Saturday 22 May 2021

----- || दोहा -विंशी९ || ----,

मानस तोरी करनि ते नाघत निज मरजाद | 

चला बिनासत तव जगत सिंधु करत घननाद || १ || 

भावार्थ :-- हे मानव ! तेरे  कृत्यों के कारण अपनी मर्यादा का उल्लंघन कर समुद्र आज घोर गर्जना करता तेरे संसार को नष्ट-विनष्ट कर गया | 


सधारन जन मरि मरि गए, भया रोग बिनु हेतु | 

धरे रहे सबु राजपथधरे रहे सब सेतु || २ || 


जनता तोरे राज मह दुखड़ा सुनै न कोइ | 

चिंटी के पग घुँघरु बजे रघुबर सुनते सोइ || ३ || 


देह करी कठपूतरी काल नचावै नाच | 

नाचत नाचत थकि गिरे राम नाम भा साँच || ४ || 


धर्म कर्म बिसराइ के करिता चलिआ पाप | 

किन्ही आपनी दुरगति अपुने हाथौं आप || ५ || 


हति हति तरपाइ के रे सरप बिछी सब खाए | 

पाप परायन मानसा तिल तिल मरता जाए || ६ || 


दूषित देसाचार सों उपजे बिदेसि रोग | 

तासु मरि मरि जात अहैं हम भारत के लोग || ७ || 


रे पापि मानस तोरा भरिआ अघ का घट्ट | 

काल पास लए बिचरिआ प्रान जाए सो फट्ट || ८ || 


जिअ लेवे  जिनावर कर खाए खीँच के खाल | 

त्राहि त्राहि पुकारि करे दरसत अपुना काल || ९ || 


धरी रही धन सम्पदा धरा रहा धन धाम | 

काल पास करि लै गया न आयउ कोउ काम || १० || 


काल चाक द्रुत गति गहा बीच कील करि मीच | 

ताहि रौंदत बढ़ी रहा आयउ जो को नीच || ११ || 


त्राहि त्राहि पुकारि कहैं हम तौ अपुना दुख्ख | 

सो जिउ निज दुःख कस कहैं जिनके नाहीं मुख्ख || १२ || 


बुद्धिबल सील मानसा बिसरा प्रकृति बाद | 

ता संगत संसार मह उपजे रोग बिषाद || १३ || 


आपद काल सरूप में रोग नचावै नाच | 

कुंडली मार साधन परि बैसे अर्थ पिसाच || १४ || 


तमस कांड ए मरनि का जीवन है उद्दीप | 

सार लेय बिस्वास का जले आस कर दीप || १५ || 


दिसा दिसा मह देस की पसरा रोग बिषाद | 

आपदा कौ औसर करि फलिता पूंजी वाद || १६ || 


देस आपदा काल मह होत जात है दीन | 

पूँजी पति के सौंह भए सासक सक्ति बिहीन || १७ || 


अगनि गोल भाल धनुसर परसा परिघ परमानु | 

सो आजुध बिरथा भयउ सम्मुख एकै बिषानु || १८ || 


माँगे हमरे देस जो भगवन का परमान | 

बिनती तोसे रे जगत तिनको पराए जान || १९ || 


दुनिया जिउ जंतु ऊपर करिके अत्याचार | 

राकस होते मानस हुँत ढुंडए रोगोपचार || २० || 
















 

No comments:

Post a Comment