Wednesday, 3 April 2019

----- ॥ दोहा-द्वादश 18॥ -----,

देस बिरोधी भावना भईं अजहुँ एक जोट |
सिहासन बल पाए तिन्ह खँडरत नित दए चोट || १ || 
भावार्थ :-- राष्ट्र विरोधी भावनाएँ इस समय एकजुट हो चली हैं सत्ता की शक्ति प्राप्त कर वह उसकी अखंडता पर प्रहार करके उसे निरंतर हानि पहुंचा रही हैं | 

भारत तुम्हरी संतति बुढ़ी सुवारथ माहि | 
धन सम्पद पद सब चहे तुअहि चहे को नाहि || २ || 
भावार्थ :- और हे भारत ! ऐसे विकट समय में तुम्हारी संताने क्षुद्र स्वार्थो की पूर्ति में लगी हुई है तुम्हारी धन सम्पदा तुम्हारा सिंहासन सभी चाहते हैं किन्तु तुम्हारी चाह किसी को नहीं है | 


को बिनहि श्रम सिद्धि चहे राज सिहासन काहि  | 
को आरच्छित पद चहे देस चहे को नाहि || ३ || 
भावार्थ :- किसी को बिना श्रमकार्य किए पारश्रमिक चाहिए किसी को बैठे बिठाये राजपाट चाहिए किसी को संरक्षण तो किसी को आरक्षण चाहिए किन्तु ये तुम्हारा देश किसी को नहीं चाहिए | 


जहँ जनमानस कर सिद्धि चहत बिनहि श्रम काज | 
देस दासा करतब तहँ करत परायो राज || ४ || 
भावार्थ : - जहाँ जनमानस बिना परिश्रम बिना कार्य किए सफलता की आकांक्षा करता है देश को दास बनाकर वहां पराया राज करता है | 

पराए जन को पोषिता अपने जन कहुँ सोष | 
भारत तव जनतंत्र में भरे पुरे हैं दोष || ५ || 
भावार्थ : - निज मूल का शोषण कर पराए मूल का पोषण करता है, हे भारत ! तेरा लोकतंत्र दोषों से परिपूर्ण है | 

संबैधानिक कटुक्ता संबिधात जहँ कोइ | 
जनसंचालन तंत्र तहँ  दंड पास सम होइ || ६ || 
भावार्थ : - सुधारवादी दृष्टिकोण से अन्यथा जहाँ कोई संविधानिक कट्टरता प्रस्तावित हो वहां जनसंचालन तंत्र दण्डपाश के समान है | 

जनमानस के सीस पै नेता मारे जूत | 
धीरहि धीर उतरेगा लोकतंत्र का भूत || ७ || 
भावार्थ : - जनमानस नेताओं द्वारा अपमानित होते दिखाई दे रहा है हे भारत ! ऐसे दोषपूर्ण लोकतंत्र का भूत भी उसके सिर से धीरे धीरे ही सही किन्तु उतरेगा अवश्य | 

सुतंत्रता संग्राम ने करिया कपट ब्याज  | 
देस संगत गया नहीं  मुसलमान का राज || ८  || 
भावार्थ ; - स्वाधीनता संग्राम ने इस देश के लोगों के साथ छल कपट किया | हे भारत ! अंग्रेज चले  गए किन्तु इस देश से मुसलमान का राज नहीं गया | 

देस बासी पाहि नहीं प्रभुता कहुँ अधिकार | 
भारत अपने देस में बैसे राम बहार || ९ || 
भावार्थ : - देस वासियों का अपने देस पर सम्प्रभुता का अधिकार नहीं है उनके अपने इष्ट देव उनके अपने जन्मगृह से बाहर कर दिए गए हैं | 

भारत तव जनतंत्र महँ निज मत देत ए भीड़ | 
अपनी जड़ि उपारि करे बहिर देसि कर दृढ़ || १० | 
भावार्थ : - भारत ! तुम्हारे इस जनतंत्र में अपना मत दान करती यह भीड़ अपने ही देस अपनी जड़ें उखाड़ रही है और अपने से भिन्न अन्य देश में प्रादुर्भूत धर्म के अनुयायियों की जड़ें सुदृढ़ कर रही हैं 

मूल निबासी देस के पड़े रहे जब सोए | 
बहिरे देस भगत होत देसबाद को रोए || ११ || 
भावार्थ : - जब किसी देश के मूलनिवासी जागृत न होकर राष्ट्र के प्रति सुसुप्त रहते हैं तब दासकर्ता बहिर्देशी राष्ट्रभक्त बने राष्ट्रवाद का चिंतन करते हैं | 

तहँ धरम गोहारे जहँ मिला लूट ते राज | 
तहाँ धरम दुत्कारे जहँ  मिला झूठ ते राज || १२ ||
भावार्थ : - जहाँ लूट से राज मिला वहाँ ये बहिर्देशी अधर्मी धर्म का ढोंग कर उसके सच्चे अनुयायी हो गए जहाँ झूठ से सत्ता मिलने लगी वहां ये नास्तिक का पाखंड कर धर्म का तिरष्कार करने लगे | 

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