"हमारे पापों के यहां बही नहीं होते,
हम हर बार सही नहीं होते"
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आजादियाँ सातवेँ आसमान चढ़ी..,
जबहे कारी फलके परवान चढ़ी..,
जाता रहा दुन्या वाले का भी खौफ़..,
बदनियति एकऔर पॉयदान चढ़ी.....
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सुन ऐ जुल्मों ज़बह,ये तिरा लब्बोलुआब l
उम्र कैद बा मशक्कत, हाँ तिरा है हिसाब ll ....
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ताउम्र गुज़र गई जुल्मों ज़फ़ह कारी में,
पैमाना भर जाए तो सजा दीजिए,
ग़र यही दस्तूर है इस दुनियाँ का
तो पहले इस दस्तूर को कजा दीजिए....
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जंग लड़ते रहे हम तारीके शब् से,
सजा का वक़्त आया तो सुबहे दम हो गई
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कहीं तबीयत नहीं मिलती,कहीं आदत नहीं मिलती,
सूरते सियासत से अपनी सूरत नहीं मिलती.....
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सफ़हा-ए-दिल तेरे..,
दरिया की लहरों पे..,
यादों की कश्ती की.,
अजीब दास्ताँ है ये.....
सहरों और शामों के
गिरह बंद दामन से
मिटा लक़ीरें औरों की खुद फ़क़ीर बन गए..,
ऐ दुन्या वो फ़क़ीर आज लक़ीर बन गए.....
ये काँच से भी कच्चे रिश्ते..,
इक ठेस लगी और टूट गए..,
खींचा जो इक दुश्वारी ने..,
हाथ फिर हाथों से छूट गए....
जिसके ज़ीस्त-ए-जहाँ में रहमो-करम के मानी..,
वो इंसा फिर इंसा है जिसकी नज़रों में पानी.....
सरे-बरहन नातवाँ ज़ोर जवाँ है आफ़ताब..,
हाय कोई रगे-अब्र शमशीरे-बर्क़ लिए कहे..,
अच्छा ये बात है बताओ कहाँ है आफ़ताब.....
शोला-ओ-सुर्ख़रू आतश फ़शाँ = ज्वलामुखी के अंगारों सा लाल हुवा
सरे-बरहन = बिना छत्र का सिर
नातवाँ = निर्बल
ज़ोर जवाँ = वीर बलवान
रगे-अब्र = बादलों की धारी (बादलों की सेना )
शमशीरे-बर्क़ = बिजली की तलवार
हुई ये शबे-दम पुर नीम फिर ख़्वाब का पीछा करते करते..,
सोए सितारे थक के फिर महताब का पीछा करते करते…..
सुर्खियां कायम हुई के यारों अब हम नहीं रहे,
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