धृर्त कृत सद चरित सौं करिआ जबहि बिहार |
उड़त धूर ते धूसरित होत तब संस्कार ||
:--वंचक व कुचरित्र जब सद्चरित्रों के संग विचरण करते हैं तब इस विचरण से उड़ते धूल रूपी कुविचारों के प्रभाव से संस्कार धुंधले होते चले जाते हैं
अजहुँ भयउ भंड भंडरिए भाँडन की भरमार |
ता सोंहि संस्कारि गुन पड़िआ जाइ भँगार ||
:-- वर्तमान में निर्लज्ज अनिष्ट की व्यंजना करने वाले उपद्रवियों की बहुलता हो गई है जिनके द्वारा संस्कारों से प्राप्य सद्गुणों का निकृष्ट वस्तु के रूप में पतन हो रहा है
अपवचन सन दुर्वादन हृदय के उदगार |
अंतर की दुर्वासना तासों करत बहार ||
:-- अपशब्द के सह कुत्सित वाक्य ह्रदय के उद्गार स्वरूप होते हैं जिनके माध्यम से अंतर की कुप्रवृत्ति बहिर्गत होती हैं |
दुर्बचन एहि दुर्बादन कहत बुराई नाह |
जबहि हँसी बिनोद करत रीति रूप निरबाह ||
: - -ये अपशब्दों व दुर्वाद तब निंदनीय नहीं होते जब यह हंसी विनोद स्वरूप पारम्परिक रीतियों के निर्वहन हेतु होते हैं |
पढ़िए तुलसी मानस में दुर्बादन की रीत |
सामध सबंधी संगत तासों गाढ़े प्रीत ||
: - - गोस्वामी तुलसी दास रचित रामचरित्र मानस में इस दुर्वादन की मधुर रीति का वर्णन है यह समधीयों के परस्पर संबंधों की प्रगाढ़ता हेतु इस परम्परगत रीत का प्रयोग होता आया है
जेँवत जेँउनार जौँ जौँ धर मुख सौंधी सोंठ |
पुर नारि उदगारि गान करत सजन के गोंठ ||
:--प्रीति भोज्य ग्रहण करते व सुगंध सौंठ इत्यादि मुखोधार्य करते ज्यों ज्यों सज्जन गोष्ठी की रीत परिपूरित होती है त्यों त्यों पुर की नारियों द्वारा सज्जनों के विनोद स्वरूप उद्गारों का गान किया जाता है |
कब किया जाता है ये तो पता नहीं............ यही तो रामायण है..... जिसे जानना है वो सुन लें.....
बाल समय रबि भक्ष लियो तब तिनहु लोक भयो अँधियारो
जबहि रघुनन्दन भरी सभा में शिव के धनुष को तोड़ निबारे
देइ श्रवन धूनि पुनि प्रचंड खन खंड मही दो दंड में डारे
चाकत चारु चौंक पुराए प्रेम ने बाँध्ये बर बँदनबारे
सनेह भरे प्रीति के मनोहर दीपक जगमग जग को उजियारे
चन्दन चौंकी बिछाए ह्रदय में कंकन किरन के फँदन डारे
कोमल चरन कमल लए हरिअर ता ऊपर रघुराज कुँवर जी पधारे
प्रगसत भगवन दिए दरसन देहरि के देवल नैनन के दुआरे
सिय को निहार निहार न हारे
कर जोर जुहारें
पद पंकज धारे
प्रियतम प्यारे प्रियतम पधारे
दिनमनि के कुल धर को धर मन के आधारे
देस बिसराए निज ग्रन्थ निज को निज देशज की कही |
पर रीत बरे बिसरे जो निज भू रज की रीत रही ||
रहिअ ताहिं सुरत सदा जो यदा कदा कहँ आन मही |
देस कही कि को आन कही सोइ मानिए जोइ सही |
:- अपने देश अपने ग्रंथ अपने देश वंशियों के कथन विस्मृत हो चले हैं पराई परम्पराओं का वरण कर अपनी जन्म भूमि के रज की रीतियाँ तिरोहित हो गई किसी विषय विशेष पर केवल उन्हीं कथनों का रीतियों का संस्मरण कहा जाता है जो निज मातृभूमि से अन्यथा यदा कदा कही व् निर्वहन की गई हों देश की हों अथवा देशांतर की, उपयुक्त कथनोक्तियाँ व पारम्परिक रीति ही सर्वमान्य हों
गरजत रे सखि घन घनियारे
मधुर मिलन को प्रियतम पिया प्यारे
पट दो पलकें नैनन देइ दुआरे
नैनमन के गगन ते ओझर सूरज चन्दा तारे
मन स्याम रंग रंगा रे
"साहित्य वही है जिसे पीढ़ियां पढ़ें अन्यथा तो वह पुस्तकालयों में धूल धूसरित होते पृष्ठों का पुला है....."
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