शनिवार २६ दिसंबर, २०१५
सदा रघुबर सरन महुँ रहियो । कर छबि नयन चरन रहि गहियो ॥
बहोरि सर्जन के करतारी । जग पालक जग प्रलयंकारी ॥
तुम सदैव उन भगवान रघुवीर की शरण में रहना, नेत्रों में उनकी छवि धारण किए सदैव उनके चरण ग्रहण किए रहना तदनन्तर सष्टि के कर्ताधर्ता जगतपालक व् प्रलयंकारी
उपदेसत अस सिउ भगवाना । भयउ आपहु अन्तरध्याना ॥
एहि बिधि तज सुर नगर निवासा । अनुचर संग चले कैलासा ॥
भगवान शंकर ऐसा उपदेश कर स्वयं भी अंतर्ध्यान हो गए | इस प्रकार सुरपुर का निवास त्याग कर वह अपने अनुचरों के साथ कैलाश को प्रस्थान किए |
बहुि बीर मनि भंवर समाना । भगवन पदुम चरन करि ध्याना ॥
आपहु लेइ कटक चतुरंगा । चले महबीर सत्रुहन संगा ॥
तब वीरमणि ने भ्रमर के समान भगवान के पद्मचरणों का ध्यान किया और चतुरंगी सेना लिए वह स्वयं भी महावीर हनुमत व् शत्रुध्न के सहगामी हो गए |
राम चरित जस सिंधु अपारा । एहु एकु तीर तरंगित धारा ॥
करत जे जसगान अवगाहीं । गावहि सपेम सुनिहि सुनाहीँ ॥
राम चरित्र अपार सिंधु के सादृश्य है यह एक प्रसंग उसके तट की एक तरंगित धारा है | उनका यशोगान करते जो इसका अवगाहन करते हैं व् इस प्रसंग का गायन कर इसे प्रेमपूर्वक सुनते व सुनाते हैं |
रोग सोक बियोग संग तिन संताप न जोहिं ।
सिअ राम पेम रस पाए के जीवन रसमय होंहि ॥
उन्हें रोग,शोक, व् वियोग संतप्त नहीं करते सीता राम का प्रेम रस प्राप्तकर उनका जीवन रसमय हो जाता है |
सोमवार, २८ दिसंबर, २०१५
कहत अहिपत पुनि हे द्विजबर । तदनन्तर सो बाजि मनोहर ।
मोर पंख मनि चँवर सुसोहित । कोटिक समर सूर सों रच्छित ॥
अहिपति शेष जी पुनश्च कहते हैं : - तदनन्तर हे द्विजवर ! मोरपंख व् मणियों के चंवर से सुशोभित वह मनोहर अश्व करोड़ो रणवीरों से रच्छित होकर
भारत के अंते अस्थाना । हेमकूट परबत चलि आना ॥
सहस दसह जोजन लमनायो । बिस्तारित चहुँ पास पुरायो ॥
भारत वर्ष के अन्त्यस्थान पर स्थित जगद्विख्यात हेमकूट पर्वत पर आगमित हुवा | इसका विस्तार सहस्त्र दश योजन लम्बाई तक यह चारों दिशाओं में विस्तृत है |
धातु जुगत सिखि श्रृंग सुसोभा । रजत संग सुबरन मन लोभा ॥
तलहट एकु उद्यान बिसाला । जाके तीर तीर तरुमाला ॥
रजत व् स्वर्ण धातु से युक्त श्रृंग से सुशोभित वह मन को लुभाता प्रतीत होता हैं | इसकी तलहटी में एक विशाल उद्यान है जिसके तटवर्ती क्षेत्र वृक्षों की शृंखला शोभायमान है
रचे धरा जिमि सिरु कल केसा । मार्जक जस तहँ बाजि प्रबेसा ॥
सुनहु महमन तहाँ ता संगा । भए एकु अचरज कारि प्रसंगा ॥
इस पर्वत श्रेणी के रूप में मानो धरती ने अपने शीश पर सुन्दर केश रचना करती प्रतीत हो रही थी | केशमाराजक का स्वरूप धारण कर वह अश्व जैसे ही वहां प्रविष्ट हुवा महमना ! सुनो ! उसके साथ एक विस्मयकारी घटना घटित हुई |
ताहि कहउँ मैं तोहि सुधीरा । अकस्मात पुनि तासु सरीरा ॥
टारे न टरे भए जड़ताई । केहि भाँति नहि चलिहि चलाईं ॥
हे सुधीर ! उसे में आपसे कहता हूँ | फिर अकस्मात उसका शरीर जड़ हो गया विचलित करने पर भी अविचल ही रहा और परिचालन करने पर भी वह किसी भी प्रकार से परिचालित नहीं हुवा |
ठाढ़ि तहाँ अविचल तुरग प्रतीति नग संकास ।
पुकार करतब राखिता गै पुनि सत्रुहन पास ॥
जड़ता प्राप्त वह निश्चल अश्व हेमकूट पर्वत की ही भांति प्रतीत होने लगा | अश्व के रक्षक पुकार करते फिर शत्रुध्न के पास गए |
जाइ सब बृत्तांत सुनाईं । नहि जानत हम कस गोसाईं ॥
भयउ तासु जड़तम सब अंगा । बिचरत गए अह जहाँ तुरंगा ॥
वहां जाकर उन्होंने अश्व की निश्चलता का सम्पूर्ण वृतांत का वर्णन कर कहा स्वामी ! यह कैसे हुवा हमें ज्ञात नहीं, वह अश्व विचरण करते जहाँ गया आह! वहां उसके समस्त अंग स्तब्ध हो गए |
ताहि बिचारत किछु बन परि जौ । जो करि उचित जान सो कीजो ॥
सत्रुहन पल्किन पट बिस्तारै । भए चौपट दुहु नयन दुवारे ॥
उसका विचार करते हुवे जो युक्ति युक्तिगत हो और जिसे करना उचित हो आप फिर वही कीजिए | (यह श्रवण कर ) शत्रुध्न के पलक-पट विस्तृत किए तो उनके दोनों नेत्र द्वार उद्धट्टित हो गए
लिए सहुँ सकल सुभट मुनिराए । तुरतै तासु निकट चली आए ॥
सरभस चरत फिरिहि सब देसा । होहि दसा अस रहि न अँदेसा ॥
मुनिराज फिर वह अपने समस्त उत्तम योद्धाओं को संग लिए तत्काल उस अश्व के निकट गए | जिस अश्व ने ग्रास चरते समस्त देशों में प्रसन्नतापूर्वक विचरण करता रहा उसकी यह दशा होगी ऐसा अंदेशा नहीं था |
गहे चरन पुष्कल निज बाही । किए जुगत उपरे न उपराही ॥
टारे जब नहि टरे तुरंगा । पूछिहि सत्रुहन सुमतिहि संगा ॥
पुष्कल ने अपनी भुजाओं से उसके चरण ग्रहण कर उसे उठाने का प्रयत्न किया किन्तु वह टस से मस न हुवा | तब शत्रुध्न ने सुमति से प्रश्न किया : --
होइँहि अस काह कि गहिहि सकल देहि जड़ताए ।
अजहुँ इहाँ मंत्रि बर करि चाहिअ कवन उपाए ॥
'मंत्रिवर !ऐसा क्या हुवा कि इसकी समस्त देह अविचल हो गई अब इस स्थित में क्या करना उचित होगा ?
बुधवार, ३० दिसंबर, २०१५
जेहि सों चालक बल बहुराए । महोदय करिहउ सोइ उपाए ॥
गतिहि कोउ मत मतिगति तोरे । कहे मंत्रि एहि नहि बस मोरे ॥
जिस युक्ति से इसका परिचालन बल यथास्थित हो महोदय अब वही उपाय कीजिए | आपकी विचारसरणी में कोई विचरण प्रसारित हो आप उसे कहें अब यह स्थति मेरे वश की नहीं है |
जानिहुँ मैं प्रभु आँखन देखी । तासों अतीत मोहि न लेखी ॥
दरस बिषय होइहिं जग जोहीं । ताहि माहि मोरे गति होंही ॥
सुमति ने कहा : -' प्रभु! प्रत्यक्ष घटनाक्रम ही मुझे संज्ञात है इससे परोक्ष मुझे कुछ ज्ञात नहीं है इस लोक के प्रत्यक्ष दर्शी विषयों में ही मेरी गति है |
हेर फिरत अब सब बन डेरे । चाहिए करि अस रिषि मुनि हेरे ॥
जो एहि जानन महुँ कुसलाता । भई इहाँ अस कस एहि बाता ॥
अब हमें वन आश्रमों में ऐसे ऋषि मुनियों की टोह करनी चाहिए जो यह संज्ञान करने में कुशल हो कि यहाँ ऐसी घटना कैसे हुई |
सत्रुहन पुनि निज अनुचर ताईं । कुसल रिषि मुनि करिअ हेराईं ॥
एक अनुचर प्राचिहि दिक् पठाए । चरत सो जोजन भर चलि आए ॥
फिर शत्रुध्न ने अपने अनुचरों द्वारा उन कुशल ऋषि मुनियों का शोधन कराया | एक अनुचर को पूर्व दिशा की ओर भेजा वह जब योजन भर की दूरी तक चला आया |
चलिअ बदन हरखनि पवन बिषाद घन बिथुराइ ।
तहाँ ते एकु अति सुंदर आश्रमु दिए देखाइ ॥
एक स्थान पर मुखमण्डल को हर्षाति पवन ने विषाद के मेघों को छिन्न-भिन्न कर दिया वहां उसे एक अति सुन्दर आश्रम दर्शित हुवा |
मानुस सन पसु पाँखि जहाँ के । बिचरहि बैर भाव बिसरा के ॥
कारन सबहिं गंगा अस्नाए । तासु सकल अघ गयउ दूराए ॥
जहाँ के मनुष्य, पशु-पक्षी सभी वैर विस्मृत कर संग-संग विचरण कर रहे थे | गंगाजी में स्नान के कारण उन सभी के पाप नष्ट हो गए थे |
होइहि रुचिर रहस चहुँ फेरे । रहि आश्रमु शौनक मुनि केरे ॥
लिए रनी एहि बात के हेरा । चरन फेर आइहिं निज डेरा ॥
वहां चारों ओर का वातावरण रहस्यमय किन्तु रोचक था वह सुन्दर आश्रम शौनक मुनि का है इस बात को शोधकर वह योद्धा अपने विश्रामस्थल में लौट आया |
भइ अतिसय बिसमय कर बानी । समाचार जब कहत बखानी ॥
अनुचर जैसेउ निगदन कहीँ । हरखिहि सत्रुहन बहु मन मनही ॥
यह वृत्तांत कथन करते उसकी वाणी अतिसय विस्मृत हो गई | अनुचर ने जैसे ही अपनी वार्ता समाप्त की शत्रुध्न मन ही मन अत्यंत हर्षित हुवे |
हनुमन पुष्कलादि लिए संगा । आए मुनिहि पहि तूल तुरंगा ॥
गहे चरन सुमिरत श्री रामा । भयउ दंडबत करिहि प्रनामा ॥
हनुमंत व् पुष्कलादि योद्धाओं को संग लिए वह मन की गति के समतुल गति से मुनि के पास आए | और भगवान श्रीराम का स्मरण करते हुवे चरण ग्रहण करके उन्हें दंडवत प्रणाम किया |
बलबन में महा बलबन सत्रुहन आवब जान ।
सौनक किए स्वागत पाद्यार्ध प्रदान ॥
बलियों में महाबली शत्रुध्न का आगमन हुवा संज्ञानकर शौनक मुनि ने पदयार्द्ध आदि से उनका स्वागत किया |
बृहस्पतिवार, ३१ दिसंबर, २०१५
भेंट सपेम दीन्हि सुआसन । बैठे सब सुनि मुनि अनुसासन ॥
किए बिश्राम जब श्रम बहुराई । सकुचत मुनिबर पूछ बुझाईं ॥
प्रीतिसहित मिलाप करते मुनि ने उन्हें सुन्दर आसन प्रदान किया फिर आज्ञा प्राप्त कर शत्रुध्न आसान में विराजित हो गए | विश्रामादि के पश्चात जब शिथिलता दूर हो गई तब मुनिवर ने संकुचित होते हुवे प्रश्न किया |
काँकरि पथ बन भूमि पहारा । करि केहरि सहुँ सरित अपारा ॥
काल ब्याल कुरंग बिहंगा । चतुरंगिनी कटकु लिए संगा ॥
यह पथरीले पंथ , यह वनभूमि ये पहाड़ हाथी सिंह आदि सहित ये अपार सरिताएं ये काल के समरूप हिंसक पशु और ये दुष्ट पक्षी | राजन !तुम चतुरंगिणी सेना को साथ लिए -
घन ते घन बन गोचर जैसे । मारग अगम फिरिहु कहु कैसे ॥
धूरि भरे पग करिहि बखाना । लमाए पंथ दूर है जाना ॥
घन से भी अति घने विपिन के इस दुर्गम मार्ग में वनचरों के समान किस हेतु भ्रमण कर रहे हो | धूलिका से भरे तुम्हारे ये चरण प्रलंबित पंथ की दूरगामी यात्रा का संकेत कर रहे हैं |
सुनि सत्रुहन मुनिबर कर बाता । हरष तेउ पुलकित भै गाता ॥
हिलगिहि तसं पुनि जुग पानी । ए निगदत भई गदगद बानी ॥
मुनिवर की वार्ता श्रवण कर हर्ष से उनकी देह पुलकित हो उठी, अपना परिचय देते हुवे फिर वह गदगद वाणी से बोले : --
मुनिबर एकु नीक निकुंज कली कुसुम बिकसाए ।
घुर्मित मोर तुरग तहाँ, अकस्मात् चलि आए ॥
'मुनिवर !कुसुम कलियों को विकसित किए यहाँ एक सुन्दर निकुंज है परिभ्र्रमण करात हुवे मेरा अश्व अकस्मात् वहां चला आया |
शनिवार २ जनवरी, २०१६
प्रबसित तहँ एकु उपबन तीरा । भयउ तासु जड़वंत सरीरा ॥
हमरे मन अतिसय दुःख पाईं ।सूझे नहि पुनि कोउ उपाई ॥
वहां प्रविष्ट होकर एक उपवन के तीर पर उसका शरीर शुन्य हो गया हमारा मन अत्यंत दुखित हो गया | हमें उसे जड़ता से मुक्त करने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था |
देखि गात स्तम्भित तुरंगे | भए सब दीन तासु दुःख संगे ।
हमरे जस बड़ भागि न कोई । दैवात तोर दरसन होईं ॥
तुरंग का शरीर स्तंभित देख, उसके दुःख के साथ सभी दुखित हो गए | मुने! हमारे जैसा कोई सौभग्यमान नहीं है जो दैवात ही आपके दर्शन हो गए |
आरत अरनव मन अवगाहीं । तरिता बनु तुम कीजौ पाहीं ॥
दहे ह्रदय सोच करि दाहा । तासु दसा कहु कारन काहा ॥
मन दुःख के समुद्र में अवगाहित हो रहा है आप नौका बनकर हमारी रक्षा कीजिए | तुरग की चिंता दहन से हमारा ह्रदय दह रहा है उसकी इस अवस्था का कारण क्या है ?
यहु संकट मोचित जस होहीं । कहउ सो बिधि कृपाकर मोही ॥
सत्रुहन पारिहि पूछि बिहाना । तब शौनक मुनिबर बिद्बाना ॥
यह संकट जैसे उन्मोचित होगा कृपाकर हमें उस विधि का बोध कराइये | शत्रुध्न के इस प्रकार प्रश्न करने पर फिर विद्वान शौनक मुनि ने |
दृग द्वारि पट ढार के, छिनुभर् धरे ध्यान ।
तनिक बेर लयलीन रह सकल रहस लिए जान ॥
दृष्टिद्वार को पटाक्षेप कर क्षणभर के लिए ध्यानमग्न हो गए | किंचित समय तक लयलीन रहने के पश्चात उन्हें उक्त अश्व की ऐसी अवस्था का सम्पूर्ण रहस्य ज्ञात हो गया |
प्रफुरित होत चकित भए नैना । पुनि सत्रुहन सन बोलिहि बैना ॥
बैसि संसइत सरि के तीरा । सत्रुहन श्रवन होए गम्भीर ॥
उनके नेत्र विस्मय से प्रफुल्लित हो गए फिर वह शत्रुध्न से अश्व के गातस्तम्भ का कारण कहने लगे |सरिता के तट पर विराजित संशयित शत्रुध्न उसे श्रवण करने के लिए गंभीर हो गए |
भयउ तुरग कस गात स्तम्भा । कारन किए मुनि कहन अरंभा ॥
अहहीं गौड़ नाउ एक देसा । जहँ एकु बहु रमनीक प्रदेसा ॥
उस अश्व का शरीर स्तंभित कैसे हुवा ऊनि ने इसका कारण कहना प्रारम्भ किया : -- ' गौड़ नामक एक देश है जहाँ एक अत्यंत रमणीक प्रदेश है,
सातिक नामि द्विज तहँ बासिहिं । जसु तेज चहुँ पास प्रकासिहिं ॥
करिहीं तप कावेरी कूला । छन पल पहर रयन दिन भूला ॥
वहां सात्विक नामक एक ब्राह्मण निवास करते थे जिनके तेज से चारों दिशाएं प्रकाशित रहती थीं, वह कावेरी नदी के तट पर तपस्यारत थे | क्षण, पल, पहर, रयन, दिवस का उन्हें अनुमान ही नहीं था |
एक दिन पयस दुज पवन पयाएँ । तीजे दिन सो कछुहू न पाए ॥
चलिहिं नेम ब्रत तप एहि भाँती । ऐसेउ बिरत रहि दिन राती ॥
वह एक दिन जल पान कर तो दूसरे दिन वायु पान करते, तीसरे दिवस वह निराहार ही रहते | उनका नियम व्रत व तप इसी भांति संचालित था उनके अहिर्निश इसी प्रकार से ही व्यतीत हो रहे थे
सर्ब नासी काल तबहिं, गहे दंड कर पास ।
तपन चरन रत द्विजन्हि गयउ संग लए फाँस ॥
कि तभी सबका नाश करने वाला काल, तपस्यारत द्विज को दण्डपाश में फाँस कर अपने साथ ले गए गया |
सोमवार, ४ जनवरी, २०१६
पहिरत रतन अभूषन नाना । सातिक नामि सो बिप्र बिहाना ॥
सोहामान बिमान चढ़ेऊ । मेरु गिरि सिखर गा उतरेऊ ॥
तत्पश्चात सात्विक नामक वह ब्राह्मण रत्नाभूषण अभरण किए एक शोभायमान विमान पर आरूढ़ हुवा और वहां से गमन कर वह मेरु गिरी के शिकार पर उतरा |
जम्बालिनि तहँ बहि चलि आई । बसिहि तासु तट रिषि मुनिराई ॥
तपन चरन रत मगन ध्याना । रयन रयन दिनु दिनु बिनु जाना ॥
वहां जम्बालिका नामक नदी प्रवाहित होती थी जिसके तट पर ऋषिमुनियों का समुदाय निवास करता था | रात्रि को रात्रि व् दिवस को दिवस भान किए बिना वह ध्यानमग्न होकर निरंतर तपस्या में अनुरक्त रहते |
सोए द्विज कीन्हि तहँ बासा । रहिहि अनंदित करिहि निबासा ॥
पुनि मनगत अभिलाषा जागे । सुर कामिनि सों बिहरन लागे ॥
उसे अपने वास स्थल में परिणित कर वह द्विज भी वहां आनंद पूर्वक निवास करने लगा | फिर मन की गोपित अभिलाषाएं जागृत हो गई वह स्वर्ग अप्सराओं के संग विहार करने लगा |
कामोन्मत्त मन अस रंगा । बसिहि तहाँ रिसि महरिसि संगा॥
किए बर्ताउ न जाइ बखाना । भरे घमन कीन्हि अपमाना ॥
कामोन्मत्त होकर उसका मन ऐसा आसक्त हुवा कि वहां निवासित ऋषि मुनियों के साथ उसके द्वारा किया गया व्यवहार अनिर्वचनीय हो गया वह अहंकार से पूरित होकर उन्हें अपमानित करने लगा |
तासु उद्दंड अजहुँ त बढ़े अधिकाधिकाइ ।
रिषि मुनि हेतु सो ब्रम्हन, भयऊ अति दुःख दाइ ॥
अब उसकी उद्दंडता अधिकाधिक बढ़ने लगी, ऋषिमुनियों के लिए वह ब्राह्मण अत्यंत दुःखदायी हो गया |
मंगलवार, ०५ जनवरी, २०१६
दुखित रिषिहि मन कोपु ब्यापा । रिसत बिप्रन्हि दीन्हि श्रापा ॥
काढ़ि बचन मुख पुनि खिसियाईं । होहु कपटी निसाचरु जाई ॥
दुखान्वित ऋषि मुनियों के मन में कोप व्याप्त हो गया रुष्ट होकर अंतत: उन्होंने ब्राह्मण को श्राप दे दिया | उनके मुख से ये खीझ कर ये वचन निष्काषित किए : -- 'जा तू कपटी निशाचर हो जा,
तुम्हरे बदन गहे बिकारा । केहु भाँति नहिं जाइ सँवारा ॥
सुनिहि श्राप मिटिहि अभिमाना । बिप्रन्हि मन बहुतहि दुःख माना ॥
तुम्हारा मुखमण्डल विकार ग्रहण कर ले जो किसी भांति साकारित न हो सके | यह श्राप श्रवण कर ब्राह्मण का अभिमान विलुप्त हो गया और उसका मन संतापित हो उठा |
जल बिनु बिकल मीन के नाईं । बोले सभीत सीस झुकाईं ।
सयान सुजान दीनदयाला । श्राप अनुगह करिहु कृपाला ॥
वह जल विहीन व्याकुल मीन के सदृश्य हो गए और भयाकुल होते हुवे शीश अवनत कर बोले | ब्रह्मऋषियों ! आप सब अनुभवप्राप्त सुबुद्ध व् दीनों पर दया करने वाले हैं हे करपालु मुनियों! इस श्राप हेतु मुझपर अनुग्रह करें |
मैं लघुबर बड़ मम अपराधा । अपकारत तुम्हहि मैं बाधा ॥
अनुग्रह करि तब रिषिहि सयाने । मधुर रूप एहि बचन बखाने ॥
में अंश मात्र हूँ मेरा अपराध नृशंस है बाधक होकर मैने आपका अहित किया | तब उन प्रबुद्ध ऋषियों ने ब्राह्मण पर अनुग्रह करते हुवे ये मधुर वचन उद्भाषित किए : -
रघुबर कर तजि तुरग इहँ अइहीं कालहि पाएँ ।
होइहहु तब साप मुकुत करत ए कछुक उपाएँ ॥
अवसर को प्राप्त होकर यहाँ रघुवीर का त्यक्त अश्व का आगमन होगा, तब तुम ये कतिपय उपाय करके श्रापमुक्त हो जाओगे |
बृहस्पति /शुक्र , ०७/ ०८ जनवरी , २०१६
तेहि औसर त्याजित तुरंगा । करिहु थंभ निज बेगि प्रसंगा ॥
सुमधुर राम कथा तब होंही ।मिलिहीँ श्रवन सुअवसर तोहीं ॥
उस समय तुम उस त्याजित अश्व को अपने वेग से स्तंभित कर दोगे तब सुमधुर रामकथा होगी और तुम्हें उसके श्रवण का सुअवसर प्राप्त होगा |
गहे सीस भयंकर श्रापा । होइहि तब तासों उदयापा ॥
अस्व गात थंभित जस होईं । करिहि श्रापित राकस सोई ॥
तब उससे शीर्षारूढ़ इस भयंकर श्राप का उद्यापन हो जाएगा | अश्व का जिस प्रकार गात्र-स्तम्भ हुवा वह उस श्रापित राक्षस का ही किया-धरा है |
रिषिहि कहि हरि कीर्तन ताईं । करिहौ राम कथा सुखदाई ॥
लागिहि श्राप कटिहि समूला । होइहिं सकल दसा अनुकूला ॥
ऋषियों के कथानुसार अब तुम हरिकीर्तन करते हुवे सुखदायिनी रामकथा का आयोजन करो जिससे उक्त निशाचर पर लगा श्राप समूलोन्मोचित हो जाए |
रिपुदल बीर दमन करतारी । भए सत्रुहन मन अचरजु भारी ॥
कर्म गति अति गूढ़ गम्भीरा । कहि हरिअर पुनि रन धीरा ॥
मुनि का कथन सुनकर शत्रुडक के गंजनों का दमन करने करने वाले शत्रुध्न के मन में अतिसय विस्मय हुवा | कर्म की गति अति गूढ़ व् गंभीर है
सातिक नाउ धर ब्रम्हन कर्म संग मुनिराए ।
अमरावती पैठत पुनि लहिहि राकस सुभाए ॥
मुनीश्वर! सात्त्विक नामक वह ब्राह्मण के कर्म से अमरावती पहुँच कर भी राक्षस स्वभाव को ग्रहण किए रहा |
कर्मानुसार गति जस होंही । तेहि बरनत कहउ मुनि मोही ॥
जेहि करम जस जमपुर लाही । कहिअ बुझाइ मोहि जन ताही ॥
कर्मानुसार जैसी गति होती है, मुझसे वह वर्णन कहिए | जिन कर्मों से यमपुर प्राप्त होता है उसे प्रवचनपूर्वक कहते हुवे आप मेरा प्रबोधन कीजिए |'
बोले मुनि हे हंसकबंसा । धन्य तुम्ह रघुकुल अवतंसा ॥
तव बुधि सदा बचन अस बूझिहि । तासु अबर अरु कछु नहि सूझिहि ॥
तब मुनि बोले : - हे हंसवंशी ! हे रघुकुल श्रेष्ठ ! तुम धन्य हो | तुम्हारी बुद्धि सदैव इस प्रकार के ज्ञानमयी प्रश्न करती है इससे अन्यथा उसका कहीं ध्यान नहीं होता |
चाहहु सुनै कर्म गति गूढ़ा । कीन्हिहु प्रस्न मनहु अति मूढ़ा ॥
तुम्हहि बिषय बिदित सब होईं । अहहि ताहि संदेहू न कोई ॥
तुम कर्म की गूढ़ गति के श्रवण हेतु अभिलाषित हो और मुझसे अबोध स्वरूप प्रश्न कर रहे हो जबकि तुम्हें यह विषय संविदित (पूर्णतया ज्ञात ) है |
तथापि हित हुँत पूछ बुझाहू । मुनिबर मुनि पुनि पुनि सुनि चाहू ॥
कर्म लेख धरि बिचित्र सरूपा । तेहि के गतिहि गहि बहु रूपा ॥
तथापि जनहित हेतु तुम मुझसे प्रश्न कर रहे हो और मुनियों के मुखों से उसे पून:पून: श्रवण करने को आकांक्षित हो |
तात सुनिहु सादर मन लाईं । सुनिही सो भव मोचन पाईं ॥
हे तात ! अब ध्यानस्थ होकर उसे आदरपूर्वक सुनो क्योंकि जो इस विषय को ध्यानपूर्वक श्रवण करता है वह भवबंधन से उन्मोचित हो जाता है |
जो सठ अपकारी परधन पर नारी उपर कुडीठ धरे ।
भोग बुद्धि कर पुनि बरियाई तापर अधिकार करे ॥
तासु बाँधि महाबली जम कर दूत धरी ले जइहीं ।
काल रसी तिन करषत कसी तामसी नरक गिरइहीं ॥
जो दुष्ट बुद्धिवाला पुरुष परस्त्री, परधन-सम्पति पर कुदृष्टि करते हुवे जगत का अहित करता है और भोगबुद्धि के आशय से उसपर बलपूर्वक अधिकार स्थापित करता है | उसे यमराज के महाबली दूत बंधक बनाकर यमपुरी ले जाते हैं वहां उसे काल-पाश से कसकर फिर खैंचते हुवे तामिस्त्र नामक नरक में निपतित करते हैं |
जातुहु तब लगि राखिहि जब लगि सहस बरस नहि पुरने ।
गहि कर दंड जमदूत प्रचंड पापकन्हि हनिहि घने ॥
पाप भोग तैं एहि बिधि भल भाँति भोगत सो जातना ।
बाराहु जोनि जनमत पल पल लहे पुनि दुःख दारुना ॥
और वहां तबतक तक रखते हैं जबतक एक सहस्त्र वर्ष पूर्ण हों | यमराज के प्रचंड दंडधारी दूत वहां उस पापी को घोर आघात करते हैं | इस प्रकार अपने पापों के भुक्तान स्वरूप वह उस नर्क के यातनाओं को भोगकर वह शूकर की योनि में जन्म लेता है और वहां क्षण-क्षण भयंकर कष्टों को प्राप्त होता है |
पाए बहुरि मानस जोनिहि क्रमबत सोई पाप करे ।
पुरबल जनम केर कलंक संसूचित चिन्हार धरे ॥
जो निज भरिमा भरिमन हुँत करें द्वेष पर प्रानिन्हि से ।
पापभिरत सो पापक निपतत अँध तामसि नरक बसे ॥
अंत में वह मनुष्य योनि को प्राप्त होकर क्रमश: उन्हीं पापों में संलिप्त रहता है | पूर्वजन्म के कलंक को संसूचित करने वाले चिन्हों को धारण किए रहता है | जो अपने कुटुंब के पालनपोषण हेतु अन्यान्य प्राणियों से द्रोह करता है पापाभिरत वह पापी निपतित होकर अन्धतामिस्त्र नामक नरक में वास करता है
जौ परहंता हतिरंता सो रौरव गिरएँ जाइहीं ।
तहँ कोपत रुरु पंखि छिति छत तेहि के देहि खाइहीं ॥
निज तात द्रोहि ब्रम्हन बिद्रोहि काल सूत नरक परे ।
लमनत जोइ सहस दस जोजन खेतायत लग पसरे ॥
जो दूसरे प्राणियों की हत्या व् उन्हें हताहत करने में संलिप्त रहते हैं वह रौरव नामक नरक में निपतित होते हैं वहां रुरु नाम का पक्षी रोष से आपूरित होकर उनके शरीर को परिछिन्न करते हैं | जो अपने मातापिता और ब्राह्मणों के द्रोही हैं उन्हें कालसूत्र नामक नरक निपातित किया जाता है इस नरक का विस्तार दस सहस्त्र योजन के विशाल क्षेत्र में विस्तारित है |
चतुस्तनी बिद्रोही कर देइ दंड आघात ।
पचइहीं ताहि जमराज किंकर नरक निपात ॥
जो गौंओं से विद्रोह करता है उसे यमराज दंड का आघात देते हुवे किंकर नामक नरक में निपातित कर पकाते हैं |
शनिवार, ०९ जनवरी, २०१५
गौ तन रोम बरस गिनि जोरे । पचिहिं तहँ सो समउ न थोरे ॥
जोग पुरुख बिनु जो नर नाहू । देइ दंड अन्यानय काहू ॥
वह भी अल्प काल तक नहीं अपितु वहां उसे गौओं की देह के रोम को गिनकर उतने वर्षों तक पकाया जाता है | जो किसी योग्यता रहित पुरुष को अन्यायपूर्वक दंड देता है |
लोभ बिबस बिप्रन्हि दुःख दाइहिं । सोए नरक सो बहु दुःख पाइहिं ॥
तहाँ दूत सठ बदन बराहू । देइ ताहि तस दारुन दाहू ॥
और लोभ के वशीभूत किसी विप्र को कष्ट देता है वह भी उसी नरक में कष्ट भुक्तते हैं वहां वराह मुख के समदृश्य दुष्ट यमदूत उसे वैसी ही असहनीय पीड़ा देते हैं |
सेष पाप तब कस निबरा हीं । खल जोनिहि जब जनमत जाहीं ॥
कहत जति पुनि करम गति आगे । सत्रुहन चेत धरत सुनि लागे ॥
उसके शेष पातकों से तब फिर कैसे निवृत्त होते हैं जब वह निकृष्ट योनियों में जन्म लेकर उसके सुख-दुःख को सहते हैं | सचेत स्वरूप में श्रवण करते शत्रुध्न से कर्म गति का सतत व्याख्यान करते मुनिश्री आगे कहते हैं : -
मोह बिबस बिप्रन्हि गउ केरे । जीवन हेतु द्रब्य कर हेरे ॥
पठाइ जब परलोक बिधाता । अँधकूप नरक गिराइब जाता ॥
'जो मोह के विवश ब्राह्मणों एवं गौओं के जीविका, द्रव्य अथवा धन का हरण करने वालों को विधाता जब परलोक भेजते हैं तब वहां उन्हें अंधकूप नामक नर्क में गिराया जाता है ||
जो को आपनि लौलुपताईं । जीहातुर मधुरान्न पाईं ॥
न त देवन्हि न सुहृदय देहीं। गिरएँ जाइ कृमि भोजन तेहीं ॥
जो कोई अपनी लौलुपता से जिह्वा हेतु आतुर होकर स्वयं ही मिष्ठान्न पाता है देवताओं तथा सुहृदयों को नहीं देता वह निश्चय ही कृमिभोजन नामक नरक निपातित किया जाता है |
सुबरन कर अपहरन करि बिप्रन्हि धन अप हारि ।
संदंस नरक पतत सो भुगतिहि दुःख अति भारि ॥
जो मनुष्य स्वर्णादि का अपहरण अथवा ब्राह्मणों के धन की चोरी करता है , वह संदंश नामक नर्क में निपतित होकर वहां के असहनीय दुखों को भुक्तता है |
मंगलवार, १२ जंनवरी, २०१६
उदरपरायन जो मति मूढ़ा । भरत पुरत निज तन भए बूढ़ा ॥
अबरु आप तें जनहि न आनै । लेइ जान जग देइ न जानै ॥
जो उदरपरायण होकर केवल अपने शरीर के पोषण में ही अनुरक्त रहता है और स्वयं से अन्यथा किसी से सम्बन्ध नहीं रखते हुवे केवल लेना जानता हो देना नहीं, ऐसा मूढ़बुद्धि मनुष्य
तप्तक तापित तैल पुरावा । कुम्भी पाक गिरइँ सो जावा ॥
पामर पुरुख भोगमति संगा । चाहिँ गमन अगम्या प्रसंगा ॥
आतप्त तैल से परिपूर्ण कड़ाई के समदृश्य अत्यंत भयंकर कुम्भीपाक में जा गिरता है | नीमविचारधारा वाले पुरुष अपनी भोगबुद्धि के मोहवश अगम्य स्त्री के साथ प्रसंग करते हैं -
लोहित मूरति दूत तपइहीं । तासंगत अँकबार करइहीं ॥
जो मद उन्मत निज बल ताईं । लंघिहि बेद सेतु बरियाईं ॥
उसे यमदूत उसी स्त्री की तापित लौहमई प्रतिमा के संग आलिंगन करवाते हैं | जो अपने बल से मदोन्मत्त होकर वेदों की मर्यादा का बलपूर्वक उल्लंघन करते हैं,
पयसत रकत अमिष सो खाहीं । बैतरनी अरनी अवगाहीं ॥
छूद्र गेहिनि द्विज भए गेही । पुयोद नरकु निपातत तेहीं ॥
मृत्यु पश्चात वह वैतरणी नदी में अवगाहित होकर मांस व् रक्त भोजन करते हैं | द्विज होते हुवे जो क्षुद्र की गृहिणी को अपनी भार्या बनाकर जीवन यापन करता है वह पयोद नामक नरक में निपातित होता है |
दँतुला दूत अस पेरिहि जस पेरन पेराइँ ।
तहाँ केर निबासित काल होतबहुँत दुःख दाइ ॥
वह विकराल दंष्ट्रा दूत उसे ऐसे पेरते हैं जैसे जैसे पेरन पेराता हैं वहां का निवासित काल अत्यंत ही दुखदायी होता है |
शुक्रवार, १५ जनवरी, २०१६
जो धूत कृत कुचाल कुसाजा । लोगन्हि सोंहि करिहि ब्याजा ॥
दंभि खल दल दर्प कल ताईं । बैसस नरकहि जाइ गिराई ॥
जो धूर्तकृत ,कुचालि, कपटवेशी लोगों से छलपूरित व्यवहार करते हुवे दुष्टों के दल काप्रसंग कर दम्भ अहंकारपुरित वचनों का आश्रय लेते हैं वह वैशस नामक नर्क में गिरते हैं |
सबरनी जोनि बीर त्याजिहि । अस पामर सहुँ लाजहु लाजिहि ॥
बीरहि कुण्ड सो जाए गिराए । पयसन छाँड़ि तिन बीर पियाएँ ॥
जो समानगोत्र वाली स्त्री जननेंद्रिय में वीर्यपात करते हैं ऐसे मूढ़ के सम्मुख स्वयं लज्जा भी लज्जित होती है और उसे वीर्य कुंड में गिराया जाता है जहाँ उसे जल की अपेक्षा वीर्यपान करके ही नर्क भोगना पड़ता है |
जो खल जल जल लाग लगावैं । देइ गरल धन द्रव्य चुरावैं ॥
महपापक अपहारिहि गाँवा । सारमयादन सो गिरि आवा ॥
जो दुष्ट ईर्ष्यावश आग लगाते है जो विष देनेवाले हैं जो दूसरों के द्रव्य का अपहरण करते हैं और गावों को लूटने वाले हैं वह महापातकी जीव 'सारमेयादन'नामक में गिराए जाते हैं |
करिहि संचय पाप कर रासी । बोले असाँच बहुंत सुपासी ॥
देइ अधमी असाँची साखिहि । अबीचि नरक जम तिन्ह राखिहि ॥
जो पाप की राशि का संचय करते हैं और विश्रामपूर्वक असत्यभाषण करते हैं, जो असत्य के साक्षी होते हैं उन्हें यमराज अवीचि नामक नरक में रखते हैं |
धरत केस करषन करत नीच सीस करि डारि ।
कललत कलपत तहाँगत भुगत दुखारत भारि ॥
उसके केश धारण कर उसे खैंचते हुवे उक्त नरक में पतित किया जाता है वहां वह जीव जलनयुक्त पीड़ा से त्रस्त होकर विलाप करते हुवे भारी दुःख व् कष्टों को सहता है |
सदा रघुबर सरन महुँ रहियो । कर छबि नयन चरन रहि गहियो ॥
बहोरि सर्जन के करतारी । जग पालक जग प्रलयंकारी ॥
तुम सदैव उन भगवान रघुवीर की शरण में रहना, नेत्रों में उनकी छवि धारण किए सदैव उनके चरण ग्रहण किए रहना तदनन्तर सष्टि के कर्ताधर्ता जगतपालक व् प्रलयंकारी
उपदेसत अस सिउ भगवाना । भयउ आपहु अन्तरध्याना ॥
एहि बिधि तज सुर नगर निवासा । अनुचर संग चले कैलासा ॥
भगवान शंकर ऐसा उपदेश कर स्वयं भी अंतर्ध्यान हो गए | इस प्रकार सुरपुर का निवास त्याग कर वह अपने अनुचरों के साथ कैलाश को प्रस्थान किए |
बहुि बीर मनि भंवर समाना । भगवन पदुम चरन करि ध्याना ॥
आपहु लेइ कटक चतुरंगा । चले महबीर सत्रुहन संगा ॥
तब वीरमणि ने भ्रमर के समान भगवान के पद्मचरणों का ध्यान किया और चतुरंगी सेना लिए वह स्वयं भी महावीर हनुमत व् शत्रुध्न के सहगामी हो गए |
राम चरित जस सिंधु अपारा । एहु एकु तीर तरंगित धारा ॥
करत जे जसगान अवगाहीं । गावहि सपेम सुनिहि सुनाहीँ ॥
राम चरित्र अपार सिंधु के सादृश्य है यह एक प्रसंग उसके तट की एक तरंगित धारा है | उनका यशोगान करते जो इसका अवगाहन करते हैं व् इस प्रसंग का गायन कर इसे प्रेमपूर्वक सुनते व सुनाते हैं |
रोग सोक बियोग संग तिन संताप न जोहिं ।
सिअ राम पेम रस पाए के जीवन रसमय होंहि ॥
उन्हें रोग,शोक, व् वियोग संतप्त नहीं करते सीता राम का प्रेम रस प्राप्तकर उनका जीवन रसमय हो जाता है |
सोमवार, २८ दिसंबर, २०१५
कहत अहिपत पुनि हे द्विजबर । तदनन्तर सो बाजि मनोहर ।
मोर पंख मनि चँवर सुसोहित । कोटिक समर सूर सों रच्छित ॥
अहिपति शेष जी पुनश्च कहते हैं : - तदनन्तर हे द्विजवर ! मोरपंख व् मणियों के चंवर से सुशोभित वह मनोहर अश्व करोड़ो रणवीरों से रच्छित होकर
भारत के अंते अस्थाना । हेमकूट परबत चलि आना ॥
सहस दसह जोजन लमनायो । बिस्तारित चहुँ पास पुरायो ॥
भारत वर्ष के अन्त्यस्थान पर स्थित जगद्विख्यात हेमकूट पर्वत पर आगमित हुवा | इसका विस्तार सहस्त्र दश योजन लम्बाई तक यह चारों दिशाओं में विस्तृत है |
धातु जुगत सिखि श्रृंग सुसोभा । रजत संग सुबरन मन लोभा ॥
तलहट एकु उद्यान बिसाला । जाके तीर तीर तरुमाला ॥
रजत व् स्वर्ण धातु से युक्त श्रृंग से सुशोभित वह मन को लुभाता प्रतीत होता हैं | इसकी तलहटी में एक विशाल उद्यान है जिसके तटवर्ती क्षेत्र वृक्षों की शृंखला शोभायमान है
रचे धरा जिमि सिरु कल केसा । मार्जक जस तहँ बाजि प्रबेसा ॥
सुनहु महमन तहाँ ता संगा । भए एकु अचरज कारि प्रसंगा ॥
इस पर्वत श्रेणी के रूप में मानो धरती ने अपने शीश पर सुन्दर केश रचना करती प्रतीत हो रही थी | केशमाराजक का स्वरूप धारण कर वह अश्व जैसे ही वहां प्रविष्ट हुवा महमना ! सुनो ! उसके साथ एक विस्मयकारी घटना घटित हुई |
ताहि कहउँ मैं तोहि सुधीरा । अकस्मात पुनि तासु सरीरा ॥
टारे न टरे भए जड़ताई । केहि भाँति नहि चलिहि चलाईं ॥
हे सुधीर ! उसे में आपसे कहता हूँ | फिर अकस्मात उसका शरीर जड़ हो गया विचलित करने पर भी अविचल ही रहा और परिचालन करने पर भी वह किसी भी प्रकार से परिचालित नहीं हुवा |
ठाढ़ि तहाँ अविचल तुरग प्रतीति नग संकास ।
पुकार करतब राखिता गै पुनि सत्रुहन पास ॥
जड़ता प्राप्त वह निश्चल अश्व हेमकूट पर्वत की ही भांति प्रतीत होने लगा | अश्व के रक्षक पुकार करते फिर शत्रुध्न के पास गए |
जाइ सब बृत्तांत सुनाईं । नहि जानत हम कस गोसाईं ॥
भयउ तासु जड़तम सब अंगा । बिचरत गए अह जहाँ तुरंगा ॥
वहां जाकर उन्होंने अश्व की निश्चलता का सम्पूर्ण वृतांत का वर्णन कर कहा स्वामी ! यह कैसे हुवा हमें ज्ञात नहीं, वह अश्व विचरण करते जहाँ गया आह! वहां उसके समस्त अंग स्तब्ध हो गए |
ताहि बिचारत किछु बन परि जौ । जो करि उचित जान सो कीजो ॥
सत्रुहन पल्किन पट बिस्तारै । भए चौपट दुहु नयन दुवारे ॥
उसका विचार करते हुवे जो युक्ति युक्तिगत हो और जिसे करना उचित हो आप फिर वही कीजिए | (यह श्रवण कर ) शत्रुध्न के पलक-पट विस्तृत किए तो उनके दोनों नेत्र द्वार उद्धट्टित हो गए
लिए सहुँ सकल सुभट मुनिराए । तुरतै तासु निकट चली आए ॥
सरभस चरत फिरिहि सब देसा । होहि दसा अस रहि न अँदेसा ॥
मुनिराज फिर वह अपने समस्त उत्तम योद्धाओं को संग लिए तत्काल उस अश्व के निकट गए | जिस अश्व ने ग्रास चरते समस्त देशों में प्रसन्नतापूर्वक विचरण करता रहा उसकी यह दशा होगी ऐसा अंदेशा नहीं था |
गहे चरन पुष्कल निज बाही । किए जुगत उपरे न उपराही ॥
टारे जब नहि टरे तुरंगा । पूछिहि सत्रुहन सुमतिहि संगा ॥
पुष्कल ने अपनी भुजाओं से उसके चरण ग्रहण कर उसे उठाने का प्रयत्न किया किन्तु वह टस से मस न हुवा | तब शत्रुध्न ने सुमति से प्रश्न किया : --
होइँहि अस काह कि गहिहि सकल देहि जड़ताए ।
अजहुँ इहाँ मंत्रि बर करि चाहिअ कवन उपाए ॥
'मंत्रिवर !ऐसा क्या हुवा कि इसकी समस्त देह अविचल हो गई अब इस स्थित में क्या करना उचित होगा ?
बुधवार, ३० दिसंबर, २०१५
जेहि सों चालक बल बहुराए । महोदय करिहउ सोइ उपाए ॥
गतिहि कोउ मत मतिगति तोरे । कहे मंत्रि एहि नहि बस मोरे ॥
जिस युक्ति से इसका परिचालन बल यथास्थित हो महोदय अब वही उपाय कीजिए | आपकी विचारसरणी में कोई विचरण प्रसारित हो आप उसे कहें अब यह स्थति मेरे वश की नहीं है |
जानिहुँ मैं प्रभु आँखन देखी । तासों अतीत मोहि न लेखी ॥
दरस बिषय होइहिं जग जोहीं । ताहि माहि मोरे गति होंही ॥
सुमति ने कहा : -' प्रभु! प्रत्यक्ष घटनाक्रम ही मुझे संज्ञात है इससे परोक्ष मुझे कुछ ज्ञात नहीं है इस लोक के प्रत्यक्ष दर्शी विषयों में ही मेरी गति है |
हेर फिरत अब सब बन डेरे । चाहिए करि अस रिषि मुनि हेरे ॥
जो एहि जानन महुँ कुसलाता । भई इहाँ अस कस एहि बाता ॥
अब हमें वन आश्रमों में ऐसे ऋषि मुनियों की टोह करनी चाहिए जो यह संज्ञान करने में कुशल हो कि यहाँ ऐसी घटना कैसे हुई |
सत्रुहन पुनि निज अनुचर ताईं । कुसल रिषि मुनि करिअ हेराईं ॥
एक अनुचर प्राचिहि दिक् पठाए । चरत सो जोजन भर चलि आए ॥
फिर शत्रुध्न ने अपने अनुचरों द्वारा उन कुशल ऋषि मुनियों का शोधन कराया | एक अनुचर को पूर्व दिशा की ओर भेजा वह जब योजन भर की दूरी तक चला आया |
चलिअ बदन हरखनि पवन बिषाद घन बिथुराइ ।
तहाँ ते एकु अति सुंदर आश्रमु दिए देखाइ ॥
एक स्थान पर मुखमण्डल को हर्षाति पवन ने विषाद के मेघों को छिन्न-भिन्न कर दिया वहां उसे एक अति सुन्दर आश्रम दर्शित हुवा |
मानुस सन पसु पाँखि जहाँ के । बिचरहि बैर भाव बिसरा के ॥
कारन सबहिं गंगा अस्नाए । तासु सकल अघ गयउ दूराए ॥
जहाँ के मनुष्य, पशु-पक्षी सभी वैर विस्मृत कर संग-संग विचरण कर रहे थे | गंगाजी में स्नान के कारण उन सभी के पाप नष्ट हो गए थे |
होइहि रुचिर रहस चहुँ फेरे । रहि आश्रमु शौनक मुनि केरे ॥
लिए रनी एहि बात के हेरा । चरन फेर आइहिं निज डेरा ॥
वहां चारों ओर का वातावरण रहस्यमय किन्तु रोचक था वह सुन्दर आश्रम शौनक मुनि का है इस बात को शोधकर वह योद्धा अपने विश्रामस्थल में लौट आया |
भइ अतिसय बिसमय कर बानी । समाचार जब कहत बखानी ॥
अनुचर जैसेउ निगदन कहीँ । हरखिहि सत्रुहन बहु मन मनही ॥
यह वृत्तांत कथन करते उसकी वाणी अतिसय विस्मृत हो गई | अनुचर ने जैसे ही अपनी वार्ता समाप्त की शत्रुध्न मन ही मन अत्यंत हर्षित हुवे |
हनुमन पुष्कलादि लिए संगा । आए मुनिहि पहि तूल तुरंगा ॥
गहे चरन सुमिरत श्री रामा । भयउ दंडबत करिहि प्रनामा ॥
हनुमंत व् पुष्कलादि योद्धाओं को संग लिए वह मन की गति के समतुल गति से मुनि के पास आए | और भगवान श्रीराम का स्मरण करते हुवे चरण ग्रहण करके उन्हें दंडवत प्रणाम किया |
बलबन में महा बलबन सत्रुहन आवब जान ।
सौनक किए स्वागत पाद्यार्ध प्रदान ॥
बलियों में महाबली शत्रुध्न का आगमन हुवा संज्ञानकर शौनक मुनि ने पदयार्द्ध आदि से उनका स्वागत किया |
बृहस्पतिवार, ३१ दिसंबर, २०१५
भेंट सपेम दीन्हि सुआसन । बैठे सब सुनि मुनि अनुसासन ॥
किए बिश्राम जब श्रम बहुराई । सकुचत मुनिबर पूछ बुझाईं ॥
प्रीतिसहित मिलाप करते मुनि ने उन्हें सुन्दर आसन प्रदान किया फिर आज्ञा प्राप्त कर शत्रुध्न आसान में विराजित हो गए | विश्रामादि के पश्चात जब शिथिलता दूर हो गई तब मुनिवर ने संकुचित होते हुवे प्रश्न किया |
काँकरि पथ बन भूमि पहारा । करि केहरि सहुँ सरित अपारा ॥
काल ब्याल कुरंग बिहंगा । चतुरंगिनी कटकु लिए संगा ॥
यह पथरीले पंथ , यह वनभूमि ये पहाड़ हाथी सिंह आदि सहित ये अपार सरिताएं ये काल के समरूप हिंसक पशु और ये दुष्ट पक्षी | राजन !तुम चतुरंगिणी सेना को साथ लिए -
घन ते घन बन गोचर जैसे । मारग अगम फिरिहु कहु कैसे ॥
धूरि भरे पग करिहि बखाना । लमाए पंथ दूर है जाना ॥
घन से भी अति घने विपिन के इस दुर्गम मार्ग में वनचरों के समान किस हेतु भ्रमण कर रहे हो | धूलिका से भरे तुम्हारे ये चरण प्रलंबित पंथ की दूरगामी यात्रा का संकेत कर रहे हैं |
सुनि सत्रुहन मुनिबर कर बाता । हरष तेउ पुलकित भै गाता ॥
हिलगिहि तसं पुनि जुग पानी । ए निगदत भई गदगद बानी ॥
मुनिवर की वार्ता श्रवण कर हर्ष से उनकी देह पुलकित हो उठी, अपना परिचय देते हुवे फिर वह गदगद वाणी से बोले : --
मुनिबर एकु नीक निकुंज कली कुसुम बिकसाए ।
घुर्मित मोर तुरग तहाँ, अकस्मात् चलि आए ॥
'मुनिवर !कुसुम कलियों को विकसित किए यहाँ एक सुन्दर निकुंज है परिभ्र्रमण करात हुवे मेरा अश्व अकस्मात् वहां चला आया |
शनिवार २ जनवरी, २०१६
प्रबसित तहँ एकु उपबन तीरा । भयउ तासु जड़वंत सरीरा ॥
हमरे मन अतिसय दुःख पाईं ।सूझे नहि पुनि कोउ उपाई ॥
वहां प्रविष्ट होकर एक उपवन के तीर पर उसका शरीर शुन्य हो गया हमारा मन अत्यंत दुखित हो गया | हमें उसे जड़ता से मुक्त करने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था |
देखि गात स्तम्भित तुरंगे | भए सब दीन तासु दुःख संगे ।
हमरे जस बड़ भागि न कोई । दैवात तोर दरसन होईं ॥
तुरंग का शरीर स्तंभित देख, उसके दुःख के साथ सभी दुखित हो गए | मुने! हमारे जैसा कोई सौभग्यमान नहीं है जो दैवात ही आपके दर्शन हो गए |
आरत अरनव मन अवगाहीं । तरिता बनु तुम कीजौ पाहीं ॥
दहे ह्रदय सोच करि दाहा । तासु दसा कहु कारन काहा ॥
मन दुःख के समुद्र में अवगाहित हो रहा है आप नौका बनकर हमारी रक्षा कीजिए | तुरग की चिंता दहन से हमारा ह्रदय दह रहा है उसकी इस अवस्था का कारण क्या है ?
यहु संकट मोचित जस होहीं । कहउ सो बिधि कृपाकर मोही ॥
सत्रुहन पारिहि पूछि बिहाना । तब शौनक मुनिबर बिद्बाना ॥
यह संकट जैसे उन्मोचित होगा कृपाकर हमें उस विधि का बोध कराइये | शत्रुध्न के इस प्रकार प्रश्न करने पर फिर विद्वान शौनक मुनि ने |
दृग द्वारि पट ढार के, छिनुभर् धरे ध्यान ।
तनिक बेर लयलीन रह सकल रहस लिए जान ॥
दृष्टिद्वार को पटाक्षेप कर क्षणभर के लिए ध्यानमग्न हो गए | किंचित समय तक लयलीन रहने के पश्चात उन्हें उक्त अश्व की ऐसी अवस्था का सम्पूर्ण रहस्य ज्ञात हो गया |
प्रफुरित होत चकित भए नैना । पुनि सत्रुहन सन बोलिहि बैना ॥
बैसि संसइत सरि के तीरा । सत्रुहन श्रवन होए गम्भीर ॥
उनके नेत्र विस्मय से प्रफुल्लित हो गए फिर वह शत्रुध्न से अश्व के गातस्तम्भ का कारण कहने लगे |सरिता के तट पर विराजित संशयित शत्रुध्न उसे श्रवण करने के लिए गंभीर हो गए |
भयउ तुरग कस गात स्तम्भा । कारन किए मुनि कहन अरंभा ॥
अहहीं गौड़ नाउ एक देसा । जहँ एकु बहु रमनीक प्रदेसा ॥
उस अश्व का शरीर स्तंभित कैसे हुवा ऊनि ने इसका कारण कहना प्रारम्भ किया : -- ' गौड़ नामक एक देश है जहाँ एक अत्यंत रमणीक प्रदेश है,
सातिक नामि द्विज तहँ बासिहिं । जसु तेज चहुँ पास प्रकासिहिं ॥
करिहीं तप कावेरी कूला । छन पल पहर रयन दिन भूला ॥
वहां सात्विक नामक एक ब्राह्मण निवास करते थे जिनके तेज से चारों दिशाएं प्रकाशित रहती थीं, वह कावेरी नदी के तट पर तपस्यारत थे | क्षण, पल, पहर, रयन, दिवस का उन्हें अनुमान ही नहीं था |
एक दिन पयस दुज पवन पयाएँ । तीजे दिन सो कछुहू न पाए ॥
चलिहिं नेम ब्रत तप एहि भाँती । ऐसेउ बिरत रहि दिन राती ॥
वह एक दिन जल पान कर तो दूसरे दिन वायु पान करते, तीसरे दिवस वह निराहार ही रहते | उनका नियम व्रत व तप इसी भांति संचालित था उनके अहिर्निश इसी प्रकार से ही व्यतीत हो रहे थे
सर्ब नासी काल तबहिं, गहे दंड कर पास ।
तपन चरन रत द्विजन्हि गयउ संग लए फाँस ॥
कि तभी सबका नाश करने वाला काल, तपस्यारत द्विज को दण्डपाश में फाँस कर अपने साथ ले गए गया |
सोमवार, ४ जनवरी, २०१६
पहिरत रतन अभूषन नाना । सातिक नामि सो बिप्र बिहाना ॥
सोहामान बिमान चढ़ेऊ । मेरु गिरि सिखर गा उतरेऊ ॥
तत्पश्चात सात्विक नामक वह ब्राह्मण रत्नाभूषण अभरण किए एक शोभायमान विमान पर आरूढ़ हुवा और वहां से गमन कर वह मेरु गिरी के शिकार पर उतरा |
जम्बालिनि तहँ बहि चलि आई । बसिहि तासु तट रिषि मुनिराई ॥
तपन चरन रत मगन ध्याना । रयन रयन दिनु दिनु बिनु जाना ॥
वहां जम्बालिका नामक नदी प्रवाहित होती थी जिसके तट पर ऋषिमुनियों का समुदाय निवास करता था | रात्रि को रात्रि व् दिवस को दिवस भान किए बिना वह ध्यानमग्न होकर निरंतर तपस्या में अनुरक्त रहते |
सोए द्विज कीन्हि तहँ बासा । रहिहि अनंदित करिहि निबासा ॥
पुनि मनगत अभिलाषा जागे । सुर कामिनि सों बिहरन लागे ॥
उसे अपने वास स्थल में परिणित कर वह द्विज भी वहां आनंद पूर्वक निवास करने लगा | फिर मन की गोपित अभिलाषाएं जागृत हो गई वह स्वर्ग अप्सराओं के संग विहार करने लगा |
कामोन्मत्त मन अस रंगा । बसिहि तहाँ रिसि महरिसि संगा॥
किए बर्ताउ न जाइ बखाना । भरे घमन कीन्हि अपमाना ॥
कामोन्मत्त होकर उसका मन ऐसा आसक्त हुवा कि वहां निवासित ऋषि मुनियों के साथ उसके द्वारा किया गया व्यवहार अनिर्वचनीय हो गया वह अहंकार से पूरित होकर उन्हें अपमानित करने लगा |
तासु उद्दंड अजहुँ त बढ़े अधिकाधिकाइ ।
रिषि मुनि हेतु सो ब्रम्हन, भयऊ अति दुःख दाइ ॥
अब उसकी उद्दंडता अधिकाधिक बढ़ने लगी, ऋषिमुनियों के लिए वह ब्राह्मण अत्यंत दुःखदायी हो गया |
मंगलवार, ०५ जनवरी, २०१६
दुखित रिषिहि मन कोपु ब्यापा । रिसत बिप्रन्हि दीन्हि श्रापा ॥
काढ़ि बचन मुख पुनि खिसियाईं । होहु कपटी निसाचरु जाई ॥
दुखान्वित ऋषि मुनियों के मन में कोप व्याप्त हो गया रुष्ट होकर अंतत: उन्होंने ब्राह्मण को श्राप दे दिया | उनके मुख से ये खीझ कर ये वचन निष्काषित किए : -- 'जा तू कपटी निशाचर हो जा,
तुम्हरे बदन गहे बिकारा । केहु भाँति नहिं जाइ सँवारा ॥
सुनिहि श्राप मिटिहि अभिमाना । बिप्रन्हि मन बहुतहि दुःख माना ॥
तुम्हारा मुखमण्डल विकार ग्रहण कर ले जो किसी भांति साकारित न हो सके | यह श्राप श्रवण कर ब्राह्मण का अभिमान विलुप्त हो गया और उसका मन संतापित हो उठा |
जल बिनु बिकल मीन के नाईं । बोले सभीत सीस झुकाईं ।
सयान सुजान दीनदयाला । श्राप अनुगह करिहु कृपाला ॥
वह जल विहीन व्याकुल मीन के सदृश्य हो गए और भयाकुल होते हुवे शीश अवनत कर बोले | ब्रह्मऋषियों ! आप सब अनुभवप्राप्त सुबुद्ध व् दीनों पर दया करने वाले हैं हे करपालु मुनियों! इस श्राप हेतु मुझपर अनुग्रह करें |
मैं लघुबर बड़ मम अपराधा । अपकारत तुम्हहि मैं बाधा ॥
अनुग्रह करि तब रिषिहि सयाने । मधुर रूप एहि बचन बखाने ॥
में अंश मात्र हूँ मेरा अपराध नृशंस है बाधक होकर मैने आपका अहित किया | तब उन प्रबुद्ध ऋषियों ने ब्राह्मण पर अनुग्रह करते हुवे ये मधुर वचन उद्भाषित किए : -
रघुबर कर तजि तुरग इहँ अइहीं कालहि पाएँ ।
होइहहु तब साप मुकुत करत ए कछुक उपाएँ ॥
अवसर को प्राप्त होकर यहाँ रघुवीर का त्यक्त अश्व का आगमन होगा, तब तुम ये कतिपय उपाय करके श्रापमुक्त हो जाओगे |
बृहस्पति /शुक्र , ०७/ ०८ जनवरी , २०१६
तेहि औसर त्याजित तुरंगा । करिहु थंभ निज बेगि प्रसंगा ॥
सुमधुर राम कथा तब होंही ।मिलिहीँ श्रवन सुअवसर तोहीं ॥
उस समय तुम उस त्याजित अश्व को अपने वेग से स्तंभित कर दोगे तब सुमधुर रामकथा होगी और तुम्हें उसके श्रवण का सुअवसर प्राप्त होगा |
गहे सीस भयंकर श्रापा । होइहि तब तासों उदयापा ॥
अस्व गात थंभित जस होईं । करिहि श्रापित राकस सोई ॥
तब उससे शीर्षारूढ़ इस भयंकर श्राप का उद्यापन हो जाएगा | अश्व का जिस प्रकार गात्र-स्तम्भ हुवा वह उस श्रापित राक्षस का ही किया-धरा है |
रिषिहि कहि हरि कीर्तन ताईं । करिहौ राम कथा सुखदाई ॥
लागिहि श्राप कटिहि समूला । होइहिं सकल दसा अनुकूला ॥
ऋषियों के कथानुसार अब तुम हरिकीर्तन करते हुवे सुखदायिनी रामकथा का आयोजन करो जिससे उक्त निशाचर पर लगा श्राप समूलोन्मोचित हो जाए |
रिपुदल बीर दमन करतारी । भए सत्रुहन मन अचरजु भारी ॥
कर्म गति अति गूढ़ गम्भीरा । कहि हरिअर पुनि रन धीरा ॥
मुनि का कथन सुनकर शत्रुडक के गंजनों का दमन करने करने वाले शत्रुध्न के मन में अतिसय विस्मय हुवा | कर्म की गति अति गूढ़ व् गंभीर है
सातिक नाउ धर ब्रम्हन कर्म संग मुनिराए ।
अमरावती पैठत पुनि लहिहि राकस सुभाए ॥
मुनीश्वर! सात्त्विक नामक वह ब्राह्मण के कर्म से अमरावती पहुँच कर भी राक्षस स्वभाव को ग्रहण किए रहा |
कर्मानुसार गति जस होंही । तेहि बरनत कहउ मुनि मोही ॥
जेहि करम जस जमपुर लाही । कहिअ बुझाइ मोहि जन ताही ॥
कर्मानुसार जैसी गति होती है, मुझसे वह वर्णन कहिए | जिन कर्मों से यमपुर प्राप्त होता है उसे प्रवचनपूर्वक कहते हुवे आप मेरा प्रबोधन कीजिए |'
बोले मुनि हे हंसकबंसा । धन्य तुम्ह रघुकुल अवतंसा ॥
तव बुधि सदा बचन अस बूझिहि । तासु अबर अरु कछु नहि सूझिहि ॥
तब मुनि बोले : - हे हंसवंशी ! हे रघुकुल श्रेष्ठ ! तुम धन्य हो | तुम्हारी बुद्धि सदैव इस प्रकार के ज्ञानमयी प्रश्न करती है इससे अन्यथा उसका कहीं ध्यान नहीं होता |
चाहहु सुनै कर्म गति गूढ़ा । कीन्हिहु प्रस्न मनहु अति मूढ़ा ॥
तुम्हहि बिषय बिदित सब होईं । अहहि ताहि संदेहू न कोई ॥
तुम कर्म की गूढ़ गति के श्रवण हेतु अभिलाषित हो और मुझसे अबोध स्वरूप प्रश्न कर रहे हो जबकि तुम्हें यह विषय संविदित (पूर्णतया ज्ञात ) है |
तथापि हित हुँत पूछ बुझाहू । मुनिबर मुनि पुनि पुनि सुनि चाहू ॥
कर्म लेख धरि बिचित्र सरूपा । तेहि के गतिहि गहि बहु रूपा ॥
तथापि जनहित हेतु तुम मुझसे प्रश्न कर रहे हो और मुनियों के मुखों से उसे पून:पून: श्रवण करने को आकांक्षित हो |
तात सुनिहु सादर मन लाईं । सुनिही सो भव मोचन पाईं ॥
हे तात ! अब ध्यानस्थ होकर उसे आदरपूर्वक सुनो क्योंकि जो इस विषय को ध्यानपूर्वक श्रवण करता है वह भवबंधन से उन्मोचित हो जाता है |
जो सठ अपकारी परधन पर नारी उपर कुडीठ धरे ।
भोग बुद्धि कर पुनि बरियाई तापर अधिकार करे ॥
तासु बाँधि महाबली जम कर दूत धरी ले जइहीं ।
काल रसी तिन करषत कसी तामसी नरक गिरइहीं ॥
जो दुष्ट बुद्धिवाला पुरुष परस्त्री, परधन-सम्पति पर कुदृष्टि करते हुवे जगत का अहित करता है और भोगबुद्धि के आशय से उसपर बलपूर्वक अधिकार स्थापित करता है | उसे यमराज के महाबली दूत बंधक बनाकर यमपुरी ले जाते हैं वहां उसे काल-पाश से कसकर फिर खैंचते हुवे तामिस्त्र नामक नरक में निपतित करते हैं |
जातुहु तब लगि राखिहि जब लगि सहस बरस नहि पुरने ।
गहि कर दंड जमदूत प्रचंड पापकन्हि हनिहि घने ॥
पाप भोग तैं एहि बिधि भल भाँति भोगत सो जातना ।
बाराहु जोनि जनमत पल पल लहे पुनि दुःख दारुना ॥
और वहां तबतक तक रखते हैं जबतक एक सहस्त्र वर्ष पूर्ण हों | यमराज के प्रचंड दंडधारी दूत वहां उस पापी को घोर आघात करते हैं | इस प्रकार अपने पापों के भुक्तान स्वरूप वह उस नर्क के यातनाओं को भोगकर वह शूकर की योनि में जन्म लेता है और वहां क्षण-क्षण भयंकर कष्टों को प्राप्त होता है |
पाए बहुरि मानस जोनिहि क्रमबत सोई पाप करे ।
पुरबल जनम केर कलंक संसूचित चिन्हार धरे ॥
जो निज भरिमा भरिमन हुँत करें द्वेष पर प्रानिन्हि से ।
पापभिरत सो पापक निपतत अँध तामसि नरक बसे ॥
अंत में वह मनुष्य योनि को प्राप्त होकर क्रमश: उन्हीं पापों में संलिप्त रहता है | पूर्वजन्म के कलंक को संसूचित करने वाले चिन्हों को धारण किए रहता है | जो अपने कुटुंब के पालनपोषण हेतु अन्यान्य प्राणियों से द्रोह करता है पापाभिरत वह पापी निपतित होकर अन्धतामिस्त्र नामक नरक में वास करता है
जौ परहंता हतिरंता सो रौरव गिरएँ जाइहीं ।
तहँ कोपत रुरु पंखि छिति छत तेहि के देहि खाइहीं ॥
निज तात द्रोहि ब्रम्हन बिद्रोहि काल सूत नरक परे ।
लमनत जोइ सहस दस जोजन खेतायत लग पसरे ॥
जो दूसरे प्राणियों की हत्या व् उन्हें हताहत करने में संलिप्त रहते हैं वह रौरव नामक नरक में निपतित होते हैं वहां रुरु नाम का पक्षी रोष से आपूरित होकर उनके शरीर को परिछिन्न करते हैं | जो अपने मातापिता और ब्राह्मणों के द्रोही हैं उन्हें कालसूत्र नामक नरक निपातित किया जाता है इस नरक का विस्तार दस सहस्त्र योजन के विशाल क्षेत्र में विस्तारित है |
चतुस्तनी बिद्रोही कर देइ दंड आघात ।
पचइहीं ताहि जमराज किंकर नरक निपात ॥
जो गौंओं से विद्रोह करता है उसे यमराज दंड का आघात देते हुवे किंकर नामक नरक में निपातित कर पकाते हैं |
शनिवार, ०९ जनवरी, २०१५
गौ तन रोम बरस गिनि जोरे । पचिहिं तहँ सो समउ न थोरे ॥
जोग पुरुख बिनु जो नर नाहू । देइ दंड अन्यानय काहू ॥
वह भी अल्प काल तक नहीं अपितु वहां उसे गौओं की देह के रोम को गिनकर उतने वर्षों तक पकाया जाता है | जो किसी योग्यता रहित पुरुष को अन्यायपूर्वक दंड देता है |
लोभ बिबस बिप्रन्हि दुःख दाइहिं । सोए नरक सो बहु दुःख पाइहिं ॥
तहाँ दूत सठ बदन बराहू । देइ ताहि तस दारुन दाहू ॥
और लोभ के वशीभूत किसी विप्र को कष्ट देता है वह भी उसी नरक में कष्ट भुक्तते हैं वहां वराह मुख के समदृश्य दुष्ट यमदूत उसे वैसी ही असहनीय पीड़ा देते हैं |
सेष पाप तब कस निबरा हीं । खल जोनिहि जब जनमत जाहीं ॥
कहत जति पुनि करम गति आगे । सत्रुहन चेत धरत सुनि लागे ॥
उसके शेष पातकों से तब फिर कैसे निवृत्त होते हैं जब वह निकृष्ट योनियों में जन्म लेकर उसके सुख-दुःख को सहते हैं | सचेत स्वरूप में श्रवण करते शत्रुध्न से कर्म गति का सतत व्याख्यान करते मुनिश्री आगे कहते हैं : -
मोह बिबस बिप्रन्हि गउ केरे । जीवन हेतु द्रब्य कर हेरे ॥
पठाइ जब परलोक बिधाता । अँधकूप नरक गिराइब जाता ॥
'जो मोह के विवश ब्राह्मणों एवं गौओं के जीविका, द्रव्य अथवा धन का हरण करने वालों को विधाता जब परलोक भेजते हैं तब वहां उन्हें अंधकूप नामक नर्क में गिराया जाता है ||
जो को आपनि लौलुपताईं । जीहातुर मधुरान्न पाईं ॥
न त देवन्हि न सुहृदय देहीं। गिरएँ जाइ कृमि भोजन तेहीं ॥
जो कोई अपनी लौलुपता से जिह्वा हेतु आतुर होकर स्वयं ही मिष्ठान्न पाता है देवताओं तथा सुहृदयों को नहीं देता वह निश्चय ही कृमिभोजन नामक नरक निपातित किया जाता है |
सुबरन कर अपहरन करि बिप्रन्हि धन अप हारि ।
संदंस नरक पतत सो भुगतिहि दुःख अति भारि ॥
जो मनुष्य स्वर्णादि का अपहरण अथवा ब्राह्मणों के धन की चोरी करता है , वह संदंश नामक नर्क में निपतित होकर वहां के असहनीय दुखों को भुक्तता है |
मंगलवार, १२ जंनवरी, २०१६
उदरपरायन जो मति मूढ़ा । भरत पुरत निज तन भए बूढ़ा ॥
अबरु आप तें जनहि न आनै । लेइ जान जग देइ न जानै ॥
जो उदरपरायण होकर केवल अपने शरीर के पोषण में ही अनुरक्त रहता है और स्वयं से अन्यथा किसी से सम्बन्ध नहीं रखते हुवे केवल लेना जानता हो देना नहीं, ऐसा मूढ़बुद्धि मनुष्य
तप्तक तापित तैल पुरावा । कुम्भी पाक गिरइँ सो जावा ॥
पामर पुरुख भोगमति संगा । चाहिँ गमन अगम्या प्रसंगा ॥
आतप्त तैल से परिपूर्ण कड़ाई के समदृश्य अत्यंत भयंकर कुम्भीपाक में जा गिरता है | नीमविचारधारा वाले पुरुष अपनी भोगबुद्धि के मोहवश अगम्य स्त्री के साथ प्रसंग करते हैं -
लोहित मूरति दूत तपइहीं । तासंगत अँकबार करइहीं ॥
जो मद उन्मत निज बल ताईं । लंघिहि बेद सेतु बरियाईं ॥
उसे यमदूत उसी स्त्री की तापित लौहमई प्रतिमा के संग आलिंगन करवाते हैं | जो अपने बल से मदोन्मत्त होकर वेदों की मर्यादा का बलपूर्वक उल्लंघन करते हैं,
पयसत रकत अमिष सो खाहीं । बैतरनी अरनी अवगाहीं ॥
छूद्र गेहिनि द्विज भए गेही । पुयोद नरकु निपातत तेहीं ॥
मृत्यु पश्चात वह वैतरणी नदी में अवगाहित होकर मांस व् रक्त भोजन करते हैं | द्विज होते हुवे जो क्षुद्र की गृहिणी को अपनी भार्या बनाकर जीवन यापन करता है वह पयोद नामक नरक में निपातित होता है |
दँतुला दूत अस पेरिहि जस पेरन पेराइँ ।
तहाँ केर निबासित काल होतबहुँत दुःख दाइ ॥
वह विकराल दंष्ट्रा दूत उसे ऐसे पेरते हैं जैसे जैसे पेरन पेराता हैं वहां का निवासित काल अत्यंत ही दुखदायी होता है |
शुक्रवार, १५ जनवरी, २०१६
जो धूत कृत कुचाल कुसाजा । लोगन्हि सोंहि करिहि ब्याजा ॥
दंभि खल दल दर्प कल ताईं । बैसस नरकहि जाइ गिराई ॥
जो धूर्तकृत ,कुचालि, कपटवेशी लोगों से छलपूरित व्यवहार करते हुवे दुष्टों के दल काप्रसंग कर दम्भ अहंकारपुरित वचनों का आश्रय लेते हैं वह वैशस नामक नर्क में गिरते हैं |
सबरनी जोनि बीर त्याजिहि । अस पामर सहुँ लाजहु लाजिहि ॥
बीरहि कुण्ड सो जाए गिराए । पयसन छाँड़ि तिन बीर पियाएँ ॥
जो समानगोत्र वाली स्त्री जननेंद्रिय में वीर्यपात करते हैं ऐसे मूढ़ के सम्मुख स्वयं लज्जा भी लज्जित होती है और उसे वीर्य कुंड में गिराया जाता है जहाँ उसे जल की अपेक्षा वीर्यपान करके ही नर्क भोगना पड़ता है |
जो खल जल जल लाग लगावैं । देइ गरल धन द्रव्य चुरावैं ॥
महपापक अपहारिहि गाँवा । सारमयादन सो गिरि आवा ॥
जो दुष्ट ईर्ष्यावश आग लगाते है जो विष देनेवाले हैं जो दूसरों के द्रव्य का अपहरण करते हैं और गावों को लूटने वाले हैं वह महापातकी जीव 'सारमेयादन'नामक में गिराए जाते हैं |
करिहि संचय पाप कर रासी । बोले असाँच बहुंत सुपासी ॥
देइ अधमी असाँची साखिहि । अबीचि नरक जम तिन्ह राखिहि ॥
जो पाप की राशि का संचय करते हैं और विश्रामपूर्वक असत्यभाषण करते हैं, जो असत्य के साक्षी होते हैं उन्हें यमराज अवीचि नामक नरक में रखते हैं |
धरत केस करषन करत नीच सीस करि डारि ।
कललत कलपत तहाँगत भुगत दुखारत भारि ॥
उसके केश धारण कर उसे खैंचते हुवे उक्त नरक में पतित किया जाता है वहां वह जीव जलनयुक्त पीड़ा से त्रस्त होकर विलाप करते हुवे भारी दुःख व् कष्टों को सहता है |
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