Monday, 21 July 2025

----- ॥ दोहा-पद 38॥ -----,

 देस बिसराए निज ग्रन्थ निज को निज देशज की कही | 

पर रीत बरे बिसरे जो निज भू रज की रीत रही || 

रहिअ ताहिं सुरत सदा जो यदा कदा कहँ आन मही | 

देस कही कि को आन कही सोइ मानिए जोइ सही | 

:-  अपने देश अपने ग्रंथ अपने देश वंशियों के कथन विस्मृत हो चले हैं पराई परम्पराओं का वरण कर अपनी जन्म भूमि के रज की रीतियाँ तिरोहित हो गई किसी विषय विशेष पर केवल उन्हीं कथनों का  रीतियों का संस्मरण कहा जाता है जो निज मातृभूमि से अन्यथा यदा कदा कही व् निर्वहन की गई हों देश की हों अथवा देशांतर की, उपयुक्त कथनोक्तियाँ व  पारम्परिक रीति ही सर्वमान्य हों..... 


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