दासकरिता हेतु प्रान न्योछाबरिहि देह |
ताते भलो त बीर सो रहे आपने गेह || १ ||
भावार्थ : - इस देश को अपने अधीन करने वाले समुदाय की सुरक्षा में प्राणों का बलिदान करने से तो अच्छा है वह वीर अपने घर में ही रहे |
राजू : - हाँ ! टांग उठाते हुवे राजपथ में न फिरे
भारत बटिका फूरते चारि बरन के फूर |
जौ झुरमुट सहुँ झूरते बहिर देस के मूर || २ ||
भावार्थ : - भारत देश की पुष्पवाटिका में हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख्ख ये चार धर्मों के ही पुष्प पुष्पित होते हैं, जो अन्य झाड़ियों के समूह दिखाई दे रहे हैं वह भारत से भिन्न देश के मूल हैं |
आँगन में नदिया बही आया मरत पियास |
दासा गोसाईं भया अरु गोसाईं दास || ३ ||
भावार्थ : - इस देश से भिन्न इन परधर्मावलम्बियों के भारत आने की इतनी सी कहानी है की एक समय इस देश में समृद्धि की नदियाँ बहने लगी थी मरुस्थलों से ये प्यासे मरते हुवे यहाँ आए प्रथमतः स्वयं दास बने, फिर देश को लूटा, कालान्तर में देश के सम्प्रभुत्व को ही अपना दास बना लिया |
बैसे भीतर आपने अपुने सोंहि बिरुद्ध |
स्वाम संगत आपनी करते निसदिन जुद्ध ||४ ||
भावार्थ : - और यहाँ अपनों के विरोधी अपने ही भीतर बैठे हैं वे अपने स्वाम्य को अपने सम्मुख किए उससे निसदिन संग्राम करते हैं |
जोग बनाया आपुनो पराए संगत प्रीत |
निज सत हेतु बिरोधता सो तो अनभल रीत ||५ ||
भावार्थ : - प्रीति योग्य अपनों ने बनाया और परायों से प्रीत कर अपने ही स्वत्व का विरोध करना यह भली रीत नहीं है |
दंड ताहि होतब अहइँ अपराधिहि निर्बाध |
भावार्थ :- बहिर्देशीय देश पर शासन के अधिकार से संपन्न है यहाँ स्वदेशी उपेक्षित हैं | हे मतदाता !अपना मत दान करने से पूर्व तू इसपर किंचित विचार कर |
बसा पराया जोइ दए पराधीन के मंत्र |
मत दाने बिनु परिहरे जन जन ऐसो तंत्र || ९ ||
भावार्थ :- जन जन को मत का दान न कर ऐसे तंत्र की अवहेलना करनी चाहिए जो बहिर्देशियों को वसवासित कर पराधीनता की मंत्रणा करता हो |
जनतंत्र के नेता जौ चले चलनि सो लीक |
जोइ करे सो नीक है जोइ कहे सो ठीक || १० ||
भावार्थ : - किन्तु जनतंत्र में जनसामान्य की करनी, कहनी, व् चलनी का कोई मूल्य नहीं है इस तंत्र के नेता जो चलनी चले वही परम्परा,रीति व् धर्म पंथ है, जो कुछ करे वह सुन्दर है, और जो कहे वह नीतिपरक वचन है |
बाज रही सुठि झाँझरी बाजे ढपरी ढोल |
कृष्ना कृष्ना बोल के राधे राधे बोल || ||
लाल पील हरि केसरी रंग कलस मैं घोल |
बाज रही सुठि झाँझरी बाजे ढपरी ढोल |
ताते भलो त बीर सो रहे आपने गेह || १ ||
भावार्थ : - इस देश को अपने अधीन करने वाले समुदाय की सुरक्षा में प्राणों का बलिदान करने से तो अच्छा है वह वीर अपने घर में ही रहे |
राजू : - हाँ ! टांग उठाते हुवे राजपथ में न फिरे
भारत बटिका फूरते चारि बरन के फूर |
जौ झुरमुट सहुँ झूरते बहिर देस के मूर || २ ||
भावार्थ : - भारत देश की पुष्पवाटिका में हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख्ख ये चार धर्मों के ही पुष्प पुष्पित होते हैं, जो अन्य झाड़ियों के समूह दिखाई दे रहे हैं वह भारत से भिन्न देश के मूल हैं |
आँगन में नदिया बही आया मरत पियास |
दासा गोसाईं भया अरु गोसाईं दास || ३ ||
भावार्थ : - इस देश से भिन्न इन परधर्मावलम्बियों के भारत आने की इतनी सी कहानी है की एक समय इस देश में समृद्धि की नदियाँ बहने लगी थी मरुस्थलों से ये प्यासे मरते हुवे यहाँ आए प्रथमतः स्वयं दास बने, फिर देश को लूटा, कालान्तर में देश के सम्प्रभुत्व को ही अपना दास बना लिया |
बैसे भीतर आपने अपुने सोंहि बिरुद्ध |
स्वाम संगत आपनी करते निसदिन जुद्ध ||४ ||
भावार्थ : - और यहाँ अपनों के विरोधी अपने ही भीतर बैठे हैं वे अपने स्वाम्य को अपने सम्मुख किए उससे निसदिन संग्राम करते हैं |
जोग बनाया आपुनो पराए संगत प्रीत |
निज सत हेतु बिरोधता सो तो अनभल रीत ||५ ||
भावार्थ : - प्रीति योग्य अपनों ने बनाया और परायों से प्रीत कर अपने ही स्वत्व का विरोध करना यह भली रीत नहीं है |
दंड ताहि होतब अहइँ अपराधिहि निर्बाध |
संस्कार ताहि होतब निर्बंधित अपराध || ६ ||
----- || अज्ञात || -----
भावार्थ : - दंड से केवल अपराधी अवरुद्ध होता है अपराध नहीं संस्कारों से तो अपराध ही अवरुद्ध हो जाता है |
नगर अँधेरा माहि भा ऐसो चौपट राज |
हस्त सिद्धि मेलिहैंगी अजहुँ बिनहि श्रमकाज || ७ ||
भावार्थ :- नियम व् नीतियों के अभाव में अब ऐसा चौपट शासन होगा कि अब जनसामान्य बिना परिश्रम के पारिश्रमिक मिलेगी और नेताओँ को बिना सेवाकार्य किए सत्ता का सुख प्राप्त होगा |
गहे पराया देस कहुँ सासन के अधिकार |
दाता निज मत दए पुरब किंचित करे बिचार || ८ || नगर अँधेरा माहि भा ऐसो चौपट राज |
हस्त सिद्धि मेलिहैंगी अजहुँ बिनहि श्रमकाज || ७ ||
भावार्थ :- नियम व् नीतियों के अभाव में अब ऐसा चौपट शासन होगा कि अब जनसामान्य बिना परिश्रम के पारिश्रमिक मिलेगी और नेताओँ को बिना सेवाकार्य किए सत्ता का सुख प्राप्त होगा |
गहे पराया देस कहुँ सासन के अधिकार |
भावार्थ :- बहिर्देशीय देश पर शासन के अधिकार से संपन्न है यहाँ स्वदेशी उपेक्षित हैं | हे मतदाता !अपना मत दान करने से पूर्व तू इसपर किंचित विचार कर |
बसा पराया जोइ दए पराधीन के मंत्र |
मत दाने बिनु परिहरे जन जन ऐसो तंत्र || ९ ||
भावार्थ :- जन जन को मत का दान न कर ऐसे तंत्र की अवहेलना करनी चाहिए जो बहिर्देशियों को वसवासित कर पराधीनता की मंत्रणा करता हो |
जनतंत्र के नेता जौ चले चलनि सो लीक |
जोइ करे सो नीक है जोइ कहे सो ठीक || १० ||
भावार्थ : - किन्तु जनतंत्र में जनसामान्य की करनी, कहनी, व् चलनी का कोई मूल्य नहीं है इस तंत्र के नेता जो चलनी चले वही परम्परा,रीति व् धर्म पंथ है, जो कुछ करे वह सुन्दर है, और जो कहे वह नीतिपरक वचन है |
बाज रही सुठि झाँझरी बाजे ढपरी ढोल |
कृष्ना कृष्ना बोल के राधे राधे बोल || ||
लाल पील हरि केसरी रंग कलस मैं घोल |
कृष्ना कृष्ना बोल के राधे राधे बोल || ||
लाल पील हरि केसरी रंग कलस मैं घोल |
बूँद बूँद बौछारि पुनि हो री होरी बोल ||
बूँद बूँद बौछारि पुनि हो री होरी बोल ||
बूँद बूँद बौछारि पुनि हो री होरी बोल ||
आवश्यक सूचना :
ReplyDeleteअक्षय गौरव त्रैमासिक ई-पत्रिका के प्रथम आगामी अंक ( जनवरी-मार्च 2019 ) हेतु हम सभी रचनाकारों से हिंदी साहित्य की सभी विधाओं में रचनाएँ आमंत्रित करते हैं। 15 फरवरी 2019 तक रचनाएँ हमें प्रेषित की जा सकती हैं। रचनाएँ नीचे दिए गये ई-मेल पर प्रेषित करें- editor.akshayagaurav@gmail.com
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