करम केरि पतवार नहि सीस पाप का भार |
तोरि नाउ कस होएगी भव सागर ते पार | १ |
भावार्थ : - सद्कर्मों की पतवार नहीं है उसपर पापों का भार | रे मनुष्य ! तेरे जीवन की नैया इस संसार सागर से कैसे पार होगी |
कहता सबते काल का चाका घुरमत जाए |
जैसी करनी कारिये तैसो ही फल पाए || २ ||
भावार्थ : - काल का चक्र घूमते हुवे सबसे कह रहा है ये मैने देखा है कि जो जैसी करनी करता है उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है |
खूंटे बाँध कसाई के कान्हा तोरि गाय |
आया द्वारे पाखँडि कापट भेष बनाए || ३ ||
जैसी करनी कारिये तैसो ही फल पाए || २ ||
भावार्थ : - काल का चक्र घूमते हुवे सबसे कह रहा है ये मैने देखा है कि जो जैसी करनी करता है उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है |
खूंटे बाँध कसाई के कान्हा तोरि गाय |
आया द्वारे पाखँडि कापट भेष बनाए || ३ ||
भावार्थ : - हे कन्हाई तेरी गाय को कसाई के खूंटे बाँध कर अब कपट वेश धारण किए पाखंडी द्वार पर आ खड़ा हुवा |
दास करता ए देस का पराया सो समुदाय |
वाकी मलिनी संस्कृति ए भारत की नाए || ४ ||
भावार्थ : - यह पारा समुदाय इस देश का दासकर्ता है इसकी मलिन संस्कृति भारत की संस्कृति नहीं है |
एहि भव सिंधु समान है माया जल के मान |
तीरे सो तो देउता डूबे सो पाषान || ५ ||
भावार्थ : - यह संसार सिंधु व् सांसारिक प्रपंच जल के समान है जो इन प्रपंचों में अनुरक्त रहा वह पाषाण कहलाया और जो तैर गया वह देवता कहलाया |
भावार्थ : - यह पारा समुदाय इस देश का दासकर्ता है इसकी मलिन संस्कृति भारत की संस्कृति नहीं है |
एहि भव सिंधु समान है माया जल के मान |
तीरे सो तो देउता डूबे सो पाषान || ५ ||
भावार्थ : - यह संसार सिंधु व् सांसारिक प्रपंच जल के समान है जो इन प्रपंचों में अनुरक्त रहा वह पाषाण कहलाया और जो तैर गया वह देवता कहलाया |
कपोत कनका खाए के बैसे जबहि मुँडेर |
बीट संगत निपजावै पीपर बट के पेड़ || ६ ||
भावार्थ : कपोत कनका खाकर जब मुंडेर पर विराजित होते हैं वहां तब वह अपने बीट से पीपल व् वट का वृक्ष उपजाते हैं ( इनके द्वारा खाने के पश्चात पीपल व् वट के बीज की एक विशेष प्रक्रिया होतीहै तथा बीट से निष्कासित होने के पश्चात् ही यह उगते हैं ) इस हेतु पक्षियों में कपोत को सर्वश्रेष्ठ माना गया है |
जुबता तपती दुपहरी बालपना परभात |
ढरती बयस साँझ अहै मरनी कारी रात || ७ ||
भावार्थ : - बालकपन प्रभात के तुल्य है तो यौवनावस्था तपती दोपहर के समदृश्य है ढलती वृद्धवयस ढलती संध्या के तुल्य है तो मृत्यु काली रात्रि के सदृश्य जहाँ अंतत शयन करना है |
साँझि भइ दीप मनोहर, धरे द्वारि द्वारि ।
मंदिर मंदिर सुमधुरिम, घंटिहि करत गुँजारि ॥ ८ || भावार्थ : - संध्या होते ही मनोहर दीपक द्वार द्वार पर स्थापित हो गए मंदिरों में घंटिकाएँ सुमधुरिम गूंज कर रही हैं |
घनकत कारी बादरी, बजै गगन मै ढोल ।
कृष्णा कृष्णा बोल सखि, राधे राधे बोल ॥ ९ ||
भावार्थ : - काली घटा घनक रही है और गगन में ढोल बज उठे हैं हे सखी ! कृष्ण कृष्ण बोलकर राधे राधे बोल |
अँधन को प्रभो ऑख दे, बहरे को दे कान।
गूँगे के मुख बोल दे, रू मूरख को ग्यान ॥ १० ||
भावार्थ : - हे प्रभु !अंधों को दृष्टि प्रदानकर बधिर को कर्ण प्रदानकर गूंगे के मुख को वाणी से युक्त कर और मूर्खों को ज्ञान प्रदान कर |
जाम घोष उदघोषते, भई सुनहरी भोर ।
उतरे दिनकर अरुन सहुँ, गहे अस्व की डोर ॥११ ||
भावार्थ : - रात्रि के प्रहरी के उद्घोषणा करते ही सुनहरी भोर हो गई अश्व की रश्मियाँ ग्रहण किए दिनकर अपने सारथी अरुण के साथ धरती पर अवतरित हुवे |
बूँद बूँद मसि धानि भइ,कागद भए खन खेड़ ।
बिअ के आखर सोँ चलौ, लेखें पौधा पेड़ ॥१२ ||
भावार्थ : - मसि धानी बुँदे हो गई कागद खेत खंड हो चले हैं चलो अक्षरों के बीज रोपकर हम उसपर पेड़पौधे लिखते हैं |
नैन गगन परि छाए रे मोरा स्याम घना।
मृदुल मंद मुसुकाए रे मोरा स्याम घना॥१३ ||
भावार्थ : - मेरे श्यामघन नैन गगन पर आच्छादित हो रहे हैं और वह मृदुल मंद विहास करते हैं |
र सौं राजा राम लिखे घ संगत घन स्याम ।
जबहिं कछु लेखै लिखनी,लेखै हरि का नाम ॥१४ ||
भावार्थ : - र से राजा राम लिखे घ से घनश्याम लिखे यह लेखनी जब भी कुछ लिखे तो केवल हरि का नाम लिखे
तन बिनु दुखी कोई मन बिनु धन बिनु कोउ उदास ।
थोरे थोरे सब दुखी, सुखी राम का दास ॥१५ ||
दूषक जन कहनी कहैं,ऐसी मरनी होए ।
ओछी करनी करि चलें, और हँसे ना कोए ||१६ ||
सासन कर अधिकारु दए जहँ के सासन तंत्र ।
दास करिता बसाए रहँ, नहि सो देस सुतंत्र ॥१७ ||
भावार्थ:- जहाँ का शासन तंत्र अपने ही दासकर्ताओं को शासन का अधिकार देकर उन्हें वसवासित रखता है वह देश स्वतंत्र नहीं होता ।.....
लोक जाग जगरीति नहि होतब जहाँ सबेर |
घनियारि रैन रहे तहँ ब्यापत घन अँधेर || १८ ||
भावार्थ : - जहाँ लोक जागृति न हो जनमानस स्वकर्तव्य के विषय में सचेत न हों वहां स्वातंत्र का प्रभात होने पर भी नियम व् नीतियों का अभाव रूपी घना अन्धेरा व्याप्त करती दासता की काली रात्रि ही रहती है |
नियत नियंतन जोग हैं, नेम निबंधन सोए ।
बिधि सम्मत होई के, नीतिमान जो होए ॥१९-क ||
जन हुँत पालन जोग हैं, नेम निबंधन सोए ।
बिधि सम्मत होई के, नीतिमान जो होए ॥१९-ख ||
भावार्थ :- " वही नियम-निबंधन नियंत्रण व निर्धारण के योग्य हैं जो विधि सम्मत होकर लोक-व्यवहार के निर्वाह हेतु नियत की गई नीति के अनुसार आचरण करने वाले हों....."
" वही नियम-निबंधन जन-सामान्य द्वारा पालन योग्य हैं जो विधि सम्मत होकर लोक-व्यवहार के निर्वाह हेतु नियत की गई नीति के अनुसार आचरण करने वाले हों....."उदाहणार्थ:- यदी राजा व नेता लोग यह नियम निर्धारित कर दें कि अब से कोई भोजन नहीं करेगा, जो करेगा वह 1सहस्त्र मुद्रा से दण्डित किया जाएगा । यह नियम दमनकारी व विधि के असम्मत होने के कारण जन-सामान्य द्वारा पालन योग्य नहीं है.....
दान करे न दया करें सत्कृत करे न कोइ |
धर्म परायन जन अजहुँ उदरपरायन होइ || २० ||
भावार्थ :- दया करते हैं न दान करते हैं न ही कोई सत्कर्म ही करते हैं, जो लोग कभी धार्मिक प्रयोजन में संलग्न रहते हैं वह अब केवल अपने उदर पूर्ति में संलग्न रहते हैं |
भावार्थ सहित बहुत अच्छी लगी दोहावली
ReplyDeleteशुभ-दीपावली!
जी धन्यवाद ! ये दीपावली आपके जीवन मेंभी सुख व् समृद्धि में वृद्धि करे ----
Delete