Tuesday 22 October 2019

----- || दोहा -विंशी 3 || ----,

करम केरि पतवार नहि सीस पाप का भार | 
तोरि नाउ कस होएगी भव सागर ते पार | १ |
भावार्थ : - सद्कर्मों की पतवार नहीं है उसपर पापों का भार | रे मनुष्य ! तेरे जीवन की नैया इस संसार सागर से कैसे पार होगी | 

कहता सबते काल का चाका घुरमत जाए | 
जैसी करनी कारिये तैसो ही फल पाए || २ || 
भावार्थ : - काल का  चक्र घूमते हुवे सबसे कह रहा है ये मैने देखा है कि जो जैसी करनी करता है उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है | 

खूंटे बाँध कसाई के कान्हा तोरि गाय | 
आया द्वारे पाखँडि कापट भेष बनाए || ३ || 

भावार्थ : - हे कन्हाई तेरी गाय को कसाई के खूंटे बाँध कर अब कपट वेश धारण किए पाखंडी द्वार पर आ खड़ा हुवा | 

दास करता ए देस का पराया सो समुदाय | 
वाकी मलिनी संस्कृति ए भारत की नाए || ४ || 
भावार्थ : - यह पारा समुदाय इस देश का दासकर्ता है इसकी मलिन संस्कृति भारत की संस्कृति नहीं है |
 एहि भव सिंधु समान है माया जल के मान  | 
तीरे सो तो देउता डूबे सो पाषान || ५ || 
भावार्थ : - यह संसार सिंधु व् सांसारिक प्रपंच जल के समान है जो इन प्रपंचों में अनुरक्त रहा वह पाषाण कहलाया और जो तैर गया वह देवता कहलाया | 
कपोत कनका खाए के बैसे जबहि मुँडेर | 
बीट संगत निपजावै पीपर बट के पेड़ || ६  || 
भावार्थ : कपोत कनका खाकर जब  मुंडेर पर विराजित होते हैं वहां तब वह अपने बीट से पीपल व् वट का वृक्ष उपजाते हैं ( इनके द्वारा खाने  के पश्चात पीपल व् वट के बीज की एक  विशेष प्रक्रिया होतीहै तथा बीट से निष्कासित होने के पश्चात् ही यह उगते हैं  ) इस हेतु पक्षियों में कपोत को सर्वश्रेष्ठ माना गया है |  

जुबता तपती दुपहरी बालपना परभात | 
ढरती बयस साँझ अहै मरनी कारी रात || ७ || 
भावार्थ : - बालकपन प्रभात के तुल्य है तो यौवनावस्था तपती दोपहर के समदृश्य है ढलती वृद्धवयस ढलती संध्या के तुल्य है तो मृत्यु काली रात्रि के सदृश्य जहाँ अंतत शयन करना है | 

साँझि भइ दीप मनोहर, धरे द्वारि द्वारि ।
मंदिर मंदिर सुमधुरिम, घंटिहि करत गुँजारि ॥ ८ || 
भावार्थ : - संध्या होते ही मनोहर दीपक द्वार द्वार पर स्थापित हो गए मंदिरों में घंटिकाएँ सुमधुरिम गूंज कर रही हैं | 

घनकत कारी बादरी, बजै गगन मै ढोल ।
कृष्णा कृष्णा बोल सखि, राधे राधे बोल ॥ ९ || 
भावार्थ : - काली घटा घनक रही है और  गगन में ढोल बज उठे हैं हे सखी ! कृष्ण कृष्ण बोलकर राधे राधे बोल | 

अँधन  को प्रभो ऑख दे, बहरे को दे कान।
गूँगे के मुख बोल दे, रू मूरख को ग्यान ॥ १० || 
भावार्थ : - हे प्रभु !अंधों को दृष्टि प्रदानकर बधिर को कर्ण प्रदानकर गूंगे के मुख को वाणी से युक्त कर और मूर्खों को ज्ञान प्रदान कर | 

जाम घोष उदघोषते, भई सुनहरी भोर ।
उतरे दिनकर अरुन सहुँ, गहे अस्व की डोर ॥११ || 
भावार्थ : - रात्रि के प्रहरी के उद्घोषणा करते ही सुनहरी भोर हो गई अश्व की रश्मियाँ ग्रहण किए दिनकर अपने सारथी अरुण के साथ धरती पर अवतरित हुवे  | 

बूँद बूँद मसि धानि भइ,कागद भए खन खेड़ ।
बिअ के आखर सोँ चलौ, लेखें पौधा पेड़ ॥१२ || 
भावार्थ : - मसि धानी बुँदे हो गई कागद खेत खंड हो चले हैं  चलो अक्षरों के बीज रोपकर हम उसपर पेड़पौधे लिखते हैं | 

नैन गगन परि छाए रे मोरा स्याम घना।
मृदुल मंद मुसुकाए रे मोरा स्याम घना॥१३ || 
भावार्थ : - मेरे श्यामघन नैन गगन पर आच्छादित हो रहे हैं और वह मृदुल मंद विहास करते हैं | 

र सौं राजा राम लिखे घ संगत घन स्याम ।
जबहिं कछु लेखै लिखनी,लेखै हरि का नाम ॥१४ || 
भावार्थ : - र से राजा राम लिखे घ से घनश्याम लिखे यह लेखनी जब भी कुछ लिखे तो केवल हरि का नाम लिखे 

तन बिनु दुखी कोई मन बिनु धन बिनु कोउ उदास ।
थोरे थोरे सब दुखी, सुखी राम का दास ॥१५ || 

दूषक जन कहनी कहैं,ऐसी मरनी होए ।

ओछी करनी करि चलें, और हँसे ना कोए ||१६ || 

सासन कर अधिकारु दए जहँ के सासन तंत्र ।
दास करिता बसाए रहँ, नहि सो देस सुतंत्र ॥१७ || 
भावार्थ:- जहाँ का शासन तंत्र अपने ही दासकर्ताओं को शासन का अधिकार देकर उन्हें वसवासित रखता है वह देश स्वतंत्र नहीं होता ।.....

लोक जाग जगरीति नहि होतब जहाँ सबेर |
घनियारि रैन रहे तहँ ब्यापत घन अँधेर || १८  ||
भावार्थ : - जहाँ लोक जागृति न हो जनमानस स्वकर्तव्य के विषय में सचेत न हों वहां स्वातंत्र का प्रभात होने पर भी नियम व् नीतियों का अभाव रूपी घना अन्धेरा व्याप्त करती दासता की काली रात्रि ही रहती है |

नियत नियंतन जोग हैं, नेम निबंधन सोए ।
बिधि सम्मत होई के, नीतिमान जो होए ॥१९-क  || 
जन हुँत पालन जोग हैं, नेम निबंधन सोए ।
बिधि सम्मत होई के, नीतिमान जो होए ॥१९-ख || 


भावार्थ :- " वही नियम-निबंधन नियंत्रण व निर्धारण के योग्य हैं जो विधि सम्मत होकर लोक-व्यवहार के निर्वाह हेतु नियत की गई नीति के अनुसार आचरण करने वाले हों....."
 " वही नियम-निबंधन जन-सामान्य द्वारा पालन योग्य हैं जो विधि सम्मत होकर लोक-व्यवहार के निर्वाह हेतु नियत की गई नीति के अनुसार आचरण करने वाले हों....."

उदाहणार्थ:- यदी राजा व नेता लोग यह नियम निर्धारित कर दें कि अब से कोई भोजन नहीं करेगा, जो करेगा वह 1सहस्त्र मुद्रा से दण्डित किया जाएगा । यह नियम दमनकारी व विधि के असम्मत होने के कारण जन-सामान्य द्वारा पालन योग्य नहीं है.....

दान करे न दया करें सत्कृत करे न कोइ | 
धर्म परायन जन अजहुँ  उदरपरायन होइ || २० || 
भावार्थ :- दया करते हैं न दान करते हैं न ही कोई सत्कर्म ही करते हैं, जो लोग कभी धार्मिक प्रयोजन में संलग्न रहते हैं वह अब केवल अपने उदर पूर्ति में संलग्न रहते हैं |