Saturday, 12 March 2016

----- ।। उत्तर-काण्ड ४९ ।। -----

फरकिहि लोचन कोप उर छाए । चढ़े रथ तुरत सुरथ पहि आए ॥ 
कहि तुम्ह बर बिक्रम दिखराहू । पवन तनय गहि लियो बँधाहू ॥ 

मोर सुभट गिराए कहँ जइहउ । तेजस तीर अजहुँ उर खइहउ ॥ 
सुनी अस बीरोचित सम्भाषन । चिंतत हरिपद नृपु मन ही मन ॥ 


कहि तुहरे दल सकल प्रधाना । पुष्कल कि महबीर हनुमाना ॥ 
घाउ बजा बहु धरनि गिरायउँ । अब  तुम्हरे सोंह मैं आयउँ ॥ 

 सुमिरन रत रघुपत  पथ जोहू । जो इहँ आगत रखीहि तोहू ॥ 
न तरु जुझत मम पौरुष सोही । तुहरे जीवन जतन न होंही ॥ 

अस कह घात घायल किए, चले सहस सर जूथ । 
कासि सरासन रिपुहनहु, निरखत तेहि बरूथ ॥ 

रविवार,  १३ मार्च, २०१६                                                                                      

अग्नास्त्र चढ़ि बढ़तहि जाहीं । प्रतिहन बान दहन करि चाहीं ॥ 
दाह सिली मुख जस असनाई । भयउ समित बरुनास्त्र ताईं ॥ 

कोटि बन छित छतबत कीन्हि । देह समाउ घाउ घन दीन्हि ॥ 
गहिरिपुहंत बहुरि कोदंडा । साधिहि मोहनायुध प्रचंडा ॥ 

अदुयायुध जौं चले अगासा । बँधेउ बीर समोहन पासा ॥ 
नीँद निमगन भयउ सब कोई । अहहिं कहाँ कछु चेत न होई ॥ 

निरख तेहि सुमिरत भगवाना । भूपत पुनि एहि बचन बखाना ॥ 
हरि सुमिरन मोरे मन मोहा । जग मोहन को औरु न होहा ॥ 

श्रुत अस रिपुहन सो अस्त्र भूपत  ऊपर छाँड़ि । 

काट ताहि महि डारि दिए, ता सम्मुख जब बाढ़ि ॥  

मंगलवार, १५ मार्च, २०१६                                                                                             

सार बहुरि एकु बान ब्याला । दंड दहन मुख कनक ज्वाला ॥ 
लच्छ करी नृपु सीध बँधावा । पाए  पवन संग द्रुत धावा ॥ 


 पहुँचिहि तहवाँ पुरबल ताहीं । अरिहं काटि दिये मग माही ॥ 

टूटत भाल हिलगत सरीरा । उरसिज भीत धँसे दे पीरा ॥ 

खात घात उरु मुरुछित भयऊ । हहरात रथोपर गिरि गयऊ ॥ 
हाहाकार करत कटकाई । बिथुरत इत उत गयउ पराई ॥ 

दसउ सुतहु रन कार प्रसंगा । बरत  दीप जिमि जरत पतंगा । 
भयउ सकल हतचित सम ताहीं । रहेउ परे कतहुँ महि माही ॥ 

चलिअ पराई सकल कटकु निज पत मुरुछित पाए । 
सुरथ सन रन करमन तब हरीसु आपहि आए ॥ 

बुधवार, १६ मार्च, २०१६                                                                                            

रथ हय हस्ती कतहुँ पयादू  । चितब ताहि मन भरत बिषादू ॥ 
कहि बात एहि बोले कपीसा । संग्राम बीर हे अवनीसा ॥ 

तोषित कतहुँ अब चलिअ न जैहौ । आगति मम सो लौह न लैहौ ॥ 
डार सहित बर  बिटप उपारे । जौं कह  बरियइ सिरु दे मारे ॥ 

महबली भूप चढ़त अघाता । कपिबर पुर एक दीठ निपाता ॥ 
बहोरि धार तीछ मुख बाना । पाऊच परच देत संधाना ॥ 

हरिदय द्वार पटल पबारिहि । हरीसु हँसवत काटि निबारिहि ॥ 
निरख नृप सो बीर बरबंडा । नख बिदार परबत सिखि खंडा ॥ 

छेप बिटप बहु चोट दिए  गहि नृपु घाउ अतीउ । 
रामास्त्र चलाईं पुनि, बँधाए गयो सुग्रीउ ॥  

शुक्रवार, १८ मार्च, २०१६                                                                                    

कहत अहिनाथ सुनहु मुनिंदा । परे राउ बँध पास कपिंदा ॥ 
होइ गयउ तब यह बिस्बासा । अहहि सोए रघुबर सत दासा ॥ 

पहिर पवन पुनि दंड सलाका । प्रहरिहि नृपनिहि बिजै पताका ॥ 
सकल दल बीर प्रतिपख केरे । होत प्रमद बहु प्रतिपद घेरे ॥ 

महारथी रथोपर पौढ़ाए । पैहत जय निज नगर लेवाए ॥ 
बैठि सभा गृह तहवाँ जाई । रहि सौमुख हनुमंत बँधाई ॥ 

मद उन्मत ता सों एही बरना । सुमिरौ तुम्ह अजहुँ हरि चरना ॥ 
दीन दयाकर भगत कृपाला । काटिहि तव बंधन तत्काला ॥ 

सुनि निपु बचन बीर हनुमंता । देखि सहित निज बीर बधंता ॥ 

प्रभो दयाल दीन निज जानी । किए अस्तुति मन अस जुगु पानी ॥ 

हा राम रमेस रघुबंस मनि हा कमल नयन सीता पते । 
भगतारत दाहत ता ऊपर तुम्ह  अकारनहि प्रसीदते ॥ 
भलमन साईं जगत हिताई सबहि बिधि कीन्ह भलो । 
कृपा भलाई आपनी नाथ अब मोहि छँड़ाई ल्यो ॥ 

कोटि प्रभा श्री मुख सुशोभित तापर रुचिरु कल कुण्डलम् । 
मनहर रूपु धारी पुरुषोत्तम मोचिहु मा अविलम्बम् ॥ 
दानव कुल अगनित ज्वलन सों जरते  देवन्हि रच्छिते । 
ताहि अर्द्धांगिनी सिरो अस्थित केस बँध सम्मोचिते ॥ 


मुनिरु समाजा राजाधिराजा पूजिहि तव चरन कर गहे । 
एहि औसर मुनि सों जाग कर्म रत तुम धरम विचार रहे ॥ 
महपुरुष हे  देउ सुरथ तैं इहाँ मैं गाढ़ बँधाए गयो । 
अब बिलम न कीजो  मम सुधि लीजो आन मोहि छँड़ाए ल्यो ॥ 


जो तुम्ह हमहि मोचित न कीजो त जगत मुदित उपहासिहि । 
अब प्रगसु कृपाला दीन दयाला कर जोर हनुमंत कहि ॥ 
कृपा निधान जगद्पते जब निज दास केरि पुकार सुने ।  
दे अस्तुति काना चढ़त बिमाना चले तुरत नाथ मुने ॥ 

हनुमन सौमुख निज नयन भगवन आगम देखि । 
पाछु लखन भरत मुनिगन गहियउ सुहा बिसेखि ॥  

शनिवार, १९ मार्च, २०१६                                                                                      

निरखत आवत निज गोसाईं । बोले पवन तनय हे राई ॥ 
देखु भगवन दया बस आईं । निज भगतन तुर लेहि छँड़ाई ॥

पुरबल जेहि बिधि सुमिरन तेइँ । बहुतक भगत जस छुटाए लेइ ॥ 
कीन्हि बिमोचित संकट सोहि । तेहि बिधि आजु छड़ावन मोहि ॥ 

सुनहु भूपत द्वार तिहारे । मोर प्रभो पद आन पधारे ॥ 
पैसि राम तब  एकहि निमेसा । प्रेम मग्न भए निरख नरेसा ॥ 

धरिहि चतुर भुज रूप अनूपा । बाहु पसार गहइँ लिए भूपा ॥ 
कासत लेइ लगाइहिं छाँती ॥ निपति पलकिन्हि अलकन पाँती ॥ 

नेह घन  केरे बरनन जाइ न केहि प्रकार । 
होए अस आनंद मगन गिरि अँसुअन के धार ॥ 

सोमवार, २१ मार्च, २०१६                                                                                              

निसिरिहि अँसुअन भीजहिं माथा ।  धन्य तुम्ह बोले जगनाथा ॥ 
  तोर बल जस बिक्रम दिखरावा । औरु कतहुँ अस देखि न आवा ॥ 

बलबन ते बलबन हनुमाना ।   ताहि गहै तुम लेउ बँधावा ॥ 
बाँधनी हार बाँध निहारे । मोचनहारी बाँध निवारे ॥ 

जेत सुभट अरु मुरुछा पावा । दया दीठि धरि ताहि जियावा ॥
परत दीठि सबहीं कटकाई । उठी बैठि मुरुछा बिहुराई ॥ 

 देखि नयन सौमुख जगभूपा । धरिहि चतुर भुज रूप अनूपा ॥ 
चितइ चितबत भौंह करि बाँकी । रघुबर केरि मनोहर झाँकी ॥ 

पूछि कुसल तब होइ सुखारी । गहे चरन कहि हे असुरारी ॥ 
भई नाथ बहु कृपा तिहारी । आन इहाँ सुधि लियो हमारी ॥ 

सुरथ राजु सहित समाजु ता सम्मुख अवधेस । 
 लागि कंठ मिताई किए बयरु नहीं लवलेस ॥ 

बुधवार, २३ मार्च, २०१६                                                                                               

परस चरन मुख दरसन कीन्हि । सकल राज नृपु अरपत दीन्हि ॥ 
कहे तुहरे संग रघुराई । अह मम सोहि होइ अन्याई ॥ 

मोरि ढिठाइ हरिदय न लीजो । अनगढ़  जान छमा कर दीजो ॥ 
कहि भगवन तव दोष न कोई । छतरी केर धर्म एहि होई ॥ 

सेवक हो कि होउ गोसाईं । सब तें कीन्हि पड़िअ लड़ाई ॥ 
बीरन्हि तृषा  एहि संग्रामा । तोषत तुम्ह करिहु बड़ कामा ॥ 

सुनत सुरथ भगवन कै भनिता ।  पूजेउ चरन निज सुत सहिता ॥ 
तहँ प्रभु तीनि दिवस लग होरे । माँगि बिदा पुनि दुहु कर जोरे ॥ 

इच्छा चारी जान तैं चले बहुर रघुनाथ । 
प्रयापत पुरजन चितवहिं चित्रबत चितवन साथ ॥ 

 नाथ नगरि सों  होइ परावा । जाइ नयन सन फिरि फिरि आवा ॥ 

मनोहारिनी कथा सरिता  । ताहि कीरत जस पयस पुनिता ॥ 

लागिहि कथन श्रवन सबु लोगा । पावहिं बिनु बिराग जपु जोगा ॥ 

धरम पंथ जहँ मरिहि तिसाईं । किए कीरत तहँ पिअत अघाईं  ॥ 

तदनन्तर बलबन सो राया । चम्पक सिंहासन पौढ़ाया ॥ 

सौपत नगर राज कर दीन्हि । आपु बिचार जाइ सन कीन्हि ॥ 

इहाँ रिपुहन तुरंगम पाईं । हरषत पनब भेरि बजवाईं ॥ 

पूरयो संख सब मुख साजे । धूनि करत बहु बाजनि बाजे ॥ 

गाजत  सँग  भट ठानत मन हट अरिहन महराज चले । 
तुरग तेज तर करत अगुसर सँगत राजाधिराज चले ॥
साथ सुरथ लह  देस देस मह दहुँ दिस भरमत रहे । 
सुरत वध पत कतहुँ कोउ बलबंता ताहि न गहे ॥ 

अहि बिधि जाइ चमुचर चलिअ बिजए मद माहि । 
आगे भयऊ आनि सो केहु सपन नहि आहि ॥ 
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शुकवार, २५ मार्च, २०१६                                                                                        

पुनि एकु दिन जब भए भिंसारे । हीरमुकुत मनि किरन  सँवारे ॥ 
उतरिहि रबि रथ सारथि संगा । होइ गतागत गगन बिहंगा ॥ 

लेपत चहुँ पुर प्रभा प्ररोहा । पलल्वत जगत अति मन मोहा ॥ 
सरनि सरोज बिटप दल फूरिहि । रचित रुनित रजनी जल झूरिहि ॥ 

फिरत तपोबन हय पथ भूला । भँवरत आयउ तमसा कूला ॥ 
जँह मह रिषि बाल्मीकि जी की । रह घिरि कर्नक कुटिया नीकी ॥
उधर उस तपोवन में यज्ञ का अश्व पथ भूल गया ,और वहां जा पहुंचा जहाँ  तमस नदी (जो गंगा में जा मिलती है ) के किनारे महर्षि वाल्मीकि जी का पत्तों,टहनियों एवं शाखाओं से घिरा सुन्दर आश्रम था ॥ 

मह मह रिषि मुनि तहाँ निवासिहि । हविर धूम बर बियत सुवासिहि ॥ 
जम जात तहँ जानकी जीके । स्यामल गौर छबि बहु नीके ॥ 

भरी भोर जेठ सुत लव, रुचिरधनुष धृत हाथ । 

जोग समिधि ल्यावन बन गयऊ मनु सुत साथ ॥  

सुबरन मई पतिया चीन्हा । तुरग तिन्हनि दरसन दीन्हा ॥ 
धौल बरन तन करन स्यामा । मनिमय किरन नयनाभिरामा ॥ 

अष्ट गंध लह सह कस्तूरी । गंधत मधुर मधुर मृग भूरी ॥ 
सुगठित गात चरन गति तूरी । चलत उठत कंचन सम धूरी ॥ 

देखि ताहि कौतुक जनाई । बोले सुकुंवर मुनि सुत ताईं ॥ 
तुरंगम सम तूल गति जेहि के । अहहि तुरंगम कहु त केही के ॥ 

दएवात जो ए आश्रमु आवा । चलउ बिलोकउ मम सों जावा ॥ 
जाति बेर को भय  नहि करिहउ । मोर होत केहि सों न डरिहउ ॥ 

हय पत कवन करत मन मंता । यह कह लव तहँ गवहिं तुरंता । 
कटि तुणीर पीट पट बांधे । कर सर धनुष बाम बर काँधे ॥ 

होंहि बिलोकि हय नियरंता । जिमि को दुर्जय बीर जयंता ॥ 
सुबरन पाति  बँधेउ ललाटा । मंगल मौलि मुकुट सम सांटा ॥ 

बरन माल सन बोधगत कछु पंगत रहि लेखि । 
जेन्ह संगत ताहि के होइहि सुहा बिसेखि ॥ 

मंगलवार, २९ मार्च, २०१६                                                                                            


 पहुँच तहाँ चिठिया धर हाथा । बाँचहि हरिअहि मुनि सुत साथा ॥ 
लखत लिखित रघु बंस अलापा । लवनमई मुख्य कोप ब्यापा ॥ 

चितब चितबत तजत निज आपा । कहि सुतगन सोन गहि सर चापा ॥ 
देखु त इ छत्रिय केर ढिठाई । लेख पाति हय भाल बँधाई ॥ 

बरनत निज बल तेज प्रतापा । अहमति प्रगसि करसि कस दापा ॥ 
कवन राम रिपुहन को होई । ताहि अबर अवतंस न कोई ॥ 

का एकु एहि छत्रि कुल जनमाहीं ।  छत्रिअज हम्ह लोगन्ह नाही ॥ 
एहि बिधि सिय सुत सोइ प्रभाता । हरिहि तुरग करि बहुतक बाता ॥ 

जान तुहिन तृन सम तूल सबहि राजधिराज । 
गहे कर सरासन सर रन हुँत होइ समाज ॥ 

देखि तुरग लव अपहर चाहीं । बोले मुनिसुत डरपत ताहीं ॥ 
हे बीरबर सिया सुकुँआरे ।सुनिहु  कृपा कर कथन हमारे ॥ 

कहें एक बचन तव हितकारी । परिहि काज जे बहुतहि भारी ॥ 
अहो अवधपत रघुकुल कंता । परम पराक्रमि बहु बलवंता ॥ 

हे! कुश के अनुज हे माता सीता के वत्स कृपया करके हमारे कथन को सुनो हम तुम्हारे हित करने वाली एक बात कहते हैं । यह अश्व हरण करने का कार्य तुम ना करो क्योंकि इस कार्य से तुम्हारी बहुंत हानि हो सकती है ॥ 

सुरपति निज बल अहमति जिनके । परस सकै न तुरंगम तिनके ॥ 
गयउ न अजहुँ  बाल पन तोरे । हरहु न हय हम करिअ निहोरे ॥

तुम ब्रम्हन अति सरल सुभावा । छत्रिय बिक्रम तुम्हहि न जनावा ॥ 
हमरे भुज बल जग लग जाना । तुहरे  रन भू बेद पुराना ॥ 

येह तपोबन सरिस प्रदेसा । आश्रम धानिहि बन भू देसा ।।  
अंत नेमि बन जहँ लग पावा  । हमरे गुरुकुल नेम बँधावा  ॥ 

अब सुनो यह तपोवन एक प्रदेस है । और हमारा आश्रम इस वन देश की राजधानी है ॥ जहां तक इस वन प्रदेश की सीमाओं की परिधि  हैं ।वहां तक वह हमारे गुरुकुल के विधानों से आबद्ध है ॥ 

करत दमन जो  रिपु चढ़ि आहीं । यह बल बिद्या बिरथा जाहीं  ॥ 
अजहुँ तासु हय हरिहिहि सीवाँ । पहले प्रगंड पुनि गहि गीवाँ ॥ 
यदि यह यज्ञ कर्त्ता हम पर चढ़ाई करते हुवे हमारा दमन करता है तब गुरु की दी हुई विद्या और यह बल किस काम आएगा यह व्यर्थ हो जाएगा । अभी तो इनके अश्व ने ही हमारी सीमाओं का व्यपहरण किया है फिर पहुंचा पकड़ते ये  हमारे ग्रीवा तक  पहुँच जाएंगें ॥ 

 श्रुत लव कहे करक  बचन मुनि सुत भए  उरगान । 

ताहि बिक्रम दरसन हेतु ठाढ़ भयउ दूरान ॥ 

बुधवार, ३० मार्च, २०१६                                                                               

तदनन्तर अनुचर तहँ आईं । देखि बाजि पुनि गयउ बँधाई  ॥ 

पूछिहि लव सों सुनहु ए आजू । भए केहि पर कुपित जमराजू ॥

बाँधेउ बाजि अहो कहु केहि । मम पर लव तिन तुर उतरु देहि ॥ 
बाँध गहि अपरिहउँ मैं ताहीं । अजहुँ जोउ छड़ात ले जाहीं  ॥ 

जो कोउ हम्हरे समुहाई । हो किन काल देउ जमराई ॥  
 तिन्ह तेउ तब  होत बिरोधा ।  करिहि भ्रात मम तापर क्रोधा ॥  

तासु धनुष जब बरखा करिहीं । तोषत सोइ सीस पद धरहीं ॥ 
तेज बिसिख जब गगन ब्यापि हि ।  गरज सों तुम का सबहि कापिहिं ॥ 

 जो अतुलित भुज बल के धामा । काल देउ तिन करत प्रनामा ॥ 
सकुचत सुनहि न कहहिं न काहीं । पंथ गहत तुर बहुरत जाहीं ॥ 
धनुष से निकले  बाण जब गगन में व्याप्त होंगे तब उनकी गर्जना से यम क्या सभी कांप उठेंगे ॥ 


दोइ भ्रात हम धर्महि रच्छक । समर धुरंधर बल के कच्छक ॥ 
सुन अनुचर गन लव कहि भासा । कह एकहि एक करिहि उपहासा ॥ 
हम दो भाई रन कारित करने में धुरंधर और बल की कक्षा एवं धर्म के रक्षकों के रक्षक हैं । 

यह बालक अल्पहि बयस ता कहि देउ न ध्यान । 
बँधे तुरग बिमोचन ते अगुसर भयउ बिहान ॥ 

बृहस्पतिवार, ३१ मार्च, २०१६                                                                                   

निरखत अनुचर कर करतूती । करि तापर लव कोप बहूँती ॥ 
दोउ नयन भर बिपुल अँगारे । कासत मुठिका कुटिल निहारे ॥ 


सकल सेन ऐसेउ पचारे । मेघ धूनि नभ भेदनवारे ॥ 
होत सघनतम कहहिं सक्रोधा  । हरि परिहरहि जुझिहि सो जोधा  ॥ 

भुज सेखर छुरप भरे भाथा । धरे कोदंड दोनहु हाथा ॥ 
बहुरि प्रहारन करिअ अरंभा । अनुचरन्हि मन भयउ अचंभा ॥ 

चढ़ेउ घात कटे दुहु बाहू । पीर गहन भए चेत न काहू ॥ 
त्रास त्रसित रिपुहन पहि आवा । समाचार सब कहत सुनावा ॥ 


एक बालक बहु बीरबर जाके नगर न नाहु  । 
हेर हेर प्रति एक सुभट  , काटि करें बिन बाहु  ॥  
उन क्षुरप्रों ने ढूंड ढूंड कर एक एक सूर वीरों की भुजाओं को काट कर उन्हें भुजा हिन् कर दिया ॥ तब सारी सेना इस मारकाट से व्याकुल होकर शत्रुध्न की शरण हो गई ॥  


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