Wednesday, 1 May 2019

----- ॥ दोहा-द्वादश २१ ॥ -----

जनमानस के तंत्र में भयो अँधेरो  राज | 
तहँ जान निजोगते जहँ चले सुई ते काज || १ || 
भावार्थ : - भारत ! प्रजातंत्र की शासन व्यवस्था में नीति नियमों योजनाओं का सर्वत्र अभाव है  इस तंत्र में जहाँ सूचि से कार्य सम्पन्न हो सकता है वहां यान नियोजित किए जाते हैं |  
      
भुईं जोइ धन सम्पदा जुग लग रही सँजोइ  | 
जनमानस के राज में खात पलक गइ खोइ  || २ || 
भावार्थ : - यह पृथ्वी जिस खनिज सम्पदा को युगों तक संचयित की हुई थी प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था में वह लोगों द्वारा अल्प काल में खा पी कर समाप्त कर दी गई |   

छनिक जाके प्रान नहीं कनिक नहीं परिमान | 
समुझत मानस आपुनो जगत रचेता मान || ३ ||   
भावार्थ : - संसार  की तुलना में जिसका परिमाण कण मात्र भी नहीं है  जिसके प्राण क्षण भंगुर हैं  वह मानस स्वयं को संसार का रचनाकार समझने लगा है | 

झूठा स्वाँग भर करे साँचा का पाखण्ड | 
निर्दोष को न्याय नहि दोषी को नहि दंड || ४ || 
भावार्थ : - झूठा स्वांग भर कर सत्य का पाखंड करता है निर्दोष को न्याय नहीं मिलता दोषी को दंड नहीं मिलता | 

जनमानस तिल मान भए मंत्री गन भए  ताड़ | 

राजा बिहुने देस में लगि समास करि बाड़ || ५ || 
भावार्थ : -  जहाँ जनमानस तिल के समान समझे जाते हैं और मंत्री ताड़ से हुवे जाते हैं हे भारत ! शासन के अभाव से ग्रसित ऐसे देश में फिर समस्याएं विकराल रूप ग्रहण कर लेती हैं | 


पहरी हसि पहरा नहीं सीँउ होत नहि सीँउ | 
लाँघत नित गह देस कहुँ भया पडोसी पीउ || ५ || 
भावार्थ : - प्रहरी तो हैं किन्तु पहरा नहीं है सीमा रेखा है किन्तु सीमा नहीं है उसका उल्लंघन करते प्रतिवेशी  नित्य उल्लंघन करते इस गृह इस देश के स्वामी हो गए |  

जहँ जाग जगरीति नहीं नहीं जोड़ के जोग | 
होत जात गह आपने पराधीन सो लोग ||  ६ || 
भावार्थ : - जहाँ जागृत होते हुवे स्वकर्तव्य के विषय में सचेत न हो  और अपनी भू सम्पति की सम्यक सुरक्षा नहीं करते वहां जनमानस अपने ही गृह में पराए के अधीन हो जाते हैं | 

लोक जाग जगरीति नहि होतब जहाँ सबेर |  

घनियारि रैन रहे तहँ ब्यापत घन अँधेर  || ७ || 
भावार्थ : - जहाँ लोक जागृति न हो जनमानस स्वकर्तव्य के विषय में सचेत न हों वहां स्वातंत्र का प्रभात होने पर भी नियम व् नीतियों का अभाव रूपी घना अन्धेरा व्याप्त करती दासता की काली रात्रि ही रहती है |  

अनुसासन बिबँधेउ कहुँ सासन चाहिए नाह | 
तासु हीन कहुँ होत है सासन केरी चाह || ८ || 
भावार्थ : -अनुशासन बद्ध को शासन की आवश्यकता नहीं होती, अनुशासन हीन को ही शासन की आवश्यकता होती है |

अनुसासन बँधे जन कहुँ सासन चाह न होंहि | 
मरजादा गह संचरै सो तो आपन सोंहि || ९ || 
भावार्थ : -अनुशासन बद्ध जनमानस को शासन की आवश्यकता नहीं होती एक निश्चित मर्यादा का पालन कर वह अपना संचालन स्वयं कर लेता है| 

सासन जहँ कोल्हू किए जन जन भएँगे बैल | 
सासक सोंटी मार कै निकसावैगा तैल || १० || 
भावार्थ : - हे भारत !  शासन जहाँ कोल्हू के समान हो जाता है वहां फिर जनमानस वृषभ के सदृश्य हो जाती है | ऐसे शासन व्यवस्था में फिर श्रम से शिथिलीकृत अवस्था में भी शासक अपनी इच्छाचारिता की सोंटी से चोट देते उस वृषभ का शोषण व् दोहन करता है |

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