शुक्रवार ०२ मई २०१४
बिलपहि कारति करून रुराई । को तुम अरु कहूँ कहँ सो आई ॥
मृदुल मुखी हे राजसि भेसा । काल भयंकर बिपिन कलेसा ॥
विलाप करती हुई ऐसे करुणामयी रोदन करती हुई हे मृदल मिखि हे राजसी वेशा तुम कौन हो ? और कहाँ से आई हो ? यह भयानक , विपिन कष्टप्रद है : -
अगम पंथ बन भूमि पहारी । करि केहरी निसिचर बिहारी ॥
सिया लयलीन गान तरंगे । मुनि धुनी तेहि तन्मय भंगे ॥
यह दुर्गम भूमि पहाड़ों एवं पंथ से युक्त है जहां हाथी सिंह निशाचर विचरण करते हैं ( अत: तुम यहाँ कैसे उपस्थित हो ) ।। माता सीता ( मन ही मन) प्रभु के चरित्र गान तरङ्ग ककी लय में लीन थी ॥ जैसे ही मुनिवर वाल्मिकी ध्वनित हुवे, उनकी तन्द्रा भङ्ग हो गई ॥
अलकावलि लक पलक उठाई । उद्बान घन घटा की नाई ॥
ह्रिता धिकारि हरिदै हारी । आनि करज मह जलज अम्बारी ॥
अलकों की अलियोंं से युक्त पलक को मस्तक पर इस भांति उठीं । उदन्वान गगन पर जेसे घनी घटाएँ ऊठ रही हों ॥ पत्नी के अधिकारों से वंचित थकी हार माता के पलको की मुक्ता प्रालंब उँगलियों में समा गई थी ॥
आरत मुख दरसि जेहि भाँती । बाकी बरनन कही नहि जाती ॥
देखि सो सिरोमनि आगन्तू । जटाजूट सिरु भूषण संतू ।।
वह व्यथित मुख जिस भाँती दर्शित हो रहा था । उसकी व्यंजना वर्णनातीत है ॥ जब उन्होंने शिरोभूषण स्वरुप जटा धारी आगंतुक सन्त शिरोमणि श्री वाल्मीकि को देखा ॥
दिब्य बसन मुख तन हरि नामी । उठै दुइ पानि जोर प्रनामी ॥
उनके मुख पर सूर्य का तेज था तन ने हरिनामी ओढी थी । वह तत्काल उठीं और दोनों हाथ जोड़े, उन्हें प्रणाम किया ॥
गिरे पलक जस घनागम, सार घोर घन छाए ।
तिपित तिलछित निलय धरां, बरसन हुँत अकुलाए ॥
उनके पलक फ़िर ऐसे झुके जेसे वषाऋतु में पुषप से युक्त होकर मेघ छा गए होँ ॥ और तप्त हृदय संतप्त धरा विदीर्ण हो गई हो और वह बरसने के लिए व्याकुल हो रहे हों ॥
शनिवार, ०३ मई, २ ० १ ४
देखि तुरत मुनि सिय परिचाई । पर मुनि सिया परचइ न पाईं ॥
मनन सील ग्यान के खानी । मह कबिराउ मुनिहि जग जानी ॥
जगतजननी मुनिवर वाल्मीकि से पूर्व-परिचित थीं अत: उन्होंने मुनिवर को देखते ही चिन्ह लिया । किन्तु मुनिवर शोक संतप्त होने के कारणवश जननीं को चिन्ह नही पाए ॥ विचारशील और ज्ञान के आगार स्वरुप महा कविराज मुनि वाल्मिकी जगत में प्रसिद्धथे ॥
निगमागम स्वयमइ सरूपा । करि नमन तिन्ह रूप अनूपा ॥
महामुनि पुनि धरे कर सीसा । दिए अभंग अहिबात असीसा ॥
निगमागम के वे स्वयं स्वरुप ही थे । ऐसे मुनिवर को सम्मुख पाकर अनुपम रूप वाली जननीं ने नमन किया । तब महामुने ने उनके शिष्य पर हाथ रख कर अखंड सुहाग क शुभआशीर्वाद प्रदान किया ॥
धुंधरी छवि जस लोचन आहीं । सोम ससि मुख चितबत लखाहीं ॥
बच्छल पूरित मुख बर बानी । कौन तुम पूछे महा ज्ञानी ॥
कुछ धुंधली सी छवि उनके श्रींलोचन मेन तैर रही थी । वह उस सौम्य शशि मुखिन को चिन्हित करने के प्रयास में देखे जा रहे थे । फिर मुख में वात्सल्य पूरित वाणी वरण कर महाज्ञानी ने प्रश्न किया : -- कौन हो तुम ?
मौन रहिहि त पूछे बहोरी । कवन राठु की रागी हो री ॥
सोचए धराधि कहुँ केहिं भॉंती । प्रभु पंकज मैं परिहरि पाँती ॥
जब माता मौन ही रहीं तब मुनिवर ने पुन: उपप्रश्न किया । क्या किसी राजा की रानी हो ? ॥ तब जगज्जननी सोच में पद गईं कि इन्हने मेन किस भॉंति कहूँ कि मैं पंकज स्वरुप अवध के राजाधिराज प्रभु श्रीरामचन्द्रजी से वियुक्त हुई एक पत्ती हूँ ॥
बसा उरस पुनि दसह दुआरी । लोचन धूम मलिन मुख धारी ॥
यह तपस्वनी, जिसका स्वरूप रानियों के प्रासाद का था , अब वह इस तपोभूमि की तपस्विनी हो गई थी ।। बरसों बरस वन में कष्ट की अग्नि में तिप्त कर देह को स्वर्ण किया , अब तुम पुन:तपस्या से क्षीण होकर उस स्वर्ण देहि को कुंदन किये हो ॥
बिनति करे रिसि देउ समूहा । छाए बिपिन घन मंगल सूहा ॥
जस अधजल घाघरी उछाही । नदि तरंग गति औरु गहाही ॥
फिर महर्षि ने माता के कल्याण हेतु देवगण के सम्मुख विनति की । इस विनती के परिणाम स्वरुप सघन विपिन में मंगल शोभा छा गई ॥ जैसे जल से आधी भरी घघरि छलकती है । वैसे ही नदी की तरंग कुछ और ही गति में उत्साहित हो चली ॥
महातिमह ग्रंथन रचनाकर । मनोजोग चिंतन रतनाकर ॥
अरथ उद्धरत बखत बिरताए । देखउत प्रसव काल नियराए ॥
महर्षि रत्नाकर( महर्षि वाल्मीकि का पूर्व का नाम) महातिम: ग्रन्थ की पूर्ण लगन से रचना करते हुवे वैचारिक चिंतन एवं अर्थ प्रयोजन उद्धृत करने में अनुरक्त रहते । देखते-देखते प्रसव का काल भी निकट हो आया॥
उदक अर्थ उद्कत उदगारा । धरी सरिताsअमृत जल धारा ।।
चंचल चपल चली बल खाते । कूल पूल कन कन खनकाते ॥
जल की आकांक्षा रखते हुवे उदगार स्थल से उत्साह पूर्वक सरिता जल की अमृत धारा, धारण किये बड़ी ही चंचलता एवं चपलता से युक्त होकर कठार पर जल के कण समूह को झंकृत कर बल खाती हुई प्रवाहित हो रही थी ॥
समऊ अति सुभ मंगल कारी । नवल जीउ जनमन अनुहारी ।।
सुर गन पैठए निज निज धामे । राम की जानि जनिमन जामे ॥
समय अत्यधिक शुभ एवं कल्याण कारी है । जो नव जीवन के उद्भव अनुकूल था दिवस अनुकूल था । देवताओं के समूह अपने-अपने लोक में जा पहुंचे थे । प्रभु श्रीरामजी की अर्द्धनिगिनी माता सीता जातक को जन्म दे रही हैं ॥
गर्भ धरा कर्निक कुटि ओटे । जनमन भए दौ जुगलित ठोटे ॥
संकुल सुर कर कौसुम साजे । गावत गुन गन गगन बिराजे ॥
गर्भवती, कर्णिक अर्थात पत्ते और शाखाओं की कुटिया के ओट में है । और दो युगल पुत्र जन्म ले रहे हैं। देव समूहों के हाथ में पुष्प सुसज्जित हैं । और वे श्री राम चन्द्र के गुणों की स्तुति करते हुवे गगन में विराजमान हैं ॥
ताप सीत घाम न ताम, भइ दिसि मंगलकारि ।
फुरित नयन कुसुमित परन बहि जब त्रिबिध बयारि ॥
न बहुंत उष्णता थी न ही बहुंत शीतलता थी न अत्यधिक धूप थी न अत्यधिक छाया जनित अंधेरा । सभी दिशाएं कल्याण कारी हो गई थी । पल्लव्, कुसुम से युक्त होकर प्रसन्नचित थे । जब शीतल मद्धिम सुगन्धित वायु प्रवाहित होने लगी थी और तभी
दुइ पद दुइ भुज वदन एक, जन्मे जुगल जुहान ॥
लतिक बल द्रुम दल आलय, तमस तटिनी मुहान ॥
दो पाद दो हस्त युक्त एक मुख लिए, लताओं से वलयित वृक्षसमूह वन में तामस नदी के कगार पर युगल जातक का एक साथ जन्म हुवा ॥
शनि, २२ जून, २ ० १ ३/ रविवार, ११ मई, २ ० १ ४
एक ही मात गरभ परकोटे । जन्मे दोइ तनय एक जोटै ॥
बरे जोइ दहु काय कलेबर । आपने तात भाँति मनोहर ॥
माता की एक ही गर्भ-परिधि में एक साथ दो पुत्रों क जन्म हुवा । दोनों ने जिस भाँती की कायाकृति वरण की हुई थी । वह उनके पिताश्री के जैसी ही मनोहारी थी ॥
सुने कानन दुहु सिसु हँकारा । प्रगसे मुनि मुख मोद अपारा ॥
करत आह जे कहै लहूरए। मात धूर निज पितु सों दूरए ॥
दोनों शिशुओं के जन्म की सुचना देते हुवे जब शिष्य गन ने गुरुवर वाल्मीकि को बुलाया । तब उनके मुख पर अपार प्रसन्नता प्रकट हुई ॥ और आह करते कहने लगे हे रे छूटके तुम अपनी माता के इतने निकट हो अपने पिता से कितने दूर हो ।।
बाल मुकुन के रोदन बानी । रवनए जस नदिया के पानी
नंदत बिटपबर पात हिलाए । हर्षे महर्षि बटुहु हरषाए ॥
भावार्थ: -- उस समय उन नन्हे बालकों की रुदन वाणी ऐसी थी जैसे की नदी का पानी कोमल मधुर ध्वनी उत्पन्न कर रहा हो ।। उसे सुन कर तरुवर मुदित होकर अपनी पत्तों को हिलाने लगे और महर्षि वाल्मिकी बाल मनीषियों के साथ रोमांचित हो उठे ।
जो को अनुपम बालक पेखें । रुप रासि गुन गिन गिन रेखें ॥
सकल बिपिन उर मंगल छाईं । माई कै तौ कही न जाई ॥
जो कोई भी इन अद्भुत बालकों को देखता वह इनकी सुन्दरता की राशि-समूह के गुणों को गिन गिन कर चिन्हांकित करता॥बालक के जन्म से समस्त उपवन शुभ लक्षणों से युक्त हो गया और माता ? उनके आनंद का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता ॥
किए जात करमन संस्कारा । पुनि महरिसि कुस लौ कर धारे ॥
एतदर्थ तिन्हनि के अधारे । जातक रूप सुभ नाउ धारे ॥
फिर महर्षि वामिकी ने कुश एवम उसके टुकङों को हस्तगत कर उन जातको के जात कर्म काण्ड किये । इस प्रकार उन कुश एवं उसके टुकङों के आधार पर उन जातकों के समरूप ही सुन्दर नाम रखे ॥
धरिअ महर्षि दोउ के नामा ॥ लव कुस अतुलित गुन धामा ॥
नाम करन बहु कीरति कारे । सोहत सुख जननी मुख धारे ॥
महर्षि वाल्मीकि ने दोनों बालकों का नामकरन क्रिया कर जो नाम रख़ा वह लव औऱ कुश था जो अतुल्यनीय गुणोँ का धाम स्वरुप कुल की कीर्ति करने वाला था वह माता के मुख पर उच्चारित होकर अति सुशोभित होता ॥
कम्बु कंठ कल कलित अधारे । धरअ अधर दुइ पत पउनारे ॥
पदमिन लोचन रोचन रूरे । मूंद मुकुल सम मोच प्रफूरे ॥
दोउ सिया के नैनन मोती । सूर बंस रघु के कुल जोती ।।
पिय परिहरु बन बासित किन्हें । सिया हिया पर सुत सुख दिन्हें ॥
शंख के समान सुन्दर ग्रीह्वा के आधार पर अधर इस भाँती विभूषित थे मानो ग्रीह्वा रूपि नलिनी मेँ द्वीपत्री नलिन शोभित होँ उनके दोनों नयन भि पद्म के सदृश्य ही सुन्दर एवम शोभवान थे इस प्रकार वे दोनों बालक जो माता सीता के नयनों के अश्रु कण स्वरूप थे , उस तपोभूमि में सूर्य वंशी राजा रघु के कुल के ज्योत रूप में जगमगाने लगे ॥ प्रियतम ने तो सीता का परित्याग कर वन का वासी बना दिया किन्तु पुत्रों ने उनके विरही ह्रदय को सुख से परिपूर्ण कर दिया ॥
भव भूयाधि भूर रघुबंस सूर दुइ कपूर कुल वर्द्धनी ।
मूर्द्धाभिषक्ति वैभव बिरक्ति रघुवर अंगिनी अर्द्धनी ॥
बिय बाल मुकुन्दे छद्मन छंदे दुइ पद पदुम चारि चरने ।
को अर्न बर्तिका बर्न बर्निका बर्नन बरनत न बने ॥
( इस प्रकार) पृथ्वी के सबसे बड़े अधिराज, रघु वंशी राजा श्री राम चन्द्र के कुल का वर्द्धन करने के लिए उस वंश के लोचन स्वरूप दो पुत्रों को श्रेष्ठ क्षत्रिय किन्तु वैभव से विरक्त रघुवर की अर्द्धांगिनी ने जन्म दिया ॥ दोनों बालक छंद का स्वरूप हैं जिसके दो पद और चार चरण होते हैं
कॊई भी अक्षर कॊई भी तुलिका कोई भी रंग की मसि से उनका वर्णन वर्णित नहीं किया जा सकता ॥
भव सागर रघु कुल मूल लिए दु कैरव अकार ।
दुनौ भइ भूषन सरूप, अस जस मनि मनियार ॥
संसार रूपी समुद्र में रघु कुल के वंश मूल से दो कुमुद प्रस्फुटित हुवे दोनों ही जगत के भूषण स्वरूप ऐसे हैं जैसे की दो मणि चमक रहे हों ॥
भएउ महराउ दुइ कुँवर, अवध वासी न जान ।
पाए दरसन बन गमनी, रुदन सुने नदि कान ॥
रघुपति राघव राजा राम चन्द्रजी के वीर्य से दो कुंवर उत्पन्न हुवे हैँ इस उदन्त से अवध के वासी अनभिज्ञ थे । और उनके दर्शन से रहित थे वनगमनी को ही यह सौभाग्या प्राप्त हुवा । नदी पर्वत सौभाग्य शाली थे उन्हें उन बालको की रूदन ध्वनि का प्रसाद प्राप्त हो रहा है ॥
सोमवार, १२ मई, २ ० १ ४
मुनि बसिष्ठ गुर मानहिं ताता । दिए रिसि सुत गुरु मानइ माता ॥
गए गुरुघर तात बय कुमारा । जात जनमै गुरु के ठियारा ॥
तात ने मुनिवर वशिष्ठ को अपना गुरु माना । माता ने महर्षि वाल्मीकि को गुरु मान कर बालकों को उन्हें समर्पित कर दिया । तात जा किशोरावस्था को प्राप्त गुरु के आश्रम दीक्षित होने गए । भाग्य का ऐसा फेर हुवा कि तात की संतति ने गुरु के गृह में ही जन्म लिया ॥
जाके नाउ धरत सुभ होई । संकट कटि गह पीर न कोई ॥
सोइ प्रभो के जनिक जनाई । अहो सौभाग मोरहि छाईं ॥
जिनका नाम धार्य करते ही कल्याण हो जाता है संकट कट जाते हैं जिनका नाम लेने से कोई पीड़ित नहीं होता ।अहो! यह मेरा सौभाग्य है कि उन्हीं प्रभु श्रीरामचन्द्रजी की संतति ने मेरे छाँव में जन्म लिया ॥
एहि बे प्रभु भैं बहुस उदारा । लखिनि पठोइ हमरेहि द्वारा ॥
बाल्मीकि अस बोल बतियाए । बालकिन्ह धरे गोद खेलाए ॥
इस समय कदाचित प्रभु अतिशय उदार हो गए हैं। उन्होंने साक्षात लक्ष्मी को ही मेरे गृह-आश्रम में भेज दिया ॥ महर्षि वाल्मीकि बालकों को गोद में खिलाते हुवे इस प्रकार वार्तालाप कर रहे थे ॥
सुनत रिसि बचन सिआ सुहाँसै । गहत सुहास तरुबरहु भासैं ॥
सुमनस बारि गगन ते होई । ब्रम्हानंद मगन सब कोई ॥
ऋषि वर के वचनों को श्रवण कर उस समय माता वैदेही सुहासिनी स्वरूप हो गई । उनके मृदु हास को ग्रहण कर तरुवर भी मुखरित हो उठे । और उनपर से झड़ते हुवे फूल ऐसे प्रतीत होते जैसे गगन से कोई पुष्प वर्षा कर रहा हो और समस्त सृष्टि परम आनंद में निमग्न हो गई हो ॥
ध्वज पताक तोरन न, बने द्वार अलिंद ।
धाएँ सहज शृंगार किएँ, नाहिं भामिनी बृंद ॥
ध्वजाएँ थी न पताका तोरण था न ही द्वार रचे गए थे । न ही सुन्दर स्त्रियों के समूह सहज श्रृंगार किए दौड कर उन बालकों के स्वागत हेतु उत्सुक थीं ॥
मंगलवार, १३ मई, २०१४
कनक कलस नहि मंगल थारा । बटुक भेस भरि भूप दुलारा ॥
पितु बिनु कवन निछावरि करहीं । बलिहारी जनि आरती तरहीं ॥
सरबस दान दीन्ह को काहू । पाए केहि अरु को हुलसाहू ।।
न अवधी न अवध पुरी साजी । नाहि मह राउ धानी भ्राजी ॥
मंदिर षंड न गिरि मनियारे । बिनु गायक को गाए पँवारे ॥
जात जनाउ उदंत बिनु पावा । पुरौकस कैसेउ दय बधावा ॥
को गुरु बशिष्ठ देइ हँकारे । कहाँ द्विज कहँ देखनहारे ॥
कहँ परिजनन्हि कहँ महराऊ । बोलाइ कहे बाज बजाऊ ॥
करत पालकी दुइ पलक पालि झुलावै कौन ।
कहँ गोद कहँ गोदनहर, लाड लड़ावै कौन ॥
राहित बचन सकल भूराई । मात उरस आनँद ही छाई ॥
जब जब जनि दुहु सुत मुख देखे । निज बिरहा दुःख दुःख नहि लेखें ॥
मात भुजांतर सुत के सौहा । भोगि तात उर दोइ बिछोहा ॥
बिरते मास छ घुटुरन चारे । जननी नयन निहार न हारे ॥
मोदत मंदर सुन्दर जोरी । दरसन छबि जस चाँद चकोरी ॥
कभु को कर कभु को कर लीना । पलै पलन पर पाल बिहीना ॥
दोनों बालकों का जोड़ा ऐसा सुन्दर था कि दर्पण भी मुग्ध हो उठा और उनका दर्शन प्रतिबिम्ब ऐसा हो गया मानो चाँद स्वरूप बालकों को दर्पण रूपी चकोर निहार रहा हो ॥
केतु राग लिए गालु ललाईं । तूरज तेजस माथ धराईं ॥
गोदी राख दुहु हृदय लगाए । स्त्रबत पयस् पे पयद सुहाए ॥
कंद मूल फल भोजन दीन्हि । ठोट पोठ परिपोषित कीन्हि ॥
पूजित प्रतिमा प्रिय प्रतिमुक्ता । बिरहनु भुक्ता सुत संयुक्ता ॥
जाट मात जो बान्ध बँधावै । वाके बरनन बरनि न जावै ॥
जेइ बाल कल चरित अनूपा । प्रभु प्रतिमुख प्रतिमित रूपा ॥
मनोज ओज कोटिकम् । सुवर्ण मेघ मण्डलम् ॥
पयस मयूख मोहितम् । सुषम् सुमुख सुसोहितम् ॥
तेजतस् तिलक तूलं । लसित लस ललाटूलं ॥
सुदेश केश लोलितम् । लोल घट वयवालकम् ॥
शीर्ष जटा मण्डलम् । कला कलित कुंडलितम् ॥
धृत ग्रीह्वा कम्बुकम् । कृतक कलश कलेवरम् ॥
श्रुति साधन विभूषितम् । पुट प्रसादन पुष्कलम् ॥
लावणमयी लोचनम् । पुष्पित पद्म पुष्करम् ॥
अश्विनी: कुमार सम । मुनिर वेश वेष्टितम् ॥
धनुर धरा विधायकम् । वेधस् गुरुर् दायकम् ॥
महेश शेष शारदा । स्तोत् प्रिय सुधी बुधा ॥
सर्वतो भावेन त्वं । स्तोमया स्तोभितम् ॥
एक रूपउ दुहु बाल लगे प्रानइ तेहु प्रिय ।
जे सुत राम कृपाल बटु सों बयो बिरध मुनिहि।।
बिलपहि कारति करून रुराई । को तुम अरु कहूँ कहँ सो आई ॥
मृदुल मुखी हे राजसि भेसा । काल भयंकर बिपिन कलेसा ॥
विलाप करती हुई ऐसे करुणामयी रोदन करती हुई हे मृदल मिखि हे राजसी वेशा तुम कौन हो ? और कहाँ से आई हो ? यह भयानक , विपिन कष्टप्रद है : -
अगम पंथ बन भूमि पहारी । करि केहरी निसिचर बिहारी ॥
सिया लयलीन गान तरंगे । मुनि धुनी तेहि तन्मय भंगे ॥
यह दुर्गम भूमि पहाड़ों एवं पंथ से युक्त है जहां हाथी सिंह निशाचर विचरण करते हैं ( अत: तुम यहाँ कैसे उपस्थित हो ) ।। माता सीता ( मन ही मन) प्रभु के चरित्र गान तरङ्ग ककी लय में लीन थी ॥ जैसे ही मुनिवर वाल्मिकी ध्वनित हुवे, उनकी तन्द्रा भङ्ग हो गई ॥
अलकावलि लक पलक उठाई । उद्बान घन घटा की नाई ॥
ह्रिता धिकारि हरिदै हारी । आनि करज मह जलज अम्बारी ॥
अलकों की अलियोंं से युक्त पलक को मस्तक पर इस भांति उठीं । उदन्वान गगन पर जेसे घनी घटाएँ ऊठ रही हों ॥ पत्नी के अधिकारों से वंचित थकी हार माता के पलको की मुक्ता प्रालंब उँगलियों में समा गई थी ॥
आरत मुख दरसि जेहि भाँती । बाकी बरनन कही नहि जाती ॥
देखि सो सिरोमनि आगन्तू । जटाजूट सिरु भूषण संतू ।।
वह व्यथित मुख जिस भाँती दर्शित हो रहा था । उसकी व्यंजना वर्णनातीत है ॥ जब उन्होंने शिरोभूषण स्वरुप जटा धारी आगंतुक सन्त शिरोमणि श्री वाल्मीकि को देखा ॥
दिब्य बसन मुख तन हरि नामी । उठै दुइ पानि जोर प्रनामी ॥
उनके मुख पर सूर्य का तेज था तन ने हरिनामी ओढी थी । वह तत्काल उठीं और दोनों हाथ जोड़े, उन्हें प्रणाम किया ॥
गिरे पलक जस घनागम, सार घोर घन छाए ।
तिपित तिलछित निलय धरां, बरसन हुँत अकुलाए ॥
उनके पलक फ़िर ऐसे झुके जेसे वषाऋतु में पुषप से युक्त होकर मेघ छा गए होँ ॥ और तप्त हृदय संतप्त धरा विदीर्ण हो गई हो और वह बरसने के लिए व्याकुल हो रहे हों ॥
शनिवार, ०३ मई, २ ० १ ४
देखि तुरत मुनि सिय परिचाई । पर मुनि सिया परचइ न पाईं ॥
मनन सील ग्यान के खानी । मह कबिराउ मुनिहि जग जानी ॥
जगतजननी मुनिवर वाल्मीकि से पूर्व-परिचित थीं अत: उन्होंने मुनिवर को देखते ही चिन्ह लिया । किन्तु मुनिवर शोक संतप्त होने के कारणवश जननीं को चिन्ह नही पाए ॥ विचारशील और ज्ञान के आगार स्वरुप महा कविराज मुनि वाल्मिकी जगत में प्रसिद्धथे ॥
निगमागम स्वयमइ सरूपा । करि नमन तिन्ह रूप अनूपा ॥
महामुनि पुनि धरे कर सीसा । दिए अभंग अहिबात असीसा ॥
निगमागम के वे स्वयं स्वरुप ही थे । ऐसे मुनिवर को सम्मुख पाकर अनुपम रूप वाली जननीं ने नमन किया । तब महामुने ने उनके शिष्य पर हाथ रख कर अखंड सुहाग क शुभआशीर्वाद प्रदान किया ॥
धुंधरी छवि जस लोचन आहीं । सोम ससि मुख चितबत लखाहीं ॥
बच्छल पूरित मुख बर बानी । कौन तुम पूछे महा ज्ञानी ॥
कुछ धुंधली सी छवि उनके श्रींलोचन मेन तैर रही थी । वह उस सौम्य शशि मुखिन को चिन्हित करने के प्रयास में देखे जा रहे थे । फिर मुख में वात्सल्य पूरित वाणी वरण कर महाज्ञानी ने प्रश्न किया : -- कौन हो तुम ?
मौन रहिहि त पूछे बहोरी । कवन राठु की रागी हो री ॥
सोचए धराधि कहुँ केहिं भॉंती । प्रभु पंकज मैं परिहरि पाँती ॥
जब माता मौन ही रहीं तब मुनिवर ने पुन: उपप्रश्न किया । क्या किसी राजा की रानी हो ? ॥ तब जगज्जननी सोच में पद गईं कि इन्हने मेन किस भॉंति कहूँ कि मैं पंकज स्वरुप अवध के राजाधिराज प्रभु श्रीरामचन्द्रजी से वियुक्त हुई एक पत्ती हूँ ॥
बसा उरस पुनि दसह दुआरी । लोचन धूम मलिन मुख धारी ॥
कहै सिया बहुसहि कठिनाई । जनक धिआ पतिनी रघुराई ॥
फिर ह्रदय में दुःसह दावाग्नि धारण किए । श्री लोचन में धूम्र एवम मलिनता मुख मेन लिए माता ने अत्यधिक पूर्वक कहा । हे मुनिवर मैं राजा जनक की पुत्री और प्रभु श्रीराम की अर्द्धांगिनी हउँ ॥
हरि की प्रिया सिया मम नामा । परिहारि कन नयन श्री रामा ॥
पद्मिन पद पत्रिका परिहारी । आइ उरियत प्रचरन तुहारी ॥
हरिप्रिया और सीता मेरा नाम है । मैं श्रीराम के नयनों द्वारा त्यागित अश्रु का एक कण हूँ ॥ उनके पद्म चरणों के एक त्यागी हुई पत्रिकाए हूँ जो उड़ते हुवे आपके मार्ग में आ गई॥
प्रान प्रिया परिहारि हरि, दयनिधि करुना ऍन ।
घेरि मुनिहि दुख अँधिआरि, हतप्रभ प्रसतरि नैन ॥
दया के निधान, करुणा के आयतन श्री हरि ने अपनी प्रा- प्रिया को परिहार दिया ? ऐसा कहते ही मुनिवर को दुख रूपी अंधियारी ने गहर लिया आउर हतप्रभ होकर विस्तृत हो गए ॥
फिर ह्रदय में दुःसह दावाग्नि धारण किए । श्री लोचन में धूम्र एवम मलिनता मुख मेन लिए माता ने अत्यधिक पूर्वक कहा । हे मुनिवर मैं राजा जनक की पुत्री और प्रभु श्रीराम की अर्द्धांगिनी हउँ ॥
हरि की प्रिया सिया मम नामा । परिहारि कन नयन श्री रामा ॥
पद्मिन पद पत्रिका परिहारी । आइ उरियत प्रचरन तुहारी ॥
हरिप्रिया और सीता मेरा नाम है । मैं श्रीराम के नयनों द्वारा त्यागित अश्रु का एक कण हूँ ॥ उनके पद्म चरणों के एक त्यागी हुई पत्रिकाए हूँ जो उड़ते हुवे आपके मार्ग में आ गई॥
प्रान प्रिया परिहारि हरि, दयनिधि करुना ऍन ।
घेरि मुनिहि दुख अँधिआरि, हतप्रभ प्रसतरि नैन ॥
दया के निधान, करुणा के आयतन श्री हरि ने अपनी प्रा- प्रिया को परिहार दिया ? ऐसा कहते ही मुनिवर को दुख रूपी अंधियारी ने गहर लिया आउर हतप्रभ होकर विस्तृत हो गए ॥
भए अबाक अरु रहे न चेती । हरिअरि हरि हरि कहत सचेते ॥
एक छन अचरज चित्रबत कारे। हरा चरन बिनु त्रान बिहारे ॥
मुनिवर अवाक हो गए उनकी चेतना नहीं रही, धीरे धीरे हरि हरि कहते वह सचेत हुवे ॥ एक क्षण के लिए अचम्भे ने मुनिवर को चित्रवत् कर दिया कि हरिप्रिया बेचारी त्राण रहित चरणोँ से इस दुर्गम वन मेँ विचरण कर रहीँ हैं
पद्मिन पद की पत परिहारी । बोलए दुखित बहुरि एक बारी ॥
पिछु के सुमिरत लिए उछबासा । अवगाहत नद नीर निरासा ॥
मुनिवर ने फ़िर दुखित स्वरुपमें पुनश्च वह वाक्य दोहराया 'कमल चरणों के परिहारी हुई पत्रिका ?' फिर पृष्ठ-भाग में घटी घटनाओं का स्मरण करते हुवे उन्होंने एक गहरी सांस ली । और वह निराशा की नदी के जल में डूबते चले गए ॥
तुहरे तात मोहिं गुरु माना । एहि बिधि समझौ तेहि समाना ॥
श्री राम प्रिया रे धिय दुखिआ । अहइ मोर एक परनिक कुटिया ॥
फिर उन्होंने कहा : -- तुम्हारे पिता ने मुझे अपना गुरु माना था इस विधि से तुम मुझे उन्हीं के सदृश्य समझो । हे श्री राम की सुन्दर प्रिया रे दुखिया बिटिया मेरी एक पर्णकुटी है ॥
फिरै अहेरि बयाल सरंगे । तुअँ मृगनयनी नारि एकंगे ॥
दुखित न हो धिय धरु न उदासिहु । अजहुँत तव मम आश्रम वासिहु ॥
यहां हिंसक सिंह अपने भक्षण हेतु मृगों के अहेरी में रहते हैँ । तुम मृगनयनी हो, नारी हो, एकाकी हो । बस अब दुखित होकर उदासी को धारण मत करो अब से तुम मेरे आश्रम में निवास करोगी ॥
धीरज लीन्हौ दुख नहि कीन्हौ मानहू मोहिं आपन ।
हे नारी पावन कारु सोकपन , अग्नारत उद्धापन ॥
तुम तन्या हो री अज हुँत मोरी मम घरू तव पिहरु भया ।
हे धरणी जाता हे जग माता गर्भ धरि दुइ हरिदया ॥
किंचित धीरज धरो, और दुख मत करो, मुझे अपना ही जानो हे पावन नारी ! अपने इस शोक-संताप की कष्टमयी अग्नि का शमन करो । अब से तुम मेरी तनया हो री इस संयोग सम्बन्ध से मेरी वह पर्णकुटी तुम्हारा पीहर हुवा । हे विश्वंभरी की पुत्री, हे जगज्जननी !! तुम गर्भ धारिणी भी हो, द्विहृदया हो ॥
हे अगेह असहाए धिय, दुखाबेग करु थॉर ।
इहाँ एककि अजहुँ न रहिओ , चलिओ सोहैं मोर ॥
हे गृहहीन असहाय पुत्रिका ! अपने दुख के आवेग की गति मद्धिम करो । अब यहां एकाकी मत रहिओ, मेरे साथ चलिओ ॥
सोमवार, ०५ मई, २ ० १ ४
कह पुनि मुनि दुख ना कारउ । आश्रम छाया आन पधारउ ॥
ढाढस बचन बाल्मीकिहि के । बैदेही बहु लागे नीके ॥
मुनिवर ने पुनश्च कहा अब आउर अधिक दुख मत करो । मेरे आश्रम की छाया मेन आन पधारों ॥ महामुनि वाल्मीकि के सांत्वना वचन माता बैदेहीं को बहुंत ही भले लगे ।
अब लग रोवै दुख उर लाई । लोचन सुख असुअन छलकाई ॥
बुझै ऐसिहु आर्त अँगारी । दुआरी परे जस जल बारी ॥
दुखित किये क्रंदनरत थीँ । वह नयन से निरन्तर अश्रु झलक रहीं थीं ॥ उन सांत्वना वचनों से उनकी पीड़ा रूपी अंगारी ऐसे बुझी जेसे वर्षा के जल से वन में लगी अग्नि का शमन हो जाता है ॥
चलि मारग बटु षंड सँजूता । हिय हरि मूरति रिसिहि अगूता ॥
बहुरि सादर संग लिए आनी । तापसी तहाँ किए अगुवानी ॥
ह्रदय में हरि की मूर्ति ग्रहण किये महामुनि वाल्मीकि आगे चल रहे थे । उनके पीछे वटुक का समूह औऱ फ़िर माता भी उन वटक समूह के संग चल पड़ी । इस प्रकार मुनिवर माता को आदर सहित आश्रम ले आए जहां तपस्वी स्त्रियों ने उनकी अगवानी की ॥
फुरित नयन भलमन दरसाई । लेइ सकल निज कंठ लगाईं
चरत अगम बन पथारि हारी । रहसिहि के चिंतन परिहारी ॥
उन्होंने प्रसन्न मुद्रा में अपनी सज्जनता का परिचय दिया और माता को अपने कांठ से लगा लिया ॥ दुर्गम मार्ग पर चलते कंटकों के पीड़ा से युक्त माता को अब रहने की चिन्ता नहीं रही ॥
भरे पुरे जो मुनि समुदाया । गहि करपर कर्निक के छाया ॥
चलइ पवन जहँ बन सुखदाई । हवन धूम सुगंध परसाई ॥
वह आश्रम मुनि समुदायों से भरा हुवा था । शीर्षोपर सूखे पत्तों कुश सुखी हुई टहनियों की छाया थी । जहां वायु हविर् धूम्र के सुगंध स्पर्श कर प्रवाहित होती थी ॥
सरनए सरिता सुधा सरि, सौमुख सुन्दर सैल ।
जहँ बिटपहु देही दसै, तपस् चरन के चैल ।।
जिसकी सरणी में सुधासम सरिता प्रवाहित हो रही थी, सम्मुख सुन्दर गिरि था । जहां वृक्षों की देह ने मेन भी तपस्या अचरन के वस्त्र धारण किये हुवे थे ॥
मान धिया सिया लै गए, गुरुवर घनबन धाम ।
श्री मुखांकित कर धरे, बन देई सुभ नाम ॥
इस प्रकार माता सीता को अपनी पुत्री मान कर महामुनि आदि कविवर श्री वाल्मीकि माता को घनेवन में स्थित आश्रम में ले आए । और अपने श्री मुख से अंकित करते हुवे माता सीता का शुभ नाम 'वनदेवी' रखा ॥
मंगलवार, ०६ मई, २ ० १ ४
बाल्मीकि हिलग मिलान किए । राम की जानि श्री जानकिहि ए ॥
जगत मोहिनि नयनाभिरामा । परिचय दे सिय करी प्रनामा ॥
तत्पश्चात कविवर ने माता सहचरों से यह कह कर मिलाया कि यह प्रभु श्री राम की अर्द्धांगिनी है राजा जनक की पुत्री होने के कारण इनका नाम श्री जानकी है ॥
मुनिबर पुनिपुनि धीरजू दिन्ही । कहि गमन नदि निमज्जनु किन्ही ॥
रमा रमन रागी अवधेसा । बरी आपहु तपसिनी भेसा ॥
मुनिवर ने वारंवार माता को धैर्य बँधाते हुवें कहा जाओ पुत्रिका नदी स्नान करो । तब ( स्नानोपरांत ) अवध देश के राजाधिराज महारानी रमाधव की सौभाग्य श्री ने स्वयं भी तपस्वनियो की वेश भूषा वरण कर ली ॥
नयन दर्पन हरि छबि रचाई । रागारुन लिए माँग सजाई ॥
मन मंदिर हरि मूरति धारी । सुमिरत निसदिन पूजन कारी
नयन-दर्पण में हरि की छवि अंकित किए रागो की अरुणाई से माँग को सुसज्जित कर ॥ मन मंदिर में श्रीहरि की मूर्ति स्थापित किए माता नित्य दिवस अपने प्रभु की ही स्मरण एवम वंदन करती ॥
बेनी संहरन बिनु केस किए । अभरन भूतिहि बिनु भेस किए ॥
बटुगन पलक पालकी राखीं । देइ कंद मूरिहि फर भाखी ॥
वह केश विन्यासित करती किन्तु उसमेँ वेणी का गुंठन नहीं होता । भेष तो भरती किन्तु वह आभूषणों की कांति से हीन होते ॥ बाल संन्यासी गण उन्हें पलकों की पालकी में रखते । कंद -मूल, एवं फल-फूल ही उनका भोजन हो गया ॥
तपोनिधि बाल्मीकि पुनि बतुगन आयसु दाए ।
जानकी हुँत एक सुन्दर, पर्णकुटी कलिताएँ ॥
तप के निधि महामुनि वाल्मीकि ने अपने शिष्यों को आज्ञा दी कि माता जानकी हेतु एक सुन्दर पर्णकुटी की रचना करो ॥
बुधवार, ०७ मई, २०१४
सिस गुरु आयसु सिरो धराईं । लग कल कर्निक कुटी रचाईं ॥
लावन श्री सम्पद की रासी । पतिब्रता सिया तहहिं निबासी ॥
शिष्यों ने गुरुवर की आज्ञा सिरोधार्य कर सभी पत्तो लताओं एवं शुष्क उपशाखाओं से एक सुन्दर पर्णकुटी की रचना की शोभा एवम सौंदर्य की देवी पतिव्रता माता सीता फ़िर उसी कुटीया मेन निवास करने लगी ॥
श्राम करी किंचित सुख पाईं । मुनि तब सब गति पूछ बुझाईं ।।
जान दोष को किन अपराधे । तजन श्राप दिए मोहि अराधे ॥
विश्राम करते जब वह गर्भवती माता क्वचित सुख को प्राप्त हुई तब मुनिवर वाल्मीकि ने उनसे वनागमन की सारी स्थिति पूछी ॥ माता ने स्थिति स्पष्ट करते हुवे कहा : -- जाने कौन से दोष के कारण किस अपराध में मुझे मेरे आराध्य देव ने त्याग के श्राप दिया ॥
मैं गत रैन रमन पद धारी । तपसि दरसन मनोरथ कारी ॥
लाए लषन बन भइ हत भागी । कहै मात तुअँ बिभो त्यागी ॥
बीती रात्रि मैने प्रभु के चारण ग्रहण किए तपस्विनियों के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की थी । और भ्राता लक्ष्मण ने मुझे इस वन में लाकर कहा हे माता आप अभाग्य को प्राप्त हो गई कारण कि प्रभु श्रीराम चन्द्र जी ने आपका त्याग कर दिया है ॥
रघुबर के अग्या अनुसरना । भ्रात भगत धारत मम चरना ॥
छाँड़ मोहि पुनि अवध बहोरी । कहत सकल गति अस सिय होरी ॥
रघुवर की आज्ञा का अनुशरण करने वाले उस भ्राता-भक्त ने फ़िर मेरे चरण पकड़ लिए ॥ और मुझे इस सघन वन में छोड़ कर वह अवध को लौट गए इस प्रकार अपनी समस्त गति कहकर माता चुप हो गई ॥
अरु जे कहत बिराम लिए, कहन सरूप समास ।
मुनिबर समालोचित किए, लइ गहनइ उछबास ॥
और यह कहते हुवे अपनी वाणी को विश्राम दिया कि यह मेरी संक्षिप्त कहानी है । तब महामुनि कविवर श्री वाल्मीकि ने उनके कथनो के गुण -दोषों का सम्यक विवेचन किया और मुख से एक गहरी स्वांस विमुक्त की ॥
बृहस्पति/शुक्र ,०८/०९ मई, २ ० १ ४
कर्निक कुटी सिय मन अति भाए । रहसि सदन बन बास सुरताए ॥
जहां नाथ सह सगुन सनाहा । इहाँ रही सह निर्गुन नाहा ॥
बा ल संन्यासियों द्वारा टहनियों पत्तो से रचित वह पर्णकुटिया माता को अति प्रिय लगी । उसे दर्श कर उन्हें वनवास का स्मरण हो आया ॥ जहां वह रघुनाथ के साथ सगुण स्वरुप में निवासरत थीं । किन्तु यहां उनके पदपंकज से रहित होकर निर्गुण प्रभु के साथ थीं ॥
बसी सिया कबि बर के छाई । चरन परत बन भू हरियाई ॥
सकल प्रानि बन भए उल्लासे । छाए घटा घन बिपिन अगासे ॥
माता सीता कविवर वाल्मीकि के आश्रम में ही बस गई । उनके चरण पड़ने से वह उष्णीय स्वभाव की वन-स्थली, हरि-भरी हो गई॥ उसके समस्त प्राणी उस हरियाली को प्राप्त कर उल्लास से भर गए । उनके पदार्पण मात्र से अकालग्रस्त उस विपिन का आकाश मेघों से आच्छादित हो गया ॥
देखत रघुकुल के मुख चंदा । पाए बहुस सुख तरुबर बृंदा ॥
जे बन भू रहि कंटक करनी । उपजत तिन् भइ कोमलि सरनी ॥
रघु के कुल की चन्द्र मुखी का इस प्रकार से दर्शन करते हुवे तरुवर समूह अत्यधिक सुख पा रहे थे ॥ जो वन भूमि पहले काँटों को उपजाति थी । उसमें तृण उत्पन्न हो गए जिससे उसके सरणी कोमल हो गई ॥
साखि सुरंगत सुमन सौगंधिए । लह लह बहतिहि बहि बहु बंधिए ॥
कूल तमस अस कल कल कारे । जूँ नूपुर रुर सुर झनकारे ॥
शाखाओं पर सुन्दर वर्ण ग्रहण कर पुष्प अति सुगन्धित हो गए । उस सुगंध से बंधकर हवा भी लहलहाती हुई बहने लगी ॥ तामस नदी का किनारा, कल कल का ऐसा स्वर उत्पन्न करता जैसे की वह सुन्दर नूपुर के स्वरों की झंकार हो ॥
जब जब चरन नदि तट लेखाहि । जल दर्पन प्रभो छबि दरसाहिं ॥
रुध कंठ कर जोग जोहारै । नयन पटल जल माल उतारे ॥
उनके पद्म-चरन जब जब नदी तट को चिन्हित करते । तब जल दर्पण प्रभु की छवि दर्शाते । माता अवरुद्ध कंठ से उस निर्मल छवि को हाथ जोड़ते हुवे प्रणाम करती । नयन पटल से अश्रु मालिका उतरने लगती ॥
टूक बटुक बट बटर बिहारे । सिय कौ लागे अति मनुहारे ॥
गर्भनि के सेवा सत्कारे । मेल मिलत सब करत सँभारे ॥
आश्रम में शिष्यों की टुकड़ियां वट वृक्ष के चारों और भँवरते हुवे क्रीडा करती । वह माता सीता को अति मनोहर प्रतीत होते ॥ गर्भ वती माता की सभी बटुक मिल जुल कर देख भाल और सेवा-सुश्रुता करते ॥
बाल्मीकि ग्यान गुन दाहा । बटुगन जोंगइ चितबन् माही ॥
मुनिबर कथने नेकु प्रसंगा । कहिहि सुनहि सिय संग बिहंगा ॥
ज्ञान लोचन श्री वाल्मीकि ज्ञान एवम सद्गुण प्रदान करते । जिसे वटुक अपने चित्त मेन संचयित कर लेते ॥ सहचर मुनिगण अनेकोनेक प्रसंगों का व्याख्यान करते । विहंगो के संग माता सीता कहते सुनते जिसका सार ग्रहण किया करती ॥
प्रभु सुरति मन चरन रति राखे । रघुकुल के बिरदाबलि भाखे॥
गावै सिया सुने सब कंथा । जोग लिखे गुरबर मह ग्रंथा ॥
मन में प्रभु क स्मरन रखे एवम चरणोँ मैं प्रीति रखे वह रघुकुल की कीर्ति गाथा कहती ॥ माता सुन्दर स्वर में गान करति सभी सज्जन मुनि उसका श्रवण करते । और महाकवि वाल्मीकि ग्रन्थ में मोक्ष का उपाय उल्लखित जाते ॥
अस बिरहणि के लखतइ लाखे । रैनी भइ दिन दिन भए पाखे ।।
पाखिहि बरस कोस मह रीते । बासत बन कछु समऊ बीते ॥
इस प्रकार विरहिणी माता सीता के देखते ही देखते, रयन दिवस में एवँ दिवस पक्ष परिवर्तित होते गए । पक्ष वर्ष के कोष में रिक्त होकर मास में परिवर्तित होते चले गए । इस प्रकार वन में निवास करते कुछ समय व्यतीत हुवा ॥
एहि किवंदती बन बन छाहीं । चर अचर सब बोल बतियाहीं ॥
हरषत करषत अस गुन गाई । अवध देस एक नारी आई ॥
और यह किवंदती वन के समस्त स्थलों में प्रसारित हो गई चर ( समस्त जीव) अचर ( नदी पहाड़ आदि ) आपस में बातें करते हुवे बहुंत ही अनुरागित एवं आनंद मग्न होकर ऐसे गुण गाते कि 'अवध नामक स्थान की एक नारी वन में रहने आई हैं'॥
हरियारी छाई, रे बन भाई, एक नीरज नयनि नारि ।
एक अवध निवासी के लउरासी सुमनस सौंह सुकुमारि ॥
भगत सिरोमनि त्रिभुवन पत दसरथ नंदन की प्रान समा ।
प्रियरन कारी की धनु धारी की अति प्यारी प्रियतमा ॥
अरे भाई ! जिससे सारे वन में हरियाली छा गई है, उस एक कमल सदृश्य नारी के जो की अवध देश की निवासी तथा समस्त कामनाओं का भंडार वह कुसुम के सरिस कोमल हैं ॥ भक्तों में श्रेष्ठ त्रिभुवन के स्वामी तथा दशरथ के पुत्र की तथा सबका हीत करने वाले धनुर्धारी वीर श्री राम चन्द्र की प्रियतमा एवं अर्द्धांगिनी हैं ॥
हंसा बदन अधरामृत बिहग बिहंगम हास ।
रूप सम्पद श्री बत्स भृत बसि बन केतन बास ॥
जिसका मुख रजत के सदृश्य श्वेत है अधरों पर अमृत है और जिसकी हँसी चन्द्रमा के सदृश्य अभूतपूर्व है । जग मोहन की यह रूप सम्पदा
आज वन के आश्रम में आ बसी है ॥
दया सुभाउ नेह नयन, बानी में मधु धूर ।
लउ लब्ध दर्सन जाके, दुःख दारिद हो दूर ॥
दया भाव से युक्त जिनका स्वभाव है, नयनों में स्नेह है जिनकी वाणी में मिश्री घुली है । उनके दर्शन मात्र जिसको प्राप्त हो जाएं उसकी तो दुःख दरिद्रता ही दूर हो जाए ॥
गर्भधरा अह राम बिजोगी । जोए जीव जनमन दिन जोगी ॥
जोग जनम भृत बच्छर भाऊ । तप चरनी सह बटु करि चाऊ ॥
इधर वह गर्भधरा श्रीराम चन्द्र जी से वियुक्त होकर गर्भस्थ जीवन के जन्म-तिथि की प्रतीक्षा रही थीं ॥ तपस्विनी के सह वटु भी वात्सल्य जनित भाव से उस गर्भस्थ जीव का चाव करते ॥
कंद मूल फल फुल के दोना। पलब् उड़ावन पलब् बिछौने ॥
जब जब अवध पुर सुरताई । जुगल नयन जल धार बहाई ॥
कंद-मूल, फल-फूल, का ही परोसा था । पल्लवों का ओढ़न, पल्लवों का ही बिछावन था ॥ माता को जब जब अवध पूरी क स्मरण हो आता । उनके युगल नेत्रों से जल की धार बहने लगती ॥
बहुस दिवस भए प्रभु मुख देखे । महरिसि ग्रन्थ रचित कर लेखे॥
करै सबहि सह चर के सेवा । असीर दय कभु कहि मुनिदेबा ॥
महाऋषि ग्रन्थ रचना कर उल्लखित करते कि प्रभु का मुख देखे धीआ को बहुंत दिन हो गए । माता जब सभी सहचरों की सवा-सुश्रुता मेन रत रहतीं तब कभी आशर्वाद देते हुवे महर्षि कहते : --
जब सों धिआ पाँउ तुम धारी । धन्य भूमि भै पंथ पहारी ॥
बन सोहन रूह राजित लाखी । सरल सुभाउनि कोमल भाखी ॥
हे पुत्रिका जब से तुमने इस तपोभूमि मेँ चरण धरें हैं । इस भूमि के पंथ पहाड़ सभी धनय हो गए हैं । हे को सुशोभित करने वाले वनरुह मेन विराजित होने वाली लक्ष्मी हे सरल स्वभाव हे कोमल भाषिणी ॥
हरि कर परिहर बासि यहँ, अह तुहरे हत भाग ।
तव चरन जुहारी जगै, बिपिन के सोए भाग ॥
हरि के त्याग पश्चात तुम यहाँ निवासित हो यह तुम्हारा दुर्भाग्य है । किन्तु तुम्हारे चरणों की जोहारी ( प्रणाम के बदले दिया गया आषीर्वाद ) प्राप्तकर विपिन के सोते भाग्य जागृत हो उठे ॥
मंगलवार, १ ८ जून, २ ० १ ३
स्वरूप संपद रनिबासन की । तपस्वनी भइ तपो बन की ॥
बन बरस बरस बर तापन की । बहुरिहि तपकृस तन कुंदन की ॥ एक छन अचरज चित्रबत कारे। हरा चरन बिनु त्रान बिहारे ॥
मुनिवर अवाक हो गए उनकी चेतना नहीं रही, धीरे धीरे हरि हरि कहते वह सचेत हुवे ॥ एक क्षण के लिए अचम्भे ने मुनिवर को चित्रवत् कर दिया कि हरिप्रिया बेचारी त्राण रहित चरणोँ से इस दुर्गम वन मेँ विचरण कर रहीँ हैं
पद्मिन पद की पत परिहारी । बोलए दुखित बहुरि एक बारी ॥
पिछु के सुमिरत लिए उछबासा । अवगाहत नद नीर निरासा ॥
मुनिवर ने फ़िर दुखित स्वरुपमें पुनश्च वह वाक्य दोहराया 'कमल चरणों के परिहारी हुई पत्रिका ?' फिर पृष्ठ-भाग में घटी घटनाओं का स्मरण करते हुवे उन्होंने एक गहरी सांस ली । और वह निराशा की नदी के जल में डूबते चले गए ॥
तुहरे तात मोहिं गुरु माना । एहि बिधि समझौ तेहि समाना ॥
श्री राम प्रिया रे धिय दुखिआ । अहइ मोर एक परनिक कुटिया ॥
फिर उन्होंने कहा : -- तुम्हारे पिता ने मुझे अपना गुरु माना था इस विधि से तुम मुझे उन्हीं के सदृश्य समझो । हे श्री राम की सुन्दर प्रिया रे दुखिया बिटिया मेरी एक पर्णकुटी है ॥
फिरै अहेरि बयाल सरंगे । तुअँ मृगनयनी नारि एकंगे ॥
दुखित न हो धिय धरु न उदासिहु । अजहुँत तव मम आश्रम वासिहु ॥
यहां हिंसक सिंह अपने भक्षण हेतु मृगों के अहेरी में रहते हैँ । तुम मृगनयनी हो, नारी हो, एकाकी हो । बस अब दुखित होकर उदासी को धारण मत करो अब से तुम मेरे आश्रम में निवास करोगी ॥
धीरज लीन्हौ दुख नहि कीन्हौ मानहू मोहिं आपन ।
हे नारी पावन कारु सोकपन , अग्नारत उद्धापन ॥
तुम तन्या हो री अज हुँत मोरी मम घरू तव पिहरु भया ।
हे धरणी जाता हे जग माता गर्भ धरि दुइ हरिदया ॥
किंचित धीरज धरो, और दुख मत करो, मुझे अपना ही जानो हे पावन नारी ! अपने इस शोक-संताप की कष्टमयी अग्नि का शमन करो । अब से तुम मेरी तनया हो री इस संयोग सम्बन्ध से मेरी वह पर्णकुटी तुम्हारा पीहर हुवा । हे विश्वंभरी की पुत्री, हे जगज्जननी !! तुम गर्भ धारिणी भी हो, द्विहृदया हो ॥
हे अगेह असहाए धिय, दुखाबेग करु थॉर ।
इहाँ एककि अजहुँ न रहिओ , चलिओ सोहैं मोर ॥
हे गृहहीन असहाय पुत्रिका ! अपने दुख के आवेग की गति मद्धिम करो । अब यहां एकाकी मत रहिओ, मेरे साथ चलिओ ॥
सोमवार, ०५ मई, २ ० १ ४
कह पुनि मुनि दुख ना कारउ । आश्रम छाया आन पधारउ ॥
ढाढस बचन बाल्मीकिहि के । बैदेही बहु लागे नीके ॥
मुनिवर ने पुनश्च कहा अब आउर अधिक दुख मत करो । मेरे आश्रम की छाया मेन आन पधारों ॥ महामुनि वाल्मीकि के सांत्वना वचन माता बैदेहीं को बहुंत ही भले लगे ।
अब लग रोवै दुख उर लाई । लोचन सुख असुअन छलकाई ॥
बुझै ऐसिहु आर्त अँगारी । दुआरी परे जस जल बारी ॥
दुखित किये क्रंदनरत थीँ । वह नयन से निरन्तर अश्रु झलक रहीं थीं ॥ उन सांत्वना वचनों से उनकी पीड़ा रूपी अंगारी ऐसे बुझी जेसे वर्षा के जल से वन में लगी अग्नि का शमन हो जाता है ॥
चलि मारग बटु षंड सँजूता । हिय हरि मूरति रिसिहि अगूता ॥
बहुरि सादर संग लिए आनी । तापसी तहाँ किए अगुवानी ॥
ह्रदय में हरि की मूर्ति ग्रहण किये महामुनि वाल्मीकि आगे चल रहे थे । उनके पीछे वटुक का समूह औऱ फ़िर माता भी उन वटक समूह के संग चल पड़ी । इस प्रकार मुनिवर माता को आदर सहित आश्रम ले आए जहां तपस्वी स्त्रियों ने उनकी अगवानी की ॥
फुरित नयन भलमन दरसाई । लेइ सकल निज कंठ लगाईं
चरत अगम बन पथारि हारी । रहसिहि के चिंतन परिहारी ॥
उन्होंने प्रसन्न मुद्रा में अपनी सज्जनता का परिचय दिया और माता को अपने कांठ से लगा लिया ॥ दुर्गम मार्ग पर चलते कंटकों के पीड़ा से युक्त माता को अब रहने की चिन्ता नहीं रही ॥
भरे पुरे जो मुनि समुदाया । गहि करपर कर्निक के छाया ॥
चलइ पवन जहँ बन सुखदाई । हवन धूम सुगंध परसाई ॥
वह आश्रम मुनि समुदायों से भरा हुवा था । शीर्षोपर सूखे पत्तों कुश सुखी हुई टहनियों की छाया थी । जहां वायु हविर् धूम्र के सुगंध स्पर्श कर प्रवाहित होती थी ॥
सरनए सरिता सुधा सरि, सौमुख सुन्दर सैल ।
जहँ बिटपहु देही दसै, तपस् चरन के चैल ।।
जिसकी सरणी में सुधासम सरिता प्रवाहित हो रही थी, सम्मुख सुन्दर गिरि था । जहां वृक्षों की देह ने मेन भी तपस्या अचरन के वस्त्र धारण किये हुवे थे ॥
मान धिया सिया लै गए, गुरुवर घनबन धाम ।
श्री मुखांकित कर धरे, बन देई सुभ नाम ॥
इस प्रकार माता सीता को अपनी पुत्री मान कर महामुनि आदि कविवर श्री वाल्मीकि माता को घनेवन में स्थित आश्रम में ले आए । और अपने श्री मुख से अंकित करते हुवे माता सीता का शुभ नाम 'वनदेवी' रखा ॥
मंगलवार, ०६ मई, २ ० १ ४
बाल्मीकि हिलग मिलान किए । राम की जानि श्री जानकिहि ए ॥
जगत मोहिनि नयनाभिरामा । परिचय दे सिय करी प्रनामा ॥
तत्पश्चात कविवर ने माता सहचरों से यह कह कर मिलाया कि यह प्रभु श्री राम की अर्द्धांगिनी है राजा जनक की पुत्री होने के कारण इनका नाम श्री जानकी है ॥
मुनिबर पुनिपुनि धीरजू दिन्ही । कहि गमन नदि निमज्जनु किन्ही ॥
रमा रमन रागी अवधेसा । बरी आपहु तपसिनी भेसा ॥
मुनिवर ने वारंवार माता को धैर्य बँधाते हुवें कहा जाओ पुत्रिका नदी स्नान करो । तब ( स्नानोपरांत ) अवध देश के राजाधिराज महारानी रमाधव की सौभाग्य श्री ने स्वयं भी तपस्वनियो की वेश भूषा वरण कर ली ॥
नयन दर्पन हरि छबि रचाई । रागारुन लिए माँग सजाई ॥
मन मंदिर हरि मूरति धारी । सुमिरत निसदिन पूजन कारी
नयन-दर्पण में हरि की छवि अंकित किए रागो की अरुणाई से माँग को सुसज्जित कर ॥ मन मंदिर में श्रीहरि की मूर्ति स्थापित किए माता नित्य दिवस अपने प्रभु की ही स्मरण एवम वंदन करती ॥
बेनी संहरन बिनु केस किए । अभरन भूतिहि बिनु भेस किए ॥
बटुगन पलक पालकी राखीं । देइ कंद मूरिहि फर भाखी ॥
वह केश विन्यासित करती किन्तु उसमेँ वेणी का गुंठन नहीं होता । भेष तो भरती किन्तु वह आभूषणों की कांति से हीन होते ॥ बाल संन्यासी गण उन्हें पलकों की पालकी में रखते । कंद -मूल, एवं फल-फूल ही उनका भोजन हो गया ॥
तपोनिधि बाल्मीकि पुनि बतुगन आयसु दाए ।
जानकी हुँत एक सुन्दर, पर्णकुटी कलिताएँ ॥
तप के निधि महामुनि वाल्मीकि ने अपने शिष्यों को आज्ञा दी कि माता जानकी हेतु एक सुन्दर पर्णकुटी की रचना करो ॥
बुधवार, ०७ मई, २०१४
सिस गुरु आयसु सिरो धराईं । लग कल कर्निक कुटी रचाईं ॥
लावन श्री सम्पद की रासी । पतिब्रता सिया तहहिं निबासी ॥
शिष्यों ने गुरुवर की आज्ञा सिरोधार्य कर सभी पत्तो लताओं एवं शुष्क उपशाखाओं से एक सुन्दर पर्णकुटी की रचना की शोभा एवम सौंदर्य की देवी पतिव्रता माता सीता फ़िर उसी कुटीया मेन निवास करने लगी ॥
श्राम करी किंचित सुख पाईं । मुनि तब सब गति पूछ बुझाईं ।।
जान दोष को किन अपराधे । तजन श्राप दिए मोहि अराधे ॥
विश्राम करते जब वह गर्भवती माता क्वचित सुख को प्राप्त हुई तब मुनिवर वाल्मीकि ने उनसे वनागमन की सारी स्थिति पूछी ॥ माता ने स्थिति स्पष्ट करते हुवे कहा : -- जाने कौन से दोष के कारण किस अपराध में मुझे मेरे आराध्य देव ने त्याग के श्राप दिया ॥
मैं गत रैन रमन पद धारी । तपसि दरसन मनोरथ कारी ॥
लाए लषन बन भइ हत भागी । कहै मात तुअँ बिभो त्यागी ॥
बीती रात्रि मैने प्रभु के चारण ग्रहण किए तपस्विनियों के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की थी । और भ्राता लक्ष्मण ने मुझे इस वन में लाकर कहा हे माता आप अभाग्य को प्राप्त हो गई कारण कि प्रभु श्रीराम चन्द्र जी ने आपका त्याग कर दिया है ॥
रघुबर के अग्या अनुसरना । भ्रात भगत धारत मम चरना ॥
छाँड़ मोहि पुनि अवध बहोरी । कहत सकल गति अस सिय होरी ॥
रघुवर की आज्ञा का अनुशरण करने वाले उस भ्राता-भक्त ने फ़िर मेरे चरण पकड़ लिए ॥ और मुझे इस सघन वन में छोड़ कर वह अवध को लौट गए इस प्रकार अपनी समस्त गति कहकर माता चुप हो गई ॥
अरु जे कहत बिराम लिए, कहन सरूप समास ।
मुनिबर समालोचित किए, लइ गहनइ उछबास ॥
और यह कहते हुवे अपनी वाणी को विश्राम दिया कि यह मेरी संक्षिप्त कहानी है । तब महामुनि कविवर श्री वाल्मीकि ने उनके कथनो के गुण -दोषों का सम्यक विवेचन किया और मुख से एक गहरी स्वांस विमुक्त की ॥
बृहस्पति/शुक्र ,०८/०९ मई, २ ० १ ४
कर्निक कुटी सिय मन अति भाए । रहसि सदन बन बास सुरताए ॥
जहां नाथ सह सगुन सनाहा । इहाँ रही सह निर्गुन नाहा ॥
बा ल संन्यासियों द्वारा टहनियों पत्तो से रचित वह पर्णकुटिया माता को अति प्रिय लगी । उसे दर्श कर उन्हें वनवास का स्मरण हो आया ॥ जहां वह रघुनाथ के साथ सगुण स्वरुप में निवासरत थीं । किन्तु यहां उनके पदपंकज से रहित होकर निर्गुण प्रभु के साथ थीं ॥
बसी सिया कबि बर के छाई । चरन परत बन भू हरियाई ॥
सकल प्रानि बन भए उल्लासे । छाए घटा घन बिपिन अगासे ॥
माता सीता कविवर वाल्मीकि के आश्रम में ही बस गई । उनके चरण पड़ने से वह उष्णीय स्वभाव की वन-स्थली, हरि-भरी हो गई॥ उसके समस्त प्राणी उस हरियाली को प्राप्त कर उल्लास से भर गए । उनके पदार्पण मात्र से अकालग्रस्त उस विपिन का आकाश मेघों से आच्छादित हो गया ॥
देखत रघुकुल के मुख चंदा । पाए बहुस सुख तरुबर बृंदा ॥
जे बन भू रहि कंटक करनी । उपजत तिन् भइ कोमलि सरनी ॥
रघु के कुल की चन्द्र मुखी का इस प्रकार से दर्शन करते हुवे तरुवर समूह अत्यधिक सुख पा रहे थे ॥ जो वन भूमि पहले काँटों को उपजाति थी । उसमें तृण उत्पन्न हो गए जिससे उसके सरणी कोमल हो गई ॥
साखि सुरंगत सुमन सौगंधिए । लह लह बहतिहि बहि बहु बंधिए ॥
कूल तमस अस कल कल कारे । जूँ नूपुर रुर सुर झनकारे ॥
शाखाओं पर सुन्दर वर्ण ग्रहण कर पुष्प अति सुगन्धित हो गए । उस सुगंध से बंधकर हवा भी लहलहाती हुई बहने लगी ॥ तामस नदी का किनारा, कल कल का ऐसा स्वर उत्पन्न करता जैसे की वह सुन्दर नूपुर के स्वरों की झंकार हो ॥
जब जब चरन नदि तट लेखाहि । जल दर्पन प्रभो छबि दरसाहिं ॥
रुध कंठ कर जोग जोहारै । नयन पटल जल माल उतारे ॥
उनके पद्म-चरन जब जब नदी तट को चिन्हित करते । तब जल दर्पण प्रभु की छवि दर्शाते । माता अवरुद्ध कंठ से उस निर्मल छवि को हाथ जोड़ते हुवे प्रणाम करती । नयन पटल से अश्रु मालिका उतरने लगती ॥
टूक बटुक बट बटर बिहारे । सिय कौ लागे अति मनुहारे ॥
गर्भनि के सेवा सत्कारे । मेल मिलत सब करत सँभारे ॥
आश्रम में शिष्यों की टुकड़ियां वट वृक्ष के चारों और भँवरते हुवे क्रीडा करती । वह माता सीता को अति मनोहर प्रतीत होते ॥ गर्भ वती माता की सभी बटुक मिल जुल कर देख भाल और सेवा-सुश्रुता करते ॥
बाल्मीकि ग्यान गुन दाहा । बटुगन जोंगइ चितबन् माही ॥
मुनिबर कथने नेकु प्रसंगा । कहिहि सुनहि सिय संग बिहंगा ॥
ज्ञान लोचन श्री वाल्मीकि ज्ञान एवम सद्गुण प्रदान करते । जिसे वटुक अपने चित्त मेन संचयित कर लेते ॥ सहचर मुनिगण अनेकोनेक प्रसंगों का व्याख्यान करते । विहंगो के संग माता सीता कहते सुनते जिसका सार ग्रहण किया करती ॥
प्रभु सुरति मन चरन रति राखे । रघुकुल के बिरदाबलि भाखे॥
गावै सिया सुने सब कंथा । जोग लिखे गुरबर मह ग्रंथा ॥
मन में प्रभु क स्मरन रखे एवम चरणोँ मैं प्रीति रखे वह रघुकुल की कीर्ति गाथा कहती ॥ माता सुन्दर स्वर में गान करति सभी सज्जन मुनि उसका श्रवण करते । और महाकवि वाल्मीकि ग्रन्थ में मोक्ष का उपाय उल्लखित जाते ॥
अस बिरहणि के लखतइ लाखे । रैनी भइ दिन दिन भए पाखे ।।
पाखिहि बरस कोस मह रीते । बासत बन कछु समऊ बीते ॥
इस प्रकार विरहिणी माता सीता के देखते ही देखते, रयन दिवस में एवँ दिवस पक्ष परिवर्तित होते गए । पक्ष वर्ष के कोष में रिक्त होकर मास में परिवर्तित होते चले गए । इस प्रकार वन में निवास करते कुछ समय व्यतीत हुवा ॥
एहि किवंदती बन बन छाहीं । चर अचर सब बोल बतियाहीं ॥
हरषत करषत अस गुन गाई । अवध देस एक नारी आई ॥
और यह किवंदती वन के समस्त स्थलों में प्रसारित हो गई चर ( समस्त जीव) अचर ( नदी पहाड़ आदि ) आपस में बातें करते हुवे बहुंत ही अनुरागित एवं आनंद मग्न होकर ऐसे गुण गाते कि 'अवध नामक स्थान की एक नारी वन में रहने आई हैं'॥
हरियारी छाई, रे बन भाई, एक नीरज नयनि नारि ।
एक अवध निवासी के लउरासी सुमनस सौंह सुकुमारि ॥
भगत सिरोमनि त्रिभुवन पत दसरथ नंदन की प्रान समा ।
प्रियरन कारी की धनु धारी की अति प्यारी प्रियतमा ॥
अरे भाई ! जिससे सारे वन में हरियाली छा गई है, उस एक कमल सदृश्य नारी के जो की अवध देश की निवासी तथा समस्त कामनाओं का भंडार वह कुसुम के सरिस कोमल हैं ॥ भक्तों में श्रेष्ठ त्रिभुवन के स्वामी तथा दशरथ के पुत्र की तथा सबका हीत करने वाले धनुर्धारी वीर श्री राम चन्द्र की प्रियतमा एवं अर्द्धांगिनी हैं ॥
हंसा बदन अधरामृत बिहग बिहंगम हास ।
रूप सम्पद श्री बत्स भृत बसि बन केतन बास ॥
जिसका मुख रजत के सदृश्य श्वेत है अधरों पर अमृत है और जिसकी हँसी चन्द्रमा के सदृश्य अभूतपूर्व है । जग मोहन की यह रूप सम्पदा
आज वन के आश्रम में आ बसी है ॥
दया सुभाउ नेह नयन, बानी में मधु धूर ।
लउ लब्ध दर्सन जाके, दुःख दारिद हो दूर ॥
दया भाव से युक्त जिनका स्वभाव है, नयनों में स्नेह है जिनकी वाणी में मिश्री घुली है । उनके दर्शन मात्र जिसको प्राप्त हो जाएं उसकी तो दुःख दरिद्रता ही दूर हो जाए ॥
गर्भधरा अह राम बिजोगी । जोए जीव जनमन दिन जोगी ॥
जोग जनम भृत बच्छर भाऊ । तप चरनी सह बटु करि चाऊ ॥
इधर वह गर्भधरा श्रीराम चन्द्र जी से वियुक्त होकर गर्भस्थ जीवन के जन्म-तिथि की प्रतीक्षा रही थीं ॥ तपस्विनी के सह वटु भी वात्सल्य जनित भाव से उस गर्भस्थ जीव का चाव करते ॥
कंद मूल फल फुल के दोना। पलब् उड़ावन पलब् बिछौने ॥
जब जब अवध पुर सुरताई । जुगल नयन जल धार बहाई ॥
कंद-मूल, फल-फूल, का ही परोसा था । पल्लवों का ओढ़न, पल्लवों का ही बिछावन था ॥ माता को जब जब अवध पूरी क स्मरण हो आता । उनके युगल नेत्रों से जल की धार बहने लगती ॥
बहुस दिवस भए प्रभु मुख देखे । महरिसि ग्रन्थ रचित कर लेखे॥
करै सबहि सह चर के सेवा । असीर दय कभु कहि मुनिदेबा ॥
महाऋषि ग्रन्थ रचना कर उल्लखित करते कि प्रभु का मुख देखे धीआ को बहुंत दिन हो गए । माता जब सभी सहचरों की सवा-सुश्रुता मेन रत रहतीं तब कभी आशर्वाद देते हुवे महर्षि कहते : --
जब सों धिआ पाँउ तुम धारी । धन्य भूमि भै पंथ पहारी ॥
बन सोहन रूह राजित लाखी । सरल सुभाउनि कोमल भाखी ॥
हे पुत्रिका जब से तुमने इस तपोभूमि मेँ चरण धरें हैं । इस भूमि के पंथ पहाड़ सभी धनय हो गए हैं । हे को सुशोभित करने वाले वनरुह मेन विराजित होने वाली लक्ष्मी हे सरल स्वभाव हे कोमल भाषिणी ॥
हरि कर परिहर बासि यहँ, अह तुहरे हत भाग ।
तव चरन जुहारी जगै, बिपिन के सोए भाग ॥
हरि के त्याग पश्चात तुम यहाँ निवासित हो यह तुम्हारा दुर्भाग्य है । किन्तु तुम्हारे चरणों की जोहारी ( प्रणाम के बदले दिया गया आषीर्वाद ) प्राप्तकर विपिन के सोते भाग्य जागृत हो उठे ॥
मंगलवार, १ ८ जून, २ ० १ ३
स्वरूप संपद रनिबासन की । तपस्वनी भइ तपो बन की ॥
यह तपस्वनी, जिसका स्वरूप रानियों के प्रासाद का था , अब वह इस तपोभूमि की तपस्विनी हो गई थी ।। बरसों बरस वन में कष्ट की अग्नि में तिप्त कर देह को स्वर्ण किया , अब तुम पुन:तपस्या से क्षीण होकर उस स्वर्ण देहि को कुंदन किये हो ॥
जस अधजल घाघरी उछाही । नदि तरंग गति औरु गहाही ॥
फिर महर्षि ने माता के कल्याण हेतु देवगण के सम्मुख विनति की । इस विनती के परिणाम स्वरुप सघन विपिन में मंगल शोभा छा गई ॥ जैसे जल से आधी भरी घघरि छलकती है । वैसे ही नदी की तरंग कुछ और ही गति में उत्साहित हो चली ॥
महातिमह ग्रंथन रचनाकर । मनोजोग चिंतन रतनाकर ॥
अरथ उद्धरत बखत बिरताए । देखउत प्रसव काल नियराए ॥
महर्षि रत्नाकर( महर्षि वाल्मीकि का पूर्व का नाम) महातिम: ग्रन्थ की पूर्ण लगन से रचना करते हुवे वैचारिक चिंतन एवं अर्थ प्रयोजन उद्धृत करने में अनुरक्त रहते । देखते-देखते प्रसव का काल भी निकट हो आया॥
उदक अर्थ उद्कत उदगारा । धरी सरिताsअमृत जल धारा ।।
चंचल चपल चली बल खाते । कूल पूल कन कन खनकाते ॥
जल की आकांक्षा रखते हुवे उदगार स्थल से उत्साह पूर्वक सरिता जल की अमृत धारा, धारण किये बड़ी ही चंचलता एवं चपलता से युक्त होकर कठार पर जल के कण समूह को झंकृत कर बल खाती हुई प्रवाहित हो रही थी ॥
समऊ अति सुभ मंगल कारी । नवल जीउ जनमन अनुहारी ।।
सुर गन पैठए निज निज धामे । राम की जानि जनिमन जामे ॥
समय अत्यधिक शुभ एवं कल्याण कारी है । जो नव जीवन के उद्भव अनुकूल था दिवस अनुकूल था । देवताओं के समूह अपने-अपने लोक में जा पहुंचे थे । प्रभु श्रीरामजी की अर्द्धनिगिनी माता सीता जातक को जन्म दे रही हैं ॥
गर्भ धरा कर्निक कुटि ओटे । जनमन भए दौ जुगलित ठोटे ॥
संकुल सुर कर कौसुम साजे । गावत गुन गन गगन बिराजे ॥
गर्भवती, कर्णिक अर्थात पत्ते और शाखाओं की कुटिया के ओट में है । और दो युगल पुत्र जन्म ले रहे हैं। देव समूहों के हाथ में पुष्प सुसज्जित हैं । और वे श्री राम चन्द्र के गुणों की स्तुति करते हुवे गगन में विराजमान हैं ॥
ताप सीत घाम न ताम, भइ दिसि मंगलकारि ।
फुरित नयन कुसुमित परन बहि जब त्रिबिध बयारि ॥
न बहुंत उष्णता थी न ही बहुंत शीतलता थी न अत्यधिक धूप थी न अत्यधिक छाया जनित अंधेरा । सभी दिशाएं कल्याण कारी हो गई थी । पल्लव्, कुसुम से युक्त होकर प्रसन्नचित थे । जब शीतल मद्धिम सुगन्धित वायु प्रवाहित होने लगी थी और तभी
दुइ पद दुइ भुज वदन एक, जन्मे जुगल जुहान ॥
लतिक बल द्रुम दल आलय, तमस तटिनी मुहान ॥
दो पाद दो हस्त युक्त एक मुख लिए, लताओं से वलयित वृक्षसमूह वन में तामस नदी के कगार पर युगल जातक का एक साथ जन्म हुवा ॥
शनि, २२ जून, २ ० १ ३/ रविवार, ११ मई, २ ० १ ४
एक ही मात गरभ परकोटे । जन्मे दोइ तनय एक जोटै ॥
बरे जोइ दहु काय कलेबर । आपने तात भाँति मनोहर ॥
माता की एक ही गर्भ-परिधि में एक साथ दो पुत्रों क जन्म हुवा । दोनों ने जिस भाँती की कायाकृति वरण की हुई थी । वह उनके पिताश्री के जैसी ही मनोहारी थी ॥
सुने कानन दुहु सिसु हँकारा । प्रगसे मुनि मुख मोद अपारा ॥
करत आह जे कहै लहूरए। मात धूर निज पितु सों दूरए ॥
दोनों शिशुओं के जन्म की सुचना देते हुवे जब शिष्य गन ने गुरुवर वाल्मीकि को बुलाया । तब उनके मुख पर अपार प्रसन्नता प्रकट हुई ॥ और आह करते कहने लगे हे रे छूटके तुम अपनी माता के इतने निकट हो अपने पिता से कितने दूर हो ।।
बाल मुकुन के रोदन बानी । रवनए जस नदिया के पानी
नंदत बिटपबर पात हिलाए । हर्षे महर्षि बटुहु हरषाए ॥
भावार्थ: -- उस समय उन नन्हे बालकों की रुदन वाणी ऐसी थी जैसे की नदी का पानी कोमल मधुर ध्वनी उत्पन्न कर रहा हो ।। उसे सुन कर तरुवर मुदित होकर अपनी पत्तों को हिलाने लगे और महर्षि वाल्मिकी बाल मनीषियों के साथ रोमांचित हो उठे ।
जो को अनुपम बालक पेखें । रुप रासि गुन गिन गिन रेखें ॥
सकल बिपिन उर मंगल छाईं । माई कै तौ कही न जाई ॥
जो कोई भी इन अद्भुत बालकों को देखता वह इनकी सुन्दरता की राशि-समूह के गुणों को गिन गिन कर चिन्हांकित करता॥बालक के जन्म से समस्त उपवन शुभ लक्षणों से युक्त हो गया और माता ? उनके आनंद का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता ॥
किए जात करमन संस्कारा । पुनि महरिसि कुस लौ कर धारे ॥
एतदर्थ तिन्हनि के अधारे । जातक रूप सुभ नाउ धारे ॥
फिर महर्षि वामिकी ने कुश एवम उसके टुकङों को हस्तगत कर उन जातको के जात कर्म काण्ड किये । इस प्रकार उन कुश एवं उसके टुकङों के आधार पर उन जातकों के समरूप ही सुन्दर नाम रखे ॥
धरिअ महर्षि दोउ के नामा ॥ लव कुस अतुलित गुन धामा ॥
नाम करन बहु कीरति कारे । सोहत सुख जननी मुख धारे ॥
महर्षि वाल्मीकि ने दोनों बालकों का नामकरन क्रिया कर जो नाम रख़ा वह लव औऱ कुश था जो अतुल्यनीय गुणोँ का धाम स्वरुप कुल की कीर्ति करने वाला था वह माता के मुख पर उच्चारित होकर अति सुशोभित होता ॥
कम्बु कंठ कल कलित अधारे । धरअ अधर दुइ पत पउनारे ॥
पदमिन लोचन रोचन रूरे । मूंद मुकुल सम मोच प्रफूरे ॥
दोउ सिया के नैनन मोती । सूर बंस रघु के कुल जोती ।।
पिय परिहरु बन बासित किन्हें । सिया हिया पर सुत सुख दिन्हें ॥
शंख के समान सुन्दर ग्रीह्वा के आधार पर अधर इस भाँती विभूषित थे मानो ग्रीह्वा रूपि नलिनी मेँ द्वीपत्री नलिन शोभित होँ उनके दोनों नयन भि पद्म के सदृश्य ही सुन्दर एवम शोभवान थे इस प्रकार वे दोनों बालक जो माता सीता के नयनों के अश्रु कण स्वरूप थे , उस तपोभूमि में सूर्य वंशी राजा रघु के कुल के ज्योत रूप में जगमगाने लगे ॥ प्रियतम ने तो सीता का परित्याग कर वन का वासी बना दिया किन्तु पुत्रों ने उनके विरही ह्रदय को सुख से परिपूर्ण कर दिया ॥
भव भूयाधि भूर रघुबंस सूर दुइ कपूर कुल वर्द्धनी ।
मूर्द्धाभिषक्ति वैभव बिरक्ति रघुवर अंगिनी अर्द्धनी ॥
बिय बाल मुकुन्दे छद्मन छंदे दुइ पद पदुम चारि चरने ।
को अर्न बर्तिका बर्न बर्निका बर्नन बरनत न बने ॥
( इस प्रकार) पृथ्वी के सबसे बड़े अधिराज, रघु वंशी राजा श्री राम चन्द्र के कुल का वर्द्धन करने के लिए उस वंश के लोचन स्वरूप दो पुत्रों को श्रेष्ठ क्षत्रिय किन्तु वैभव से विरक्त रघुवर की अर्द्धांगिनी ने जन्म दिया ॥ दोनों बालक छंद का स्वरूप हैं जिसके दो पद और चार चरण होते हैं
कॊई भी अक्षर कॊई भी तुलिका कोई भी रंग की मसि से उनका वर्णन वर्णित नहीं किया जा सकता ॥
भव सागर रघु कुल मूल लिए दु कैरव अकार ।
दुनौ भइ भूषन सरूप, अस जस मनि मनियार ॥
संसार रूपी समुद्र में रघु कुल के वंश मूल से दो कुमुद प्रस्फुटित हुवे दोनों ही जगत के भूषण स्वरूप ऐसे हैं जैसे की दो मणि चमक रहे हों ॥
भएउ महराउ दुइ कुँवर, अवध वासी न जान ।
पाए दरसन बन गमनी, रुदन सुने नदि कान ॥
रघुपति राघव राजा राम चन्द्रजी के वीर्य से दो कुंवर उत्पन्न हुवे हैँ इस उदन्त से अवध के वासी अनभिज्ञ थे । और उनके दर्शन से रहित थे वनगमनी को ही यह सौभाग्या प्राप्त हुवा । नदी पर्वत सौभाग्य शाली थे उन्हें उन बालको की रूदन ध्वनि का प्रसाद प्राप्त हो रहा है ॥
सोमवार, १२ मई, २ ० १ ४
मुनि बसिष्ठ गुर मानहिं ताता । दिए रिसि सुत गुरु मानइ माता ॥
गए गुरुघर तात बय कुमारा । जात जनमै गुरु के ठियारा ॥
तात ने मुनिवर वशिष्ठ को अपना गुरु माना । माता ने महर्षि वाल्मीकि को गुरु मान कर बालकों को उन्हें समर्पित कर दिया । तात जा किशोरावस्था को प्राप्त गुरु के आश्रम दीक्षित होने गए । भाग्य का ऐसा फेर हुवा कि तात की संतति ने गुरु के गृह में ही जन्म लिया ॥
जाके नाउ धरत सुभ होई । संकट कटि गह पीर न कोई ॥
सोइ प्रभो के जनिक जनाई । अहो सौभाग मोरहि छाईं ॥
जिनका नाम धार्य करते ही कल्याण हो जाता है संकट कट जाते हैं जिनका नाम लेने से कोई पीड़ित नहीं होता ।अहो! यह मेरा सौभाग्य है कि उन्हीं प्रभु श्रीरामचन्द्रजी की संतति ने मेरे छाँव में जन्म लिया ॥
एहि बे प्रभु भैं बहुस उदारा । लखिनि पठोइ हमरेहि द्वारा ॥
बाल्मीकि अस बोल बतियाए । बालकिन्ह धरे गोद खेलाए ॥
इस समय कदाचित प्रभु अतिशय उदार हो गए हैं। उन्होंने साक्षात लक्ष्मी को ही मेरे गृह-आश्रम में भेज दिया ॥ महर्षि वाल्मीकि बालकों को गोद में खिलाते हुवे इस प्रकार वार्तालाप कर रहे थे ॥
सुनत रिसि बचन सिआ सुहाँसै । गहत सुहास तरुबरहु भासैं ॥
सुमनस बारि गगन ते होई । ब्रम्हानंद मगन सब कोई ॥
ऋषि वर के वचनों को श्रवण कर उस समय माता वैदेही सुहासिनी स्वरूप हो गई । उनके मृदु हास को ग्रहण कर तरुवर भी मुखरित हो उठे । और उनपर से झड़ते हुवे फूल ऐसे प्रतीत होते जैसे गगन से कोई पुष्प वर्षा कर रहा हो और समस्त सृष्टि परम आनंद में निमग्न हो गई हो ॥
ध्वज पताक तोरन न, बने द्वार अलिंद ।
धाएँ सहज शृंगार किएँ, नाहिं भामिनी बृंद ॥
ध्वजाएँ थी न पताका तोरण था न ही द्वार रचे गए थे । न ही सुन्दर स्त्रियों के समूह सहज श्रृंगार किए दौड कर उन बालकों के स्वागत हेतु उत्सुक थीं ॥
मंगलवार, १३ मई, २०१४
कनक कलस नहि मंगल थारा । बटुक भेस भरि भूप दुलारा ॥
पितु बिनु कवन निछावरि करहीं । बलिहारी जनि आरती तरहीं ॥
सरबस दान दीन्ह को काहू । पाए केहि अरु को हुलसाहू ।।
न अवधी न अवध पुरी साजी । नाहि मह राउ धानी भ्राजी ॥
मंदिर षंड न गिरि मनियारे । बिनु गायक को गाए पँवारे ॥
जात जनाउ उदंत बिनु पावा । पुरौकस कैसेउ दय बधावा ॥
को गुरु बशिष्ठ देइ हँकारे । कहाँ द्विज कहँ देखनहारे ॥
कहँ परिजनन्हि कहँ महराऊ । बोलाइ कहे बाज बजाऊ ॥
करत पालकी दुइ पलक पालि झुलावै कौन ।
कहँ गोद कहँ गोदनहर, लाड लड़ावै कौन ॥
राहित बचन सकल भूराई । मात उरस आनँद ही छाई ॥
जब जब जनि दुहु सुत मुख देखे । निज बिरहा दुःख दुःख नहि लेखें ॥
मात भुजांतर सुत के सौहा । भोगि तात उर दोइ बिछोहा ॥
बिरते मास छ घुटुरन चारे । जननी नयन निहार न हारे ॥
मोदत मंदर सुन्दर जोरी । दरसन छबि जस चाँद चकोरी ॥
कभु को कर कभु को कर लीना । पलै पलन पर पाल बिहीना ॥
दोनों बालकों का जोड़ा ऐसा सुन्दर था कि दर्पण भी मुग्ध हो उठा और उनका दर्शन प्रतिबिम्ब ऐसा हो गया मानो चाँद स्वरूप बालकों को दर्पण रूपी चकोर निहार रहा हो ॥
केतु राग लिए गालु ललाईं । तूरज तेजस माथ धराईं ॥
गोदी राख दुहु हृदय लगाए । स्त्रबत पयस् पे पयद सुहाए ॥
कंद मूल फल भोजन दीन्हि । ठोट पोठ परिपोषित कीन्हि ॥
पूजित प्रतिमा प्रिय प्रतिमुक्ता । बिरहनु भुक्ता सुत संयुक्ता ॥
जाट मात जो बान्ध बँधावै । वाके बरनन बरनि न जावै ॥
जेइ बाल कल चरित अनूपा । प्रभु प्रतिमुख प्रतिमित रूपा ॥
मनोज ओज कोटिकम् । सुवर्ण मेघ मण्डलम् ॥
पयस मयूख मोहितम् । सुषम् सुमुख सुसोहितम् ॥
तेजतस् तिलक तूलं । लसित लस ललाटूलं ॥
सुदेश केश लोलितम् । लोल घट वयवालकम् ॥
शीर्ष जटा मण्डलम् । कला कलित कुंडलितम् ॥
धृत ग्रीह्वा कम्बुकम् । कृतक कलश कलेवरम् ॥
श्रुति साधन विभूषितम् । पुट प्रसादन पुष्कलम् ॥
लावणमयी लोचनम् । पुष्पित पद्म पुष्करम् ॥
अश्विनी: कुमार सम । मुनिर वेश वेष्टितम् ॥
धनुर धरा विधायकम् । वेधस् गुरुर् दायकम् ॥
महेश शेष शारदा । स्तोत् प्रिय सुधी बुधा ॥
सर्वतो भावेन त्वं । स्तोमया स्तोभितम् ॥
एक रूपउ दुहु बाल लगे प्रानइ तेहु प्रिय ।
जे सुत राम कृपाल बटु सों बयो बिरध मुनिहि।।