फरकिहि लोचन कोप उर छाए । चढ़े रथ तुरत सुरथ पहि आए ॥
कहि तुम्ह बर बिक्रम दिखराहू । पवन तनय गहि लियो बँधाहू ॥
मोर सुभट गिराए कहँ जइहउ । तेजस तीर अजहुँ उर खइहउ ॥
सुनी अस बीरोचित सम्भाषन । चिंतत हरिपद नृपु मन ही मन ॥
कहि तुहरे दल सकल प्रधाना । पुष्कल कि महबीर हनुमाना ॥
घाउ बजा बहु धरनि गिरायउँ । अब तुम्हरे सोंह मैं आयउँ ॥
सुमिरन रत रघुपत पथ जोहू । जो इहँ आगत रखीहि तोहू ॥
न तरु जुझत मम पौरुष सोही । तुहरे जीवन जतन न होंही ॥
अस कह घात घायल किए, चले सहस सर जूथ ।
कासि सरासन रिपुहनहु, निरखत तेहि बरूथ ॥
रविवार, १३ मार्च, २०१६
अग्नास्त्र चढ़ि बढ़तहि जाहीं । प्रतिहन बान दहन करि चाहीं ॥
दाह सिली मुख जस असनाई । भयउ समित बरुनास्त्र ताईं ॥
कोटि बन छित छतबत कीन्हि । देह समाउ घाउ घन दीन्हि ॥
गहिरिपुहंत बहुरि कोदंडा । साधिहि मोहनायुध प्रचंडा ॥
अदुयायुध जौं चले अगासा । बँधेउ बीर समोहन पासा ॥
नीँद निमगन भयउ सब कोई । अहहिं कहाँ कछु चेत न होई ॥
निरख तेहि सुमिरत भगवाना । भूपत पुनि एहि बचन बखाना ॥
हरि सुमिरन मोरे मन मोहा । जग मोहन को औरु न होहा ॥
श्रुत अस रिपुहन सो अस्त्र भूपत ऊपर छाँड़ि ।
काट ताहि महि डारि दिए, ता सम्मुख जब बाढ़ि ॥
मंगलवार, १५ मार्च, २०१६
सार बहुरि एकु बान ब्याला । दंड दहन मुख कनक ज्वाला ॥
लच्छ करी नृपु सीध बँधावा । पाए पवन संग द्रुत धावा ॥
पहुँचिहि तहवाँ पुरबल ताहीं । अरिहं काटि दिये मग माही ॥
टूटत भाल हिलगत सरीरा । उरसिज भीत धँसे दे पीरा ॥
खात घात उरु मुरुछित भयऊ । हहरात रथोपर गिरि गयऊ ॥
हाहाकार करत कटकाई । बिथुरत इत उत गयउ पराई ॥
दसउ सुतहु रन कार प्रसंगा । बरत दीप जिमि जरत पतंगा ।
भयउ सकल हतचित सम ताहीं । रहेउ परे कतहुँ महि माही ॥
चलिअ पराई सकल कटकु निज पत मुरुछित पाए ।
सुरथ सन रन करमन तब हरीसु आपहि आए ॥
बुधवार, १६ मार्च, २०१६
रथ हय हस्ती कतहुँ पयादू । चितब ताहि मन भरत बिषादू ॥
कहि बात एहि बोले कपीसा । संग्राम बीर हे अवनीसा ॥
तोषित कतहुँ अब चलिअ न जैहौ । आगति मम सो लौह न लैहौ ॥
डार सहित बर बिटप उपारे । जौं कह बरियइ सिरु दे मारे ॥
महबली भूप चढ़त अघाता । कपिबर पुर एक दीठ निपाता ॥
बहोरि धार तीछ मुख बाना । पाऊच परच देत संधाना ॥
हरिदय द्वार पटल पबारिहि । हरीसु हँसवत काटि निबारिहि ॥
निरख नृप सो बीर बरबंडा । नख बिदार परबत सिखि खंडा ॥
छेप बिटप बहु चोट दिए गहि नृपु घाउ अतीउ ।
रामास्त्र चलाईं पुनि, बँधाए गयो सुग्रीउ ॥
शुक्रवार, १८ मार्च, २०१६
कहत अहिनाथ सुनहु मुनिंदा । परे राउ बँध पास कपिंदा ॥
होइ गयउ तब यह बिस्बासा । अहहि सोए रघुबर सत दासा ॥
पहिर पवन पुनि दंड सलाका । प्रहरिहि नृपनिहि बिजै पताका ॥
सकल दल बीर प्रतिपख केरे । होत प्रमद बहु प्रतिपद घेरे ॥
महारथी रथोपर पौढ़ाए । पैहत जय निज नगर लेवाए ॥
बैठि सभा गृह तहवाँ जाई । रहि सौमुख हनुमंत बँधाई ॥
मद उन्मत ता सों एही बरना । सुमिरौ तुम्ह अजहुँ हरि चरना ॥
दीन दयाकर भगत कृपाला । काटिहि तव बंधन तत्काला ॥
सुनि निपु बचन बीर हनुमंता । देखि सहित निज बीर बधंता ॥
प्रभो दयाल दीन निज जानी । किए अस्तुति मन अस जुगु पानी ॥
हा राम रमेस रघुबंस मनि हा कमल नयन सीता पते ।
भगतारत दाहत ता ऊपर तुम्ह अकारनहि प्रसीदते ॥
भलमन साईं जगत हिताई सबहि बिधि कीन्ह भलो ।
कृपा भलाई आपनी नाथ अब मोहि छँड़ाई ल्यो ॥
कोटि प्रभा श्री मुख सुशोभित तापर रुचिरु कल कुण्डलम् ।
मनहर रूपु धारी पुरुषोत्तम मोचिहु मा अविलम्बम् ॥
दानव कुल अगनित ज्वलन सों जरते देवन्हि रच्छिते ।
ताहि अर्द्धांगिनी सिरो अस्थित केस बँध सम्मोचिते ॥
मुनिरु समाजा राजाधिराजा पूजिहि तव चरन कर गहे ।
एहि औसर मुनि सों जाग कर्म रत तुम धरम विचार रहे ॥
महपुरुष हे देउ सुरथ तैं इहाँ मैं गाढ़ बँधाए गयो ।
अब बिलम न कीजो मम सुधि लीजो आन मोहि छँड़ाए ल्यो ॥
जो तुम्ह हमहि मोचित न कीजो त जगत मुदित उपहासिहि ।
अब प्रगसु कृपाला दीन दयाला कर जोर हनुमंत कहि ॥
कृपा निधान जगद्पते जब निज दास केरि पुकार सुने ।
दे अस्तुति काना चढ़त बिमाना चले तुरत नाथ मुने ॥
हनुमन सौमुख निज नयन भगवन आगम देखि ।
पाछु लखन भरत मुनिगन गहियउ सुहा बिसेखि ॥
शनिवार, १९ मार्च, २०१६
निरखत आवत निज गोसाईं । बोले पवन तनय हे राई ॥
देखु भगवन दया बस आईं । निज भगतन तुर लेहि छँड़ाई ॥
पुरबल जेहि बिधि सुमिरन तेइँ । बहुतक भगत जस छुटाए लेइ ॥
कीन्हि बिमोचित संकट सोहि । तेहि बिधि आजु छड़ावन मोहि ॥
सुनहु भूपत द्वार तिहारे । मोर प्रभो पद आन पधारे ॥
पैसि राम तब एकहि निमेसा । प्रेम मग्न भए निरख नरेसा ॥
धरिहि चतुर भुज रूप अनूपा । बाहु पसार गहइँ लिए भूपा ॥
कासत लेइ लगाइहिं छाँती ॥ निपति पलकिन्हि अलकन पाँती ॥
नेह घन केरे बरनन जाइ न केहि प्रकार ।
होए अस आनंद मगन गिरि अँसुअन के धार ॥
सोमवार, २१ मार्च, २०१६
निसिरिहि अँसुअन भीजहिं माथा । धन्य तुम्ह बोले जगनाथा ॥
तोर बल जस बिक्रम दिखरावा । औरु कतहुँ अस देखि न आवा ॥
बलबन ते बलबन हनुमाना । ताहि गहै तुम लेउ बँधावा ॥
बाँधनी हार बाँध निहारे । मोचनहारी बाँध निवारे ॥
जेत सुभट अरु मुरुछा पावा । दया दीठि धरि ताहि जियावा ॥
परत दीठि सबहीं कटकाई । उठी बैठि मुरुछा बिहुराई ॥
देखि नयन सौमुख जगभूपा । धरिहि चतुर भुज रूप अनूपा ॥
चितइ चितबत भौंह करि बाँकी । रघुबर केरि मनोहर झाँकी ॥
पूछि कुसल तब होइ सुखारी । गहे चरन कहि हे असुरारी ॥
भई नाथ बहु कृपा तिहारी । आन इहाँ सुधि लियो हमारी ॥
सुरथ राजु सहित समाजु ता सम्मुख अवधेस ।
लागि कंठ मिताई किए बयरु नहीं लवलेस ॥
बुधवार, २३ मार्च, २०१६
परस चरन मुख दरसन कीन्हि । सकल राज नृपु अरपत दीन्हि ॥
कहे तुहरे संग रघुराई । अह मम सोहि होइ अन्याई ॥
मोरि ढिठाइ हरिदय न लीजो । अनगढ़ जान छमा कर दीजो ॥
कहि भगवन तव दोष न कोई । छतरी केर धर्म एहि होई ॥
सेवक हो कि होउ गोसाईं । सब तें कीन्हि पड़िअ लड़ाई ॥
बीरन्हि तृषा एहि संग्रामा । तोषत तुम्ह करिहु बड़ कामा ॥
सुनत सुरथ भगवन कै भनिता । पूजेउ चरन निज सुत सहिता ॥
तहँ प्रभु तीनि दिवस लग होरे । माँगि बिदा पुनि दुहु कर जोरे ॥
इच्छा चारी जान तैं चले बहुर रघुनाथ ।
प्रयापत पुरजन चितवहिं चित्रबत चितवन साथ ॥
नाथ नगरि सों होइ परावा । जाइ नयन सन फिरि फिरि आवा ॥
मनोहारिनी कथा सरिता । ताहि कीरत जस पयस पुनिता ॥
लागिहि कथन श्रवन सबु लोगा । पावहिं बिनु बिराग जपु जोगा ॥
धरम पंथ जहँ मरिहि तिसाईं । किए कीरत तहँ पिअत अघाईं ॥
तदनन्तर बलबन सो राया । चम्पक सिंहासन पौढ़ाया ॥
सौपत नगर राज कर दीन्हि । आपु बिचार जाइ सन कीन्हि ॥
इहाँ रिपुहन तुरंगम पाईं । हरषत पनब भेरि बजवाईं ॥
पूरयो संख सब मुख साजे । धूनि करत बहु बाजनि बाजे ॥
गाजत सँग भट ठानत मन हट अरिहन महराज चले ।
तुरग तेज तर करत अगुसर सँगत राजाधिराज चले ॥
साथ सुरथ लह देस देस मह दहुँ दिस भरमत रहे ।
सुरत वध पत कतहुँ कोउ बलबंता ताहि न गहे ॥
अहि बिधि जाइ चमुचर चलिअ बिजए मद माहि ।
आगे भयऊ आनि सो केहु सपन नहि आहि ॥
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शुकवार, २५ मार्च, २०१६
पुनि एकु दिन जब भए भिंसारे । हीरमुकुत मनि किरन सँवारे ॥
उतरिहि रबि रथ सारथि संगा । होइ गतागत गगन बिहंगा ॥
लेपत चहुँ पुर प्रभा प्ररोहा । पलल्वत जगत अति मन मोहा ॥
सरनि सरोज बिटप दल फूरिहि । रचित रुनित रजनी जल झूरिहि ॥
फिरत तपोबन हय पथ भूला । भँवरत आयउ तमसा कूला ॥
जँह मह रिषि बाल्मीकि जी की । रह घिरि कर्नक कुटिया नीकी ॥
उधर उस तपोवन में यज्ञ का अश्व पथ भूल गया ,और वहां जा पहुंचा जहाँ तमस नदी (जो गंगा में जा मिलती है ) के किनारे महर्षि वाल्मीकि जी का पत्तों,टहनियों एवं शाखाओं से घिरा सुन्दर आश्रम था ॥
मह मह रिषि मुनि तहाँ निवासिहि । हविर धूम बर बियत सुवासिहि ॥
जम जात तहँ जानकी जीके । स्यामल गौर छबि बहु नीके ॥
भरी भोर जेठ सुत लव, रुचिरधनुष धृत हाथ ।
जोग समिधि ल्यावन बन गयऊ मनु सुत साथ ॥
सुबरन मई पतिया चीन्हा । तुरग तिन्हनि दरसन दीन्हा ॥
धौल बरन तन करन स्यामा । मनिमय किरन नयनाभिरामा ॥
अष्ट गंध लह सह कस्तूरी । गंधत मधुर मधुर मृग भूरी ॥
सुगठित गात चरन गति तूरी । चलत उठत कंचन सम धूरी ॥
देखि ताहि कौतुक जनाई । बोले सुकुंवर मुनि सुत ताईं ॥
तुरंगम सम तूल गति जेहि के । अहहि तुरंगम कहु त केही के ॥
दएवात जो ए आश्रमु आवा । चलउ बिलोकउ मम सों जावा ॥
जाति बेर को भय नहि करिहउ । मोर होत केहि सों न डरिहउ ॥
हय पत कवन करत मन मंता । यह कह लव तहँ गवहिं तुरंता ।
कटि तुणीर पीट पट बांधे । कर सर धनुष बाम बर काँधे ॥
होंहि बिलोकि हय नियरंता । जिमि को दुर्जय बीर जयंता ॥
सुबरन पाति बँधेउ ललाटा । मंगल मौलि मुकुट सम सांटा ॥
बरन माल सन बोधगत कछु पंगत रहि लेखि ।
जेन्ह संगत ताहि के होइहि सुहा बिसेखि ॥
मंगलवार, २९ मार्च, २०१६
पहुँच तहाँ चिठिया धर हाथा । बाँचहि हरिअहि मुनि सुत साथा ॥
लखत लिखित रघु बंस अलापा । लवनमई मुख्य कोप ब्यापा ॥
चितब चितबत तजत निज आपा । कहि सुतगन सोन गहि सर चापा ॥
देखु त इ छत्रिय केर ढिठाई । लेख पाति हय भाल बँधाई ॥
बरनत निज बल तेज प्रतापा । अहमति प्रगसि करसि कस दापा ॥
कवन राम रिपुहन को होई । ताहि अबर अवतंस न कोई ॥
का एकु एहि छत्रि कुल जनमाहीं । छत्रिअज हम्ह लोगन्ह नाही ॥
एहि बिधि सिय सुत सोइ प्रभाता । हरिहि तुरग करि बहुतक बाता ॥
जान तुहिन तृन सम तूल सबहि राजधिराज ।
गहे कर सरासन सर रन हुँत होइ समाज ॥
देखि तुरग लव अपहर चाहीं । बोले मुनिसुत डरपत ताहीं ॥
हे बीरबर सिया सुकुँआरे ।सुनिहु कृपा कर कथन हमारे ॥
कहें एक बचन तव हितकारी । परिहि काज जे बहुतहि भारी ॥
अहो अवधपत रघुकुल कंता । परम पराक्रमि बहु बलवंता ॥
हे! कुश के अनुज हे माता सीता के वत्स कृपया करके हमारे कथन को सुनो हम तुम्हारे हित करने वाली एक बात कहते हैं । यह अश्व हरण करने का कार्य तुम ना करो क्योंकि इस कार्य से तुम्हारी बहुंत हानि हो सकती है ॥
सुरपति निज बल अहमति जिनके । परस सकै न तुरंगम तिनके ॥
गयउ न अजहुँ बाल पन तोरे । हरहु न हय हम करिअ निहोरे ॥
तुम ब्रम्हन अति सरल सुभावा । छत्रिय बिक्रम तुम्हहि न जनावा ॥
हमरे भुज बल जग लग जाना । तुहरे रन भू बेद पुराना ॥
येह तपोबन सरिस प्रदेसा । आश्रम धानिहि बन भू देसा ।।
अंत नेमि बन जहँ लग पावा । हमरे गुरुकुल नेम बँधावा ॥
अब सुनो यह तपोवन एक प्रदेस है । और हमारा आश्रम इस वन देश की राजधानी है ॥ जहां तक इस वन प्रदेश की सीमाओं की परिधि हैं ।वहां तक वह हमारे गुरुकुल के विधानों से आबद्ध है ॥
करत दमन जो रिपु चढ़ि आहीं । यह बल बिद्या बिरथा जाहीं ॥
अजहुँ तासु हय हरिहिहि सीवाँ । पहले प्रगंड पुनि गहि गीवाँ ॥
यदि यह यज्ञ कर्त्ता हम पर चढ़ाई करते हुवे हमारा दमन करता है तब गुरु की दी हुई विद्या और यह बल किस काम आएगा यह व्यर्थ हो जाएगा । अभी तो इनके अश्व ने ही हमारी सीमाओं का व्यपहरण किया है फिर पहुंचा पकड़ते ये हमारे ग्रीवा तक पहुँच जाएंगें ॥
श्रुत लव कहे करक बचन मुनि सुत भए उरगान ।
ताहि बिक्रम दरसन हेतु ठाढ़ भयउ दूरान ॥
बुधवार, ३० मार्च, २०१६
तदनन्तर अनुचर तहँ आईं । देखि बाजि पुनि गयउ बँधाई ॥
पूछिहि लव सों सुनहु ए आजू । भए केहि पर कुपित जमराजू ॥
बाँधेउ बाजि अहो कहु केहि । मम पर लव तिन तुर उतरु देहि ॥
बाँध गहि अपरिहउँ मैं ताहीं । अजहुँ जोउ छड़ात ले जाहीं ॥
जो कोउ हम्हरे समुहाई । हो किन काल देउ जमराई ॥
तिन्ह तेउ तब होत बिरोधा । करिहि भ्रात मम तापर क्रोधा ॥
तासु धनुष जब बरखा करिहीं । तोषत सोइ सीस पद धरहीं ॥
तेज बिसिख जब गगन ब्यापि हि । गरज सों तुम का सबहि कापिहिं ॥
जो अतुलित भुज बल के धामा । काल देउ तिन करत प्रनामा ॥
सकुचत सुनहि न कहहिं न काहीं । पंथ गहत तुर बहुरत जाहीं ॥
धनुष से निकले बाण जब गगन में व्याप्त होंगे तब उनकी गर्जना से यम क्या सभी कांप उठेंगे ॥
दोइ भ्रात हम धर्महि रच्छक । समर धुरंधर बल के कच्छक ॥
सुन अनुचर गन लव कहि भासा । कह एकहि एक करिहि उपहासा ॥
हम दो भाई रन कारित करने में धुरंधर और बल की कक्षा एवं धर्म के रक्षकों के रक्षक हैं ।
यह बालक अल्पहि बयस ता कहि देउ न ध्यान ।
बँधे तुरग बिमोचन ते अगुसर भयउ बिहान ॥
बृहस्पतिवार, ३१ मार्च, २०१६
निरखत अनुचर कर करतूती । करि तापर लव कोप बहूँती ॥
दोउ नयन भर बिपुल अँगारे । कासत मुठिका कुटिल निहारे ॥
कहि तुम्ह बर बिक्रम दिखराहू । पवन तनय गहि लियो बँधाहू ॥
मोर सुभट गिराए कहँ जइहउ । तेजस तीर अजहुँ उर खइहउ ॥
सुनी अस बीरोचित सम्भाषन । चिंतत हरिपद नृपु मन ही मन ॥
कहि तुहरे दल सकल प्रधाना । पुष्कल कि महबीर हनुमाना ॥
घाउ बजा बहु धरनि गिरायउँ । अब तुम्हरे सोंह मैं आयउँ ॥
सुमिरन रत रघुपत पथ जोहू । जो इहँ आगत रखीहि तोहू ॥
न तरु जुझत मम पौरुष सोही । तुहरे जीवन जतन न होंही ॥
अस कह घात घायल किए, चले सहस सर जूथ ।
कासि सरासन रिपुहनहु, निरखत तेहि बरूथ ॥
रविवार, १३ मार्च, २०१६
अग्नास्त्र चढ़ि बढ़तहि जाहीं । प्रतिहन बान दहन करि चाहीं ॥
दाह सिली मुख जस असनाई । भयउ समित बरुनास्त्र ताईं ॥
कोटि बन छित छतबत कीन्हि । देह समाउ घाउ घन दीन्हि ॥
गहिरिपुहंत बहुरि कोदंडा । साधिहि मोहनायुध प्रचंडा ॥
अदुयायुध जौं चले अगासा । बँधेउ बीर समोहन पासा ॥
नीँद निमगन भयउ सब कोई । अहहिं कहाँ कछु चेत न होई ॥
निरख तेहि सुमिरत भगवाना । भूपत पुनि एहि बचन बखाना ॥
हरि सुमिरन मोरे मन मोहा । जग मोहन को औरु न होहा ॥
श्रुत अस रिपुहन सो अस्त्र भूपत ऊपर छाँड़ि ।
काट ताहि महि डारि दिए, ता सम्मुख जब बाढ़ि ॥
मंगलवार, १५ मार्च, २०१६
सार बहुरि एकु बान ब्याला । दंड दहन मुख कनक ज्वाला ॥
लच्छ करी नृपु सीध बँधावा । पाए पवन संग द्रुत धावा ॥
पहुँचिहि तहवाँ पुरबल ताहीं । अरिहं काटि दिये मग माही ॥
टूटत भाल हिलगत सरीरा । उरसिज भीत धँसे दे पीरा ॥
खात घात उरु मुरुछित भयऊ । हहरात रथोपर गिरि गयऊ ॥
हाहाकार करत कटकाई । बिथुरत इत उत गयउ पराई ॥
दसउ सुतहु रन कार प्रसंगा । बरत दीप जिमि जरत पतंगा ।
भयउ सकल हतचित सम ताहीं । रहेउ परे कतहुँ महि माही ॥
चलिअ पराई सकल कटकु निज पत मुरुछित पाए ।
सुरथ सन रन करमन तब हरीसु आपहि आए ॥
बुधवार, १६ मार्च, २०१६
रथ हय हस्ती कतहुँ पयादू । चितब ताहि मन भरत बिषादू ॥
कहि बात एहि बोले कपीसा । संग्राम बीर हे अवनीसा ॥
तोषित कतहुँ अब चलिअ न जैहौ । आगति मम सो लौह न लैहौ ॥
डार सहित बर बिटप उपारे । जौं कह बरियइ सिरु दे मारे ॥
महबली भूप चढ़त अघाता । कपिबर पुर एक दीठ निपाता ॥
बहोरि धार तीछ मुख बाना । पाऊच परच देत संधाना ॥
हरिदय द्वार पटल पबारिहि । हरीसु हँसवत काटि निबारिहि ॥
निरख नृप सो बीर बरबंडा । नख बिदार परबत सिखि खंडा ॥
छेप बिटप बहु चोट दिए गहि नृपु घाउ अतीउ ।
रामास्त्र चलाईं पुनि, बँधाए गयो सुग्रीउ ॥
शुक्रवार, १८ मार्च, २०१६
कहत अहिनाथ सुनहु मुनिंदा । परे राउ बँध पास कपिंदा ॥
होइ गयउ तब यह बिस्बासा । अहहि सोए रघुबर सत दासा ॥
पहिर पवन पुनि दंड सलाका । प्रहरिहि नृपनिहि बिजै पताका ॥
सकल दल बीर प्रतिपख केरे । होत प्रमद बहु प्रतिपद घेरे ॥
महारथी रथोपर पौढ़ाए । पैहत जय निज नगर लेवाए ॥
बैठि सभा गृह तहवाँ जाई । रहि सौमुख हनुमंत बँधाई ॥
मद उन्मत ता सों एही बरना । सुमिरौ तुम्ह अजहुँ हरि चरना ॥
दीन दयाकर भगत कृपाला । काटिहि तव बंधन तत्काला ॥
सुनि निपु बचन बीर हनुमंता । देखि सहित निज बीर बधंता ॥
प्रभो दयाल दीन निज जानी । किए अस्तुति मन अस जुगु पानी ॥
हा राम रमेस रघुबंस मनि हा कमल नयन सीता पते ।
भगतारत दाहत ता ऊपर तुम्ह अकारनहि प्रसीदते ॥
भलमन साईं जगत हिताई सबहि बिधि कीन्ह भलो ।
कृपा भलाई आपनी नाथ अब मोहि छँड़ाई ल्यो ॥
कोटि प्रभा श्री मुख सुशोभित तापर रुचिरु कल कुण्डलम् ।
मनहर रूपु धारी पुरुषोत्तम मोचिहु मा अविलम्बम् ॥
दानव कुल अगनित ज्वलन सों जरते देवन्हि रच्छिते ।
ताहि अर्द्धांगिनी सिरो अस्थित केस बँध सम्मोचिते ॥
मुनिरु समाजा राजाधिराजा पूजिहि तव चरन कर गहे ।
एहि औसर मुनि सों जाग कर्म रत तुम धरम विचार रहे ॥
महपुरुष हे देउ सुरथ तैं इहाँ मैं गाढ़ बँधाए गयो ।
अब बिलम न कीजो मम सुधि लीजो आन मोहि छँड़ाए ल्यो ॥
जो तुम्ह हमहि मोचित न कीजो त जगत मुदित उपहासिहि ।
अब प्रगसु कृपाला दीन दयाला कर जोर हनुमंत कहि ॥
कृपा निधान जगद्पते जब निज दास केरि पुकार सुने ।
दे अस्तुति काना चढ़त बिमाना चले तुरत नाथ मुने ॥
हनुमन सौमुख निज नयन भगवन आगम देखि ।
पाछु लखन भरत मुनिगन गहियउ सुहा बिसेखि ॥
शनिवार, १९ मार्च, २०१६
निरखत आवत निज गोसाईं । बोले पवन तनय हे राई ॥
देखु भगवन दया बस आईं । निज भगतन तुर लेहि छँड़ाई ॥
पुरबल जेहि बिधि सुमिरन तेइँ । बहुतक भगत जस छुटाए लेइ ॥
कीन्हि बिमोचित संकट सोहि । तेहि बिधि आजु छड़ावन मोहि ॥
सुनहु भूपत द्वार तिहारे । मोर प्रभो पद आन पधारे ॥
पैसि राम तब एकहि निमेसा । प्रेम मग्न भए निरख नरेसा ॥
धरिहि चतुर भुज रूप अनूपा । बाहु पसार गहइँ लिए भूपा ॥
कासत लेइ लगाइहिं छाँती ॥ निपति पलकिन्हि अलकन पाँती ॥
नेह घन केरे बरनन जाइ न केहि प्रकार ।
होए अस आनंद मगन गिरि अँसुअन के धार ॥
सोमवार, २१ मार्च, २०१६
निसिरिहि अँसुअन भीजहिं माथा । धन्य तुम्ह बोले जगनाथा ॥
तोर बल जस बिक्रम दिखरावा । औरु कतहुँ अस देखि न आवा ॥
बलबन ते बलबन हनुमाना । ताहि गहै तुम लेउ बँधावा ॥
बाँधनी हार बाँध निहारे । मोचनहारी बाँध निवारे ॥
जेत सुभट अरु मुरुछा पावा । दया दीठि धरि ताहि जियावा ॥
परत दीठि सबहीं कटकाई । उठी बैठि मुरुछा बिहुराई ॥
देखि नयन सौमुख जगभूपा । धरिहि चतुर भुज रूप अनूपा ॥
चितइ चितबत भौंह करि बाँकी । रघुबर केरि मनोहर झाँकी ॥
पूछि कुसल तब होइ सुखारी । गहे चरन कहि हे असुरारी ॥
भई नाथ बहु कृपा तिहारी । आन इहाँ सुधि लियो हमारी ॥
सुरथ राजु सहित समाजु ता सम्मुख अवधेस ।
लागि कंठ मिताई किए बयरु नहीं लवलेस ॥
बुधवार, २३ मार्च, २०१६
परस चरन मुख दरसन कीन्हि । सकल राज नृपु अरपत दीन्हि ॥
कहे तुहरे संग रघुराई । अह मम सोहि होइ अन्याई ॥
मोरि ढिठाइ हरिदय न लीजो । अनगढ़ जान छमा कर दीजो ॥
कहि भगवन तव दोष न कोई । छतरी केर धर्म एहि होई ॥
सेवक हो कि होउ गोसाईं । सब तें कीन्हि पड़िअ लड़ाई ॥
बीरन्हि तृषा एहि संग्रामा । तोषत तुम्ह करिहु बड़ कामा ॥
सुनत सुरथ भगवन कै भनिता । पूजेउ चरन निज सुत सहिता ॥
तहँ प्रभु तीनि दिवस लग होरे । माँगि बिदा पुनि दुहु कर जोरे ॥
इच्छा चारी जान तैं चले बहुर रघुनाथ ।
प्रयापत पुरजन चितवहिं चित्रबत चितवन साथ ॥
नाथ नगरि सों होइ परावा । जाइ नयन सन फिरि फिरि आवा ॥
मनोहारिनी कथा सरिता । ताहि कीरत जस पयस पुनिता ॥
लागिहि कथन श्रवन सबु लोगा । पावहिं बिनु बिराग जपु जोगा ॥
धरम पंथ जहँ मरिहि तिसाईं । किए कीरत तहँ पिअत अघाईं ॥
तदनन्तर बलबन सो राया । चम्पक सिंहासन पौढ़ाया ॥
सौपत नगर राज कर दीन्हि । आपु बिचार जाइ सन कीन्हि ॥
इहाँ रिपुहन तुरंगम पाईं । हरषत पनब भेरि बजवाईं ॥
पूरयो संख सब मुख साजे । धूनि करत बहु बाजनि बाजे ॥
गाजत सँग भट ठानत मन हट अरिहन महराज चले ।
तुरग तेज तर करत अगुसर सँगत राजाधिराज चले ॥
साथ सुरथ लह देस देस मह दहुँ दिस भरमत रहे ।
सुरत वध पत कतहुँ कोउ बलबंता ताहि न गहे ॥
अहि बिधि जाइ चमुचर चलिअ बिजए मद माहि ।
आगे भयऊ आनि सो केहु सपन नहि आहि ॥
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शुकवार, २५ मार्च, २०१६
पुनि एकु दिन जब भए भिंसारे । हीरमुकुत मनि किरन सँवारे ॥
उतरिहि रबि रथ सारथि संगा । होइ गतागत गगन बिहंगा ॥
लेपत चहुँ पुर प्रभा प्ररोहा । पलल्वत जगत अति मन मोहा ॥
सरनि सरोज बिटप दल फूरिहि । रचित रुनित रजनी जल झूरिहि ॥
फिरत तपोबन हय पथ भूला । भँवरत आयउ तमसा कूला ॥
जँह मह रिषि बाल्मीकि जी की । रह घिरि कर्नक कुटिया नीकी ॥
उधर उस तपोवन में यज्ञ का अश्व पथ भूल गया ,और वहां जा पहुंचा जहाँ तमस नदी (जो गंगा में जा मिलती है ) के किनारे महर्षि वाल्मीकि जी का पत्तों,टहनियों एवं शाखाओं से घिरा सुन्दर आश्रम था ॥
मह मह रिषि मुनि तहाँ निवासिहि । हविर धूम बर बियत सुवासिहि ॥
जम जात तहँ जानकी जीके । स्यामल गौर छबि बहु नीके ॥
भरी भोर जेठ सुत लव, रुचिरधनुष धृत हाथ ।
जोग समिधि ल्यावन बन गयऊ मनु सुत साथ ॥
सुबरन मई पतिया चीन्हा । तुरग तिन्हनि दरसन दीन्हा ॥
धौल बरन तन करन स्यामा । मनिमय किरन नयनाभिरामा ॥
अष्ट गंध लह सह कस्तूरी । गंधत मधुर मधुर मृग भूरी ॥
सुगठित गात चरन गति तूरी । चलत उठत कंचन सम धूरी ॥
देखि ताहि कौतुक जनाई । बोले सुकुंवर मुनि सुत ताईं ॥
तुरंगम सम तूल गति जेहि के । अहहि तुरंगम कहु त केही के ॥
दएवात जो ए आश्रमु आवा । चलउ बिलोकउ मम सों जावा ॥
जाति बेर को भय नहि करिहउ । मोर होत केहि सों न डरिहउ ॥
हय पत कवन करत मन मंता । यह कह लव तहँ गवहिं तुरंता ।
कटि तुणीर पीट पट बांधे । कर सर धनुष बाम बर काँधे ॥
होंहि बिलोकि हय नियरंता । जिमि को दुर्जय बीर जयंता ॥
सुबरन पाति बँधेउ ललाटा । मंगल मौलि मुकुट सम सांटा ॥
बरन माल सन बोधगत कछु पंगत रहि लेखि ।
जेन्ह संगत ताहि के होइहि सुहा बिसेखि ॥
मंगलवार, २९ मार्च, २०१६
पहुँच तहाँ चिठिया धर हाथा । बाँचहि हरिअहि मुनि सुत साथा ॥
लखत लिखित रघु बंस अलापा । लवनमई मुख्य कोप ब्यापा ॥
चितब चितबत तजत निज आपा । कहि सुतगन सोन गहि सर चापा ॥
देखु त इ छत्रिय केर ढिठाई । लेख पाति हय भाल बँधाई ॥
बरनत निज बल तेज प्रतापा । अहमति प्रगसि करसि कस दापा ॥
कवन राम रिपुहन को होई । ताहि अबर अवतंस न कोई ॥
का एकु एहि छत्रि कुल जनमाहीं । छत्रिअज हम्ह लोगन्ह नाही ॥
एहि बिधि सिय सुत सोइ प्रभाता । हरिहि तुरग करि बहुतक बाता ॥
जान तुहिन तृन सम तूल सबहि राजधिराज ।
गहे कर सरासन सर रन हुँत होइ समाज ॥
देखि तुरग लव अपहर चाहीं । बोले मुनिसुत डरपत ताहीं ॥
हे बीरबर सिया सुकुँआरे ।सुनिहु कृपा कर कथन हमारे ॥
कहें एक बचन तव हितकारी । परिहि काज जे बहुतहि भारी ॥
अहो अवधपत रघुकुल कंता । परम पराक्रमि बहु बलवंता ॥
हे! कुश के अनुज हे माता सीता के वत्स कृपया करके हमारे कथन को सुनो हम तुम्हारे हित करने वाली एक बात कहते हैं । यह अश्व हरण करने का कार्य तुम ना करो क्योंकि इस कार्य से तुम्हारी बहुंत हानि हो सकती है ॥
सुरपति निज बल अहमति जिनके । परस सकै न तुरंगम तिनके ॥
गयउ न अजहुँ बाल पन तोरे । हरहु न हय हम करिअ निहोरे ॥
तुम ब्रम्हन अति सरल सुभावा । छत्रिय बिक्रम तुम्हहि न जनावा ॥
हमरे भुज बल जग लग जाना । तुहरे रन भू बेद पुराना ॥
येह तपोबन सरिस प्रदेसा । आश्रम धानिहि बन भू देसा ।।
अंत नेमि बन जहँ लग पावा । हमरे गुरुकुल नेम बँधावा ॥
अब सुनो यह तपोवन एक प्रदेस है । और हमारा आश्रम इस वन देश की राजधानी है ॥ जहां तक इस वन प्रदेश की सीमाओं की परिधि हैं ।वहां तक वह हमारे गुरुकुल के विधानों से आबद्ध है ॥
करत दमन जो रिपु चढ़ि आहीं । यह बल बिद्या बिरथा जाहीं ॥
अजहुँ तासु हय हरिहिहि सीवाँ । पहले प्रगंड पुनि गहि गीवाँ ॥
यदि यह यज्ञ कर्त्ता हम पर चढ़ाई करते हुवे हमारा दमन करता है तब गुरु की दी हुई विद्या और यह बल किस काम आएगा यह व्यर्थ हो जाएगा । अभी तो इनके अश्व ने ही हमारी सीमाओं का व्यपहरण किया है फिर पहुंचा पकड़ते ये हमारे ग्रीवा तक पहुँच जाएंगें ॥
श्रुत लव कहे करक बचन मुनि सुत भए उरगान ।
ताहि बिक्रम दरसन हेतु ठाढ़ भयउ दूरान ॥
बुधवार, ३० मार्च, २०१६
तदनन्तर अनुचर तहँ आईं । देखि बाजि पुनि गयउ बँधाई ॥
पूछिहि लव सों सुनहु ए आजू । भए केहि पर कुपित जमराजू ॥
बाँधेउ बाजि अहो कहु केहि । मम पर लव तिन तुर उतरु देहि ॥
बाँध गहि अपरिहउँ मैं ताहीं । अजहुँ जोउ छड़ात ले जाहीं ॥
जो कोउ हम्हरे समुहाई । हो किन काल देउ जमराई ॥
तिन्ह तेउ तब होत बिरोधा । करिहि भ्रात मम तापर क्रोधा ॥
तासु धनुष जब बरखा करिहीं । तोषत सोइ सीस पद धरहीं ॥
तेज बिसिख जब गगन ब्यापि हि । गरज सों तुम का सबहि कापिहिं ॥
जो अतुलित भुज बल के धामा । काल देउ तिन करत प्रनामा ॥
सकुचत सुनहि न कहहिं न काहीं । पंथ गहत तुर बहुरत जाहीं ॥
धनुष से निकले बाण जब गगन में व्याप्त होंगे तब उनकी गर्जना से यम क्या सभी कांप उठेंगे ॥
दोइ भ्रात हम धर्महि रच्छक । समर धुरंधर बल के कच्छक ॥
सुन अनुचर गन लव कहि भासा । कह एकहि एक करिहि उपहासा ॥
हम दो भाई रन कारित करने में धुरंधर और बल की कक्षा एवं धर्म के रक्षकों के रक्षक हैं ।
यह बालक अल्पहि बयस ता कहि देउ न ध्यान ।
बँधे तुरग बिमोचन ते अगुसर भयउ बिहान ॥
बृहस्पतिवार, ३१ मार्च, २०१६
निरखत अनुचर कर करतूती । करि तापर लव कोप बहूँती ॥
दोउ नयन भर बिपुल अँगारे । कासत मुठिका कुटिल निहारे ॥
सकल सेन ऐसेउ पचारे । मेघ धूनि नभ भेदनवारे ॥
होत सघनतम कहहिं सक्रोधा । हरि परिहरहि जुझिहि सो जोधा ॥
भुज सेखर छुरप भरे भाथा । धरे कोदंड दोनहु हाथा ॥
बहुरि प्रहारन करिअ अरंभा । अनुचरन्हि मन भयउ अचंभा ॥
चढ़ेउ घात कटे दुहु बाहू । पीर गहन भए चेत न काहू ॥
त्रास त्रसित रिपुहन पहि आवा । समाचार सब कहत सुनावा ॥
होत सघनतम कहहिं सक्रोधा । हरि परिहरहि जुझिहि सो जोधा ॥
भुज सेखर छुरप भरे भाथा । धरे कोदंड दोनहु हाथा ॥
बहुरि प्रहारन करिअ अरंभा । अनुचरन्हि मन भयउ अचंभा ॥
चढ़ेउ घात कटे दुहु बाहू । पीर गहन भए चेत न काहू ॥
त्रास त्रसित रिपुहन पहि आवा । समाचार सब कहत सुनावा ॥
एक बालक बहु बीरबर जाके नगर न नाहु ।
हेर हेर प्रति एक सुभट , काटि करें बिन बाहु ॥
हेर हेर प्रति एक सुभट , काटि करें बिन बाहु ॥
उन क्षुरप्रों ने ढूंड ढूंड कर एक एक सूर वीरों की भुजाओं को काट कर उन्हें भुजा हिन् कर दिया ॥ तब सारी सेना इस मारकाट से व्याकुल होकर शत्रुध्न की शरण हो गई ॥
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