Monday, 21 July 2025

----- || दोहा -विंशी 19|| ----,

 बेचे पोथी ग्रन्थ को,को बेचे भगवान |

बनिहर ताहि जानिए जो, बेचे श्रद्धा ज्ञान ||१||  

: -- कोई पोथी ग्रन्थ विक्रय कर रहा है कोई भगवान की मूर्तियां विक्रयित कर रहा है जो श्रद्धा व ज्ञान का विक्रय कर्ता हो वही उत्तम विक्रेता कहलाने योग्य है | 


काम क्रोध मद लोभ सह, पोथक पेशि प्याज | 
संग दुर्ब्यसन ए बिषय, आतुर देइ त्याज ||२||  
:-- काम क्रोध मद लोभ सहित लहसुन शाक आदि की अधखिली कलियाँ अन्डक मांस, प्याज के साथ यदि कोई दुर्व्यसन है तो ये विषय यथा शीघ्र त्याग देने योग्य हैं..... 
पोथी =लहसुन पेशि,छोटी कलियाँ, अन्डक, मांस पिंड 

गली गली कि बैठ बिके,गौरस सदा सुहाए l 
सुनहु कबीरा कतहुं भी,मदिरा बिकत बुराए ll३|| 
:-- भ्रमरण करते अथवा किसी पण्य प्रतिष्ठान में, गौरस का विक्रय किसी भी स्थान पर श्रेष्ठ है किंतु हे कबीर दास ! सुनिए मदिरा का विक्रय किसी भी स्थिति में निकृष्ट है. . . . .

:-- भ्रमरण करते अथवा किसी पण्य प्रतिष्ठान में, गौरस का विक्रय किसी भी स्थान पर श्रेष्ठ है किंतु हे कबीर दास ! सुनिए मदिरा का विक्रय किसी भी स्थिति में निकृष्ट है. . . . .

असन बासन बास बसन सह साधन साधेय ।
लगे सकेरन येय बस और न जिउ का धेय॥४|| 
:-- भोजन वस्त्र आवास निवास के साथ इन्हें साधने हेतु साधन के संकलन में समाप्त होते जीवन का और कोई ध्येय नहीं रहा.....
:--अन्नवस्त्राश्रयादिसङ्ग्रहात् परं जीवनस्य लक्ष्यं नास्ति किम् ......?

सपत रँग के धनुष धरे उदय भयो सुर भानु ।
बरखा बरसत हर लियो सीतल कियो कृषानु ॥५|| 
:--सप्तवर्ण का धनुष धारण किए सूर्यदेव प्रकट हुए, वर्षा ने जल वर्षाकर उस धनुष का हरण कर लिया और सुर्य के क्रोध स्वरूपी अग्नि को शीतल कर दिया.....

:--सप्तवर्णधनुषं धारयन् सूर्यदेवः प्रादुर्भूतः। वर्षा जलवृष्ट्या धनुः अपहृत्य सूर्यस्य क्रोधस्य अग्निं शीतलं कृतवान् ।

कतहुँ घने घनकार ते चलत कुलिस किरपान | 

कतहुँ घने घनसार ते चलत बूँद के बान ||६||  

:-- कहीं घने घनकार से बिजलियों की कृपाण चल रही है कहीं घन के जल से बूंदों की बाण चल रहे है 

:-- कुत्रचित् सघनमेघात् विद्युत्खड्गः प्रहरति, क्वचित् मेघात् जलबिन्दुबाणाः प्रवहन्ति....


कतहुँ काल घन कर कलित चलत कुलिस किरपान |

कतहुँ गहन घन सार ते चले बूँद के बान ||७||  

: -- कहीं काले मेघों के हाथ में विभूषित विद्युत रूपी कृपाण चल रहे हैं कहीं गहन गहन की जल बिंदु के बाण चल रहे हैं \.... 

असन बासन बास बसन सह साधन साधेय ।
लगे सकेरन येय बस और न जिउ का धेय ॥८|| 
:--भोजन वासन आवासावास के सह इनके साध्य साधनों के संकलन में जीवन समाप्त हो रहा है, क्या इसके अतिरिक्त जीवन का और कोई ध्येय नहीं रहा.....? 
:--अन्नवस्त्राश्रयादिसाधनानुसन्धानेन जीवनं समाप्तं भवति। किम् इदमतिरिक्तं जीवनस्य अन्यत् प्रयोजनं नास्ति ?
अर्थात :-- खाने पहनने रहने के साथ इनके साधक साधनों का संग्रहण के अतिरिक्त क्या जीवन का और कोई ध्येय नहीं है.. . ..?
अन्नवस्त्राश्रयादिसङ्ग्रहात् परं जीवनस्य लक्ष्यं नास्ति किम् ......?

अब तौ सावन दैं नहीं बिरहा को अस्थान ।
कोने बैठ बिचारे सो छेडुँ कौन सी तान ॥९|| 
:--: - - आजकल सावन में विरह का कोई स्थान नहीं रहा... दो चार दिवस की औपचारिक रीति पूरित किए यह विरह स्वयं विरह हुआ एक कोने में बैठा विचार करते कहता है अब कौन सी तान लगाऊँ... .

काम क्रोध मद लोभ सह,पोथक पेशि प्याज | 
संग दुर्ब्यसन ए बिषय, आतुर देइ त्याज ||१०||
:-- काम क्रोध मद लोभ सहित लहसुन शाक आदि की अधखिली कलियाँ अन्डक मांस, प्याज के साथ यदि कोई दुर्व्यसन है तो ये विषय यथा शीघ्र त्याग देने योग्य हैं.....पोथी =लहसुन पेशि,छोटी कलियाँ, अन्डक, मांस पिंड.....

दंति जागे जनम परे,जनमत जागे जीउ | 

भव भूषन भेष भुजंग,केस जटा की जूट l 
ससि सिखर सीस गंगधर,कंठ काल कर कूट ll११|| 

परमेसर परमात्मा सकल धर्म का सार ।
परहित सरिस धर्म नहीं जिन माने संसार ॥१२|| 
 :-- परमेश्वर सभी धर्मो के सार स्वरूप है,परहित के समान कोई धर्म नहीं है,यह विश्वमान्य अभिमत है.....
:-- ईश्वरः सर्वेषां धर्मानां सारः अस्ति, अन्येषां साहाय्यं करणं इव धर्मः नास्ति, एतत् सर्वस्वीकृतं मतम् अस्ति।

तीरथ भगवद हेतु है भगत हेतु भगवान । 
सतसंगत सों गति कृतत तीरथि तीरथ मान ॥१३||  
:- -भक्तों के कारण भगवान है भगवान के कारण तीर्थ हैं, सत्संगति से प्राप्त सद्गति तीर्थी को तीर्थ के समान कर देती है.

दाए अगन संताप बरु, पाए पवन के पीर l 
अहिरनिस जरत दीप जो,सोइ रतन मनि हीर ॥१४||  
. . . . . :-- अग्नि द्वारा संतप्त होने तथा पवन द्वारा पीड़ित होने पर भी जो अहिर्निश प्रकाशित रहे वह दीपक हीरक माणिक्य सम रत्न के सदृश्य है... . . बरु = अवधि में भले ही, चाहे, अथवा
अग्निना तप्तोऽपि वातपीडितः अपि यः दीपः दिवारात्रौ प्रज्वलति सः हीरकमाणिक्यसमं रत्नम् इव भवति... ..

सद्गुन के सौंदर्य ते होत दरसनी रूप । 
दुरगुन जो कलुषाइआ, होतब काल कुरूप ॥१५||  
:--सद्गुणों के सौदर्य से रूप स्वरूप दर्शनीय हो जाता है वहीं दुर्गुणों की कलुषता को प्राप्त होकर यह दर्शनीय रूप कुरूप हो जाता है . . . . .
:-- सद्गुणम् सौन्दर्यं रूपं आकर्षकं करोति, यदा तु दुर्गुणाम् कलुषिताम् प्राप्य इदं आकर्षकं रूपं कुरूपं भवति। .

गली गली बारुनि बिके,गौरस बैठ बिठाए  | 
याको चौरस पाइया याको छूप छिपाए ||१६||  

यह चराचर जीउ जगत,सकल काल अधीन।
एक पूरन परमात्मा,तासु करम ते हीन॥१७|| 
 :-- यह समूचा चराचर जीव जगत काल केअधीन है एक परम परमेश्वर इस काल की गति से हीन होकर स्वतंत्र है . . . . .सर्वं सजीवं निर्जीवं जगदम् कालवशं वर्तते। एकः परमेश्वरः अस्य कालचक्रस्य प्रभावात् मुक्तः अस्ति। . . . .

मानस करतब करम में कसर करो कछु नाए l 
जो फल भाग बंधाइया सो तो कतहुं न जाए ll१८|| 
:-- मनुष्य को चाहिए कि वह फल की इच्छा से रहित हो निरंतर कर्तव्य योग्य कर्म करता रहे यदि फल उसके भाग्य में होगा तो वह उसे अवश्य प्राप्त होगा..... भगवान श्री कृष्ण

धेनु भाग बंधाए बिनु न दूध मलाया पाए l
करम मथानी मथे घृत जल ते निकसत नाए ll१९|| 
:-- भाग्य में कर्म विभाग रूपी धेनु बंधित हुवे बिना दुग्धासव प्राप्त नहीं होता, जल से घृत नहीं निकलता, इस प्रकार कर्म रूपी मथानी का मंथन व्यर्थ का परिश्रम सिद्ध होता है.....

उद्यम विभाग भाग बस ता फल करम बसाए l
करम मथानी मथे बिनु घिव निकसावत नाए ll२०|| 
:-- उद्यमों का विभाजन भाग्य के वशीभूत होता है और उसका फल कर्म के वशीभूत होता है भाग्य रूपी जोड़ को कर्मों की मथानी से मथे बिना घिव रूपी फल प्राप्त नहीं होता इसलिए मनुष्य को कर्म करते रहना चाहिए.....







----- ॥ दोहा-पद॥ -----,

 जो लिख दोइ बात कहें सो सब संत कहाए ।

करना है हम आपको जेतक जो करि जाए ॥१|| 

:- ये लिखी कही दो बातें सभी संतों की वाणी हैं हम और आप जितना जो हो सके उन्हें उतना करके अपने जीवन को कृतार्थ कर सकते...

को संत को बात कहे, कहे संत बत कोइ ।
कही बात हम कर सकै,जासों जेतक होइ ॥२|| 
:-- किसी संत ने कोई बात कही तो किसी संत ने कोई संतों के कहे इन सद्वचन का अधिकाधिक अनुशरण करके हम अपने जीवन को धन्य कर सकते हैं.....

जलम् अन्नम् सुभाषितम्, जो गहे नहिं प्रवाह ।
धरे ढके तिन राखिये, रहे करम के नाह ॥३|| 
:-- अक्षरों की तलवार जब शब्दों की धार धारण करती है तब वह अपने वारों और प्रहारों से जिसे चाहे उसे घाट उतारने में सक्षम होती है.....
:-- यदा अक्षरखड्गः शब्दानां धारं वहति तदा सः स्वस्य आक्रमणैः प्रहारैः च कस्यचित् वधं कर्तुं समर्थः भवति...

पहिले आपा जोग फिर,निज गह देस समाज । 
कही सुनि लिखा पढ़ी न त, होतब सबहि ब्याज॥४|| 
व्याज=छल, धोखा
:-- संत जनों का कहना है:सर्वप्रथम स्वयं का सुधार करके तत्पश्चात निज गृह को सुधारें तो देश समाज में स्वमेव सुधार होगा...

आखर की तलबारि जब धरे सबद की धारि । 
जो वारि प्रहारि सो जिन चाहे घाट उतारि॥५|| 
:-- अक्षरों की तलवार जब शब्दों की धार धारण करती है तब वह अपने वारों और प्रहारों से जिसे चाहे उसे घाट उतारने में सक्षम होती है.....

बड़े कपोले थाप दिए, छोटे दिए अपकारि।
साधौ जाए उपदेसिए, दूर दिरिस के द्वारि।।५|| 
:-- बड़ों के सम्मुख उपदेश कहो तो गालों पर थपकी देकर कहते अच्छा हमको उपदेश? तुम्हारे कान पकड़ कर हम ही लाते थे! छोटे इनकी अवहेलना कर देते हैं बेचारे सद्वचन भी क्या करें वह दूरदर्शन को कह देते हैं.....

जंगल ताके बाप का, जो हो सत्ताधीस ।
न मेरा न आपका यह, लोक तंत्र की रीस॥६|| 
:-- जंगल उसके बाप का है जो सत्ताधीश हैं.....जंगल मेरा न आपका.....वस्तुत:यह एक लोकतंत्र विरोधी विचार है.....- वनं तस्य पितुः यः शासकः अस्ति.....











----- ॥ दोहा-पद 38॥ -----,

 देस बिसराए निज ग्रन्थ निज को निज देशज की कही | 

पर रीत बरे बिसरे जो निज भू रज की रीत रही || 

रहिअ ताहिं सुरत सदा जो यदा कदा कहँ आन मही | 

देस कही कि को आन कही सोइ मानिए जोइ सही | 

:-  अपने देश अपने ग्रंथ अपने देश वंशियों के कथन विस्मृत हो चले हैं पराई परम्पराओं का वरण कर अपनी जन्म भूमि के रज की रीतियाँ तिरोहित हो गई किसी विषय विशेष पर केवल उन्हीं कथनों का  रीतियों का संस्मरण कहा जाता है जो निज मातृभूमि से अन्यथा यदा कदा कही व् निर्वहन की गई हों देश की हों अथवा देशांतर की, उपयुक्त कथनोक्तियाँ व  पारम्परिक रीति ही सर्वमान्य हों..... 


Sunday, 20 July 2025

----- || दोहा -विंशी १८ || ----,

 दृष्टीहीनं दीपं करतले जगदालोक्य न प्रतीतम् l 

तस् उद्यम विहीनं कर धनं लाभान्वित न ज्ञानम् ll

अँधे करतल दीप दहे दरसे ना जग आभ।

बिनु उद्यम कर धन गहे लहे न ज्ञान कर लाभ ॥१||  

:-- दृष्टीहीन को अपने करतल में प्रज्वलित दीपक से जगत का आलोक्य प्रतीत नही होता उसी प्रकार उद्यम हीन को भी अपने हस्तगत धन से ज्ञान का लाभ प्राप्त नही होता ।


अँधे करतल दीप धरे भए न भास कर भान।

बिनु श्रम बिनु उद्यम करे गहे न ज्ञान बिधान॥२||  

:-- दृष्टीहीन को करतल आधरित दीपक से प्रकाश का आभास नहीं होता उसी प्रकार उद्यम स्वरूपी दृष्टी से हीन मनुष्य को भी ज्ञान का विधान प्राप्त नही होता....  

कर= अवधि में का 
कर = हाथ, किरण ,करना, शुल्क

खाओ पीयो पहिरियो लेउ जगत को भोग ।
सेष ना लवलेष रहे कहे जोग जग जोग॥३|| 
:-- विश्वस्य जनान् एकीकृत्य भारतस्य योगः एतत् सन्देशं ददाति यत् जीवनं लौकिकसुखानां आनन्दाय, तेषु एतावत् आनन्दाय च अभिप्रेतम् यत् भविष्यत्पुस्तकानां कृते किञ्चित् अपि न अवशिष्यते।
:-- विश्वजनों को योजित कर भारत का योगयह सन्देश दे रहा है कि जीवन भव भोगों का उपभोग करने के लिए है इतना उपभोग हो कि आगामी पीढ़ियों के लिए लेशमात्र भी कुछ शेष न रहे..... 

नहि बीर सो सबद बान जोइ चलावै तीर |  
रन आँगन में बोलता सोइ कहावै बीर ||४||  
:-- युद्धं न वचनबाणप्रहारेन जितं भवति, केवलं रणक्षेत्रे वदन् एव शूरः
:-- शब्द बाण चलाने भर से लड़ाई जीती नहीं जाती जो समरांगण में बोलें वीर वही होता है

छाए सघन घन देवता गाए अस्तुति प्रसंस l 
जय जय जय रघुबंस मनि,जय रबि कुल औतंस॥५|| 
: - - इंद्रदेव: सघनरूपेण आवृतः श्रीरामस्य स्तुतिं गायति ----रघुवंशस्य मणि रविकुलस्य पुरुषोत्तम जय ते....!!!
 : - -इन्द्र देव सघन रूप में आच्छादित हो श्री राम की प्रशंसा स्तुति का गान कर रहें है - - हे रघुवंश के मणि स्वरुप हे रवि कुल के पुरुषोत्तम आपकी जय हो ... . . !!!

बिआ बिनसाए आपुना बोए रहे उद्योग | 
बोए बिआ नभ देखिआ चढ़े जगत के लोग ||६||  
: -- उद्योगानां विकासेन स्वस्य उर्वरभूमिं नष्टं कृतवन्तः पृथिव्याः जनाः अन्तरिक्षं गतानां बीजानां अंकुरणस्य परीक्षणं कुर्वन्ति...
: -- उद्योग उपजाकर अपनी उपजाऊ भूमि को विनष्ट किए पृथ्वी के लोगअंतरिक्ष में चढ़े बीजों के अंकुरण का परिक्षण कर रहे हैं....  

दरस महि की सत्ता पर निर्बुध का अधिकार | 
अधुनै पर उपहाँसेगा एक दिन होवनिहार ||७||  
:--पृथिव्यां मूर्खतायाः अधिकारं लक्ष्यं कृत्वा एकस्मिन् दिने भविष्यस्य अस्तित्वस्य उपहासं करिष्यति.....

: -- पृथ्वी की सत्ता पर मूर्खता का अधिकार लक्षित कर एक समय भावी विद्यमान का उपहास करेगा 
पृथिव्यां मूर्खतायाः अधिकारं लक्ष्यं कृत्वा एकस्मिन् दिने भविष्यस्य अस्तित्वस्य उपहासं करिष्यति.... 

दूषन गुन दोनउ बसे, सबद सिंधु के कोष। 
कोई पावै मनि रतन,को निकसावै दोष ॥८||  
:--शब्दाब्धिकोषे गुणदोषौ निवसतः;केचित् तस्मिन् बहुमूल्यानि रत्नानि प्राप्नुवन्ति,केचन तु दुष्टानि निष्कासयन्ति ।
:--शब्द सिन्धु के कोष में गुणदोष दोनों का वास होता है किन्तु कोई उसमें मणि रत्न प्राप्त कर लेता है तो कोई दोष निष्काषित करता है ।

 दैदिप धरती गगन भए,दैदिप केत निकेत। 
प्रबसे राम निज मंदिर,दैदिप भयो साकेत ।।९|| 
:-- पृथिवी आकाशं च प्रकाशितं जातम्, प्रत्येकं धाम उज्ज्वलं जातम्, श्रीरामः स्वस्य शुभं धामं प्रविष्टमात्रेण साकेत एव उज्ज्वलः अभवत्।
:-- अवनि अम्बर दैदीप्त हुवे केत निकेत दैदीप्य हुवे ज्यों ही भगवान श्री राम अपने मंगलायल में प्रविष्ट हुवे  त्यों ही साकेत बह दैदीप्यमान हो उठा  

खेत कमाया खेतिहर पाया मन बिसराम l 
किसलय कन की कोँपलैँ जहँ तहँ बरसे राम॥१०|| 
:- - कृषि कार्य से निवृत होकर कृषक का मन मेंसंतोष व्याप्त है कारण कि स्थान स्थान पर उत्तम वर्षा होने से कणों की कोंपलें नव पल्लव को प्राप्त है . . . . .
खेत कमाना = कृषिकर्मखेतिहर...

को कह कही कहाइ बत,को कह सुनि सुनाइ ।
कहा सुनि को त्याज के, दरस लेव तहँ जाइ ॥११|| 
:- - जब कोई कहता है ये कही कहाई बातें है कोई कहता है ये सुनी सुनाई बातें हैं अर्थात इनमें सत्यता नहीं है इस कहा सुनि को त्याग कर सत्यता का प्रत्यक्ष परिक्षण उत्तम होता है.....

प्रियतम पिय की प्रीति सो काल कबित की रीत l 
प्रेम भाव भगवन सोहि जोइ भक्ति के गीत ll१२|| 
:-- प्रियतम प्रिय के प्रति की प्रीति पर रचित काव्य रीति काल कहलाता है जब यही प्रेम भाव भगवान के प्रति हो तब वह गीतिका काव्य भक्ति काल कहलाता है.....

मधुरिम बोल बचन छनहि जुग के जोग जुगाए l 
कटु कथन जुग जोग लगन देय पलक बिलगाए ll१३क|| 
:-- मुखात् उक्ताः मधुरवचनाः क्षणमात्रेण अनेकजन्मसंबन्धं स्थापयन्ति, यदा तु कटुशब्दाः क्षणमात्रेण अनेकजन्मसंबन्धं भङ्गयितुं समर्थाः भवन्ति
:-- मुख से कहे मधुर वचन क्षण में जन्म-जन्म के संयोग स्थापित कर देते हैं वहीं कड़वे वचन जन्म जन्म के  संयोगों को क्षण में विभंजित करने में सक्षम होते हैं

काठ कठिन कोटिक कथन कोटि कटुक कड़ुवारि।
बोलत दोइ मधुर बचन पल में दे नेवारि ॥१४ख|| 
:--मुखात् उक्तौ मधुरौ शब्दौ तत्क्षणमेव कोटि-कोटि-कठोर-कटुतायाः कारणात् अत्यन्तं कटुतां, कटुतां च दूरीकर्तुं शक्नुवन्ति; तानि वचनानि "क्षमस्व मां..." इति।
:--मुख से कहे गए दो मधुर वचन कोटिशः कठिन कठोर कथन से उपजी अतिशय कटुता व कड़वाहट का एक पल निवारण कर देते हैं वह शब्द हैं " मुझे क्षमा कर दो... .. "

तहाँ प्रीति न बैठ सके जहां ऐंठ की पैंठ ।
जहाँ ऐंठ न पैंठ सके प्रीत जाइ तहँ बैठ ॥१५ग|| 
:-- यत्र अहङ्कारः वर्तते, तत्र प्रेम न वसति, यत्र अहङ्कारः न प्रविशति, तत्र प्रेम सर्वदा वसति...
:-- जहाँ अहंकार प्रविष्ट रहता है वहां प्रीति विराजित नही होती, जहाँ अहंकार का प्रवेश नहीं होता वहाँ प्रीति सदैव विराजमान रहती है... ..

दंश दंभ दल दरप कल लए भरोस अवसोष ।
ता पुनि प्रीति प्रेम भाव दूरावै दुइ कोस ॥१५घ|| 
:-- दम्भ-दंश-अभिमान-पूरितः शब्दसमूहः प्रत्ययं अवशोषयति; प्रेमस्य स्नेहस्य च भावः एतत् अविश्वासं अत्यन्तं दूरं करोति...
:-- दंभ,दंश दर्प भरे वचनों का दल प्रतीति का अवशोषण कर लेते हैं प्रीति प्रेम का भाव इस अविश्वास को सर्वथा दूर कर देता है... . .

भाषा संस्कृति से है भारत देस समृद्ध | 
विचारों की संकुलता से पश्चिम है दारिद्र ||१६|| 
:-- भारतं भाषासंस्कृतेः दृष्ट्या समृद्धः देशः अस्ति, यदा तु पाश्चात्त्यदेशाः विचाराणां पूर्णतायाः दृष्ट्या अद्यापि दरिद्राः सन्ति।
:-- भाषा व् संस्कृति से भारत एक समृद्ध देश है विचारों की परिपूर्णता से पश्चिमी देश अभी दरिद्र है

बिआ बिनसाए आपुना बोए रहे उद्योग | 
बोए बिआ नभ देखिआ चढ़े जगत के लोग ||१७क|| 
: - उद्योग उपजाकर अपनी उपजाऊभूमि को विनष्ट किए पृथ्वी के लोगअंतरिक्ष में चढ़े बीजों के अंकुरण का परिक्षण कर रहे हैं....
: -- उद्योगानां विकासेन स्वस्य उर्वरभूमिं नष्टं कृतवन्तः पृथिव्याः जनाः अन्तरिक्षं गतानां बीजानां अंकुरणस्य परीक्षणं कुर्वन्ति...

दरस महि की सत्ता पर,निर्बुध काअधिकार |
अधुनातन पर हाँसेगा एक दिन होवनिहार ||१७ख||
 : -- पृथ्वी की सत्ता पर मूर्खता का अधिकार लक्षित कर एक समय भावी विद्यमान का उपहास करेगा.....

: -- पृथिव्यां मूर्खतायाः शक्तिं लक्ष्यं कृत्वा एकस्मिन् दिने भविष्यस्य वर्तमानस्य उपहासः भविष्यति...

दिपित दिपित दृक दिसा दस दैदीप दिवस मान ।
पूरबाहन बहुर चला चरन धरा मध्यान ॥१८|| 
:-- दिवसमान के दैदीप्य से दसों दिशाओं को दीप्तवान दर्शकर पूर्वाह्न ने निर्गमन किया और मध्यान का 
पदार्पण हुआ... . .:-- दिनस्य तेजसा दशदिशाः सर्वान् प्रकाशयन् प्रभातोऽभवत्, मध्याह्नश्च आगतः ... ...

नील गगन स्याम भयो छाइ घटा घन घोर ।
भरम भरे समुझ न परे, ए साँझि अहै कि भोर॥१९|| 
: - - घनघोर घटा केआच्छादन से नील गगन श्याम वर्णं हो गया है यह संध्याकाल है अथवा प्रभातकाल, ये भ्रमवश ज्ञात नहीं होता....
: - - स्थूलमेघानां आच्छादनात् नीलगगनं कृष्णं जातम्। न ज्ञायते सन्ध्या उत प्रभात इति भ्रमात्.....

घर घर घुसपैठिये गए,भर पश्चिम बंगाल |
सासन हर को चाहिए लगाए,आपद काल ll२०|| 
:--पश्चिमबङ्गस्य प्रत्येकं गृहं घुसपैठिभिः पूरितम् अस्ति, सत्ताधारी दलेन तत्र आपत्कालः आरोपणीयः.....









Wednesday, 16 July 2025

----- ॥ दोहा-पद 37॥ -----,

धृर्त कृत सद चरित सौं करिआ जबहि बिहार |

उड़त धूर ते धूसरित होत तब संस्कार || 

:--वंचक व कुचरित्र जब सद्चरित्रों के संग विचरण करते हैं तब इस विचरण से उड़ते धूल रूपी कुविचारों के प्रभाव से संस्कार धुंधले होते चले जाते हैं 

अजहुँ भयउ भंड भंडरिए  भाँडन की भरमार |

ता सोंहि संस्कारि गुन पड़िआ जाइ भँगार || 

:-- वर्तमान में निर्लज्ज अनिष्ट की व्यंजना करने वाले उपद्रवियों की बहुलता हो गई है जिनके द्वारा संस्कारों से प्राप्य सद्गुणों का निकृष्ट वस्तु के रूप में पतन हो रहा है 

अपवचन सन दुर्वादन  हृदय के उदगार | 

अंतर की दुर्वासना तासों करत बहार || 

:-- अपशब्द के सह कुत्सित वाक्य ह्रदय के उद्गार स्वरूप होते हैं जिनके माध्यम से अंतर की कुप्रवृत्ति बहिर्गत होती  हैं | 

दुर्बचन एहि दुर्बादन कहत बुराई नाह | 

जबहि हँसी बिनोद करत  रीति रूप निरबाह ||

: - -ये अपशब्दों व दुर्वाद तब निंदनीय नहीं होते जब यह हंसी विनोद स्वरूप पारम्परिक रीतियों के निर्वहन हेतु होते हैं | 

पढ़िए तुलसी मानस में दुर्बादन की रीत | 

सामध सबंधी संगत तासों गाढ़े प्रीत || 

: - - गोस्वामी तुलसी दास रचित रामचरित्र मानस में इस दुर्वादन की मधुर रीति का वर्णन है यह समधीयों के परस्पर संबंधों की प्रगाढ़ता हेतु इस परम्परगत रीत का प्रयोग होता आया है 

जेँवत जेँउनार जौँ जौँ धर मुख सौंधी सोंठ | 

पुर नारि उदगारि गान  करत सजन के गोंठ || 

:--प्रीति भोज्य ग्रहण करते व सुगंध सौंठ इत्यादि मुखोधार्य करते ज्यों ज्यों सज्जन गोष्ठी की रीत परिपूरित  होती है त्यों त्यों पुर की नारियों द्वारा सज्जनों के विनोद स्वरूप उद्गारों का गान किया जाता है | 

कब किया जाता है ये तो पता नहीं............  यही तो रामायण है..... जिसे जानना है वो सुन लें..... 





"साहित्य वही है जिसे पीढ़ियां पढ़ें अन्यथा तो वह पुस्तकालयों में धूल धूसरित होते पृष्ठों का पुला है....."