Sunday, 29 September 2019

----- ॥ दोहा-पद 36॥ -----

  ----- || राग-मेघ मल्हार || -----


बहुर बहुर रे बावरि बरखा, री बहुरयो पावस मास रे,
बिहुरन अबरु बेर न कीज्यो,कहे तव बाबुला अगास रे ||

पिय कर नगरिहि पंथ जुहारै,नैनन्हि लाए थकि गै हारे,
लखत लखत पलकन्हि भइँ पाथर तोर आवन करि आस रे ||

जनम दात कइँ दहरि पराई, जग माहि असि रीति बिरचाई,
हँसि कहँ सखिआँ तिआ सुहावै बासत निज पियहि के बास रे ||

पलक माहि पलकनि भए पाँखी, अरु भैं पंखि उरे दिनु राती,
तोहि बिरमत भए बहु बेरिआ, अजहुँ बहुरो पिय के पास रे ||

भावार्थ : - अरी बावरी बरखा पावस मास लौट गया अब तुम भी लौट जाओ,तुम्हारे बाबुल आकाश कह रहें हैं -अब लौटने में और अधिक विलम्ब न करो || तुम्हारे आने की आस में तुम्हारे प्राणाधार की नगरी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है  पंथ देखते उसकी आँखें शिथिल हो गई और तुम्हारी प्रतीक्षा करते करते उसकी पलकें निश्चल सी हो गई हैं || जन्मदाता की देहली पराई होती है इस संसार ने ऐसी ही रीति बनाई है सखियाँ हंस कर कहती है - स्त्री अपने प्राणनाथ के गृह में निवास कराती हुई सुशोभित होती है || पलकों में पलक पंखों में परिणित हो गए रयान और दिवस पंक्षी बनकर उड़ गए (ऐसा ही होता है ) तुझे पिता के गृह में पधारे बहुंत समय हो गया अब तुम अपने प्रिय के पास लौट जाओ ||
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