लागि कटक दल भुज हिन् कैसे । कटे साख को द्रुमदल जैसे ॥
कांत मुख भए मंद मलीना । जस को बालक केलि बिहीना ॥
( ऐसा कहते )परकटी सेना कैसे प्रतीत हुई जैसे वह कटी हुई शाखा वाले वृक्ष का समूह हों ॥ और उनके कालिमा से युक्त मुरझाए हुवे मुख इस प्रकार दर्श रहे थे जैसे भुजा न हुई किसी बालक के खिलौने हो गए और वे किसी ने छीन लिए हों ॥
त्राहि कहत कसकत कटकाई । बल न अरु बली भेस बनाई ॥
रिपुहन हरिदै दहए अतीवा । कुठार पन के रहे न सींवाँ ॥
रक्षा की पुकार कर पीड़ा प्रकट करती उस सेना में बल नहीं था तथापि उसने बली का वेश धारण किया हुवा था अरिहंत का ह्रदय अत्यधिक दहकने लगा उनके कठोरता की कोई सीमा ही नहीं थी |
सुनि पुनि बालक हरिहि तुरंगा । ज्वाल नयन जरइ सब अंगा ॥
कहत धरनि धर सुनु हे मुनि बर । भंग भुजा केरे दरसन कर ॥
उन्होंने जब सुना कि बालक ने अश्व का हरण कर लिया तब नेत्रों की ज्वाला से उनके सभी अंग धधक उठे | इस प्रकार भगवान शेष जी कहते हैं हे मुनिवर ! अपनी सेना को ऐसी भग्न बाहु दशा के दर्शन कर -
नाचत बदन अगन कन चमकहिं । अस जस धनवन दामिनि दमकहिं ॥
सकल कटक अस थर थर काँपिहि । भूमि कम्प जस भवन ब्यापिहि ॥
शत्रुहन के मुख पर क्रोध की चंगारी ऐसे नृत्य करने लगी जैसे आकाश में चंचला नृत्य करती हो ॥ समूची सेना ऐसे थरथर कांपने लगी जैसे भवनों में भूकंप व्याप्त हो गया हो |
पीसत दंत गरजत हँकारे । पचार लवन्हि बदन पसारे ॥
अधर दल रद दायन दीन्हे । कोपु बिबस चिन्हारी कीन्हे ॥
दन्त पिसते वह गरज कर पुकार करने लगे और लव को ललकारते हुवे मुख विस्तारित कर दिया | अधर दल पर दंतों का जब दान दिया तब कोप के वशीभूत उसपर दन्त-चिन्ह प्रकट हो गए |
बहु रिसिहाईं पूछ बुझाईं दरस कटक बाहु कटे ।
कवन बीर कर काटे भुज धर ते मोर सौमुख डटे ॥
कहत पुनि सोइ बल बलबन्हि रच्छिहैं किन देवहीं ।
गह बल केते बाँच न पाइँहि जो मोरे हस्त गहीं ॥
अपने सैनिकों की कटी हुई भुजाएँ देख कर शत्रुधन ने अत्यंत रोष पूर्वक प्रश्न करने लगे: - ' किस वीर के हाथों ने ये भुजाएं काटी है । वो मेरे सम्मुख तो आए ,उन्होंने फिर कहा : - ''वह बलवान चाहे देवताओं से ही रक्षित क्यों न हो ,उसने कितना ही बल क्यों न संग्रह किया हो वह मेरे हाथों से नहीं बच पाएगा | ''
सुनि सैन सत्रुहन बचनन, किए अचरज भरि खेद ।
एक बालक श्री राम रुप, कहत बाँधि है मेद ।।
सैनिकों ने शत्रुध्न के वचन को सुनकर आश्चर्य युक्त खेद व्यक्त कर बोले : -- एक बाल किशोर है जो श्री राम के स्वरुप ही है उसी ने उस गठीले अश्व को बांधा है ॥
शुक्रवार, ०८ अप्रेल , २०१६
सुनि एकु बालक हरिहि तुरंगा । छोभअगन किए नयन सुरंगा ॥
बोलि बिमूढ़ हठि बालक एहू । करन चहसि सठ जमपुर गेहू ॥
एक बालक ने उस अश्व का अपहरण किया यह श्रवण कर क्रोधाग्नि ने नेत्रों को लाल कर दिया वह बोले : - '' यह हठी बालक मूर्ख है यह दुष्ट यमलोक में अपना निवास वसवासित करने हेतु अभिलाषित है |
तब रिपुहन बिहरत निज आपा । कसेउ ताल कठिन कर चापा ॥
दहन तपन हरिदै न समाहू । संग्राम हेतु होत उछाहू ॥
तब शत्रुध्न ने अपना संयम त्याग दिया और करतल में कठिन कोदंड कर्षित कर लिया | संग्राम हेतु उत्कंठित होते क्रोधाग्नि का ताप ह्रदय में समाहित नहींहो रहा था|
सेनाधिप काल जित बुलायो । नीति बनाउन आयसु दायो ॥
कहि दलपति अग्या यह मोरे । सब रन साजु सँजोइल जोरें ॥
तदनन्तर उन्होंने सेनाधिप कालजित को बुलाया उन्हें रणनीति निर्मित करने का आदेशदिया | दलपति से कहा यह मेरी आज्ञा है संग्राम की समस्त साज सामग्रियां संयोजित करो |
रचिहु अदम दुर्भेद ब्यूहा । जुगावत सबहि जेय समूहा ॥
अहहैं रिपु एकु बीर जयंता । बिपुल तेज बल अति बुधवन्ता ॥
समस्त जेयशील समूहों का संकलन कर अदम्य व् दुर्भेद्य व्यूह की रचना करो | एक शत्रु है जो वीर व् जयंत है उसमें विपुल तेज, बल है वह अत्यंत बुद्धिमन्त है |
हमरे तुरग हरिहि जो कोई । सो बालक सधारन न होई ॥
एहि अवसर सुनु करन चढ़ाई । चौरंगीनि लेउ बनाई ॥
हमारे तुरंग का जिसने हरण किया है वह बालक साधारण नहीं है | सुनो ! इस समय उसपर आक्रमण करने हेतु चतुर्रंगी सेना सुसज्जित करो |
द्युतिमन दरपन सहुँ दै आसन सकल प्रसाधन निहार के ।
सब साज सुसाजित करिहु समाजित चातुरंग सिँगार के ॥
राम प्रतिरूप रूप न थोड़े सो बीरबर सुकुमार के ।
सुनु लिवात समर लगन सदन पुनि करिहु सम्मुख सँभार के ॥
समस्त सौंदर्य प्रसाधनों का विलोकन करके तत्पश्चात प्रभामयी दर्पण के सम्मुख उसे आसन प्रदान करना | समस्त साज सामग्रियों से सुसज्जित करके उसके चतुरंगों का श्रृंगार कर उसे तैयार करना रामचन्द्रजी का प्रतिरूप उस वीरवर सुकुमार का रूप भी यत्किंचित नहीं है अर्थात वह अत्यधिक रूपवान है सुनो ! फिर उसे संग्राम रूपी लग्नमण्डप पर लाकर फिर यत्नपूर्वक उसे सम्मुख करना |
द्योतिमन दरपन सहुँ चातुरंग सम्भार ।
समर साज प्रसाधन सों करि सुठि सब सिंगार ॥
अरिहन अग्या सेन पत सकलत अदम समूह ।
सब रन बाज बजाए सो रचिहि अभेद ब्यूह ॥
तत्पश्चात प्रभामयी दर्पण के सम्मुख युद्ध की समस्त साज सामग्रियों से सेनापति कालजित ने यत्नपूर्वक सेना के चतुरंगों का सुंदर शृंगार किया फिर रिपुहंत की आज्ञा का अनुशरण करते हुवे अदम्य समूहों का संकलन कर युद्ध के समस्त ढोल-डंके बजाने वाले (युद्ध की सभी कलाओं को जानने वाले) एक अभेद्य व्यूह की रचना की |
आनि लेइ रिपुहन समुहाई । निरखत सजी धजी कटकाई ॥
हरनहार जहँ बालक पायो । तहाँ पयावन कहि समझायो ॥
फिर उसे शत्रुध्न के सम्मुख लाकर उपस्थित कर दिया | सजीधजी सेना का निरिक्षण कर का फिर उसे वहां प्रस्थान करने हेतु प्रबोधित किया जहाँ अश्व का हरणहारी प्राप्त हुवा था | इत चतुरंगिनि आगिन बाढ़िहि । पंथ जुहारत लव उत ठाढ़िहि ॥
दरसत बालक रूप अनूपा । कहि दलपत अह राम सरूपा ॥
इधर चतुरंगी सेना आगे बढ़ रही थी उधर उसकी प्रतीक्षा में अधीर लव उपस्थित थे | बालक के अनुपम रूप का दर्शन कर सेनापति ने कहा : - अहो! यह तो रामजी का ही स्वरूप है |
कहत कुँअरु हे पलक न पारे । परिहरु देउ तुरंग हमारे॥
अवध पति जिन्ह के गोसाईं । तिन्हके बिकम बरनि न जाई ॥
पलकें गिराए बिना अर्थात एकटक अवस्था में ही सेनापति ने कहा हे कुमार ! हमारे अश्व को विमुक्त कर दो | इसके स्वामी अयोध्यापति श्रीराम चंद्र हैं उनका पराक्रम अनिर्वचनीय है |
गहेउ तपसि राम सम चेले । ताहि सरूप रूप तव मेले ॥
दरस तोहि मैं भयउँ दयालू । कारन तव छबि सोंह कृपालू ॥
तुमने तपस्वी श्रीराम का के समान वेश धारण किया हुवा है इस हेतु तुम्हारा रूप उनके स्वरूप से सम्मेलित होता प्रतीत हो रहा है |
जिअ बिसुरत निज सुध बुध भूला । होइ चहु तुम्ह तूलमतूला ॥
अब लग जग जिअ हारि न काहू । तासु हृदय तुम जीतन चाहू ॥
प्राणों का मोह त्याग कर अपनी संचेतना को विस्मृत किए तुम उनका सामना करने को आतुर हो ? जिस सेना ने संसार में अबतक किसी को प्राणहार नहीं माना तुम उस सेना के ह्रदय पर विजय प्राप्त करने हेतु अभिलाषित हो ?
सुनहु हे बीरबर कुँअर मानिहु बात न मोरि ।
रोपिहु हठ एहि अवसर त होहि राख कस तोरि ॥
हे वीरवर कुमार ! सुनो, यदि मेरा कहा नहीं माना और इस समय हाथ का आरोपण किया तो तुम्हारी रक्षा किस प्रकार होगी ?
शनिवार, ०९ अप्रेल, २०१६
लव मुख दर्पण छबि निज नाहा ॥ बिलखत अपलक बोलहि बाहा ।
जो तुम्ह मोर कहि नहि मानिहु । निज जीवन बिरथा बिनसानिहु ॥
लव के मुखदर्पण पर अपने महारज श्रीरामचन्द्र जी की छवि का दर्शन करते हुवे सेनावाह अपलक बोलते रहे :-- यदि तुमने मेरा कहा नहीं माना तो अपना जीवन व्यर्थ में नष्ट कर दोगे |
मैं बयोबिरध तुअ एक बालक । कारन तुम पदचर में एक पालक ॥
सुनु हे रघुबर कर प्रतिरूपा । देउ हरि है सौंपि सो भूपा ॥
मैं वयोवृद्ध हूँ और तुम एक बालक हो | तुम एक पदचारी हो और मैं एक सेनापाल हूँ, एतएव तुम्हारी और मेरी क्या तुलना | हे राम प्रतिरूप ! सुनो, तुम राजा शत्रुध्न को हरण किया हुवा वह अश्व सौंप दो |
मोरी छबि अवधेश समाना । होइ चकित लव सुनि जब काना ॥
जबु दलपत कहि बत गुँजराँई। कछु हँसि हंस अधर तरियाँईं ॥
मेरी छवि अवधेश के समरूप है जब महाराज लव को यह श्रवण हुवा तो वह चकित रह गए और जब दलपति की कथोक्तियाँ गुंजायमान हुई तब हास्य के कुछ एक हंस अधर सरोवर पर तैरने लगे |
हृदय तरंग माल उमगाईं । एकु तरि आईं एकु तरि जाईं ॥
एक छन अधरन दिए अलगानी । बोलि गिरा पुनि मधुरस सानी ॥
हृदय में तरंगमालाएँ उत्तोलित होने लगी जो एक तीर पर आती और एक तीर पर चली जाती | क्षणमात्र को अधरों मौन को प्रतिष्ठित कर तत्पश्चात मधुरस में संलिप्त वाणी से बोले : -
नाउ धर केहि नाउ न होही । होत कीरत करनि कृत सोई ॥
जे तुम मानिहु हार, मैं तुरग परिहर करिहउँ ।
कहिहु ए समाचार, राम सों भग्न दूत बन ॥
हे सेना पति काल जित, यदि तुम अपनी हार मान लो तो मैं इस घोड़े को छोड़ दूँगा । और श्रीराम चन्द्र जी के सम्मुख युद्ध में हार का सन्देश देने वाले दूत बनकर सारा समाचार कहो ॥
कहत चकित तब काल जित जनमिहु तुम कुल केहि ।
कहौ बिदित सो नाउ निज तोहि पुकारसि जेहि ॥
सीस जटा जुट बिबरन दाही । करिहहु रन धुनि मुनि तुम नाही ॥
तन जति बसन बिचरहु बन एही । बसिहउ गाँव नगर कहु केही ॥
शीश पर जटाजूट तुम्हारे मुनि होने की व्याख्या करती हैं किन्तु युद्ध की धुनि रमाए हुवे हो इस हेतु तुम मुनि कदापि नहीं हो |
कहहु बीर तव नृप को होंही । तुहरी दसा जनाउ न मोही ॥
राज लच्छन सब अंग सुहाए । में रथि अरु तुम पयादहि पाएँ ॥
कहो वीर तुम्हारे राजा कौन है ? अपनी इस दशा से मेरा प्रबोधन करो | तुम्हारे सभी अंगों में राज लक्षण सुशोभित हैं फिर मैं रथी हूँ और तुम थलचारी पदचर हो |
तुमहि कहौ दुर्दम में ऐसे । तोहि धर्मतस जीतौं कैसे ॥
कहत सियसुत नगर कुल नाउ । कहौ तो लेन दसा ते काउ ॥
तुम ही कहो ऐसी दुर्दम्य अवस्था में मैं धर्मतः तुम्हें कैसे जीतूँ ? तब सीतपुत्र लव ने कहा : - ''नगर,कुल,नाम से तुम्हारा क्या औचित्य कहो तो दशा से भी तुम्हे क्या लेना ?
में लव अहिहउँ अरु लव माही । जितिहउँ समर बीर सब काहीं ॥
सकुचउ न मोहि जान पयादहि । बिनहि रथि करि देउँ में तुम्हहि ॥
मैं लव हूँ और लव का अर्थ निमेष होता है में निमेष मात्र में ही सभी शूर वीरों को जीत लूँगा । तुम मुझे प्यादा जानकर संकोच न करो लो मैं तुम्हें भी प्यादे में परिणित कर देता हूँ ॥
असि बत कहि कह सो बलवाना । चढ़ा पनच कोदण्ड बिताना ॥
प्रथम जनि पुनि सुरत गुरु नामा । मन ही मन कर तिन्ह प्रनामा ॥
ऐसा कहते हुवे उस बलवान ने प्रत्यंचा खैंचकर कोदंड विस्तारित किया | सर्वप्रथम अपनी माता और फिर अपने गुरु वाल्मीकि का नाम स्मरण करते हुवे मन ही मन उन्हें प्रणाम किया ॥
लगे बरखावन घन घन बान बिकट बिकराल ।
रिपुगन के जो काल बन प्रान लेइ तत्काल ॥
फिर विकट व् विकराल वाणों के घन से सघन वर्षा करने लगे जो शत्रुगण का काल बनकर उनके तत्काल प्राण लेने में सक्षम थी |
बिकट बिसिख गन बरखन लागे । घानत घन रिपु जीउ त्यागें ॥
तमकि ताकि पताकिनी पाला । भींच अधर किए लोचन लाला ॥
विकट बाण समूह वर्षने लगे उसके सघन गर्जना ने कहा अरे शत्रु ! अब प्राण त्याग दो विपक्षी सेना की ओर तमककर दृष्टि करते लव के भींचते अधर नेत्रों को लाल करने लगे |
दहत बदन गह अगन प्रचंडा । करषत कसत कठिन कोदंडा ॥
निरखत नभ गच पनच चढ़ाईं । देइ परच निज रन चतुराई ॥
क्रोध रूपी प्रचंड अग्नि से उनका मुखमण्डल दहक उठा फिर उन्होंने कठिन कोदंड को कसकर कर्षित किया और आकाश की और दृष्टि गड़ा कर प्रत्यंचा चढ़ाई और अपनी सामरिक चतुराई का परिचय दिया |
छूटत सरगन गगन घन छाए । लगे जो जिय सो जीव न पाए ॥
लपकत ताहिं बीर बरबंडा । किए एक एक के सत सत खंडा ॥
प्रत्यंचा को त्याग कर बाणों के समूह आकाश में बादलों के समान व्याप्त हो गए वह जिस किसी के ह्रदय को लक्षित करते वह जीवित नहीं रहता |
घमासान रन भयउ बिहाना । छाडसि लसतकि कसि कसि बाना ॥
अष्टबान पुनि प्रतिहत मारे । निपत नीच दलपत भू पारे ।।
घमासान युद्ध होने लगा धनुष की मूठ कस कस कर बाणों का त्याग करने लगी | फिर अष्टबाण प्रतिघात में अष्टबाण का प्रहार किया तब दलपति अधोपत होते हुवे भूमि पर गिर पड़े |
चढ़े घात भए रथहु बिभंगा । दुहु पयादिक भयउ ता संगा ॥
तुरत तमीचर करि लय आईं । सपत धार मददान रिसाईं ॥
उन बाणों के घात पर चढ़के रथ भी विभंजित हो गया इसके साथ ही वह दोनों योद्धा पदचर हो गए | तब एक तमीचर तत्काल ही एक हस्ती ले आया उससे सप्तधार में मदजल स्त्रावित हो रहा था |
चढ़ बैठें पति छन ताऊपर । रन दुर्मद चलिअ अति बेगिकर॥
गजारूढ़ानिपालहिं देखा । रिपु जयंत सो बीर बिसेखा ॥
सेनापति कालजित तत्क्षण उसपर आरोहित हो गए और दुर्मद रण हेतु शीघ्रता पूर्वक चल पड़े | गजारूढ़ सैनीपाल को दर्शकर शत्रु पर विजय प्राप्त करनेवाले उस विशिष्ट वीर ने : -
मारि बिहस कुल बान दस दरस दरस दल राय ।
झपटि भीतत बिंध दियो हरिदै भवन समाए ॥
दलपति को देख देखकर उपहास पूर्वक कुल दस बाणों का प्रहार किया; तीव्रगति से परिचालन करते वह बाण दलपति का भेदन करते उसके ह्रदय भवन में समाहित हो गए |
बृहस्पतिवार १४ अप्रेल, २०१६
अस बल अस रन कौसल भारी । अधिपत अबरु न कतहुँ निहारीं ॥
बहुरि भयंकर परिघ प्रहारी । लगत तुरए जो जिअ अपहारीं ॥
ऐसा बल ऐसा गहन रण कौशल सेनाधिपति को अन्यत्र कहीं दृष्टिगत नहीं हुवा था | फिर उन्होंने भयंकर बाण का प्रहार किया जो लक्ष्य प्राप्त करे तो तत्काल ही प्राणों का अपहरण कर ले |
चढ़त अगास चिक्करत धायो । चरत चपल लव काटि गिरायो ॥
लिए करबीर करतरी पासा । दुर्मद हस्ती किए बिनु नासा ॥
आकाश में आरोहित होकर वह घूर्णन करते हुवे दौड़ा इधर लव ने चपलता पूर्वक परिचालन करते हुवे उसका निवारण कर दिया | फिर उस वीर ने एक कतार हस्तगत कर उस दुर्मद हस्ती को विहीन कर दिया |
तजत सकल कल केतु समूहा । कुलत करिहि सो कुंजर कूहा ॥
कूदि ततछन धरिअ पद दन्ता । सीस भवन पुनि चढ़े तुरंता ॥
तब समस्त कल केतुओं का त्याग कर पीड़ित होते हुवे वह कुंजर चिंघाड़ उठा लव दन्त पर चरणदान कर तत्क्षण ही उसके शीर्ष भवन पर आरोहित हो गए |
भेंट अधिपत बीर बरबंडा । मौलि मुकुट कीन्हि सत खण्डा ॥
गाताबरन सहस खन करिहीं । हनत मुठिका केस कर धरिहीं ॥
हस्ती के शीर्ष पर सेनाधपति के साथ भेंट हुई तब लव ने उसके मस्तक के मुकुट को सात खण्डों में विभक्त कर फिर कवच के शतक खंड कर दिए | मुष्टिका का प्रहार कर केश पकड़े
खैंच ताहि महि देइ गिरायो । दुर्धर कोप नयन मुख छायो ॥
अधिपति मुख बल निपतत भूहा । भेद गही निर्भेद ब्यूहा ॥
और उन्हें खैंचते हुवे उसे भूमि पर ला गिराया उस समय उनके मखमंडल व् नेत्रों भयंकर कोप व्याप्त था | सेनाधिपति मुख के बल धराशायी हुवे इस प्रकार उसके निरभेद्य व्यूह का विभेदन कोप्राप्त हो गया |
धारा बिष करताल गहत घात लहरात पुनि ।
भरि जुग नयन ज्वाल लवनहि बधन अगुसर भए ॥
इस आघात को ग्रहीत कर तदनन्तर कालजित ने एक धारयुक्त खड्ग धारण की, उसे लहराते हुवे उसके युगल नेत्रों में ज्वाला भर गई वह उस खड्ग से लव का वध करने के लिए अग्रसर हुवा |
चलि झलझल जोलाहल जोई । सौंट सरट कोलाहल होई ॥
पत कर गहि कर बीर बिसेखा । लव जब नियरै आगत देखा ॥
ज्वाल संयोजित कृपाण जब चमकती हुई चलने लगी तब वायु सरसर की ध्वनि कोलाहल करने लगी सेनापति के हस्तगत उस विशेष कृपाण को लव ने जब अपने निकट आते देखा
काटि माँझि दाहिन भुज ताहीं । खडग सहित छन गिरि महि माहीं ॥
देखि भुज तरबारि महि पारी । उमगिहि कोप दहन अति भारी ॥
तब उन्होंने मध्य भाग से उसकी दाहिनी भुजा काट दी ,क्षणमात्र में वह कृपाण सहित भूमि पर गिर पड़ी | अपनी भुजा को कृपाण सहित पृथ्वी पर गिरा देखकर उसमें अत्यंत गहन क्रोधाग्नि उमड़ पड़ी |
बाम भुज गरु गदाल गहावा । हतोद्यम लवनहि पुर आवा ॥
तीछ बान तैं ऐतक माही । तमकत काटि दियो लव ताहीं ॥
वाम भुजा से एक भारी गदाल धारण किए हैट हेतु उद्यमित होकर वह लव की और उन्मुख हुवा | इतने में ही लव ने व्यग्र होते हुवे एक तीक्ष्ण सायक से उस भुजा को काट गिराया |
कतहुँ त मुग्दल करतल पूरा । गिरि कतहुँ कर कलित केयूरा ॥
धधकत धारा बिष धरंता । मुनिबर पुनि बालक बलवंता ॥
करतल में आपूरित कहीं तो वह मुद्गल तो कहीं हस्त कलित केयूर गिरा | तदनन्तर हे मुनिवर ! ज्वाला से धधकते उस कृपाण को धारण किए वह बलवंत बालक
टूट परेउ काल के नाईं । मुकुट मंडित माथ बिलगाईं ॥
परे रन भुइँ बहुरि निरजूहा । भयऊ जुगत रहित सब जूहा ॥
कालजित प् काल के समान टूट पड़ा और उसके मुकुट मंडित मस्तक को पृथक कर दिया | फिर अपने शिरोभूषण को रण-भूमि पर निपातित देख शत्रुध्न की सैन्य टुकड़ी युक्ति से रहित हो गई |
खेत होइ सेनाधिपत प्रसरित भए चहुँ ओर ।
चिक्करत बिकल करिहि सकल कोलाहल घन घोर ॥
सेनापति वीरगति को प्राप्त हो गए यह समाचार चारों ओर प्रसारित हो गया सभी सैनिक चक्कर लगाते व्याकुल अवस्था में घनघोर कोलाहल करने लगे |
मंगलवार, १७ अप्रेल २०१६
सकल चमुचर छोभ भरि आवा । लवनन्हि बधन चरन बढ़ावा ॥
होत क्रुद्ध अति होइ अगौहाँ । सियसुत तुरत आए ता सौंहा ॥
समस्त पदचारी सैनिक क्षोभ से भर गए और उन्होंने लव का वध करने हेतु आक्रमण कर दिया | क्रुद्ध होते हुवे जब वह अत्यंत अग्रगामी हो गए तब सीतापुत्र लव तत्काल उनके सम्मुख आए
रजु कसि पुनि असि मारिउ बाना । सबन्हि पाछिन देइ पराना ॥
चलिअ बान जिमि पवन अधीरा । गिरहि बीर जिमी तरु नद तीरा ॥
और फिर प्रत्यंचा कसकर उन्हें ऐसे बाण मारे जिन्होंने सभी पदचरों को पछाड़ दिया | वह बाण ऐसे परिचालित होते जैसे अधीर पवन परिचालित होती है और वह वीरों पर ऐसे गिरते जैसे नदी तट पर कोई सघन वृक्ष गिरता है |
भयो ढेर केतक भट केरी । केतन केत चलिअ मुख फेरी ॥
एहि बिधि छतवत सबहिं जुझारू । अगहुँ तेउ पुनि भए पिछबारू ॥
कितने ही सैनिक ढेर हो गए और कितने ही रण छोड़कर भाग चले इस प्रकार सभी योद्धाओं कष्ट विक्षित होते अग्रगामी से पश्चगामी हो गए |
भर बर लव रन भूषन भेसा । कटकु माझ बहु मुदित प्रबेसा ॥
चरन केहि के केहि कर बाहु । काटेउ करन नासिका काहु ॥
युद्ध के सभी वेशाभूषणों का आभरण किए प्रमुदित महाराज लव सेना के मध्यभाग में प्रविष्ट हो गए फिर तो उन्होंने किसी के चरण तो किसी की भुजा किसी का कर्ण तो किसी की नासिका काट दी |
कोउ बदन भै नयन बिहीना । कोउ कवच को कुंडल हीना ॥
एहि बिधि सेनापति गै मारे । होइ भयंकर सैन सँहारे ॥
कोई मुखमण्डल नेत्रों से विहीन हो गया, कोई कवच तो कोई कुण्डलों से रहित हो गया | इस प्रकार सेनापति का मारे गए, सेना का भयंकर संहार हुवा |
सबहि जीउ सिराए गए जिअत रहे नहि कोइ ।
चतुरंगिनि हिय जीत लव बिजै कलस कर जोइ ॥
सभी के प्राण जाते रहे कोई जीवित शेष नहीं रहा | उस चतुरंगिणी का ह्रदय जीतकर लव का हस्त विजय कलश को प्राप्त हुवा |
एहि बिधि हतवत रिपु समुदाई । बिनु पत परवत गयउ सिराई ॥
होइ पराजय ए अनकनी के । आए न जाईं कोउ अनीके ॥
परवत् = असहाय होकर
इस इस प्रकार क्षत-विक्षत शत्रुदल सेनापति के बिना असहाय होकर समाप्त हो गया इस सैन्य टुकड़ी की पराजय हुई किन्तु कोई और टुकड़ी न आ धमके -
मानस मन एहि संसय जागे । लव रन पंथ जुहारन लागे ॥
रहइ सचेत नयन पथ लाईं । अपर अनीक करन अगवाईं ॥
मनोमस्तिष्क यह संशय जागृत होते ही महाराज लव युद्ध हेतु उसकी प्रतीक्षा करने लगे फिर वह सावधान होकर और दूसरे सैनिकों के आगमन पर उनके स्वागत हेतु पथ दृष्टि लगाए रहे ॥
सुभाग बस को को रजतंती । जोवत जीय रहे जीवंती ॥
पाहि पाहि कह सकल पराने । पाछु फनिस सम सायक आने ॥
सौभाग्यवश कोई कोई वीर अपने प्राणों की रक्षा करने में सफल रहे और जीवित रहे वे सभी रक्षा की पुकार करते भाग चले सर्प सदृश्य सायक उनका पीछा करने लगे |
पराबरत गत रिपुहन पाहीं । समाचार सब कहत सुनाईं ॥
काल सरिबर करनि एकु बाला । लहिअ काल जित मरनि अकाला ॥
वह लौट कर शत्रुध्न के पास गए औ उन्हें युद्ध का सारा वृत्तांत कह सुनाया | काल के समान एक बालक की करनी से सेनापति कालजित अकाल म्रत्यु को प्राप्त हुवे |
तासु बिचित्र रन करम बखाना । सुनि सत्रुहन बहु अचरजु माना ॥
चितबहि चितबत कहत तिन सोहु ॥ भरम जाल बस कहा तुम होहु |
उनकी विचित्र रण कौशल्यता का व्याख्यान श्रवण कर शत्रुध्न हतप्रभ रह गए | उन वीरों को एकटक निहारते फिर उन स्तब्ध वीरों से कहा -''क्या तुम किसी भ्रमजाल के वशीभूत हो ?''
कहु तो घेर घारि को माया । करहु मम सिरु कपट की छाया ॥
करिहु मोर संगत छल छामा | तुहरे बचन भयउ कस बामा ||
कहो तो छल कपट की प्रतिछाया कर इसे किसी मोह कारिणी शक्ति ने घेर लिया है ? अथवा तुम मुझसे कोई छलछंद कर रहे हो विजय का समाचार सुनाने वाले तुम्हारे वचन विपरीत कैसे हो गए |
बिकल त अहहि न चित्त तिहारे । काल जित अह गयउ कस मारे॥
सोइ मरनासन्न कस होई । जम तेहु दुर्धर्ष जो होई ॥
तुम्हारा चित्त हतचेत तो नहीं हो गया है अहो! कालजित कैसे मारे जा सकते हैं वह मरणासन्न कैसे हो सकता है जो यम के द्वारा भी दुर्धर्ष हो ॥ दुर्दमनिअ बल पौरुष जासू । अरु एकु बालक जीतिहि तासू ॥
कहौ ताहि को जीतिहि कैसे । जो आपही काल कर जैसे ॥
जिसका बल पौरुष दमन से परे हो उसे एक बाल किशोर ने कैसे पराजित कर दिया ? जो स्वमेव में ही काल स्वरुप हो उसपर कोई कैसे विजय प्राप्त कर सकता है ॥
सुनिहि बीर सत्रुहन के भाषन । रक्ताम्बरी करिहि निवेदन ॥
ना हमको को माया घेरी । ना हम किन्ही के उत्प्रेरी ।।
शत्रुधन का ऐसा भाषण सुनकर रुधिर से सने लाल कनेर से दर्शित होते उन वीर सैनिकों ने फिर ऐसा कहा : -- हे राजन ! न तो हमें किसी मोह कारिणी शक्ति ने ही घेरा है, और न ही हम किसी के उत्प्रेरित ही हैं ॥
गहिहिं घात अघात जुधिक देह रुधिर लपटानि ।
कहिहिं नीतिगत बचन पुनि सत्रुहन सहुँ जुग पानि ॥
घाताघात ग्रहण किए उन योद्धाओं ने रक्तरंजित देह लिए फिर शत्रुध्न के संमु करबद्ध होकर यह नीतिगत वचन कहे हे राउ अहहै हम पर, तव प्रतीत की सौंह ।
जोउ दरसे जेइ नयन, कहे जोंह के तोंह ॥
हे राजन ! हमको तुम्हारे विश्वास की सौगंध है इन आँखों ने जो कुछ भी देखा, वह हमने यथावत कह सुनाया ॥
बुध/ | बृहस्पति २० / २१ अप्रेल, २०१६
करहिं न हम छल कपट न खेला । किया एकै सो हम पर हेला ॥
कालजित कर मरनि गोसाईँ । भई बीर सो बालक ताईं ॥
न हम कोई छल-कपट कर रहे हैं न कोई खेल | जिसने हम पर आक्रमण किया वो एक ही है | स्वामी ! कालजित की मृत्यु भी उसी वीर बालक के द्वारा हुई है |
एतक अपूरब रन कुसलाई । तासों सकल कटकु मथना ई ॥
होइ जोइ अब तासु बहोरी । करहु सोइ जस मति कहि तोरी ॥
इतना अभूतपूर्व रणकौशल इतना अभूतपूर्व है कि उससे समूची सेना का मंथन हो गया | इसके पश्चात् जो कुछ उपाय हो उस हेतु जैसा आपकी बुद्धि कहती है आप वही कीजिए |
जिन्हनि जुझावन हुँत पठाहू । होइ चाहिब सो बली बाहू ॥
भट निवेदित बचन दए काना । तब रामानुज परम सुजाना ॥
उस परमवीर से मुठभेड़ के लिए जिन्हें रणभूमि भेजेंगे वे बाहुबली होने चाहिए | सैनिकों द्वारा निवेदन किए वचनों को श्रवण कर परम बुद्धिवंत रामानुज ने तब -
करम नीति महुँ अति निपुनाई । मंत्रीबर तैं पूछ बुझाईं ॥
महोदय तुमहि जनाउब एही । हरिअ लियो हय बालक केही ॥
युद्ध नीति में अत्यंत निपुण मंत्रिवर से प्रश्न किया - ''महोदय ! अब आप ही प्रबोधित कीजिए किस बालक ने मेधीय अश्व का हरण किया है |
सरितपति सिंधु सरिस मम सकल चमूचर आहिं ।
तपन काल के ताल तुल पलक सोष बिनसाहि ॥
मेरे समस्त योद्धा सरितापति सिंधु के समान थे वह तपनकाल के ताल तुल्य क्षणमात्र में अवशोषित होकर विनष्ट हो गए |
गींव भयउ गहबरि के नाईं । महमन सुमति बोलि गोसाईं ॥
बाल्मीकि केरे आश्रमु एहि । रिषि मुनि अबरु ए निवास न केहि ॥
कंदरा के समान हुई ग्रीवा से फिर महामना सुमति बोले - स्वामी ! यह वाल्मीकि जी का आश्रम है उस ऋषि मुनि के अतिरिक्त यहां अन्य किसी का निवास नहीं है |
हरनहार सुरपति त न होईं । आन तुरग हरि सके न कोई ॥
कै संकर भरि बालक भेसा । अरु हरनि नहि कतहुँ को देसा ॥
उस अश्व के हरणकर्ता कहीं देवराज इंद्र तो नहीं हैं क्योंकि उनके अतिरिक्त इस अश्व को हरण करने में कोई समर्थ नहीं है अथवा फिर भगवान महादेव ने बालक का वेश धारण कर उसका हरण किया हो ? उसे हरण करने हेतु कहीं कोई देश शेष नहीं बचा |
सोच बिचार मम मति अस कहहि । एहि औुसर जैहौ तहँ तुम्हहि ॥
लेइ संग निज सैन बिसाला । चारिहुँ पुर बल बीर भुआला ॥
भलीभांति विचार कर मेरी बुद्धि ऐसा कहती है कि इस समय आप ही वहां जाएं और अपने साथ विशाल सेना को साथ ले चारों ओर से वीर राजाओं का घेराकर
जाए तहां अब तुम अरिहंता । बाँध लियो छन ताहि जियन्ता ॥
रिपु कर करतब करत न हारे । कौतुक प्रिय रघुनाथ हमारे ॥
हे अरिहंत ! वहां प्रस्थान कर आप उसे जीते जी ही क्षणमात्र में विबन्धित कर लीजिएगा | ये हमारा शत्रु कौतुक करा नहीं थकता और हमारे रघुनाथ को भी कौतुक प्रिय है |
बाँध कसि ले जैहौं तहँ हार परन मैं ताहि ।
करिअ सम्मुख देखइहौं रघुबर सों सब काहि ॥
बालक की हार के पश्चात मैं उसे कसके बाँधकर वहां ले जाऊंगा और उसे सम्मुख प्रस्तुत कर रघुबर सहित सभी को उसके कौतुक का दर्शन कराऊंगा |
सुनि रिपुहन कहि सचिउ कर बचन | सकल बीरन्हि दिए अनुसासन ||
तुम ए बिपुल अनि संग अगोहू | अइहौं मैं तुम्हरे पछोहू ||
मंत्रिवर सुमति के वचनों को श्रवण कर शत्रुध्न ने समस्त वीरों को आज्ञा दी --'तुम इस विपुल सेना के साथ आगे बड़ो, में भी तुम्हारे पीछे आता हूँ |'
रामानुजन्हि आयसु पाईं | चले बीर भट लए कटकाई ||
दलबल पूरित सैन बिसाला | निरखत नियरावत सो बाला ||
रामानुज की आज्ञा प्राप्तकर सेना लिए सैनिकों ने प्रस्थान किया दलबल से परिपूर्ण उस विशाल सेना अपने निकट आता देख वह बालक -
ठाड़ भयो बनराजु समाना | सकल बीरन्हि मृग तुल जाना ||
ते तमचूर ताहि चहुँ फेरा | ठाढ़ेसि सहुँ घारि घन घेरा ||
किसी सींग के समान उतिष्ठित हुवा और सभी वीरों को मृग के तुल्य समझा | वे सैनिक उस वीर बालक के चारों ओर घना घेरा किए सम्मुख आ डटे |
तेहि समउ ता घेरनहारे | बिलखत लोचन गहे अँगारे ||
जरत अगन ज्वाल कन जागे | सकल भटन्हि भसम करि लागे ||
उस समय उसने घेरा डालनेवाले समस्त सैनिकों को अंगारयुक्त नेत्रों से देखा क्रोध रूपी प्रज्वलित अग्नि से रोष की चिंगारी फूट पड़ी वह उन सैनिकों को भस्म करने में लग गई |
बिष धारा पुनि करतल धारे | केहि घात दए घाट उतारे ||
मारि बान तियरात नभौका | पहुंचाइ दिए केहि परलोका ||
किसी सैनिकों को करतल ग्रही कृपाण के प्रहार से मृत्यु के घाट उतार दिया | किन्हीं को बाणों से नभ में तैराते हुवे परलोक पहुंचा दिया |
केहि प्रास कुंत पटिसा केहि परिघ सहुँ भेद |
महत्मन लव सबहि घेर दियो पलक परिछेद ||
किसी का प्रास,कुंत ,पट्टिश तो किसी को परिघ से विभेदन किया इस प्रकार महात्मा लव ने सभी घेरों का क्षणमात्र में ही परिच्छेदन कर दिया |
मेघ माल सम सप्तक घेरे । भए मोचित गए सबहिं निबेरे ॥
सरद काल घन बरन बिछोही । सियसत पूरन सस सम सोंहीं ॥
मेघमाल के सदृश्य इस सप्त घेरे का निवारण कर उन्मोचित हुवे सीतापुत्र लव शरद्काल के मेघावरण से उन्मुक्त हुवे पूर्णेंदु के समान सुशोभित होने लगे |
पीर गहे तन बान पबारे। नेकानेक बीर महि पारे ॥
बिहरति बिकल सकल कटकाई । हतबत बिनु पति चलिअ पराई ॥
अनेकानेक वीरों के बाण ग्रहण किए पीड़ा युक्त शरीर भूमि पर गिरे हुवे थे | पति विहीन समूची सेना व्याकुल अवस्था में विलाप करती घायल अवस्था में रणभूमि से दृष्टपृष्ठ हो गई |
धावत जब निज दल अबलोके । केही भाँति लव गयउ न रोके ॥
तब बलबन पुष्कल ता सोहें । छतज नयन करि होइ अगौहैं ॥
जब अपने सैन्य दल को भागते हुवे देखा और लव किसी भाँती भी नियंत्रित नहीं हुवे तब बलवान भरतपुत्र पुष्कल क्रोधयुक्त नेत्र लिए उसके सम्मुख अग्रसर हुवे |
ठाड़ रहउ कह बारहि बारा । नियरावत यहु कहत पचारा ॥
बर रथ तुरंग संग सुसोही । देउँ पदचर बीर मैं तोही ॥
वह निकट आते हुवे वारंवार 'खड़े रहो! खड़े रहो !! कहकर लव को ललकार रहे थे, यह कहते हुवे कि हे पदचर वीर ! मैं तुम्हें उत्तम अश्व से सुशोभित एक रथ प्रदान करता हूँ |
तुम पयाद मैं रथरोहि तापर पद बिनु त्रान ।
कहौ मैं केहि बिधि तोहि जितौं बीर बलबान ॥
मैं रथारूढ़ हूँ और तुम पदचर हो, उसपर भी तुम्हारे पद पादुका से विहीन हैं; वीर बलवान कहो मैं किस विधान से तुम पर विजय प्राप्त करूँ |
कांत मुख भए मंद मलीना । जस को बालक केलि बिहीना ॥
( ऐसा कहते )परकटी सेना कैसे प्रतीत हुई जैसे वह कटी हुई शाखा वाले वृक्ष का समूह हों ॥ और उनके कालिमा से युक्त मुरझाए हुवे मुख इस प्रकार दर्श रहे थे जैसे भुजा न हुई किसी बालक के खिलौने हो गए और वे किसी ने छीन लिए हों ॥
त्राहि कहत कसकत कटकाई । बल न अरु बली भेस बनाई ॥
रिपुहन हरिदै दहए अतीवा । कुठार पन के रहे न सींवाँ ॥
रक्षा की पुकार कर पीड़ा प्रकट करती उस सेना में बल नहीं था तथापि उसने बली का वेश धारण किया हुवा था अरिहंत का ह्रदय अत्यधिक दहकने लगा उनके कठोरता की कोई सीमा ही नहीं थी |
सुनि पुनि बालक हरिहि तुरंगा । ज्वाल नयन जरइ सब अंगा ॥
कहत धरनि धर सुनु हे मुनि बर । भंग भुजा केरे दरसन कर ॥
उन्होंने जब सुना कि बालक ने अश्व का हरण कर लिया तब नेत्रों की ज्वाला से उनके सभी अंग धधक उठे | इस प्रकार भगवान शेष जी कहते हैं हे मुनिवर ! अपनी सेना को ऐसी भग्न बाहु दशा के दर्शन कर -
नाचत बदन अगन कन चमकहिं । अस जस धनवन दामिनि दमकहिं ॥
सकल कटक अस थर थर काँपिहि । भूमि कम्प जस भवन ब्यापिहि ॥
शत्रुहन के मुख पर क्रोध की चंगारी ऐसे नृत्य करने लगी जैसे आकाश में चंचला नृत्य करती हो ॥ समूची सेना ऐसे थरथर कांपने लगी जैसे भवनों में भूकंप व्याप्त हो गया हो |
पीसत दंत गरजत हँकारे । पचार लवन्हि बदन पसारे ॥
अधर दल रद दायन दीन्हे । कोपु बिबस चिन्हारी कीन्हे ॥
दन्त पिसते वह गरज कर पुकार करने लगे और लव को ललकारते हुवे मुख विस्तारित कर दिया | अधर दल पर दंतों का जब दान दिया तब कोप के वशीभूत उसपर दन्त-चिन्ह प्रकट हो गए |
बहु रिसिहाईं पूछ बुझाईं दरस कटक बाहु कटे ।
कवन बीर कर काटे भुज धर ते मोर सौमुख डटे ॥
कहत पुनि सोइ बल बलबन्हि रच्छिहैं किन देवहीं ।
गह बल केते बाँच न पाइँहि जो मोरे हस्त गहीं ॥
अपने सैनिकों की कटी हुई भुजाएँ देख कर शत्रुधन ने अत्यंत रोष पूर्वक प्रश्न करने लगे: - ' किस वीर के हाथों ने ये भुजाएं काटी है । वो मेरे सम्मुख तो आए ,उन्होंने फिर कहा : - ''वह बलवान चाहे देवताओं से ही रक्षित क्यों न हो ,उसने कितना ही बल क्यों न संग्रह किया हो वह मेरे हाथों से नहीं बच पाएगा | ''
सुनि सैन सत्रुहन बचनन, किए अचरज भरि खेद ।
एक बालक श्री राम रुप, कहत बाँधि है मेद ।।
सैनिकों ने शत्रुध्न के वचन को सुनकर आश्चर्य युक्त खेद व्यक्त कर बोले : -- एक बाल किशोर है जो श्री राम के स्वरुप ही है उसी ने उस गठीले अश्व को बांधा है ॥
शुक्रवार, ०८ अप्रेल , २०१६
सुनि एकु बालक हरिहि तुरंगा । छोभअगन किए नयन सुरंगा ॥
बोलि बिमूढ़ हठि बालक एहू । करन चहसि सठ जमपुर गेहू ॥
एक बालक ने उस अश्व का अपहरण किया यह श्रवण कर क्रोधाग्नि ने नेत्रों को लाल कर दिया वह बोले : - '' यह हठी बालक मूर्ख है यह दुष्ट यमलोक में अपना निवास वसवासित करने हेतु अभिलाषित है |
तब रिपुहन बिहरत निज आपा । कसेउ ताल कठिन कर चापा ॥
दहन तपन हरिदै न समाहू । संग्राम हेतु होत उछाहू ॥
तब शत्रुध्न ने अपना संयम त्याग दिया और करतल में कठिन कोदंड कर्षित कर लिया | संग्राम हेतु उत्कंठित होते क्रोधाग्नि का ताप ह्रदय में समाहित नहींहो रहा था|
सेनाधिप काल जित बुलायो । नीति बनाउन आयसु दायो ॥
कहि दलपति अग्या यह मोरे । सब रन साजु सँजोइल जोरें ॥
तदनन्तर उन्होंने सेनाधिप कालजित को बुलाया उन्हें रणनीति निर्मित करने का आदेशदिया | दलपति से कहा यह मेरी आज्ञा है संग्राम की समस्त साज सामग्रियां संयोजित करो |
रचिहु अदम दुर्भेद ब्यूहा । जुगावत सबहि जेय समूहा ॥
अहहैं रिपु एकु बीर जयंता । बिपुल तेज बल अति बुधवन्ता ॥
समस्त जेयशील समूहों का संकलन कर अदम्य व् दुर्भेद्य व्यूह की रचना करो | एक शत्रु है जो वीर व् जयंत है उसमें विपुल तेज, बल है वह अत्यंत बुद्धिमन्त है |
हमरे तुरग हरिहि जो कोई । सो बालक सधारन न होई ॥
एहि अवसर सुनु करन चढ़ाई । चौरंगीनि लेउ बनाई ॥
हमारे तुरंग का जिसने हरण किया है वह बालक साधारण नहीं है | सुनो ! इस समय उसपर आक्रमण करने हेतु चतुर्रंगी सेना सुसज्जित करो |
द्युतिमन दरपन सहुँ दै आसन सकल प्रसाधन निहार के ।
सब साज सुसाजित करिहु समाजित चातुरंग सिँगार के ॥
राम प्रतिरूप रूप न थोड़े सो बीरबर सुकुमार के ।
सुनु लिवात समर लगन सदन पुनि करिहु सम्मुख सँभार के ॥
समस्त सौंदर्य प्रसाधनों का विलोकन करके तत्पश्चात प्रभामयी दर्पण के सम्मुख उसे आसन प्रदान करना | समस्त साज सामग्रियों से सुसज्जित करके उसके चतुरंगों का श्रृंगार कर उसे तैयार करना रामचन्द्रजी का प्रतिरूप उस वीरवर सुकुमार का रूप भी यत्किंचित नहीं है अर्थात वह अत्यधिक रूपवान है सुनो ! फिर उसे संग्राम रूपी लग्नमण्डप पर लाकर फिर यत्नपूर्वक उसे सम्मुख करना |
द्योतिमन दरपन सहुँ चातुरंग सम्भार ।
समर साज प्रसाधन सों करि सुठि सब सिंगार ॥
अरिहन अग्या सेन पत सकलत अदम समूह ।
सब रन बाज बजाए सो रचिहि अभेद ब्यूह ॥
तत्पश्चात प्रभामयी दर्पण के सम्मुख युद्ध की समस्त साज सामग्रियों से सेनापति कालजित ने यत्नपूर्वक सेना के चतुरंगों का सुंदर शृंगार किया फिर रिपुहंत की आज्ञा का अनुशरण करते हुवे अदम्य समूहों का संकलन कर युद्ध के समस्त ढोल-डंके बजाने वाले (युद्ध की सभी कलाओं को जानने वाले) एक अभेद्य व्यूह की रचना की |
आनि लेइ रिपुहन समुहाई । निरखत सजी धजी कटकाई ॥
हरनहार जहँ बालक पायो । तहाँ पयावन कहि समझायो ॥
फिर उसे शत्रुध्न के सम्मुख लाकर उपस्थित कर दिया | सजीधजी सेना का निरिक्षण कर का फिर उसे वहां प्रस्थान करने हेतु प्रबोधित किया जहाँ अश्व का हरणहारी प्राप्त हुवा था | इत चतुरंगिनि आगिन बाढ़िहि । पंथ जुहारत लव उत ठाढ़िहि ॥
दरसत बालक रूप अनूपा । कहि दलपत अह राम सरूपा ॥
इधर चतुरंगी सेना आगे बढ़ रही थी उधर उसकी प्रतीक्षा में अधीर लव उपस्थित थे | बालक के अनुपम रूप का दर्शन कर सेनापति ने कहा : - अहो! यह तो रामजी का ही स्वरूप है |
कहत कुँअरु हे पलक न पारे । परिहरु देउ तुरंग हमारे॥
अवध पति जिन्ह के गोसाईं । तिन्हके बिकम बरनि न जाई ॥
पलकें गिराए बिना अर्थात एकटक अवस्था में ही सेनापति ने कहा हे कुमार ! हमारे अश्व को विमुक्त कर दो | इसके स्वामी अयोध्यापति श्रीराम चंद्र हैं उनका पराक्रम अनिर्वचनीय है |
गहेउ तपसि राम सम चेले । ताहि सरूप रूप तव मेले ॥
दरस तोहि मैं भयउँ दयालू । कारन तव छबि सोंह कृपालू ॥
तुमने तपस्वी श्रीराम का के समान वेश धारण किया हुवा है इस हेतु तुम्हारा रूप उनके स्वरूप से सम्मेलित होता प्रतीत हो रहा है |
जिअ बिसुरत निज सुध बुध भूला । होइ चहु तुम्ह तूलमतूला ॥
अब लग जग जिअ हारि न काहू । तासु हृदय तुम जीतन चाहू ॥
प्राणों का मोह त्याग कर अपनी संचेतना को विस्मृत किए तुम उनका सामना करने को आतुर हो ? जिस सेना ने संसार में अबतक किसी को प्राणहार नहीं माना तुम उस सेना के ह्रदय पर विजय प्राप्त करने हेतु अभिलाषित हो ?
सुनहु हे बीरबर कुँअर मानिहु बात न मोरि ।
रोपिहु हठ एहि अवसर त होहि राख कस तोरि ॥
हे वीरवर कुमार ! सुनो, यदि मेरा कहा नहीं माना और इस समय हाथ का आरोपण किया तो तुम्हारी रक्षा किस प्रकार होगी ?
शनिवार, ०९ अप्रेल, २०१६
लव मुख दर्पण छबि निज नाहा ॥ बिलखत अपलक बोलहि बाहा ।
जो तुम्ह मोर कहि नहि मानिहु । निज जीवन बिरथा बिनसानिहु ॥
लव के मुखदर्पण पर अपने महारज श्रीरामचन्द्र जी की छवि का दर्शन करते हुवे सेनावाह अपलक बोलते रहे :-- यदि तुमने मेरा कहा नहीं माना तो अपना जीवन व्यर्थ में नष्ट कर दोगे |
मैं बयोबिरध तुअ एक बालक । कारन तुम पदचर में एक पालक ॥
सुनु हे रघुबर कर प्रतिरूपा । देउ हरि है सौंपि सो भूपा ॥
मैं वयोवृद्ध हूँ और तुम एक बालक हो | तुम एक पदचारी हो और मैं एक सेनापाल हूँ, एतएव तुम्हारी और मेरी क्या तुलना | हे राम प्रतिरूप ! सुनो, तुम राजा शत्रुध्न को हरण किया हुवा वह अश्व सौंप दो |
मोरी छबि अवधेश समाना । होइ चकित लव सुनि जब काना ॥
जबु दलपत कहि बत गुँजराँई। कछु हँसि हंस अधर तरियाँईं ॥
मेरी छवि अवधेश के समरूप है जब महाराज लव को यह श्रवण हुवा तो वह चकित रह गए और जब दलपति की कथोक्तियाँ गुंजायमान हुई तब हास्य के कुछ एक हंस अधर सरोवर पर तैरने लगे |
हृदय तरंग माल उमगाईं । एकु तरि आईं एकु तरि जाईं ॥
एक छन अधरन दिए अलगानी । बोलि गिरा पुनि मधुरस सानी ॥
हृदय में तरंगमालाएँ उत्तोलित होने लगी जो एक तीर पर आती और एक तीर पर चली जाती | क्षणमात्र को अधरों मौन को प्रतिष्ठित कर तत्पश्चात मधुरस में संलिप्त वाणी से बोले : -
नाउ धर केहि नाउ न होही । होत कीरत करनि कृत सोई ॥
किसी का नाम धारण करने मात्र से कीर्ति नहीं होती | कीर्ति तो अपनी कृत करनी से ही होती है |
कहिहु ए समाचार, राम सों भग्न दूत बन ॥
हे सेना पति काल जित, यदि तुम अपनी हार मान लो तो मैं इस घोड़े को छोड़ दूँगा । और श्रीराम चन्द्र जी के सम्मुख युद्ध में हार का सन्देश देने वाले दूत बनकर सारा समाचार कहो ॥
कहत चकित तब काल जित जनमिहु तुम कुल केहि ।
कहौ बिदित सो नाउ निज तोहि पुकारसि जेहि ॥
तब कालजित स्तब्ध रह गए और यह वचन बोले : - तुम्हारा जन्म किस कुल में हुवा है ? तुम्हा जगविदित वह नाम कहो जिससे तुम सम्बोधित होते हो |
रविवार, १० अप्रेल, २०१६ सीस जटा जुट बिबरन दाही । करिहहु रन धुनि मुनि तुम नाही ॥
तन जति बसन बिचरहु बन एही । बसिहउ गाँव नगर कहु केही ॥
शीश पर जटाजूट तुम्हारे मुनि होने की व्याख्या करती हैं किन्तु युद्ध की धुनि रमाए हुवे हो इस हेतु तुम मुनि कदापि नहीं हो |
कहहु बीर तव नृप को होंही । तुहरी दसा जनाउ न मोही ॥
राज लच्छन सब अंग सुहाए । में रथि अरु तुम पयादहि पाएँ ॥
कहो वीर तुम्हारे राजा कौन है ? अपनी इस दशा से मेरा प्रबोधन करो | तुम्हारे सभी अंगों में राज लक्षण सुशोभित हैं फिर मैं रथी हूँ और तुम थलचारी पदचर हो |
तुमहि कहौ दुर्दम में ऐसे । तोहि धर्मतस जीतौं कैसे ॥
कहत सियसुत नगर कुल नाउ । कहौ तो लेन दसा ते काउ ॥
तुम ही कहो ऐसी दुर्दम्य अवस्था में मैं धर्मतः तुम्हें कैसे जीतूँ ? तब सीतपुत्र लव ने कहा : - ''नगर,कुल,नाम से तुम्हारा क्या औचित्य कहो तो दशा से भी तुम्हे क्या लेना ?
सेनापति बहु कह समुझाईं । पराधीन सपनेहु सुख नाहीं ॥
हमहु अधीन न अंगीकारी । कहत एहि मुख करक चिंघारी ॥
सेनापति कालजीत ने लव को बहुंत समझाया किन्तु पराधीनता स्वपन में भी सुख नहीं देती लव ने फिर यह उद्दीप्त होकर कहा हमें अधीनता स्वीकार्य नहीं है ॥
में लव अहिहउँ अरु लव माही । जितिहउँ समर बीर सब काहीं ॥
सकुचउ न मोहि जान पयादहि । बिनहि रथि करि देउँ में तुम्हहि ॥
मैं लव हूँ और लव का अर्थ निमेष होता है में निमेष मात्र में ही सभी शूर वीरों को जीत लूँगा । तुम मुझे प्यादा जानकर संकोच न करो लो मैं तुम्हें भी प्यादे में परिणित कर देता हूँ ॥
असि बत कहि कह सो बलवाना । चढ़ा पनच कोदण्ड बिताना ॥
प्रथम जनि पुनि सुरत गुरु नामा । मन ही मन कर तिन्ह प्रनामा ॥
ऐसा कहते हुवे उस बलवान ने प्रत्यंचा खैंचकर कोदंड विस्तारित किया | सर्वप्रथम अपनी माता और फिर अपने गुरु वाल्मीकि का नाम स्मरण करते हुवे मन ही मन उन्हें प्रणाम किया ॥
लगे बरखावन घन घन बान बिकट बिकराल ।
रिपुगन के जो काल बन प्रान लेइ तत्काल ॥
फिर विकट व् विकराल वाणों के घन से सघन वर्षा करने लगे जो शत्रुगण का काल बनकर उनके तत्काल प्राण लेने में सक्षम थी |
बिकट बिसिख गन बरखन लागे । घानत घन रिपु जीउ त्यागें ॥
तमकि ताकि पताकिनी पाला । भींच अधर किए लोचन लाला ॥
विकट बाण समूह वर्षने लगे उसके सघन गर्जना ने कहा अरे शत्रु ! अब प्राण त्याग दो विपक्षी सेना की ओर तमककर दृष्टि करते लव के भींचते अधर नेत्रों को लाल करने लगे |
दहत बदन गह अगन प्रचंडा । करषत कसत कठिन कोदंडा ॥
निरखत नभ गच पनच चढ़ाईं । देइ परच निज रन चतुराई ॥
क्रोध रूपी प्रचंड अग्नि से उनका मुखमण्डल दहक उठा फिर उन्होंने कठिन कोदंड को कसकर कर्षित किया और आकाश की और दृष्टि गड़ा कर प्रत्यंचा चढ़ाई और अपनी सामरिक चतुराई का परिचय दिया |
छूटत सरगन गगन घन छाए । लगे जो जिय सो जीव न पाए ॥
लपकत ताहिं बीर बरबंडा । किए एक एक के सत सत खंडा ॥
प्रत्यंचा को त्याग कर बाणों के समूह आकाश में बादलों के समान व्याप्त हो गए वह जिस किसी के ह्रदय को लक्षित करते वह जीवित नहीं रहता |
घमासान रन भयउ बिहाना । छाडसि लसतकि कसि कसि बाना ॥
अष्टबान पुनि प्रतिहत मारे । निपत नीच दलपत भू पारे ।।
घमासान युद्ध होने लगा धनुष की मूठ कस कस कर बाणों का त्याग करने लगी | फिर अष्टबाण प्रतिघात में अष्टबाण का प्रहार किया तब दलपति अधोपत होते हुवे भूमि पर गिर पड़े |
चढ़े घात भए रथहु बिभंगा । दुहु पयादिक भयउ ता संगा ॥
तुरत तमीचर करि लय आईं । सपत धार मददान रिसाईं ॥
उन बाणों के घात पर चढ़के रथ भी विभंजित हो गया इसके साथ ही वह दोनों योद्धा पदचर हो गए | तब एक तमीचर तत्काल ही एक हस्ती ले आया उससे सप्तधार में मदजल स्त्रावित हो रहा था |
चढ़ बैठें पति छन ताऊपर । रन दुर्मद चलिअ अति बेगिकर॥
गजारूढ़ानिपालहिं देखा । रिपु जयंत सो बीर बिसेखा ॥
सेनापति कालजित तत्क्षण उसपर आरोहित हो गए और दुर्मद रण हेतु शीघ्रता पूर्वक चल पड़े | गजारूढ़ सैनीपाल को दर्शकर शत्रु पर विजय प्राप्त करनेवाले उस विशिष्ट वीर ने : -
मारि बिहस कुल बान दस दरस दरस दल राय ।
झपटि भीतत बिंध दियो हरिदै भवन समाए ॥
दलपति को देख देखकर उपहास पूर्वक कुल दस बाणों का प्रहार किया; तीव्रगति से परिचालन करते वह बाण दलपति का भेदन करते उसके ह्रदय भवन में समाहित हो गए |
बृहस्पतिवार १४ अप्रेल, २०१६
अस बल अस रन कौसल भारी । अधिपत अबरु न कतहुँ निहारीं ॥
बहुरि भयंकर परिघ प्रहारी । लगत तुरए जो जिअ अपहारीं ॥
ऐसा बल ऐसा गहन रण कौशल सेनाधिपति को अन्यत्र कहीं दृष्टिगत नहीं हुवा था | फिर उन्होंने भयंकर बाण का प्रहार किया जो लक्ष्य प्राप्त करे तो तत्काल ही प्राणों का अपहरण कर ले |
चढ़त अगास चिक्करत धायो । चरत चपल लव काटि गिरायो ॥
लिए करबीर करतरी पासा । दुर्मद हस्ती किए बिनु नासा ॥
आकाश में आरोहित होकर वह घूर्णन करते हुवे दौड़ा इधर लव ने चपलता पूर्वक परिचालन करते हुवे उसका निवारण कर दिया | फिर उस वीर ने एक कतार हस्तगत कर उस दुर्मद हस्ती को विहीन कर दिया |
तजत सकल कल केतु समूहा । कुलत करिहि सो कुंजर कूहा ॥
कूदि ततछन धरिअ पद दन्ता । सीस भवन पुनि चढ़े तुरंता ॥
तब समस्त कल केतुओं का त्याग कर पीड़ित होते हुवे वह कुंजर चिंघाड़ उठा लव दन्त पर चरणदान कर तत्क्षण ही उसके शीर्ष भवन पर आरोहित हो गए |
भेंट अधिपत बीर बरबंडा । मौलि मुकुट कीन्हि सत खण्डा ॥
गाताबरन सहस खन करिहीं । हनत मुठिका केस कर धरिहीं ॥
हस्ती के शीर्ष पर सेनाधपति के साथ भेंट हुई तब लव ने उसके मस्तक के मुकुट को सात खण्डों में विभक्त कर फिर कवच के शतक खंड कर दिए | मुष्टिका का प्रहार कर केश पकड़े
खैंच ताहि महि देइ गिरायो । दुर्धर कोप नयन मुख छायो ॥
अधिपति मुख बल निपतत भूहा । भेद गही निर्भेद ब्यूहा ॥
और उन्हें खैंचते हुवे उसे भूमि पर ला गिराया उस समय उनके मखमंडल व् नेत्रों भयंकर कोप व्याप्त था | सेनाधिपति मुख के बल धराशायी हुवे इस प्रकार उसके निरभेद्य व्यूह का विभेदन कोप्राप्त हो गया |
धारा बिष करताल गहत घात लहरात पुनि ।
भरि जुग नयन ज्वाल लवनहि बधन अगुसर भए ॥
इस आघात को ग्रहीत कर तदनन्तर कालजित ने एक धारयुक्त खड्ग धारण की, उसे लहराते हुवे उसके युगल नेत्रों में ज्वाला भर गई वह उस खड्ग से लव का वध करने के लिए अग्रसर हुवा |
चलि झलझल जोलाहल जोई । सौंट सरट कोलाहल होई ॥
पत कर गहि कर बीर बिसेखा । लव जब नियरै आगत देखा ॥
ज्वाल संयोजित कृपाण जब चमकती हुई चलने लगी तब वायु सरसर की ध्वनि कोलाहल करने लगी सेनापति के हस्तगत उस विशेष कृपाण को लव ने जब अपने निकट आते देखा
काटि माँझि दाहिन भुज ताहीं । खडग सहित छन गिरि महि माहीं ॥
देखि भुज तरबारि महि पारी । उमगिहि कोप दहन अति भारी ॥
तब उन्होंने मध्य भाग से उसकी दाहिनी भुजा काट दी ,क्षणमात्र में वह कृपाण सहित भूमि पर गिर पड़ी | अपनी भुजा को कृपाण सहित पृथ्वी पर गिरा देखकर उसमें अत्यंत गहन क्रोधाग्नि उमड़ पड़ी |
बाम भुज गरु गदाल गहावा । हतोद्यम लवनहि पुर आवा ॥
तीछ बान तैं ऐतक माही । तमकत काटि दियो लव ताहीं ॥
वाम भुजा से एक भारी गदाल धारण किए हैट हेतु उद्यमित होकर वह लव की और उन्मुख हुवा | इतने में ही लव ने व्यग्र होते हुवे एक तीक्ष्ण सायक से उस भुजा को काट गिराया |
कतहुँ त मुग्दल करतल पूरा । गिरि कतहुँ कर कलित केयूरा ॥
धधकत धारा बिष धरंता । मुनिबर पुनि बालक बलवंता ॥
करतल में आपूरित कहीं तो वह मुद्गल तो कहीं हस्त कलित केयूर गिरा | तदनन्तर हे मुनिवर ! ज्वाला से धधकते उस कृपाण को धारण किए वह बलवंत बालक
टूट परेउ काल के नाईं । मुकुट मंडित माथ बिलगाईं ॥
परे रन भुइँ बहुरि निरजूहा । भयऊ जुगत रहित सब जूहा ॥
कालजित प् काल के समान टूट पड़ा और उसके मुकुट मंडित मस्तक को पृथक कर दिया | फिर अपने शिरोभूषण को रण-भूमि पर निपातित देख शत्रुध्न की सैन्य टुकड़ी युक्ति से रहित हो गई |
खेत होइ सेनाधिपत प्रसरित भए चहुँ ओर ।
चिक्करत बिकल करिहि सकल कोलाहल घन घोर ॥
सेनापति वीरगति को प्राप्त हो गए यह समाचार चारों ओर प्रसारित हो गया सभी सैनिक चक्कर लगाते व्याकुल अवस्था में घनघोर कोलाहल करने लगे |
मंगलवार, १७ अप्रेल २०१६
सकल चमुचर छोभ भरि आवा । लवनन्हि बधन चरन बढ़ावा ॥
होत क्रुद्ध अति होइ अगौहाँ । सियसुत तुरत आए ता सौंहा ॥
समस्त पदचारी सैनिक क्षोभ से भर गए और उन्होंने लव का वध करने हेतु आक्रमण कर दिया | क्रुद्ध होते हुवे जब वह अत्यंत अग्रगामी हो गए तब सीतापुत्र लव तत्काल उनके सम्मुख आए
रजु कसि पुनि असि मारिउ बाना । सबन्हि पाछिन देइ पराना ॥
चलिअ बान जिमि पवन अधीरा । गिरहि बीर जिमी तरु नद तीरा ॥
और फिर प्रत्यंचा कसकर उन्हें ऐसे बाण मारे जिन्होंने सभी पदचरों को पछाड़ दिया | वह बाण ऐसे परिचालित होते जैसे अधीर पवन परिचालित होती है और वह वीरों पर ऐसे गिरते जैसे नदी तट पर कोई सघन वृक्ष गिरता है |
भयो ढेर केतक भट केरी । केतन केत चलिअ मुख फेरी ॥
एहि बिधि छतवत सबहिं जुझारू । अगहुँ तेउ पुनि भए पिछबारू ॥
कितने ही सैनिक ढेर हो गए और कितने ही रण छोड़कर भाग चले इस प्रकार सभी योद्धाओं कष्ट विक्षित होते अग्रगामी से पश्चगामी हो गए |
भर बर लव रन भूषन भेसा । कटकु माझ बहु मुदित प्रबेसा ॥
चरन केहि के केहि कर बाहु । काटेउ करन नासिका काहु ॥
युद्ध के सभी वेशाभूषणों का आभरण किए प्रमुदित महाराज लव सेना के मध्यभाग में प्रविष्ट हो गए फिर तो उन्होंने किसी के चरण तो किसी की भुजा किसी का कर्ण तो किसी की नासिका काट दी |
कोउ बदन भै नयन बिहीना । कोउ कवच को कुंडल हीना ॥
एहि बिधि सेनापति गै मारे । होइ भयंकर सैन सँहारे ॥
कोई मुखमण्डल नेत्रों से विहीन हो गया, कोई कवच तो कोई कुण्डलों से रहित हो गया | इस प्रकार सेनापति का मारे गए, सेना का भयंकर संहार हुवा |
सबहि जीउ सिराए गए जिअत रहे नहि कोइ ।
चतुरंगिनि हिय जीत लव बिजै कलस कर जोइ ॥
सभी के प्राण जाते रहे कोई जीवित शेष नहीं रहा | उस चतुरंगिणी का ह्रदय जीतकर लव का हस्त विजय कलश को प्राप्त हुवा |
एहि बिधि हतवत रिपु समुदाई । बिनु पत परवत गयउ सिराई ॥
होइ पराजय ए अनकनी के । आए न जाईं कोउ अनीके ॥
परवत् = असहाय होकर
इस इस प्रकार क्षत-विक्षत शत्रुदल सेनापति के बिना असहाय होकर समाप्त हो गया इस सैन्य टुकड़ी की पराजय हुई किन्तु कोई और टुकड़ी न आ धमके -
मानस मन एहि संसय जागे । लव रन पंथ जुहारन लागे ॥
रहइ सचेत नयन पथ लाईं । अपर अनीक करन अगवाईं ॥
मनोमस्तिष्क यह संशय जागृत होते ही महाराज लव युद्ध हेतु उसकी प्रतीक्षा करने लगे फिर वह सावधान होकर और दूसरे सैनिकों के आगमन पर उनके स्वागत हेतु पथ दृष्टि लगाए रहे ॥
सुभाग बस को को रजतंती । जोवत जीय रहे जीवंती ॥
पाहि पाहि कह सकल पराने । पाछु फनिस सम सायक आने ॥
सौभाग्यवश कोई कोई वीर अपने प्राणों की रक्षा करने में सफल रहे और जीवित रहे वे सभी रक्षा की पुकार करते भाग चले सर्प सदृश्य सायक उनका पीछा करने लगे |
पराबरत गत रिपुहन पाहीं । समाचार सब कहत सुनाईं ॥
काल सरिबर करनि एकु बाला । लहिअ काल जित मरनि अकाला ॥
वह लौट कर शत्रुध्न के पास गए औ उन्हें युद्ध का सारा वृत्तांत कह सुनाया | काल के समान एक बालक की करनी से सेनापति कालजित अकाल म्रत्यु को प्राप्त हुवे |
तासु बिचित्र रन करम बखाना । सुनि सत्रुहन बहु अचरजु माना ॥
चितबहि चितबत कहत तिन सोहु ॥ भरम जाल बस कहा तुम होहु |
उनकी विचित्र रण कौशल्यता का व्याख्यान श्रवण कर शत्रुध्न हतप्रभ रह गए | उन वीरों को एकटक निहारते फिर उन स्तब्ध वीरों से कहा -''क्या तुम किसी भ्रमजाल के वशीभूत हो ?''
कहु तो घेर घारि को माया । करहु मम सिरु कपट की छाया ॥
करिहु मोर संगत छल छामा | तुहरे बचन भयउ कस बामा ||
कहो तो छल कपट की प्रतिछाया कर इसे किसी मोह कारिणी शक्ति ने घेर लिया है ? अथवा तुम मुझसे कोई छलछंद कर रहे हो विजय का समाचार सुनाने वाले तुम्हारे वचन विपरीत कैसे हो गए |
बिकल त अहहि न चित्त तिहारे । काल जित अह गयउ कस मारे॥
सोइ मरनासन्न कस होई । जम तेहु दुर्धर्ष जो होई ॥
तुम्हारा चित्त हतचेत तो नहीं हो गया है अहो! कालजित कैसे मारे जा सकते हैं वह मरणासन्न कैसे हो सकता है जो यम के द्वारा भी दुर्धर्ष हो ॥ दुर्दमनिअ बल पौरुष जासू । अरु एकु बालक जीतिहि तासू ॥
कहौ ताहि को जीतिहि कैसे । जो आपही काल कर जैसे ॥
जिसका बल पौरुष दमन से परे हो उसे एक बाल किशोर ने कैसे पराजित कर दिया ? जो स्वमेव में ही काल स्वरुप हो उसपर कोई कैसे विजय प्राप्त कर सकता है ॥
सुनिहि बीर सत्रुहन के भाषन । रक्ताम्बरी करिहि निवेदन ॥
ना हमको को माया घेरी । ना हम किन्ही के उत्प्रेरी ।।
शत्रुधन का ऐसा भाषण सुनकर रुधिर से सने लाल कनेर से दर्शित होते उन वीर सैनिकों ने फिर ऐसा कहा : -- हे राजन ! न तो हमें किसी मोह कारिणी शक्ति ने ही घेरा है, और न ही हम किसी के उत्प्रेरित ही हैं ॥
गहिहिं घात अघात जुधिक देह रुधिर लपटानि ।
कहिहिं नीतिगत बचन पुनि सत्रुहन सहुँ जुग पानि ॥
घाताघात ग्रहण किए उन योद्धाओं ने रक्तरंजित देह लिए फिर शत्रुध्न के संमु करबद्ध होकर यह नीतिगत वचन कहे हे राउ अहहै हम पर, तव प्रतीत की सौंह ।
जोउ दरसे जेइ नयन, कहे जोंह के तोंह ॥
हे राजन ! हमको तुम्हारे विश्वास की सौगंध है इन आँखों ने जो कुछ भी देखा, वह हमने यथावत कह सुनाया ॥
बुध/ | बृहस्पति २० / २१ अप्रेल, २०१६
करहिं न हम छल कपट न खेला । किया एकै सो हम पर हेला ॥
कालजित कर मरनि गोसाईँ । भई बीर सो बालक ताईं ॥
न हम कोई छल-कपट कर रहे हैं न कोई खेल | जिसने हम पर आक्रमण किया वो एक ही है | स्वामी ! कालजित की मृत्यु भी उसी वीर बालक के द्वारा हुई है |
एतक अपूरब रन कुसलाई । तासों सकल कटकु मथना ई ॥
होइ जोइ अब तासु बहोरी । करहु सोइ जस मति कहि तोरी ॥
इतना अभूतपूर्व रणकौशल इतना अभूतपूर्व है कि उससे समूची सेना का मंथन हो गया | इसके पश्चात् जो कुछ उपाय हो उस हेतु जैसा आपकी बुद्धि कहती है आप वही कीजिए |
जिन्हनि जुझावन हुँत पठाहू । होइ चाहिब सो बली बाहू ॥
भट निवेदित बचन दए काना । तब रामानुज परम सुजाना ॥
उस परमवीर से मुठभेड़ के लिए जिन्हें रणभूमि भेजेंगे वे बाहुबली होने चाहिए | सैनिकों द्वारा निवेदन किए वचनों को श्रवण कर परम बुद्धिवंत रामानुज ने तब -
करम नीति महुँ अति निपुनाई । मंत्रीबर तैं पूछ बुझाईं ॥
महोदय तुमहि जनाउब एही । हरिअ लियो हय बालक केही ॥
युद्ध नीति में अत्यंत निपुण मंत्रिवर से प्रश्न किया - ''महोदय ! अब आप ही प्रबोधित कीजिए किस बालक ने मेधीय अश्व का हरण किया है |
सरितपति सिंधु सरिस मम सकल चमूचर आहिं ।
तपन काल के ताल तुल पलक सोष बिनसाहि ॥
मेरे समस्त योद्धा सरितापति सिंधु के समान थे वह तपनकाल के ताल तुल्य क्षणमात्र में अवशोषित होकर विनष्ट हो गए |
गींव भयउ गहबरि के नाईं । महमन सुमति बोलि गोसाईं ॥
बाल्मीकि केरे आश्रमु एहि । रिषि मुनि अबरु ए निवास न केहि ॥
कंदरा के समान हुई ग्रीवा से फिर महामना सुमति बोले - स्वामी ! यह वाल्मीकि जी का आश्रम है उस ऋषि मुनि के अतिरिक्त यहां अन्य किसी का निवास नहीं है |
हरनहार सुरपति त न होईं । आन तुरग हरि सके न कोई ॥
कै संकर भरि बालक भेसा । अरु हरनि नहि कतहुँ को देसा ॥
उस अश्व के हरणकर्ता कहीं देवराज इंद्र तो नहीं हैं क्योंकि उनके अतिरिक्त इस अश्व को हरण करने में कोई समर्थ नहीं है अथवा फिर भगवान महादेव ने बालक का वेश धारण कर उसका हरण किया हो ? उसे हरण करने हेतु कहीं कोई देश शेष नहीं बचा |
सोच बिचार मम मति अस कहहि । एहि औुसर जैहौ तहँ तुम्हहि ॥
लेइ संग निज सैन बिसाला । चारिहुँ पुर बल बीर भुआला ॥
भलीभांति विचार कर मेरी बुद्धि ऐसा कहती है कि इस समय आप ही वहां जाएं और अपने साथ विशाल सेना को साथ ले चारों ओर से वीर राजाओं का घेराकर
जाए तहां अब तुम अरिहंता । बाँध लियो छन ताहि जियन्ता ॥
रिपु कर करतब करत न हारे । कौतुक प्रिय रघुनाथ हमारे ॥
हे अरिहंत ! वहां प्रस्थान कर आप उसे जीते जी ही क्षणमात्र में विबन्धित कर लीजिएगा | ये हमारा शत्रु कौतुक करा नहीं थकता और हमारे रघुनाथ को भी कौतुक प्रिय है |
बाँध कसि ले जैहौं तहँ हार परन मैं ताहि ।
करिअ सम्मुख देखइहौं रघुबर सों सब काहि ॥
बालक की हार के पश्चात मैं उसे कसके बाँधकर वहां ले जाऊंगा और उसे सम्मुख प्रस्तुत कर रघुबर सहित सभी को उसके कौतुक का दर्शन कराऊंगा |
सुनि रिपुहन कहि सचिउ कर बचन | सकल बीरन्हि दिए अनुसासन ||
तुम ए बिपुल अनि संग अगोहू | अइहौं मैं तुम्हरे पछोहू ||
मंत्रिवर सुमति के वचनों को श्रवण कर शत्रुध्न ने समस्त वीरों को आज्ञा दी --'तुम इस विपुल सेना के साथ आगे बड़ो, में भी तुम्हारे पीछे आता हूँ |'
रामानुजन्हि आयसु पाईं | चले बीर भट लए कटकाई ||
दलबल पूरित सैन बिसाला | निरखत नियरावत सो बाला ||
रामानुज की आज्ञा प्राप्तकर सेना लिए सैनिकों ने प्रस्थान किया दलबल से परिपूर्ण उस विशाल सेना अपने निकट आता देख वह बालक -
ठाड़ भयो बनराजु समाना | सकल बीरन्हि मृग तुल जाना ||
ते तमचूर ताहि चहुँ फेरा | ठाढ़ेसि सहुँ घारि घन घेरा ||
किसी सींग के समान उतिष्ठित हुवा और सभी वीरों को मृग के तुल्य समझा | वे सैनिक उस वीर बालक के चारों ओर घना घेरा किए सम्मुख आ डटे |
तेहि समउ ता घेरनहारे | बिलखत लोचन गहे अँगारे ||
जरत अगन ज्वाल कन जागे | सकल भटन्हि भसम करि लागे ||
उस समय उसने घेरा डालनेवाले समस्त सैनिकों को अंगारयुक्त नेत्रों से देखा क्रोध रूपी प्रज्वलित अग्नि से रोष की चिंगारी फूट पड़ी वह उन सैनिकों को भस्म करने में लग गई |
बिष धारा पुनि करतल धारे | केहि घात दए घाट उतारे ||
मारि बान तियरात नभौका | पहुंचाइ दिए केहि परलोका ||
किसी सैनिकों को करतल ग्रही कृपाण के प्रहार से मृत्यु के घाट उतार दिया | किन्हीं को बाणों से नभ में तैराते हुवे परलोक पहुंचा दिया |
केहि प्रास कुंत पटिसा केहि परिघ सहुँ भेद |
महत्मन लव सबहि घेर दियो पलक परिछेद ||
किसी का प्रास,कुंत ,पट्टिश तो किसी को परिघ से विभेदन किया इस प्रकार महात्मा लव ने सभी घेरों का क्षणमात्र में ही परिच्छेदन कर दिया |
मेघ माल सम सप्तक घेरे । भए मोचित गए सबहिं निबेरे ॥
सरद काल घन बरन बिछोही । सियसत पूरन सस सम सोंहीं ॥
मेघमाल के सदृश्य इस सप्त घेरे का निवारण कर उन्मोचित हुवे सीतापुत्र लव शरद्काल के मेघावरण से उन्मुक्त हुवे पूर्णेंदु के समान सुशोभित होने लगे |
पीर गहे तन बान पबारे। नेकानेक बीर महि पारे ॥
बिहरति बिकल सकल कटकाई । हतबत बिनु पति चलिअ पराई ॥
अनेकानेक वीरों के बाण ग्रहण किए पीड़ा युक्त शरीर भूमि पर गिरे हुवे थे | पति विहीन समूची सेना व्याकुल अवस्था में विलाप करती घायल अवस्था में रणभूमि से दृष्टपृष्ठ हो गई |
धावत जब निज दल अबलोके । केही भाँति लव गयउ न रोके ॥
तब बलबन पुष्कल ता सोहें । छतज नयन करि होइ अगौहैं ॥
जब अपने सैन्य दल को भागते हुवे देखा और लव किसी भाँती भी नियंत्रित नहीं हुवे तब बलवान भरतपुत्र पुष्कल क्रोधयुक्त नेत्र लिए उसके सम्मुख अग्रसर हुवे |
ठाड़ रहउ कह बारहि बारा । नियरावत यहु कहत पचारा ॥
बर रथ तुरंग संग सुसोही । देउँ पदचर बीर मैं तोही ॥
वह निकट आते हुवे वारंवार 'खड़े रहो! खड़े रहो !! कहकर लव को ललकार रहे थे, यह कहते हुवे कि हे पदचर वीर ! मैं तुम्हें उत्तम अश्व से सुशोभित एक रथ प्रदान करता हूँ |
तुम पयाद मैं रथरोहि तापर पद बिनु त्रान ।
कहौ मैं केहि बिधि तोहि जितौं बीर बलबान ॥
मैं रथारूढ़ हूँ और तुम पदचर हो, उसपर भी तुम्हारे पद पादुका से विहीन हैं; वीर बलवान कहो मैं किस विधान से तुम पर विजय प्राप्त करूँ |
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