जिउ हते न हिंसा करें देय ना केहि सूल |
धर्म बरती रहत गहैं साक पात फल फूल || १ ||
भावार्थ : - किसी जीव की हत्या करें न किसी की हिंसा करें ही किसी को कष्टापन्न करें | हमें धर्मानुकल आचरण करते हुवे अपने आहार में शाक पात फल फूल ही ग्रहण करना चाहिए |
अभेद नीति न जानिहै का कंचन का काँच |
धौल कहा रु काल कहा कहा झूठ का साँच || २ ||
भावार्थ : - स्वर्ण क्या है और कांच क्या है धवला क्या है काला क्या है सत्य क्या असत्य क्या है, अभेद नीति को यह ज्ञात नहीं होता |
काया तौ छिन भंगुरिहि एक दिन वाका अंत |
सद कृत करम संग रहै जनम जनम परजंत || ३ ||
भावार्थ :- क्षण भंगुर इस काया का एक दिन अंत होना निश्चित है किए गए उत्तम कर्म नित्य हैं जो जन्म जन्म तक साथ देते हैं |
करै न कर सद करम को चलै न पद सद पंथ |
रे कलि तेरो काल मैँ बँधे पड़े सद ग्रंथ || ४ ||
भावार्थ : - हस्त कोई सद्कर्म कर्म नहीं करते, चरण सत्पथ पर नहीं चलते अरे कलि ! तेरे काल में सद्ग्रन्थ बंधे पड़े रहते हैं इनका अध्ययन कोई नहीं करता |
ए अनंत ब्रह्माण्ड महँ रतिक नहीं परिमान |
समुझै मानस मद भरा आपन पो भगवान् || ५ ||
भावार्थ : - इस अनंत ब्रह्माण्ड में अणु मात्र भी परिमाण नहीं है तथापि अहंकार से भरा मूर्ख मानव स्वयं को ईश्वर तक संज्ञापित करने लगा है
कौसुम कर रस मधु अहै, पाहन कर रस पानि |
देहि कर रस रुधिरु अहै, अनतस कर रस बानि || ६ ||
भावार्थ : - पुष्प का रस मधु है तो पाषाण का रस पानी है रक्त देह का रस है तो वाणी अंतस का रस है |
खेलत होरि स्याम घन भीजत हैं सबु अंग |
चढ़ बिनु उतरत ए री सखि फीके तोरे रंग || ७ ||
भावार्थ : - घनस्याम/काले बादल होली खेल रहे हैं और सभी अंग भीग रहे हैं, ए री सखी ! ये तेरे रंग फीके हैं जो चढ़े बिन उतरते ही चले जा रहे हैं ||
आज की कहावत :-
जाके पहि धन संपदा, अजहुँ सोइ गुनवान ॥
संपद न पूछौ साधु की पूछ लिजै ग्यान॥८ ||
धर्म बरती रहत गहैं साक पात फल फूल || १ ||
भावार्थ : - किसी जीव की हत्या करें न किसी की हिंसा करें ही किसी को कष्टापन्न करें | हमें धर्मानुकल आचरण करते हुवे अपने आहार में शाक पात फल फूल ही ग्रहण करना चाहिए |
अभेद नीति न जानिहै का कंचन का काँच |
धौल कहा रु काल कहा कहा झूठ का साँच || २ ||
भावार्थ : - स्वर्ण क्या है और कांच क्या है धवला क्या है काला क्या है सत्य क्या असत्य क्या है, अभेद नीति को यह ज्ञात नहीं होता |
काया तौ छिन भंगुरिहि एक दिन वाका अंत |
सद कृत करम संग रहै जनम जनम परजंत || ३ ||
भावार्थ :- क्षण भंगुर इस काया का एक दिन अंत होना निश्चित है किए गए उत्तम कर्म नित्य हैं जो जन्म जन्म तक साथ देते हैं |
करै न कर सद करम को चलै न पद सद पंथ |
रे कलि तेरो काल मैँ बँधे पड़े सद ग्रंथ || ४ ||
भावार्थ : - हस्त कोई सद्कर्म कर्म नहीं करते, चरण सत्पथ पर नहीं चलते अरे कलि ! तेरे काल में सद्ग्रन्थ बंधे पड़े रहते हैं इनका अध्ययन कोई नहीं करता |
ए अनंत ब्रह्माण्ड महँ रतिक नहीं परिमान |
समुझै मानस मद भरा आपन पो भगवान् || ५ ||
भावार्थ : - इस अनंत ब्रह्माण्ड में अणु मात्र भी परिमाण नहीं है तथापि अहंकार से भरा मूर्ख मानव स्वयं को ईश्वर तक संज्ञापित करने लगा है
कौसुम कर रस मधु अहै, पाहन कर रस पानि |
देहि कर रस रुधिरु अहै, अनतस कर रस बानि || ६ ||
भावार्थ : - पुष्प का रस मधु है तो पाषाण का रस पानी है रक्त देह का रस है तो वाणी अंतस का रस है |
खेलत होरि स्याम घन भीजत हैं सबु अंग |
चढ़ बिनु उतरत ए री सखि फीके तोरे रंग || ७ ||
भावार्थ : - घनस्याम/काले बादल होली खेल रहे हैं और सभी अंग भीग रहे हैं, ए री सखी ! ये तेरे रंग फीके हैं जो चढ़े बिन उतरते ही चले जा रहे हैं ||
आज की कहावत :-
जाके पहि धन संपदा, अजहुँ सोइ गुनवान ॥
संपद न पूछौ साधु की पूछ लिजै ग्यान॥८ ||
भावार्थ : -जिसके पास धनसम्पत्ति है विद्यमान समय में वही गुणवान है इसलिए साधू संतो की सम्पदा मत पूछिए उनका ज्ञान पूछिए |
रजस कन सों रतनारा,दरसावत दिग अंत |
पुहुप रथ बिराज कै रे, आयो राज बसंग || ९ ||
भावार्थ : - धूल के रक्तिम कणों से व्याप्त छितिज लालिमायुक्त दर्श रहा है अरे देखो !पुष्प रथ में विराजित हो ऋतु राज वसंत का आगमन हो रहा है |
क्यारि क्यारि कुसुम भए पथ पथ पुहुप पलास |
चहुँपुर छटा बिखेरिते, आयो फागुन मास || १० ||
पाहन पाहन गह नखत, पाहन नदी पहार |
पाहन करिता धरति रे पाहन सब संसार || ११ ||
भावार्थ : - ये गृह नखत्र पाषाणमय हैं नदी पहाड़ भी पाषाणमय ही हैं, धरती को भी पाषाणीय करता रे मनुष्य ! समूचा संसार ही पाषाणमय है
पाहन पाहन गह नखत, पाहन नदी पहार |
एकु धरति जिअ धरित्री न त पाहन सब संसार || १२ ||
भावार्थ : - ये गृह नखत्र पाषाणमय हैं नदी पहाड़ भी पाषाणमय ही हैं, मात्र धरती जीवन धारण करनेवाली हैना अन्यथा तो समूचा संसार ही पाषाणमय है |
जहाँ कुलिनी कुलीन कर जहाँ कूल कुलवान l
जहाँ कुलीन कुल करतब, तहाँ दान कल्यान ll १३ ||
भावार्थ :- जहाँ नदी निर्मल व पवित्र करने वाली हो, जहाँ तट कुलवानो से युक्त हो जहां का कुल पुन्यकृत व विशुद्ध हो वहाँ दिया दान कल्याण करता है |
सृष्टी के विध्वँश पर,साधे हुए है मौन l
प्रकृति से खेलता ये कहो समय है कौन ll१४||
घूटाला भ्रष्टाचारि,आतंकी उपजाए l
परजा तोरे तंत्र महँ,भया बिकाउ न्याय ll१५||
भावार्थ :-- घोटाला, भ्रष्टाचार और आतंक को जन्म दिया हे प्रजा ! तेरे तंत्र में न्याय भी बिकाऊ हो गया है |
हरिअर हरिअर पहुमि कहुँ, करि कै सत्यानास |
काँकरी कै बिकसे बन, ताका नाउ बिकास || १६ ||
नारी तोरी तीनि गति चतुरथी कोउ नाए l
पति पुत अरु बंधु बाँव सतजन दियो बताए ll१७ ||
भावार्थ :- संत जनो ने नारी की तीन ही गति बतलाई है प्रथम पति,दुजी पुत्र व तिजी बंधु-बांधव इसके अतिरिक्त उसकी चौथी कोई गति नही है यदि उसे पति त्याग दे तो वह पुत्र के पास रहे पुत्र त्याग दे तब वह बंधु बांधवों के पास रहे यदि बंधु-बांधव भी उसका परित्याग कर दे फिर तो उसकी दुर्गति होनी निश्चित है l
घन अँधेरा नगरि माहि,छाए रहा चहुँ ओर l
छूट रहै साहुकारा गहि गए सो तौ चोर ll१८||
छूट रहै साहुकारा गहि गए सो तौ चोर ll.....नीतू सिँ घल
हरिअर हरिअर भूमि कहुँ l करिके सत्यानास llकाँकरी के बन बिकसे lताका नाउ बिकास ll.....नीतु सिंघल
हरिअर हरिअर भूमि कहुँ l करिके सत्यानास llकाँकरी के बन बिकसे lताका नाउ बिकास ll.....नीतु सिंघल
हरिअर हरिअर भूमि कहुँ l करिके सत्यानास llकाँकरी के बन बिकसे lताका नाउ बिकास ll.....नीतु सिंघल
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