Friday 20 November 2015

----- ।। उत्तर-काण्ड ४३।। -----

 शुक्रवार, २० नवम्बर, २०१५                                                                  
 झाँक चकत अस रकत प्रकासा । ढाक ढँकत जस फुरिहि पलासा ॥ 
सूल सूल भए फूलहि फूला । सोइ दसा गहि हस्त त्रिसूला ॥ 
चकत्तों से झलकता रक्त इस भांति प्रकाशित हुवा मानो ढाक को उलाँघते पलास पुष्पित हो रहा हो |वीरभद्र फूल-फूल अर्थात घाव-घाव से शूल-शूल अर्थात रक्त-रक्त हो गए | उसी दशा में उसने त्रिशूल हस्तगत किया, 

पुनि पुष्कल जय राम पुकारा । काटि निबार पलक महि पारा ॥ 
बिकट रूप धर गर्जहि ऐसे  । ताड़त तड़ित गहन घन जैसे ॥ 
फिर पुष्कल ने जयराम पुकारा और निमेषमात्र में उसे काटकर निवृत कर दिया और विकराल रूप धारण कर ऐसे गरजने लगा जैसे घनघोर बादलों से बिजली कड़क रही हो | 

निज त्रिसूलन्हि कटत बिलोका । भयउ प्रबल रन रहइ न रोका ॥ 
छतज नयन उर जरइ न थोरे । कोपवंत पुष्कल रथ तोरे ॥ 
अपने त्रिशूल को कटा देखकर वह पुष्कल के विरूद्ध युद्ध में प्रबल हो उठा और फिर वह स्वयं को रोक न पाया रक्तपुरित नेत्रों व् दग्ध ह्रदय से कोपवंत वीरभद्र ने उसके रथ को विभंजित कर दिया |  

रुद्रानुचर के बेग प्रसंगा । भंजेउ रथ भयउ बिनु अंगा ॥ 
गयउ पयादहि रथ परिहारे । बीर भद्रहि कसि मूठि प्रहारे ॥ 
रुद्रानुचर के इस वेग के संगत भंजित रथ से वह अंग (सैन्य) रहित हो गए फिर उस रथ का त्याग कर वह पदचर हो गए  इस अवस्था में ही उन्होने  वीरभद्र पर कर्षित मुष्टिका से बलपूर्वक प्रहार कर दिया | 

बहुरि एकहि एक मुठिका मारएँ  । घात गहत दुहु मानि न हारएँ ॥ 
लरिहि बिजय दुहु करि अभिलासा । चहहिं परस्पर प्रान निकासा ॥ 
अब वह परस्पर मुष्टि प्रहार करने लगे, इस द्वंद से हताहत होते भी उन्होंने हार नहीं मानी | दोनों ही विजय की अभिलाषा में युद्धरत थे और एक दूसरे के प्राण हरण करने पर उतारू थे | 

रयनि बासर निरंतर जुझत रहै एहि भाँति । 
लरत बिरते चारि दिबस, पर नहीं उर साँति ॥  

अहिर्निश युद्ध में लड़ते-भिड़ते संघर्ष करते इस प्रकार चार दिवस व्यतीत हो गए किन्तु उनके ह्रदय शांत नहीं हुवा | 

शनिवार, २१ नवम्बर, २०१५                                                                                 

पंचम दिवस कोप के साथा । बीर भद्रन्हि कंठ गहि हाथा ॥ 
बाहु मरोरत महि महुँ  डारा । चोट गहत  भै पीर अपारा ॥ 
पंचम दिवस  पुष्कल ने अत्यंत क्रोध के साथ वीरभद्र का कंठ और हाथ पकड़कर उसकी भुजाओं को बल देते हुवे उसे भूमि पर गिरा दिया | चोटिल हुवे वीरभद्र को अपार पीड़ा हुई | 

बीर भद्रहु पुष्कल पग धारिहि  । घुर्मावत नभ बारम बारहि ॥ 
भुज उपार पछाड़ महि पारे । मरति बार पुष्कल चित्कारे ॥ 
प्रतिशोध में वीरभद्र ने पुष्कल के चरण पकड़े और उसे वारंवार आकाश में घुर्मित उनकी  भुजाएं उखाड़ दी और उन्हें भूमि पर दे मारा, मृत्यु के समय पुष्कल चीत्कार उठे | 

मुने अस बीर गति गहि पुष्कल । कासि जिन्ह मैं कंचनि कुंडल ॥ 
काट सो सिस गरज घन घोरा । फेरीबार फिरिहि चहुँ ओरा ॥ 
मुनि! इस प्रकार जिसमें हिरण्यमयी कुण्डल जगमगा रहे थे वीरगति प्राप्त पुष्कल के उस मस्तक को काट दिया और घनघोर गर्जना करते हुवे क्रमश: रणभूमि के चारों ओर परिक्रमा करने लगा | 

बहोरि  भय अस रन भूमि ब्यापे । जो देखिहि सो थर थर काँपे ॥ 
कुसल बीर सत्रुहन पहि जाईं । समाचार एहि कहि सिरु नाईं ॥ 
फिर रणभूमि में भय इस भांति व्याप्त हो गया कि जो वीरभद्र को देखता वह थरथर कांपने लगता | कुशलवीरों ने शत्रुध्न के पास जाकर शीश झुकाए  पुष्कल के वीरगति का समाचार कहा | 

पुष्कल केऊ बीर गति बीरभद्रहि कर सोहि । 
सुनेउ अस त सत्रुध्नन्हि करन भरोस न होंहि ॥ 
वीरभद्र के हाथों पुष्कल की वीरगति हुई शत्रुध्न ने जब ऐसा सूना तब उनके कानों को सहसा विश्वास नहीं हुवा | 

रवि/ सोम , २२/ २३  नवम्बर, २०१५                                                                             

रे नयन सुनि सकल बखाना । सत्रुहन मन बहुतहि  दुःख माना ॥ 
कंपत ह्रदय धरा सम डोलिहिं । सोकाभिभूत पलक हिलोलिहि ॥ 
वध का पूर्ण वृत्तांत श्रवण कर उनके नेत्र भर गए उस समय शत्रुध्न मन ही मन अत्यंत दुखित हुवे, उनका कम्पायमान ह्रदय धरणी के समान उद्दोलित हो उठा, शोक के अभिभूत उनकी पलकें हिलोलने लगे | 

उठे ताप  घन पलक जल छाए । बरख घन बिरमन बदन भिजाए ॥ 

सोक मग्न सत्रुहन जब पायो । सिव संकर बहु बिधि समझायो ॥ 
संताप के बादल उठकर जब पलकों पर छाए तो वह घनघोर वर्षा कर मुखमण्डल को देर तक द्रवित करते रहे | शत्रुध्न को जब शोकमग्न देखा तब शिवशंकर ने बहुंत प्रकार से उनका प्रबोधन किया | 

असह जे दुःख न जाइ बिलोका । तथापि रे तुम परिहरु सोका ॥ 

जेहिं समुख मह प्रलयंकारी । पंच दिवस लग किए रन भारी ॥ 
यह दुःख असहनीय है, देखा नहीं जाता तथापि हे वीर तुम शोक न करो | जिनके सम्मुख महाप्रलयंकारी वीर भद्र थे और उनके साथ पांच दिवस तक निरंतर घोर संग्राम करते रहे | 

देइ प्रान रच्छत निज पाला । धन्य धन्य सो बीर निराला ॥ 

जोए दच्छ महत्तम निज जाना । जासों होएसि  मम अपमाना ॥ 
अपने भूपति की रक्षा करते हुवे जिसने अपने प्राण आहूत कर दिए वह निराला वीर धन्य है | जिस दक्ष ने स्वयं को ही महामहिम जाना, जिसके द्वारा मेरा अपमान हुवा | 

तेहि मारि संघारिहि जोई । येहु  बीर भद्र अहहीं सोई ॥ 

एतेउ तुम्ह सोक परिहारौ । हे मह बली उठौ रन कारौ ॥ 
उसका संहार कर जिसने उसकी मृत्यु कारित की यह वीरभद्र वही हैं | इसलिए तुम शोक त्याग दो हे महाबली! उठों और संग्राम करो | 

नयनायन जल रोक  प्रगस रोष पुनि संभु प्रति । 
सत्रुहन परिहर सोक, धरि धनु लोहितानन किए ॥ 
तब रामानुज शत्रुध्न ने नेत्र कोटर में जल रोधित किया और शम्भू के प्रति रोष व्यक्त करते हुवे क्रोधित मुखमण्डल से धनुष उठाया | 

मंगलवार, २४ नवम्बर, २०१५                                                                                   

बहुरि बान संधान धनुरयो । रघुबंसि के पानि महुँ पुरयो ॥ 
ताकि तमक बितान झरि लाईं । दरसिहि धारा सार के नाईं ॥ 
तदनन्तर रघु वंशज ने आवेशपूर्वक लक्ष्य साधा और पाणि में आपूरित बाण संधानित धनुष को विस्तार देकर वृष्टि आरम्भ कर दी | 

उत सर सिव संकर के छाँड़े । बिदार बदन द्युति सम बाड़ें ॥ 
गयउ गगन भै गुत्थमगुत्था । दुहु दलगंजन के सर जुत्था ॥ 
उधर भगवान शिव शंकर के छोड़े विदीर्ण मुख वाले सायक विद्युत् गति के समान आगे बढे | दोनों बलवीरों के बाणसमूह गगनगामी होकर आपस में उलझ गए  | 

काल गहन नभ घनहि समाना  । गर्जत भिरिहि एकहिं एक बाना ॥ 
अवलोकत ऐसेउ घमसाना । सबन्हि जन के मन अनुमाना ॥ 
गगन में काले घने मेघों की भिड़ंत के समरूप वह बाण भी गर्जते हुवे  एक दूसरे से भीड़ गए | इस भांति के घमासान का अवलोकन करते सभी दर्शक गण के चित्त  ने यह अनुमान किया कि 

जहँ लोक संहारन कारी । सम्मोहक प्रलयंकर भारी ॥ 
चेतन हरत सबन्हि मन मोहीं । अवसि प्रलय के आगम होंही ॥ 
लोक-संहारकर्ता सम्मोहक प्रलयंकर अब निश्चित ही सब की चेतना का हरण कर सभी का मन मोह लेंगे निश्चित ही यह प्रलय का आगमनकाल है | 

दुहुरनकार निहार के कहै निहारनहारि । 
एकु अधिराज रामानुज, दूजे त्रय सिक धारि ॥ 
दोनों योद्धा का अवलोकन कर दर्शकगण फिर आगे कहने लगे इनमें एक योद्धा रामानुज हैं और दूसरे त्रिशूल धारी भगवान शंकर हैं,

बुधवार, २५ नवम्बर, २०१५                                                                          
भरिहीं बिजै आस करि  दोई । राम न जाने अब का होई । 
दोनउ बीर बिराम न लेहीं । गहिहीं बिजय कलस कर केहीं ॥ 
दोनों ही विजय की प्रत्यासा से संघर्षरत हैं राम जाने अब क्या होगा दोनों वीर विश्राम नहीं ले रहे,न जाने किसका हाथ विजय कलश ग्रहण करेगा  | 

 राजा सत्रुहन अरु ससि सेखर। करिहिं सतत संग्राम भयंकर ॥ 
दिवस एकादस लग एहि भाँती   । समर भूमि उर परेउ न सांति  ॥ 
राजा शत्रुध्न और शशि शेखर के मध्य ग्यारह दिवस तक  इसी प्रकार निरंतर भयंकर संग्राम में अनुरत रहे  | युद्ध भूमि का ह्रदय शांत ही नहीं हो रहा था | 


दिवस दुआदस संभु बिरुद्धा । तर्जत अति सत्रुहन बहु क्रुद्धा ॥ 
तीख बान तूनीर त्याजे । चढ़ि गुन गगन त गढ़ गढ़ गाजे ॥ 
बाहरवें दिवस शम्भू के प्रति अत्यंत क्रुद्ध होते हुवे शत्रुध्न ने तर्जना की और तूणीर का त्याग कर एक तीक्ष्ण बाण प्रत्यंचा पर आरोहित हो गगनोपर बादलों की सी गर्जना करने लगा | 

चलेउ ब्रम्हायुध बिकराला । चहसि अबोध बधन मह काला ॥ 
रहेउ जिमि मह देउ प्यासे । पयसिहि हँस हँस पयस सकासे ॥ 
उस बाण के वेश में विकराल ब्रह्मास्त्र चला वह अबोध महाकाल के वध हेतु अभिलषित थे | किन्तु महादेव मानो उस बाण की तृष्णा थी उन्होंने विहास करते हुवे जल के समान उसका पान कर लिया | 

तासों सुमित्रा नंदनहि भइ अचरज अति भारि । 
करिए चहिअ अब कृत कवन लगे ए करन बिचारि॥ 
महादेव की इस चेष्टा से सुमित्रानन्दन को अत्यंत आश्चर्य हुवा | वह विचार करने लगे कि अब कौन सा कृत्य करना उचित होगा  |  बृहस्पतिवार, २६ नवम्बर, २०१५                                                                           

एहि बिधि सोच बिचारत रहिहिं । देबाधिदेउ एकु सर लहहिं ॥ 
तासु बदन सिखि कन छतराइहिं । सत्रुहन के उर सदन उतराइहिं ॥ 
इसप्रकार वह सोच -विचार कर ही रहे थे कि उधर देवाधिदेव ने एक बाण लिया उसके मुख से अग्नि की लपटें निकल रही थी और उसे शत्रुध्न के ह्रदय सदन में उतार दिया | 

भयउ बिकलतर बेध्यो हियो । सत्रुहन हतचेत धरनि गिरियो ॥ 
हय कि गज कि रथी कि पदचारी । तेहि अवसर भरे भट भारी ॥ 
उसने ह्रदय के विभेदन कर दिया जिससे शत्रुध्न व्याकुलित हो गए और निश्चेत होकर भूमि पर गिर पड़े | अश्व  हो कि हस्ती हो राठी हो अथवा पदचर ही क्यों न हो उस समय शूरवीरों से भरपूर 

सकल सेना हां हा हँकारी । पाहि पाहि मम पाहि पुकारी ॥ 
हियहि बान मुख पीर बिसेखा । सत्रुहन जब मुरुछित गिरि देखा ॥ 
समूची सेना ही हाहाकार कर त्राहि त्राहि पुकार उठी  | ह्रदय में बाण व् मुख पर पीड़ा लिए शत्रुध्न को मूर्छित अवस्था में भूमि पर गिरा  देख 

हनुमत तुर गति भुज भरि ल्याए । प्रथम तिन्ह स्यंदन पौढ़ाए ॥ 
रच्छन हुँत पुनि राखि रखौते । आप जुझावन होंहि अगौते ॥ 
हनुमंत भुजाओं में भरकर उन्हें द्रुतगति से ले आए और प्रथमतः रथ में बैठाया तत्पश्चात उनकी रक्षा हेतु रक्षकों को नियोजित कर शत्रु से भिड़ंत हेतु स्वयं अग्रसर हुवे | 

सीस ससि सिर गंग गहे भूषित कंठ भुजङ्ग । 
जोगत बाहु बलि हनुमत, कोपत भिरि ता संग ॥ 
जो शीश पर शशि शिखर पर गंगा ग्रहण किए है भुजंग जिनके कंठाभूषण हैं बाहुबली हनुमानजी की प्रतीक्षारत  वह भगवान शिवशंकर कोप करते हुवे फिर उनसे जा भिड़े | 

शुक्रवार, २७ नवम्बर, २०१५                                                                                                  

एकै नाम निज रसन अधारे । राम राम हाँ राम उचारे ॥ 
निज दल बीर के हर्ष बरधाए | खलबलात निज पूँछि हलराए ।  
अपनी रसना पर एक ही नाम का आधार कर हनुमंत जी राम राम उच्चारण करने लगे | अपने पक्ष के दलवीरों का हर्षवर्द्धन करते हुवे क्षुब्ध अवस्था में वह अपनी पूँछ हिलाने लगे | 

समर सरित तट चरन धरायो । बहोरि  तरत रुद्र पहि आयो ॥ 
देबाधिदेब बधन कर इच्छा । ऐसोइ कहत करिहि प्रदिच्छा ॥ 
संग्राम नदी के तट पर पदार्पण कर फिर वह तैरते हुवे से भगवान रूद्र के पास आए | देवाधिदेव के वध की अभिलाषा कर वह ऐसा कहते उनकी प्रदक्षिणा करने लगे : - 

 धरम बिपरीत चरन करिअहहु । राम भगतहि हतन करि चहहु ॥ 
जो रघुबीर चरन अनुरागी ।भै अजहुँ मम दंड के भागी ॥ 
रूद्र !आप रामभक्त का वध को अभिलाषित होकर धर्म विपरीत आचरण कर रहे हो जो रघुवीर के चरणानुरागी हैं ? अब आप मेरे दंड के भागी बनो | 

बेद बिदुर मुनि मुख कहि पारा । सुना ए पुरबल बहुतहि बारा ॥ 
पिनाक धारि रूद्र अस होहू । राम चरन  सुमिरन रत होहू ।। 
पूर्वकाल में मैने वेद विद ऋषियों के मुख से कहे इन वचनों को अनेकों बार श्रवण किया था कि पिनाकधारी रूद्र ऐसे हैं जो सदैव भगवान श्रीराम चंद्र के स्मरण में मग्न रहते हैं | 

मुनि बर  बदन कहे बचन, असत  भयउ हे राम । 
राम भगत सत्रुहन संग करिहहु तुम संग्राम ॥ 
हे ईश्वर ! मुनिश्रेष्ठ के कहे वचन असत्य हो गए ? रामभक्त शत्रुध्न के संगत आप संग्राम हेतु उद्यत हैं  ? 

शनिवार, २८ नवम्बर, २०१५                                                                              

जब ऐसेउ कहा हनुमंता  । कहे ए  निगदन गिरिजा कंता ॥ 
हे कपिबर तुम बीर महाना । तुहरी  कही फुरी मैं माना ॥ 
जब वीर हनुमंत ने ऐसा कहा तब गिरजा कांत ने यह कथोक्ति की कि  हे कपिवर !तुम महान वीर हो तुम्हारे कथन को में सत्य मानता हूँ | 

धन्य धन्य तुम पवन कुमारा । ध्न्य धन्य प्रभु पेम तिहारा ॥ 
राम जासु जस आप बखाना  । तुहरे काज जगत कल्याना ॥ 
हे पवनकुमार! तुम धन्य हो, प्रभु के प्रति तुम्हारा अनुराग भी धन्य है | श्रीरामचन्द्र जिसका व्याख्यान स्वयं करते हैं  तुम्हारे वह कार्य विश्व के कल्याण हेतु हैं | 

अगजग जिन बंदिहि कर जोरे । जथारथ में सोइ पति मोरे ॥ 
भगवान जेहि तुरग परिहाई । बीरमनि तेहि बाँधि लवाईं ॥ 
समूचा संसार हस्तबद्ध होकर जिनकी वंदना करता है वस्तुत: मेरे स्वामी भी वही हैं | भगवान ने जिस अश्व का त्याग किया है उसे वीरमणि ने लाकर बाँध लिया | 

 रिपुदल दवनि जेहि जग भाखे | रघुबर जिन्ह तुरग करि राखे || 
सो सत्रुहन हरनत तिन पावा । रच्छत हय  तापर चढि  आवा ॥ 
जिसे संसार शत्रुदल का दमनकारी कहकर पुकारता है रघुवर ने जिसे अश्व की रक्षा हेतु नियोजित किया है उस शत्रुध्न ने जब उसका हरण होते देखा तब अश्व की रक्षा करते हुवे उसने उसपर आक्रमण कर दिया |  

तासु भगति बस आपनि पायउँ । ताहि रच्छन रन भूमि आयउँ ॥ 
मैने स्वयं को उस वीरमणि की भक्ति के  वशीभूत पाया तब उसकी रक्षा हेतु मैं रणभूमि में उपस्थित हुवा | 

भगवान भगत सरूप है भगत रूप भगवान । 
भगत राख करि चाहिये राखें जेन बिधान ॥ 

क्योंकि भक्त भगवद स्वरूप ही होता है और भगवद भक्त स्वरूप | भगवन को जेन केन प्रकारेण भक्तों की रक्षा करनी चाहिए | 

सोमवार, ३० नवंबर, २०१५                                                                    

सुनत बचन सिउ भगवंता के । भरि रिस सों उर हनुमंता के ॥ 
छोभित एकु सिलिका कर धारे । ताहि तासु बहि महि दै मारे ॥ 
भगवान शंकर के वचनों को श्रवण कर हनुमत का हृदय क्रोध से आपूर्त हो गया | क्षुब्ध अवस्था में उन्होंने एक शिलिका हस्तगत की और उसे लेकर उनके रथ पर प्रक्षेपित कर दिया | 

गहे स्यंदन सील अघाता । भंग होत रन भूमि निपाता ॥ 
कतहुँ त सारथि कतहुँ त चाका । कतहुँ केतु अरु कतहुँ पताका ॥ 
शिला का आघात ग्रहण किए वह रथ भंजित होकर धराशायी हो गया  | कहीं सारथी तो कहीं चक्र कहीं केतु तो कहीं पताका, 

चितबत नंदी पत रथहीना । लरत पयादहि बदन मलीना ॥ 
 उठेउ तुरत अस  निगदत धाए । भगवन मोरे पुठबार पधाएँ ॥ 
अपने स्वामी को रथहीन अवस्था में मलिन मुख से पदचर की भांति संघर्ष करते देख नंदी उठे और ऐसा कहते दौड़े : - 'भगवन आप मेरे पृष्ठ भाग पर पधारें |' 

भूतनाथ नंदी करि बाही ।मारुत सुत  बयरु  बरधाही ॥ 
लोहितानन गाढिहि अतीवा । पारग भयउ कोप के सींवा ॥ 
भूतनाथ ने नंदी को अपना वाहन नियुक्त कर लिया इससे  मारुती नंदन का प्रतिकार और अधिक बढ़ गया और उनका मुखमण्डल क्रोध से और अधिक लाल हो गया | 

लम्ब बाहु बरियात पुनि लिए एक साल उपार। 
घोर पुकार हनेसि  उर किए बहु बेगि प्रहार ॥ 
फिर उन्होंने प्रलंबित बाहु से बलपूर्वक एक साल वृक्ष उखाड़ा और घोर गर्जना कर ह्रदय पर वेगपूर्वक प्रहार करते हुवे शिव जी को हताहत कर दिया | 

मंगलवार, १ दिसंबर, २०१५                                                                            

ज्वाल सरिस तीनि  सिखि षण्डा । गहे संभु अस सूल प्रचंडा 
अग्नाभ तूल तेजस जाका । तेजोमूर्ति सम मुख वाका ॥ 
प्रतिउत्तर में भगवान शम्भू ने अग्निज्वाल के सरिस त्रिशिख समूह से युक्त ऐसा प्रचंड त्रिशूल धारण किया  उसका मुखमण्डल तेजोमूर्ति सूर्य के समान होने से उसका तेज अग्नि की आभा के समतुल था और 

अहो गोल सम सूल बिसेखे ।  आपनि पुर जब आगत देखे ॥ 
हनुमत ताहि बेगि कर धरके । किए भंजित पुनि तिल तिल कर के ॥ 
अहो ! अग्नि गोलक के समरूप इस विशेष त्रिशूल को अपनी ओर आते देखकर हनुमंत जी ने उसे आसुगति से हस्तगत किया और तिल-तिल कर उसका विभंजन कर दिया | 

दिसत दिसत भए खंडहि खंडा । गहे हस्त पुनि सक्ति प्रचंडा ॥ 
बदन कि उदर कि पुठबार कि पुच्छल । सबहि कतहुँ सों अहहीं लोहल ॥ 
देखते ही देखते जब वह बाण खंड-खंड हो गया तब फिर शिव जी ने शक्ति धारण की वह प्रचंड थी मुखमण्डल हो कि उदार हो पृष्ठिका हो अथवा पुच्छ हो वह सभी ओर से लौह द्वारा निर्मित थी || 

लागि सक्ति उर संभु चलाईं । छनभर हनुमत बहु बिकलाईं ॥ 
भयऊ श्रमित कछु मुरुछा भई । छन महुँ अनाइ  छन महूँ गई ॥ 
शिव जी की चलाई शक्ति ने हनुमंत के ह्रदय को भेद दिया, क्षण भर के लिए वह अत्यंत व्याकुल हो गए |  वह कुछ मूर्च्छा आने से वह शैथिल्य से यह मूर्छा क्षणमात्र में आई-गई हो गई | 

बहोरि एकु अति भयंकर बिटपन्हि लिए उपाऱ । 
अहि माली के उर माझ हनेसि घोर पुकार ॥ 
तत्पश्चात एक अति भयंकर विटप उखाड़कर भुजंगहार के मध्य ह्रदय में घोर गर्जना कर प्रहार किया | 

बुधवार, ०२ दिसंबर, २०१५                                                                                 

अहि भूषन  कर कंठ लपेटे । महाबीर के चोट चपेटे  ॥ 
छितरत  इत उत सकल ब्याला । हहर प्रबिसिहि बेगि पाताला ॥ 
हस्त व् कंठ में सर्प को भूषण किए भगवान शिव महावीर की चोट के चपेट में आ गए | इधर-उधर विकिरित हुवे सभी सर्प  भयभीत होते हुवे शीघ्रता से पाताल में प्रवेश कर गए | 

बहुरि मदनारि मुसल चलाईं । करत रखावनि कुसल उपाई ॥ 
महाबली भुज अस बल घारे । बिरथा गयऊ सबहि प्रहारे ॥ 
रक्षा का कुशल उपाय करते फिर मदनारि ने मूसल चलाया किन्तु महाबली हनुमान की भुजाओं ऐसे बल से युक्त थीं कि शिव जी के सभी प्रहार व्यर्थ हो गए | 

तेहि अवसर राम के दासा । कोप अगन कर बदन निवासा । 
उपात् परबत लिए एक हाथा । डारि संभु उर बहु बल साथा ॥ 
उस समय रामसेवक हनुमान के मुखमण्डल पर क्रोधाग्नि का निवास हो गया, उन्होंने के पर्वत उखाड़कर हाथ में लिया और उसे बलापपूर्वक शम्भुजी के हृदय भवन प्रक्षेपित कर दिया | 

सैल धारासार बौझारे । ताकि तमक लक तकि तकि मारे ॥ 
धरिहि उपल खंडल बहु खंभा । पुनि बरखावन लगे अरंभा ॥ 
फिर उनपर शिलाओं के अनवरत बौछार करने लगे और उनके मस्तक का लक्ष्य कर कर के आवेश पूर्ण प्रहार करने लगे | फिर वह बहुतक शिलाखंड व् शैलस्तम्भ की भी वृष्टि करने लगे | 

सागर सरित भयउ उदवृत जिमि भयक्रांत भू कंपिहि । 
खन खन भित भित भिदरित गिरि अस सिरपर जस गिरहि महि ॥ 
प्रमथ मह झोटिंग गन सहित भई भयाकुलित सकल अनी । 
 सत्रुध्नन्हि सैन बाहिनी इत लागिहि बहु भयावनी ॥ 
सागर व् सरिता इस प्रकारउद्वेलित हो गए मानो भयाक्रांत भूकंप आ गया हो | भित्तियाँ, शैलखंड फिर यूं गिरने लगे मानों शीश पर पृथ्वी ही गिर रही हो | प्रमथ, महाजटाधारी शंकर जी  और उनके गण सहित समूची सेना व्याकुल हो गई, इधर शत्रुध्न की सैन्यवाहिनी अत्यंत ही भयावह प्रतीत हो रही थी | 

होइहि उपल प्रपात नंदी बिहबल दरस्यो । 
छन छन खात अघात महदेउ ब्याकुल भयो ॥ 
उपल के इस प्रपात से नंदी अत्यंत विचलित हो गए  इधर क्षण क्षण आघात पड़ने से महादेव भी व्याकुलित हो गए | 

बृहस्पति/शुक्र , ०३/०४  दिसंबर, २०१५                                                                       

देखि संभु महबीर प्रभाऊ । बोले मृदुलित हे कपिराऊ ॥ 
कमल नयन पद केर पुजारी । धन्य धन्य सेबिता तिहारी ॥ 
भगवान शम्भो ने जब महावीर का प्रभाव देखा तब मृदुलता से बोले : -'हे कपिराज ! कमल नयन के श्री चरणों के पुजारी तुम धन्य हो, तुम्हारी हरि सेवा भी धन्य है | 

तुहारे भुज जस बल दरसायो । भगत प्रबर तुम मोहि अघायो ॥ 
तव बल बक्रम कीन्हि बड़ाई । मोर कोस सो सबद न भाई ॥ 
 भक्तप्रवर तुम्हारी भुजाओं ने जैसा बल प्रदर्शित किया उससे तुमने मुझे संतुष्ट कर दिया |  मेरे कोष  में ऐसे शब्द ही नहीं हैं जो तुम्हारे बल विक्रम की प्रशंसा करने में समर्थ हों  | 

दान जाग यत्किंचित तप तैं  । रे भगत हेतु सुलभ नहीं मैं ॥ 
बेगसील हे बीर महाना । एतएव मँगिहु को बरदाना ॥ 
दान, यज्ञ यत्किंचित तप से भक्त हेतु में सुलभ नहीं हूँ | एतएव हे महानवीर ! तुम शीघ्रता कर कोई वरदान मांगो | 

संभु अस कथ कथन जब लागे । हनुमत हँसत तब भय त्यागे ॥ 
पुनि मनमोहि गिरा कर बोले । हे डमरू धर हे बम भोले ॥ 
शम्भू ने ऐसा कथन कह ही रहे थे कि हनुमंत तब भय त्यागकर विहासित हो उठे | फिर मनमोहिनी वाणी से बोले : ' हे डमरूधर! हेबमभोले! 

हे  गिरिजा पति गिरि बंधु अरु किछु  चाह न मोहि । 
रघुबर चरन प्रसाद सों दिए  समदित सब किछु होहि ॥ 
हे गिरिजापति गिरिबंधु ! मुझे कुछ अभिलाषा नहीं है | रघुबर द्वारा चरण प्रसाद स्वरूप  दिए गए उपहारों से मुझे सब कुछ प्राप्य है | 

सियापति रघुनाथ के नाईं । मम रन कौसल तोहि अघाईं ॥ 
एहि हेतु तव कहे अनुहारा । माँगिहि बर यह  दास  तिहारा ॥ 
 मेरे रणकौशल ने सीतापति श्रीरघुनाथ के समान आपको भी संतुष्ट किया | इस हेतु व् आपके कथनों का अनुशरण कर यह दास आपसे यह वर माँगता है कि : - 

रघुबरहि प्रिय भरत तनुज ए पुष्कल । हमरे पाख केरे बीरबल ॥ 
गहे बीर गति बीर भद्रहि कर । लरत भिरत हत परेउ भूपर ॥ 
रघुवर को अत्यंत प्रिय भरत नंदन यह पुष्कल हमारे पक्ष के बलवीर हैं जो वीर भद्र के द्वारा रण संघर्ष में घायल होते हुवे भूमि पर गिरकर वीरगति को प्राप्त हुवे | 

यह रामानुज सत्रुधन होई । मुख मंडल मुरुछ गहि सोई ॥ 
अबरु बहुतक सूर ता संगे ॥ गहे बान तन भयउ निषङ्गे ॥ 
यह श्रीराम के अनुज शत्रुध्न हैं यह भी अपने मुखमण्डल में मूर्छा को आश्रय दिए हुवे हैं | इनके साथ और भी बहुतक शूरवीर हैं बाण ग्रहण किए जिनकी देह  निषंग के समदृश्य हो गई है | 

होवत छतबत गहत प्रहारे । मुरुछा गहिं गिरि महि हारे ॥ 
रखिहु तिन्ह निज गन के साथा । धरिअ रहिहौं सिरोपर हाथा ॥ 
जो आपके प्रहार से हार के क्षत-विक्षत अवस्था में मूर्छित होकर धराशायी हो गए हैं | गणों के साथ आप इनकी रक्षा करें और इनके शीश पर अपना आशीर्वाद बनाए रखें | 

खँडरन तन प्रभु होए न याके  । सिउ तनिक जतन करें वाके  ॥ 
द्रोन गिरिहि अस औषधि होंही । निरजीउ जिउ जियावत जोंही ॥ 
प्रभु! इनके शरीर खंड-खंड न हो शम्भू  आप इस हेतु उनका किंचित यत्न कीजिएगा | द्रोणगिरि में एक ऐसी औषधि है जो निर्जीव जीव को भी जीवंत कर देती हैं | 

 लेन गिरिहि सो औषधी मोही आयसु दाहु  । 
संभु द्रवित हिय सों कहे हाँ हाँ अवसिहि जाहु ॥ 
अब मुझे उस औषधि को लिए लाने की आज्ञा दीजिए | शम्भू द्रवित ह्रदय से बोले : -' हाँ! हाँ! अवश्य प्रस्थान करो |'

शनिवार, ०५ दिसंबर, २०१५                                                                      
देवधिदेव अनुमति दयऊ । सकल द्वीप उलाँघत गयऊ ॥ 
आए छीर सागर के तीरा । आए अचिर  हनुमत महबीरा ॥ 
देवाधिदेव ने स्वीकृति दी, तब महावीर हनुमान सम्पूर्ण द्वीपों  को उलाँघते हुवे अचिरम क्षीरसागर के तट पर आए | 

 इहाँ सिव संभु निज गन सहिता । पुष्कलादि के भयउ रच्छिता ॥ 
उत पहुंचत गिरि द्रोन महाना । औषध हुँत उद्यत हनुमाना ॥ 
यहाँ शिवजी अपने गणों  के साथ पुष्कालड़ी वीरों के रक्षक हो गए और वहां औषधि हेतु उद्यत हनुमान जी महान द्रोण पर्वत पर पहुंचे | 

हस्त गहत परबत हहराहीँ । राखनहर सुर निरखत ताहीं ॥ 
कहत एहि बत भए कुपित बहुँता । को तुम आइहु इहँ केहि हुँता ॥ 
हथेली पर ग्रहण करते हुवे पर्वत डोलने लगा उसके रक्षक सुर ऐसा निरीक्षण कर यह कहते हुवे अत्यंत कुपित  हुवे कि 'कौन हो तुम ? यहाँ किस हेतु आए हो ?' 

छाँड़ौ सठ अस कस तिन गहिहू । परबत कहँ कत लिए गत चहिहू ॥ 
सुरन्हि केर बचन दए काना । बिनयंनबत बोले हनुमाना ॥ 
दुष्ट ! छोड़ दो इसे,तुमने ऐसे कैसे इसका ग्रहण किया इस पर्वत को क्यों और कहाँ ले जाना को आकांक्षित हो |' सुरों के वचनों को श्रवण कर हनुमान जी ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया : - 

बीर मनि के नगरी में होइँ बिकट संग्राम । 
एक पाख अहैं सिउ संभु  दूज पाख श्री राम ॥ 
'वीरमणि की नगरी में विकत संग्राम हो रहा है, एक पक्ष में शिवशम्भु तो दूसरे में भगवान श्रीराम हैं |' 

सोमवार, ०७ दिसंबर, २०१५                                                                 

तब हनुमान घटना क्रम बँधाए । उभय दिसि  की सब कथा सुनाए  ॥ 
जोधत बहु बलबीर हमारे ।  रूद्र कर तैं गयउ संहारे ॥ 
तब हनुमंत ने घटना का क्रमवार विवरण देते उभय पक्षों का युद्ध वृत्तांत सुनाते हुवे कहा : - 'युद्ध में हमारे बहुतक बलवीर रूद्र के द्वार संहारित हो गए | 

तिन्हनि हुँत मैं गिरि लए जैहौं । जीवनोषधिहि देइ जियैहौं ॥ 
जिन्ह के बिक्रम अपरम होईं । प्रदरस् तिन्ह गरब  करि जोईं ॥ 
उनके हेतु ही मैं इस गिरी को ले जाऊंगा और संजीवनी औषषि के द्वारा उनकी पीड़ा का निदान कर उन्हें जीवंत कर दूँगा | 

परबत लिए गत जो अवरोधिहि । सो सठ  मोरे संगत जोधिहि ॥ 

तीन पापिन बहु रन खेलइहौं । एकै पलक जम भवन पठइहौं ॥ 
इस द्रोण पर्वत को ले जाने में जो अवरोध उत्पान करेगा उस दुष्ट को फिर मुझसे संग्राम करना होगा  | उस पापी  की मैं युद्ध में अतिसय दुर्गति करूँगा और निमेष मात्र में उसे यमभवन पहुंचा दूँगा | 

अब औषधिहि चहे गिरि दाहू । अजहूँ जौ मन संक न काहू  ॥ 

लेइ ताहि में अचिरम जैहौं । निर्जीवन जन जीवन दैहौं ॥ 
अब या तो औषधि दे दीजिए या समूचा द्रोण पर्वत ही दे दो |  यदि किसी को शंका न हो तो मैं इसे द्रुतगति से ले जाऊं और निर्जीवन को जीवन प्रदान करूँ ? 

पवन कुमार केर बचन सुनि करि सकल प्रनाम । 
ते औषध कर देइहीं जासु सजीवन नाम ॥ 
पवनकुमार के वचनों को श्रवण कर सभी सुर नतमस्तक हो गए और वह औषधि सौंप दी जिसका नाम संजीवनी था |