Saturday, 18 May 2019

----- ॥ हर्फ़े-शोशा 13 ॥ -----

दुन्या इक बाज़ारे-शौक़ है..,
ख़्वाहिशें-दराज़ हैं ख़रीदार उसकी..... 
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कहतें हैं जो सब रह दीन-धर्म सब मेरे.., 
उस क़ाफ़िले-क़दम का तमाशा भी देखिए.....
रह= राह,पंथ  
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उन दोनों की फ़ितरत एक जैसी थी..,
ये ऐसा था तो वो वैसी थी..,
पूछते हैं ग़ालिब अब दोनों कैसे हैं..,
बढ़िया ! ये ऐसा है न वो वैसी है.....  
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ऐ हुकूमतों होश करो के फिर क़लम के दीवाने.., 
अहले वतन की दीवानगी दिल में ले चले.....
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निकला फिर शान से  सुबह आफ़ताब.., 
सितारों की फ़ौज का सिपह आफ़ताब.., 
 हरिक स्याहपोश सतह को देके शह .., 
 करता हुवा तिरगी पै फ़तह आफ़ताब..... 

सिपह = सिपाही 
स्याहपोश सफ़हे = धरती के ऊपर की बुराइयाँ 
शह = ललकार 
तारीक़ी = अंधकार 

समंदर से उठते वो घटाओं के साए.., 
निगाहों में क़तरे बन के समाएँ..... 
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शोला-ओ-सुर्ख़रू आतश फ़शाँ है आफ़ताब.., 
सरे-बरहन नातवाँ  ज़ोर जवाँ है आफ़ताब..,
हाय कोई रगे-अब्र शमशीरे-बर्क़ लिए कहे..,
अच्छा ये बात है बताओ कहाँ है आफ़ताब.....     
शोला-ओ-सुर्ख़रू आतश फ़शाँ = ज्वलामुखी के अंगारों सा लाल हुवा 
सरे-बरहन  = बिना छत्र का सिर 
नातवाँ = निर्बल 
ज़ोर जवाँ = वीर बलवान 
रगे-अब्र = बादलों की धारी (बादलों की सेना )
शमशीरे-बर्क़ = बिजली की तलवार 
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फिर झूमते मेरी छत की मुँडेर से निकला चाँद.., 
लोग बोले आज तो बड़ी देर से निकला चाँद..... 

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