Wednesday, 9 March 2016

-----॥ हे राम ! ॥ -----


>> तपसी धनवंत दरिद्र गृही । कलि कौतुक तात न जात कही ॥ 
तपस्वी धनवंत हो गए हैं बहुंत धन लगाकर कुटिया बनाते व् उसको सजाते हैं । हे तात ! कलयुग की लीला कुछ कहि नहीं जाती ॥

>> द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन । को नहीं मान निगम अनुसासन ॥ 
द्विज वेदों का व्यापार करने लगे हैं  राजा सी प्रजा को खाने दौड़ते हैं कहते हैं हम व्यापारी हैं क्या !

जाकें नख अरु जटा बिसाला । सोई तापस पसिद्ध कलिकाला ॥ 
। जिसके लम्बे लम्बे नाख़ून व् विशाल जटाएं हैं कलियुग में वही साधु संन्यासी है ॥

धनवंत कुलीन मलीन अपी । द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी ॥ 
धन से ही लोग मलीन व् कुलीन माने जाते हैं । ब्राम्हणों का चिन्ह जनेऊ मात्र रह गया । नंगे रहना तपस्वी का ।  
मातु पिता बालकिन्ह बुलावहि । उदर भरे सोई धरम सिखावहिं ॥ 
माता-पिता बालकों को वही धरम सिखाते हैं जिससे पेट भरे


----- ॥ गोस्वामी तुलसी दास ॥ -----




1 comment:

  1. राजू : -- हाँ तो और न व्यास पीठ अब पार्टी बाजी की पीठ हो गई है.....

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