Friday 16 September 2016

----- ॥ दोहा-द्वादश 1॥ -----

लघुवत वट बिय भीत ते उपजत बिटप बिसाल । 
बिनहि बिचार करौ धर्म पातक करौ सँभाल ॥ १ ॥ 
भावार्थ : -- एक लघुवत वट बीज के भीतर से एक विशाल वृक्ष उत्पन्न होता है । अत: पुनीत कार्य करते समय उसके छोटे बड़े स्वरूप का विचार न करें । पतित कार्य करते समय उसके छोटे बड़े स्वरूप का सौ बार विचार करें । क्षुधावन्त की क्षुधा को शांत करने के लिए अन्न का एक दाना भी पर्याप्त होता है यह एक दाना खेत में पहुँच जाए तो फिर अनेक से अनेकानेक होकर भंडार भरने में समर्थ होता है ॥  अपात्र को दिया गया एक अभिमत, दाता के नारकीय पथ को प्रशस्त करता है ॥

" संकल्प हीन मनोमस्तिष्क ही विकल्प का चयन करता है " 

जो कारज कृत कठिनतम बढ़ि बढ़ि कीजिए सोइ । 
ताहि कृतब का होइया करिअ जाहि सब कोइ ॥ २ ॥ 
भावार्थ : -- जिन पुनीत कार्यों को करना कठिन हो वह पुण्य प्रदाता कार्य होते हैं अत: उन्हें करने के लिए सदा उद्यत रहना चाहिए । जो सरल हों जिसे सभी करते हो ऐसे सत कार्य पुण्यदायक नहीं होते ॥ 

सो धर्म केहि काम कर जौ जन करै अकाम | 
बिरवा बुवावै न एकहु बैठा खावै आम || ३ || 
भावार्थ : -- वह धर्म संसार के किसी काम का नहीं जो अपने अनुयायियों को कर्म से अलिप्त कर उन्हें अकर्मण्य बनाता हो | जिसकी आम खाने में तो रुचि हो पेड लगवाने में नहीं | 

सो धर्मि केहि काम कर जौ तन करै अकाम | 
बिरवा बुवावै न एकहु बैठा खावै आम || ४ || 
भावार्थ :-- वह अनुयायी भी संसार में किसी काम के नहीं जो अपने शरीरको कर्म से अलिप्त कर उसे अकर्मण्य बना देते हों | जिसकी आम का रसास्वादन करने में रूचि हो किन्तु अपने शरीर से पेड लगवाने में नहीं || 

सीस उतारी जब तेउ डारि दियो सद ग्रंथ | 
कर सत करतब छाँड़ियो  धरिअत चरन कुपंथ || ५ || 
भावार्थ ;-- जब से शिरोधार्य सद्ग्रन्थ अधस्तात होकर त्याज्य हो गए तब से चरण कुपपंथगामी और हस्त कृत कर्मों से विमुख हो गए  ||

आया तू संसार में देख पके पकवान | 
निसदिन खावन में रहा बिछुरे तन ते प्रान || ६ || 
भावार्थ :--कर्मों में संलिप्त जीवन की कहानी लंबी होतीहै | कर्मसे अलिप्त जीवन की कहानी केवल एक पंक्ति में संकुचित होकर रह जाती है | जीवन चरित्र ऐसा हो जिसपर ग्रन्थ लिखा जा सके ऐसा न हो कि मात्र इतना लिखे ;--  "संसार में आया था, पके पकवान देखा ,खाया और चला गया....." 

मानस देहि जनम लियो,रहियो अपनी कान | 
हरा भरा जग करा नहि करो न मरु अस्थान || ७ || 
भावार्थ :--  मनुष्य देह में जन्मे जीव को चाहिए कि वह अपनी मर्यादा में रहे |
संसार को हरा-भरा  नहीं किया कोई बात नहीं उसे मरुस्थल में परिवर्तित न करे |
उसने पुण्य नहीं किया कोई बात नहीं वह पाप तो न करे |



जल के संगत कीजिये, हरियाली ते हेत |
मरत भूमि न त होइही चहुँपुर रेतहि रेत || 8 || 
भावार्थ : - 'जल ही जीवन है' हमें जल-संरक्षण के संगत सदैव हरियाली के लिए उत्प्रेरित रहना चाहिए | यदि हरियाली की उपेक्षा की गई तो यह भूमि मृतप्राय होकर जीवन से रहित मरुस्थल में परिवर्तित हो जाएगी तब इसके चारों ओर मिट्टी के स्थान पर रेत ही रेत व्याप्त रहेगी | 

जाके पंथ पहुँच बिना सो पहुंचे दरबार | 
बोलिए तो स्वान कहे भूकन दे झकमार || ९ ||  

भावार्थ : - ये लोकतंत्र के नाम पर चल रहे भ्रष्टतंत्र का ही चमत्कार है कि जिनके पथ पहुँच से विहीन है वह सत्ता में पहुँच गए है और पहुंचे हुवे पर शासन कर रहे है | यदि इन्हें कोई कुछ बोले तो ये उन्हें कुत्ता कहकर दुत्कारते हुवे कहते हैं भूँकने दो ! संविधान अपना कौन सा कुछ बिगाड़ लेगा | 

दया धर्म बिरोधी भए सत्ता पर आसीन |
अगजग सो पथ चालिआ जो पथ पहुँच विहीन || १० ||


भावार्थ : - दया और धर्म का विरोध करने वाले सत्ता पर आसीन हो गए हैं, इनका अनुशरण करते हुवे अब लोग उस पथ पर चल पड़े हैं जो पथ कहीं नहीं जाता |



मैं मैं कर आसन गहे अधमस की पहचान | 
तू तू कर पाछे रहे उत्तम तिनको जान ||११ || 
भावार्थ : - योग्यता मैं मैं की संकीर्ण विचार धारा से मुक्त होती है |  मैं मैं के साथ कोई पद, आसन अथवा सिंहासन प्राप्त करना यह निकृष्ट अधिष्ठाता के लक्षण है, तू तू करते जो सबसे पीछे रहता है वह इन प्रपंचों के हेतु उत्तम अधिष्ठाता होता है | 



घूँघट ते मरजाद भलि नर नारी को होए | 
बँध रहे न निरबँध रहे भले नेम कर जोए  || १२ || 

भावार्थ : - घूँघट से ही सद्चरित्र का गठन होता है यह आवश्यक नहीं |  नर हो अथवा नारी या नाड़ी इनके लिए घूँघट से मर्यादा उत्तम है | ये न तो बंधन में रहे न स्वच्छंद रहे तथा उत्तम नियम व् रीति का पालन करे ( तभी इनमे शील व् सदाचार का गठन संभव है ) 

संत  कबीरदास जी ने भी कहा है : -
जो कामिनि परदै रहे, सुनै न गुरुगुण बात । 
सो तो होगी कूकरी, फिरै उघारे गात ॥ 518 ॥
भावार्थ : - यदि स्त्री घूंघट में रहे तो गुण व् ज्ञान वाली बातें नहीं सुनती, लज्जाहीन रहे तो उसका स्वभाव स्वान के अनुरूप हो जाता है | 

Wednesday 24 August 2016

----- ।। उत्तर-काण्ड ५५ ।। -----

बुधवार, २४ अगस्त, २०१६                                                                                                  

सिय केर सुचितई मानद हे । तव सहुँ छदम न कोइ छद अहे ॥ 
न तरु हमहि न देवन्हि सोंही । यह कछु मन महुँ भरमन होंही ॥ 
हे मानद ! सीता की शुद्धि के विषय में आपसे न कोई दुराव है न छिपाव | तत संबंध में न हम से और न  देवताओं से ही कुछ गोपनीय है | यह जन-मानस  के मन का भ्रम मात्र ही था | 

हरहि तमस जिमि प्रगस पतंगा । दूरए मन  निभरम ता संगा ॥ 
कहत सेष मुनि जगद निधाता । भगवन जद्यपि सरब ग्याता ॥ 
जिस  प्रकार सूर्य उदयित होकर अन्धकार का हरण कर लेता है, उसी प्रकार उक्त घटना से यह भ्रम भी दूर हो गया | शेष जी कहते हैं : -- हे मुनि! जगत विधाता भगवान यद्यपि सर्वज्ञाता हैं  

तद्यपि मुनि एहि बिधि समुझायउ । सुनि असि अस्तुति सहुँ सिरु नायउ ॥ 
लषन सोंहिं बोलिहि एहि  बाता । सुमित्र सहित कृत करिहु ए ताता ॥ 
तद्यपि वाल्मीकि मुनि ने उनका प्रबोधन किया मुनि वर की ऐसी स्तुति श्रवण कर प्रभु नतमस्तक होकर लक्ष्मण से बोले :--हे तात ! तुम सुमित्र का संग प्राप्त कर यह कर्तव्य करो;

सती सिया पहिं चढ़ि रथ जाहउ। जमल सहित तुर आनि लिवाहउ ॥ 
करएँ जुग कर बिनति सब कोई  । करौ सकार अजहुँ सुत दोई ॥ 
तुम रथारूढ़ होकर युगल पुत्रों सहित धर्माचारिणी सीता को ले आओ | सब लोग करबद्ध होकर मुझसे विनति कर रहे हैं कि आप अपने दोनों पुत्रों को स्वीकार करें | 

मोर अरु मुनि केर कही कहियउ तहँ सब बात । 
अवध पुरी लेइ अइहौ कहत मात हे मात ॥ 
माता माता की गुहार करते हुवे  तुम  मेरे तथा महर्षि वाल्मीकि द्वारा कहे  इन वचनों को निवेदन कर उन्हें अयोध्या पुरी ले आना |  

अहो भगवन अजहुँ मैं जइहौं । सीअहि मातु कहत समुझाइहौं ॥ 
सुनिहि जो तुहरे प्रिय सँदेसा । आनि पधारन  सो एहि देसा ॥ 
अहो भगवन ! माता जानकी के प्रबोधन हेतु मैं तत्काल प्रस्थान करता हूँ आप महानुभावों का सन्देश श्रवण कर यदि वह यहाँ पधारने के लिए : -- 

आइहि मोर संग सिय माई । होइहि तबहि सुफल मम जाई ॥ 
अस कह लखनउ आगिल बाढ़े । प्रभो अग्या सोंहि रथ चाढ़े ॥ 
मेरे साथ आती हैं मेरी यात्रा तभी सफल होगी | रामचंद्र जी से ऐसा कहते हुवे लक्ष्मण आगे बढकर उनकी आज्ञा से रथारूढ़ हो गए | 

अरु मुनिबर के सिस लय संगा । सुमित्र सहित रथ भयउ बिहंगा ॥ 
प्रिय प्राना पति अति परम सती । होहि केहि बिधि मुदित भगवती ॥ 
और मुनि शिष्यों को साथ लेकर सुमित्र सहित वह रथ विहंग के समदृश्य हो गया | पति को प्राणों से भी अधिक प्रिय परम सती भगवती सीता किस प्रकार प्रसन्न होंगी | 

बिकलित मन मानस अस सोचिहि । कबहुँ हरष करि कबहुँ सकोचिहि ॥
एहि बिअ बिचहुत मति बिरझाईं । अतुर परन कुटि देइ दिखाई । 
ऐसा  विचार करते लक्ष्मण के व्याकुल मनोमस्तिष्क में कभी हर्ष होता  कभी संकोच होता |  इन दोनों भावों के बीच उनकी मति उलझ रही थी | शीघ्र ही उन्हें सीता की पर्ण-कुटिया दिखाई देने लगी | 

एहि दसा पैठि रथ चरन पथ श्रमु गयउ सिराए । 
तुरतई पुनि जगन मई जननि देइ देखाए ॥ 
इसी दशा में रथ के चरणों ने वहां प्रवेश किया | कुटिया को दर्शकर पथ जनित शिथिलता जाती रही,  जगन्मयी जननी के भी तत्काल ही दर्शन हो गए | 

रविवार, २८ अगस्त, २०१६                                                                                         

भय अस्थिर रथ चरन तरायल । तुरै तरिय तरु मंडित अस्थल  ॥ 
सिथिरीभूत सीतहि नियराए । कहत ए लखन कण्ठ  भर ल्याए ॥ 
रथ के वेगवान चरण स्थिर हुए शीघ्रता पूर्वक रथ से उतरे |  शिथिलित लक्ष्मण वृक्षों से सजी हुई स्थली पर माता सीता के समीप गए, यह कहते उनका कंठ भर आया कि 

पूजनिअइ हे पेम परिमिता । हे भगवति अति सुभग परिनिता ॥ 
हे आर्ये हे मंगल करनि । बिभव अपार भव सागर तरनि ॥ 
हे अपरमित प्रेम से पूज्यनीय ! हे देवी भगवती | हे अत्यंत सौभाग्य शाली स्वामिनी ! हे आर्ये ! हे कल्याणमयी ! हे वैभववान संसार रूपी अपार सिंधु की नौका ! 

बहोरि कातर रूप निहारे । बोधत अस गहि पद महि पारे  ॥ 
सियहि बत्सल पेम के साथा । बिहबल होति लम दुहु हाथा ॥ 
कातर दृष्टि से निहारकर ऐसा सम्बोधन करते फिर वह उनके चरणों में गिर पड़े | जानकी माता वात्सल्य प्रेम से विह्वल होकर दोनों हस्त प्रलंबित किये | 

नहि नहि कहति नयन भर पानी । उठइ लषन अति करिअ ग्लानी ॥ 
भरिअ सोहाग रहिअ बिरागी । तासों एहि बिधि पूछन लागी ॥ 
और अश्रु पूरित नेत्रों से नहीं नहीं कहते अतिशय ग्लानि करते लक्ष्मण को उठाया और सौभाग्य से परिपूर्ण होकर भी संसार से विरक्त वह साध्वी  इस प्रकार प्रश्न करने लगी --

जौ बेहड़ बन मुनि महर्षि प्रियकर महतिमह तपसि जन के । 
ब्याल कराल जौ भालु बाघ अरु केहर कुंजर गन के ॥ 
कंदर खोह अगम अगाध नदीं नद जो बिनहि रबि किरन के ।  
कंटक कांकर गहबर मग अँधेरि छादित जौ तरुवन के ॥ 
जो विकट वन मुनियों, महर्षियों व् महानतम तपस्वियों को प्रिय है जो विकराल हिंसक जंतुओं, भालुओं, सिंहों व् हाथियों का है | जहाँ सूर्य की किरणों से विहीन अगम्य घाटियां, गुहाएँ, अगाध नदी व् पर्वत है | जिसका मार्ग कंकड़ों, कांटो से युक्त होने के कारण दुर्गम और वृक्षों के आच्छादन से अन्धकारमय है | 

हरिअहि हय हेरिहि केहि, तव डग डगर भुराए । 
दूरत नगर सौम्य हे  कहौ इहाँ कस आए ॥  
क्या किसी ने  भगवान श्रीराम के अश्व का हरण कर लिया है ?  हे सौम्य ! उसकी शोध में नगर से दूर होते क्या तुम्हारे चरण पथभ्रमित हो गए ? कहो तो यहाँ किस हेतु आगमन हुवा ? 

बृहस्पतिवार ०१ सितम्बर, २०१६                                                                                 

मातु गरभ गह सुकुतिक रूपा । उद्भयउ मनि मुकुता सरूपा ॥ 
अराधित देउ मोरे  नाथा । अहहि न धनि  सुख सम्पद साथा ॥ 
माता के शुक्तिक रूपी गृह से मणि मुक्ता स्वरूप में उद्भवित होने वाले मेरे आराध्य देव, मेरे नाथ सुख की सम्पदा से धनि तो हैं न ? 

सजल नयन पुनि कहि हे नागर । जग अपकीरति कारन रघुबर ॥ 
कि राखन साँच मोहि त्यागे । होइँ कुपथ चर प्रजा न आगे ॥ 
सजल नेत्रों से फिर सीता ने कहा हे देवर ! जग अपकीर्ति के कारण अथवा सत्य की रक्षा के लिए रघुवर ने मेरा त्याग कर दिया इस हेतु कि भविष्य में कहीं प्रजा कुपंथ गामी न हो जाए | 

दय बन करिअब बिरहन मोही । त्याज काज सौंपि प्रभु तोही ॥ 
होइ ताहि सों एहि संसारा । तासु बिमल कीरत बिस्तारा ॥ 
मेरे परित्याग का कार्य तुम्हें सौंपा और मुझे विरहणी बनाकर वन दिया | यदि इससे इस संसार में उनकी विमल कीर्ति विस्तृत होकर : -- 

जुग जुग लग अस्थिर कृत होईं  । तासों बड़ संतोष न कोई ॥ 
अजहुँ होउँ किन मैं बिनु प्राना । रहएँ जसोधन प्रान निधाना ॥ 
युग युग तक स्थिरकृत हो तब इससे बड़ा कोई संतोष नहीं है |  मैं प्राण हीन क्यों न हो जाऊं किन्तु मेरे प्राण निधान यशस्वी रहें यह मेरी अभिलाषा है  | 

मोर नयन हरि पेम पियासे । यह मन मंदिर बरें दिया से ॥ 
रुचिर बसन मनि भूषन साजे । मंजुल मूरति रूप बिराजे ॥ 
मेरे नेत्र हरि प्रेम के प्यासे हैं जो मेरे मन मंदिर में दीपक बनकर प्रज्जवलित हैं जहाँ वह सुन्दर वेश व् मणि आभूषण से सुशोभित मनोहर मूर्ति रूप में विराजित हैं | 

अह दयालु परम कृपालु कौसल्या महतारि । 
अहहि न सकुसल अनंदित  अवध सहित सुत चारि ॥ 
अहो ! मुझ पर दया व् कृपा रखने वाली माता कौसल्या चारों पुत्र सहित अयोध्या में कुशल व् प्रसन्न तो हैं न ? उन्हें कोई कष्ट तो नहीं है ? 


शुकवार, ०२ सितंबर, २०१६                                                                                            

रिपुहन भरतादि सबहि भ्राता । अहहि न सकुसल सुमित्रा माता ॥ 
चाहिब अधिक् प्रान ते मोही । मम दुखारत रहँ न सुख सोंही ॥ 
शत्रुहन भरतादि सभी भ्राता कुशल हैं न ?  और सुमित्रा माता सकुशल हैं न ?  जो मुझे अपने  प्राणों से भी अधिक प्रिय मानती हैं जो मेरे दुःखी होने  से जो स्वयं सुख का अनुभव नहीं करतीं | 

कहौ अहैं कस पियतम मोरे । पूछत एहि जब करिय निहोरे ॥ 
लोचन अरु जल बोह न बोही । बालिहि लषमन पुनि सिय सोंही ॥ 
कहो  तो मेरे प्रियतम कैसे हैं  माता जानकी ने लक्ष्मण से जब यह प्रश्न निवेदन किया तब उनके नेत्र जल कभार को वहन न कर सके तब वह उनसे बोले : -- 

देइ सकुसल अहहि महराई । पूछत रहँ तुम्हरि कुसलाई ॥ 
सुमित सहित मातु कैकेई । आहि सकुसल सबहि हे देई ॥ 
' हे देवी ! महाराज कुशलपूर्वक हैं और आपकी कुशलता पूछ रहे हैं | सुमित्रा सहित माता कैकेई भी सकुशल हैं हे महारानी !  

रहिब रागि अरु जो रनिबासा । करिअ निरंतर तोर सुखासा ॥ 
गुरुजन सहित सकल गुरुनारी ।  तुम होउ सुखारी ॥ 
राजभवन की अन्य सभी देवियाँ निरंतर आपके सुख व मंगल की कामना करती रहती हैं | आप जहाँ भी हैं वहां सुख पूर्वक रहें गुरुजन सहित सभी गुरुपत्नियों ने  --

दए असीस जनि पेम अपूरे। तोर जिआ आपन जिअ भूरे ॥ 
तुहरे पदुम चरन सिरु नाई । कुसल प्रसन कृत दोनहु भाई ॥ 
आपको यह प्रेमपूरित आशीर्वाद दिया वह आपकी प्रसन्नता के लिए अपनी प्रसन्नता भूल गईं | दोनों भ्राताओं ने  कुशल-प्रश्न के साथ   आपके  पदम् चरणों में प्रणाम निवेदन किया है| 

रघुनन्दन कहत ए बचन नयन नीर भर लाए । 
पालि मम कहिअ गवन बन जानकिहि जाहु लिवाए ॥ 
महाराज श्री रघुनंदन यह कहते हुवे नयनों में जल भर लाए कि जो  मेरे कथनों का शब्दश:अनुशरण कर वन गामी हो गईं तुम उस जानकी को लिवा लाओ | 

शुक्रवार, १६ सितम्बर, २०१६                                                                                                      

रघुकुल मनि अब रहएँ बुलावा । तोहि ल्यावन मोहि पठावा ॥ 
ह्रदयँ रहस प्रगसभव बानी । पोषत प्रीत पलकन्हि पानी ॥ 
रघुकुल  मणि अब बुला रहें हैं आपको लेने के लिए उन्होने मुझे भेजा है | ह्रदय का रहस्य वाणी द्वारा व्यक्त हो जाता है पलकों का पानी प्रीति का पोषण करती है |  

भरे कण्ठ यह कहिब भनीता । सुनहु सतीहि सिरोमनि सीता ॥ 
दीनदयाकर कृपानिधाना । जन जन कहत मोहि भगवाना ॥ 
उन्होंने भरे कंठ से यह वक्तव्य कहा है : --  ' हे सतीयों की शिरोमणि !हे सीते दीं दुखियों पर दया करने वाले, कृपा के निधान कहकर जन-जन मुझे ईश्वर स्वरूप कहते हैं | 

मोर मते जौ जग करतारी । सौइ  अदरस  करम अनुहारी ॥ 
होइ रहेब जगत महुँ जोई । ताकर अदरस कारन होई ॥ 
किन्तु मैं कहता हूँ, जो परमेश्वर है वहभी अभी कर्मों में अदृष्ट काही अनुशरण करता है | जगत में  जो कुछ होता है उसका स्वतन्त्र कारण अदृष्ट ही है | 

तोर बरन खंडित भए चापा । कैकेई मति भरम ब्यापा ॥ 
पितहि मरन में बन गवनन में । दनुज कर तहँ तुहरे हरन में ॥ 
धनुष खंडित कर मेरे द्वारा तुम्हारा वरण करने में, कैकेई माता की बुद्धि भ्रमित होने में,पिता के स्वरारोहण में, हमारे वनगमन में, दानवों के द्वारा वहां तुम्हारे हरण में, 

बँधेउब पयधि पार तरन में । सहाय कृत केर सहायन में ॥ 
समर समर औसर जब आईं ॥ कपि भल्लुक सबु होए सहाई ॥ 
सेतु बंधन में, समुद्र के पार उतरने में, मित्रों द्वारा सहायता प्रदान करने में, युद्ध-युद्ध में जब भी अवसर आया तब तब भालुओं और कपियों की सहयोग किया | 

बधत दनु तुम्हरे मिलन में । अरु बहुरि मम पन अपूरन में ॥ 
निज बांधव सहुँ होइ सँजोगा । राज जोग करि प्रिया बियोगा ॥ 
रावण का वध और तुम्हारी प्राप्ति में, तदनन्तर मेरे प्रण की पूर्ति में, पुन : अपने बंधुओं  से संयोग होने में, राजयोग के कारण तुम्हारे वियोग में,

निगदित कारज कर एकहि कारन अदरस होइ  । 
पुनि सो होत मुदित जुगित करिअब हमहि सँजोइ ॥ 
उक्त कार्यों का एक मात्र ही अदृश्य कारण है अब वही अदृश्य पुन: हमारा संयोग करने हेतु प्रमुदित हो  रहा  है | 


सोमवार , १९ सितम्बर, २०१६                                                                                   


जिन्ह सुधिजन के बिसद बिचारा । अदर्स करिहि सोइ अनुहारा ॥ 
भुगत भोग सो तासु नसावा । तुहरी  भुगुति बन अपूरावा ॥ 
जिन्ह विद्वानों के उत्तम विचार होते हैं वह भी अदृष्ट का ही अनुशरण करते हैं | उस अदृश्य का भुक्तने से ही क्षय होता है, वन में रह कर तुमने अपना भुक्तान पूर्ण कर लिया || 

 तुहरे प्रति मम सद अस्नेहा । बढ़तै गयउ नित निसंदेहा ॥ 
सोए नेह निंदक परहेला । अजहुँ तोहि सादर  दए हेले ॥ 
सीते ! तुम्हारे प्रति मेरा अकृत्रिम स्नेह है निसंदेह वह निरंतर बढ़ता ही गया है | आज वही स्नेह निंदकों की उपेक्षा करके तुम्हें आदर सहित बुला रहा है | 

सनेह सरित दोषु कर संका । लहत मलिनपन गहत कलंका  ॥ 
दोषु धुरावत मिटिहि बिषादा । दए तबहि नेह रस असवादा ॥ 
स्नेह की  सरिता दोष की आशंका मात्र से मलिनता को प्राप्त  होकर कलंक से लिप्त हो जाती है | दोषों के परिष्करण से जब विषादों का  निवारण हो जाता है  स्नेह रस तभी माधुर्यता प्रदानकर्ता है | 

दोषु धरिअब करिअ संदेहू । होत बिमल ते अबिमल नेहू ॥ 
देय बिपिन में तोहि त्यागा ।  भयउ बिसद अस मम अनुरागा ॥ 
कल्याणी ! दोषारोपण द्वारा संदेह करने पर निर्मल स्नेह भी मलिन हो जाता है |  मैने तुम्हारा त्याग किया और वनवास देकर  तुम्हारे प्रति मैने अपने अनुराग को शुद्ध ही किया है | 

तजि अहो तुम्ह मोर तईं, करिहु न हृदय बिचार  । 
निंदक राखन किया मैं सुबुध चरन अनुहार ॥ 
तुम मेरे द्वारा त्याग दी गई हो, ह्रदय में ऐसा विचार न करना | शिष्ट पुरुषों के मार्ग का अनुशरण करते हुवे मैने तो निंदकों की भी रक्षा ही की है | 
रविवार, २९ जनवरी, २०१७                                                                        
                                                                           
दोषु धरिअब करएँ निंदाई । तासु सब बिधि हमरि सुचिताई ॥ 
साधु चरित कर कहहिँ बुराइँहि । सो हतमति आपहि बिनसाइँहि ॥ 
देवि ! हम दोनों की जो निंदा की गई है इससे प्रत्येक अवस्था में हमारी शुद्धि होगी | जो मूर्ख शिष्ट पुरुषों के चरित्र को लेकर निंदा करते हैं वह स्वयंको ही नष्ट हो जाते हैं | 

पूरन ससि निभ निसि उजयारी । उजबरित तस कीरति हमारी ॥ 
कृत करतब किरनन जस कासिहिं । दुहु कुल दिनकर सरिस प्रकासिहिं ॥ 
जिस प्रकार पूर्ण उज्ज्वलित चन्द्रमा रात्रि को प्रकाशयुक्त कर देता है उसी प्रकार हमारी  कीर्ति भी उज्जवल चन्द्रमा है हमारे कृत कर्म उसकी किरणों के सदृश्य हैं  हम दोनों के कुल सूर्य के समान प्रदीप्तवान हैं | 

हमरे बिरद करहि गुन गाना । होहि बिसद मनि मुकुत समाना ॥ 
सुनहु सिया भव सिंधु अपारग । जाहि हमरी भगति सो पारग ॥ 
जो हमारी इस उज्जवल कीर्ति का गुणगान करेंगे वह नर नारी मणि व् मुक्ता के सदृश्य सदैव उज्जवल रहेंगे | हे सीते सुनो ! यह भव सिंधु से पार उतरना कठिन है किन्तु हमारी भक्ति से वह सहज ही पार हो जाएगा | 

तोर गुन ते मुदित रघुनाथा । येहु सँदेसु दियो मम हाथा ॥ 
दरसन पदुम चरन निज नाथा । करिहु बिचार न चलिहउ साथा ॥ 
तदनन्तर लक्ष्मण ने कहा : - 'माते ! इस प्रकार आपके गुणों से प्रसन्न होकर रघुनाथ जी ने यह मेरे द्वारा यह सँदेश दिया है | एतएव अब आप अपने पतिदेव के चरण- दर्शन हेतु  अन्यथा विचार न कर मेरे साथ चलिए | 

धरत माथ पद पदुम परागा । करतब बहुरि भूरि निज भागा ॥ 
मातु सदय अब हरिदै कीजौ । मोहि  लेइ गत आयसु दीजौ ॥ 
उनके पदुम चरणों की धूलि रूपी परागों को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करने के लिए हे माते ! अपने हृदय को उनके प्रति सदय बनाइये मुझे आपको लिए जाने की आज्ञा दीजिए 

जगज जननी लए आपनि संगत दोउ कुमार । 
चलिहु बेगि प्रान पति पहि करौ न सोचु बिचार ॥ 

हे जगज्जननी ! अब अन्यथा विचार न करते हुवे दोनों कुमारों को अपने साथ लीजिए और शीघ्रता पूर्वक  प्राण पति के पास चलिए | 

मंगलवार, ३१ जनवरी,२०१७                                                                      
भई सिथिर सुनु हे महरानी ।पथ निहारति रामु रजधानी ॥ 
चढ़ि गज बैठ अधरिया ऊपर । आगिल चलिअहि दुहु जुगल कुँअर ॥ 
हे महारानी सुनिये ! आपकी प्रतीक्षा करते भगवान श्रीरामकी राजधानी अयोध्या भी थकित हो गई है | दोनों युगल कुमार हस्ती की पृष्ठिका पर आसीन होकर आगे आगे चलेंगे | 

चढ़िअ सिबिका कटकु सँग लागे । छाँह करिहि घन बन मग माँगे॥ 
रहिहु मध्य तुम बाहन आछे । चलिहौं मैं तव पाछहि पाछे ॥ 
आप सेना के साथ संलग्न  सघन विपिन के दुर्गम मार्ग में  इच्छानुसार छाया प्रदान करने वाली इस सुन्दर शिविका पर विराजित होकर उत्तम वाहनों के मध्य में रहिएगा और मैं आपके पीछे पीछे चलूँगा | 

एहि बिधि अवधहि नगरि पधारउ । धरि पद रजस रजस उद्घारउ ॥ 
निज पिय ते मिलिहउ तहँ जाईं  । मख अस्थरि दिसि दिसि ते आईं ॥ 
इस प्रकार अयोध्या की पावन पुरी में पधारे और अपने चरणों से वहां की धूलिका के कण कण का  उद्धरण करें |  वहां चलकर जब आप अपने प्रियतम श्रीराम से मिलाप करेंगी तब यज्ञ स्थली में दूर -दूर से आईं हुई :- 

राज रागि संगत ऋषि नारी । हरषिहि बिरहन तापु बिसारी ॥ 
प्रनमत कौसल्या महतारी । छाइ तासु उर आनंद भारी ॥ 
राज-महिलाओं सहित सभी ऋषि-पत्नियां वियोग के संताप को विस्मृत कर हर्षित हो जाएंगी, जब आप माता कौसल्या को प्रणाम करेंगी तब उनका हृदय भी आनंद से पूरित हो जाएगा |

बाजनि बृंद बहु बिधि कर बाजिहि बिबिध बिधान । 
मधुर धुनि सौं सरस राग गाइहि मंगल गान ॥ 
राज-महिलाओं सहित सभी ऋषि-पत्नियां वियोग के संताप को विस्मृत कर हर्षित हो जाएंगी, जब आप माता कौसल्या को प्रणाम करेंगी तब उनका हृदय भी आनंद से पूरित हो जाएगा |

बुधवार, १ फरवरी, २०१७                                                                   


हरि निवास श्री वासिहि जैसे । धूमधाम अरु होहि न कैसे ॥ 
तव सुभागम हेतु कल्याना । जाइ मनाइहि परब महाना ॥ 
हरि निवास में तो जैसे श्री का वास हो रहा है फिर वहाँ राग-रंजन क्यों न हो आपका शुभागमन कल्याण के हेतु है अतएव अयोध्या में समारोह पूर्वक आनदोत्सव मनाया जाएगा | 

कहत सेष सुनि येह सँदेसा । कहइँ सिया एहि बचन बिषेसा ॥ 
अहहि जग पहि पदारथ चारा । अह रे मैं रिति सबहि प्रकारा ॥ 
शेष जीकहते हैं : - हे मुनिवर ! यह सन्देश सुनकर माता सीता ने यह वहां विशेष कहे कि यह संसार चार पदार्थों से युक्त है धर्म,अर्थ काम व् मोक्ष आह ! मैं सभी प्रकार से शुन्य हूँ | 

दरिद दासि यह कहँ महराजा । समरिहिं मम तैं कहु को काजा ॥ 
पानि गहे जब मोहि बिहावा । जोइ मनोहरता तन छावा ॥ 
कहाँ यह दरिद्र दासी और कहाँ महाराज कहो तो भला मेरे द्वारा उनका कौन सा कार्य सिद्ध होगा ? पाणि ग्रहण कर जब उन्होंने मुझसे विवाह किया था तब उनके श्रीविग्रह जो मनोहरता ग्रहण किए हुवे था | 

बसिहि रूपु सो हरिदै मोरे । ता सहुँ सब दिन रहि कर जोरे ॥ 
यह छबि उर कबहु न बिलगाई । तासु तेज सों दुइ सुत जाई ॥ 
उनका वह स्वरूप मेरे हृदय भवन में बसा हुवा हैं जिसके सम्मुख में नित्य हाथ जोड़े रही  यह  छवि मेरे हृदय से कभी वियुक्त नहीं हुई उनके तेज से मैने इन युगल पुत्रों को जन्म दिया | 

अहहि कुँअर एहि बंस अँकोरे । हीर रुचिर बरु बीर न थोरे ॥ 
लहि बिसेख जुगता दुहु भाई । धनु बिद्या मह गह निपुनाई ॥ 
ये राजकुमार उनके वंश बीज के ही अंकुर हैं ये सुन्दर दो हीरे अत्यंत वीर हैं || निपुणता ग्रहणकर धनुर्विद्या में  इन्होने विशेष योग्यता प्राप्त की है |  

सघन बन बहु जतन तेउ पालि पौषि हौं ताहि । 
जाहु संग लए दुहु कुँअर पितु पहि काहे नाहि ॥ 
इस सघन विपिन में मैने इनका पालन-पोषण बड़े यत्न से किया है इनके पिता के पास तुम इन्हें ही क्यों नहीं ले जाते ?  

बुधवार, १५ फरवरी, २०१७                                                                         


तप तैं निज इच्छा अनुहर के । अधर नाउ धर एकु रघुबर के ॥ 
मैं बिरहन अब एहि बन रहिहौं । कीरत कृत नित हरि गुन कहिहौं ॥ 
मैं विरहन तपस्या के द्वारा निज इच्छा के अनुसार अधरों पर रघुनाथ जी के नाम को धारण कर अब इसी वन में रहूंगी और उन हरि की कीर्ति का कीर्तन करते उनका गुणगान करूंगी | 

जाइ तहाँ तुम पूजित जन के । अरु अवध कर आनंद घन के ॥ 
परस चरन कह मोर प्रनामा । कहिहु कुसल सब लए मम नामा ॥ 
महाभाग ! तुम  वहां जाकर पूज्यनीय जनों सहित  अयोध्या के आनंदघन  श्री रामचन्द्र के चरणों को स्पर्श कर मेरा प्रणाम कहना और मेरा नाम लेकर मेरी कुशलता कहना | 

होत बिनैबत बोलि सपेमा । पूछिहउ पुनि सबहि के छेमा ॥ 
बहोरि भरि अनुराग बिसेसा  । दुहु बालकन्हि देइ अदेसा ॥ 
विनम्र होकर स्नेहिल वाणी से उन सभी की कुशल क्षेम पूछना | तदनन्तर माता ने विशेष अनुराग से भरकर  दोनों बालकों को आदेश दिया | 

रे बच्छर तुअ पितु पहि जाहू । दए आदर अतिसय सब काहू ॥ 
मातु बंधु गुरु कह पितु देबा । गहिब चरन करिहौ बहु सेबा ॥ 
अहो वत्स ! अब तुम अपने पिता के पास जाओ वहां सभी को  अत्यंत  आदर करते हुवे पिता को ही माता, बंधू, गुरु और देवता कहते उनके चरणों को पकडे उनकी  सेवा शुश्रूता में संलग्न रहना | 

मातु चरन होएब बिलग दोउ कुँअर चहँ नाहि । 
एहि इच्छा बिनु कहब किछु राख रहे मन माहि ॥
कुमार कुश और लव नहीं चाहते थे कि हम  माता के चरणों से विलग हों | इस इच्छा को व्यक्त न कर उसे मन में ही रखा | 

जनि अग्या सिरुधार के  गहे एकहि एक हाथ । 
सिथिर चरन उपरि मन पुनि चलेउ लखमन साथ ॥ 
तदोपरांत जननी की आज्ञा शिरोधार्य कर एक दूसरे का हाथ पकड़े इच्छा न होते हुवे भी वे शिथिल चरणों से लक्ष्मण के साथ चल पड़े |

बृहस्पतिवार १६ फरवरी, २०१७                                                                        


पहुंच तहाँ दुहु सियसुत नीके । गयउ नकट बाल्मीकि जी के ॥ 
गहिब गुरुपद रहिब जुगगाथा । गयउ लखमनहु तहँ तिन साथा ॥ 
वहां पहुंच कर सीता के दोनों सुन्दर बालक वाल्मीकि जी के निकट गए | करबद्ध होकर अपने गुरु की चरण वंदना की, लक्ष्मण भी उनके साथ गए | 

सुमिरत अकथ अनामय नामा । प्रथमहि महर्षि करिअ प्रनामा ॥ 
बहोरि महर्षि लषन प्रसंगा । चलेउ दोउ कुँअर करि संगा ॥ 
हरि के  अनिर्वचनीय नाम का स्मरण करते हुवे सर्वप्रथम महर्षि को प्रणाम किया | तब महर्षि और दोनों कुमारों एक साथ मिलकर लक्ष्मण के संग चल पड़े | 

जान सभा भित कृपा निधाना । मानेउ मन न केहि बिधाना ॥ 
जागिहि दरसन कर अभिलासा । गयउ अतुरइ सबहि प्रभु पासा ॥ 
जब कृपा निधान भगवान को सभा में स्थित जाना, तब  मन किसी भांति नहीं माना वह सभी अधीरतापूर्वक भरी सभा में प्रवेश करते हुवे प्रभु के निकट गए 

बोलिहि बन जो बिरहनि माता । करि प्रनाम कहि सो सब बाता ॥ 
धूपित पंथ मिलहि जब छाहीं |  सोक सँग तब हर्ष निपजाहीं ||  
जब जब लखमन सिय सुधि करहीं ।  तब तब बारि बिलोचन भरहीं ॥ 
हरिदै थल जल भए दुइ भावा ।  भयउ  मगन अरु तीर न पावा ॥ 
उन्हें प्रणाम करके वन में विरहिणी माता ने जो कुछ कहा था वह सब निवेदन कर दिया | सूर्य से आतप्त पंथ में जब प्रभु की छात्र-छाया प्राप्त हुई, तब शोक के संग हर्ष उत्पन्न हो गया लक्ष्मण जब जब सीता का चिंतन करते तब तब उनके नेत्रों में जल भर आता इस प्रकार जल व थल रूपी इन दोनों भावों में निमग्न ह्रदय को तट की प्राप्ति नहीं हुई |

कहत प्रभु रे सुनहु सखे बहुरि तहाँ तुम जाइ । 
महा जतन करि कै सियहि, आनिहु लए अतुराइ ॥ 
यह वृत्तांत श्रवण कर श्रीरामचंद्र जी ने कहा : - 'सखे ! तुम पुनश्च वहां जाओ और महान प्रयत्न करते हुवे सीते को यथाशीघ्र यहाँ ले आओ |''

शुक्रवार, १७ फरवरी, २०१७                                                                                    

लगि पद सबिनय दुहु कर जोरे । कहहु सिय ते ए बत कहि मोरे ॥ 
साँझ लखिहु न लखिहु तुम भोरा । करहु सघन बन तप घन घोरा ॥ 
चरणों में नतमस्तक होते हुवे हाथ जोड़कर सीता से विनयपूर्वक मेरी ये बातें कहना : - 'तुमने न भोर देखा न संध्या देखी और इस बेहड़ वन में घनघोर तप करने में लीन रहकर  

देखिअ सुनिअ न जग बिन होइ । मम तै अबरु तकिहु गति कोई ॥ 
तुहरे हिय कछु प्रिय नहि जाना । सदा कहिहु पिय प्रान समाना ॥ 
मुझसे भिन्न उस गति का लक्ष्य कर रही हो जो कहीं देखि न सुनी गई हो जो संसार में हुई न हो ? तुम्हारे ह्रदय ने तो मुझे ही प्रिय समझा है तुमने सदैव मुझे प्राण पति कहा है | 

जिअ बिनु देह नदी बिनु बारी । तैसिअ नाथ पुरुख बिनु नारी ॥ 
तनु धनु धाम धरनि पुर राजू । पत बिहीन सबु सोक समाजू ॥ 
जैसे बिना जीव के  देह और बिना नीर के  नदी  है, वैसे ही हे नाथ ! बिना पुरुष के नारी है | देह, धन, धाम, पृथ्वी,नगर और पति के बिना स्त्री के लिए यह सब शोक के समाज हैं |   

नाथ सबहि सुख साथ तिहारे । सरद बिमल बिधु बदनु निहारे ॥ 
पिय बिनु सुखद कतहु किछु नाही । रहसि चहत अजहूँ बन माही ॥
हे नाथ !आपके साथ रहकर आपका निर्मल चन्द्रमा के समान मुख देखकर मुझे  संसार के सभी सुख प्राप्त होंगे | पति के बिना कहीं सुख नहीं होता यह तुमने ही कहा था तुम ही अब वन में रहना चाहती हो | 

आपनि कहि बिसराए के पिया संग परिहारि । 
घन हठ हृदयँ बिचार करि सुनिहु न मोरि गुहारि ॥ 
अपने कथन की अवहेलना करके पति का साथ त्याग रही हो | हठ योग का आश्रय लेकर ह्रदय में मेरे त्याग का विचार करते तुम मेरी पुकार नहीं सुन रही हो | 

शनिवार, १८ फरवरी, २०१७                                                                              

जेहि बन अस्थरि रिषि मुनि मन भाइँ । निज इच्छा ते तहाँ तुम आइँ ॥ 
दरसत मुनि पूजिहु रिषि नारी । पूर भई अभिलाष तिहारी ॥ 
जो वनस्थली मुनियों के मन को प्रिय है वहां तुम स्वेच्छा से गई हो | जहाँ तुमने ऋषियों का दर्शन कर ऋषि पत्नियों का पूजन किया | तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण हुई |  

अजहुँ नयन तव पंथ निहारिहि । निसदिन हिय सिय सियहि पुकारिहि ॥ 
आजु प्रीत यहु पूछ बुझाईं । तोहि काहे न देइ सुनाई ॥ 
अब मेरे नेत्र तुम्हारे आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं मेरा हृदय नित्य सीता सीता की ही पुकार करता है आज मेरी प्रीति तुमसे प्रश्न कर रही है, मेरे ह्रदय की यह पुकार तुम्हें क्यों नहीं सुनाई देती | 

पतिब्रतासति कतहुँ कि न होईं । गहि एकु पति गति अबरु न कोई ॥ 
होए सो जड़ चहे गुनहीना । धन बिहीन बिनु श्रम अतिदीना ॥ 
पतिव्रता सती कहीं भी क्यों न हो पति के अतिरिक्त उसकी अन्य कोई गति नहीं है  जो मूर्ख अथवा गुणहीन हो चाहे धन व् उद्यम से विहीन होकर अत्यंत दीन हो | 

ऐसेहु पति गुन सिंधु समाना । पावहि नतरु नारि दुःख नाना ॥ 
होइबी जो पति मन अनुकूला । सुनहु सिया सो सुखकर मूला ॥ 
ऐसा पति गुणहीन होने पर भी गुणों का सागर है अन्यथा पति से विहीन पत्नी नाना दुखों को प्राप्त होती है |  यदि पति मनके अनुकूल हुवा, वह सुख का मूल है तब उसकी मान्यता के विषय में कहना ही क्या | 

रहे हृदयँ गोसाइँया गहियबआदरु मान । 
सोइ जगदातम श्रीपति सह सिउ सती समान ॥ 
वह पत्नी के ह्रदय का अधिष्ठाता बनकर अतिसय आदर व् सम्मान को प्राप्त करता है | वही जगदात्म लक्ष्मी के नारायण व शिवा के शिव समान होता हैं | 


सोमवार, २० फरवरी, २०१७                                                                              

करहि कुलीन तिय कारज जेतु । होत सो सब पति तोषन हेतु ॥ 
पुर्बल परम पेम ते पोषा । रहा तुम्ह पर मैं परितोषा ॥ 
उत्तम कुल की स्त्रियां जितने भी मांगलिक कार्य कराती हैं वह सब पति के परितोषण हेतु ही होते हैं |  परम प्रेम से पोषित होने के कारण मैं पहले से ही तुमसे संतुष्ट रहा हूँ | 

पाइब बिरह प्रीति अरु गाढ़हि । एहि समय परितोषु अरु बाढ़हि ॥ 
जप तप तीरथ ब्रत कि त्यागा । दान दया यहु धर्म बिभागा ॥ 
विरह को प्राप्त होकर यह प्रीति और गहरी हो गई इस समय मेरा यह संतोष भी बढ़ गया है | जप, तप, तीर्थ, व्रत, त्याग दान व् दया यह धर्म के विभाग हैं | 

करहिं जबहिं प्रसन्नचित मोही । सोई साधन सुफल तब होंही ॥ 
पद बंदन मम तोषन तेऊ । होइब पारितोषित सब देऊ ॥ 
मेरे अर्थात ईश्वर के प्रसन्न होने पर ही ये साधन सफल होते हैं | मेरे संतुष्ट होने पर सम्पूर्ण देवता भी संतुष्ट हो जाते हैं | 

मम कहि नाहिन तनिक सँदेहू । अबरु बचन इब मृषा न ऐहू ॥ 
देखिअ द्रबित रूपु नरहरी के । कहेउ लषन धीरजु धरी के ॥ 
मेरे कथन पर किंचित मात्र भी संदेह नहीं है अन्य वचनों के सामान यह भी  मृषा नहीं सत्य है | नरहरि का द्रवित रूप देखकर लक्ष्मण ने धैर्य धारण करते हुवे कहा : -- 

सिया अनाई हेतु कहिहु जोइ जोइ रघुराइ । 
कहिहउँ सबिनय बना अति भल सोइ सोइ तहँ जाइ ॥  
माता सीता को लिवा लाने के उद्देश्य से आपने जो जो बातें कहीं वह सब  बातें मैं वहां जाकर और भली प्रकार से उन्हें विनयपूर्वक निवेदन करूँगा | 



  
 






















Friday 5 August 2016

----- ॥ टिप्पणी १० ॥ -----

>> आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि एक अहिंसावादी शुद्ध शाकाहारी कहा जाने वाला समाज
जीव-जंतु के प्रति क्रूर, हिंसावादी, मांस-मदिरा के व्यसनी नेता-मंत्रियों वाले भारत की अर्थ-प्रबंध के रीड़ है वह प्रत्यक्ष कर में ७०% से अधिक का योगदान देता है.....

>>  विश्व-भ्रमण की अभिरुचि व् अन्यान्य व्यक्तिगत कार्यों हेतु प्रधानमंत्री के पद का दुरुपयोग कैसे किया जाता है ये कोई भारत में देखे.....

>> जनमानस गधे के जैसे पैसा कमाए, फटे हुवे कच्छे बनयान में रहकर रूखी सुखी खाए और अपनी इस  सारी कमाई को पंच परिधान पहनने, वायुयान में विराज विदेशों में, होटलों, भव्य भवनों, गुलछर्रे उड़ाने के लिए इन मंत्रियों के चरणों में अर्पित कर दे तब तो वह साहूकार अन्यथा कर चोर.....क्यों.....?

>> प्रभात बेला समाप्त भी नहीं हुई थी,मैने शिक्षा से सम्बन्धिक कुछ्ह वस्तुएं क्रय की, ३०० रूपया का डाका पड़ गया जबकि प्रति दिवस १३००/- की आय है.....
राजू : -- हाँ ! श्रम करम किए बिन जिनको मिलिया भोजन चीर |
                    कहत सुधि सो का जानै करदाता की पीर ||
                    भावार्थ :-- सुधि जनकहते हैं : - जिनको काम कमाई किये बिना भेंट में  बढ़िया बढ़िया कपड़े,  भव्यभवन और उत्तम भोजन मिल जाता हो,  जिन्होंने देश को कभी कर नहीं दिया हो वो करदाता की पीड़ा क्या जाने.....
>> यह विडम्बना ही है जिस देश का आदर्श वाक्य सत्यमेव जयते व् अहिंसा परमो धर्म: है वहां अधिकांश आवासीय विद्यालयों के भोजनगृह में बच्चों को मांस का भक्षण करवा कर हिंसा करना सिखाया जाता है और कक्षा में अहिंसा का पाठ पढ़ाया जाता है.....

>> मादकता का व्यापार करने वाले व् कसाई घरों में हिंसा का खुला खेल खेलने वाले शासको का शासन तंत्र यदि लोकतंत्र है तो धिक्कार है ऐसे लोकतंत्र को..... 

>> "हिंसक मानसिकता अपराधिक प्रवृति को प्रोत्साहित करती है"
हमारे नगर में पास के एक होटल में मनुष्य का मांस ४००/- प्रतिकिलो की दरसे बिकता मिला | प्रतिरोध करने पर खाने वाले ने तर्क दिया ये मेरा खाने-पीने का अधिकार है |
क्रूरता परकाष्ठा को पार कर एक भययुक्त वातावरण निर्मित करती है
क्रूरता सदैव अवैध ही होती है |
पशुहिंसा की स्थिति ऐसी ही रही तब मनुष्य मनुष्य का ही भक्षण करने लगेगा ....

>> प्रतिदिन छत पर थोड़े से दाने व कसोरे में पानी रखिए फिर देखिये,
आपके घर के आसपास, कौंवा,चिड़िया,कबूतर कोयल गाने लग जाएंगी

राजू : --हाँ और आप घर बैठे कवि बन जाएंगे वो भी बड़े वाले.....
            किसी गधे की छोटे छोटे पॅकेज वाली नौकरी से तो येई ठीक है,
            समझे होशियारों.....? अब आत्माह्त्या मत करना.....

>> पोथि लिख लिख सबु कह मुए भयो न पंडत कोए ।
      ढाई आखर कर्म का कियो सो पंडित.....?

राजू :--होए.....

>> राजू बताओ किस गधे ने ऐसी पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा खम्बा कहा था : -
१) इस गधे ने २) उस गधे ने ३) इस उस गधे ने ४) इन सभी गधों ने

राजू :-- मास्टर जी! किसी खच्चर ने कहा था ?

अच्छा तू क्या है
राजू :- हरेक बात पे पूछते हो की तू क्या है

ख़्वाब हूँ बस नजरों में मिरा आशियाना है.., 
नींदे-गफलत के वाबस्ता ये गरीब ख़ाना है..... 
>> किसी धर्म विशेष के अनुयायायियों के आराध्य का जन्म स्थल तीर्थ स्थल होता है.....
एक सामान्य से मंदिर अथवा मस्जिद अथवा गिरजाघर में और एक तीर्थ स्थल में अंतर है.....

>> कितने बरस हो गए 'बाप जी' को खाट भोगते..... ?
     प्रतियोगी परीक्षाओं में अब ये प्रश्न पूछा जाने लगा है,
      उत्तर पूछने वालों को भी पता नहीं है.....


>> हिन्दू उपासना पद्धति मरुस्थल को भी वनस्थली में परिवर्तित करने में सक्षम है
राजू : -- हाँ परीक्षा के लिए किसी मरुस्थल में एक शिव लिंग भर स्थापित कर दो  फिर देखो भारतीय धार्मिक नारियां  सींच सींच कर  पीपल, वट, आंवला, नीम, बेल, कदम्ब, आम आदि वृक्षों से  कैसे उसे दोहरा  करती हैं.
>> भारत में अब भी मुसलामानों का ही राज है, काले नोट  पर लाल किले को देखकर ऐसा मेरे को ही लगता है की आप लोंग को भी लगता है.....?
>> ' अपनी सत्ता -अपनी मुद्रा ' अब देश इस मुद्रा व्यवस्था के लिए भी तैयार रहे....
>> १५ अगस्त, १९४७ यह तिथि इतिहास के काले पन्नों पर सत्ता के लालचियों द्वारा भारत के टुकड़े टुकड़े कर सत्ता प्राप्ति की तिथि के रूप में उल्लखित होगी.....

>> राजू ! पता है इन दिनों प्रधान मंत्री क्या कहते फिरते हैं..,?
      राजू : -- क्या मास्टर जी.., ?
      " काश ! मैं पुरुष होता..,
      राजू : -- किन्तु मास्टर जी ! चुनाव से पहले तो वे कहते थे की मैं महापुरुष हूँ.....

>> अपनी बिरादरी के सहयोग से पड़ोसी कश्मीर को मार्ग बना कर देश में अंतरस्थ हो गया है , और ई मंत्री जी सीमापार कर प्रोटोकॉल मांगने गए थे ?  घर में ही काहे नहीं दे दिए.....

 राजू : -- हाँ तो जब शत्रु अपने आस-पास हो , तो इधर-उधर जाने की क्या आवश्यकता.....
             
प्रकृति से इतर मनुष्य की कल्पना नहीं की जा सकती पाश्चात्य देशों में वैज्ञानिकों द्वारा प्रकृति से खिलवाड़ चिंतनीय व् आनुवांशिक रूपान्तरण के नाम पर जीव-जगत पर क्रूरता सर्वथा निंदनीय है चुहे इनसे सर्वाधिक पीड़ित हैं संवेदन शील लोग इसका विरोध करें |  इनके शरीरमें गुणसूत्रों (जींस )को आरोपित कर इन्हें रोगों के वाहक बनाकर यूं ही छोड़ दिया जा रहा है जिससे भविष्य में भयावह स्थिति उत्पन्न हो सकती है औषधियों की खोज अवश्य होनी चाहिए किन्तु ऐसे नहीं | रोगों का उपचार से अच्छा है हम रोगों के कारणों को समाप्त करें.....





Thursday 4 August 2016

----- ॥ दोहा-पद॥ -----

घनक घटा गहराए जिमि भोर लखइ नहि भोर । 
झूलए झल जल झालरी मुकुताहल कर जोर ॥ 

बारि बरसात डारि डारि फुर पात अँगना अमराई फरे |  
जर नूपुर गुँजात थरी थरी देखु सखि हरि हरु रँग भरे || 
खेह खेह भए कनक देह ससि कनि कर मनि मोतिया धरे | 
कंठि माल कटि करधनिया जिमि धरनि के  कर कँगना परे || 


भावार्थ : - हे सखी ईश्वर जलवर्षा कर रहे हैं जिससे डाल-डाल पर पुष्प-पत्र पल्ल्वित हो उठे आँगन की अमराइयाँ फलीभूत हो गईं | जल रूपी नूपुर का मधुर गुंजन करते हुवे ईश्वर ने प्रत्येक स्थली को हरे रंग से भरकर हरिण्मय कर दिया है | अन्न- कणिकाओं के मणि मोतियों को धारण किये खेत की देह मानो स्वरणमयी हो गई है ( अथवा गेहूँ से परिपूर्ण हो गई है ) इन स्वर्णमय खेतों से ऐसा प्रतीत होता है मानो  कंठ-माल, करधनी, कंगन धारण कर धरती ने श्रृंगार किया हो | 

Sunday 31 July 2016

----- ।। उत्तर-काण्ड ५४ ।। -----

रविवार, ३१ जुलाई, २०१६                                                                                                 


तुम त्रिकाल दरसी रघुनाथा । बिस्व बदर जिमि तुहरे हाथा ॥ 
लोगहि चरन सरन जिअ जाना  । बोधिहौ मोहि सोइ बखाना ॥ 
हे रघुनाथ ! आप तो त्रिकाल दर्शी हो,यह चराचर विश्व आपके करतल पर रखे बद्रिका के समान है । लोकाचार के आश्रय आपने मुझसे ज्ञातित प्रसंग पूछा । 

तथापि प्रभो सबहि दिन जैसे । कहिहउ जसि करिहउँ मैं तैसे ॥ 
सिरोमनि तुम सबहि के राई । कहौं  बृतांत  सुनहु गोसाईं ।॥ 
तथापि प्रभु में सदैव की भांति आपकी आज्ञा का अनुशरण करूंगा ॥  आप सभी राजाओं के शिरोमणि हो  अत: हे स्वामिन  ! जो आपने पूछा मैं वह वृत्तांत कहता हूँ सुनिये  : -- 

सिरु पतिया सोहत अति भारी । प्रभो तुरग सो कृपा तिहारी ॥ 
पथ पथ पुर पुर पौरहि पौरे । बिरमन बिनहि भूमि बन भौंरे ॥ 
 प्रभो ! आपका कृपापात्र होकर भालपत्र के कारण शोभा को प्राप्त वह अश्व रहित पंथ-पंथ, नगर-नगर, द्वार-द्वार भूमि-भूमि, वन-वन  में व्यवधान से रहित होकर विचरता रहा ॥   

दिनकर कुल अस तेज प्रचंडा । निज बल केहि न होइ घमंडा ॥ 
पुरबल हय को गहिब न पारा । जो बल गरब गहिब सो हारा ॥ 
दिनकर वंश का पराक्रम ऐसा प्रचण्ड है कि उसके सम्मुख किसी भी राजा को अपने बल पर दर्प नहीं हुवा  । पहले तो किसी ने उस अश्व का हरण नहीं किया, जिसने किया वह परास्त हो गया ॥ 

प्रभो श्री चरनन सिरु नत सब नृप सहित समाज । 
जोग जुग पानि आनि लिए अरपिहि निज निज राज ॥ 
पुरजन परिजन पुत्र-पौत्र सहित वह नृप  प्रभु के श्री चरणों में अपना -अपना राज्य समर्पित कर विनय पूर्वक नतमस्तक हुवे ॥ 


गह सकै हय जोइ अवनीसा । अहहिं कहु त को असि बिजिगीसा ॥ 
जोइ दनुजपत दसमुख हंता । जानत  ए सोए जाकर कंता ॥ 
कहिए तो पृथ्वी पर ऐसा कोई राजा है, जो विजय की अभिलाषा से इस अश्व का हरण कर सके ?  यह संज्ञान करते हुवे कि जो दानवपति दशानन के विनाशक हैं वह इसके स्वामी हैं | 

प्रभो मनोरम तुरगम तोरे । पहुँचिहि अहिच्छत्रा पुर पौरे ॥ 
रुर रुचिर अति रमनीअ देसू । बीर सुमद तहँ बसैं नरेसू ॥ 
प्रभु ! आपका यह मनोहर तुरंग सर्वत्र विचरण करता हुवा अहिच्छत्रा  के द्वार पर पहुंचा | यह देश अत्यंत रमणीय, सुन्दर व् शोभावान था |  राजा सुमद वहां के वासी थे और वीर भी थे | 

सुनि सो प्रबसि अस्व एकु नीके । अहहि अवध पति रघुबर जी के ॥ 
कह सँवारन नगर निकेता । बहुरि सहित सुत सैन समेता ॥ 
उन्होंने जब सुना एक सुन्दर अश्व ने राज्य में प्रवेश किया है जो अयोध्यापति श्री रघुनाथ जी का है तब नगर और घरों को सुसज्जित  करने का आदेश दे कर वह स्वयं सेना को साथ लिए पुत्रों सहित :-- 

गए रिपुहन पहिं प्रभु पद सेबा ।  सबहि सम्पत समरपत देबा ॥ 
बड़ बड़ पत जा सहुँ नत होई । प्रनत तव पद सुमद प्रभु सोई ॥ 
शत्रुध्न के पास गए अपना अकंटक राज्य आपके चरणों  की  सेवा में   समर्पित कर दिया | ये हैं राजा सुमद जो बड़े-बड़े राज-प्रभुओं के द्वारा सेवित आपके चरणों को प्रणाम करते हैं | 

तव दरसन उर लाह लिए आयउ पाए पयाद । 
अजहुँ  डिठी निपात ताहि देवौ कृपा प्रसाद ॥    
ह्रदय में आपके दर्शन की अभिलाषा किए यह चलकर आए हैं | इनपर दृष्टिनिपात कर अपने कृपा प्रसाद से इन्हें अनुग्रहित कीजिए  |  

सोमवार, १ अगस्त, २०१६                                                                                                          

करिअ रवन गयउ जब आगे । निद्रालस बस रजस कन जागे ॥ 
धावत गयउ नगर ते दूरे । घेर गिरिबन गगन भरपूरे ॥ 
वह  अश्व जब रव करता आगे बढ़ा त्वनिरावपन्थ में निद्रा के वशीभूत धूलि  के कण जाग उठे |  वह अश्व द्रुत गति से दौड़ता हुवा नगर की दृष्टि से ओझल हो गया, धूलि कण पर्वत एवं वनों को घेरकर गगन में व्याप्त हो गए | 

बहुरि सुबाहु नगर पगु धारा । जोहि जोइ बल सबहि प्रकारा ॥ 
तेहि के सुत दवन सुभ नामा । गहए ताहि त भयउ संग्रामा ॥ 
तदनन्तर उसने उस सुबाहु की नगरी में प्रवेश किया जो सभी प्रकार के बल से संपन्न था  | सुबाहु के पुत्र का शुभ नाम दवन था | उसने उस श्रेष्ठ अश्व को पकड़ लिया िर तो युद्ध छिड़ गया | 

जूझत मुरुछा गहि महि परयो । पुष्कल बिजै कलस कर धरयो ॥ 
तब महतिमह राउ सुबाहू । आयउ खेत भरे उर दाहू ॥ 
युद्ध करते हुवे वह मूर्छित हो कर धराशायी हो गया विजय कलश पुष्कल के हाथ की शोभा बना | तब  ह्रदय में विद्रोह की ज्वाला भरे महातिमह राजा सुबाहु का  रणक्षेत्र में आगमन हुवा  | 

चले समुह गरजत हनुमंता । भिरिहि तासु सो नृपु बलवंता ॥ 
ताकर ग्यानु श्राप बिलोपा । रहे न सुधि किछु उर भर कोपा ॥ 
वीर हनुमान गरजते हुवे उनका सामना किया बलवान राजा उनसे भीड़ गया | उनका ज्ञान श्राप से विलुप्त हो गया था ह्रदय में क्रोध भरा था इस हेतु उनका चित्त चेतना से रहित था |  

द्युति गति गत अति बलवत मारि चरन हनुमान । 
लगे श्राप दुराए गयो बहुरिहि गयउ ग्यान ॥  
विद्युत् की गति सी शीघ्रता का प्रदर्शन कर हनुमंत ने उनपर अपने चरण से बलपूर्वक प्रहार किया, इस प्रहार से उनका श्राप दूर हो गया और गया हुवा ज्ञान लौट आया |

मंगलवार, ०२ अगस्त, २०१६                                                                                            

पुनि सो महिपत प्रभु कर सेबा । सौंपि चरन निज सरबस देबा ॥ 
समर कला सब बिधि कुसलाया । प्रनमत बिनय बत जोइ राया ॥ 
तब उस राजा ने प्रभु के सेवार्थ आप श्री के चरणों में अपना सर्वस्व सौंप दिया | समर कला में सभी प्रकार से निपुण जो विनय पूर्वक आपको प्रणाम कर रहे हैं, 

जाकर गाँठिल तुंग सरीरा । अहहि सुबाहु सोइ रनधीरा ॥ 
दया डिठी करि प्रभो निहारी । किजो तापर स्नेहिल बारी ॥ 
जिनकी देह हष्ट-पुष्ट व् अंग-अंग सौष्ठव को प्राप्त हैं यह  रणधीर यह राजा सुबाहु हैं | हे प्रभु ! आप दया दृष्टि से इनका विलोकन कर इनपर स्नेह की वर्षा कीजिए | 

तदनंतर मेधीअ तुरंगा । चोख चरत इब भयउ पतंगा ॥ 
आयउ देउ नगर संकासा । सुहा गहि अति बसिहि केलासा ॥ 
तदननतर वह यज्ञ सम्बन्धी अश्व तीव्र गति से गमन करते हुवे गगनचर होकर हवा से बातें करते देवनगरी के निकट पहुंचा | भगवान शिव जी के   निवासित होने के कारण वह नगरी अत्यंत सुशोभित हो रही थी | 

तहँ घटे सो बिदित सबु काथा । आए इहाँ आपहि रघुनाथा ॥ 
मिलिहि बहुरि बधि बिद्युन्माली । सत्यवान नृपु बहु बलसाली ॥ 
स्वयं आपके पदार्पण से हे रघुनाथ ! वहां जो कुछ घटित हुवा वह सब कथा आपको विदित है | तत्पश्चात विद्युन्माली दैत्य का वध किया गया फिर अति बलशील राजा सत्यवान से मिले |   

आगिल कल कुंडल नगर चपरित चरण धराए ॥ 
भए समर सुरथ संग सो सब प्रभु तोहि जनाए ॥
आगे जाने पर अश्व के आतुर चरणों ने  कुण्डल नामक शोभनीय नगर में पधारे | प्रभो! वहां भी जो कुछ घटित हुवा वह सब आपको ज्ञात है |  

बुधवार, ०३ अगस्त, २०१६                                                                                             

बहुरि कुंडल नगर ते छूटा । बिचरत चहुँ दिसि बिनहि अगूँटा ॥ 
अजहुँ गहिब न केहि बरबंडा । निज बल करिअ न कोउ घमंडा ॥ 
कुण्डल नगर से निकलकर वह अश्व चारों दिशाओं में निर्बाध स्वरूप में विचरण करने लगा  अपनी बलशीलता पर फिर किसी ने घमंड नहीं किया और किसी वीर ने उसका हरण नहीं किया | 

भँमरत चपल चरन जबु फेरे । तेहि औसर सघन बन घेरे ॥ 
पहुंचसि प्रभु तव तुरग मनोरम । बाल्मीकि केर नीक आश्रम । 
पृथ्वी का चपलता पूर्वक  भ्रमण करते हुवे  आपका वह मनोहर तुरंग लौटते समय घने वनों से घिरे वाल्मीकि जी के रमणीय आश्रम में पहुंचा | 

गयउ माझ जूं बिटप समूहा । सुनहु तहँ जौ भयउ कौतूहा ॥ 
बीर बलो एकु बालकु आयउ । सोडस बरस बयस कुल पायउ ॥ 
और जैसे ही वह विटप समूह के मध्य भाग गया तबवहाँ जो कौतुहल हुवा उसे सुनिए | कुल षोडश वर्ष की अवस्था को प्राप्त वहां एक वीर बालक का आगमन हुवा | 

जति पटतर पट कर धनु धारा । रूप बरन रघुबर अनुहारा ॥ 
भाल बँधेउ पतिया पेख्यो । लिआ गहि पढ़ बतिया देख्यो ॥ 
उसका रूप-वर्ण आप श्री रघुनाथ का अनुशरण कर रहा था | जब उसने  अश्व के भाल पर आबद्ध पत्रिका का अवलोकन किया तब उसे हस्त-गत कर उसपर लेखबद्ध किये हुवे वक्तव्य को पढ़ा |  

घनक घटा गहराए जिमि भोर लखइ नहि भोर । 
सैन पाल काल जित असि करियो रन घन घोर ॥ 
गर्जती हुई घटाओं के गहरे हो जाने से जैसे भोर भोर रूप में परिलक्षित नहीं होती, उसने सैन्यपाल कालजित के साथ वैसा ही घनघोर संग्राम किया | 

बृहस्पतिवार, ०४ अगस्त, २०१६                                                                               

गह सो बीर तरल तलवारा । करा प्रहार धरातल पारा । 
बहुरि कला कृत एक ते ऐका । मारिब पुष्कल सहित अनेका ॥ 
उस वीर ने तीव्र धार से युक्त धारासार धारण कर  प्रहार करते हुवे उसे धराशायी कर दिया |  तत्पश्चात एक सी एक युद्ध कलाऐं करते हुवे अनेकानेक सैनिकों सहित पुष्कल को मार गिराया | 

रिपुदवनहु जबु ता सहुँ गयऊ । मर्माहत कृत मुरुछा दयऊ ॥ 
लह हरिदै दुःख दारुन दाहू । फरकेउ नयन अरु दुहु बाहू ॥ 
भ्राता   शत्रुध्न भी जब उसके  सम्मुख गए तब उसने मर्म पर आघात कर उन्हें भी मूर्छित कर दिया |  ( मूर्छा विगत होने पर )  ह्रदय में दारुण पीड़ा की दहन का अनुभव करके उनके नेत्र और दोनों भुजाएं फड़कने लगी | 

कोपहि असि जसि कोपि न काहू । दिए अघात करि मुरुछित ताहू ॥ 
होइ बीर सो हत चित जोंही । प्रगसि अबरु एकु बालक तोही ॥ 
फिर उन्होंने अब तक नहीं किया था ऐसा कोप किया, और आघात करते हुवे उस बालक को भी मूर्छित कर दिया | जैसे ही वह वीर हतचित्त हुवा वैसे ही वहां एक दूसरा बालक प्रगट हो गया | 

दरसन माहि दोउ एक रूपा । धनु कर जटा धर जति न भूपा ॥ 
दोउ एकहि एक होइँ सहाई । बहुरि जुगत दुहु करिब लड़ाई ॥ 
दिखने में उनका रूप एक जैसा था हस्तगत धनुष शिरोपर जटा न वह साधू थे न ही  क्षत्रिय थे | जब दोनों को  एक दूसरे का सहारा प्राप्त हुवा, तब फिर वह एकीभूत होकर संग्राम करने लगे |  

हय हस्ति बट अँट भट मरकट भरी चतुरंगनि सैन बिभो । 
फेरि बदन धुजा पट मुख धरी लटपट भय भर नैन बिभो ॥ 
उपटन चरन अह !घूँघट करी निरखिहि ऐंचा तैन बिभो ॥ 
धाई थरथरी कटि घट कर पिछु पछियावैं बैन बिभो । 

विभो !  हाथी घोड़ों से बटी एवं सैन्यदलों से अटी वानरों से भरीपूरी आपकी चतुरंगिणी सेना ध्वजा पट को अधरों में धारण किए भयार्त नेत्रों से मुख-मंडल  फेर कर चरणों में आघात के चिन्ह  लिए घुंघट किए हुवे उन बालकों पर तिर्यक दृष्टि का आक्षेप करती  कटती घटती थरथराती पीठ दिखाती भाग खड़ी हुई बालकों के बाण उसका पीछा कर रहे थे |  

किरीट कवच कल कुंडल मौलि मुकुट मनिहारी । 
सब सिंगार निहार सो हरि हर लियो उतारि । 
तत्पश्चात श्रृंगार पर दृष्टिपात कर उन बालकों ने  कंकण, कवच, सुन्दर कुण्डल, मनोहारी मौलिमुकुट आदि प्रसाधनों को उतारकर हरण कर लिया |

कर कोदंड कलित करे बले बलइ बल हार । 
अह सर्या कर धार सो, लेइ गयो चिन्हारि ॥ प्रभो 
प्रभो ! कोदंड को कलित करते हुवे हस्त बलि हारते उस चतुरंगिणी ने जो वलय (मुद्रिका ) वलयित की थी अहो !  उन उँगलियों (बाण)  को अपने हस्त में ग्रहण कर वह बालक उसे चिन्ह स्वरूप में ले गए |

वलय = दो दो पंक्तियों की सैनिक श्रेणी, मुद्रिका 
बल हार =  बलहार, बल का हार 
कोदंड = धनुष, भृकुटि 
शर्या = उंगली, बाण 

शुक्रवार, ०५ अगस्त, २०१६                                                                                           



बाँध्यो गहिब दुहु कपि कंता । एकु सुग्रीव एकु हनुमंता ॥ 
कसियो बलइ रसरि कर जोरी । परन कुटिर लय गयो बहोरी ॥ 
तदनन्तर उन्होंने सुग्रीव तथा महावीर हनुमान इन दोनों कपि नाथों को बाँधते हुवे इनके दोनों हाथों को रसरी से बलपूर्वक कसते हुवे अपनी पर्ण-कुटिया में ले गए | 

तदनंतर कृपाकर आपही । मेधीअ तुरग देइ बहुरही ॥ 
मरनासन पुनि सैन जियावा । अह साँसत जिअ महु जिअ आवा ॥ 
तत्पश्चात हमपर कृपाकरते हुवे स्वमेव यज्ञ सम्बन्धी तुरंग को लौटा दिया,  और मरणासन्न सैनिकों को जब जीवन-दान दिया संकटापन्न सेना ने तब चैन की सांस ली | 

लेइ गहिब सो हय सिरु नाईं । आए सरन त्रिभुवन गोसाईं ॥ 
ऐतकहि प्रभो मोहि जनाया । जिन्हनि प्रगसित सहुँ कहि पाया ॥ 
हे त्रिभुवनके स्वामी ! अश्व लेकर अब हम लोग आपकी शरण में आ गए |  जितना घटना-क्रम मुझे ज्ञात है वह मैने आपके सम्मुख प्रकट कर दिया |   

कहत अहिपत सुनहु बिद्बाना । घटना बलि जस सुमति बखाना ॥ 
बाल्मीकि कर आश्रमु नीके । बसएँ सुत जहँ जानकी जी के ॥ 
शेष जी कहते हैं : -- 'हे विद्वान मुनि सुनो ! जहाँ जानकीजी के पुत्र  निवास करते थे महर्षि वाल्मीकि के मनोरम उस आश्रम की वार्ता काटे हुवे सुमति ने जिस घटनावली का वर्णन किया | 

कवन सो बीर प्रभु अनुमानिहि । जानपनी सब जान न जानिहि ॥ 
राघव मंदिर महमखु होई । दीन्ही चरन मुनि सब कोई ॥ 
उससे प्रभु को यह ज्ञात हो गया कि वह वीर कौन हैं | वह उनके ही पुत्रहीन हैं यह जान बुझ कर भी वह अज्ञानी बने रहे | राघव के मंदिर  में  महायज्ञ का आयोजन  हो रहा है सभी मुनिगण का वहां पधारे हुवे हैं | 

तहँ सहुँ आनि पधारिहि बाल्मीकि मुनि राए । 
सब बिधान अनुमान के, तासों पूछ बुझाए ॥  
उनके साथ मुनिराज वाल्मीकि का भी आगमन हुवा  तब सभी प्रकार से विचार करते हुवे प्रभुने उनसे प्रश्न किया | 

रविवार, ०७ अगस्त, २०१६                                                                                   

मुनि तुहरे कुटि मम सम रूपा । कवन जमलज जौ जति न भूपा ॥ 
धनुर बिधा महुँ परम प्रबेका । समर कला कृति एक ते ऐका ॥ 
मुने ! 'आपकी कुटिया में मेरे समरूप युगल किशोर कौन हैं जो न यति हैं और न ही क्षत्रिय हैं | सुमति के कथनानुसार जो धनुर्विद्या में अत्यंत प्रवीण हैं जिन्होंने युद्ध की एक से बढ़कर एक कलाओं का प्रदर्शन किया |'

सचिउ सुमति मुख बरनै जैसे । होइ कहहु को चकित न कैसे ॥ 
किए मुरुछित रिपुहन समुहाई । हति खेत खेलाइ खेलाई ॥ 
सचिव सुमति ने जिस प्रकार से वर्णन किया कहिए तो फिर कोई चकित कैसे न हो ?  शत्रुध्न के सामना करने पर भरी रणभूमि में उन्होंने उसे   घायल करते हुवे खेल ही खेल में मूर्छित कर दिया | 

बाँधि लियो हँसि हँसि हनुमंता । छाँड़ दियो कसि तुरग तुरंता ॥ 
कौतुक उपजिहि मन किन काहू । बालकन्हि सब चरित सुनाहू ॥ 
महा बलशाली हनुमंत को  सरलता पूर्वक बाँध लिया तथा बांधे हुवे अश्व को  तत्काल मुक्त भी कर दिया | चित्त में कौतुक की उत्पत्ति फिर क्यों न हो | मुनिवर अब आप उन बालकों के चरित्र का परिचय दीजिए | 

बाल्मीकि मुनि कहए स्वामी । नराधिपत तुम अन्तर्यामी ॥ 
तुम निधान ग्यान गुन सीला । जानिहु प्रभो सबहि नरलीला ॥ 
तत्पश्चात वाल्मीकि मन ने कहा : -- हे नाथ ! आप ज्ञान गुण व् शील के निधान हैं प्रभो !  मनुष्यों की सभी लीलाएं आपको ज्ञात हैं |  

पूछेउ मोहि कहौं सो तुहरे मन परितोष । 
गहौ चरन कर दिजो छम जान कतहुँ मम दोष ॥ 
तथापि आपने कौतुकवश मुझसे प्रश्न किया है आपके मन की संतुष्टि के लिए उत्तर देता हूँ यदि मेरा कोई दोष परिलक्षित हो तब मैं चरण पकड़ कर आपसे प्रार्थना करता हूँ आप मुझे  क्षमा प्रदान कीजिएगा |  

सोमवार, ०८ अगस्त ,२०१६                                                                                        

जौ बेला तुम जनक किसोरी । प्रान समा सिय हियप्रिय तोरी ॥ 
दोषु बिनहि परिहर बन देहू । आनि न कबहु न केहि सपनेहू ॥ 
जिस समय आपने  ह्रदय को अत्यंत प्रिय अपनी धर्मपत्नी जनक किसोरी सीता को निर्दोष होने के पश्चात भी त्याग कर ऐसा वन वास दिया था जो कभी किसी ने स्वप्न में भी विचार नहीं किया | 

मन क्रम बच प्रभु पद अनुरागी । देहु गरभिनि सम्पद त्यागी ॥ 
बेहड़पन अत बनहि ब्यापा । बिहरत बिहरन करिहि बिलापा ॥ 
मन, कर्म और वचन से आपश्री के चरणों की अनुरागी आपके द्वारा त्यागी गई वह गर्भवती लक्ष्मी निबिड़तम वन में भटकती हुई आपके वियोग से दुखित होकर विलाप कर रही थी | 

ब्याल कराल बिहग बन घोरा । जग लग रयन बिलग न भोरा ॥ 
कातर कंठ करुना अस भारी । उपटन चरन चरिहि सुकुआँरी ॥ 
हिंसक जंतुओं एवं विकराल पक्षियों से सघनता से युक्त उस वन में ऐसा प्रतीत होता मानो  संसार में रात्रि  से प्रभात पृथक न होकर परस्पर एक हैं |  कातर कंठ में अत्यंत ही करुणा भरे घायल चरणों से वह सुकुमारी ऐसे वन में विचरण कर रही थी | 

पग बिनु डग मग रिपु बहु जाती । दहइ दारुन कुररि की भाँती ॥ 
दुःख आतुर अह बिलखति रोती । मुकुता गह मुख मुकुत पिरोती ॥ 
परिचालन से रहित वनमार्ग में चलने के कारण विविध प्रकार के कंटक उनके चरणों में समाहित होकर कठोर कुररी के जैसे पीड़ा दे रहे थे | आह ! दुःख से व्याकुल होकर रोती बिलखती सीप स्वरूप मुख में मुक्ता स्वरूप अश्रुबिंदुओं को पिरोती हुई : - 

दुखिया जनि गोसाईंया, निरखत बन मेँ ताहि । 
पुनि सादर निज परन कुटि लेइ गयो सँग माहि ॥ 
उस दुःखिनी को मैने जब उस वन में देखा हे स्वामी ! तब आदर सहित उसे मैं अपने साथ अपनी पर्ण-कुटिया में ले गया | 

मुनि बालक करनक चुगि ल्याए । करीर नठि सुठि कुटीरु बनाए ॥ 
तहँ दुहु जम कुल दीप जनावा । दीपित द्योति दहुँ दिसि छावा ॥ 
मुनियों के बालक पेड़ की पत्तियां, टहनी आदि संकलित कर लाए  तत्पश्चात उन्हें बांस संगठित करते हुवे एक सुन्दर कुटिया बना दी, वहां सीता ने  दोनों कुल दीपकों के जोड़े को जन्म दिया जो अपनी कांति से दसों दिशाओं को प्रकाशित कर रहे थे | 

एक कर नाउ कुस मैं राखेउँ । दूज लाल लव कहि भाखेउँ ॥ 
उजरै बिधु जिमि उजरै पाँखा । जुगल तनुज तिमि बढ़तै लाखा ॥ 
पहले बालक का नाम मैने कुश रखा तथा दूसरे लाल को लव कहकर सम्बोधित किया |  शुक्ल पक्ष में जिसप्रकार चन्द्रमा निरंतर वृद्धि को प्राप्त करता है उसी प्रकार ये दोनों जुटे कुमार भी वृद्धि को प्राप्त होते चले गए | 

चारिउं बेद सहित छहुँ अंगा । भयउ कुमार पढ़िय सब संगा ॥ 
दै बिद्या सब दिया जनेऊ । होए कुसल मुनि बालक तेऊ ॥ 
तदनन्तर इन दोनों बालकों ने अन्य मुनि बालकों के साथ छहों अंगो सहित चारों वेदों का अध्ययन किया | समस्त विद्या प्रदान कर यज्ञोपवीत संस्कार करते हुवे मैने इनका जनेऊ किया, प्रभु ! इन बालकों ने अन्य बालकों से अधिक प्रावीण्यता अर्जित की थी |  

आजुरबेद कि आयुध बेदा । सकल सास्त्र सहित सब भेदा ॥ 
करियउँ जगत निपुन रघुनाथा । बहोरि धरा माथ पर हाथा ॥ 
हे रघुनाथ ! यजुर्वेद हो कि आयुर्वेद हो रहस्यों सहित शस्त्र एवं समस्त शास्त्रों में इन्हें जब सर्वाधिक निपुण कर दिया तब इनके मस्तक पर हाथ रखते हुवे गुरुमंत्र देकर इनकी दीक्षा संपन्न की | 

षडज ते निषाद लग जब , सुर सरगम  कर जोग । 
मधुर मधुर गावहिं तब चितबहि चितबत  लोग ॥ 

षडज, मध्यम,गांधार से लेकर निषाद तक सभी सप्त स्वरों की संगती करके मधुरिम -मधुरिम गान करते तब इन्हें देखकर सभी लोग स्तब्ध हो जाते | 
बुधवार, १० अगस्त, २०१६                                                                                    


सत सुर माल कण्ठ कर बीना । करिहि सांगत त भयउ प्रबीना ॥ 
पूर पनब जब बजएँ मृदंगा । रंजनए छहुँ राग सहुँ रंगा ॥ 
कंठ में सप्त स्वर मालिका एवं हस्त में वीणा के संगत से  इन्हें संगीत में भी प्रावीण्यता प्राप्त हुई | पणब  पूर्णित मृदंग का वादन होता तब गायन और वादन के साथ छहों राग अनुरक्त हो जाते | 

जुगल केरि अस कौसल देखा । होहि मोहि पभु हरख बिसेखा ॥ 
परम् मनोहर श्री रामायन । तासु नितप्रति करैं सो गायन ॥ 
दोनों कुमारों का कौशल्य देखकर जब सब विस्मित रह जाते प्रभु! तब मुझे विशेष हर्ष होता और में इनसे परम मनोहर रामायण-काव्य का गान कराया करता | 

जानत ए के होवनिहारा । पूरबल जिन्ह रचि मैं पारा ॥ 
मधुप निकर जस मधुबन झौरहिं । करत गान तिमि बन बन भौरहि ॥ 
भवितव्य का ज्ञान होने के कारण पूर्व में ही मैने जिसकी रचना कर दी थी |  जिस प्रकार मधुवन में भौंरों के समूह गुंजन करते फिरते हैं उसी प्रकार ये दोनों बालक भी इस रचना का गान करते वन-वन फिरा करते |  

कुसुम कली कुसुमित अति सौंहे। खंजन सहित मृगहु मन मौहें ॥ 
गावत लय गति अति मधुराई । श्रोतस श्रुत श्रुत श्रुति सुख पाई ॥ 
उनके गायन से पक्षी एवं मृग  भी सम्मोहित हो जाते कुसुम की कलियाँ पुष्पित होकर वन को सुशोभित कर देती  लय में विलीन होने पर जब उनका गायन अत्यंत ही मधुर हो जाता तब श्रोतागण इसे सुन- सुन कर परम आनंद की अनुभूति करते || 

श्रुति सो गायन  श्रुति सुख पावन बारि पति पुनि एक दिवा । 
गहेउ हाथ निज साथ पुनि बिभावरि पुरी गयउ लिवा ॥ 
जुगल मुकुल मंजुल मनोहर सुर सागर करि पार गए । 
पावन पबित तव मृदुल चरित गावनि देउ आयसु दए ॥ 
उस मधुरिम गायन को सुनकर अपने कर्ण को तृप्त करने के लिए फिर एक दिन वारि नाथ वरुण उन बालकों का हाथ पकड़ कर उन्हें अपने साथ विभावरी पूरी ले गए, वहां उन्होंने जब  आपके  पावन पवित्र मृदुल चरित्र का गायन करने की आज्ञा दी तब वह मंजुल व् मनोहर युगल किशोर उसका गान करते हुवे स्वरों के सागर को पार कर गए | 

जनमत भगवन लगन परि बादिहि बादल बृन्दु । 
नाथ नयन  लह चहँ गगन सिय मुख पूरन इंदु ||  
जन्म  के पश्चात जब आप श्री भगवान  का शुभलग्न हुवा तब वारि वृन्द वाद्य वृन्दों के जैसे वादन कर रहे थे |  उस समय रघु नाथ के श्री नयन गगन के सदृश  तथा माता सीता का श्री मुख पुर्णेन्दु होने को उत्सुक थे | 

बृहस्पतिवार, ११ अगस्त, २०१६                                                                               
बादिहि बादल बृन्दु अगासा । झरिहि झर झर बिंदु चहुँ पासा ॥ 
भर भर कलसि करषि कर देईं । पियत पयस बूझै न पिपासा ॥ 
आकाश में वारि वृन्द के वादन से जल बिंदु भी नीचे गिरते हुवे झरझर की झनकार से निह्नादित हो उठे  | इस संगीत रस को कलशों में भर भर कर वह श्रोताओं को मनुहार पूर्वक प्रदान करते, भरपूर रसपान के पश्चात भी उनकी मधुरता से कोई भी तृप्त नहीं होता |  

दरसै छटा पुरुट पट डारे । अरुन प्रभाकर करिहि बिलासा ॥ 
कोमल करज जलज जय माला । पहिरावत मुख लवन ललासा ॥ 
मेघ- ज्योति को सुनहरे पट का घूंघट करते देखकर सांध्य काल का सूर्य जैसे विलास कर रहा था | कोमल हस्तांगुलियों में स्थित जलज की जयमाला को  माता सीता द्वारा भगवान के कंठगत करते हुवे उनके मुख पर लावण्य क्रीड़ा करने लगा |  

गिरि गहबरु अरु फिरैं पयादे । कुपित जनि जब दियो बनबासा ॥ 
हरिअ हरानत हरि अरि हरियो । ल्याए हरि हरि करिअ बिनासा ॥ 
कोप के अग्नि कुंड में स्नान जब प्रभु को जब माता कैकेई ने वनवास दिया तब वह पैरों से चलते दुर्गम  गिरि अरण्यों में भटकते फिरे | वहां जब रावण ने चौर्यकरण द्वारा आप हरि की श्री का हरण कर लिया तब शनै: शनै:  दानवों का सर्वनाश करके आप उन्हें ले आए | 

बिमनस मुख सो रभस दुरायो । सरस रहस बस बरुन निवासा ॥ 
कंठ ताल नूपुर दल पूरे  । गावहि झनक झनक चौमासा ।  
सीता के सीता के लौटने का प्रसंग श्रवण कर सरसता के वशीभूत वरुण के निवास में श्रोतागणों के वैमनस्य मुखों से शोक दूर हो गया था | कंठ व् तालव्य में नूपुर दलों को पिरो कर फिर तो जैसे वर्षा ऋतू भी उन बालकों के संगत झनक झनक करते हुवे गायन करने लगी | 

अबरु अबरु अरु गीति ग्याता । हितु हिती गन सहित हे ताता ॥ 
श्रुत बरुनप निज परिजन साथा । राजस रहस सरस सो गाथा ॥ 

अस तो सरस् पयस बहु होईं । तोर चरित ते अधिक न कोई ॥ 
सकल श्रोतस श्रवनतहि जाइहिं । चरित पयस नहि पियत अघाईं ॥  
ऐसे तो  रसमय अमृत अतिसय हैं किन्तु आपके चरित्र से अधिक पावन कोई सुधा  नहीं है यह सुधा से भी अधिक सरस है  | सभी श्रोतागण इसे श्रवण करते ही चले गए किन्तु इस अमृतमय चरित्र का रसपान  से  उनकी पिपाशा शांत नहीं होती | 

बरुन लोक मैं गयउँ बहोरी । करे अगवान दुहु कर जोरी ॥ 
द्रवीभूत मम बंदन करियो । पेम भाव हिय पूर न परयो ॥ 
मै भी उत्तम वरुण लोक में गया वहां वरुण ने हाथ जोड़कर मेरा अभिनन्दन किया एवं द्रवीभूत होते हुवे  मेरी पूजा एवं वंदना की |  उस समय  उनका  प्रेमभाव इतना अत्यधिक था की वह से मेरे छोटे से ह्रदय में नहीं समाया  |

रागिन रंग बयस गुन सोंही । बरुन जुगल पर प्रमुदित होंही ॥ 
सुनि रघुकुल मनि तजहि सगर्भा । कहिहि एहि बिधि सिया संदर्भा ॥ 
वह उन युगल बालकों के गायन व् वादन की विद्या तथा उनकी अवस्था एवं  गुणों से अत्यधिक प्रसन्न थे | जब उन्होंने सुना कि रघुकुल के शिरोमणि ने सीता को सगर्भ त्याग  दिया है तब उन्होंने ने उनके सन्दर्भ में यह निवेदन किया : -- 

सिय सम जग को सती न होई । अहहि अस पति बरता न कोई ॥ 
होहि सो गुन संपन्न कैसे । जोहि महि ससि सम्पदा जैसे ॥ 
सीता के समान जगत में न तो कोई सती है और न ही कोई ऐसी पतिव्रता है वह तो सभी गुणों से ऐसे संपन्न है जैसे पृथ्वी धन-धान्य की सम्पदा के  सन्निधान से संपन्न होती है | 

सील बिरधा रूपवती रघुबर देइ बियोग । 
पतिब्रता सिय परम सती नहि त्याजन जोग ॥ 
शील, अवस्था, व् रूप की राशि को रघुबर ने वियोग दिया यह पतिव्रता परमसती सीता कोई त्याज्य योग्य है ? 

बृहस्पतिवार, १८ अगस्त, २०१६                                                                                   
                                                                                
समर बीर पुनि जुगल जनावा । कहहु त असि सुभाग कहँ पावा ॥ 
चारित तेउ सदेउ पुनीता । परिहर देँ अस जोग न सीता ॥ 
तदनन्तर उन्होंने संग्रामवीर पुत्रों को जन्म दिया कहिए तो ऐसा सौभाग्य कहाँ प्राप्त होता है ? चरित्र से जो सदा से पवित्र हैं उसे त्याग दिया जाए वह सीता इस योग्य नहीं है | 

ताहि कर हम सबहि सुर साखी । राम बिनु सिय बिहग बिनु पाखी ॥ 
जासु चरन नित चिंतत जेहीं । मिले तुरतै सिद्ध फल तेही ॥ 
जिसके हम सभी देवता साक्षी हैं | राम के बिना सीता पंख के बिना पक्षी की भांति है | जो भक्त सीता के चरणों का चिंतन करते हैं उन्हें तत्काल ही सिद्धि का प्रसाद प्राप्त होता है | 

जगत सृजन थिति लय किन होही । होत सब श्री संकलप सोंही ॥ 
जिन सोंहि भगवद ब्यौहारा । सो त मरित अमरित की धारा ॥ 
संसार की सृष्टि, स्थति एवं लय आदि क्यों न हो उन शोभा श्री के संकल्प से वह सभी कार्य होते हैं | भगवद व्यापार भी उन्हीं से संपन्न होते हैं सीता ही मृत्यु है सीता ही अमृत की धार है | 

प्रभु जौ सूर सिया संतापा । प्रभु जौ जलधि सिया जल भापा ॥ 
प्रभु जौ गहबर घन सिय बारी । प्रभु प्रिय सियहि पदारथ चारी ॥ 
प्रभु यदि सूर्य हैं तो  सीता उस सूर्य का संताप है, प्रभु यदि जलधि हैं तो  सीता जल वाष्प है  | प्रभु यदि मेघ हैं तो सीता वर्षा है प्रभु की प्रिय सीता ही धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष है | 

ब्रम्हा शिव पद सिय सों पावा । तासु सबहि दिक् पाल जनावा ॥ 
जगदधात हे सर्ब ग्याता । जगद पिता तुम अरु सिय माता ॥
ब्रह्मा एवं शिव का पद सीता द्वारा ही प्राप्त होता है हम सभी लोकपालों को वही उत्पन्न करती हैं | हे जगत के निधाता ! आप जगत पिता हैं व् सीता जगज्जननी हैं |  

जानतहउ प्रभो आपहु, सिय नित सुधिता आहि । 
सो तो प्रिय प्रान सम तव अरु को प्रिय कर नाहि ॥ 

सीता नित्य पवित्र हैं आपको भी इस बात का संज्ञान है  प्रभु ! वह  प्राणों  के समान प्रिय है उनके अतिरिक्त  आपको और कुछ भी प्रिय नहीं है |  

शनिवार, २० अगस्त, २०१६                                                                                 

नित पावन पबित सित जानत ए । प्रभु दिजौ मान जसि पुरबल दए ॥ 
साप संगत तव पराभावा । अस तौ जग को करिअ  न पावा ॥ 
जनक  किशोरी सीता  को सदैव से पावन व् पवित्र है यह संज्ञान कर प्रभु ! आप पूर्व की भांति उनका आदर करें | किसी श्राप के संगत आपका प्रभाव हो  ऐसा करने के लिए संसार में कोई भी समर्थ नहीं है | 

सुनु मुनि प्रभु पहि गत पद गहिहउ । जे सबहि मम कही बत कहिहउ  ॥ 
बरुन नाथ कह बहुंत प्रकारा । एहि बिधि प्रगसिहि मनस विचारा ॥ 
हे मुनि श्रेष्ठ वाल्मीकि जी सुनिए ! प्रभु के पास जाकर उनके चरणों में नतमस्तक होते हुवे मेरी कही ये उक्तियाँ उनसे निवेदन करिएगा | प्रभु ! इस प्रकार सीता स्वीकार्य के सम्बन्ध में वरुण नाथ ने भिन्न-भिन्न कथन करते हुवे अपने मन के विचार प्रकट किए थे | 

सिया सकार जोग गोसाईं । लोकपाल सब सम्मत दाईं ॥ 
यह तुहरे जुग राज दुलारे । करिहि चरित जब गान तिहारे ॥ 
हे स्वामी ! सीता स्वीकार्य योग्य है इस हेतु सभी लोकपालों ने अपनी सहमति दी है | आपके इन राज दुलारों ने जब आपके चरित्र का गान किया | 

अह नर रूप धरे नारायन । बरुन पति घर गाएं रामायन ॥
सुरासुर गंधरब किन होई । भयउ कौतुक बिबस सब कोई ॥ 
अहो ! वरुण नाथ के धाम में नर के रूप धारण किए नारायण की रामायण कथा का गान किया वह फिर तब सुर असुर व् गन्धर्व ही क्यों न हो सभी कौतुहल के वशीभूत हो गए | 

सुनत सुमधुर राम कथा मन बहु रोचन होंहि । 
सब कीन्हि बढ़ाई तहँ मुदित भ्रात कर दोइ ॥ 
आपके पुत्रों के मुख से सुमधुर रामकथा का श्रवणपान कर सबका मन आनंदित हो गया | इन  दोनों भ्राताओं की सबने मुक्त कंठ से प्रशंसा की | 

रविवार, २१ अगस्त, २०१६                                                                                      
लोकाधिप असीस जो देईं । तुहरे सुत सो सहरष लेईं ॥ 
रिषि महरिषि गन ते अधिकाई । दोउ मान जस कीरति पाईं ॥ 
लोकाधिपों ने  जो आशीर्वाद प्रदान किया था आपके पुत्रों ने उसे सहर्ष स्वीकार्य किया | उन्होंने ऋषि महर्षिगणों से अधिक सम्मान व् कीर्ति प्राप्त की |   

पुण्य श्लोक पुरुष बर साथा । होवत तीनि लोक कर नाथा ॥ 
एहि औसर गहिहौ घट काँचा । गहस धर्मि निभ करिहहु नाचा ॥ 
पुण्यश्लोक (पवित्र यशवान ) पुरुषों के शिरोमणि के सह त्रिलोक नाथ होने के पश्चात भी इस समय आप मिट्टी की देह धारण करके गृहस्थ धर्मी की सी लीलाएं कर रहें हैं | 

बिधा सील गुन भूषन धारे । गहन जोग दुहु तनुज तिहारे ॥ 
सिय सुधित अब सबहि पतियारे । कुँअरु सहित प्रभु ताहि सकारें ॥ 
विद्या, शील व् गुणों के आभूषणों को ग्रहण किये ये दोनों पुत्र स्वाकार करने योग्य हैं | जनक नंदिनी जानकी की पवित्रता पर अब किसी संदेह नहीं है | दोनों कुमारों सहित को  सीता भी स्वीकार्य करें | 

प्रान दान दए सैन जियाई । अहहि बहुतहि सुचित सो माई ॥ 
दीन बन्धु हे दया निधाना । प्रतीति हुँत एहि  साखि प्रवाना ॥ 
 जो प्राणों का दान देकर सेना को जीवित कर दे वह माता अत्यधिक पवित्र होती हैं | हे दीनों के बधु ! हे दया के सागर ! यह प्रसंग माता सीता की पवित्रता पर विश्वास करने के लिए प्रत्यक्ष प्रमाण है | 

पतित अपबित पुरुष हुँत पावन हर ए प्रसंग । 
सुबरन बहुरि सुबरन हैं होइहि केत कुरंग ॥ 
यह प्रसंग पतित पुरुषों को भी पावन करने वाला है | प्रभु! कांतिहीन क्यों न हो स्वर्ण तो स्वर्ण होता है |