शुक्रवार, १७ जुलाई, २०१५
बसेउ तहँ हरिभगत बिभीषन । बिप्र रूप धर गयउ पहिं हनुमन ।।
दिए निज परिचय करे मिताई । हरिपिय सिय कहँ पूछ बुझाई ॥
वह हरिभक्त विभीषण का निवास था हनुमंत विप्रा का रूप धारण किए वहां गए | अपना परिचय देते हुवे उससे मित्रता की और पूछा कि हरि को प्रिय माता सीता इस समय कहाँ हैं ?
कहहि अहहि सो बाटि असोका । सोइ रूप गत मात बिलोका ॥
परम दुखी भा मुख अति दीना । चरन नयन निज हिय पिय लीना ॥
विभीषण ने उत्तर दिया कि वह अशोक वाटिका में हैं विप्रा स्वरूप में हनुमंत ने माता के दर्शन किए | वह परम दुखित थी उनका मुख अत्यधिक दीन दर्शित हो रहा था | नेत्र चरणों में अवनत थे ह्रदय अपने प्रियतम में लीन था |
आगत रावन किए अपमाना । गयउ कहत दुर्बादन नाना ॥
गुंठे पवन सुत पल्लउ पारे । रघुपति दिए मुदरी सहुँ डारे ॥
रावण वहां आया भांति भांति के दुर्वचन कहकर उसने माता का अपमान किया कुछ समय पश्चात वह लौट गया | पवन पुत्र पल्लवों की ओट में अवगुंठित थे रघुपति के द्वारा दी गई मुद्रिका को उन्होंने माता सीता के सम्मुख गिराया |
चकित चितब मुदरी पहचानी । आन कपिहि कहि सकल कहानी ॥
जान हरिजन गहन भइ प्रीती । प्रभु सँदेसु गह बाढ़ि प्रतीती ॥
सीता जी उसे विलोक कर हतप्रभ रह गई वह उस मुद्रिका को पहचानती थी | हनुमंत सम्मुख आए और सारा वृत्तांत कहा | उन्हें हरिभक्त जानकर सीता जी को उनसे विशेष स्नेह हो गया, प्रभु का सन्देश प्राप्त हुवा तो विश्वास भी प्रगाढ़ हो गया |
बरन बरन लगै घनहि सरिसा । हरिदय पिया पय पेम बरिसा ॥
नयन पलक कोपल जल पूरे । बिरह ब्याकुल फूर न फूरे ॥
सन्देश के प्रत्येक वर्ण मेघ से लगने लगे वह हृदय में प्रियतम के प्रेम जल की वर्षा करने लगे | नेत्रों की पलकों रूपी कोपलें जल पूरित हो गई किन्तु विरह की व्याकुलता से वह प्रफुल्लित नहीं हुवे |
सजल सरोरुह नयन कपि कहे मातु धरु धीर ।
मारि निसिचर लेइ जान अइहहिं इहँ रघुबीर ॥
सरोवर से सजल नेत्र किए महावीर हनुमंत ने कहा माता ! धैर्य धारण कीजिए , उस राक्षस का वध कर आपको ले जाने हेतु रामचंद्र जी आएँगे |
शनिवार, १८ जुलाई, २०१५
उदर अतिसय छुधा जब जागे । लिए आयसु फल तोरैं लागे ॥
सकल बाटिका देइ उजारे । मर्द मर्द निसिचर संघारे ॥
उदर में अत्यधिक क्षुधा जागृत हुई तब माता से आज्ञा लेकर वह फल तोड़ने लगे | उन्होंने सारी वाटिका उजाड़ दी और राक्षसों का मर्दन कर उनका संहार करते चले |
रखिया पुकार सुनि जब काना । दनुपति पठए बिकट भट नाना ॥
आए समुख तब अच्छ कुमारा । गरज मह धुनि बिटप दै मारा ॥
रक्षकों की त्राहि को श्रवण कर दनुपति ने बहुंत-से विकट योद्धाओं को भेजा | उनके हताहत होने से अक्षयकुमार सम्मुख आए हनुमंत ने महाध्वनि से गर्जना करते हुवे सके शीश पर एक वृक्ष दे मारा |
सुत बध सुनि घन नाद पठावा । कहँ कपिहि कह बाँधि लै आवा ॥
एक पतंग सों दूज पतंगा । भिरे घन जस भिरे एक संगा ॥
पुत्र के वध का समाचार प्राप्त कर रावण ने मेघनाद को भेजा और कहा -- कहाँ है वह बन्दर ! उसे बाँध कर ले आओ | एक पतंग था तो दुसरा पतंगा था | वह दोनों ऐसे भिड़े जैसे गरजते घन एक दूसरे से भिड़े हों |
देखि ब्रम्हसर मुरुछित भयऊ । नागपास बाँधसि लिए गयऊ ॥
कपिहि बिहँस अस कहे दसानन । मारिहु मोर सुत केहि कारन ॥
ब्रह्मबाण के आघात से हनुमंत मूर्छित हो गए | मेघनाथ नागपाश से परिबद्ध कर उन्हें ले गया | वानर को विलोक कर रावण ने परिहास करते हुवे कहा -- 'कहो ! तुमने किस हेतु मेरे पुत्र का वध किया |'
लगे भूख त खायउँ मैं बाटिक तरु फर तोर ।
मोहि मारि त मैं मार, तामें दोषु न मोर ॥
क्षुधित होने के कारण मैने वाटिका से फल तोड़कर खाए | उसने मुझे मारा तो मैने उसे मार दिया, इसमें मेरा कोई दोष नहीं है |
रविवार, १९ जुलाई, २०१५
पूछत रे तुअ कहँ के भूता । कहे कपि मैं राम के दूता ॥
कहउँ बिनत अब बेर न कीजौ । सौंप रघुपति छाँड़ सिय दीजौ ॥
तत्पश्चात रावण ने पूछा -- 'तुम कहाँ के भूत हो ?' तब हनुमंत ने उत्तर दिया -- 'मैं भगवान श्रीराम का दूत हूँ और आपसे विनती पूर्वक कहता हूँ अब विलम्ब न करो माता को मुक्त कर रघुवीर को सौंप दो |
हित बत कहत बहुँत समुझायो ।दसमुख बिहँसि बिहँसि बिहुरायो ॥
मसक रूप कपि देइ ग्याना । खिसिअ कहि तव हरिहु मैं प्राना ॥
हनुमंत जी ने हितकर वचन कहते हुवे बहुंत ही प्रबोधन किया किन्तु देशमुख ने उसकी अनदेखी कर उसका उपहास कर क्षुब्ध होते हुवे बोला - तुम मत्सर आकृति के जीव मुझे ज्ञान देते हो, मैं अभी तुम्हारे प्राण हर लेता हूँ |
आए विभीषन भ्रात प्रबोधा । मारिहु दूत ए नीति बिरोधा ॥
बाँधि पूँछ पुनि अगन धराईं ।नगर फेरि सब बहुं बिहसाईं ॥
विभीषण ने आकर भ्राता को समझाया कि दूत पर आघात करना यह राजनीति के विरुद्ध है | रावण ने हनुमंत को पूँछ से बंधवा दिया फिर पूँछ को दग्ध कर उसे नगरभर में फिराया, नगरवासी हेतु वह हंसी के पात्र हो गए |
चलिअ मरुत करि देह बिसाला । भवन भवन चढ़ि धरइ ज्वाला ॥
पूँछ अनल यह दूत न होई । दिव्य सरूप देव कहँ कोई ॥
भगवान की प्रेरणा से पवन चलने लगी तब उन्होंने अपनी देहाकृति को विशाल किया व् प्रत्येक भवन पर चढ़ कर उन्हें अग्निमय कर दिया | कोई कहता -- 'यह अग्निपुंग कोई दूत नहीं है अपितु दिव्य देहधारी देव है |
सकल सिंहल धू धू करि कूदि सिंधु मझारि ।
आन सहुँ सिय चूड़ामनि कपि कर देइ उतारि ॥
समस्त सिंहलद्वीप को धू धू कर हनुमंत जी ने अगिनि शांत करने हेतु समुद्र में छलांग लगा दी और माता सीताजी के सम्मुख उपस्थित हुवे तब उन्होंने चूड़ामणि चिन्ह स्वरूप में हनुमंत को दी -
सोमवार, २० जुलाई, २०१५
करिहु नाइ सिर नाथ प्रनामा । कहिहु सिया को छन छन जामा ॥
अजहुँ प्रभो लए गयउ न मोही । मोरि देह पुनि प्रान न होही ॥
और कहा -- हे तात ! तुम नतमस्तक होकर नाथ को मेरा प्रणाम कर कहना सीता को एक एक क्षण एक एक पहर के समान है | यदि अब आप मुझे नहीं लिए गए तो फिर मेरी देह में न प्राण होंगे ||
अजर अमर गुन निधि बरदाना । दै जनि कर हनुमंत पयाना ।।
पार सिंधु कपिन्ह पहिं आवा । सबहि के जिअ जनम नव पावा ॥
गुणों के निधान हनुमानजी को माता ने अमरत्व का आशीर्वाद दिया और उन्होंने वहां से प्रस्थान किया | सिंधु पारग होकर वह वानरों के पास आए उन्हें दर्शकर सभी को मानो नव जीवन प्राप्त हुवा ||
चले पुलक सब सुगींव पासा । करे सोइ कपि किए जस आसा ॥
गयउ सकल भेटिहि रघुवंता । करे काज पूरन हनुमंता ॥
सभी पुलकित होकर सुग्रीव के पास गए, जैसी कपिनाथ जैसी आस किए हुवे थे उन्होंने वैसा ही किया | तब सुग्रीव सहित सभी ने जाकर रघुवंत से भेंट की, हनुमंत जी ने कार्य पूर्ण होने का समाचार दिया ||
मातु देइ चूड़ामनि दाईं । लेवत रघुपत उर भरि लाईं ॥
पूछि हनुमत भरे निज छाँती । रहहि सीता कहौ किमि भाँती ।
माता द्वारा दी गई चूड़ामणि निवेदन की उसे ग्रहण कर रघुपति का ह्रदय भर आया | उन्होंने वक्ष से लगाकर पूछा सीता वहां किस भांति रह रही है ?
तासु बिपति कहँ बिनु भलि जानिअ । बोलि हनुमत बेगि लए आनिअ ॥
महबलि बानर भलक बरूथा । जोड़े सैन जोग भट जूथा ॥
हनुमान जी ने कहा --उनकी विपत्ति को कहे बिना भली ही जानिए (कहने से आप को क्लेश होगा )उन्हें यथाशीघ्र ले आइये | तदनन्तर महाबली वानर और भालूओं के समूह का सैन्यदल संयोजन कर भगवान ने सेना तैयार की |
राम कृपा बल पाए कपि, भयऊ बृहद बिहंग ।
गगन महि इच्छा चरनी चले राम लिए संग ॥
रामजी की कृपा केबल प्राप्त कर वह विशाल पक्षी के सदृश्य प्रतीत हो रही थी | धरती व् आकाश अपर अपनी इच्छा से गमन करने वाली उस कटक को फिर साथ लिए चले ||
मंगलवार, २१ जुलाई, २०१५
आनि अनी तट ताकिहि लंका । रहए तहाँ राकस मन संका ।।
मंदोदरी कहए भय भीता । तव कुल कमल सीत निसि सीता ॥
सेना समुद्र तट पर आई उसने लंका का लक्ष्य किया | वहां हनुमंत जी के उत्पात के पश्चात सभी राक्षस सशंकित रहने लगे | मंदोदरी ने भयभीत होकर रावण से कहा : -आप का कुल यदि कमल है तो सीता शरद रात्रि है |
सुनहु नाथ दीन्हौ फिराहू । अट्टाहस करए बीस बाहू ॥
कहउँ तात निज मति अनुरूपा । प्रगसिहि मनुज रूप जग भूपा ॥
हे नाथ सुनिए !आप सीता को लौटा दीजिए | तब बीस भुजाओं वाला रावण अट्टाहस करने लगा | हे तात ! मैं अपनी मति अनुसार आपका प्रबोधन कर रहा हूँ जगत के पालनहार मनुष्य रूप में प्रकट हुवे हैं |
ब्रम्ह अनामय अज भगवंता । ब्यापक अजित अनादि अनंता ॥
कहँ बिभीषन नीति हितकारी । रिपु महि मंडन कहत बिसारी ॥
वह अनामय भगवान् हैं, अजेय व् सर्वव्यापक हैं वह अनादि व् अनंत ब्रह्म हैं | विभीषण ने भी आकर उसे हितकारी नीति कही अपने शत्रु का महिमामंडन कहकर रावण ने उसे अनसुना कर दिया |
मालवंत एकु सचिउ सयाना । दरप तेहि कर कहा न माना ॥
सचिव बैद गुरु बोलहि त्रासा । राज धर्म तन बेगिहि नासा ॥
माल्यवंत भी सुबुद्ध सचिव थे दर्प के वश होकर रावण ने उसका कहा भी अस्वीकार कर दिया | सचिव, वैद्य व् गुरु ये तीन यदि भयवश निगदन करते हैं तब राज, धर्म व् शरीर ये तीनों तत्क्षण नष्ट हो जाते हैं |
दसमुख संग बनी एहि बाता । अनुज गहे पद मारिहि लाता ॥
साधु अमान सभा बस काला । गयउ गगन चर सरन कृपाला ॥
दशमुख के साथ यही हुवा चरण पकड़े अनुज को दुत्कारा | जहाँ साधुत्व की अवमानना होती है वह सभा काल के वश हो जाती है | विभीषण में साधुता थी वह गगनपथ से गमन कर भगवान के शरणागत हो गया |
सरनागत निरखत कपिहि जानि कोउ रिपु दूत ।
कहु सखा बूझि ए काहा, कहँ प्रभु सभा अहूत ॥
शरणागत को विलोक कर वानरों ने उसे शत्रु का दूत अनुमान किया | हे सखा ! तब प्रभु ने सभा आहुत की और कहा --कहो तो ये क्या हैं ?
बुधवार, २२ जुलाई, २०१५
अधम भेदि सठ कहए कपीसा । छल छिद्र भाव पठए दस सीसा ॥
भेदि हो कि सभीत सरनाई ॥ कहैं प्रभो कपि लेइ अनाईं ॥
सुग्रीव ने कहा ये दूत नहीं अधम भेदी है छल-कपट की दुर्भावना से दशकंधर ने इसे भेजा है | प्रभु ने कहा --'वह भेदी है अथवा भयभीत शरणार्थी है ? कपि !जाओ उसे ले आओ |'
दरस राम छबि धाम बिसेखे । ठटुकि बिभीषन एकटक देखे ॥
रघुबर मैं दसमुख कर भाई । कोमल कहत चरन सिरु नाईं ॥
विशेष छवि के धाम श्री रामजी के दर्शन कर विभीषण ठिठक गया और उन्हें अपलक विलोकने लगा | तदनन्तर प्रभु के चरण में प्रणाम कर कोमलता पूर्वक बोला -- 'हे रघुवर ! मैं दशमुख का अनुज हूँ |'
उठेउ प्रभु तुर कंठ लगावा । आप बीति सब कही सुनावा ॥
परिहरि जो नै नीति निपूना । होत कुनै सो दिन दिन दूना ॥
प्रभु उठे और उसे कंठ से लगा लिया तब उसने अपने ऊपर व्यतीत समस्त कथा कही | जो नीति व् नेतृत्व निपुण का तिरष्कार करता वह दिन दिन नेतृत्वहीन होता चला जाता है ||
बहुरि तकत प्रभु जलधि गभीरा । पूछे तरिअ केहि बिधि बीरा ॥
बिनय बरिअ अरु करिए निहोरे । कहहि उपाउ रहिए कर जोरे ॥
तत्पश्चात अगाध जलधि का निरिक्षण करते हुवे प्रभु ने विभीषण से पूछा रे भाई ! 'यह किस प्रकार पारगम्य होगा ?'विनय का वरण कर आप करबद्ध प्रार्थना कीजिए )|
सागर तुहारे कुलगुर होई । बिभीषन बचन प्रभु सुत पोईं ॥
इत दसमुख पिछु दूत पठायो । मारैं मरकट लखन छड़ायो ॥
सागर आपके कुलगुरु हैं, विभीषण के वचनों को प्रभु ने सूत्र में पिरो लिया | इधर दशानन ने विभीषण के पीछे दूत भेजे उन्होंने वानरों पर आक्रमण कर दिया, लक्ष्मण ने उन्हें दूतों के बंधन से मुक्त किया ||
दया लगे फिरा पुनि कर देइ लखन संदेस ।
रिपु कटक बल बाध कहे, नमत सीस लंकेस ॥
लक्ष्मण द्रवित हो उठे तब उन्हें लौटा दिया और उनके हाथों सन्देश दिया | तब उन्होने लंकेश के सम्मुख नतमस्तक होकर सूचना दी कि शत्रु की सेना अत्यंत बलशाली है ||
बृहस्पतिवार, २३ जुलाई, २०१५
धरे पाति किए चरन प्रनामा । बिहसि दसानन लिए कर बामा ॥
लखन बिनय बत कहत बखाना । तव कुल नासक तव अभिमाना ॥
और चरणों में सन्देश पत्रिका रख कर प्रणाम किया | दशानन उपहास करते उसे वामहस्त से लिया | लक्ष्मण ने विनय वचन कहते हुवे लिखा तुम्हारा अहंकार ही तुम्हारे कुल का विध्वंशक है |
देंन सिआ दूतक कहि पारा । कोपत कीन्ह चरन प्रहारा ॥
इत प्रभु जलधि समुख कर जोरे । भयऊ सो जड़ मानि न थोरे ॥
माता सीता को लौटा देने हेतु कहा तब दशानन ने कोप करते हुवे उनपर चरणों का प्रहार किया | इधर प्रभु जलधि के सम्मुख हाथ बांधे रहे किन्तु जड़ता धारण कर उसने प्रभु का किंचित भी मान नहीं किया |
करत करत बिरते दिन तीना । रघुनायक भए कोपु अधीना ॥
जल सोषन कर चापु चढ़ावा । सभ्य सिंधु जुगकर सहुँ आवा ॥
ऐसा करते तीन वासर व्यतीत हो गए तब रघुनाथ जी ने कोप के अधीन होकर समुद्र के जल का अवशोषण करने हेतु धनुष उठाया तो सिंधु सभ्य होते हुवे हाथ बांधे प्रभु के सम्मुख उपस्थित हुवा |
नाथ नील नल कपि दुहु भाई । परस तिन्ह के गिरि तरियाई ॥
परस पाषान सेतु बँधाइब । ता चढ़ तरिअ तीर पर जाइब ॥
नाथ ! नील नल यमज वानर हैं जिनके स्पर्श से पर्वत भी तैर जाएंगे | उनके स्पर्श किए पाषाण से सेतु निर्मित कीजिए और उसपर आरोहित होकर पारगम्य हो जाइये |
कह उपाय मन भाय यह नत सिरु सिंधु सिधाए ।
दानव दमन रघुबर मन अब किछु संसय नाए ॥
समुद्र ने यह मनभावन युक्ति कही और चरणवंदना कर लौट गया | दमन हेतु अब प्रभु के मन-मानस में किंचित भी संशय नहीं था |
स्पष्टीकरण : -छिद्र युक्त पाषाण के भार से पानी का भार अधिक होता है उनके तैरने का यही वैज्ञानिक आधार था ॥
शुक्रवार, २४ जुलाई, २०१५
बहुरि बिलम नहि किए रघुराई । सेतु प्रजास करिअ दुहु भाई ॥
दिए ग्यान गुन कृपा निधाना ।तर गिरि तोय तरे पाषाना ॥
फिर प्रभु ने विलम्ब नहीं किया | दोनों यमज (जुड़वा )बंधुओं ने सेतु निर्बंधन करना प्रारम्भ कर दिया, गुणों के निधान प्रभु श्रीरामचन्द्र जी ने सेतु निर्बंधन की विद्या दी | पाषाण पर्वतों से नीचे उतरते और जल में तैरने लगते |
चले भल्लुक बिपुल कपि जूहा । आने गिरिन्ह बिटप समूहा ॥
सेल बिसाल देहि कर दानी । रचहि सेतु नल नीलहि पानी ॥
इस कार्य में संलग्न होकर वानरों और भालुओं का विशाल दल पहाड़ों से वृक्षों के ढेर ले आए | विशाल शिलाओं का आधार देकर नल नील ने समुद्र के पानी पर सेतु निर्बंधित कर दिया ||
सुदृढ़ सुन्दर रचना बिलोके । बोलि कृपा निधि गद गद होके ॥
थाप लिंग हर पूजन करिहउँ । पार गमनन चरन पथ धरिहउँ ।
सुदृढ़ व् सुन्दर रचना का निरिक्षण कर कृपा निधि गदगद हो गए और बोले -- में यहाँ शिवलिंग की स्थापना कर उसका पूजन करके ही पारगमन हेतु अग्रसर होऊंगा |
मालवंत कहि सुनहु कपीसा । पठा दूत लिए आनि मुनीसा ॥
जाप जपत हर हर मह देबा । थाप लिंग करि पूजन सेबा ॥
माल्यवंत ने कहा हे कपिनाथ ! दूत भेजकर आप मुनिराज को लिवा लाइए | वह हर हर महादेव के जाप मंत्र द्वारा शिवलिंग की स्थापना कर पूजन का सेवा कार्य पूर्ण करेंगे ||
बंधे सेतु जल सिंधु अपारा । देखि चढ़ी रघुबर बिस्तारा ।।
मकर निकर जलचर समुदाई । होहि प्रगस दरसन रघुराई ॥
अपार सिंधु में सेतु निर्बंधित हुवा रघुवीर के आरूढ़ होकर उसके विस्तार का अवलोकन किया, तब मगर, निक्र (घड़ियाल ), मच्छ सहित चलचरों का समुदाय रघुवीर के दर्शन हेतु प्रकट हुवे ||
नाउ धरी हरि तीर तीर रहँ बूर आनहि बोरहीं ।
कहि न जाइ कपि जूह भीर तहँ उपल बोहित हो रही ॥
बाँध्यो पयोनिधि नीरनिधि जलधि उदधि साँचही ।
भोर बिकल भय बिहसि दसानन कपि भलुक दस पाँचही ॥
जो पाषाण स्वयं डूबते है औरों को भी ले डूबते हैं वह हरि का नाम धारण कर तैरने लगे और औरों को भी तारने वाले जलयान हो गए सेतु बांध पर वानरों का आकीर्ण देखते ही बनता था | दसपांच वानरों व् भालुओं ने पयो निधि को बांध लिया ? नीरनिधि, जलधि,उदधि को बाँध लिया क्या यह सत्य है ? अपनी व्याकुलता को विस्मृत कर दशानन अट्टहास करने लगा |
भै कम्पित मंदोदरी कहँ लें चरन बहोर ।
दीज्यौ सौंपु जानकी, जौं पिउ मानहु मोर ||
भय से कम्पित होते मंदोदरी ने कहा नाथ ! यदि आप मेरा कहा माने तो आप इस वैरी विरोध को त्याग कर जानकी को सौंप दीजिए |
शनिवार २५ जुलाई, २०१५
गहि पद कहि अस गहबर गाता । हरि भजि अचल होत अहिवाता ॥
देखि प्रिया मन भय जब जाना । काल बिबस उपजे अभिमाना ॥
कांपती देह से मंदोदरी ने पति के चरण पकड़ कर कहा -- रघुनाथ जी के भजन से मेरा सुहाग अवश्य ही अखंड होगा | प्रिया के मन को भय से व्याप्त हुवा भानकर काल के विवश रावण में पुनश्च अभिमान जागृत हो गया |
मैं मैं करि कछु केहि न प्रबोधा । जानिहि साथ निज जग जै जोधा ॥
आए सभा प्रहस्त कर जोरी । चाटुकरि मंत्रिन्हि मति थोरी ॥
वह मैं मैं करते उसने स्वयं को विश्वजित योद्धा सिद्ध किया और किसी को कुछ न समझा | रावण का पुत्र प्रहस्त कर बढ़ होकर सभा में आया और बोला -- चाटुकार मंत्रियों में यद्यपि मेरी बुद्धि यत्किंचित है -
तात नीति तव राज बिरोधहि । पुनि हितकर ने नीति प्रबोधहि ॥
कोपत दसमुख कह सुत ताईं । कहु सठ आयउ केहि सिखाई ॥
हे तात ! आपकी नीति राज की विरोधी है तदनन्तर हितकारी नय नीतियों से सभा का संज्ञान किया | कुपित दशमुख ने पुत्र से कहा रे दुष्ट ! कहो तुम किसकी दी हुई सीख से यहाँ आए हो ?
बैठ जाए पुनि भवन बिलासा । रिपु सिर पर भय सोच न त्रासा ॥
यहां सुबेल सेल अति भीरा । सैन सहित उतरे रघुबीरा ॥
ततपश्चात रावण विलास भवन में जा बैठा | शत्रु शीश पर था रावण को भय था न त्रास था यहाँ सुवेल पर्वत पर रघुवीर विशाल सेना सहित उतरे |
चाप छाँड़ेसि सर गिरइँ मुकुट ताटंक ।
देखि महरस भंग भयो रावन सभा ससंक ॥
धनुष से बाण छूटा जिसने रावण के शीश का लक्ष्य किया, छत्र-मुक्त भूमि पर आ गिरे | महा रस-रंग को भंग दर्शकर रावण की सभा सशंकित हो उठी |
रविवार, २६ जुलाई, २०१५
मंदोदरी उर सोच बसाए । प्रानपति प्रभु सन बयरु बँधाए ॥
इत असगुन उत कपि कर भीरा । करिअ बिनती नयन भर नीरा ।।
मंदोदरी के ह्रदय में विचार किया कि प्राणनाथ ने प्रभु से विद्रोह किया है | इधर यह अशगुन उधर वानरों का विशाल समूह, वह अश्रुपूरित नेत्रों से विनती करने लगी |
रघुबर भगवद रूप बखानी । बिहँसि दनुपत मोह बल जानी ॥
नारि सुभाउ साँच सब भासैं । आठ अगुन उर सदा निबासै ॥
रघुवर के भगवद स्वरूप का व्याख्यान किया किन्तु उपहास करते रावण ने उसे मोह के वशीभूत संज्ञान कर कहा -- नारी के स्वभाव को लोग सत्य कहते है,उसके ह्रदय में अष्टावगुण (साहस, मृषा, चांचल्य, माया (छल ), भय , अविवेक अपवित्रता व् निर्दयता )सदैव निवास करते हैं |
जगे राम इत भा भिनसारे । पूछी सचिवनि सभा सँभारे ॥
जामवंत एही मत कहि पारा । पठाइब दूत बालि कुमारा ॥
इधर प्रभु श्रीरामजी का प्रभात जागरण हुवा | सभा कसंचालन कर उन्होंने सचिव गणों से पूछा - जामवंत ने यह मंत्र दिया बालिकुमार अंगद को दूत के रूप भेजिए |
चरन सीस धरि सहज असंका । चला बीर रन बांकुर लंका ॥
पैठत दसमुख तनै हँकारी । गहि पद भांवर देइ कचारी ॥
तब प्रभु के चरण में मस्तक नवा कर वह वीर योद्धा लंका प्रस्थित हुवा | प्रवेश करते ही देशमुख के पुत्र ने उसे ललकारा, उसने उसके चरण पकड़ कर घुर्मित किया और भूमि पर दे मारा |
कपिकुंजरगहि आन लिए, निसिचर दसमुख सोहि ॥
देखि अंगद सम्मुख जस कज्जल गिरि को होंहि ॥
तब उस वानर योद्धा को राक्षस बाँध कर रावण के सम्मुख ले आए | रावण अंगद को साक्षात दर्शित हुवा जो काजल के पर्वत समान था |
मंगलवार, २८ जुलाई , २०१५
कहि दसमुख तैं कहँ के बन्दर । मैं रघुबीर दूत दसकंधर ॥
होहि तात मम तोर हिताई । हित कारन तव चहहुँ भलाई ॥
देशमुख ने कहा तुम कहा के बन्दर हो ? तब अंगद ने कहा रे दशकंधर में रघुवीर का दूत हूँ | मेरे पिता आपके मित्र थे, कल्याण की अभिलाषा करते हुवे में आपका हित करने आया हूँ |
जनक सुता सादर करि आगेँ । तजत मान भय हरि पद लागैं ॥
बालि तनय बहु भाँति प्रबोधे । काल बिबस सो कछु नहि बोधे ॥
जनक नंदनी को प्रभु सम्मुख सादर निवेदन कीजिए अहंकार का परित्याग कर प्रभु के चरण पकड़ लीजिए | बाली तनय बहुंत प्रकार से प्रबोधन किया किन्तु जो काल के वश हो उसे कुछ बोध नहीं होता |
उलट तासु परिचय जब जाना । कहा बंस बन अगन समाना ।।
हम कुल घालक कहि तव साँचिहि । अंध बधिर ऐसेउ बाँचिहि ॥
इसके विपरीत रावण जब अंगद से परिचित हुवा तब उसे वंश के वन में अग्नि के समरूप कहा तब अंगद बोला -'सत्य कहते हो दशमुख मैं कुल का नाशक हूँ मति से अंध-बधिर ऐसे ही उक्ति किया करते हैं |'
करिहु अपकृत हरिहु पर दारा । कुल पोषक ए करम तिहारा ॥
दिए उतरु दससीस करि क्रोधा । मो सों भिरिहि कवन बड़ जोधा ॥
तुमने अपकृत्य कर परस्त्री का हरण किया तुम्हारा यह कृत्य कुल का पोषक है ? | दशशीश ने क्रोधपूर्वक उत्तर दिया --'जो मुझसे लोहा ले ऐसा कौन योद्धा है ?
बन गोचर कि बिरह बल हीना । जल्पसि जड़ कपि मोर अधीना ॥
दरसे न कछु रजस जिन रसिही । लघुता माझहि प्रभुता बसिहीं ॥
वह वन गोचर जो विरह से बलहीन हो गया है रे बन्दर तुम मेरे अधीन होकर भी अनर्गल प्रलाप करते हो ? राजस रस में आसक्त को लघुता में निवासित प्रभुता दर्शित नहीं होती |
प्रीति बिरोध समान सों करिए नीति अस आहि ।
मृगपति बधि मेढुकन्हि जौं कहइ को भल ताहि ॥
प्रीति और विरोध अपने समान लोगों से ही करनी चाहिए नीति ऐसा कहती है, सिंह यदि मेंढक का वध करने चले तो उसे कौन उत्तम कहेगा |
बुधवार २९ जुलाई, २०१५
जानब कपि हँसिहौ न दससीसा । जारि नगर तव एक ही कीसा ॥
बानर जाति भगत गोसाइहिं । तव मुख प्रभु गुन कस न कहाइहिं ॥
मुझे बन्दर जानकर मेरा उपहास न करो एक बन्दर ने तुम्हारी लंका दहन कर दी थी | वानर जाति स्वामीभक्त होती है फिर तुम्हारा मुख तुम्हारे प्रभु के गुण कैसे न कहे |
एकै सुभट तव मह बलवाना ।दरसिहि अबरु न तासु समाना ।।
कवन रावन बजाइब गाला । पितहि जितन एक गयउ पताला ॥
तुम्हारे दल में एक ही योद्धा बलवान है उसके समरूप अन्य कोई दर्शित नहीं होता (रावण ने कहा ) | ये कौन सा रावण है जो इतना बड़ बोला है एक वह रावण था जो मेरे पिता पर विजय प्राप्त करने पाताल में गया था |
कहउँ सकुच को रहि एक काखा । ते कवन सत बदहु तजि माखा ॥
बीस भुज धर बीर जग जाना । कहसि प्रभुहु नर करसि बखाना ॥
संकोचित होते कहता हूँ,एक वो भी रावण था जो मेरे पिता के भुजकोटर में रहा था तुम कौन से रावण हो आक्रोश त्याग कर जो सत्य है सो कहो | बीस भुजाएं धारण कर स्वयं को विश्व विख्यात वीर घोषित कर सहस्त्रबाहु भगवान को साधारण मनुष्य कहते हुवे आत्म-व्याख्यान कर रहे हो |
सूर न कहाब एहि बत संगा । भार बहहिं गध जरिहि पतंगा ॥
हँसिहि दनुप कहि कहि दुर्बादा ॥ लघु मुख अंगद बहुंत बिबादा ॥
रासभ भार वहन करते हैं पतंगे मोह के वश अग्नि में प्राण त्याग देते हैं किन्तु केवल इस हेतु से वह शूर नहीं कहलाते | लघु पद धारण करने वाले अंगद से अतिशय विवाद कर दुर्वचन कहते हुवे दनुजपति रावण अट्टाहस करने लगा |
बहुरि भारि दुहु भुज दंड तमकि देइ महि मारि ।
सभा माझ पन करि चरन, टारि गयऊ न टारि ॥
तब उसकी वीरता के परिक्षण हेतु अंगद ने अपनी बलवत भुजाओं से भूमि पर आघात करते हुवे सभा के मध्य आरोपित चरण को विस्थापित करने की प्रतिज्ञा प्रस्तुत की | किन्तु प्रयास करने के पश्चात भी वह विस्थापित नहीं हुवा ||
बृहस्पतिवार, ३० जुलाई, २०१५
इंद्रजीत सम बीर अनेका । झपटहि करि बल टरै न टेका ॥
बैठिहि सिर धर कर सब हारे । उठा आप कपि केर हँकारे ॥
इंद्रजीत के समान अनेकानेक वीरों ने उसपर अपना बल प्रयोग किया तद्यपि आरोपित चरण किंचित मात्र भी विस्थापित नहीं हुवा | शीश पर हाथ धरे सभी ने हार मान ली तब रावण अगंद को ललकारते हुवे स्वयं उठा |
तोर उबार रघुबर पद धरे । करत तेजहत कहत किए परे ॥
सिंघासन तब केहि सुहावा । होत बिमुख जब मान बिहावा ॥
रघुवर के चरण धारण करने से तुम्हारा उद्धार होगा ऐसा कहकर अंगद ने उसके तेजस्व को क्षीण करते हुवे अपने चरण परे कर दिए | ईश्वर के विरोधी हों और मान भी न रहे तब भला सिंहासन किसे प्रिय हुवा है |
रिपु मद मथि मत नीति अनेका । कहि कपि सठ मति मान न ऐका ॥
गहे नयन जल हरि पद कुंजा । बहुरि धरषि रिपु कपि बल पुंजा ।।
अंगद ने शत्रु के अंहकार का मर्दन कर अनेकों मत पूरित नीतियाँ कही, किन्तु उस दुष्ट ने सभी अमान्य कर दी | तब नेत्रों में जल भरकर शत्रु के बल का मर्दन करने वाली बल की पूंजी बालिपुत्र अंगद भगवान के चरण कुञ्ज में लौट आया |
साँझ भवन दसकंधर आवा । प्रिया बदहि गहि चरन मनावा ॥
जरि पुर तुहरी हार पुकारहि । तासु कहब दसमुख न बिचारहि ॥
संध्या काल में दशकंधर भवन आया वहां मंदोदरी ने रावण के चरण ग्रहण कर मनुहार करते हुवे कहा -- कांत ! दहन हुई नगरी आपकी हार को पुकार रही है किन्तु उसके कथन को दशमुख ने पुनश्च अविचारित कर दिया |
कपीस बिभीसन रिछपति रिपु मंसा जब पाए ।
जथाजोग जोगत पाल चौगुट कटकु बनाए ॥
सुग्रीव, विभीषण, जामवंत ने जब शत्रु की मंशा से भिज्ञ हुवे तब यथायोग्य सैन्य संयोजन कर एक चतुर्दलिय सेना की रचना की |
शुक्रवार, ३१ जुलाई, २०१५
हरष रघुनाथ चरन सिरु नाए । गहे गिरि सिखर बीर सब धाए ॥
घटाटोप करि घेरिहि लंका । केहरिनाद बजावहि डंका ॥
हर्ष पूर्वक रघुनाथ जी के चरणों में नतमस्तक हुवे और पर्वतों के शिखर लिए उन्होंने शत्रु पर आक्रमण कर दिया | बादलों की घटाओं के जैसे समस्त द्वीप को घेर लिया युद्ध का सिंह नाद करते हुवे लंका में डंका बजा दिया |
कीस रूप धर काल पुकारा । सठ मति अपुने समुझि अहारा ॥
भिंडिपाल कर परसु प्रचंडा । चले निसाचर धर गिरखंडा ॥
काल जैसे वानरों का रूप धारण कर पुकार उठा दुष्टों की बुद्धि ने उन्हें अपना आहार जाना | भाले,फरसे पर्वत खंड आदि प्रचंड आयुध धारण किए राक्षस भी चल पड़े |
चढ़े बीर कँगूरन्हि कोटा । को एक एकहि कोउ एक जोटा ॥
कोटि निसाचर कोपत निहारि । भिरिहि सुभट सों पचार पचारि ॥
वह वीर कोई एकल तो कोई सामूहिक स्वरूप में दुर्ग के कंगूरों पर आरोहित हो गए | वहां करोड़ों निशाचर थे क्रुद्ध दृष्टि से ललकारते वह उन वीर योद्धाओं पर टूट पड़े |
नाना आयुध करे ब्याकुल । भागिहि कपि बाताली तृन तुल ॥
भंजेउ रथ पच्छिम द्वारा । मेघनाथ हनुमत कर हारा ॥
अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों ने उन्हें व्याकुलित कर दिया वह अंधड़ के तृण के तुल्य भाग खड़े हुवे | तब पश्चिम के द्वार पर रथ विभंजन के पश्चात मेघनाथ हनुमंत के द्वारा पराजित हुवा |
गहीरात काल घन गर्जहि गगन बिबिध बिधि गोला चले ।
सुनि मेघनाद गढ़ु घेर घिरे तमक पुनि तहँ ते निकले ॥
धनु वंत कौसलकंत लोक ख्यात दुहु भ्रात कहाँ ।
नील नल अंगद हनुमंत द्रोही सो मम तात कहाँ ॥
विविध प्रकार के अग्नि गोलों के प्रक्षेपण से दिवस काल में गहन रात्रि ग्रहण कर गगन जैसे घनघोर गर्जना करने लगा | मेघनाद ने जब सुना की वानरों ने दुर्ग को घेर लिया है तब वह वहां से निष्काषित हो पुनश्च युद्ध भूमि पर आया | धनुर्विद्या में निपुण कौशल के कांत लोक विख्यात वह द्विभ्रात कहाँ है ? मेरे पिता के विद्रोही नीलनल, अंगद व् हनुमंत कहाँ हैं ?
करन लग रसन तान अस कहा रोष रस पाग ।
निकर निकर सर चलिहि जस चलिहि सपुच्छल नाग ।।
रोष रस में अवगाहित यह वचन कहते उसने प्रत्यंचा को कानों तक विस्तृत किया और वहां से झुण्ड के झुण्ड वाण निकल कर ऐसे संचालित हुवे जैसे पुंगधारी नागसर्प चल रहे हों |
बसेउ तहँ हरिभगत बिभीषन । बिप्र रूप धर गयउ पहिं हनुमन ।।
दिए निज परिचय करे मिताई । हरिपिय सिय कहँ पूछ बुझाई ॥
वह हरिभक्त विभीषण का निवास था हनुमंत विप्रा का रूप धारण किए वहां गए | अपना परिचय देते हुवे उससे मित्रता की और पूछा कि हरि को प्रिय माता सीता इस समय कहाँ हैं ?
कहहि अहहि सो बाटि असोका । सोइ रूप गत मात बिलोका ॥
परम दुखी भा मुख अति दीना । चरन नयन निज हिय पिय लीना ॥
विभीषण ने उत्तर दिया कि वह अशोक वाटिका में हैं विप्रा स्वरूप में हनुमंत ने माता के दर्शन किए | वह परम दुखित थी उनका मुख अत्यधिक दीन दर्शित हो रहा था | नेत्र चरणों में अवनत थे ह्रदय अपने प्रियतम में लीन था |
आगत रावन किए अपमाना । गयउ कहत दुर्बादन नाना ॥
गुंठे पवन सुत पल्लउ पारे । रघुपति दिए मुदरी सहुँ डारे ॥
रावण वहां आया भांति भांति के दुर्वचन कहकर उसने माता का अपमान किया कुछ समय पश्चात वह लौट गया | पवन पुत्र पल्लवों की ओट में अवगुंठित थे रघुपति के द्वारा दी गई मुद्रिका को उन्होंने माता सीता के सम्मुख गिराया |
चकित चितब मुदरी पहचानी । आन कपिहि कहि सकल कहानी ॥
जान हरिजन गहन भइ प्रीती । प्रभु सँदेसु गह बाढ़ि प्रतीती ॥
सीता जी उसे विलोक कर हतप्रभ रह गई वह उस मुद्रिका को पहचानती थी | हनुमंत सम्मुख आए और सारा वृत्तांत कहा | उन्हें हरिभक्त जानकर सीता जी को उनसे विशेष स्नेह हो गया, प्रभु का सन्देश प्राप्त हुवा तो विश्वास भी प्रगाढ़ हो गया |
बरन बरन लगै घनहि सरिसा । हरिदय पिया पय पेम बरिसा ॥
नयन पलक कोपल जल पूरे । बिरह ब्याकुल फूर न फूरे ॥
सन्देश के प्रत्येक वर्ण मेघ से लगने लगे वह हृदय में प्रियतम के प्रेम जल की वर्षा करने लगे | नेत्रों की पलकों रूपी कोपलें जल पूरित हो गई किन्तु विरह की व्याकुलता से वह प्रफुल्लित नहीं हुवे |
सजल सरोरुह नयन कपि कहे मातु धरु धीर ।
मारि निसिचर लेइ जान अइहहिं इहँ रघुबीर ॥
सरोवर से सजल नेत्र किए महावीर हनुमंत ने कहा माता ! धैर्य धारण कीजिए , उस राक्षस का वध कर आपको ले जाने हेतु रामचंद्र जी आएँगे |
शनिवार, १८ जुलाई, २०१५
उदर अतिसय छुधा जब जागे । लिए आयसु फल तोरैं लागे ॥
सकल बाटिका देइ उजारे । मर्द मर्द निसिचर संघारे ॥
उदर में अत्यधिक क्षुधा जागृत हुई तब माता से आज्ञा लेकर वह फल तोड़ने लगे | उन्होंने सारी वाटिका उजाड़ दी और राक्षसों का मर्दन कर उनका संहार करते चले |
रखिया पुकार सुनि जब काना । दनुपति पठए बिकट भट नाना ॥
आए समुख तब अच्छ कुमारा । गरज मह धुनि बिटप दै मारा ॥
रक्षकों की त्राहि को श्रवण कर दनुपति ने बहुंत-से विकट योद्धाओं को भेजा | उनके हताहत होने से अक्षयकुमार सम्मुख आए हनुमंत ने महाध्वनि से गर्जना करते हुवे सके शीश पर एक वृक्ष दे मारा |
सुत बध सुनि घन नाद पठावा । कहँ कपिहि कह बाँधि लै आवा ॥
एक पतंग सों दूज पतंगा । भिरे घन जस भिरे एक संगा ॥
पुत्र के वध का समाचार प्राप्त कर रावण ने मेघनाद को भेजा और कहा -- कहाँ है वह बन्दर ! उसे बाँध कर ले आओ | एक पतंग था तो दुसरा पतंगा था | वह दोनों ऐसे भिड़े जैसे गरजते घन एक दूसरे से भिड़े हों |
देखि ब्रम्हसर मुरुछित भयऊ । नागपास बाँधसि लिए गयऊ ॥
कपिहि बिहँस अस कहे दसानन । मारिहु मोर सुत केहि कारन ॥
ब्रह्मबाण के आघात से हनुमंत मूर्छित हो गए | मेघनाथ नागपाश से परिबद्ध कर उन्हें ले गया | वानर को विलोक कर रावण ने परिहास करते हुवे कहा -- 'कहो ! तुमने किस हेतु मेरे पुत्र का वध किया |'
लगे भूख त खायउँ मैं बाटिक तरु फर तोर ।
मोहि मारि त मैं मार, तामें दोषु न मोर ॥
क्षुधित होने के कारण मैने वाटिका से फल तोड़कर खाए | उसने मुझे मारा तो मैने उसे मार दिया, इसमें मेरा कोई दोष नहीं है |
रविवार, १९ जुलाई, २०१५
पूछत रे तुअ कहँ के भूता । कहे कपि मैं राम के दूता ॥
कहउँ बिनत अब बेर न कीजौ । सौंप रघुपति छाँड़ सिय दीजौ ॥
तत्पश्चात रावण ने पूछा -- 'तुम कहाँ के भूत हो ?' तब हनुमंत ने उत्तर दिया -- 'मैं भगवान श्रीराम का दूत हूँ और आपसे विनती पूर्वक कहता हूँ अब विलम्ब न करो माता को मुक्त कर रघुवीर को सौंप दो |
हित बत कहत बहुँत समुझायो ।दसमुख बिहँसि बिहँसि बिहुरायो ॥
मसक रूप कपि देइ ग्याना । खिसिअ कहि तव हरिहु मैं प्राना ॥
हनुमंत जी ने हितकर वचन कहते हुवे बहुंत ही प्रबोधन किया किन्तु देशमुख ने उसकी अनदेखी कर उसका उपहास कर क्षुब्ध होते हुवे बोला - तुम मत्सर आकृति के जीव मुझे ज्ञान देते हो, मैं अभी तुम्हारे प्राण हर लेता हूँ |
आए विभीषन भ्रात प्रबोधा । मारिहु दूत ए नीति बिरोधा ॥
बाँधि पूँछ पुनि अगन धराईं ।नगर फेरि सब बहुं बिहसाईं ॥
विभीषण ने आकर भ्राता को समझाया कि दूत पर आघात करना यह राजनीति के विरुद्ध है | रावण ने हनुमंत को पूँछ से बंधवा दिया फिर पूँछ को दग्ध कर उसे नगरभर में फिराया, नगरवासी हेतु वह हंसी के पात्र हो गए |
चलिअ मरुत करि देह बिसाला । भवन भवन चढ़ि धरइ ज्वाला ॥
पूँछ अनल यह दूत न होई । दिव्य सरूप देव कहँ कोई ॥
भगवान की प्रेरणा से पवन चलने लगी तब उन्होंने अपनी देहाकृति को विशाल किया व् प्रत्येक भवन पर चढ़ कर उन्हें अग्निमय कर दिया | कोई कहता -- 'यह अग्निपुंग कोई दूत नहीं है अपितु दिव्य देहधारी देव है |
सकल सिंहल धू धू करि कूदि सिंधु मझारि ।
आन सहुँ सिय चूड़ामनि कपि कर देइ उतारि ॥
समस्त सिंहलद्वीप को धू धू कर हनुमंत जी ने अगिनि शांत करने हेतु समुद्र में छलांग लगा दी और माता सीताजी के सम्मुख उपस्थित हुवे तब उन्होंने चूड़ामणि चिन्ह स्वरूप में हनुमंत को दी -
सोमवार, २० जुलाई, २०१५
करिहु नाइ सिर नाथ प्रनामा । कहिहु सिया को छन छन जामा ॥
अजहुँ प्रभो लए गयउ न मोही । मोरि देह पुनि प्रान न होही ॥
और कहा -- हे तात ! तुम नतमस्तक होकर नाथ को मेरा प्रणाम कर कहना सीता को एक एक क्षण एक एक पहर के समान है | यदि अब आप मुझे नहीं लिए गए तो फिर मेरी देह में न प्राण होंगे ||
अजर अमर गुन निधि बरदाना । दै जनि कर हनुमंत पयाना ।।
पार सिंधु कपिन्ह पहिं आवा । सबहि के जिअ जनम नव पावा ॥
गुणों के निधान हनुमानजी को माता ने अमरत्व का आशीर्वाद दिया और उन्होंने वहां से प्रस्थान किया | सिंधु पारग होकर वह वानरों के पास आए उन्हें दर्शकर सभी को मानो नव जीवन प्राप्त हुवा ||
चले पुलक सब सुगींव पासा । करे सोइ कपि किए जस आसा ॥
गयउ सकल भेटिहि रघुवंता । करे काज पूरन हनुमंता ॥
सभी पुलकित होकर सुग्रीव के पास गए, जैसी कपिनाथ जैसी आस किए हुवे थे उन्होंने वैसा ही किया | तब सुग्रीव सहित सभी ने जाकर रघुवंत से भेंट की, हनुमंत जी ने कार्य पूर्ण होने का समाचार दिया ||
मातु देइ चूड़ामनि दाईं । लेवत रघुपत उर भरि लाईं ॥
पूछि हनुमत भरे निज छाँती । रहहि सीता कहौ किमि भाँती ।
माता द्वारा दी गई चूड़ामणि निवेदन की उसे ग्रहण कर रघुपति का ह्रदय भर आया | उन्होंने वक्ष से लगाकर पूछा सीता वहां किस भांति रह रही है ?
तासु बिपति कहँ बिनु भलि जानिअ । बोलि हनुमत बेगि लए आनिअ ॥
महबलि बानर भलक बरूथा । जोड़े सैन जोग भट जूथा ॥
हनुमान जी ने कहा --उनकी विपत्ति को कहे बिना भली ही जानिए (कहने से आप को क्लेश होगा )उन्हें यथाशीघ्र ले आइये | तदनन्तर महाबली वानर और भालूओं के समूह का सैन्यदल संयोजन कर भगवान ने सेना तैयार की |
राम कृपा बल पाए कपि, भयऊ बृहद बिहंग ।
गगन महि इच्छा चरनी चले राम लिए संग ॥
रामजी की कृपा केबल प्राप्त कर वह विशाल पक्षी के सदृश्य प्रतीत हो रही थी | धरती व् आकाश अपर अपनी इच्छा से गमन करने वाली उस कटक को फिर साथ लिए चले ||
मंगलवार, २१ जुलाई, २०१५
आनि अनी तट ताकिहि लंका । रहए तहाँ राकस मन संका ।।
मंदोदरी कहए भय भीता । तव कुल कमल सीत निसि सीता ॥
सेना समुद्र तट पर आई उसने लंका का लक्ष्य किया | वहां हनुमंत जी के उत्पात के पश्चात सभी राक्षस सशंकित रहने लगे | मंदोदरी ने भयभीत होकर रावण से कहा : -आप का कुल यदि कमल है तो सीता शरद रात्रि है |
सुनहु नाथ दीन्हौ फिराहू । अट्टाहस करए बीस बाहू ॥
कहउँ तात निज मति अनुरूपा । प्रगसिहि मनुज रूप जग भूपा ॥
हे नाथ सुनिए !आप सीता को लौटा दीजिए | तब बीस भुजाओं वाला रावण अट्टाहस करने लगा | हे तात ! मैं अपनी मति अनुसार आपका प्रबोधन कर रहा हूँ जगत के पालनहार मनुष्य रूप में प्रकट हुवे हैं |
ब्रम्ह अनामय अज भगवंता । ब्यापक अजित अनादि अनंता ॥
कहँ बिभीषन नीति हितकारी । रिपु महि मंडन कहत बिसारी ॥
वह अनामय भगवान् हैं, अजेय व् सर्वव्यापक हैं वह अनादि व् अनंत ब्रह्म हैं | विभीषण ने भी आकर उसे हितकारी नीति कही अपने शत्रु का महिमामंडन कहकर रावण ने उसे अनसुना कर दिया |
मालवंत एकु सचिउ सयाना । दरप तेहि कर कहा न माना ॥
सचिव बैद गुरु बोलहि त्रासा । राज धर्म तन बेगिहि नासा ॥
माल्यवंत भी सुबुद्ध सचिव थे दर्प के वश होकर रावण ने उसका कहा भी अस्वीकार कर दिया | सचिव, वैद्य व् गुरु ये तीन यदि भयवश निगदन करते हैं तब राज, धर्म व् शरीर ये तीनों तत्क्षण नष्ट हो जाते हैं |
दसमुख संग बनी एहि बाता । अनुज गहे पद मारिहि लाता ॥
साधु अमान सभा बस काला । गयउ गगन चर सरन कृपाला ॥
दशमुख के साथ यही हुवा चरण पकड़े अनुज को दुत्कारा | जहाँ साधुत्व की अवमानना होती है वह सभा काल के वश हो जाती है | विभीषण में साधुता थी वह गगनपथ से गमन कर भगवान के शरणागत हो गया |
सरनागत निरखत कपिहि जानि कोउ रिपु दूत ।
कहु सखा बूझि ए काहा, कहँ प्रभु सभा अहूत ॥
शरणागत को विलोक कर वानरों ने उसे शत्रु का दूत अनुमान किया | हे सखा ! तब प्रभु ने सभा आहुत की और कहा --कहो तो ये क्या हैं ?
बुधवार, २२ जुलाई, २०१५
अधम भेदि सठ कहए कपीसा । छल छिद्र भाव पठए दस सीसा ॥
भेदि हो कि सभीत सरनाई ॥ कहैं प्रभो कपि लेइ अनाईं ॥
सुग्रीव ने कहा ये दूत नहीं अधम भेदी है छल-कपट की दुर्भावना से दशकंधर ने इसे भेजा है | प्रभु ने कहा --'वह भेदी है अथवा भयभीत शरणार्थी है ? कपि !जाओ उसे ले आओ |'
दरस राम छबि धाम बिसेखे । ठटुकि बिभीषन एकटक देखे ॥
रघुबर मैं दसमुख कर भाई । कोमल कहत चरन सिरु नाईं ॥
विशेष छवि के धाम श्री रामजी के दर्शन कर विभीषण ठिठक गया और उन्हें अपलक विलोकने लगा | तदनन्तर प्रभु के चरण में प्रणाम कर कोमलता पूर्वक बोला -- 'हे रघुवर ! मैं दशमुख का अनुज हूँ |'
उठेउ प्रभु तुर कंठ लगावा । आप बीति सब कही सुनावा ॥
परिहरि जो नै नीति निपूना । होत कुनै सो दिन दिन दूना ॥
प्रभु उठे और उसे कंठ से लगा लिया तब उसने अपने ऊपर व्यतीत समस्त कथा कही | जो नीति व् नेतृत्व निपुण का तिरष्कार करता वह दिन दिन नेतृत्वहीन होता चला जाता है ||
बहुरि तकत प्रभु जलधि गभीरा । पूछे तरिअ केहि बिधि बीरा ॥
बिनय बरिअ अरु करिए निहोरे । कहहि उपाउ रहिए कर जोरे ॥
तत्पश्चात अगाध जलधि का निरिक्षण करते हुवे प्रभु ने विभीषण से पूछा रे भाई ! 'यह किस प्रकार पारगम्य होगा ?'विनय का वरण कर आप करबद्ध प्रार्थना कीजिए )|
सागर तुहारे कुलगुर होई । बिभीषन बचन प्रभु सुत पोईं ॥
इत दसमुख पिछु दूत पठायो । मारैं मरकट लखन छड़ायो ॥
सागर आपके कुलगुरु हैं, विभीषण के वचनों को प्रभु ने सूत्र में पिरो लिया | इधर दशानन ने विभीषण के पीछे दूत भेजे उन्होंने वानरों पर आक्रमण कर दिया, लक्ष्मण ने उन्हें दूतों के बंधन से मुक्त किया ||
दया लगे फिरा पुनि कर देइ लखन संदेस ।
रिपु कटक बल बाध कहे, नमत सीस लंकेस ॥
लक्ष्मण द्रवित हो उठे तब उन्हें लौटा दिया और उनके हाथों सन्देश दिया | तब उन्होने लंकेश के सम्मुख नतमस्तक होकर सूचना दी कि शत्रु की सेना अत्यंत बलशाली है ||
बृहस्पतिवार, २३ जुलाई, २०१५
धरे पाति किए चरन प्रनामा । बिहसि दसानन लिए कर बामा ॥
लखन बिनय बत कहत बखाना । तव कुल नासक तव अभिमाना ॥
और चरणों में सन्देश पत्रिका रख कर प्रणाम किया | दशानन उपहास करते उसे वामहस्त से लिया | लक्ष्मण ने विनय वचन कहते हुवे लिखा तुम्हारा अहंकार ही तुम्हारे कुल का विध्वंशक है |
देंन सिआ दूतक कहि पारा । कोपत कीन्ह चरन प्रहारा ॥
इत प्रभु जलधि समुख कर जोरे । भयऊ सो जड़ मानि न थोरे ॥
माता सीता को लौटा देने हेतु कहा तब दशानन ने कोप करते हुवे उनपर चरणों का प्रहार किया | इधर प्रभु जलधि के सम्मुख हाथ बांधे रहे किन्तु जड़ता धारण कर उसने प्रभु का किंचित भी मान नहीं किया |
करत करत बिरते दिन तीना । रघुनायक भए कोपु अधीना ॥
जल सोषन कर चापु चढ़ावा । सभ्य सिंधु जुगकर सहुँ आवा ॥
ऐसा करते तीन वासर व्यतीत हो गए तब रघुनाथ जी ने कोप के अधीन होकर समुद्र के जल का अवशोषण करने हेतु धनुष उठाया तो सिंधु सभ्य होते हुवे हाथ बांधे प्रभु के सम्मुख उपस्थित हुवा |
नाथ नील नल कपि दुहु भाई । परस तिन्ह के गिरि तरियाई ॥
परस पाषान सेतु बँधाइब । ता चढ़ तरिअ तीर पर जाइब ॥
नाथ ! नील नल यमज वानर हैं जिनके स्पर्श से पर्वत भी तैर जाएंगे | उनके स्पर्श किए पाषाण से सेतु निर्मित कीजिए और उसपर आरोहित होकर पारगम्य हो जाइये |
कह उपाय मन भाय यह नत सिरु सिंधु सिधाए ।
दानव दमन रघुबर मन अब किछु संसय नाए ॥
समुद्र ने यह मनभावन युक्ति कही और चरणवंदना कर लौट गया | दमन हेतु अब प्रभु के मन-मानस में किंचित भी संशय नहीं था |
स्पष्टीकरण : -छिद्र युक्त पाषाण के भार से पानी का भार अधिक होता है उनके तैरने का यही वैज्ञानिक आधार था ॥
शुक्रवार, २४ जुलाई, २०१५
बहुरि बिलम नहि किए रघुराई । सेतु प्रजास करिअ दुहु भाई ॥
दिए ग्यान गुन कृपा निधाना ।तर गिरि तोय तरे पाषाना ॥
फिर प्रभु ने विलम्ब नहीं किया | दोनों यमज (जुड़वा )बंधुओं ने सेतु निर्बंधन करना प्रारम्भ कर दिया, गुणों के निधान प्रभु श्रीरामचन्द्र जी ने सेतु निर्बंधन की विद्या दी | पाषाण पर्वतों से नीचे उतरते और जल में तैरने लगते |
चले भल्लुक बिपुल कपि जूहा । आने गिरिन्ह बिटप समूहा ॥
सेल बिसाल देहि कर दानी । रचहि सेतु नल नीलहि पानी ॥
इस कार्य में संलग्न होकर वानरों और भालुओं का विशाल दल पहाड़ों से वृक्षों के ढेर ले आए | विशाल शिलाओं का आधार देकर नल नील ने समुद्र के पानी पर सेतु निर्बंधित कर दिया ||
सुदृढ़ सुन्दर रचना बिलोके । बोलि कृपा निधि गद गद होके ॥
थाप लिंग हर पूजन करिहउँ । पार गमनन चरन पथ धरिहउँ ।
सुदृढ़ व् सुन्दर रचना का निरिक्षण कर कृपा निधि गदगद हो गए और बोले -- में यहाँ शिवलिंग की स्थापना कर उसका पूजन करके ही पारगमन हेतु अग्रसर होऊंगा |
मालवंत कहि सुनहु कपीसा । पठा दूत लिए आनि मुनीसा ॥
जाप जपत हर हर मह देबा । थाप लिंग करि पूजन सेबा ॥
माल्यवंत ने कहा हे कपिनाथ ! दूत भेजकर आप मुनिराज को लिवा लाइए | वह हर हर महादेव के जाप मंत्र द्वारा शिवलिंग की स्थापना कर पूजन का सेवा कार्य पूर्ण करेंगे ||
बंधे सेतु जल सिंधु अपारा । देखि चढ़ी रघुबर बिस्तारा ।।
मकर निकर जलचर समुदाई । होहि प्रगस दरसन रघुराई ॥
अपार सिंधु में सेतु निर्बंधित हुवा रघुवीर के आरूढ़ होकर उसके विस्तार का अवलोकन किया, तब मगर, निक्र (घड़ियाल ), मच्छ सहित चलचरों का समुदाय रघुवीर के दर्शन हेतु प्रकट हुवे ||
नाउ धरी हरि तीर तीर रहँ बूर आनहि बोरहीं ।
कहि न जाइ कपि जूह भीर तहँ उपल बोहित हो रही ॥
बाँध्यो पयोनिधि नीरनिधि जलधि उदधि साँचही ।
भोर बिकल भय बिहसि दसानन कपि भलुक दस पाँचही ॥
जो पाषाण स्वयं डूबते है औरों को भी ले डूबते हैं वह हरि का नाम धारण कर तैरने लगे और औरों को भी तारने वाले जलयान हो गए सेतु बांध पर वानरों का आकीर्ण देखते ही बनता था | दसपांच वानरों व् भालुओं ने पयो निधि को बांध लिया ? नीरनिधि, जलधि,उदधि को बाँध लिया क्या यह सत्य है ? अपनी व्याकुलता को विस्मृत कर दशानन अट्टहास करने लगा |
भै कम्पित मंदोदरी कहँ लें चरन बहोर ।
दीज्यौ सौंपु जानकी, जौं पिउ मानहु मोर ||
भय से कम्पित होते मंदोदरी ने कहा नाथ ! यदि आप मेरा कहा माने तो आप इस वैरी विरोध को त्याग कर जानकी को सौंप दीजिए |
शनिवार २५ जुलाई, २०१५
गहि पद कहि अस गहबर गाता । हरि भजि अचल होत अहिवाता ॥
देखि प्रिया मन भय जब जाना । काल बिबस उपजे अभिमाना ॥
कांपती देह से मंदोदरी ने पति के चरण पकड़ कर कहा -- रघुनाथ जी के भजन से मेरा सुहाग अवश्य ही अखंड होगा | प्रिया के मन को भय से व्याप्त हुवा भानकर काल के विवश रावण में पुनश्च अभिमान जागृत हो गया |
मैं मैं करि कछु केहि न प्रबोधा । जानिहि साथ निज जग जै जोधा ॥
आए सभा प्रहस्त कर जोरी । चाटुकरि मंत्रिन्हि मति थोरी ॥
वह मैं मैं करते उसने स्वयं को विश्वजित योद्धा सिद्ध किया और किसी को कुछ न समझा | रावण का पुत्र प्रहस्त कर बढ़ होकर सभा में आया और बोला -- चाटुकार मंत्रियों में यद्यपि मेरी बुद्धि यत्किंचित है -
तात नीति तव राज बिरोधहि । पुनि हितकर ने नीति प्रबोधहि ॥
कोपत दसमुख कह सुत ताईं । कहु सठ आयउ केहि सिखाई ॥
हे तात ! आपकी नीति राज की विरोधी है तदनन्तर हितकारी नय नीतियों से सभा का संज्ञान किया | कुपित दशमुख ने पुत्र से कहा रे दुष्ट ! कहो तुम किसकी दी हुई सीख से यहाँ आए हो ?
बैठ जाए पुनि भवन बिलासा । रिपु सिर पर भय सोच न त्रासा ॥
यहां सुबेल सेल अति भीरा । सैन सहित उतरे रघुबीरा ॥
ततपश्चात रावण विलास भवन में जा बैठा | शत्रु शीश पर था रावण को भय था न त्रास था यहाँ सुवेल पर्वत पर रघुवीर विशाल सेना सहित उतरे |
चाप छाँड़ेसि सर गिरइँ मुकुट ताटंक ।
देखि महरस भंग भयो रावन सभा ससंक ॥
धनुष से बाण छूटा जिसने रावण के शीश का लक्ष्य किया, छत्र-मुक्त भूमि पर आ गिरे | महा रस-रंग को भंग दर्शकर रावण की सभा सशंकित हो उठी |
रविवार, २६ जुलाई, २०१५
मंदोदरी उर सोच बसाए । प्रानपति प्रभु सन बयरु बँधाए ॥
इत असगुन उत कपि कर भीरा । करिअ बिनती नयन भर नीरा ।।
मंदोदरी के ह्रदय में विचार किया कि प्राणनाथ ने प्रभु से विद्रोह किया है | इधर यह अशगुन उधर वानरों का विशाल समूह, वह अश्रुपूरित नेत्रों से विनती करने लगी |
रघुबर भगवद रूप बखानी । बिहँसि दनुपत मोह बल जानी ॥
नारि सुभाउ साँच सब भासैं । आठ अगुन उर सदा निबासै ॥
रघुवर के भगवद स्वरूप का व्याख्यान किया किन्तु उपहास करते रावण ने उसे मोह के वशीभूत संज्ञान कर कहा -- नारी के स्वभाव को लोग सत्य कहते है,उसके ह्रदय में अष्टावगुण (साहस, मृषा, चांचल्य, माया (छल ), भय , अविवेक अपवित्रता व् निर्दयता )सदैव निवास करते हैं |
जगे राम इत भा भिनसारे । पूछी सचिवनि सभा सँभारे ॥
जामवंत एही मत कहि पारा । पठाइब दूत बालि कुमारा ॥
इधर प्रभु श्रीरामजी का प्रभात जागरण हुवा | सभा कसंचालन कर उन्होंने सचिव गणों से पूछा - जामवंत ने यह मंत्र दिया बालिकुमार अंगद को दूत के रूप भेजिए |
चरन सीस धरि सहज असंका । चला बीर रन बांकुर लंका ॥
पैठत दसमुख तनै हँकारी । गहि पद भांवर देइ कचारी ॥
तब प्रभु के चरण में मस्तक नवा कर वह वीर योद्धा लंका प्रस्थित हुवा | प्रवेश करते ही देशमुख के पुत्र ने उसे ललकारा, उसने उसके चरण पकड़ कर घुर्मित किया और भूमि पर दे मारा |
कपिकुंजरगहि आन लिए, निसिचर दसमुख सोहि ॥
देखि अंगद सम्मुख जस कज्जल गिरि को होंहि ॥
तब उस वानर योद्धा को राक्षस बाँध कर रावण के सम्मुख ले आए | रावण अंगद को साक्षात दर्शित हुवा जो काजल के पर्वत समान था |
मंगलवार, २८ जुलाई , २०१५
कहि दसमुख तैं कहँ के बन्दर । मैं रघुबीर दूत दसकंधर ॥
होहि तात मम तोर हिताई । हित कारन तव चहहुँ भलाई ॥
देशमुख ने कहा तुम कहा के बन्दर हो ? तब अंगद ने कहा रे दशकंधर में रघुवीर का दूत हूँ | मेरे पिता आपके मित्र थे, कल्याण की अभिलाषा करते हुवे में आपका हित करने आया हूँ |
जनक सुता सादर करि आगेँ । तजत मान भय हरि पद लागैं ॥
बालि तनय बहु भाँति प्रबोधे । काल बिबस सो कछु नहि बोधे ॥
जनक नंदनी को प्रभु सम्मुख सादर निवेदन कीजिए अहंकार का परित्याग कर प्रभु के चरण पकड़ लीजिए | बाली तनय बहुंत प्रकार से प्रबोधन किया किन्तु जो काल के वश हो उसे कुछ बोध नहीं होता |
उलट तासु परिचय जब जाना । कहा बंस बन अगन समाना ।।
हम कुल घालक कहि तव साँचिहि । अंध बधिर ऐसेउ बाँचिहि ॥
इसके विपरीत रावण जब अंगद से परिचित हुवा तब उसे वंश के वन में अग्नि के समरूप कहा तब अंगद बोला -'सत्य कहते हो दशमुख मैं कुल का नाशक हूँ मति से अंध-बधिर ऐसे ही उक्ति किया करते हैं |'
करिहु अपकृत हरिहु पर दारा । कुल पोषक ए करम तिहारा ॥
दिए उतरु दससीस करि क्रोधा । मो सों भिरिहि कवन बड़ जोधा ॥
तुमने अपकृत्य कर परस्त्री का हरण किया तुम्हारा यह कृत्य कुल का पोषक है ? | दशशीश ने क्रोधपूर्वक उत्तर दिया --'जो मुझसे लोहा ले ऐसा कौन योद्धा है ?
बन गोचर कि बिरह बल हीना । जल्पसि जड़ कपि मोर अधीना ॥
दरसे न कछु रजस जिन रसिही । लघुता माझहि प्रभुता बसिहीं ॥
वह वन गोचर जो विरह से बलहीन हो गया है रे बन्दर तुम मेरे अधीन होकर भी अनर्गल प्रलाप करते हो ? राजस रस में आसक्त को लघुता में निवासित प्रभुता दर्शित नहीं होती |
प्रीति बिरोध समान सों करिए नीति अस आहि ।
मृगपति बधि मेढुकन्हि जौं कहइ को भल ताहि ॥
प्रीति और विरोध अपने समान लोगों से ही करनी चाहिए नीति ऐसा कहती है, सिंह यदि मेंढक का वध करने चले तो उसे कौन उत्तम कहेगा |
बुधवार २९ जुलाई, २०१५
जानब कपि हँसिहौ न दससीसा । जारि नगर तव एक ही कीसा ॥
बानर जाति भगत गोसाइहिं । तव मुख प्रभु गुन कस न कहाइहिं ॥
मुझे बन्दर जानकर मेरा उपहास न करो एक बन्दर ने तुम्हारी लंका दहन कर दी थी | वानर जाति स्वामीभक्त होती है फिर तुम्हारा मुख तुम्हारे प्रभु के गुण कैसे न कहे |
एकै सुभट तव मह बलवाना ।दरसिहि अबरु न तासु समाना ।।
कवन रावन बजाइब गाला । पितहि जितन एक गयउ पताला ॥
तुम्हारे दल में एक ही योद्धा बलवान है उसके समरूप अन्य कोई दर्शित नहीं होता (रावण ने कहा ) | ये कौन सा रावण है जो इतना बड़ बोला है एक वह रावण था जो मेरे पिता पर विजय प्राप्त करने पाताल में गया था |
कहउँ सकुच को रहि एक काखा । ते कवन सत बदहु तजि माखा ॥
बीस भुज धर बीर जग जाना । कहसि प्रभुहु नर करसि बखाना ॥
संकोचित होते कहता हूँ,एक वो भी रावण था जो मेरे पिता के भुजकोटर में रहा था तुम कौन से रावण हो आक्रोश त्याग कर जो सत्य है सो कहो | बीस भुजाएं धारण कर स्वयं को विश्व विख्यात वीर घोषित कर सहस्त्रबाहु भगवान को साधारण मनुष्य कहते हुवे आत्म-व्याख्यान कर रहे हो |
सूर न कहाब एहि बत संगा । भार बहहिं गध जरिहि पतंगा ॥
हँसिहि दनुप कहि कहि दुर्बादा ॥ लघु मुख अंगद बहुंत बिबादा ॥
रासभ भार वहन करते हैं पतंगे मोह के वश अग्नि में प्राण त्याग देते हैं किन्तु केवल इस हेतु से वह शूर नहीं कहलाते | लघु पद धारण करने वाले अंगद से अतिशय विवाद कर दुर्वचन कहते हुवे दनुजपति रावण अट्टाहस करने लगा |
बहुरि भारि दुहु भुज दंड तमकि देइ महि मारि ।
सभा माझ पन करि चरन, टारि गयऊ न टारि ॥
तब उसकी वीरता के परिक्षण हेतु अंगद ने अपनी बलवत भुजाओं से भूमि पर आघात करते हुवे सभा के मध्य आरोपित चरण को विस्थापित करने की प्रतिज्ञा प्रस्तुत की | किन्तु प्रयास करने के पश्चात भी वह विस्थापित नहीं हुवा ||
बृहस्पतिवार, ३० जुलाई, २०१५
इंद्रजीत सम बीर अनेका । झपटहि करि बल टरै न टेका ॥
बैठिहि सिर धर कर सब हारे । उठा आप कपि केर हँकारे ॥
इंद्रजीत के समान अनेकानेक वीरों ने उसपर अपना बल प्रयोग किया तद्यपि आरोपित चरण किंचित मात्र भी विस्थापित नहीं हुवा | शीश पर हाथ धरे सभी ने हार मान ली तब रावण अगंद को ललकारते हुवे स्वयं उठा |
तोर उबार रघुबर पद धरे । करत तेजहत कहत किए परे ॥
सिंघासन तब केहि सुहावा । होत बिमुख जब मान बिहावा ॥
रघुवर के चरण धारण करने से तुम्हारा उद्धार होगा ऐसा कहकर अंगद ने उसके तेजस्व को क्षीण करते हुवे अपने चरण परे कर दिए | ईश्वर के विरोधी हों और मान भी न रहे तब भला सिंहासन किसे प्रिय हुवा है |
रिपु मद मथि मत नीति अनेका । कहि कपि सठ मति मान न ऐका ॥
गहे नयन जल हरि पद कुंजा । बहुरि धरषि रिपु कपि बल पुंजा ।।
अंगद ने शत्रु के अंहकार का मर्दन कर अनेकों मत पूरित नीतियाँ कही, किन्तु उस दुष्ट ने सभी अमान्य कर दी | तब नेत्रों में जल भरकर शत्रु के बल का मर्दन करने वाली बल की पूंजी बालिपुत्र अंगद भगवान के चरण कुञ्ज में लौट आया |
साँझ भवन दसकंधर आवा । प्रिया बदहि गहि चरन मनावा ॥
जरि पुर तुहरी हार पुकारहि । तासु कहब दसमुख न बिचारहि ॥
संध्या काल में दशकंधर भवन आया वहां मंदोदरी ने रावण के चरण ग्रहण कर मनुहार करते हुवे कहा -- कांत ! दहन हुई नगरी आपकी हार को पुकार रही है किन्तु उसके कथन को दशमुख ने पुनश्च अविचारित कर दिया |
कपीस बिभीसन रिछपति रिपु मंसा जब पाए ।
जथाजोग जोगत पाल चौगुट कटकु बनाए ॥
सुग्रीव, विभीषण, जामवंत ने जब शत्रु की मंशा से भिज्ञ हुवे तब यथायोग्य सैन्य संयोजन कर एक चतुर्दलिय सेना की रचना की |
शुक्रवार, ३१ जुलाई, २०१५
हरष रघुनाथ चरन सिरु नाए । गहे गिरि सिखर बीर सब धाए ॥
घटाटोप करि घेरिहि लंका । केहरिनाद बजावहि डंका ॥
हर्ष पूर्वक रघुनाथ जी के चरणों में नतमस्तक हुवे और पर्वतों के शिखर लिए उन्होंने शत्रु पर आक्रमण कर दिया | बादलों की घटाओं के जैसे समस्त द्वीप को घेर लिया युद्ध का सिंह नाद करते हुवे लंका में डंका बजा दिया |
कीस रूप धर काल पुकारा । सठ मति अपुने समुझि अहारा ॥
भिंडिपाल कर परसु प्रचंडा । चले निसाचर धर गिरखंडा ॥
काल जैसे वानरों का रूप धारण कर पुकार उठा दुष्टों की बुद्धि ने उन्हें अपना आहार जाना | भाले,फरसे पर्वत खंड आदि प्रचंड आयुध धारण किए राक्षस भी चल पड़े |
चढ़े बीर कँगूरन्हि कोटा । को एक एकहि कोउ एक जोटा ॥
कोटि निसाचर कोपत निहारि । भिरिहि सुभट सों पचार पचारि ॥
वह वीर कोई एकल तो कोई सामूहिक स्वरूप में दुर्ग के कंगूरों पर आरोहित हो गए | वहां करोड़ों निशाचर थे क्रुद्ध दृष्टि से ललकारते वह उन वीर योद्धाओं पर टूट पड़े |
नाना आयुध करे ब्याकुल । भागिहि कपि बाताली तृन तुल ॥
भंजेउ रथ पच्छिम द्वारा । मेघनाथ हनुमत कर हारा ॥
अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों ने उन्हें व्याकुलित कर दिया वह अंधड़ के तृण के तुल्य भाग खड़े हुवे | तब पश्चिम के द्वार पर रथ विभंजन के पश्चात मेघनाथ हनुमंत के द्वारा पराजित हुवा |
गहीरात काल घन गर्जहि गगन बिबिध बिधि गोला चले ।
सुनि मेघनाद गढ़ु घेर घिरे तमक पुनि तहँ ते निकले ॥
धनु वंत कौसलकंत लोक ख्यात दुहु भ्रात कहाँ ।
नील नल अंगद हनुमंत द्रोही सो मम तात कहाँ ॥
विविध प्रकार के अग्नि गोलों के प्रक्षेपण से दिवस काल में गहन रात्रि ग्रहण कर गगन जैसे घनघोर गर्जना करने लगा | मेघनाद ने जब सुना की वानरों ने दुर्ग को घेर लिया है तब वह वहां से निष्काषित हो पुनश्च युद्ध भूमि पर आया | धनुर्विद्या में निपुण कौशल के कांत लोक विख्यात वह द्विभ्रात कहाँ है ? मेरे पिता के विद्रोही नीलनल, अंगद व् हनुमंत कहाँ हैं ?
करन लग रसन तान अस कहा रोष रस पाग ।
निकर निकर सर चलिहि जस चलिहि सपुच्छल नाग ।।
रोष रस में अवगाहित यह वचन कहते उसने प्रत्यंचा को कानों तक विस्तृत किया और वहां से झुण्ड के झुण्ड वाण निकल कर ऐसे संचालित हुवे जैसे पुंगधारी नागसर्प चल रहे हों |
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