बोले सुमति बचन ए हितप्रद । सस्त्रास्त्र विद जुद्ध बिसारद ॥
महाराज यहँ सब बिधि केरे । पुष्कलादि रन बीर घनेरे ॥
होत उपनत अधिकाधिकाई । लएँ लोहा रिपु संगत जाईं ॥
बायुनन्दन बीर हनुमाना । अहहि सूरता सन धनवाना ॥
देहि बिसाल बजर सब अंगा । एतएव जाएँ भिरे नृप संगा ॥
रिपुदल गंजन घन समुदाई । प्रबल पवन इब करिहि पराईं ॥
कहत सेष महमति महमाता । एहि भाँति जनावत रहि बाता ॥
तबहि समर भू भूप कुमारे । धुनुरु टँकार चरन पैसारे ॥
पुष्कलादि बीर बलवन भूमि बिलिकत ताहि ।
निज निज रथोपर रोहित धरे धुनुरु बढ़ि आहि ॥
बृहस्पतिवार, २५ फरवरी, २०१६
भिरिहि परस्पर समबल जोधा । कौतुक करत लरइ करि क्रोधा ॥
अस्त्र कोबिद भरत कै बेटा । करिअ गरज चम्पक तै भेंटा ॥
रच्छित महाबीर जी ताईं । द्वैरथ रन नीति अपनाई ॥
इत लख्मीनिधि जनक कुमारा । रन उछाह उर भरे अपारा ॥
बालसील कुस धुजा ले संगा । गरजत भिरे मोहक प्रसंगा ॥
बिमल रिपुंजय देइ हँकारी । दुर्बारन्हि सुबाहु पचारी ॥
बलमोद ते बालि सुत भिरेउ । प्रतापागरय प्रतापी तेउ ॥
नीलरतन लरि हरयछ संगा । सहदेउ सत्यवान प्रसंगा ।।
महबलबंत बीर मनि राई । भूरिदेउ ऊपर चढ़ि आई ॥
असुताप लड़ भिरन बढ़ि आवा । उग्रासय ता संग जुझावा ॥
ते सबहि सूर नीति मत कर्म कुसल सब कोइ ।
आयुधि कर बिद्या संग बुद्धि बिसारद होइँ ॥
कूदि माझ मुनि भूमि बहोरा । करिहि द्वंद जुद्ध घन घोरा ।
मारु मारु धरु धुनि नभ छाईं । एहि बिधि बेगि सुभट सब धाईं ॥
हाहाकार मचइ घमसाना । निपतिहि आयुध कुलिस समाना ॥
बहुतक कटकु गयउ संहारी । परेउ जब प्रतिपख अति भारी ॥
पुष्कल आनत कटक सँभारे । चम्पक पुर बहु करक निहारे ॥
जोधन पुरबल पूछ बुझाईं । कहु निज नाम जनक कर भाई ॥
धन्य तुम्ह तव करौं बढ़ाई । ठानिहु जो मम संग लराई ॥
बीरबर कुल नाउ के ताईं । यहां लराइ लरी नहि जाई ॥
तथापि मोर नाउ सुनि लीजो । कुल अरु बल के परचन कीजो ॥
बोले चम्पक ऐसेउ बिनए बचन के साथ ।
मोरे बंधु बाँधो अरु जनक जनी रघुनाथ ॥
अहहीं रामदास मम नामा । राम बसे जहँ तहँ मम धामा ॥
रघुनाथहि मोरे कुल देवा । प्रनमत ताहि करौं नित सेवा ॥
रघुकुल कीरति कीरति मोरी । मम बिरदाबली कछु न थोरी
पहुमि पहुमि रन सिंधु अपारा । भगत कृपालु लगाइहि पारा ॥
जे हरि परिजन हिलगन कहेउँ । लौकिक दीठि परचन अब देउँ ॥
राजाधिराज सुरथ मम ताता । पूजनिआ बीरबती माता ॥
अहहीं तरु एक नाउ धर मोरा । ता संगत सोहित चहुँ ओरा ॥
बसंत रितु तरु फुरित बिकासी । तासु पुहुप जस रस कै रासी ॥
तथापि मधु मोहित मधुप त्याजत तासु निकट न आवहीं ।
ताहि जोइ कहत पुकारि सोइ मनहारि नाउ मम अहहीं ॥
भाल भिड़ंत कि सर संग्राम मोहि जीत सकै सो कोउ नहि ।
अजहुँ मैं दिखाउँ तोहि जे अद्भुद बिक्रम मम बाहु गहि ॥
बरनन केरे ब्यंजन बातन के पकवान ।
रसियात अघात पुष्कल कर कोदंड बितान ॥
शनिवार, २७ फरवरी, २०१६
आगत तुरई भूमि मझारी । लगे करन कोटिक सर बारी ।
गहे चाप पुनि पनच चढ़ावा । चम्पकहु बहु कोप करि धावा ॥
बहुरि बिदारत रिपु समुदाई । तीछ बान लख धरत चलाईं ॥
गाजिहि बहु बिधि धुनि करि नाना । जाहि श्रवन कादर भय माना ॥
इत पुष्कलहु बान बौछारें । पलक माहि सब काटि निबारे ॥
देखि चम्पक त भए प्रतिघाती । बाँध सीध पुष्कल कर छाँती ॥
संधान छाँड़ेसि सत बाना ।पुष्कल ताहिअ तृण तुल जाना ॥
बन बृष्टि पुनि करिअ प्रहारा । टूक टूक करि दिए महि डारा ॥
निज धनु कीन्हि बलाहक सायक बिंदु अपार ।
गरजत गगन सों निपतत भए जिमि धारासार ॥
सोमवार, २९ फरवरी, २०१६
देखि बान झरि निज पुर आईं । साधु साधु कह करिहि बढ़ाईं ॥
चम्पक कर सर छूटत जाहीं । कीन्हि घायल भल बिधि ताहीं ॥
चम्पकन्हि बीरता जब जाने । पुष्कल ब्रम्हास्त्र संधाने ॥
चम्पकहु कछु थोर न अहहीं । सस्त्रास्त्र बिदिया सब गहिहीं ॥
जानि अबरु उपाय नहि कोई । छाँड़ेसि ब्रम्हास्त्र सोई ॥
दुहु अस्त्र कर तेज एक जूटे । जरि जवलमन जलन कन छूटे ॥
कहिहि पुरजन एकहि एक ताईं । लागिहिं प्रलयकाल नियराईं ॥
दोउ तेज जब भयउ एकायन । चम्पक करि देइ ताहि प्रसमन ॥
पुष्कल चम्पक केर यह अद्भुद कर्म लखाए ।
ठाढ़ रहु ठाढ़ रहु कहत अनगन बान चलाए ॥
बुधवार, ०२ मार्च, २०१६
चम्पक घात करत परहेले । पलक प्रदल दल देइँ सँकेले ॥
प्रतिहति रामास्त्र परजोगे । त सर सर करिअ पनच बिजोगे ॥
आवत देखि बान भयकारे । काटन तिन करि रहब बिचारे ॥
तबहि फिरैं सो आनि सकासा । बँधि पुष्कल रन कौसल पासा ॥
चम्पक पुनि भुज बल दिखरायो । कासि तासु निज रथ पौढ़ायो ॥
भट बरूथ बँधेउ पत जाने । हार नुमान लगइँ डेराने ॥
मरति बार जस काल हँकारी । हाहाकार करिअ अति भारी ॥
सत्रुहन पहि जब गयउ पराना । देखत पूछिहिं हे हनुमाना ॥
मोरि पताकिनी बिजय बिलोकनी कमनिअ कोदंड धरे ।
बीर आभूषन पताका बसन संग बहु सिंगार करे ॥
कर कंचन दल पुनि केहि सों केहि कारन ब्याकुल भई ।
बोलि नीति पूरित बचन हनुमन तब बीर रिपुहंत तईं ॥
चम्पक अनि परचार पुष्कल बाँधि लेइ गयउ ।
निज दल हार बिचार सब कंचन कल कल करिहिं ॥
सुनि अस बचन जरिअ करि क्रोधा । रिपुहं बोलि लेउ प्रतिसोधा ।
यह हनुमान तुम अतुरै जाहू । भरत कुँअर तुर लाइ छंड़ाहू ॥
साधु कहत बिनु पलक गवाईं । मोचन हेतु चले कपि राई ॥
कुँअरु बिमोचन आगत देखा । चम्पक मन भए कोपु बिसेखा ॥
सतक सहस छाँड़े सर लच्छा । चलेउ नभ निभ सरप सपच्छा ॥
गहे गगन कर ताल पसारे । खंड खंड करि छन महि डारे ॥
बहुरि लमनाइ करिअ बिसाला । मारि देइ कर गहि एकु साला ॥
चम्पक रहि बलवंत न थोड़े । महाबीर हनुमन के छोड़े ॥
काटि साल करि टूक टूक तिल प्रवान तुल जान ।
गहेउ पुनि बहुंतक सिल खंड छेप लगे हनुमान ॥
शुकवार, ०४ मार्च २०१६
ताहि सबन्हि धूरि करि डारा । हनुमन उर भए कोप अपारा ॥
एहि बलबीर बिक्रमि बहुताई । ए सोच करत तासु पहिं आईं ॥
रजबल रासि कासि गहि हाथा । लिए उड़ि गयउ गगन निज साथा ॥
चम्पकहु ठाढ़ ताहि प्रसंगा । लगेजुझन तहहीं ता संगा ॥
हनुमन करन लगै मल क्रीड़ा । किए चोटिल चम्पक दए पीड़ा ॥
ता सम्मुख पुनि बल दिखरावा । हाँसत कासत गहि एकु पाँवा ॥
सटक बार नभ फेरि फिरायो । देइ पटकि गज कुण्ड गिरायो ॥
धरा सयत मुख मुरुछा छाई । तासु कटकु दल तब अकुलाई ॥
तेहि समउ हाहाकार करहि घोर चिक्कार ।
धावत छतवत गयउ जस गिरिहैं कतहुँ पहार ॥
देखि सुरथ हत सुत महि पारा । स्रबत देहि रुधिर की धारा ॥
चढ़ि रथ गयो हनूमन पाहीं । कहत ए बचन सराइहिं ताहीं ॥
अहहउ धन्य तुम्ह हनुमाना । तुहरे बिक्रम न जाइ बखाना ॥
तीन तैं रुधिरासन पुरि जारे । रामचन्द्र के काज सँवारे ॥
ताहि सँगत कछु न सँदेहा । तुम बत्सल हरि परम स्नेहा ॥
तुहरी सेवा केरि बड़ाई । केहि भाँति सो कहि नहि जाई ॥
मम सुत जस महि दियो गिराईं । सूरपन हुँत कहौं का भाई ॥
मारिहु अस भट केतनि केता । कपिबर अब तुम होउ सचेता ॥
एहि समउ बाँध निज नगर लै जैहौं में तोहि ।
जो कहा सो सत्य कहा, यहु मोरे प्रन होहि ॥
रविवार, ०६ मार्च, २०१६
बिनित बचन बोले हनुमाना । हे भूपत हे बीर महाना ॥
तुम हरि चरनहि चिंतकहारी । मैं दास मैं पंथ अगुसारी ॥
भले मोहि लए जाहु बँधाई । मोर प्रभु तव सोंह बरियाई ॥
तोर हाथे मुकुति दिलइहीं । किजो सोइ जो तव मन चइहीं ॥
करौ बचन अरु निज पन साँचा । बीएड निगम निगदन अस बाँचा ॥
रामचन्द्र सुमिरत जो कोई । ताहि कबहु कछु दुःख नह होईं ॥
कहत सेष सुनु मुनि बिद्वाना । पवन तनय कहि बात दै काना ॥
पुनि पुनि सुरथ कीन्हि बड़ाई । किए तर तेजस सान चढ़ाईं ॥
धरे कोदंड कास कर सीध बांध नरनाह ।
भए हताहत अस हनुमत मुख सों निकसि न आह ॥
मंगलवार, ०८ मार्च, २०१६
निसरिहि रुधिरु ताहि परहेले । झपटि धुनुरु किए खन खन खेले ॥
भंजिहि ताहि पनच के साथा । भूपत दूसर धनु गह हाथा ॥
हनुमत पुनि नृप बाह मरोड़े । रोष बदन तनाक दए तोड़े ॥
एहि बिधि कुल असीति धनु षण्डा । हनुमन के कर भयउ बिखंडा ॥
छन चन भरि उर कोप अपारा । गर्जहि घन सम बारिहि बारा ॥
तब नृप सींवातीत रोष कर । साधि सासन सक्ति भयंकर ॥
खात घात निपते हनुमाना । तनिक बेर उठि ठाढ़ि बिहाना ॥
लोहित नयन ज्वाल कन भरे। रोक पथ प्रपथ सुरथ रथ धरे ॥
द्युति गति सम बेगि बहु, उड़ि लए गयउ अगास ।
जाइ सुदूर छांड दियो सिथिर कियो बँध पास ॥
गरज आन रथ चढ़ि खिसिआना । बढे बेगि रबि प्रभा समाना ॥
फरकत अधर संग कपिराई । किए बिध्बंसित ताहि तुराई ॥
एही बिधि नृप के रथ उनचासा । खेलहि खेल करिअ बिनासा ॥
सुरथ जब अस बल बिक्रम देखे । होई गयऊ चित्र सम लेखे ॥
कहि बीर तव कर्म असि होईं । करे न करिहीं अबरु न कोई ॥
अधुनै तुम्ह पलक हुँत होरहु । लखिहौं साखि बाहु बल मोरहु ॥
खैंच धनुष मैं रसन चढ़ावा । तुम्ह पवन कर तनय कहावा ॥
हरि पद पदुम अरु तुम्ह चंचर । कहत सुरथ मुख ज्वाल मुखि कर ॥
बहुरि भयंकर बान महुँ पसुपतास्त्र निधान ।
लच्छ अनुमान करन लग छाँड़े रसन बितान ॥
बुधवार, ०९ मार्च, २०१६
लखतहि लखत लोग कहैँ हाए । पशुपतास्त्र सो गयउ बँधाए ॥
सुमिरत राघव तब मन मन ही । बँधे पास हनुमत तत छन ही ॥
सहसा बँध होइ गयउ बिभंजित । किए लरईं पुनि होत बिमोचित ॥
देखि मुकुत मह बलबन माने । भूपत बम्हास्त्र संधाने ॥
धावत द्रुत आयउ सकासे । महाबीर हँसि करिअ गरासे ॥
देखि भूप सुमिरत रघुराई । दास सहुँ रामास्त्र चलाईं ॥
बोले हनुमन सों बहु भयऊ । कपिबर अजहुँ तुम्ह बँध गयऊ ॥
सियापति राम मम गोसाईं । बाँधिहु तिनके आयुध ताईं ॥
जिनके प्रति आदर मन मोरे । बोले हनुमन दुहु कर जोरे ॥
बंधेउ और न कोउ उपाई । तुम्हिहि कहउ करौं का भाई ॥
दीन दयाकर आपहीं सम्मुख प्रगसित होंहि ।
निज आयुध का पास सों लेइ छड़ाइहि मोहि ॥
शनिवार, १२ मार्च, २०१६
हनुमन नृपु कर गयउ बँधाई । पुष्कल समाचार जब पाईं ।
नयन अँगीरी भरे अँगारे । सिखर सरासन भुज बल सारे ॥
सम्मुख परम कोप करि आवा । देखि भरत नंदन नियरावा ॥
अष्ट बान बधि करिहि स्वागत । छाँड़ेसि सहसै सोइ प्रतिहत ॥
दोनउ दिब्यायुध धनु धारिहि । मारिहि एक एकु काटि निबारिहि ॥
किए अघात दुहु मंत्र पठंता । एक हति होए त दुज प्रतिहंता ॥
धावहि दुहु चिकार अति घोरे । करिहि सघन रन धनु रजु जोरे ॥
छाँडिसि पुनि नृपु एकु नाराचा । धरे दंत जिमि बिकट पिसाचा ॥
काटि चहे पुष्कल जब ताहीं । आनि बेगि धँसेउ उर माही ॥
रहैं कुँबरु तेजस बहुताईं । तथापि घात सहे न सकाई ॥
गिरे भूमि मुरुछा गहे छाए नैन अँधियार ।
पाए अरिहन एहि उदंत अचरज भयउ अपार ॥
तदनन्तर अनुचर तहँ आईं । देखि बाजि पुनि गयउ बँधाई ॥
पूछिहि लव सों सुनहु ए आजू । भए केहि पर कुपित जमराजू ॥
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