Thursday, 2 October 2014

----- ॥ दोहा-पद॥ -----

              ----- ॥  हे  राम ! ॥ -----

फटिक मनि रचना रचे, जहां न गोकुल धाम ।
सो मंदर  खाली पड़े, बहिर हुए घनस्याम ॥

बिना स्याम का मंदिर भगत नबैद चढ़ाएं ।
भगतिहि  का पाखन करे, मीठे भोग उड़ाएँ ॥

पापी पाप तजे नहीं लाज तजे हे राम ।
सो मंदिर खाली पड़े, बहिर हुए घनस्याम ॥

जिन उद्यमि के कुल माता, निर्दय खूंटि बँधाए ।
ऐसे कलंकी कुल को, चाँद पे छोड़ आएँ ॥

बहुरि रैन देखो तिन्ह दूरबीन कर थाम ।
सो मंदर खाली पड़े, बहिर हुए घनस्याम ॥

भर भर आपनि झोलि ये हीरे चुन चुन लाएँ ।
बिष्टा निर्मल जल वालि गंगा माहि बहाएँ ॥

इनको कोस कोस के भजन करो अविराम ।
सो मंदर  खाली पड़े, बही हुए घनस्याम ॥

इन अधमी की चिता को निरदै आग लगाए ।
निरदै गौउ पूँछ धरा , नरक द्वारी दिखाए ॥

इनके होवनिहार के राखौ रावन नाम ।
सो मंदर खाली पड़े, बहिर हुए घनस्याम ॥  

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