लागि कटक दल भुज हिन् कैसे । कटे साख को द्रुमदल जैसे ॥
कांत मुख भए मंद मलीना । जस को बालक केलि बिहीना ॥
( ऐसा कहते )परकटी सेना कैसे प्रतीत हुई जैसे वह कटी हुई शाखा वाले वृक्ष का समूह हों ॥ और उनके कालिमा से युक्त मुरझाए हुवे मुख इस प्रकार दर्श रहे थे जैसे भुजा न हुई किसी बालक के खिलौने हो गए और वे किसी ने छीन लिए हों ॥
त्राहि कहत कहरत कटकाई । बल न अरु बली भेस बनाई ॥
रिपुहन हरिदै दहए अतीवा । कुठार पन के रहे न सींवाँ ॥
वह रक्षा की प्रार्थना करने लगी
सुनि पुनि बालक हरिहि तुरंगा । ज्वाल नयन जरइ सब अंगा ॥
कहत धरनि धर सुनु हे मुनि बर । भंग भुजा केरे दरसन कर ॥
नाचत बदन अगन कन चमकहिं । अस जस धनवन दामिनि दमकहिं ॥
सकल कटक अस थर थर काँपिहि । भूमि कम्प जस भवन ब्यापिहि ॥
इस प्रकार भगवान शेष जी कहते हैं हे मुनिवर ! अपनी सेना को ऐसी भग्न बाहु की अवस्था में देख कर । शत्रुहन के मुख पर क्रोध की चंगारी ऐसे नृत्य करने लगी जैसे आकाश में चंचला नृत्य करती हो ॥
पीसत दंत गरजत हँकारे । पचार लवन्हि बदन पसारे ॥
दिए रदन गन अधर दल चीन्हि । कोपु बिबस चिन्हारी दीन्हि ॥
बहु रिसिहाईं पूछ बुझाईं दरस कटक बाहु कटे ।
कवन बीर कर काटे भुज धर ते मोर सौमुख डटे ॥
कहत पुनि सोइ बाल बलबन्हि रच्छिहैं किन देवहीं ।
गह बल केते बाँच न पाइँहि जो मोरे हस्त गहीं ॥
अपने सैनिकों की कटी हुई भुजाएँ देख कर बहुंत ही रोष पूर्वक प्रश्न करने लगे किस वीर के हाथों ने ये भुजाएं काटी है । वो मेरे सम्मुख तो आए फिर शत्रुधन ने कहा वह बलवान चाहे देवताओं ही रक्षित क्यों न हो उसने कितना ही बल ग्रहण क्यों न किया हो पर मेरे हाथ से नहीं बच पाएगा ॥
सुनि सैन सत्रुहन बचनन, किए अचरज भरि खेद ।
एक बालक श्री राम रुप, कहत बाँधि है मेद ।।
सैनिकों ने शत्रुध्न के वचन को सुनकर आश्चर्य युक्त खेद व्यक्त कर बोले : -- एक बाल किशोर है जो श्री राम के स्वरुप ही है उसी ने उस गठीले अश्व को बांधा है ॥
शुक्रवार, ०८ अप्रेल , २०१६
सुनि एकु बालक हरिहि तुरंगा । छोभअगन किए नयन सुरंगा ॥
बोलि बिमूढ़ हठि बालक एहू । करन चहसि सठ जमपुर गेहू ॥
तब रिपुहन बिहरत निज आपा । कसेउ ताल कठिन कर चापा ॥
दहन तपन हरिदै न समाहू । संग्राम हेतु होत उछाहू ॥
सेनाधिप काल जित बुलायो । नीति बनाउन आयसु दायो ॥
कहि दलपति अग्या यह मोरे । सब रन साजु सँजोइल जोरें ॥
रचिहु अदम दुर्भेद ब्यूहा । जुगावत सबहि जेय समूहा ॥
अहहैं रिपु एकु बीर जयंता । बिपुल तेज बल अति बुधवन्ता ॥
हमरे तुरग हरिहि जो कोई । सो बालक सधारन न होई ॥
एहि अवसर सुनु करन चढ़ाई । चौरंगीनि लेउ बनाई ॥
द्युतिसमन दरपन सहुँ दै आसन सकल प्रसाधन निहार के ।
सब साज सुसाजित करिहु समाजित चातुरंग सिँगार के ॥
राम प्रतिरूप रूप न थोड़े सो बीरबर सुकुमार के ।
सुनु लागत लगन समर सदन पुनि करिहु सम्मुख सँभार के ॥
द्योतिसमन दरपन सहुँ चातुरंग सम्भार ।
समर साज प्रसाधन सों करि सुठि सब सिंगार ॥
अरिहन अग्या सेन पत सकलत अदम समूह ।
सब रन साज सजाइ के रचिहि अभेद ब्यूह ॥
आनि लेइ रिपुहन समुहाई । निरखत सजी धजी कटकाई ॥
हरनहार जहँ बालक पायो । तहाँ पयावन कहि समझायो ॥
इत चतुरंगिनि आगिन बाढ़िहि । पंथ जुहारत लव उत ठाढ़िहि ॥
दरसत बालक रूप अनूपा । कहि दलपत अह राम सरूपा ॥
कहत कुँअरु हे पलक न पारे । परिहरु देउ तुरंग हमारे॥
अवध पति जिन्ह के गोसाईं । तिन्हके बिकम बरनि न जाई ॥
गहेउ तपसि राम सम चेले । ताहि सरूप रूप तव मेले ॥
दरस तोहि मैं भयउँ दयालू । कारन तव छबि सोंह कृपालू ॥
जिअ बिसुरत निज सुध बुध भूला । होइ चहु तुम्ह तूलमतूला ॥
अब लग जग जिअ हारि न काहू । तासु हृदय तुम जीतन चाहू ॥
सुनहु हे बीरबर कुँअर मानिहु बात न मोरि ।
रोपिहु हठ एहि अवसर त होहि राख कस तोरि ॥
शनिवार, ०९ अप्रेल, २०१६
लव मुख दर्पण छबि निज नाहा ॥ बिलखत अपलक बोलहि बाहा ।
जो तुम्ह मोर कहि नहि मानिहु । निज जीवन बिरथा बिनसानिहु ॥
मैं बहु बिरधा तूम एक बालक । कारन तुम पदचर में एक पालक ॥
सुनु हे रघुबर कर प्रतिरूपा । देउ परिहर सौंपि सो भूपा ॥
मोरी छबि अवधेश समाना । होइ चकित लव सुनि जब काना ॥
जबु दलपत कहि बत गुँजराँई। कछु हँसि हंस अधर तरियाँईं ॥
हृदय तरंग माल उमगाईं । एकु तरि आईं एकु तरि जाईं ॥
एक छन अधरन दिए अलगानी । बोलि गिरा पुनि मधुरस सानी ॥
जे तुम मानिहु हार, मैं तुरग परिहर करिहउँ ।
कहिहु ए समाचार, राम सों भग्न दूत बन ॥
हे सेना पति काल जित, यदि तुम अपनी हार मान लो तो मैं इस घोड़े को छोड़ दूँगा । और श्रीराम चन्द्र जी के सम्मुख युद्ध में हार का सन्देश देने वाले दूत बनकर सारा समाचार कहो ॥
लव मुख दर्पण छबि निज नाहा ॥ बिलखत अपलक बोलहि बाहा ।
जो तुम्ह मोर कहि नहि मानिहु । निज जीवन बिरथा बिनसानिहु ॥
मैं बहु बिरधा तूम एक बालक । कारन तुम पदचर में एक पालक ॥
सुनु हे रघुबर कर प्रतिरूपा । देउ परिहर सौंपि सो भूपा ॥
मोरी छबि अवधेश समाना । होइ चकित लव सुनि जब काना ॥
जबु दलपत कहि बत गुँजराँई। कछु हँसि हंस अधर तरियाँईं ॥
एक छन अधरन दिए अलगानी । बोलि गिरा पुनि मधुरस सानी ॥
नाउ धर केहि नाउ न होही । होत कीरत करनि कृत सोई ॥
कहत चकित तब काल जित जनमिहु तुम कुल केहि ।
कहौ बिदित सो नाउ निज तोहि पुकारसि जेहि ॥
रविवार, १० अप्रेल, २०१६
सीस जटा जुट बिबरन चाहीं । करिहहु रन धुनि मुनि तुम नाही ॥
तन जति बसन बिचरहु बन एही । बसिहउ गाँव नगर कहु केही ॥
कहहु बीर तव नृप को होंही । तुहरी दसा जनाउ न मोही ॥
राज लच्छन सब अंग सुहाए । में रथि अरु तुम पयादहि पाएँ ॥
तुमहि कहौ दुर्दम में ऐसे । अधर्मतस तोहि जितौं कैसे ॥
कहत सियसुत नगर कुल नाउ । कहौ तो लेन दसा ते काउ ॥
सेनापति बहु कह समुझाईं । पराधीन सपनेहु सुख नाहीं ॥
हमहु अधीन न अंगीकारी । कहत एहि मुख करक चिंघारी ॥
सेनापति कालजीत ने लव को बहुंत समझाया किन्तु पराधीनता स्वपन में भी सुख नहीं देती लव ने फिर यह उद्दीप्त होकर कहा हमें अधीनता स्वीकार्य नहीं है ॥
में लव अहिहउँ अरु लव माही । जितिहउँ समर बीर सब काहीं ॥
सकुचउ न मोहि जान पयादहि । बिनहि रथि करि देउँ में तुम्हहि ॥
में लव हूँ और लव का अर्थ निमेष होता है में निमेष मात्र में ही सभी शूर वीरों को जीत लूँगा । तुम मुझे प्यादा जानकर संकोच न करो लो मैं तुम्हें भी प्यादे में परिणित कर देता हूँ ॥
असि बत कहि कह सो बलवाना । चढ़ा पनच कोदण्ड बिताना ॥
प्रथम जनि पुनि सुरत गुरु नामा । मन ही मन कर तिन्ह प्रनामा ॥
सर्वप्रथम अपनी माता और फिर अपने गुरु वाल्मीकि का नाम स्मरण करते हुवे मन ही मन उन्हें प्रणाम किया ॥
लगे बरखावन घन घन बान बिकट बिकराल ।
रिपुगन के जो काल बन प्रान लेइ तत्काल ॥
बिकट बिसिख गन बरखन लागे । घानत घन रिपु जीउ त्यागें ॥
तमकि ताकि पताकिनी पाला । भींच अधर किए लोचन लाला ॥
दहत बदन गह अगन प्रचंडा । करषत कसत कठिन कोदंडा ॥
निरखत नभ गच पनच चढ़ाईं । देत परच निज रन चतुराई ॥
छूटत सरगन गगन घन छाए । लगे जो जिय सो जीव न पाए ॥
लपकत ताहिं बीर बरबंडा । किए एक एक के सत सत खंडा ॥
घमासान रन भयउ बिहाना । छाडसि लसतकि कसि कसि बाना ॥
अष्टबान पुनि प्रतिहत मारे । निपत नीच दलपत भू पारे ।।
चढ़े घात भए रथहु बिभंगा । दुहु पयादिक भयउ ता संगा ॥
तुरत तमीचर करि लय आईं । सपत धार मददान रिसाईं ॥
चढ़ बैठें पति छन ताऊपर । रन दुर्मद चलिअ अति बेगिकर॥
गजारूढ़ भूआलहिं देखा । रिपु जयंत सो बीर बिसेखा ॥
मारि बिहस कुल बान दस दरस दरस दल राय ।
झपटि भीतत बिंध दियो हरिदै भवन समाए ॥
बृहस्पतिवार १४ अप्रेल, २०१६
अस बल अस रन कौसल भारी । अधिपत अबरु न कतहुँ निहारीं ॥
बहुरि भयंकर परिघ प्रहारी । लगत तुरए जो जिअ अपहारीं ॥
चढ़त अगास चिक्करत धायो । चरत चपल लव काटि गिरायो ॥
लिए करबीर करतरी पासा । दुर्मद हस्ती किए बिनु नासा ॥
तजत सकल कल केतु समूहा । कुलत करिहि सो कुंजर कूहा ॥
कूदि ततछन धरिअ पद दन्ता । सीस भवन पुनि चढ़े तुरंता ॥
भेंट अधिपत बीर बरबंडा । मौलि मुकुट कीन्हि सत खण्डा ॥
गाताबरन सहस खन करिहीं । हनत मुठिका केस कर धरिहीं ॥
खैंच ताहि महि देइ गिरायो । दुंदभ कोप दहन मुख छायो ॥
अधिपति मुख बल निपतत भूहा । भेद गही निर्भेद ब्यूहा ॥
धारा बिष करताल गहत घात लहरात पुनि ।
भर जुग नयन ज्वाल लवनहि बधन अगुसर भए ॥
चलि जल जल जोलाहल जोई । सौंट सरट कोलाहल होई ॥
पत कर गहि कर बीर बिसेखा । लव जब नियरै आगत देखा ॥
और उसने ज्वाल संयोगित कृपाण धारण कर ॥
काटि माँझि दाहिन भुज ताहीं । खडग सहित छन गिरि महि माहीं ॥
देखि कर तरबारि महि पारी । उमगिहि कोप दहन अति भारी ॥
बाम भुज गरु गदाल गहावा । हतोद्यम लवनहि पुर आवा ॥
तीछ तीर तैं ऐतक माही । तमकत काटि दियो लव ताहीं ॥
कतहुँ त मुग्दल करतल पूरा । गिरि कतहुँ कर कलित केयूरा ॥
धधकत धारा बिष धरंता । मुनिबर पुनि बालक बलवंता ॥
टूट परेउ काल के नाईं । मुकुट मंडित माथ बिलगाईं ॥
परे रन भुइँ बहुरि निरजूहा । भयऊ जुगत रहित सब जूहा ॥
खेत होइ सेनाधिपत प्रसरित भए चहुँ ओर ।
चिक्करत बिकल करिहि सकल कोलाहल घन घोर ॥
मंगलवार, १७ अप्रेल २०१६
सकल चमुचर छोभ भरि आवा । लवनन्हि बधन चरन बढ़ावा ॥
होत क्रुद्ध अति होइ अगौहाँ । सियसुत तुरत आए ता सौंहा ॥
रजु कसि पुनि असि मारिउ बाना । सबन्हि पाछिन देइ पराना ॥
चलिअ बान जिमि पवन अधीर । गिरहि बीर जिमी तरु नद तीरा ॥
लगइँ ढेरि केतक भट केरी । केतन केत चलिअ मुख फेरी ॥
एहि बिधि छतवत सबहिं जुझारू । अगहुँ तेउ पुनि भए पिछबारू ॥
भर बर लव रन भूषन भेसा । कटकु माझ बहु मुदित प्रबेसा ॥
चरन केहि के केहि कर बाहु । काटेउ करन नासिका काहु ॥
कोउ बदन भै नयन बिहीना । कोउ कवच को कुंडल हीना ॥
एहि बिधि सेनापति गै मारे । होइ भयंकर सैन सँहारे ॥
सबहि जीउ सिराए गए जिअत रहे नहि कोइ ।
चतुरंगिनि हिय जीत लव बिजै कलस कर जोइ ॥
एहि बिधि हतवत रिपु समुदाई । बिनु पत परवत गयउ सिराई ॥
होइ पराजय ए अनकनी के । आए न जाईं कोउ अनीके ॥
परवत् = असहाय होकर
मानस मन यह संसय जागे । लव रन पंथ जुहारन लागे ॥
रहइ सचेत नयन पथ लाईं । औरब बरूथ करन अगवाईं ॥
औ फिर वह सावधान होकर पथ पर आखें लगाए और दूसरे सैनिकों के आने की बाट जोहने लगे ॥
सुभाग बस को को रजतंती । जोवत जीय रहे जीवंती ॥
पाहि पाहि कह सकल पराने । पाछु फनिस सम सायक आने ॥
पराबरत गत रिपुहन पाहीं । समाचार सब कहत सुनाईं ॥
काल सरिबर करनि एकु बाला । लहिअ काल जित मरनि अकाला ॥
तासु बिचित्र रन करम बखाना । सुनि सत्रुहन बहु अचरजु माना ॥
चितब चितबत बोलि तिन ताहीं । करिहहु तुम छल कपट त नाहीं ॥
बिकल त अहहि न चित्त तिहारे । काल जित अह गयउ कस मारे॥
दुर्दम जो जम पौरुष तेहू । अरु एकु बालक ताहि जितेहू ॥
गहिहिं घात अघात जुधिक देह रुधिर लपटानि ।
कहिहिं नीतिगत बचन पुनि सत्रुहन सहुँ जुग पानि ॥
बुध/ | बृहस्पति २० / २१ अप्रेल, २०१६
करहिं न हम छल कपट न खेला । किया एकै सो हम पर हेला ॥
कालजित कर मरनि गोसाईँ । भई बीर सो बालक ताईं ॥
अदुतिय जाकी रन कुसलाई । तासों सकल कटकु मथियाई ॥
होइ जोइ अब तासु बहोरी । करहु सोइ जस मति कहि तोरी ॥
जिन्हनि जुझावन हुँत पठाहू । होइ चाहिब सो बली बाहू ॥
भट निवेदित बचन दए काना । तब रामानुज परम सुजाना ॥
करम नीति महुँ अति निपुनाई । मंत्रीबर तैं पूछ बुझाईं ॥
महोदय तुमहि जनाउब एही । हरिअ लियो हय बालक केही ॥
सरितपति सिंधु सरिस मम सकल चमूचर आहिं ।
तपन काल के ताल तुल पलक सोष बिनसाहि ॥
गींव भयउ गहबर के नाईं । महमन सुमति बोलि गोसाईं ॥
बाल्मीकि केरे आश्रमु एहि । रिषि मुनि अबरु ए निवास न केहि ॥
हरनहार सुरपति त न होईं । आन तुरग हरि सके न कोई ॥
कै संकर भरि बालक भेसा । अरु हरनि नहि कतहुँ को देसा ॥
सोच बिचार मम मति अस कहहि । एहि औुसर जैहौ तहँ तुम्हहि ॥
लेइ संग निज सैन बिसाला । चारिहुँ पुर बल सकल भुआला ॥
जाए तहां अब तुम अरिहंता । बाँध लियो छन ताहि जियन्ता ॥
रिपु कर करतब करत न हारे । कौतुक प्रिय रघुनाथ हमारे ॥
बाँध कसि ले जैहौं तहँ हार परन मैं ताहि ।
करिअ सम्मुख देखइहौं रघुबर सों सब काहि ॥
मेघ माल सम सप्तक घेरे । भए मोचित गए सबहिं निबेरे ॥
सरद काल कल नभ बरन बिछोही । सियसत पूरन सस सम सोंहीं ॥
गहए पीर तन तीर पबारे| नेकानेक बीर महि पारे ॥
बिहरति बिकल सकल कटकाई । हतबत बिनु पति चलिअ पराई ॥
धावत जब निज दल अबलोके । केही भाँति लव गयउ न रोके ॥
तब बलबन पुष्कल ता सोहें । छतज नयन करि होइ अगौहैं ॥
ठा ड़ रहउ कह बारहि बारा । नियरावत यहु कहत पचारा ॥
बर बर तुरंग संग सुसोही । देउँ पदचर बीर मैं तोही ॥
मैं रथि अरु तुम प्यादहि अहहि पाएं बिनु त्रान ।
कहौ मैं केहि बिधि तोहि जितौं बीर बलबान ॥
शुक्रवार, २२ अप्रेल, २०१६
प्रथम तुम रथारोहित होहू । तव सों पुनि लेहउँ में लोहू ॥
तुहरे दिए रथ गहत बीरबर । रन करिअन जो चढिहउँ तापर ॥
त लगिहिं बहुतक पातक मोही । बिजय सिद्धि मम सिद्ध न होहीं ॥
जद्यपि जति मुनि सम ममभेसा ।जूट जटालु जटिल कृत केसा ॥
तथापि छतरिय धर्म हमारा । करैं सदा हित सत्कृत कारा ॥
हम स्वयमही निसदिन दाहैँ । दिया लेइँ सो बम्हन नाहैं ॥
मोर दसा कर करिहु न चिंता । तुहरे रथ करि देउँ भंजिता ॥
होहिहु तुम्हहि पयादित पाएँ । भयो जस तव पुरबल दल राए ॥
पुनि रन हेतु पचारिहु मोही । ताते भल कहु बत का होही ॥
धर्मतस लव केरे बखाना । धीर जुगत कहिबत दे काना ॥
पुष्कल तब बहु बेर लग चितबत चितवहि ताहि ।
करिए कहा क कहा समुझ परे कछु नाहि ॥
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