दनुज कर पाँसुल बस्या ॥
निगदत सठ दुर्बादन नाना । दुर्बचन सन करे अपमाना ॥
महनीय ऋषि की सती-साध्वी दनुज के कर पांशुल के वश में हो गई । वह दुष्ट बहुंत प्रकार के दुर्वचन कहते हुवे दुष्टत्ता भरे कथनों से उसे अपमानित करने लगा ॥
करे सती बिलाप अस भारी । भएउ चराचर जीउ दुखारी ॥
गहन कंठ आरत निह्नादा । ससि कंत मुख भरे अवसादा ॥
तब उस सतीव्रता ने ऐसा भारी विलाप किया की चरचर जगत के जीव संताप से ग्रसित हो गए । गहरे कंठ से सहायता हेतु करुण ध्वनि फूट पड़ी उसके शशि के सदृश्य सुकांत मुख अवसाद से भर गया ॥
भय भीत होत आकुल होई । गर्भ पतन के कारन जोई ॥
गहे अंस छन माहि निपाता । जुगित ज्वाल नयन नउ जाता ॥
वह भयके अधीन होकर व्याकुल हो गई । यह व्याकुलता गर्भ के पतन का कारण बनी । उसके गर्भ में महर्षि भृगु का जो अंश गृहीत था वह क्षण भर में उसका पतन हो गया । पतित नवजात की दृष्टि ज्वाला से युक्त थी ॥
ललाट हलरत ऐसेउ लसे । कि अगनी देउ साखी प्रगसे ॥
निरख निसा चर थर थर काँपा । रे दुर्जन कहत देइ सापा ।
वह ललाट पर कपकंपाते उसकी दृष्टि ऐसे प्रदीप्त हुई उस प्रदीप्ति से अग्निदेव साक्षात प्रकट हुवे । जिसे देखकर वह निशाचर थर थर कांपने लगा । अग्नि एव ने उसे रे दुष्ट कहते हुव यह श्राप दिया : --
असूरपस्या परस किए, धृष्ट ढीठ रे धूत ।
पोचक पाँवर अजहुँ तुअ, होइहु भस्मी भूत ॥
कि तुमने एक पतिव्रता नारी का स्पर्श किया है अरे लज्जाहीन अरे धृष्ट, धूर्त, तुच्छ प्राणी रे मूर्ख तुम अब भस्म होकर भूत हो जाओगे ।।
बृहस्पतिवार,०९ अक्तूबर,२०१४
इत रिषि तिआ मुख भय ब्यापा । उत पोच दनु सुरति निज पापा ॥
अगन देउ आपन पो पोषा । ब्यापित होत दनु जल सोषा ॥
इधर ऋषि पत्नी के मुख पर भय व्याप्त था उधर वह अधम दानव अपने पापों का स्मरण कर रहा था ॥ अग्नि देव ने अपने स्वत्व को पोषित कर चारों और व्याप्त होकर फिर उस दानव रूपी जल को शोषित कर लिया ॥
तप के भए ऐसेउ प्रतापा । दानव तन उरि बन भापा ॥
मुए बालक जनि किए अँकवारी । करेसि क्रंदन घोर पुकारी ॥
उस तपस्विनी की तपस्या का प्रताप कुछ ऐसा था कि दानव की देह जल वाष्प बनकर उड़ गई उस दानव का अंत हो गया ॥ ततपश्चात मृत्यु को प्राप्त उस बालक को गोद में लिए क्रंदन करते हुवे वह साध्वी घोर पुकार करने लगी ॥
भरे मनस जस आश्रमु आई । तासु पीर लिखि बरनि न जाई ।।
महर्षि बालक गति जब जाना । अग्नि देउ करतूति नुमाना ॥
भरे मन से वह जिस भांति आश्रम में आई उसकी वह पीड़ा वर्णनातीत है ॥ महर्षि को जब बालक की दशा का संज्ञान हुवा उन्होंने अनुमान लगाया कि यह सब अग्नि देव का किया धरा है ॥
सोक बिबस मुख भर अति क्रोधा । श्राप देत तिन अस सम्बोधा ॥
कहत हारि तुअँ अग्निहि देवा । रिषि मुनि प्रति अहहि ए सेवा ॥
वे शोक के वशीभूत हो गए उनका मुख क्रोध से भर गया । श्राप देते हुवे वे अग्नि देव से सम्बोधित हुवे : --
रिपु सुमुख घर के भेद, रे खल बोल बताए ।
गर्भ गहि अबला तापर सुरारि देइ चढ़ाए ॥
उन्होंने कहा : -- अरे दुष्टात्मा तुमने शत्रु के समक्ष घर का भेद प्रकट किया एक तो गर्भवती अबला उसपर वहां राक्षस को भेज दिया ।
शुक्रवार, १० अक्तूबर, २०१४
अस कह लोहित लोचन लाखी । अधुनै हो तुअ सब कछु भाखी ।।
अगनि देउ तब भयउ दुखारी । हहर मुनिबर चरन लिए धारी ॥
ऐसा कहकर महर्षि ने उसे जलती हुई दृष्टि से देखते हुवे कहा : -- अब से तुम सर्वभक्षी हो जाओ ॥ तब अग्नि देव अत्यंत दुखित हो गए भय से कांपते हुवे उन्होंने महर्षि के चरण पकड़ लिए ॥
बोलइ बिधूनित बिक्लब बचन । दया अरु धरम के सिरु भूषन ।।
मोर सिरु निज कृपा कर धारे । असत भय दनु भेद दे पारें ॥
कांपते हुवे ही वे भय से पूर्णित नैराश्यपूर्ण वचन कहने लगे ( उन्होंने कहा ) हे दया व् धर्म के शिरोभूषण ।। म्रेरे शीश पर आपकी कृपा बनी रहे एवं सदैव आपका सदा हाथ रहे । मैने असत्य के भय से उस राक्षस को आपकी कुटिया का भेद दे दिया ॥
हे मही देउ भाग बिधाता । मैं उतपाती तुम छम दाता ॥
अगने याचन दिए जब काना । तरस प्रतापस दया निधाना ॥
हे भूमिसुर हे भाग्य विधाता । मैं उत्पाती हूँ आप क्षमा के दातार हैं ॥ जब महर्षि भृगु ने अग्नि देव की याचना को सुना तब उन दया के भंडार व् श्रेष्ठ तपस्वी ने करूँणा करते हुवे : --
दय द्रवन बस बोले अस बचन । सापित होत तुअ रहिहु पावन ॥
मंगल मय मही देउ बहोरि । नहान पर धरे कुस कर पोरि ॥
दया से द्रवित होकर ऐसे वचन कहे : -- हे अग्निदेव ! तुम मेरे शाप से अभिशप्त होते हुवे भी पवित्र रहोगे ॥ तत्पश्चात पृथ्वी के मंगलमय देवता ने स्नान आदि से पवित्र होकर करज में कुश धारण कर : -
गर्भ निपतित निज पूत के , किए जात संस्कार ।
ते समउ मुनिजन च्यवन, तासु नाउ दिए धार ॥
गर्भ से निपतित अपने पुत्र का जात-कर्म संस्कार किया । उस समय गर्भ निपतित होने के कारण वहां उपस्थित संपूर्ण तपस्वियों ने उस बालक का नामकरण च्यवन के रूप में किया ॥
शनिवार, ११ अक्तूबर, २०१४
सित पख परिबा जस सस गाढ़े । च्यबन रिषि हरिअर तस बाढ़े ॥
जुगत बय जब तनि बाड़ बढ़ाए । तपस करन पुनि मन माहि आए॥
शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि से चन्द्रमा की कांति ज्यूँ ज्यूँ वर्धित होती है । च्यवन ऋषि भी त्यूं त्यूं वयस्कर होने लगे ॥ जब किंचित आयुष्मान होकर वयस्थ हो गए तब उन महर्षि के चित्त में तपस्या करने की अभिलाषा जागृत हुई ॥
होइ जासु जल जीवन दाईं । सोइ नर्बदा तीर अवाईं ॥
तहाँ करे घन घोर तपस्या । निरंतर दस सहसै बरस्या ॥
जिसका पवित्र जल जगत हेतु जीवनद है उसी नर्मदा नदी के तट पर महर्षि का आगमन हुवा ॥ वहां फिर उन्होंने दस सहस्त्र वर्षों तक निरंतर कठोर तपस्या की ॥
बाहु सिखर बिमौट लिए घेरी । संकलित किए मृदा के ढेरी ।।
ता ऊपर दुइ बिटप बिकासे । पलत पात पथ फुरै पलासे ।।
उनकी भुजाओं पर मृदा का संकलन कर ढेरी लगाते हुवे दीमको ने अपना घर बना लिया ॥ उस घर के ऊपर दो विटप पनप आए । उसपर पल्लव पलने लगे, उसकी शखाओं पर पलाश के पुष्प फूलने लगे ॥
आन हिरन धर गल गंडा । ले बच्छर सुख रगर प्रगंडा ॥
तासु करनि मुनि भेद न पावैं । तपस मगन किछु नहि सुधियावै ॥
हिरण वहां आते अपने कंठ व् गालों को घर्षित कर मुनिवर के बिमौट रूपी देह भवन से वात्सल्य का सुख प्राप्त करते । उनके ऐसे कृत्य से महर्षि अनिभिज्ञ रहते तपस्थ अवस्था में उन्हें कुछ चेत नहीं रहता वे अविचल भाव से स्थिर रहते ॥
एकु समउ के बात अहैं, सकल सँजोउनि साज ।
मनु पुत भूपति सरयाति, कौटुम सहित समाज ॥
एक समय की बात है जब मनु पुत्र रजा शर्याति सकल साज सामग्री से युक्त परिवार सहित तैयार होकर : -- रविवार, १२ अक्तूबर, २०१४
तीर्थाटन तरौंस अवाईं । पताकिनिहु पत सन मह आईं ॥
हर्षोत्करष मज्जनु कीन्हि । देउ पितरु गन तरपन दीन्हि ॥
तीर्थाटन हेतु नर्मदा नदी के पावन तट पर आए । चतुरंगिणी सेना भी अपने भूपति के साथ ही थी ॥ हर्ष एवं उत्कर्ष से फिर राजा शर्याति ने नर्मदा में निमज्जन कर अपने देव व् पितृ जनों को तर्पण किया ॥
दान मान बहु बिबिध बिधाने । पेम सहित जाचक कर दाने ॥
प्रजापति के रही एक कनिआ । पूर्नेन्दु निभ रूप की धनिआ ॥
ततपश्चात याचिताओं को प्रेम सहित विभिन्न प्रकार के दान एवं सम्मान प्रदान किया । उस प्रजापति की एक कन्या थी जो पूर्णिमा के चाँद के जैसे रूप की धनी थी ॥
तपित हिरन तन अभरन धारी । सखिन्हि सन बन माहि बिहारी ॥
निरखिहि तहँ एक भवन बिमौटा । लागिहि तिन जस परिगत कोटा ॥
तप्तवान् स्वर्ण के सदृश्य वपुर्धर में भूषण धारण किए वह सखियों के संग वन में विहार कर रही थी ॥ कि तभी वहां एक वल्मिक भवन दिखाई पड़ा जो किसी परिगत परकोट सा प्रतीत हो रहा था ॥
जासु भीत लसि तेजस कैसे । रतन जड़ित मनि मंडप जैसे ।।
भयउ निमीलित रहित निमेखा । जोइ देखि सो रहि उन्मेखा ॥
उस भवन की आतंरिक प्रभा ऐसे दीप्त हो रही थी जैसे वह भवन रत्न जड़ित कोई मणि -द्वीप हो ॥ इसे जिस किसी ने भी देखा वह चेतनाहीन होकर निर्निमेष हो गया ॥
कौतुहल के बसीभूत, राउ कनी रहि ताक ।
हरिअइ गवनइ तासु पहि, कर धरे एक सलाक ॥
कौतुहल के वशीभूत होकर राजा शर्याति की वह कन्या उस भवन को एकटक निहारती रही । फिर वह धीरे से उस के पास गई, उस समय उसके हस्तमुकुल में एक शलाका थी ॥
सोमवार, १३ अक्तूबर, २०१४
तेजस मुख चापत दिए फोड़े । बहि रुधिरु जस बाँध जल छोड़े ॥
बहत रकत कुँअरिहि जब देखे । भयउ सुकुअ री खेद बिसेखा ॥
उस के धारदार मुख से दाब देकर उसने दीमक के भवन को फोड़ दिया । तब उस भवन से रक्त-धार ऐसे फूट पड़ी जैसे कि किसी बांध से जल छूटता हो । रक्त को बहते देख सुकन्या को विशेष खेद हुवा ॥
दुःख संग कातर सोक महु भरि । मूकबत मौनाबलम्बन धरि ॥
ध्वज प्रहरि रत पत जस काँपी । अह !घटे ए का सोच संतापी ॥
दुःख से कातर होकर वह शोक संतप्त हो गई , मूकवत् होते हुवे उसने चुप्पी साध ली ॥ इस घटना से आहत होकर वह वायु युक्त पत्र के जैसे कम्पन करने लगी । तथा आह ! ये क्या हो गया यह विचार कर संताप करने लगी ॥
अबूझ बयस बोध अपराधा । केहि सो कहन मह भए बाधा ॥
घटे प्रसंग किए न उजागर । तात मात सहुँ कुँअरी भयकर ॥
किसी के सम्मुख अपराध का उद्बोधन करने में उसकी अवयस्क अवस्था बाधा बनी । उसने घटे हुवे प्रसंग को कहीं उजागर नहीं किया । उसे तात-मात से यह सब कहने में भय जनक लगा ॥
तेहि अवसर धरा अस हहरी । हलरु तरु साखि पत पत प्रहरी ॥
दसों दिसि मौली सिरी रंगे । करे रबिहि रथ रजस प्रसंगे ॥
उस समय धरती ऐसे कम्पन करने लगी की उसके कम्पन से वृक्ष हिलकोरे लेने लगे पत्ते फड़ फड़ की ध्वनि उत्पन्न करने लगे ॥
आतुर बातल किए अस हानी । न जान केत जीवन नसानी ॥
आनि संगि सो करै कलेषा । अभय बसनि पति भए भय भेषा ॥
आतुरित अंधड़ ने ऐसी हानि की कि उससे कितना ही जीवन नष्ट हो गया । राजा शर्याति के साथ आए सैनिकों में परस्पर क्लेश होने लगा ॥ निर्भयता का वस्त्रधारी राजा भय के वेश के वष में हो गया ॥
किए उत्पात दीठपात् भयउ बरन अ क्रांत ।
तासु मन उद्बेग जुगत, किए मलिन मुख कांत ॥
इस उत्पात दर्श कर वह भयवेश आक्रांति के वर्ण का हो गया ॥ उद्वेग से युक्त मन-मानस ने उनके कांतिवान मुख को भी मलिन कर दिया था ॥
मंगलवार, १४ अक्तूबर,२०१४
लोगिन्हि राउ पूछत सोधे । किए एहि दूषन कौन प्रबोधें ॥
जाने निज कनिआँ करतूती । हृदय भवन दुःख भरे बहूँती ॥
राजा घटना- कर्त्ता के शोधन हेतु जन जन से पूछताछ करने लगे उन्होंने कहा : -- कहो तो बिमौट भवन के भंजन का दोषी कौन है । जब उनको यह संज्ञान हुव कि उनकी कन्या ही इस कुकृत्य की दोषी हैं, उनक हृदय भवन दुःख से संकुलित हो गया ॥
गयउ सैन सह तपसी पाहीं । स्तमित नयन जव जल बोहाही ॥
भरे कंठ गुन गावनु लागे । पाए परस पद तपसी जागे ॥
वे सैन्य सहित तपस्वी मुनि के पास गए । एवं उनके स्तमित नयन से धीरे धीरे अश्रु प्रवाहित होने लगे ।। भरे क्लांत से वे मुंवार की स्तुति गाने लगे ॥ तब चरणों में राजा शर्याति का स्पर्श प्राप्त कर मुनि की तंद्रा जगी ॥
श्रुत अस्तुति मुनि नयन प्रफूरे । दया कहत नृप दुहु कर जूरे ॥
तब कहि मुनि मनीषि भृगु जाता । एहि तुहरे धिअ के उत्पाता ॥
स्तुति श्रवण कर मुनिवर के लोचन प्रसन्नता से खिल गए । नृप ने अवसर जान कर दया हो कहकर दोनों हाथ जोड़ लिए । तब भृगुपुत्र मनीषी च्यवन ने कहा ये तुम्हारी कन्या तो बड़ी उत्पाती है ॥ इसकी कौन सी जाति है ॥ महाराज स्त्री जाति है ॥
बेध पलक मम दीठ प्रभंगे । चापत तेज सलाका संगे ॥
घटित प्रसंग तईं सब जानी । जान बूझ तोही भान न दानी ॥
अच्छा ! तेज मुखी शलाका से चाप कर इसने मेरी दृष्टि विभंजित कर दी। इस दुर्घटना का उसे पूर्ण संज्ञान है । तथापि जान बूझ कर तुम्हे बोध नहीं कराया ॥
तापसी तन हानि दोष, तुहरे सिरु पर आन ।
अजहुँ हेरत सुजोग बर, दउ सो कनिआँ दान ॥
एक तपस्वी के शरीर की हानि का दोष तुंम्हारे शीश पर चढ़ गया है । अब तुम कोई सुयोग वर का अन्वेषण कर इस उत्पाती कन्या को उसे दान कर दो ॥
बुधवार, १५ अक्तूबर, २०१४
जो तुअ दानिहु को निज जाता । होहि समन ए सकल उत्पाता ॥
बोलि भूप अस बर कहँ हेरें । कहे महर्षि अहहैं बहुतेरे ॥
जब तुम अपनी इस कन्या का पाणि किसी सुयोग्य वर को दान करोगे तब यह सभी उत्पात स्वमेव शांत हो जाएंगे । राजन ने कहा : -- हे मुनिवर औचक ऐसा सुयोग्य वर कहाँ ढूंडे । तब महर्षि ने कहा ऐसे वर बहुंत हैं ॥
एकु सुकुँअर तुहरे सों होहीं । जोई पानि ग्रहन पथ जोहीं ॥
सुनि मुनि बचन राउ दुःख माने । धनु तन धिअ नउ बय संधाने ॥
एक सुकुमार तो तुम्हारे सम्मुख विराजित है जो पाणि-ग्रहण हेतु प्रतीक्षारत है । मुनि के ऐसे वचन श्रवण कर राजन
को बहुंत कष्ट हुवा । धनुष जैसी तनुज और उसपर नवयौवन रूपी सर का संधान ॥
अंग अंग जस रसरी कासी । सब गुन सम्पन अरु मृदु भासी ॥
बयो बिरध मुनि अँधरा कूपा । दानिहि तिन निज कनि को भूपा ॥
अंग नग ऐसा जैसे उस पर कसी हुई प्रत्यंचा हो जो सर्वगुण सम्पन होते हुवे अति मृदुल भाषी है ॥ और यह मुनि वयोवृद्ध उसपर अँधेरा कुॅंआ । कौन राजन उस कुँए अपनी कन्या को धक्का देगा ॥ अर्थात यह मुनि इस कन्या हेतु योग्य नहीं है राजा शर्याति के मन ने ऐसा विचार किया ॥
कुअँरि कनी पर भय बस नाहा । निरनय अँध रिषि संग बिबाह ॥
भूपति पाहन उर पर धारी । पूरनेन्दु मुखि प्रान प्यारी ।।
किन्तु भय के वशीभूत होकर राजा ने अंधे ऋषि च्यवन के संग अपनी कन्या का विवाह करने का निर्णय लिया । फिर हृदय पर पत्थर रखकर अपनी पूर्णिमा के विधु के जैसी प्राणों से प्यारी,
नव पल्लव पुरइन के नाई । धीदा धिअ जब रिषि कर दाईं ॥
मुनि रिस परगसि जोइ क्लाँती । भए समन परे सब कहुँ साँती ॥
पद्म पुष्प के नव पल्लव सी उस गुणी कन्या वृद्ध ऋषि को दान कर दी । तब मुनिवर के क्रोध के कारणवश जो क्लांति प्रकट हुई थी उसका तत्काल ही शमन हो गया, सभी ओर शांति निवास करने लगी ॥
एहि बिधि सरयाति निज धिए दे च्यवन कर दान ।
दुखि मन सन गरुबर चरन , आपनि धानी आन ॥
इस परकर राजा शर्याति ने कन्या महर्षि च्यवन को सौंप कर दुखित हृदय एवं भारी चरणों के साथ अपनी धानी में लौट आए ॥
सकल रच्छक सह चले पीठे । तीरहि तीर तपो भुइ डीठे ॥
कुंजरासन कुसा के छाईं । मुनि मनीषि दृग देइ दिखाईं ॥
समस्त योद्धा साथ देते उनके पीछे चल रहे थे । पथ के तीर तीर तपोभूमि दृश्यमान हो रही थी ॥ पीपल के पेड़ एवं कुश की छाया किए मुनि मनीषी दृष्टिगत हो रहे थे ॥
रघुनाथ के कीरत अगाने । सकल जुजुधान सुनत पयाने ॥
हितकृत गिरा जहँ दिए सुनाई । यह जग्य के है चलिहि जाईं ॥
समस्त योद्धा उनके श्री मुख से रघुनाथ जी की कीर्ति - व्याख्यान सुनते जा रहे थे ॥ जहां यह कल्याण कारी वाणी सुनाई दे रही थी कि श्रीराम चन्द्रजी के द्वारा त्यागा गया मेधीय अश्व है जो बढ़ता ही चला जा रहा है इसे हनन करने का साहस किसी में नहीं है ॥
श्री हरिहि के अंस अवतारा । रामानुज रिपुहंत द्वारा ॥
रच्छितमान जोइ चहु फेरे । बीर बानर बीथि के घेरे ॥
यह श्रीहरिः के अंशावतार श्रीराम के अनुज शत्रुध्न द्वारा चारों ओर से रक्षित है उसपर वीर वानरों की पंक्तियों का व्यूह है ॥
जासु रति हरि चरनिन्हि रागी । चित के बृत्ति भजन मह लागी ॥
तासु निगदन श्रवन श्रुत साधन । भए तोषित सत्रुहन मन ही मन ॥
जिनकी अनुरक्ति हरि चरणों को अलक्तक करती हैं एवं जिनकी चित्त की वृत्ति सदा हरि भजन में ही लगी रहती । उन मुनि मनीषा के कथन अपने श्रुति साधनों से श्रवण कर भ्राता शत्रुध्न मन ही मन संतुष्ट होकर : --
अगत कहत पथ चिन्हिनि लेखे ।अगहुँन एक सुचि आश्रम देखे ॥
जोइ रहही अतिसय बिसेखा । बेद बचन तरु पत पत लेखा ॥
आगे बढ़ो : -- ऐसा कहते पथ में चिन्ह अंकित करते जा रहे थे । आगे उन्होंने एक अलौकिक आश्रम देखा ॥ जो सभी आश्रमों में विशिष्ट आश्रम था । जहां पत्र पत्र पर वेद वाक्य लिखे थे ॥
अंग अंग धूनि मै हो जहँ गुंजहि चहुँ पास ।
घट घट हित के बास कर, करे अहित के नास ॥
वेद के अंग अंग ध्वनिाय होकर दसों दिशाओं में गुंजायमान थे । जो घट घट में अभ्युदय का वास कर अहितकारी शक्तियों को नष्ट कर रहे थे ॥
शनिवार ०४ अक्तूबर, २०१४
जहँ मुनि मनीष परम प्रबेका । रचे हबिर गह अनेकनेका ॥
दसहुँ दिसि केतन धूम धरिही । प्रान संभृत सुबासित करिहीं ॥
जहां परम श्रेष्ठ मुनि मनीषियों ने अनेकानेक हविर् भवन रच रखे थे । दसों दिशाएं ह्वीरगाग्नि के धूम्र से व्याप्त थीं जो प्राण वायु को सुवासित कर रही थीं ॥
का अवनी अरु का आगासे । हबिस रसन त्रइ लोक प्रगासे ॥
बयरु भाउ जहँ बरि तिल तिल के । बिल जीवी रहे बिनहि बिल के ॥
क्या धरती और क्या अंतरिक्ष हविरशन से तीन लोक प्रकाशित हो रहे थे ॥ कुण्ड में वैमनस्य तिल तिल कर भस्म होता जाता । बिल जीवी बिल हीन हो चले वे निर्भय होकर विचरण करते थे ॥
ग्रासे न कोउ मीच अकाला । राखैं गोकुल जहाँ ब्याला ॥
सरिसर्प रहे मोर प्रसंगा । खेली करत नेवला संगा ॥
अकाल मृत्यु का कोई भी ग्रास नहीं बनता था । हिंसक पशु जहां गौ वंश की रक्षा करते थे ॥ सृसर्प मोरों के प्रसंग में रहते, एवं नेवलों के साथ कौतुक करते ॥
गज मृग केसर करे मिताई । सबहीं बयरु भाउ बिसराईं ॥
जल थल गगन बिहरे बिहागे । काहू के संग भय नहि लागे ॥
हिरन कुंजर व् सिंह में परस्पर मित्रता होती । सभी ने जैसे द्वेस भाव को त्याग दिया था ॥ पक्षी वहां गगन सहित जल थल में भी विहार करते । उन्हें किसी से भी भय नहीं लगता ॥
हिरनै लोचन हरितक ताके ।चतुस्तनि जहँ चले चरबाँके ।
ग्रास ग्रास रस अमरित भरिहीं । थन मंडल तट घट कृति धरिहीं ॥
हरी हरी घाँस स्वयं हिरणों के लोचनों को ताका करती कि वे कब हमें ग्रास बनाएं । जहाँ गौवें स्वछंद विचरण किया करती थी उनके ग्रासों में अमृत का वास था उनके थन एवं उसके तट मण्डलित होकर जैसे कुम्भाकृति के हो गए थे ॥
तासु चरनन धूरि संग, भूमि भयउ भरतारि ।
निग्रह हविष्वती सरूप , कामन पूरन कारि ॥
उनकी चरणधूलिका के संग धरणी भी धात्री हो गई थी । उन गौवेंका श्रीनिग्रह हविष्मती का स्वरूप होकर सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाला था ॥
रविवार, ०५ अक्तूबर, २०१४
मुनि मनीषि कर समिधा धारे । कुंड कुंड हबनायुस सारे ॥
नित्य नैमितक करम बिधाना । तपोबन किए जोग अनुठाना ॥
मुनि मनीषियों के हस्त समिंधन से सुशोभित थे । समस्त हविर् कुण्ड हवन द्रव्य से युक्त थे । शास्त्राचारियों ने धार्मिक क्रियाओं द्वारा उस तपोभूमि को अनुष्ठान के योग बना रखा था ॥
सत्रुहन अस आश्रमु जब पेखे । श्रीराम सचिव सो पूछ देखे ॥
सूर अलोक सौम अति सुन्दर । रमनइ रयन बरसें सुधाकर ॥
भ्राता सह्त्रुध्न ने जब ऐसा पावन आश्रम देखा तब श्रीरामचन्द्र जी के सभा सचिव सुमति से पूछा । मान्यवर ! सूर्यालोक की सौम्यता जिसे अतिशय सौंदर्य प्रदान किए है जहाँ जब सुधा की वर्षा होती है तब रयन परिभ्रमण किया करती है ॥
जासु प्रभा दीपित राका सी । पल्लबित बिपिन बीथि प्रकासी ॥
अलौकिक आश्रमु सौमुँह एहू । कहु त कवन के हे मम नेहू ॥
जिसकी प्रदीप्ति पूर्णिमा की सी है जो पल्लवित विपिन के पंथ पंथ को प्रकाशित करती है । ऐसा आलौकिक आश्रम जो सम्मुख दर्शित हो रहा है मेरे स्नेही ! कहो तो वो किसका है ?
तपसी तपस बिषमता खोई । बयरु ना करहि काहु न कोई ॥
बिहरए गोचर हनन बिहीना । तपस्या फल अभय बर दीना ॥
यहाँ तपस्वियों की तपोनिधि के बल से विषमताएं जैसे मिट सी गई हैं कोई किसी से द्वेष नहीं करता। वन गोचर बाधाओं से रहित होकर विहार कर रहे हैं इन तपस्वियों की तपस्या यहाँ फलीभूत है गोचरों को अभय का वर मिला है ॥
जहँ लग दीठ तहँ दरसे, मुनि मंडल भरपूर ।
इहाँ विद्वेस भय सोक, दरस न दूरिहि दूर ॥
जहाँ तक दृष्टि जाती है वहां तक यह स्थली मनीषियों की मंडलियों से भरी पूरी दर्शित हो रही है । यहाँ विद्वेष, भय, शोक दूर दूर तक कहीं दिखाई नहीं देते ॥
सोमवार, ०६ अक्तूबर, २०१४
सुमते एहि मोरी अभिलाखा । सुनिहौं मैं मुनिबर सम्भाखा ॥
सुनै बचन अतिसय बिद्याधर । जोरत दुहु कर बदने सादर ।।
हे सुमते ! मेरी यह छोटी सी अभिलाषा है कि मैं मुनिवर का सम्भाषण के श्रुति का प्रसाद ग्रहण करूँ ॥ भ्राता शत्रुध्न के वचनों को सुनकर अतिशय विद्या धारी सुमति ने दोनों हाथ जोड़ते हुवे आदर सहित कहा : --
जो हमरे दृग दर्सित अहहैं । सो कुटीरु च्यवन रिषि रहहैं ॥
एहि भुवन तपोनिधि सन सोहहि । इहां जंतु मह बयरु न होइहिं ॥
महोदय ! हमारी दृष्टि में जो पवित्र कुटीर गोचर हो रही है वहां महर्षि च्यवन निवास करते हैं ॥जिस भूमि पर यह कुटीर स्थित है वह भूमि तपस्वियों से सुशोभित है । यहाँ जंतु द्वेष के भाव से शुन्य हैं ॥
महर्षि च्यवन मुनिबर सोई । जासु कथा निगमागम जोईं ॥
जेहि मनुसुत सर्याति संगे । मख मह सुरपत मान प्रभंगे ॥
यह महर्षि च्यवन वही मुनीश्वर हैं जिनका वृत्तांत निगमागम में वर्णित है ॥ जिन्होंने मनु पुत्र राजा शर्याति के संग महान यज्ञ में इंद्रदेव का अभिमान प्रभञ्जित कर दिया था ॥
बुला पठइ अस्बिनी कुमारा । सुरन्हि पंगत मह बैठारे ॥
सत्रुहन पुनि पुनि पूछ बुझाई । बहुरि का भयउ रे मम भाई ॥
एवं अश्विनी के पुत्रों को देवताओं की पंक्त्ति में आसन दिया ॥ तत्पश्चात भ्राता शत्रुध्न उत्सुकता वश वारंवार प्रश्न करने लगे यह कहते हुवे कि रे मेरे भ्राता फिर क्या हुवा ।।
कहत सुमत बिधि बसात, सृष्टि कारु कुल जात ।
एकु महर्षि नाउ भृगु भए जो जग भर बिख्यात ॥
तब सुमति ने इस प्रकार उत्तर दिया : -- दैवयोग से सृष्टि कर्त्ता ब्रह्मा जी के कुल जातकों में एक महर्षि हुवे जिनका नाम भृगु है जो जग भर में सुविख्यात हैं ॥
मंगलवार, ०७ अक्तूबर, २०१४
एक बासर रिषि समिध सँजोउन । आन सुदूर भीते सघन बन ।
चलिहि मुनि औचक तेहि अवसर । परगसे दमन नाउ निसाचर ॥
जान कहँ ते कवन दिसा सों । बासर संग गहन निसा सों ॥
धरा कि गगन कि सोंह पताला । नग निरझरि सोंह सरि कि ताला ॥
एक दिन महर्षि भृगु समिंधन संकलित करने हेतु उसका अन्वेषण करते अपने आश्रम से दूर सघन वन के अंतर में समाहित हो गए ॥ मुनिवर चले जा रहे थे कि तत्समय औचक ही दिवस से कि गहन निशा से धरती से कि गगन से की पाताल से पर्वत से झरने से की सरिता से की ताल से न जाने कहाँ से कौन सी दिशा से दमन नाम का एक दानव प्रगट हो गया ॥
प्रगस हेतु मुनि जग्य बिनासा । दहन देव सों बरत कुभासा ।।
बिकराल बचन बोल भयंकर । सो कह चलेसि कहँ मोहि निंदर ॥
उसका प्राकट्य ऋषिवर के यज्ञ नष्ट करने के उद्देश्य से हुवा था । वह अग्नि देव को संबधित कर जब यह कहते हुवे कुभाषा का उपयोग करते हुवे करते हुवे वह विकराल वक्तव्य के सह वह भयंकर शब्द करते हुवे कहने लगा । मेरी निंदा करते हुवे जो यह ऋषि कहाँ जा रहा है ।
कहँ मख भवन सो अधमि मुनि के । कहाँ सदन अकल्किता संगिनि के ॥
अगन देव निज भय बस जाना । मुनिहि ठिया दनु दरसन दाना ॥
उस अधमी मुनि का यज्ञ कुण्ड खान है एव्वं उसकी निष्कलंक संगिनी का सदन कहाँ है ? ( मुझे तत्काल इसका संज्ञान कराओ ) तब अग्नि देव ने सवयं को भय के वशीभूत जान कर उस दानव को मुनिवर की कुटीर के दर्शन करा दिए ॥
सोइ समउ सो नारि सती । मुनि अंस गहे रहि गर्भवती ॥
निसिचर तुरतै आन दुआरी । दन्त अछादन देइ उघारी ॥
उस समय वह पतिव्रता नारी महर्षि भृगु का अंश गर्भ में ग्रहण कर गाभिन थी । निशिचर को जैसे ही महर्षि के सदन स्थली का ज्ञान हुवा वह तत्काल ही वहां पहुँच गया । उसने अपने दन्त आच्छादन का अनावरण कर : --
किए हास भयंकर, डोलिहि भूधर, तोयधि तरंग उछरे ।
खल कर गहि नारि अबला बेचारि बहु भाँति बिलाप करे ॥
कण्ठन किए भारी, घोर पुकारी, प्रान नाथ तपो निधे ।
कह त्राहि मम त्राहि अस तलफलाहि अधम तैं साधि न सधे ॥
उसने ऐसा भयंकर अट्टाहस किया कि पर्वत डुलने लग गए , सिंधु की तरंगे उछल पड़ी । तब उस दुष्ट के कर पाश में बंधी वह बेचारी अबला नारी बहुंत प्रकार के विलाप करने लगी ॥ उसने भारी कंठ कर वह गहन गुहार लगाने लगी हे प्राणनाथ ! हे तपोनिधि आप कहाँ हो इस दानव से मेरी रक्षा करो प्रभु रक्षा करो इस प्रकार विलाप कराती हुई वह जलहीन मीन के सदृश्य व्याकुल हो गई ऐसी अवस्था में उस दुष्ट दानव से साधी न जा रही थी ॥
रिषि पतिनी पुकार रही भरि अति आरत भाउ ।
लीन्हिसि तेहि कंधधरि, अधमी हिंस सुभाउ ॥
महर्षि की पत्नी अत्यंत आर्त भावों से भर कर करुण पुकार कर रही थी । हिंसक स्वभाव वाले उस दुष्ट राक्षस ने उसे कंधे पर उठाया ॥
बुधवार, ०८ अक्तूबर, २०१४
करेसि बिलखत बिबिध बिलापा । भरि मुख भय उर तोयधि तापा ॥
भयउ बहिर दनु अस ले धाईं । बात रूष जस तृन लिए जाईं ॥
तब वह बिलखने लगी उसके विलाप में और अधिक विविधता आ गई उसका मुख भय से आक्रांत हो गया जिससे उसका ह्रदय रूपी सिंधु से संताप रूपी जल से परिपूर्ण हो गया ॥ आश्रम से बहिर्गमन कर दानव उस सती-साध्वी को कंधे में उठाए ऎसे दौड़ चला तृण को लिए जैसे कोई अंधड़ दौड़ रहा हो ॥
महनी रिषि के असूरपस्या । भएसि दनुज कर पाँसुल बस्या ॥
निगदत सठ दुर्बादन नाना । दुर्बचन सन करे अपमाना ॥
महनीय ऋषि की सती-साध्वी दनुज के कर पांशुल के वश में हो गई । वह दुष्ट बहुंत प्रकार के दुर्वचन कहते हुवे दुष्टत्ता भरे कथनों से उसे अपमानित करने लगा ॥
करे सती बिलाप अस भारी । भएउ चराचर जीउ दुखारी ॥
गहन कंठ आरत निह्नादा । ससि कंत मुख भरे अवसादा ॥
तब उस सतीव्रता ने ऐसा भारी विलाप किया की चरचर जगत के जीव संताप से ग्रसित हो गए । गहरे कंठ से सहायता हेतु करुण ध्वनि फूट पड़ी उसके शशि के सदृश्य सुकांत मुख अवसाद से भर गया ॥
भय भीत होत आकुल होई । गर्भ पतन के कारन जोई ॥
गहे अंस छन माहि निपाता । जुगित ज्वाल नयन नउ जाता ॥
वह भयके अधीन होकर व्याकुल हो गई । यह व्याकुलता गर्भ के पतन का कारण बनी । उसके गर्भ में महर्षि भृगु का जो अंश गृहीत था वह क्षण भर में उसका पतन हो गया । पतित नवजात की दृष्टि ज्वाला से युक्त थी ॥
ललाट हलरत ऐसेउ लसे । कि अगनी देउ साखी प्रगसे ॥
निरख निसा चर थर थर काँपा । रे दुर्जन कहत देइ सापा ।
वह ललाट पर कपकंपाते उसकी दृष्टि ऐसे प्रदीप्त हुई उस प्रदीप्ति से अग्निदेव साक्षात प्रकट हुवे । जिसे देखकर वह निशाचर थर थर कांपने लगा । अग्नि एव ने उसे रे दुष्ट कहते हुव यह श्राप दिया : --
असूरपस्या परस किए, धृष्ट ढीठ रे धूत ।
पोचक पाँवर अजहुँ तुअ, होइहु भस्मी भूत ॥
कि तुमने एक पतिव्रता नारी का स्पर्श किया है अरे लज्जाहीन अरे धृष्ट, धूर्त, तुच्छ प्राणी रे मूर्ख तुम अब भस्म होकर भूत हो जाओगे ।।
बृहस्पतिवार,०९ अक्तूबर,२०१४
इत रिषि तिआ मुख भय ब्यापा । उत पोच दनु सुरति निज पापा ॥
अगन देउ आपन पो पोषा । ब्यापित होत दनु जल सोषा ॥
इधर ऋषि पत्नी के मुख पर भय व्याप्त था उधर वह अधम दानव अपने पापों का स्मरण कर रहा था ॥ अग्नि देव ने अपने स्वत्व को पोषित कर चारों और व्याप्त होकर फिर उस दानव रूपी जल को शोषित कर लिया ॥
तप के भए ऐसेउ प्रतापा । दानव तन उरि बन भापा ॥
मुए बालक जनि किए अँकवारी । करेसि क्रंदन घोर पुकारी ॥
उस तपस्विनी की तपस्या का प्रताप कुछ ऐसा था कि दानव की देह जल वाष्प बनकर उड़ गई उस दानव का अंत हो गया ॥ ततपश्चात मृत्यु को प्राप्त उस बालक को गोद में लिए क्रंदन करते हुवे वह साध्वी घोर पुकार करने लगी ॥
भरे मनस जस आश्रमु आई । तासु पीर लिखि बरनि न जाई ।।
महर्षि बालक गति जब जाना । अग्नि देउ करतूति नुमाना ॥
भरे मन से वह जिस भांति आश्रम में आई उसकी वह पीड़ा वर्णनातीत है ॥ महर्षि को जब बालक की दशा का संज्ञान हुवा उन्होंने अनुमान लगाया कि यह सब अग्नि देव का किया धरा है ॥
सोक बिबस मुख भर अति क्रोधा । श्राप देत तिन अस सम्बोधा ॥
कहत हारि तुअँ अग्निहि देवा । रिषि मुनि प्रति अहहि ए सेवा ॥
वे शोक के वशीभूत हो गए उनका मुख क्रोध से भर गया । श्राप देते हुवे वे अग्नि देव से सम्बोधित हुवे : --
रिपु सुमुख घर के भेद, रे खल बोल बताए ।
गर्भ गहि अबला तापर सुरारि देइ चढ़ाए ॥
उन्होंने कहा : -- अरे दुष्टात्मा तुमने शत्रु के समक्ष घर का भेद प्रकट किया एक तो गर्भवती अबला उसपर वहां राक्षस को भेज दिया ।
शुक्रवार, १० अक्तूबर, २०१४
अस कह लोहित लोचन लाखी । अधुनै हो तुअ सब कछु भाखी ।।
अगनि देउ तब भयउ दुखारी । हहर मुनिबर चरन लिए धारी ॥
ऐसा कहकर महर्षि ने उसे जलती हुई दृष्टि से देखते हुवे कहा : -- अब से तुम सर्वभक्षी हो जाओ ॥ तब अग्नि देव अत्यंत दुखित हो गए भय से कांपते हुवे उन्होंने महर्षि के चरण पकड़ लिए ॥
बोलइ बिधूनित बिक्लब बचन । दया अरु धरम के सिरु भूषन ।।
मोर सिरु निज कृपा कर धारे । असत भय दनु भेद दे पारें ॥
कांपते हुवे ही वे भय से पूर्णित नैराश्यपूर्ण वचन कहने लगे ( उन्होंने कहा ) हे दया व् धर्म के शिरोभूषण ।। म्रेरे शीश पर आपकी कृपा बनी रहे एवं सदैव आपका सदा हाथ रहे । मैने असत्य के भय से उस राक्षस को आपकी कुटिया का भेद दे दिया ॥
हे मही देउ भाग बिधाता । मैं उतपाती तुम छम दाता ॥
अगने याचन दिए जब काना । तरस प्रतापस दया निधाना ॥
हे भूमिसुर हे भाग्य विधाता । मैं उत्पाती हूँ आप क्षमा के दातार हैं ॥ जब महर्षि भृगु ने अग्नि देव की याचना को सुना तब उन दया के भंडार व् श्रेष्ठ तपस्वी ने करूँणा करते हुवे : --
दय द्रवन बस बोले अस बचन । सापित होत तुअ रहिहु पावन ॥
मंगल मय मही देउ बहोरि । नहान पर धरे कुस कर पोरि ॥
दया से द्रवित होकर ऐसे वचन कहे : -- हे अग्निदेव ! तुम मेरे शाप से अभिशप्त होते हुवे भी पवित्र रहोगे ॥ तत्पश्चात पृथ्वी के मंगलमय देवता ने स्नान आदि से पवित्र होकर करज में कुश धारण कर : -
गर्भ निपतित निज पूत के , किए जात संस्कार ।
ते समउ मुनिजन च्यवन, तासु नाउ दिए धार ॥
गर्भ से निपतित अपने पुत्र का जात-कर्म संस्कार किया । उस समय गर्भ निपतित होने के कारण वहां उपस्थित संपूर्ण तपस्वियों ने उस बालक का नामकरण च्यवन के रूप में किया ॥
शनिवार, ११ अक्तूबर, २०१४
सित पख परिबा जस सस गाढ़े । च्यबन रिषि हरिअर तस बाढ़े ॥
जुगत बय जब तनि बाड़ बढ़ाए । तपस करन पुनि मन माहि आए॥
शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि से चन्द्रमा की कांति ज्यूँ ज्यूँ वर्धित होती है । च्यवन ऋषि भी त्यूं त्यूं वयस्कर होने लगे ॥ जब किंचित आयुष्मान होकर वयस्थ हो गए तब उन महर्षि के चित्त में तपस्या करने की अभिलाषा जागृत हुई ॥
होइ जासु जल जीवन दाईं । सोइ नर्बदा तीर अवाईं ॥
तहाँ करे घन घोर तपस्या । निरंतर दस सहसै बरस्या ॥
जिसका पवित्र जल जगत हेतु जीवनद है उसी नर्मदा नदी के तट पर महर्षि का आगमन हुवा ॥ वहां फिर उन्होंने दस सहस्त्र वर्षों तक निरंतर कठोर तपस्या की ॥
बाहु सिखर बिमौट लिए घेरी । संकलित किए मृदा के ढेरी ।।
ता ऊपर दुइ बिटप बिकासे । पलत पात पथ फुरै पलासे ।।
उनकी भुजाओं पर मृदा का संकलन कर ढेरी लगाते हुवे दीमको ने अपना घर बना लिया ॥ उस घर के ऊपर दो विटप पनप आए । उसपर पल्लव पलने लगे, उसकी शखाओं पर पलाश के पुष्प फूलने लगे ॥
आन हिरन धर गल गंडा । ले बच्छर सुख रगर प्रगंडा ॥
तासु करनि मुनि भेद न पावैं । तपस मगन किछु नहि सुधियावै ॥
हिरण वहां आते अपने कंठ व् गालों को घर्षित कर मुनिवर के बिमौट रूपी देह भवन से वात्सल्य का सुख प्राप्त करते । उनके ऐसे कृत्य से महर्षि अनिभिज्ञ रहते तपस्थ अवस्था में उन्हें कुछ चेत नहीं रहता वे अविचल भाव से स्थिर रहते ॥
एकु समउ के बात अहैं, सकल सँजोउनि साज ।
मनु पुत भूपति सरयाति, कौटुम सहित समाज ॥
एक समय की बात है जब मनु पुत्र रजा शर्याति सकल साज सामग्री से युक्त परिवार सहित तैयार होकर : -- रविवार, १२ अक्तूबर, २०१४
तीर्थाटन तरौंस अवाईं । पताकिनिहु पत सन मह आईं ॥
हर्षोत्करष मज्जनु कीन्हि । देउ पितरु गन तरपन दीन्हि ॥
तीर्थाटन हेतु नर्मदा नदी के पावन तट पर आए । चतुरंगिणी सेना भी अपने भूपति के साथ ही थी ॥ हर्ष एवं उत्कर्ष से फिर राजा शर्याति ने नर्मदा में निमज्जन कर अपने देव व् पितृ जनों को तर्पण किया ॥
दान मान बहु बिबिध बिधाने । पेम सहित जाचक कर दाने ॥
प्रजापति के रही एक कनिआ । पूर्नेन्दु निभ रूप की धनिआ ॥
ततपश्चात याचिताओं को प्रेम सहित विभिन्न प्रकार के दान एवं सम्मान प्रदान किया । उस प्रजापति की एक कन्या थी जो पूर्णिमा के चाँद के जैसे रूप की धनी थी ॥
तपित हिरन तन अभरन धारी । सखिन्हि सन बन माहि बिहारी ॥
निरखिहि तहँ एक भवन बिमौटा । लागिहि तिन जस परिगत कोटा ॥
तप्तवान् स्वर्ण के सदृश्य वपुर्धर में भूषण धारण किए वह सखियों के संग वन में विहार कर रही थी ॥ कि तभी वहां एक वल्मिक भवन दिखाई पड़ा जो किसी परिगत परकोट सा प्रतीत हो रहा था ॥
जासु भीत लसि तेजस कैसे । रतन जड़ित मनि मंडप जैसे ।।
भयउ निमीलित रहित निमेखा । जोइ देखि सो रहि उन्मेखा ॥
उस भवन की आतंरिक प्रभा ऐसे दीप्त हो रही थी जैसे वह भवन रत्न जड़ित कोई मणि -द्वीप हो ॥ इसे जिस किसी ने भी देखा वह चेतनाहीन होकर निर्निमेष हो गया ॥
कौतुहल के बसीभूत, राउ कनी रहि ताक ।
हरिअइ गवनइ तासु पहि, कर धरे एक सलाक ॥
कौतुहल के वशीभूत होकर राजा शर्याति की वह कन्या उस भवन को एकटक निहारती रही । फिर वह धीरे से उस के पास गई, उस समय उसके हस्तमुकुल में एक शलाका थी ॥
सोमवार, १३ अक्तूबर, २०१४
तेजस मुख चापत दिए फोड़े । बहि रुधिरु जस बाँध जल छोड़े ॥
बहत रकत कुँअरिहि जब देखे । भयउ सुकुअ री खेद बिसेखा ॥
उस के धारदार मुख से दाब देकर उसने दीमक के भवन को फोड़ दिया । तब उस भवन से रक्त-धार ऐसे फूट पड़ी जैसे कि किसी बांध से जल छूटता हो । रक्त को बहते देख सुकन्या को विशेष खेद हुवा ॥
दुःख संग कातर सोक महु भरि । मूकबत मौनाबलम्बन धरि ॥
ध्वज प्रहरि रत पत जस काँपी । अह !घटे ए का सोच संतापी ॥
दुःख से कातर होकर वह शोक संतप्त हो गई , मूकवत् होते हुवे उसने चुप्पी साध ली ॥ इस घटना से आहत होकर वह वायु युक्त पत्र के जैसे कम्पन करने लगी । तथा आह ! ये क्या हो गया यह विचार कर संताप करने लगी ॥
अबूझ बयस बोध अपराधा । केहि सो कहन मह भए बाधा ॥
घटे प्रसंग किए न उजागर । तात मात सहुँ कुँअरी भयकर ॥
किसी के सम्मुख अपराध का उद्बोधन करने में उसकी अवयस्क अवस्था बाधा बनी । उसने घटे हुवे प्रसंग को कहीं उजागर नहीं किया । उसे तात-मात से यह सब कहने में भय जनक लगा ॥
तेहि अवसर धरा अस हहरी । हलरु तरु साखि पत पत प्रहरी ॥
दसों दिसि मौली सिरी रंगे । करे रबिहि रथ रजस प्रसंगे ॥
उस समय धरती ऐसे कम्पन करने लगी की उसके कम्पन से वृक्ष हिलकोरे लेने लगे पत्ते फड़ फड़ की ध्वनि उत्पन्न करने लगे ॥
आतुर बातल किए अस हानी । न जान केत जीवन नसानी ॥
आनि संगि सो करै कलेषा । अभय बसनि पति भए भय भेषा ॥
आतुरित अंधड़ ने ऐसी हानि की कि उससे कितना ही जीवन नष्ट हो गया । राजा शर्याति के साथ आए सैनिकों में परस्पर क्लेश होने लगा ॥ निर्भयता का वस्त्रधारी राजा भय के वेश के वष में हो गया ॥
किए उत्पात दीठपात् भयउ बरन अ क्रांत ।
तासु मन उद्बेग जुगत, किए मलिन मुख कांत ॥
इस उत्पात दर्श कर वह भयवेश आक्रांति के वर्ण का हो गया ॥ उद्वेग से युक्त मन-मानस ने उनके कांतिवान मुख को भी मलिन कर दिया था ॥
मंगलवार, १४ अक्तूबर,२०१४
लोगिन्हि राउ पूछत सोधे । किए एहि दूषन कौन प्रबोधें ॥
जाने निज कनिआँ करतूती । हृदय भवन दुःख भरे बहूँती ॥
राजा घटना- कर्त्ता के शोधन हेतु जन जन से पूछताछ करने लगे उन्होंने कहा : -- कहो तो बिमौट भवन के भंजन का दोषी कौन है । जब उनको यह संज्ञान हुव कि उनकी कन्या ही इस कुकृत्य की दोषी हैं, उनक हृदय भवन दुःख से संकुलित हो गया ॥
गयउ सैन सह तपसी पाहीं । स्तमित नयन जव जल बोहाही ॥
भरे कंठ गुन गावनु लागे । पाए परस पद तपसी जागे ॥
वे सैन्य सहित तपस्वी मुनि के पास गए । एवं उनके स्तमित नयन से धीरे धीरे अश्रु प्रवाहित होने लगे ।। भरे क्लांत से वे मुंवार की स्तुति गाने लगे ॥ तब चरणों में राजा शर्याति का स्पर्श प्राप्त कर मुनि की तंद्रा जगी ॥
श्रुत अस्तुति मुनि नयन प्रफूरे । दया कहत नृप दुहु कर जूरे ॥
तब कहि मुनि मनीषि भृगु जाता । एहि तुहरे धिअ के उत्पाता ॥
स्तुति श्रवण कर मुनिवर के लोचन प्रसन्नता से खिल गए । नृप ने अवसर जान कर दया हो कहकर दोनों हाथ जोड़ लिए । तब भृगुपुत्र मनीषी च्यवन ने कहा ये तुम्हारी कन्या तो बड़ी उत्पाती है ॥ इसकी कौन सी जाति है ॥ महाराज स्त्री जाति है ॥
बेध पलक मम दीठ प्रभंगे । चापत तेज सलाका संगे ॥
घटित प्रसंग तईं सब जानी । जान बूझ तोही भान न दानी ॥
अच्छा ! तेज मुखी शलाका से चाप कर इसने मेरी दृष्टि विभंजित कर दी। इस दुर्घटना का उसे पूर्ण संज्ञान है । तथापि जान बूझ कर तुम्हे बोध नहीं कराया ॥
तापसी तन हानि दोष, तुहरे सिरु पर आन ।
अजहुँ हेरत सुजोग बर, दउ सो कनिआँ दान ॥
एक तपस्वी के शरीर की हानि का दोष तुंम्हारे शीश पर चढ़ गया है । अब तुम कोई सुयोग वर का अन्वेषण कर इस उत्पाती कन्या को उसे दान कर दो ॥
बुधवार, १५ अक्तूबर, २०१४
जो तुअ दानिहु को निज जाता । होहि समन ए सकल उत्पाता ॥
बोलि भूप अस बर कहँ हेरें । कहे महर्षि अहहैं बहुतेरे ॥
जब तुम अपनी इस कन्या का पाणि किसी सुयोग्य वर को दान करोगे तब यह सभी उत्पात स्वमेव शांत हो जाएंगे । राजन ने कहा : -- हे मुनिवर औचक ऐसा सुयोग्य वर कहाँ ढूंडे । तब महर्षि ने कहा ऐसे वर बहुंत हैं ॥
एकु सुकुँअर तुहरे सों होहीं । जोई पानि ग्रहन पथ जोहीं ॥
सुनि मुनि बचन राउ दुःख माने । धनु तन धिअ नउ बय संधाने ॥
एक सुकुमार तो तुम्हारे सम्मुख विराजित है जो पाणि-ग्रहण हेतु प्रतीक्षारत है । मुनि के ऐसे वचन श्रवण कर राजन
को बहुंत कष्ट हुवा । धनुष जैसी तनुज और उसपर नवयौवन रूपी सर का संधान ॥
अंग अंग जस रसरी कासी । सब गुन सम्पन अरु मृदु भासी ॥
बयो बिरध मुनि अँधरा कूपा । दानिहि तिन निज कनि को भूपा ॥
अंग नग ऐसा जैसे उस पर कसी हुई प्रत्यंचा हो जो सर्वगुण सम्पन होते हुवे अति मृदुल भाषी है ॥ और यह मुनि वयोवृद्ध उसपर अँधेरा कुॅंआ । कौन राजन उस कुँए अपनी कन्या को धक्का देगा ॥ अर्थात यह मुनि इस कन्या हेतु योग्य नहीं है राजा शर्याति के मन ने ऐसा विचार किया ॥
कुअँरि कनी पर भय बस नाहा । निरनय अँध रिषि संग बिबाह ॥
भूपति पाहन उर पर धारी । पूरनेन्दु मुखि प्रान प्यारी ।।
किन्तु भय के वशीभूत होकर राजा ने अंधे ऋषि च्यवन के संग अपनी कन्या का विवाह करने का निर्णय लिया । फिर हृदय पर पत्थर रखकर अपनी पूर्णिमा के विधु के जैसी प्राणों से प्यारी,
नव पल्लव पुरइन के नाई । धीदा धिअ जब रिषि कर दाईं ॥
मुनि रिस परगसि जोइ क्लाँती । भए समन परे सब कहुँ साँती ॥
पद्म पुष्प के नव पल्लव सी उस गुणी कन्या वृद्ध ऋषि को दान कर दी । तब मुनिवर के क्रोध के कारणवश जो क्लांति प्रकट हुई थी उसका तत्काल ही शमन हो गया, सभी ओर शांति निवास करने लगी ॥
एहि बिधि सरयाति निज धिए दे च्यवन कर दान ।
दुखि मन सन गरुबर चरन , आपनि धानी आन ॥
इस परकर राजा शर्याति ने कन्या महर्षि च्यवन को सौंप कर दुखित हृदय एवं भारी चरणों के साथ अपनी धानी में लौट आए ॥
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