Monday 29 April 2019

----- || दोहा -विंशी १ || ----

जोग बिनु कहा राखिये जाग बिनु का दिसाए |
कर बिनहि कहा पाइये दए बिनु का लए जाए || १ ||
भावार्थ : - रक्षा बिना कुछ सुरक्षित नहीं रहता, जागृति बिना कुछ दिखाई नहीं देता | जिसने किया नहीं उसे कुछ प्राप्त नहीं होता प्राप्त को दिया नहीं वह कुछ नहीं ले जाता उसकी समस्त प्राप्तियां यहीं रह जाती हैं |

बिरवा सबदिन रोपिये रह न्यूनाधिकाए | 
पंथ तबहि बिरचाइये चरन हेतु जब नाए || २ || 
भावार्थ : - वृक्षों की अधिकता हो अथवा न्यूनता वृक्षारोपण सभी काल ( पाषाणसे लेकर आधुनिक )में करना चाहिए | पंथ की रचना तभी करनी चाहिए जब चरण/नियम/चरित्र अनुशरण हेतु कोई पंथ न हो | क्योंकि चरण/नियम/चरित्र अनुशरण न हो तब ऐसे पंथ की रचना व्यर्थ होती है |

आरम्भ भल मध्य भलो अंत भलो परिनाम | 
छोट हो कि चाहे बड़ो करन जोग सो काम || ३ || 
भावार्थ ; -  जो आदि मध्य व् अंत तीनों काल में उत्तम फल देता हो,  छोटा हो अथवा बड़ा वह कार्य करने योग्य हैं |

जाहि को कर न चहे जो करतब धर्म कहाए | 
ताहि जो को करी चले दोइ गुना फल पाए || ४ || 
भावार्थ : - वह धर्म विहित कार्य जिसे कोई करना न चाहे उसे कोई कर चले तो वह दोगुने फल के अधिकारी होते हैं | 

स्पष्टीकरण : - उद्यानों में प्रभात फेरी लगाना सब चाहते हैं उद्यान लगाना कोई नहीं चाहता | फल खाना सब चाहते हैं पेड़ लगाना कोई नहीं चाहता किसी को प्रवचन दो तो कहते हैं हूह ये कार्य तो तुच्छ है  यह श्रमिकों का काम है ऊँचे पदों पर बैठकर  हमारा काम तो छायाचित्र खिंचवाना है | 


जाहि कोउ नहि कर चहें सब दिन सुभ फल दाए | 
छोटो कारज होत सो करत बड़ो हो जाए  ||| ५ || 
भावार्थ : - जिसे कोई करना न चाहे जो सदैव शुभफल प्रदान करता हो तुच्छ होने पर भी वह कार्य करने पर महान कहलाता है | 

कहबत माहि काज बड़ो करत कठिन कहलाए | 
तासु छोट जब करि चले सो त छोट हो जाए || ६ ||
भावार्थ : - जो कार्य कहने में तो महान है करने में कठिन है यदि तुच्छ कर चले तो वह कार्य सरल और तुच्छ कहलाता है | 

उदाहरणार्थ : - यदि एक चायवाला देश के शासन का संचालन कर चले तो यह कार्य सरल व् तुच्छ होकर किसी के द्वारा भी संपन्न हो सकता है | 

जाका आदि मध्य बुरो अंत भलो परिनाम | 
सोच बिचार दूर दरस पुनि कीजिए सो काम || ७ || 
भावार्थ : - जो आदि व् मध्य में निकृष्ट किन्तु अंत में शुभफल दायक हो वह कार्य सोच विचार कर व् बुद्धिमता पूर्वक करना चाहिए |    

मंगल मंगल सब चहें मंगल करे न कोए | 
मंगल सब कोए करें त मंगल मंगल होए || ८ ||   
भावार्थ : -  बुरा कोई नहीं चाहता सब अच्छा अच्छा चाहते हैं  किन्तु अच्छा कोई नहीं करता |  यदि सभी अच्छा अच्छा करें तो सबकुछ अच्छा अच्छा ही होगा | 

क्रिस्तानो इस्लाम की पुश्तें  हैं आबाद |
गुलामि जिंदाबाद याँ आजादि मुर्दाबाद || ९ |     

साहस केरे पाँख हो मन आतम बिस्बास |
नान्हि सी एक चिँउँटिया उडी चले आगास || १० || 
भावार्थ : - साहस के पंख हों और मन में आत्मविश्वास हो तो एक नन्ही सी चींटी भी आकाश में उड़ सकती है | 

हिन्दू कुस लग पसारे  हमरे भारत देस | 
दुर्नय नीति गहि होइहि सेस सोंहि अवसेस || ११ || 
भावार्थ : - हिन्दू कुश तक प्रस्तारित हमारे इस भारत देश को राष्ट्रविरोधी  नेतृत्व व् उनकी दुर्नीतियाँ को प्राप्त होकर शेष भारत से अवशेष मात्र रह जाएगा |   

 लिखनिहि सौंही बड़ी नहि करतल गहि तलबार |
तलबारि की धार सहुँ बड़ी सब्द की मार ||१२ ||
भावार्थ : - तलवार से बड़ी लेखनी होती है क्योंकि तलवार की धार से शब्द की मार गहरी होती | तलवार का वार एक बार मारता हैं शब्द का वार वारंवार मारता हैं | 

जिस प्रकार बल से बड़ी बुद्धि होती है क्योंकि : -
धनुधर के सर कदाचित, करे न एकहु हास । 
बुद्धमान के बुद्धि सन, सर्वस् करै बिनास ।१६७५। 
 ------ ॥ विदुर नीति ॥ -----
भावार्थ : -- शस्त्र धारी का शस्त्र चले तो कदाचित एक भी न मरे । यदि बुद्धिमान की बुद्धि चल गई तो वह सर्वस्व का नाश  कर देती है ॥
   
धरा का सार समुद है बादल वाका सार | 
बूंदि में ताहि साध के  दै करतल जौ धार || १३ || 
भावार्थ : - धरती का सार समुद्र है समुद्र का सार बादल है जो उसे एक बिंदु में साध कर करतल में रखने का सामर्थ्य रखता है | 

 बिसर गए साँच तपस्या बिसरे दया रु दान | 
 धरम निपेखा होइ के बिसर गये भगवान || १४ || 
भावार्थ : - सत्य तिरोहित हो गया, तपस्या तिरोहित हो गई दया और दान तिरोहित हो गए, मनुष्य धर्मनिरपेक्ष क्या हुवा ईश्वर तिरोहित हो गए || 

नदि समाध लगाई के बकुला करै ध्यान | 
सब पंथन ते ऊँच किए अपना पंथ ग्यान || १५ || 
भावार्थ : - सावधान ! सभी पंथो से अपने पंथ अपने ज्ञान को  ऊंचा कहते वंचक/पाखंडी नास्तिक नदी किनारे समाधिस्थ हुवे ध्यानमग्न है | 

उदयत सूरज सिरोनत नमन करे सब कोए |
निर्झर निर्झर निर्झरी नीरज नीरज होए || १६ ||
भावार्थ : - सूर्योदय होते ही सब नतमस्तक होकर सूर्यनमस्कार कर रहे हैं | पहाड़ों के झरने और नदी मुक्ताओं से युक्त हो गई है |

कान देइ न काहू की छेड़े अपनी तान |
नेताउँ को तो कारो आखर भैँस समान  || १७ ||
भावार्थ : - 'चींटी के पग घुंघरू बाजै साहेब वो भी सुनते हैं' किन्तु विद्यमान जनसंचालन तंत्र के कर्णाधार किसी की नहीं सुनते वह तो अपनी ही मन की तान सुनाते रहते हैं कुछ लिख के आवेदन करो तो उनको पढ़ना न नावै | 

 साधन अरु प्रसाधन तौ  मोल मिले धन ताहि  || 
जस रस लस बयस हँस सस मोल मिले सुख नाहि || १८ || 
भावार्थ : -  यश, स्वाद, सौंदर्य, आयु, हंसी, शस्य ( श्रेष्ठता,प्रशंसा )  और सुख इनके साधन प्रसाधन तो अवश्य धन से मोल लिए जा सकते किन्तु यह मोल नहीं लिए जा सकते हैं |

कभी कभी शब्द में ही ज्ञान गोपित रहता है हमें अन्न का मुद्रा से व्यवहार नहीं करना चाहिए अन्न के बदले अन्न ही लेना चाहिए, यह लेनदेन प्रगति को सूचित करता है |

नींद भेज्यो राति को दिबस भेज्यो चैन ||
कह पिय ते पातिआ तव दरसन तरसै नैन || १९ ||
भावार्थ : - रात्रि को नींद भेजों दिन में चैन भेजो | प्रीतम से पत्रिका कह रही है हे प्रीतम ! ये नेत्र तुम्हारे दर्शन हेतु तरस रहे हैं | 

रोला : - 
नैन गगन दै गोरि काल घटा घन घोर रे |  
बैस पवन खटौले चली कहौ किस ओर रे || २० || 


दोहा : -
नैन गगन दे के गोरि काल घटा घन घोर | 
बैस पवन करि पालकी चली कहौ किस ओर || २० || 

अहिंसा परमो धर्मः, अहिंसा परमो दमः। अहिंसा परम दानं, अहिंसा परम तपः॥
अहिंसा परम यज्ञः अहिंसा परमो फलम्‌।अहिंसा परमं मित्रः अहिंसा परमं सुखम्‌॥
----- महाभारत/अनुशासन पर्व (११५-२३/११६-२८-२९)

धृषु धीगुन धृतात्मन  ध्येयधीर धयान    चिंतन लगन साधना     

                   

No comments:

Post a Comment