Saturday, 2 April 2016

----- ।। उत्तर-काण्ड ५० ।। -----


लागि कटक दल भुज हिन् कैसे । कटे साख को द्रुमदल जैसे ॥ 
 कांत मुख भए मंद मलीना । जस को बालक केलि बिहीना ॥ 
( ऐसा कहते )परकटी सेना कैसे प्रतीत हुई  जैसे वह कटी हुई शाखा वाले वृक्ष का समूह हों ॥ और उनके कालिमा से युक्त मुरझाए हुवे मुख इस प्रकार दर्श रहे थे जैसे भुजा न हुई किसी बालक के खिलौने हो गए और वे किसी ने छीन लिए हों ॥ 

त्राहि कहत कहरत कटकाई । बल न अरु बली भेस बनाई  ॥ 
रिपुहन हरिदै दहए अतीवा । कुठार पन के रहे न सींवाँ ॥
वह रक्षा की प्रार्थना करने लगी 

सुनि पुनि  बालक हरिहि तुरंगा । ज्वाल नयन जरइ सब अंगा ॥ 
कहत धरनि धर सुनु हे मुनि बर ।  भंग भुजा केरे दरसन कर ॥ 

नाचत बदन अगन कन चमकहिं । अस जस धनवन दामिनि दमकहिं ॥ 
सकल कटक अस थर थर काँपिहि । भूमि कम्प जस भवन ब्यापिहि  ॥  
इस प्रकार भगवान शेष जी कहते हैं हे मुनिवर ! अपनी सेना को ऐसी भग्न बाहु की अवस्था में देख कर । शत्रुहन के मुख पर क्रोध की चंगारी ऐसे नृत्य करने लगी जैसे आकाश में चंचला नृत्य करती हो ॥ 


पीसत दंत गरजत हँकारे । पचार लवन्हि बदन पसारे ॥  

दिए रदन गन अधर दल चीन्हि । कोपु बिबस चिन्हारी दीन्हि  ॥ 

बहु रिसिहाईं  पूछ बुझाईं  दरस कटक बाहु कटे । 
कवन बीर कर काटे भुज धर ते मोर सौमुख डटे ॥ 
कहत पुनि सोइ  बाल बलबन्हि रच्छिहैं किन देवहीं । 
गह बल केते बाँच न पाइँहि जो मोरे हस्त गहीं  ॥ 
अपने सैनिकों की कटी हुई भुजाएँ देख कर बहुंत ही रोष पूर्वक प्रश्न करने लगे किस वीर के हाथों ने ये भुजाएं काटी है । वो मेरे सम्मुख तो आए फिर शत्रुधन ने कहा वह बलवान चाहे देवताओं ही रक्षित क्यों न हो उसने कितना ही बल ग्रहण क्यों न किया हो पर मेरे हाथ से नहीं बच पाएगा ॥ 

सुनि सैन सत्रुहन बचनन, किए अचरज भरि खेद । 
एक बालक श्री राम रुप, कहत बाँधि है मेद ।। 
सैनिकों ने शत्रुध्न के वचन को सुनकर आश्चर्य युक्त खेद व्यक्त कर बोले : -- एक बाल किशोर है जो श्री राम के स्वरुप ही है उसी ने उस गठीले अश्व को बांधा है ॥ 

शुक्रवार, ०८ अप्रेल , २०१६                                                                                 
सुनि एकु बालक हरिहि तुरंगा । छोभअगन किए नयन सुरंगा ॥ 
बोलि बिमूढ़  हठि बालक एहू । करन चहसि सठ जमपुर गेहू ॥ 

तब रिपुहन बिहरत निज आपा । कसेउ ताल कठिन कर चापा ॥ 
दहन तपन हरिदै न  समाहू । संग्राम हेतु होत उछाहू ॥ 

सेनाधिप काल जित बुलायो । नीति बनाउन आयसु दायो ॥
 कहि दलपति अग्या यह मोरे । सब रन साजु सँजोइल जोरें ॥ 

रचिहु अदम दुर्भेद ब्यूहा । जुगावत सबहि जेय समूहा ॥ 
अहहैं रिपु एकु बीर जयंता । बिपुल तेज बल अति बुधवन्ता ॥ 

हमरे तुरग हरिहि जो कोई । सो बालक सधारन न होई ॥ 
एहि अवसर सुनु करन चढ़ाई । चौरंगीनि लेउ बनाई ॥ 

द्युतिसमन दरपन सहुँ दै आसन सकल प्रसाधन निहार के । 
सब साज सुसाजित करिहु समाजित चातुरंग सिँगार के ॥ 
राम प्रतिरूप रूप न थोड़े सो बीरबर सुकुमार के ।  
सुनु लागत लगन समर सदन पुनि करिहु सम्मुख सँभार के ॥ 

द्योतिसमन दरपन सहुँ चातुरंग सम्भार । 
समर साज प्रसाधन सों करि सुठि सब सिंगार ॥ 

अरिहन अग्या सेन पत सकलत अदम समूह । 
सब रन साज सजाइ  के रचिहि अभेद ब्यूह ॥ 

आनि लेइ रिपुहन समुहाई । निरखत सजी धजी कटकाई ॥ 
हरनहार जहँ बालक पायो । तहाँ पयावन कहि समझायो ॥ 

इत चतुरंगिनि आगिन बाढ़िहि । पंथ जुहारत लव उत ठाढ़िहि ॥ 
दरसत बालक रूप अनूपा । कहि दलपत अह  राम सरूपा ॥ 

कहत कुँअरु हे पलक न पारे । परिहरु देउ तुरंग हमारे॥ 
अवध पति जिन्ह के गोसाईं । तिन्हके  बिकम बरनि न जाई ॥ 

गहेउ तपसि राम सम चेले । ताहि सरूप रूप तव मेले ॥ 
दरस तोहि मैं भयउँ दयालू  । कारन तव छबि सोंह कृपालू ॥ 

जिअ बिसुरत निज सुध बुध भूला । होइ चहु तुम्ह तूलमतूला ॥ 
अब लग जग जिअ हारि न काहू । तासु हृदय तुम जीतन चाहू ॥ 

सुनहु हे बीरबर कुँअर मानिहु बात न मोरि । 
रोपिहु हठ एहि अवसर त होहि राख कस तोरि ॥ 

शनिवार, ०९ अप्रेल, २०१६                                                                                      

लव मुख दर्पण छबि निज नाहा ॥ बिलखत अपलक बोलहि  बाहा ।  
जो तुम्ह मोर कहि नहि मानिहु ।  निज जीवन  बिरथा बिनसानिहु ॥ 

मैं बहु बिरधा तूम  एक बालक । कारन तुम पदचर में एक पालक ॥ 
सुनु हे रघुबर कर प्रतिरूपा । देउ परिहर सौंपि सो भूपा ॥ 

मोरी छबि अवधेश समाना । होइ चकित लव सुनि जब काना ॥ 
जबु दलपत कहि बत गुँजराँई। कछु हँसि हंस अधर तरियाँईं ॥ 

हृदय तरंग माल उमगाईं । एकु  तरि आईं एकु तरि जाईं ॥ 
एक छन अधरन दिए अलगानी । बोलि गिरा पुनि मधुरस सानी ॥ 

जे तुम मानिहु हार, मैं तुरग परिहर करिहउँ । 
कहिहु ए समाचार, राम सों भग्न दूत बन ॥ 
हे सेना पति काल जित, यदि तुम अपनी हार मान लो तो मैं इस घोड़े को छोड़ दूँगा । और  श्रीराम चन्द्र जी के सम्मुख युद्ध में हार का सन्देश देने वाले दूत बनकर सारा समाचार कहो ॥ 

लव मुख दर्पण छबि निज नाहा ॥ बिलखत अपलक बोलहि  बाहा ।  
जो तुम्ह मोर कहि नहि मानिहु ।  निज जीवन  बिरथा बिनसानिहु ॥ 

मैं बहु बिरधा तूम  एक बालक । कारन तुम पदचर में एक पालक ॥ 
सुनु हे रघुबर कर प्रतिरूपा । देउ परिहर सौंपि सो भूपा ॥ 

मोरी छबि अवधेश समाना । होइ चकित लव सुनि जब काना ॥ 
जबु दलपत कहि बत गुँजराँई। कछु हँसि हंस अधर तरियाँईं ॥ 

एक छन अधरन दिए अलगानी । बोलि गिरा पुनि मधुरस सानी ॥
नाउ धर केहि नाउ न होही । होत कीरत करनि कृत सोई ॥ 

कहत चकित तब काल जित जनमिहु तुम कुल केहि । 
कहौ बिदित सो नाउ निज तोहि पुकारसि जेहि ॥ 

रविवार, १० अप्रेल, २०१६                                                                                          

सीस जटा जुट बिबरन चाहीं  । करिहहु रन धुनि मुनि तुम नाही ॥ 
तन जति बसन बिचरहु बन एही । बसिहउ गाँव नगर कहु केही ॥ 

कहहु बीर तव नृप को होंही । तुहरी दसा जनाउ न मोही ॥ 
राज लच्छन सब अंग सुहाए । में रथि अरु तुम  पयादहि पाएँ ॥  

तुमहि कहौ दुर्दम में ऐसे । अधर्मतस तोहि जितौं कैसे ॥ 
कहत सियसुत नगर कुल नाउ । कहौ तो लेन दसा ते काउ ॥ 


सेनापति बहु कह समुझाईं । पराधीन सपनेहु सुख नाहीं ॥ 
हमहु अधीन न अंगीकारी  । कहत एहि मुख करक चिंघारी ॥ 
सेनापति कालजीत ने लव को बहुंत समझाया किन्तु पराधीनता स्वपन में भी सुख नहीं देती लव ने  फिर यह उद्दीप्त होकर कहा  हमें अधीनता  स्वीकार्य नहीं है ॥ 

में लव अहिहउँ अरु लव माही । जितिहउँ समर बीर सब काहीं ॥ 
सकुचउ न मोहि जान पयादहि । बिनहि रथि करि देउँ में तुम्हहि ॥ 
में लव हूँ और लव का अर्थ  निमेष होता है में निमेष मात्र में ही सभी शूर वीरों  को जीत लूँगा । तुम मुझे प्यादा जानकर संकोच न करो लो मैं तुम्हें भी प्यादे में परिणित कर देता हूँ  ॥ 

असि बत कहि कह सो बलवाना । चढ़ा पनच कोदण्ड बिताना ॥ 
प्रथम जनि पुनि सुरत गुरु नामा । मन ही मन कर तिन्ह प्रनामा ॥ 
सर्वप्रथम अपनी माता और फिर अपने गुरु वाल्मीकि  का नाम स्मरण करते हुवे मन ही मन उन्हें प्रणाम किया ॥ 
लगे बरखावन घन घन बान बिकट बिकराल । 
रिपुगन के जो काल बन प्रान लेइ तत्काल ॥ 


बिकट बिसिख गन बरखन लागे । घानत घन रिपु जीउ  त्यागें ॥ 
तमकि ताकि पताकिनी पाला । भींच अधर किए लोचन लाला ॥ 

 दहत बदन गह अगन प्रचंडा । करषत कसत कठिन कोदंडा ॥ 
निरखत नभ गच पनच चढ़ाईं । देत परच निज रन चतुराई ॥ 

छूटत सरगन गगन घन छाए । लगे जो जिय सो जीव न पाए ॥ 
लपकत ताहिं बीर बरबंडा । किए एक एक के सत सत  खंडा ॥ 

घमासान रन भयउ बिहाना  । छाडसि लसतकि कसि कसि बाना ॥ 
अष्टबान पुनि प्रतिहत मारे । निपत नीच दलपत भू पारे ।। 

चढ़े घात भए रथहु बिभंगा । दुहु पयादिक भयउ ता संगा ॥ 
तुरत तमीचर  करि लय आईं  । सपत धार मददान रिसाईं ॥ 

चढ़ बैठें पति छन ताऊपर ।  रन दुर्मद चलिअ अति बेगिकर॥ 
गजारूढ़  भूआलहिं देखा ।  रिपु जयंत सो बीर बिसेखा ॥ 

मारि बिहस कुल बान दस दरस दरस  दल राय । 
झपटि भीतत बिंध दियो हरिदै भवन समाए ॥ 

बृहस्पतिवार १४ अप्रेल, २०१६                                                                               

  अस बल स रन कौसल भारी । अधिपत अबरु न कतहुँ निहारीं ॥ 
बहुरि भयंकर परिघ प्रहारी । लगत तुरए जो जिअ अपहारीं ॥ 

चढ़त अगास चिक्करत धायो । चरत चपल लव काटि गिरायो ॥ 
लिए करबीर करतरी पासा ।  दुर्मद हस्ती किए बिनु नासा ॥ 

तजत सकल कल केतु समूहा । कुलत करिहि सो कुंजर कूहा ॥ 
कूदि ततछन धरिअ पद दन्ता । सीस भवन पुनि चढ़े तुरंता ॥ 

भेंट अधिपत बीर बरबंडा । मौलि मुकुट कीन्हि सत खण्डा ॥ 
गाताबरन सहस खन करिहीं । हनत मुठिका केस कर धरिहीं  ॥ 

खैंच ताहि महि देइ गिरायो । दुंदभ कोप दहन मुख छायो ॥ 
अधिपति मुख  बल निपतत भूहा ।  भेद गही निर्भेद ब्यूहा ॥ 

धारा बिष करताल गहत घात लहरात पुनि । 
भर जुग नयन ज्वाल लवनहि बधन अगुसर भए ॥ 

 चलि जल जल जोलाहल जोई । सौंट सरट कोलाहल होई ॥  
पत कर गहि कर बीर बिसेखा । लव जब नियरै आगत देखा ॥ 
और उसने ज्वाल संयोगित कृपाण धारण कर ॥ 

काटि माँझि दाहिन भुज ताहीं । खडग सहित छन गिरि महि माहीं ॥ 
देखि कर तरबारि महि पारी ।   उमगिहि कोप दहन अति भारी ॥ 

बाम भुज गरु गदाल गहावा । हतोद्यम लवनहि पुर आवा ॥ 
तीछ  तीर तैं ऐतक माही । तमकत काटि दियो लव ताहीं ॥ 

कतहुँ त मुग्दल करतल पूरा । गिरि कतहुँ कर कलित केयूरा ॥ 
धधकत धारा बिष धरंता । मुनिबर पुनि बालक बलवंता ॥ 


टूट परेउ काल के नाईं । मुकुट मंडित माथ बिलगाईं ॥ 
परे रन भुइँ बहुरि निरजूहा । भयऊ  जुगत रहित सब जूहा ॥ 

खेत होइ सेनाधिपत प्रसरित भए चहुँ ओर । 
चिक्करत बिकल करिहि सकल  कोलाहल घन घोर ॥  

मंगलवार, १७ अप्रेल २०१६                                                                                          
सकल चमुचर छोभ भरि आवा । लवनन्हि बधन चरन बढ़ावा ॥ 
होत क्रुद्ध अति  होइ अगौहाँ । सियसुत तुरत आए ता सौंहा ॥ 

रजु कसि पुनि असि मारिउ बाना । सबन्हि पाछिन देइ पराना ॥ 
चलिअ  बान  जिमि पवन अधीर । गिरहि बीर जिमी तरु नद तीरा ॥ 

लगइँ ढेरि केतक भट केरी । केतन केत चलिअ मुख फेरी ॥ 
एहि बिधि छतवत सबहिं जुझारू । अगहुँ तेउ पुनि भए पिछबारू ॥ 

भर बर लव रन भूषन भेसा । कटकु माझ बहु मुदित प्रबेसा ॥ 
चरन केहि के केहि कर बाहु । काटेउ करन नासिका काहु ॥ 

कोउ बदन भै नयन बिहीना । कोउ कवच को कुंडल हीना ॥ 
एहि बिधि सेनापति गै मारे । होइ भयंकर सैन सँहारे ॥ 

सबहि जीउ सिराए गए जिअत रहे नहि कोइ । 

चतुरंगिनि हिय जीत लव बिजै कलस कर जोइ ॥ 

एहि बिधि हतवत रिपु समुदाई । बिनु पत परवत गयउ सिराई ॥

होइ पराजय ए अनकनी  के । आए न जाईं कोउ अनीके ॥ 
परवत् = असहाय होकर 
मानस मन यह संसय जागे । लव रन पंथ जुहारन लागे ॥
रहइ सचेत नयन पथ लाईं ।  औरब बरूथ करन अगवाईं ॥ 
औ फिर वह सावधान होकर पथ पर आखें लगाए और दूसरे सैनिकों के आने की बाट जोहने लगे ॥ 

सुभाग बस को को रजतंती । जोवत जीय रहे जीवंती ॥ 
पाहि पाहि कह सकल पराने । पाछु फनिस सम सायक आने ॥ 

पराबरत गत रिपुहन पाहीं । समाचार सब कहत सुनाईं ॥ 
काल सरिबर करनि एकु बाला । लहिअ काल जित मरनि अकाला ॥ 

तासु बिचित्र  रन करम बखाना । सुनि सत्रुहन बहु अचरजु माना ॥ 
चितब चितबत बोलि तिन ताहीं । करिहहु तुम छल कपट त नाहीं ॥ 

बिकल त अहहि न चित्त तिहारे । काल जित अह गयउ कस मारे॥ 
दुर्दम जो जम पौरुष तेहू । अरु एकु बालक ताहि जितेहू ॥ 

गहिहिं घात अघात जुधिक देह रुधिर लपटानि । 
कहिहिं  नीतिगत बचन पुनि सत्रुहन सहुँ जुग पानि ॥ 

बुध/ | बृहस्पति  २० / २१ अप्रेल, २०१६                                                                                     

करहिं न हम छल कपट न खेला । किया एकै सो हम पर हेला ॥ 
कालजित कर मरनि गोसाईँ । भई बीर सो बालक ताईं ॥ 

अदुतिय जाकी रन कुसलाई । तासों सकल कटकु मथियाई ॥ 
होइ जोइ अब तासु बहोरी । करहु सोइ जस मति कहि तोरी ॥ 

जिन्हनि जुझावन हुँत पठाहू । होइ चाहिब सो बली बाहू ॥ 
भट निवेदित बचन दए काना । तब रामानुज परम सुजाना ॥ 

करम नीति महुँ अति निपुनाई ।  मंत्रीबर तैं पूछ बुझाईं ॥ 
महोदय तुमहि जनाउब एही । हरिअ लियो हय बालक केही ॥ 

सरितपति सिंधु सरिस मम सकल चमूचर आहिं । 
तपन काल के ताल तुल पलक सोष बिनसाहि ॥ 


गींव भयउ गहबर के नाईं । महमन सुमति बोलि गोसाईं ॥ 
बाल्मीकि केरे आश्रमु एहि । रिषि मुनि अबरु ए निवास  न केहि ॥ 

हरनहार सुरपति त न होईं । आन तुरग हरि सके न कोई ॥ 
कै संकर भरि बालक भेसा । अरु हरनि नहि कतहुँ को देसा ॥ 

सोच बिचार मम मति अस कहहि । एहि औुसर जैहौ तहँ तुम्हहि ॥ 
लेइ संग निज सैन बिसाला । चारिहुँ पुर बल सकल भुआला ॥ 

जाए तहां अब तुम अरिहंता । बाँध  लियो छन ताहि जियन्ता ॥ 
रिपु कर करतब करत न हारे । कौतुक प्रिय रघुनाथ हमारे ॥ 

बाँध कसि ले जैहौं तहँ हार परन मैं ताहि । 
करिअ सम्मुख देखइहौं रघुबर सों सब काहि ॥ 



मेघ माल सम सप्तक घेरे । भए मोचित गए सबहिं निबेरे ॥
सरद काल कल नभ बरन बिछोही । सियसत पूरन सस सम सोंहीं ॥

गहए पीर तन तीर पबारे| नेकानेक बीर महि पारे ॥
बिहरति बिकल सकल कटकाई । हतबत बिनु पति चलिअ पराई ॥

धावत जब निज दल अबलोके ।  केही भाँति लव गयउ न रोके ॥
तब बलबन पुष्कल ता सोहें । छतज नयन करि होइ अगौहैं ॥

ठा ड़ रहउ कह बारहि बारा । नियरावत यहु कहत पचारा ॥
बर बर तुरंग संग सुसोही । देउँ पदचर बीर मैं तोही ॥

मैं रथि अरु तुम प्यादहि अहहि पाएं  बिनु त्रान । 
कहौ मैं केहि बिधि तोहि जितौं बीर बलबान ॥ 

शुक्रवार, २२ अप्रेल, २०१६                                                                                   

प्रथम तुम रथारोहित होहू । तव सों पुनि लेहउँ में लोहू ॥ 
तुहरे दिए रथ गहत बीरबर । रन करिअन जो चढिहउँ तापर ॥ 

त लगिहिं बहुतक पातक मोही । बिजय सिद्धि मम सिद्ध न होहीं ॥ 
जद्यपि जति मुनि सम ममभेसा ।जूट जटालु जटिल कृत केसा ॥ 

तथापि छतरिय धर्म हमारा । करैं सदा हित सत्कृत कारा ॥ 
हम स्वयमही निसदिन दाहैँ । दिया लेइँ सो बम्हन नाहैं ॥ 

मोर दसा कर करिहु न चिंता । तुहरे रथ करि देउँ भंजिता ॥ 
होहिहु तुम्हहि पयादित पाएँ । भयो जस तव पुरबल दल राए ॥ 

पुनि रन हेतु पचारिहु मोही । ताते भल कहु बत का होही ॥ 
धर्मतस लव केरे बखाना । धीर जुगत कहिबत दे काना ॥ 

पुष्कल तब बहु बेर लग चितबत चितवहि ताहि । 
करिए कहा क कहा समुझ परे कछु नाहि ॥ 

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