मानस तोरी करनि ते नाघत निज मरजाद |
चला बिनासत तव जगत सिंधु करत घननाद || १ ||
भावार्थ :-- हे मानव ! तेरे कृत्यों के कारण अपनी मर्यादा का उल्लंघन कर समुद्र आज घोर गर्जना करता तेरे संसार को नष्ट-विनष्ट कर गया |
सधारन जन मरि मरि गए, भया रोग बिनु हेतु |
धरे रहे सबु राजपथधरे रहे सब सेतु || २ ||
जनता तोरे राज मह दुखड़ा सुनै न कोइ |
चिंटी के पग घुँघरु बजे रघुबर सुनते सोइ || ३ ||
देह करी कठपूतरी काल नचावै नाच |
नाचत नाचत थकि गिरे राम नाम भा साँच || ४ ||
धर्म कर्म बिसराइ के करिता चलिआ पाप |
किन्ही आपनी दुरगति अपुने हाथौं आप || ५ ||
हति हति तरपाइ के रे सरप बिछी सब खाए |
पाप परायन मानसा तिल तिल मरता जाए || ६ ||
दूषित देसाचार सों उपजे बिदेसि रोग |
तासु मरि मरि जात अहैं हम भारत के लोग || ७ ||
रे पापि मानस तोरा भरिआ अघ का घट्ट |
काल पास लए बिचरिआ प्रान जाए सो फट्ट || ८ ||
जिअ लेवे जिनावर कर खाए खीँच के खाल |
त्राहि त्राहि पुकारि करे दरसत अपुना काल || ९ ||
धरी रही धन सम्पदा धरा रहा धन धाम |
काल पास करि लै गया न आयउ कोउ काम || १० ||
काल चाक द्रुत गति गहा बीच कील करि मीच |
ताहि रौंदत बढ़ी रहा आयउ जो को नीच || ११ ||
त्राहि त्राहि पुकारि कहैं हम तौ अपुना दुख्ख |
सो जिउ निज दुःख कस कहैं जिनके नाहीं मुख्ख || १२ ||
बुद्धिबल सील मानसा बिसरा प्रकृति बाद |
ता संगत संसार मह उपजे रोग बिषाद || १३ ||
आपद काल सरूप में रोग नचावै नाच |
कुंडली मार साधन परि बैसे अर्थ पिसाच || १४ ||
तमस कांड ए मरनि का जीवन है उद्दीप |
सार लेय बिस्वास का जले आस कर दीप || १५ ||
दिसा दिसा मह देस की पसरा रोग बिषाद |
आपदा कौ औसर करि फलिता पूंजी वाद || १६ ||
देस आपदा काल मह होत जात है दीन |
पूँजी पति के सौंह भए सासक सक्ति बिहीन || १७ ||
अगनि गोल भाल धनुसर परसा परिघ परमानु |
सो आजुध बिरथा भयउ सम्मुख एकै बिषानु || १८ ||
माँगे हमरे देस जो भगवन का परमान |
बिनती तोसे रे जगत तिनको पराए जान || १९ ||
दुनिया जिउ जंतु ऊपर करिके अत्याचार |
राकस होते मानस हुँत ढुंडए रोगोपचार || २० ||
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