Friday 22 April 2016

----- ।। उत्तर-काण्ड ५१ ।। -----

शुक्रवार,२२ अप्रेल, २०१६                                                                                 

प्रथम तुम रथारोहित होहू । तव सों पुनि लेहउँ मैं लोहू ॥ 
तुहरे दिए रथ गहत बीरबर । रन कारन जो चढिहउँ तापर ॥ 
सर्वप्रथम  तुम रथ का आरोहण करो तत्पश्चात में तुम्हारे साथ युद्ध करूंगा | लव ने कहा : -- हे वीरवर ! तुम्हारा दिया रथ स्वीकार्य कर उसपर आरोहित होकर संग्राम करता हूँ,

त लगिहिं बहुतक पातक मोही । बिजय सिद्धि मम सिद्ध न होहीं ॥ 
जद्यपि जति मुनि सम ममभेसा ।जूट जटालु जटिल कृत केसा ॥ 
तो मुझे गहन दोष ही लगेगा इस दोष के कारण मेरी विजय सिद्धि के सिद्ध नहीं होगी | यद्यपि मेरा वेश ऋषि-मुनियों का है मेरी केशाकृति जटिल जटाजूट है | 

तथापि छतरिय धर्म हमारा । करैं सदा हित सत्कृत कारा ॥ 
हम स्वयमही निसदिन दाहैँ । दिया लेइँ सो बम्हन नाहैं ॥ 
तथापि हमारा क्षत्रिय धर्म सत्कृत करते हुवे सदैव कल्याण करता है | हम स्वयं ही नित्यप्रति दानादि शुभकर्म किया करते हैं | जो दिया हुवा स्वीकार्य करे हम वह ब्राह्मण नहीं हैं | 

मोर दसा कर करिहु न चिंता । तुहरे रथ करि देउँ भंजिता ॥ 
होहिहु तुम्हहि पयादित पाएँ । भयो जस तव पुरबल दल राए ॥ 
मेरी दशा की तुम चिंता न करो तुम्हारा रथ में अभी भंजित किए देता हूँ | इससे तुम भी पदचारी चमूचर हो जाओगे जैसे तुम्हारे पूर्व सेनापति हुवे थे | 

पुनि रन हेतु पचारिहु मोही । ताते भल कहु बत का होही ॥ 
धर्मतस लव केरे बखाना । धीर जुगत कहिबत दे काना ॥ 
बल में मैं तुम्हारे समतुल्य हो जाऊंगा तब तुम मुझे युद्ध के लिए ललकारना कहो इससे अच्छी बात भला क्या हो सकती है | लव  के धर्म व् धैर्य से युक्त वचन श्रवण कर : --  

पुष्कल तब बहु बेर लग चितबत चितवहि ताहि । 
करिए कहा कहा न अजहुँ समुझ परे कछु नाहि ॥ 
पुष्कल का बहुंत देर तक विस्मित चित्त से उसका अवलोकन करते रहे | अब क्या किया जाए और क्या न उन्हें  समझ नहीं पड़ा | 

चेतत धरि कर चापु उठावा । पनच चढ़ावत पुनि दरसावा ॥ 
कोपत लवहु बानु अस मारे । किए छन दोउ खण्ड महि डारे ॥ 
सचेत होते हुवे हाथ में धनुष उठाया, पुष्कल को  धनुष उठाते देखकर कुपित लव ने  बाण मारा व्  क्षणमात्र में उसे द्विखंड करके भूमि पर गिरा दिया | 

गहे धनुष अपरंच बहोरी । औरु लगे जबु  करषन डोरी ॥ 
तब लगि उदयत सो बलवाना । करिहि भंजि तृन समतुल जाना ॥ 
जब पुष्कल दुसरा धनुष धारण कर उसकी प्रत्यंचा कसते तब तक उस क्षुब्ध बलवान ने उसे भी तृण के समान विभंजित कर दिया | 

धनुष हस्त कटि कसत निषंगा । हँसत हँसत किए रथहु बिभंगा ॥ 
भए धनु छिनु महु छीती छाना । भिरिहि ता संग बेगि बिहाना ॥ 
कटि में निषंग व् हस्त में  धनुष कसते लव ने रथ को भी सरलता पूर्वक भंजित कर दिया | महात्मा लव के द्वारा अपने धनुष को क्षणमात्र में छिन्न -भिन्न हुवा देख फिर वह उनके साथ बड़े वेग से  युद्ध करने लगे | 

कबहुँ त  लव बढ़ बढ़ सर छाँड़े । कबहुँक पुष्कल अगहन बाढ़े ॥ 
नयन भवन ज्वाल कन जागे ।  अतीव बेगि जुझावनु लागे ॥ 
कभी तो लव अग्रसर होकर बाणों का प्रहार करते कभी पुष्कल उनसे भी आगे की और बढ़ आते | नयन भवन में क्रोध रूपी ज्वाला कण उत्पन्न होने लगे अब वह और भी अधिक वेग से युद्ध करने लगे | 

बहोरि लव लवलेस महुँ तीरत बान निषंग । 
दरसिहि दंतारि अस जस, को बिषधारि भुयंग ॥ 
तदनन्तर लव ने क्षण मात्रा में ही निषंग से एक बाण खैंचा, उसकी दन्तावली ऐसे दर्श रही थी जैसे वह कोई विषधारी भुजंग हो | 

शनिवार, २३ अप्रेल, २०१६                                                                                        

बान रूप सो बिषधरि नागा  । करषत जूँ धनु  रसन त्यागा ॥ 
फुंकरत फन लहरात परावा । धँसे भरत सुत उर दए घावा ॥ 
लव ने धनुष की प्रत्यंचा से ज्योंही उस बाण रूपी विषधर का  त्याग किया वह  फुफकारते फन से लहराकर दौड़ पड़ा और  भरत कुमार को गहरा आघात देते हुवे उनके हृदय में समाहित हो गया | 

बीर सिरोमनि मुरुछा गहयउ । पीर परे मुख महि गिरि गयऊ ॥ 
गयउ अधोगत कटक मनोबल । भयउ हताहत दलपत पुष्कल ॥ 
बाण लगने से वीर शिरोमणि का मुख पीड़ा से भर गया फिर वह मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े | दलपति वीर पुष्कल के हताहत हो गए इस समाचार से सेना का मनोबल गिर गया | 

हत चेतस गिरि दिए देखाई । पवन तनय तुर लेइ उठाईं ॥ 
करभर बाहु सिखर धर ताहीं । आयउ पुनि रामानुज पाहीं ॥ 
पुष्कल को चेतना शुन्य हुवा देख पवन-तनय ने तुरंत ही उन्हें उठा लिया  और  हाथों से उनको अपने कंधे पर धारण किया तत्पश्चात वह रामानुज शत्रुध्न के पास आए | 

अंकबारि करि तासु सरीरा  । अरपिहि चरन त भयउ अधीरा ॥ 
पितिया सोंह न गयउ बिलोका । करिहि प्रलाप चित्त गह सोका ॥ 
उनके अचेत शरीरका आलिंगन कर, रामानुज शत्रुधन के चरणों में अर्पित करते हुवे वह अधीर हो उठे ॥पितिया से पुष्कल की दशा देखि न गई, शोक विह्वल चित्त से वह घोर विलाप करने लगे |  

नयन गगन दुःख घन गहरायो । पल्किन झलझल जल झलरायो ॥ 
जगिहि कोप बिजुरी बिकराला । दमक दमक मुख जगइँ ज्वाला ॥ 
नेत्ररूपी गगन  में  दुःख  के बादल  गहरा  गए  पलकों से झल झलकर जल  वर्षा होने लगी  | इस वर्षा से  कोप रूपी विकराल ज्योति प्रकट हुई इसकी गंभीर गर्जना ने शत्रुध्न के मुखमण्डल की ज्वाला को जागृत तो कर दिया | 

हतास्वासश्रय सिरु नायो । का करैं अजहुँ समुझि न पायो ॥ 
तत्छन सत्रुहन मन कछु लेखे । पुनि पवन सुत हनुमत मुख देखे ॥ 
किन्तु निराशा के आश्रय होकर फिर उन्होंने अपना शीश झुका लिया ,आगे कौन सी नीति अपनाई जाए उन्हें यह  समझ नहीं आया । उसी समय शत्रुध्न  ने मन ही मन कुछ मंथन किया, फिर वायु नंदन हनुमान का मुख की ओर देखने लगे ॥ 

बहुरि आयसु देत कहइँ महा बीर हनुमंत  । 
समर भूमि अब राउरे  जाएँ लेउ लव प्रान ॥ 
तत्पश्चात उन्होंने आज्ञा देते हुवे कहा : - 'हे महावीर हनुमंत ! संग्राम भूमि में प्रस्थान कर अब आप ही लव के प्राण हरें | 

मंगलवार, २६ अप्रेल, २०१६                                                                                      

जिनके ग्यान  अमित अनंता । मरुति नंदन दास हनुमंता ॥ 
रिपुहन अग्या सो गुनवंता । कोपत रन भुइँ गयउ तुरंता ॥
जिनका ज्ञान अमित व् अनंत है वह महा गुणवंत मारुती नंदन दास हनुमंत अरिहंत की आज्ञा का अनुशरण करते हुवे कुपित होते तत्काल रण भूमि पर उपस्थित हुवे | 

पैस तहाँ बल पौरुष जागिहि  । बेगि लवहि सैं जूझैं लागिहि ॥ 
सीध बाँध सिरु माथ निहारिहि । लच्छ करत एकु बिटप प्रहारिहि ॥ 
वहां प्रविष्ट होते ही उनका बल पौरुष जागृत हो गया वह वेग पूर्वक लव से संग्राम करने लगे | फिर लव के शीश और मस्तक का संदर्शन करते हुवे  उसका लक्ष्य कर उनके  ठीक सामने एक विटप का प्रहार किया |  

भँभरत निज पर आवत देखा । छाँड़ेसि सोउ बान बिसेखा ॥ 
बज्र घोष इब गरज अपारा  । मुख भरि सतक टूक करि डारा ॥ 
भँवरते हुवे वृक्ष को अपने सम्मुख आते देख उन्होंने भी एक विशेष बाण चलाया | वज्र उद्घोष के समान  भयंकर गर्जना करते उस बाण ने वृक्ष को अपने मुख में भरकर उसके शत खंड कर दिए |

गहि गहि गरु गरु भूधर खण्डा । झपटत झट सिरु मारि प्रचंडा ॥ 
देइ गिरि खन घाउ पर घावा । लह लस्तकि लव हस्त उठावा ॥ 
तब हनुमंत  भारी-भारी शिलाखंड उठा उठाकर तीव्रता पूर्वक प्रचंड प्रहार करने लगे | ये गिरीखण्ड लव को घाव पर घाव दिए जा रहे थे उसके निवारण हेतु लव ने धनुष की मूठ पकड़कर उसे हाथ से उठाया | 

बान बृष्टि कृत रज रज कीन्हि । उठैं धूरि कछु दरस न दीन्हि ॥ 
धुर ऊपर घन धूसर छायो । रन रंगन तब अति घहरायो ॥ 
और बाण वृष्टि करके उन भूखंडों को कण-कण कर दिया इन कणों से उठती धूल से कुछ दर्शित नहीं हो रहा था | धुर -ऊपर घनी धूसरता व्याप्त हो गई तब रण का उत्साह और अधिक गहन हो चला | 

लूम केस बलि लाँगुली हनुमत  पुनि लमनात । 
अहि निदरित कुंडली कृत सियसुत लेइ लपेटि ॥ 
हनुमान जी ने केशावली झूलती पूँछ को प्रलंबित किया तत्पश्चात  सर्प को भी लज्जित करने वाली कुंडली की समाकृति कर उसमें  जानकीपुत्र लव को लपटा लिया | 

चरन सरोज जनि जानकी के । सुमिरत मन मन मारि मुठीके ॥ 
बाँधेउ लवहि कुंडलित पूँछी । मुकुत तासु कस बल सहुँ छूँछी ॥ 
यह देख लव ने मन ही मन  अपनी माता जानकी के चरण सरोज का स्मरण किया व् हनुमान जी की पूँछ पर मुष्टिका से प्रहार किया |  इस प्रहार से कुंडलित पूँछ को बड़ी व्यथा हुई जिससे कस-बल से विहीन होकर उसने लव को मुक्त कर दिया |  

छूटत बहुरि बीर बलवाना । तमक ताकि तकि तकि हनुमाना ॥ 
बान बूंदि बरखावन लागे  । बोलि धार बन प्रान त्यागें ॥ 
विमोचित होते ही उस वीर बलवान ने  तमतमाते हुवे हनुमान जी की ओर देखा और उनका लक्ष्य करते बाण बूंदों की बौझार करने लगे | बौझार धारा का सरूप धारण कर हनुमान जी से  बोली : - 'अब प्राण त्याग ही दें | ' 

बनावरी लव केरि चलाई । देह पीर भा बहु दुखदाई ॥ 
सकल बीरबर केर निहारे । हनुमत मुरुछा गहि महि पारे ॥ 
लव की चलाई हुई बाणावली से हनुमान जी के देह को अत्यंत कष्टकारी पीड़ा होने लगी  | सभी वीरों पर दृष्टिपात करते हुवे फिर वह मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े | 

लव सम बान  त्याजन माही । तहँ अबरु को दरसहि नाही ॥
चरत सो ऐसेउ चहुँ  दीसा ।  लगे बधन बधछम अवनीसा ॥ 
बाणों के संचालन अतिसय निपुण थे उनके समान अन्य कोई योद्धा वहां  दर्शित नहीं पड़ रहा था | उनके बाण चारों दिशाओं में चलते हुवे वध के योग्य राजाओं का वध करने लगे | 

हनुमत मुरुछित भए मुने समाचार जब आहि । 
कहत सेष अरिहंत तब सोक सिंधु अवगाहि ॥ 
शेष जी कहते हैं : - मुने ! जब हनुमान जी की मूर्छा का समाचार आया, तब राजा शत्रुध्न शोक के सिंधु में डूब गए | 

बृहसपतिवार, २८ अप्रेल, २०१६                                                                          
रव रुर नूपुर चरनन पूरे ।  स्याम मनिसर रतनन कूरे ॥ 
हिरन मई रथ रसन मनोहर । बहुरि रिपुहन बैस ता ऊपर ॥ 
ध्वनिमय नूपुर से परिपूरित सुन्दर चरणों एवं नीलम व् हीरे जैसे रत्नों से जड़ित मनोहर रश्मि से युक्त स्वर्णमयी रथ पर विराजित होकर अब शत्रुध्न : -

चले आपहि बीर सन जोरे । सहुँ बलि समबल रंग न थोरे ॥ 
जहँ अति निपुन बीर बर बंका । आए गए तहँ बजा रन डंका ॥ 
स्वयं ही वीर सैनिको को साथ लिए  युद्ध हेतु उस स्थान को चले, सम्मुख उनके समान ही बलवान योद्धा थे इस लिए उत्कंठा अत्यधिक थी | फिर रण का डंका बजाते वह वहां गए जहाँ  अति निपुण परम वीर लव उपस्थित थे | 

मुनि दरसिहि पुनि दिरिस अनूपा । एकु सुकुँअरु रघुबर समरूपा ॥ 
सीस जटा जुट सोहहिं कैसे । रघुनंदन बन होहहिं जैसे ॥ 
मुने ! तदनन्तर उन्हें यह अनुपम दृश्य दर्शित हुवा कि लव श्रीरामचन्द्रजी के समरूप एक कुमार है जिसके शीश पर जटा- जूट ऐसे सुशोभित हो रही थी, जैसे रघुनन्दन स्वयं ही वन में सुशोभित हो रहें हों | 

चरन त्रान बिनु जति जस भेसा । होत नरेस न अहहि नरेसा ॥ 
सिलीमुखाकर करधन कस्यो । मनोहरायत उरसिज लस्यो ॥ 
चरण त्राण से विहीन थे यति के सदृश्य उनका वेश था वह नरेश न होकर भी नरेश थे | करधनी में शिलिमुख की निधियां कसी हुई थीं मनोहर आयातित उनका वक्ष था | 

तिलक माथ तेजस बदन नयन अरुन अभिराम । 
कल केयूर कलित कर धनु दाहिन सर बाम ॥ 
मस्तक पर तिलक, तेजस्वी मुखमण्डल, अरुणाभिराम नयन थे,  केयूर से सुशोभित दाहिने हस्त में धनुष व् वाम हस्त में बाण था | 

नीलोत्पल सम स्यामल देहि । अहा मनोहर सुकुँअर कस एहि ॥ 
रघुकुल मनि सम धरे सरूपा । न त यहु भूसुर नहि यह भूपा ॥ 
नीले उत्पल के समान इसकी स्यामल देह है, अहा ! यह सुकुमार कैसा मनोहर प्रतीत होता है, इसने रघुकुल मणि श्री रामचंद्रजी जैसा स्वरूप धारण किया हुवा है यह न तो ब्राह्मण ही है न यह कोई क्षत्रिय राजा है | 

बहुरि कवन सो बलबन आहीं । कहि रिपुहंत सोच मन माही ॥ 
रे मम बच्छर कवन तु होहू । लेंन तुले हमरे सन  लोहू ॥ 
फिर यह बलवान कौन है ?' मन में ऐसा विचार कर शत्रुध्न बालक से बोले : - 'वत्स ! तुम कौन हो ? जो रणभूमि हमसे लोहा लेने पर उतारू हो |  

नगन उत्कट भट मारि गिराए । केत न केत गए खेत पराए ॥ 
तोहि कवन जनि जनक जनावा । तव सों सुभग सील न पावा ॥ 
तुमने नगण्य योद्धाओं को मार गिराया है कितने ही उत्कट वीरों को रणभूमि में पीठ दिखाने हेतु विवश किया | तुम्हारे जैसा सुशील व् सौभाग्यशाली कोई नहीं है, तुम्हें किस जननी-जनक ने जन्म दिया है ?

एही चरनतुम  भयउ जयंता । सुनु मम बचन बीर बलवंता ॥ 
जगत बिदित का नाउ तिहारे । जानिचहैं सब जानन हारे ॥ 
युद्ध के इस चरण में तुमने विजय प्राप्त की, एतएव हे वीर बलवंत ! अब मेरे वचनों को सुनो |  तुम्हारा लोक-प्रसिद्ध नाम क्या है सभी जिज्ञासु यह जानने के लिए उत्कंठित हैं | 

भरि नयन अचरजु रिपुहन पूछि प्रसन एहि भाँति । 
उतरु देत लवनहि बदन कहे गहे सुभ सांति ॥ 
शत्रुध्न ने आश्चर्य पूरित दृष्टि से जब  इस प्रकार के प्रश्न किए हुवे लव के तब मुख-मंडल पर शांति का आवरण आच्छादित किए लव ने उनका उत्तर देते हुवे कहा : - 

शनिवार, ३० अप्रेल, २०१६                                                                                     

देस गाँउ बन नगरी गेहू । नाम पिता कुल ते का लेहू ॥ 
हो जो तुम आपहि बलवंता । मम सों जूझत होउ जयंता ॥ 
देश ग्राम वन नगर घर,  मेरे नाम, कुल व्  पिता से तुम्हारा क्या औचित्य ? यदि तुम स्वयं ही बलशील हो तब मुझसे संग्राम कर विजय प्राप्त करो | 

निज भुज दल बल पौरुष गहिहउ । बरबट बाजि छँड़ा लै जहिहउ । 
नहीं ठाव बल पौरुष भाई । छाँड़ै पाति बाजि गह जाई ॥ 
यदि तुम्हारी भुजाएं बलपौरुष हैं तो बलपूर्वक अपने अश्व को विमोचन कर ले जाओ | और यदि तुममें किंचित भी शक्ति नहीं है तब यह अश्व यह पत्रिका को विस्मृत कर अपने राज्य प्रस्थान करो | 

अस कहि उद्भट बीर बिहाना । अनेकानेक बान संधाना ॥ 
माथ भुजा दल तकि तकि छाँती । तजत प्रहार करिहि बहु  भाँती ॥ 
ऐसा कहने के पश्चात उस उद्भट वीर ने अनेकानेक बाण का संधान किया शत्रुध्न के मस्तक भुजादल व् वक्षस्थल को लक्षित कर उनका त्याग करते  नाना कलाओं का प्रदर्शन के द्वारा उनपर प्रहार करने लगे  | 

जान बिनहि तब लव कर ताता । तिरछत भौंह कोप भर गाता ॥ 
करष  सरासन रसन चढ़ावा । सन्मुख लव अरु दरस रिसावा ॥ 
लव के पिता के नाम का संज्ञान किए बिना तिरछित भृकुटि कर शत्रुध्न की देह कोप से भर गई,  तब धनुष खैंच कर उन्होंने प्रत्यंचा चढ़ाई तथा रुष्ट मुद्रा में सम्मुख उपस्थित लव पर दृष्टि की |  

करतल फेरब करिहिं पुनि गगन भेदि टंकारि । 
अस जस दमकिहि दामिनी करिहि धूनि घन भारि ॥  
प्रत्यंचा पर करतल फेर कर फिर गगन भेदी टंकार किया | टंकार की ध्वनि ऐसी थी जैसे दमकती हुई दामिनी से ध्वनमय होकर गंभीर मेघ गर्जना कर रहे हों | 

बाल मरालहि दए जस त्रासा  । छूट रसन सर चलिअ अगासा ॥ 
पाए  पवन ज्वाल कन जागे । जाज्वलमन जलावन लागे ॥ 
उस बाल हंस को त्रस्त करते हुवे से प्रत्यंचा को त्याग कर आकाश में बाण  चलने लगे वहां वायु का प्रसंग प्राप्त होने से उनमें ज्वाला कण जागृत हो गई ज्वाला के ये कण जाज्वलमान होते हुवे पीड़ा देने लगे | 

बलवन अदुतिय बल दरसावा । पलक समन करि देइ बुझावा ॥ 
तदनन्तर सो बाल मराला । छाँड़ेउ कोटि बान  कराला ॥ 
किन्तु बलवंत बालक ने भी अद्वितीय बल का प्रदर्शन करते हुवे क्षणमात्र में ही उन सभी सायकों रूपी अग्नि का शमन कर दिया | तदनन्तर उस बाल हंस ने करोड़ों विकराल बाण छोड़े | 

घटाटोप करि गगन पुरायो । चहुँ पुर काल घटा घन छायो ॥ 
तकि तकि किए ऐसेउ प्रहारा । रिपुहन अचरजु भयउ अपारा ॥ 
बाणों की घनघोरता गगन में व्याप्त हो गई वह चारों ओर बाण रूपी  घनी घटाएं से आच्छादित हो गया  | लक्ष्य कर कर के उनसे  वृष्टि रूपी ऐसा  प्रहार किया जिसे  देखकर शत्रुध्न के आश्चर्य की सीमा न रही | 

खैंच धनुष रजु श्रवन  प्रजंता । दिए निबेर सब काटि तुरंता ॥ 
देखि कटत सब जब निज बाना । सकलत गुरुबर देइ ग्याना ॥ 
फिर सरासन की रसना  को श्रवण पर्यन्त खैंचा और समस्त सायकों  काटकर उनका तत्काल ही निवारण कर दिया | अपने सभी सायकों को कटा हुवा देखकर फिर कुश के अनुज लव ने गुरु के दिए ज्ञान को संकलित किया : -

रिपुहन केर कठिन कोदंडा । घात बेगि किए खण्डहि खंडा ॥ 
धरनि भयउ जस मानुष हीना । धनुधर भय तस धनुष बिहीना ॥ 
और शत्रुध्न के सुदृढ़ धनुष पर वेगपूर्वक आघात करके उसे खंड-खंड कर दिया | वह धनुर्धारी धनुष से विहीन होकर ऐसे हो गए जैसे धरती  मनुष्य से विहीन हो गई हो | 

दूसर धनु धरे सर जूँ प्रचरन उद्यत होहिं । 
स्यन्दनहु करि बिभंजन तीछे सरगन सोंहि ॥ 

अन्यतर धनुष से वे ज्योंही बाण के प्रचालन हेतु उद्यत हुवे त्योंही लव ने तीक्ष्ण बाण समूह से उनके रथ का भी विभंजन कर दिया | 

रविवार, ०१ मई, २०१६                                                                                                    

बाजि कुंजर कठिन कोदंडा ।  कौटुम सहित भयउ खन खंडा ॥ 
भंजि स्यंदन दूज ल्याईं । आन धनुष कर ताल समाईं ॥ 
हय हो हस्ती हो कि सुदृढ़ सरासन हो सभी अपने कौटुम्ब सहित खंड-खंड हो गए | रथ के विभंजित होने पर शत्रुध्न दुसरा रथ ले आए, करतल में भी अपर धनुष समा गया | 

कोप भरि बहु बान दस मारे । तीछ मुख धरि लवहि पुर बाढ़े ॥ 
साँस सँभारन पलक न देवा । सँहारत हिय जीय के लेवा ॥ 
उस समय अत्यंत कोप में भर कर उन्होंने दस बाण चलाए, तीक्ष्णमुखी वह बाण लव की ओर बढे | हृदय का संहार कर प्राण लेने वाले वह बाण शत्रु को सतर्क होने के लिए क्षण मात्र भी नहीं देते | 

सिमटि सिमटि तब मन भय माने । पत आयसु ते गयउ पराने ॥ 
तत् छन गाँठिनु बाँधनि बारे । लवहि भयंकर छुरप पबारे ॥ 
सम्मुख मन संकुचित होकर भयभीत हो उठे उन बाणों का प्रभाव ऐसा था | प्रतिकार में गाँठ बंधे हुवे भयंकर क्षुरप्र के प्रहार ने उनका तत्काल ही निवारण कर दिया | 

घात चढ़न रहि जोग न कोई | भयउ बिभंजित भय जस होई ॥ 
पुनि लवहि एकु बान बिकरारा । अरध चन्द्रमा बदनाकारा ॥ 
लव पर आघात करे ऐसी योग्यता किसी बाण में नहीं थी | शत्रुध्न के बाणों  से उत्पन्न भय भी जैसे विभंजित सा हो गया |  तत्पश्चात लव द्वारा त्यागा हुवा एक अर्धचंद्र मुखाकृति वाला विकराल बाण : -

धावत जात समात गात सत्रुहनहि हरिदै भवन भेद धँसे । 
भीतहि पैसि त  करिअ  हताहत देत भयंकर पीर त्रसे  ॥ 
मुख पीर भरे धनु पानि धरे रथ पीठक नीचु गिर परे । 
सकल जुगती होइ गयउ बिफल अबिचल लव टारे न टरे ॥ 
तीव्र गति से परिचालन करता शत्रुध्न की देह में समाहित हो गया और हृदय भवन भेदते हुवे उनके अंतर में जा धंसा | अंतर भेदन से वह चोटिल हो गए इस चोट ने उन्हें भयंकर पीड़ा से त्रस्त कर दिया |  धनुष हस्तगत किए पीड़ाभरा मुख लिए वह रथ के पीठासन से नीचे गिर पड़े | युद्ध के इस चरण में अविचल लव को विचलित करने की उनकी सभी युक्तियाँ विफल सिद्ध हुईं | 

विजयार्थि राजधिराज रिपुहन मुरुछा घारि । 
रन हुँत उद्यत होत सब  लव पर करिहि प्रहारि ॥ 
शत्रुध्न के मूर्छित होने पर विजय की प्रत्यासा लिए समस्त राजाधिराज ने  रण हेतु उद्यत होते हुवे लव पर आक्रमण कर दिया | 

मंगलवार, ०३ मई, २०१६                                                                                                  
को छुरप को मुसल लय आने । केहि भयंकर सर संधाने ॥ 
को परिघ लिए बाढिहि आगें । छेपत गगन प्रहारन लागे ॥ 
कोई क्षुरप्र तो कोई मुशल ले आया किसी ने भयंकर बाण का संधान कर लिया | कोई परिघ लिए आगे बढ़ा व् आकाश में उसका प्रक्षेपण करके प्रहार करने लगा | 

कुंत प्रास को परसु प्रचंडा । सूल कृपान कोउ गिरिखंडा ॥ 
सब नृप नानायुध धरि धाईं । एही बिधि लव पर करिहि चढ़ाईं ॥ 
कोई बरछी कोई भाला तो कोई प्रचंड परसु कोई त्रिशूल कोई कृपाण तो कोई गिरीखण्ड लिए बढ़ा,  इस  प्रकार सभी नृप नानायुध लिए दौड़ पड़े और लव पर भारी आक्रमण होने लगा | 

घाउ बजा चारिहुँ दिसि घेरी । रिपुदल खरभर भयउ घनेरी ॥ 
देखि अधरम सील रन तिनके । मारि दस दस बानु गन गिन के ॥ 
रण का डंका सा बजाते हुवे उन्हें चारों दिशाओं से घेर लिया गया रिपुदल की ओर से अत्यंत दुष्टता होने लगी  | लव ने जब उनका अधर्म पूरित संग्राम  देखा तब दस-दस बाण समूह से सबको घायल कर दिया | 

बनावरी लव केरि चलाई । छतवत इत उत जुगि महराई ॥ 
खात अघात होइ सब घायल । बान मरायल थकि अंतर बल ॥ 
लव  की चलाई बाणावली वह सभी एकत्रीभूत महाराजा क्षतिग्रस्त होकर छिन्न-भिन्न हो गए | आहत होते हुवे वह सभी घायलवस्था को प्राप्त हो गए थे,  बाणों की मार से उनका आत्मबल भी शिथिल हो चुका था |  

केतक क्रोधी धराधिप हतबत गयउ पराए । 
क्रोध बिसरत डरपत पुनि रन भू बहुर न आए ॥ 
कितने ही क्रोधी राजा रणभूमि से पलायन कर गए, क्रोध को विस्मृतकर भयवश वह संग्राम हेतु फिर नहीं लौटे | 

बुधवार, ०४ मई २०१६                                                                                            

औरब भूपत केत न केता । हरिदै धरे परे रन खेता ॥ 
जागे रिपुहन ऐतक माही । गै मुरुछा सुध बुध बहराही ॥ 
अन्यान्य कितने ही भूपति ह्रदय पर हाथ रखे रण भूमि पर धराशायी हो गए | इतने में ही शत्रुध्न जागृत हुवे मूर्छा भांग होते ही उनकी चेतना लौट आई | 

देखि हताहत सकल नरेसा । जूझत भयउ जीव अवसेसा ॥ 
बहुरि बरबट महाबलि सोहैं । पालि सँभारत होइँ अगौहैं ॥ 
जब उन्होंने सभी राजाओं को हताहत देखा संग्राम करते हुवे जिनका सर्वस्व चला गया था केवल प्राण ही शेष बचे थे, तब सैन्य टुकड़ी की सहेज करते उस वीर बलवंत के संग युद्ध हेतु वह स्वयं अग्रसर हुवे | 

बोलि बचन आवत समुहाईं । धन्य धन्य तुम रे मम भाई ॥ 
दरसन में तुम बालक जैसे ।  जूझिहु जा सों होइहु तैसे ॥ 
और उस बाल युद्ध के सम्मुख आकर बोले -- ' बंधू ! तुम धन्य हो ! दर्शन में तुम बालक जैसे हो किन्तु जिससे तुम संग्राम करते हो वीरता में उसी के समान हो जाते हो | 

तुहरे समर कला कुसलाता । केहि भाँति सो बरनि न जाता ॥ 
तिरछत भौं ए  कहत रजु जोरे । दरसिहु अजहुँ बिक्रम बल मोरे ॥ 
तुम्हारे युद्ध की कला- कुशलता वर्णातीत है | शत्रुध्न ने फिर भृकुटि  तिर्यक कर धनुष में  प्रत्यंचा कसते हुवे कहा --  अब मेरा पराक्रम देखो; 

भंजत तव दरप दरपन भूमि गिराऊँ तोहि । 
पूर न पाए जो मम पन कहहु न रिपुहन मोहि ॥ 
तुम्हारे दर्प का विभंजन कर तुम्हें भूमि पर गिराता हूँ | यदि मेरा यह प्रण पूर्ण न हो तो मुझे शत्रुध्न मत कहना | 

शुक्रवार, ०६ मई, २०१६                                                                                            
कहि अस सोइ बान गहि हाथा । लवनासुर बधेउ जिन साथा ॥ 
भयंकारि मुख दन्त कराला । दरसि जनु जम दूत  दंताला ॥ 
ऐसा कहकर उन्होंने वह बाण ग्रहण किया जिससे लवणासुर का वध हुवा था | भयविह्वल करने वाले मुख में  विकराल दन्त ऐसे दृष्टिगत हो रहा थे जैसे वह यमदूत की दन्तावली हो | 

रन उन्मत जोवत धनु जीवा । निरख माथ लोचन दर गीवाँ ॥ 
बहुरि निहारत हृदय दुआरा । तसु बिदारन करिहि बिचारा ॥ 
रणोन्मत्त  तेज पुंज मनिसर संकासा । चरत बान दहुँ दिसा  उजासा ॥ 
चलिए पवन तासन अतुराई । उठेउ धूरि बिपुल नभ छाई ॥ 

हहरत परबत पथ तरु साखी । फरकिहि पत पत उरि गए पाँखी ॥ 
निर्घातत नद उदधि उछाहीं । अकाल प्रलयकाल जनु आहीं ॥ 

दरसत रिपुहन रूप अस सुमिरहिं लव सो भ्रात । 
जो अजूह अजेय भएउ बयरिनु मार गिरात ॥ 

सबल दल सहुँ एकल निज पावा । बिसूरत  कंठ भरि आवा ॥ 
भाउ बिभोर भए यहु कहतेउ । एहि अवसर भ्रात तुम रहतेउ ॥ 

करतेउ को आधीन न मोही । उरझिहउँ में बंधु बिनु तोही ॥ 
लवहि बिचारत रहि एहि भाँती । तबहि मरमाघत गहि छाँती ॥ 

आन लगे सो बान ब्याला । अगन काल सरिबर बिकराला ॥ 
गह हरिदै कर मुख भर पीरा । मुरुछा लहत  गिरे महि तीरा ॥ 

बयरि बिदार निवारन हारे । मुरुछा गहि मुख मुकुल निहारे ॥ 
जीतिहि रन रिपुहन बलवंता । ताहि समउ तौ भयउ जयंता ॥ 

करधन बान सिरस्त्रान, धरे धुनुरु करताल । 
दरसन में महात्मना करतन में महिपाल  ॥ 

रविवार, ०८ मई, २०१६                                                                                       

रजता राज न अँगन न अंगा । चातुरंगनी सैन न संगा ॥ 
 रन उन्मत्त पत पाल न पाली । राम सरिस रामहि सम चाली ॥ 

साजि सकल अन्य साज समाजा । महि परि मुर्छित मुख अति भ्राजा ॥ 
बिनहि सयंदन पाएँ पयादा । सर गहि निलयन  नयन बिषादा ॥ 

रिपुहन बिभरम ताहि निहारिहि । चढ़ाए रथ लय गवंन विचारहि ॥ 
उरझित निज मित रिपु कर पासा । देखि बटुक गन भयउ निरासा ॥ 

बालक मन आरत अति भारी । गहइ निमिष महँ अति अँधियारी ॥ 
पुनि आश्रमु  सब गयउ तुरंता । मातु सिया कहि सकल उदंता ॥ 

कहत कहत संताप सों हुड़किहि हरिदै सिंधु । 
अलक पलक गहराए घन बरख उठे जल बिंदु ॥ 




































Wednesday 13 April 2016

----- ॥ गीतिका ॥ -----

----- ॥ गीतिका ॥ -----
हरिहरि हरिअ पौढ़इयो, जो मोरे ललना को पालन में.,
अरु हरुबरि हलरइयो, जी मोरे ललना को पालन में., 

बिढ़वन मंजुल मंजि मंजीरी, 
कुञ्ज निकुंजनु जइयो, जइयो जी मधुकरी केरे बन में..... 

बल बल बौरि घवरि बल्लीरी,
सुठि सुठि सँटियाँ लगइयो लगइयो जी छरहरी रसियन में.....

 पालन में परि पटिया पटीरी, 
बल बल बेलिया बनइयो बनइयो जी मोरे ललना के पालन में..... 

दए दए उहारन ओ री अहीरी, 
सुरभित गंध बसइयो बसइयो जी मोरे ललना के पालन में.....


हरिहरि हरिअ  = धीरे से 
हरुबरि = मंद-मंद 
बिढ़बन = संचय करने 
मंजि-मंजीरी = पुष्प गुच्छ, कोपलें पत्र इत्यादि 
मधुकरी केरे बन = भौंरो के वन में- मधुवन 
बल बल बौरि घवरि बल्लीरी =  आम के बौर से युक्त लतिकाएं । बढ़िया से गुम्फित कर 
पटिया पटीरी =चन्दन की पटनियाँ 
बल बल बेलिया = घुमावदार बेलियां 
उहारन = आच्छादन 
अहीरी = ग्वालन 

हरिहरि हरि तर अइयो कौसल्या के अजिरन में 
अजहुँ न बेर लगइयो कौसल्या के अजिरन में 

दए दए उहारन  दए दए बहीरी  , 
सुरभित गंध बसइयो बसइयो जी कौसल्या के अजिरन में.....

बहीरी = बुहारना 

Sunday 10 April 2016

                                       ----- ॥ सोहर ॥ -----

सखि गाओ री सोहर जी भइने सुअवसर 
कुँअर मनोहर जी सुनु अति सुन्दर दूल्हा बनइयो जी हो, 
                                                    रामा दूल्हा बनइयो जी हो..... 
करधन करधर पाटली परिकर अरु बर बर बसन बसइयो जी हो, 
                                                     रामा बसन बसइयो जी हो.....

कल किरीट कपाला कंकनि माला अरु मनिहर रतन सजइयो जी हो 
                                                     रामा रतन सजइयो जी हो.....

चारु चँवर हलरई सिरु छतर दसई के अरु हरियर तिलक लगइयो जी हो, 
                                                      रामा लगन करइयो जी हो..... 


झीनी झीनी रतिया ओरी चारू चंदनिया,
हरी भरी मनिया अरु धौरी धौरी मुतिया में मनहर पुरट पुरइयो जी हो 
                                                                 रामा पुरट पुरइयो जी हो.....
सो बंदन वारी बांध दुअरिया देहर देहर रचइयो जी हो 
                                        रामा  देहर रचइयो जी हो.....

हरिया चन्देरी अहिबेलि घेरी  निज पटतर पट पहरियों जी हो 
                                         रामा पट पहरइयो जी हो..... 

ताराबरी झलहरी झालरिया जननी के भवन ओरमइयो जी हो 
                                            रामा भवन ओरमइयो जी हो.....


कोई लुटावे लकोहरनु कोई रुपइया 

बाबा भइया ओ मइया अरु बहिनी भुजइया तूम धेनु गैय्यानु लुटइयो जी हो  
                                               रामा धेनु गैय्यानु लुटइयो जी हो.....  

ढोलु हनि पावत मुख संख पुरावत ऐ री मुरलिया बधावा बजइयो जी हो 
                                              रामा मुरलिया बधावा बजइयो जी हो.....

ललना चिरंजीउ हो ललना जुंग जुग जियो कहि कहि हिय हिलगइयो जी हो 
                                                                   रामा हिय हिलगइयो जी हो..... 

चरन जुहारी जो करिहि कुँवर त गोदिया भर घोड़िया चढ़इयों जी हो,   
                                                            रामा घोड़िया चढ़इयों जी हो.....   

बादिहि बादल बृन्दु अगासा । झरिहि झर झर बिंदु चहुँ पासा ॥ 
भर भर कलसि करषि कर देईं । पियत पयस बूझै न पिपासा ॥ 

बिमनस मुख सो रभस दुरायो । सरस रहस बस बरुन निवासा ॥ 
कंठ ताल नूपुर दल पूरे  । गावहि झनक झनक चौमासा ।  

 । हरषित जननी  दियो निकासा ॥ 

दरसै छटा पुरुट पट डारे । अरुन सुधाकर करिहि बिलासा ॥ 
कोमल करज जलज जय माला । पहिरावन मुख लवन ललासा ॥ 






----- ॥ सोहागी ॥ -----

हरि हरि कुँअरि पौढ़इयो जी करि पनित पलन में, 
ऐ री हरतरी न फेरइयो जी करि पनित पलन में, 
      
बिढ़वन मंजुल मंजि मंजीरी, 
कुञ्ज निकुंजनु जइयो, जइयो जी मधुकरी केरे बन में..... 

बल बल बौरि घवरि बल्लीरी,

सुठि सुठि सँटियाँ लगइयो लगइयो जी छरहरी रसियन में.....  

 पालन में परि पटिया पटीरी, 

बल बल बेलिया बनइयो बनइयो जी करि पनित पलन में..... 

दए दए उहारन ओ री बधूरी, 

सुरभित गंध बसइयो बसइयो जी करि पनित पलन में..... 


पनित करना =  सगुन हेतु प्रतिज्ञा 
हरतरी न फेरइयो = किए पर पानी न फेरना  
हरिहरि हरिअ  = धीरे से 
हरुबरि = मंद-मंद 
बिढ़बन = संचय करने 
मंजि-मंजीरी = पुष्प गुच्छ, कोपलें पत्र इत्यादि 
मधुकरी केरे बन = भौंरो के वन में- मधुवन 
बल बल बौरि घवरि बल्लीरी =  आम के बौर से युक्त लतिकाएं । बढ़िया से गुम्फित कर गांठ लगाना 
पटिया पटीरी =चन्दन की पटनियाँ 
बल बल बेलिया = घुमावदार बेलियां 
उहारन = आच्छादन 
अहीरी = ग्वालन     
                       

Saturday 2 April 2016

----- ।। उत्तर-काण्ड ५० ।। -----

लागि कटक दल भुज हिन् कैसे । कटे साख को द्रुमदल जैसे ॥ 
कांत मुख भए मंद मलीना । जस को बालक केलि बिहीना ॥ 
( ऐसा कहते )परकटी सेना कैसे प्रतीत हुई  जैसे वह कटी हुई शाखा वाले वृक्ष का समूह हों ॥ और उनके कालिमा से युक्त मुरझाए हुवे मुख इस प्रकार दर्श रहे थे जैसे भुजा न हुई किसी बालक के खिलौने हो गए और वे किसी ने छीन लिए हों ॥ 

त्राहि कहत कसकत कटकाई । बल न अरु बली भेस बनाई  ॥ 
रिपुहन हरिदै दहए अतीवा । कुठार पन के रहे न सींवाँ ॥
रक्षा की पुकार कर पीड़ा प्रकट करती उस  सेना में बल नहीं था तथापि उसने बली का वेश धारण किया हुवा था  अरिहंत का ह्रदय अत्यधिक  दहकने लगा उनके कठोरता की कोई सीमा ही नहीं थी | 

सुनि पुनि  बालक हरिहि तुरंगा । ज्वाल नयन जरइ सब अंगा ॥ 
कहत धरनि धर सुनु हे मुनि बर ।  भंग भुजा केरे दरसन कर ॥ 
उन्होंने जब सुना कि बालक ने अश्व का हरण कर लिया तब नेत्रों की ज्वाला से उनके सभी अंग धधक उठे | इस प्रकार भगवान शेष जी कहते हैं हे मुनिवर ! अपनी सेना को ऐसी भग्न बाहु दशा के दर्शन कर -

नाचत बदन अगन कन चमकहिं । अस जस धनवन दामिनि दमकहिं ॥ 
सकल कटक अस थर थर काँपिहि । भूमि कम्प जस भवन ब्यापिहि  ॥  
शत्रुहन के मुख पर क्रोध की चंगारी ऐसे नृत्य करने लगी जैसे आकाश में चंचला नृत्य करती हो ॥ समूची सेना ऐसे थरथर कांपने लगी जैसे भवनों में भूकंप व्याप्त हो गया हो | 


पीसत दंत गरजत हँकारे । पचार लवन्हि बदन पसारे ॥ 

अधर दल रद दायन  दीन्हे । कोपु बिबस चिन्हारी कीन्हे  ॥ 
दन्त पिसते वह गरज कर पुकार करने लगे और लव को ललकारते हुवे मुख विस्तारित कर दिया | अधर दल पर दंतों का जब दान दिया तब कोप के वशीभूत उसपर दन्त-चिन्ह प्रकट हो गए | 

बहु रिसिहाईं  पूछ बुझाईं  दरस कटक बाहु कटे । 
कवन बीर कर काटे भुज धर ते मोर सौमुख डटे ॥ 
कहत पुनि सोइ बल बलबन्हि रच्छिहैं किन देवहीं । 
गह बल केते बाँच न पाइँहि जो मोरे हस्त गहीं  ॥ 
अपने सैनिकों की कटी हुई भुजाएँ देख कर शत्रुधन ने  अत्यंत रोष पूर्वक प्रश्न करने लगे: - ' किस वीर के हाथों ने ये भुजाएं काटी है । वो मेरे सम्मुख तो आए ,उन्होंने फिर  कहा : - ''वह बलवान चाहे देवताओं से ही रक्षित क्यों न हो ,उसने कितना ही बल क्यों न संग्रह किया हो वह मेरे हाथों से नहीं बच पाएगा | ''

सुनि सैन सत्रुहन बचनन, किए अचरज भरि खेद । 
एक बालक श्री राम रुप, कहत बाँधि है मेद ।। 
सैनिकों ने शत्रुध्न के वचन को सुनकर आश्चर्य युक्त खेद व्यक्त कर बोले : -- एक बाल किशोर है जो श्री राम के स्वरुप ही है उसी ने उस गठीले अश्व को बांधा है ॥ 

शुक्रवार, ०८ अप्रेल , २०१६                                                                                 
सुनि एकु बालक हरिहि तुरंगा । छोभअगन किए नयन सुरंगा ॥ 
बोलि बिमूढ़  हठि बालक एहू । करन चहसि सठ जमपुर गेहू ॥ 
एक बालक ने उस अश्व का अपहरण किया यह श्रवण कर क्रोधाग्नि ने नेत्रों को लाल कर दिया वह बोले : - '' यह हठी बालक मूर्ख है यह दुष्ट यमलोक में अपना निवास वसवासित करने हेतु अभिलाषित है | 

तब रिपुहन बिहरत निज आपा । कसेउ ताल कठिन कर चापा ॥ 
दहन तपन हरिदै न  समाहू । संग्राम हेतु होत उछाहू ॥ 
तब शत्रुध्न ने अपना संयम त्याग दिया और करतल में कठिन कोदंड कर्षित कर लिया | संग्राम हेतु उत्कंठित होते क्रोधाग्नि का ताप ह्रदय में समाहित नहींहो रहा था| 
  सेनाधिप काल जित बुलायो । नीति बनाउन आयसु दायो ॥
कहि दलपति अग्या यह मोरे । सब रन साजु सँजोइल जोरें ॥ 
तदनन्तर उन्होंने सेनाधिप कालजित को बुलाया उन्हें रणनीति निर्मित करने का आदेशदिया | दलपति से कहा यह मेरी आज्ञा है संग्राम की समस्त  साज सामग्रियां संयोजित करो | 

रचिहु अदम दुर्भेद ब्यूहा । जुगावत सबहि जेय समूहा ॥ 
अहहैं रिपु एकु बीर जयंता । बिपुल तेज बल अति बुधवन्ता ॥ 
समस्त जेयशील समूहों का संकलन कर अदम्य व् दुर्भेद्य व्यूह की रचना करो | एक शत्रु है जो वीर व् जयंत है उसमें विपुल तेज, बल है वह अत्यंत बुद्धिमन्त है | 

मरे तुरग हरिहि जो कोई । सो बालक सधारन न होई ॥ 
एहि अवसर सुनु करन चढ़ाई । चौरंगीनि लेउ बनाई ॥ 
हमारे तुरंग का जिसने हरण किया है वह बालक साधारण नहीं है | सुनो ! इस समय उसपर आक्रमण करने हेतु चतुर्रंगी सेना सुसज्जित करो | 

द्युतिमन दरपन सहुँ दै आसन सकल प्रसाधन निहार के । 
सब साज सुसाजित करिहु समाजित चातुरंग सिँगार के ॥ 
राम प्रतिरूप रूप न थोड़े सो बीरबर सुकुमार के ।  
सुनु लिवात समर लगन सदन पुनि करिहु सम्मुख सँभार के ॥ 
समस्त सौंदर्य प्रसाधनों का विलोकन करके तत्पश्चात प्रभामयी दर्पण के सम्मुख उसे आसन प्रदान करना | समस्त साज सामग्रियों से सुसज्जित करके उसके चतुरंगों का श्रृंगार कर उसे तैयार करना रामचन्द्रजी का प्रतिरूप उस वीरवर सुकुमार का रूप भी यत्किंचित नहीं है अर्थात वह अत्यधिक रूपवान है सुनो ! फिर उसे संग्राम रूपी लग्नमण्डप पर लाकर फिर यत्नपूर्वक उसे सम्मुख करना | 

द्योतिमन दरपन सहुँ चातुरंग सम्भार । 
समर साज प्रसाधन सों करि सुठि सब सिंगार ॥ 

अरिहन अग्या सेन पत सकलत अदम समूह । 
सब रन बाज बजाए सो रचिहि अभेद ब्यूह ॥ 
तत्पश्चात प्रभामयी दर्पण के सम्मुख युद्ध की समस्त साज सामग्रियों से सेनापति कालजित ने यत्नपूर्वक सेना के चतुरंगों का सुंदर शृंगार किया फिर रिपुहंत की आज्ञा का अनुशरण करते हुवे अदम्य समूहों का संकलन कर युद्ध के समस्त ढोल-डंके बजाने वाले  (युद्ध की सभी कलाओं को जानने वाले) एक अभेद्य व्यूह की रचना की | 

आनि लेइ रिपुहन समुहाई । निरखत सजी धजी कटकाई ॥ 
हरनहार जहँ बालक पायो । तहाँ पयावन कहि समझायो ॥ 
फिर उसे शत्रुध्न के सम्मुख लाकर उपस्थित कर दिया | सजीधजी सेना का निरिक्षण कर का फिर उसे वहां प्रस्थान करने हेतु प्रबोधित किया जहाँ अश्व का हरणहारी प्राप्त हुवा था | इत चतुरंगिनि आगिन बाढ़िहि । पंथ जुहारत लव उत ठाढ़िहि ॥ 
दरसत बालक रूप अनूपा । कहि दलपत अह  राम सरूपा ॥ 
इधर चतुरंगी सेना आगे बढ़ रही थी उधर उसकी प्रतीक्षा में अधीर लव उपस्थित थे | बालक के अनुपम रूप का दर्शन कर सेनापति ने कहा : - अहो! यह तो रामजी का ही स्वरूप है | 

कहत कुँअरु हे पलक न पारे । परिहरु देउ तुरंग हमारे॥ 
अवध पति जिन्ह के गोसाईं । तिन्हके  बिकम बरनि न जाई ॥ 
पलकें गिराए बिना अर्थात एकटक अवस्था में ही सेनापति ने कहा हे कुमार ! हमारे अश्व को  विमुक्त कर दो | इसके स्वामी अयोध्यापति श्रीराम चंद्र हैं उनका पराक्रम अनिर्वचनीय है | 

गहेउ तपसि राम सम चेले । ताहि सरूप रूप तव मेले ॥ 
दरस तोहि मैं भयउँ दयालू  । कारन तव छबि सोंह कृपालू ॥ 
तुमने तपस्वी श्रीराम का के समान वेश धारण किया हुवा है इस हेतु तुम्हारा रूप उनके स्वरूप से सम्मेलित होता प्रतीत हो रहा है | 

जिअ बिसुरत निज सुध बुध भूला । होइ चहु तुम्ह तूलमतूला ॥ 
अब लग जग जिअ हारि न काहू । तासु हृदय तुम जीतन चाहू ॥ 
प्राणों का मोह त्याग कर अपनी संचेतना को विस्मृत किए तुम उनका सामना करने को आतुर हो ? जिस सेना ने संसार में अबतक किसी को प्राणहार नहीं माना  तुम उस सेना के ह्रदय पर विजय प्राप्त करने हेतु अभिलाषित हो ? 

सुनहु हे बीरबर कुँअर मानिहु बात न मोरि । 
रोपिहु हठ एहि अवसर त होहि राख कस तोरि ॥ 
हे वीरवर कुमार !  सुनो, यदि  मेरा कहा नहीं माना और इस समय हाथ का आरोपण किया तो तुम्हारी रक्षा किस प्रकार होगी ? 

शनिवार, ०९ अप्रेल, २०१६                                                                                      

लव मुख दर्पण छबि निज नाहा ॥ बिलखत अपलक बोलहि  बाहा ।  
जो तुम्ह मोर कहि नहि मानिहु ।  निज जीवन  बिरथा बिनसानिहु ॥ 
लव के मुखदर्पण पर अपने महारज श्रीरामचन्द्र जी की छवि का दर्शन करते हुवे सेनावाह अपलक बोलते रहे :-- यदि तुमने मेरा कहा नहीं माना तो अपना जीवन व्यर्थ में नष्ट कर दोगे | 

मैं बयोबिरध तुअ एक बालक । कारन तुम पदचर में एक पालक ॥ 
सुनु हे रघुबर कर प्रतिरूपा । देउ हरि है सौंपि सो भूपा ॥ 
मैं वयोवृद्ध हूँ और तुम एक बालक हो | तुम एक पदचारी हो और मैं एक सेनापाल हूँ, एतएव तुम्हारी और मेरी क्या तुलना | हे राम प्रतिरूप ! सुनो, तुम राजा शत्रुध्न को हरण किया हुवा वह अश्व सौंप दो | 

मोरी छबि अवधेश समाना । होइ चकित लव सुनि जब काना ॥ 
जबु दलपत कहि बत गुँजराँई। कछु हँसि हंस अधर तरियाँईं ॥ 
मेरी छवि अवधेश के समरूप है जब महाराज लव को यह श्रवण हुवा तो वह चकित रह गए और जब दलपति की कथोक्तियाँ गुंजायमान हुई तब हास्य के कुछ एक हंस अधर सरोवर पर तैरने लगे | 

हृदय तरंग माल उमगाईं । एकु  तरि आईं एकु तरि जाईं ॥ 
एक छन अधरन दिए अलगानी । बोलि गिरा पुनि मधुरस सानी ॥ 
हृदय में तरंगमालाएँ उत्तोलित होने लगी जो एक तीर पर आती और एक तीर पर चली जाती | क्षणमात्र को अधरों मौन को प्रतिष्ठित कर तत्पश्चात मधुरस में संलिप्त वाणी से बोले : - 

नाउ धर केहि नाउ न होही । होत कीरत करनि कृत सोई ॥ 
किसी का नाम धारण करने मात्र से कीर्ति नहीं होती | कीर्ति तो अपनी कृत करनी से ही होती है | 

जे तुम मानिहु हार, मैं तुरग परिहर करिहउँ । 
कहिहु ए समाचार, राम सों भग्न दूत बन ॥ 
हे सेना पति काल जित, यदि तुम अपनी हार मान लो तो मैं इस घोड़े को छोड़ दूँगा । और  श्रीराम चन्द्र जी के सम्मुख युद्ध में हार का सन्देश देने वाले दूत बनकर सारा समाचार कहो ॥ 

कहत चकित तब काल जित जनमिहु तुम कुल केहि । 
कहौ बिदित सो नाउ निज तोहि पुकारसि जेहि ॥ 
तब कालजित  स्तब्ध रह गए और यह वचन बोले : - तुम्हारा जन्म  किस कुल में हुवा है ? तुम्हा जगविदित वह नाम कहो जिससे तुम सम्बोधित होते हो | 
रविवार, १० अप्रेल, २०१६                                                                                          

सीस जटा जुट बिबरन  दाही   । करिहहु रन धुनि मुनि तुम नाही ॥ 
तन जति बसन बिचरहु बन एही । बसिहउ गाँव नगर कहु केही ॥ 
शीश पर जटाजूट तुम्हारे मुनि होने की व्याख्या करती हैं किन्तु युद्ध की धुनि रमाए हुवे हो इस हेतु तुम मुनि कदापि नहीं हो | 

कहहु बीर तव नृप को होंही । तुहरी दसा जनाउ न मोही ॥ 
राज लच्छन सब अंग सुहाए । में रथि अरु तुम  पयादहि पाएँ ॥  
कहो वीर तुम्हारे राजा कौन है ? अपनी इस दशा से मेरा प्रबोधन करो | तुम्हारे सभी अंगों में राज लक्षण सुशोभित हैं फिर मैं रथी हूँ और तुम थलचारी पदचर हो | 


तुमहि कहौ दुर्दम में ऐसे । तोहि धर्मतस जीतौं  कैसे ॥ 
कहत सियसुत नगर कुल नाउ । कहौ तो लेन दसा ते काउ ॥ 
तुम ही कहो ऐसी दुर्दम्य अवस्था में मैं धर्मतः तुम्हें कैसे जीतूँ ? तब सीतपुत्र लव ने कहा : - ''नगर,कुल,नाम से तुम्हारा क्या औचित्य कहो तो दशा से भी तुम्हे क्या लेना ? 


सेनापति बहु कह समुझाईं । पराधीन सपनेहु सुख नाहीं ॥ 
हमहु अधीन न अंगीकारी  । कहत एहि मुख करक चिंघारी ॥ 
सेनापति कालजीत ने लव को बहुंत समझाया किन्तु पराधीनता स्वपन में भी सुख नहीं देती लव ने  फिर यह उद्दीप्त होकर कहा  हमें अधीनता  स्वीकार्य नहीं है ॥ 

में लव अहिहउँ अरु लव माही । जितिहउँ समर बीर सब काहीं ॥ 
सकुचउ न मोहि जान पयादहि । बिनहि रथि करि देउँ में तुम्हहि ॥ 
मैं लव हूँ और लव का अर्थ  निमेष होता है में निमेष मात्र में ही सभी शूर वीरों  को जीत लूँगा । तुम मुझे प्यादा जानकर संकोच न करो लो मैं तुम्हें भी प्यादे में परिणित कर देता हूँ  ॥ 

असि बत कहि कह सो बलवाना । चढ़ा पनच कोदण्ड बिताना ॥ 
प्रथम जनि पुनि सुरत गुरु नामा । मन ही मन कर तिन्ह प्रनामा ॥ 
ऐसा कहते हुवे उस बलवान ने प्रत्यंचा खैंचकर कोदंड विस्तारित किया | सर्वप्रथम अपनी माता और फिर अपने गुरु वाल्मीकि  का नाम स्मरण करते हुवे मन ही मन उन्हें प्रणाम किया ॥ 

लगे बरखावन घन घन बान बिकट बिकराल । 
रिपुगन के जो काल बन प्रान लेइ तत्काल ॥ 
फिर विकट व् विकराल वाणों के घन से सघन वर्षा करने लगे जो शत्रुगण का काल बनकर उनके तत्काल  प्राण लेने में सक्षम थी | 

बिकट बिसिख गन बरखन लागे । घानत घन रिपु जीउ  त्यागें ॥ 
तमकि ताकि पताकिनी पाला । भींच अधर किए लोचन लाला ॥ 
विकट बाण समूह वर्षने लगे उसके सघन गर्जना ने कहा अरे शत्रु ! अब प्राण त्याग दो विपक्षी सेना की ओर तमककर दृष्टि करते लव के भींचते अधर नेत्रों को लाल करने लगे | 

दहत बदन गह अगन प्रचंडा । करषत कसत कठिन कोदंडा ॥ 
निरखत नभ गच पनच चढ़ाईं । देइ परच निज रन चतुराई ॥ 
क्रोध रूपी प्रचंड अग्नि से उनका मुखमण्डल दहक उठा फिर उन्होंने कठिन कोदंड को कसकर कर्षित किया और आकाश की और दृष्टि गड़ा कर  प्रत्यंचा चढ़ाई और अपनी सामरिक चतुराई का परिचय दिया | 

छूटत सरगन गगन घन छाए । लगे जो जिय सो जीव न पाए ॥ 
लपकत ताहिं बीर बरबंडा । किए एक एक के सत सत  खंडा ॥ 
प्रत्यंचा को त्याग कर बाणों के समूह आकाश में बादलों के समान व्याप्त हो गए वह जिस किसी के ह्रदय को लक्षित करते वह  जीवित नहीं रहता | 

घमासान रन भयउ बिहाना  । छाडसि लसतकि कसि कसि बाना ॥ 
अष्टबान पुनि प्रतिहत मारे । निपत नीच दलपत भू पारे ।। 
घमासान युद्ध होने लगा धनुष की मूठ कस कस कर बाणों का त्याग करने लगी | फिर अष्टबाण प्रतिघात में अष्टबाण का प्रहार किया तब दलपति अधोपत होते हुवे भूमि पर गिर पड़े | 

चढ़े घात भए रथहु बिभंगा । दुहु पयादिक भयउ ता संगा ॥ 
तुरत तमीचर  करि लय आईं  । सपत धार मददान रिसाईं ॥ 
उन बाणों के घात पर चढ़के रथ भी विभंजित हो गया इसके साथ ही वह दोनों योद्धा पदचर हो गए | तब एक तमीचर तत्काल ही एक हस्ती ले आया उससे सप्तधार में मदजल स्त्रावित हो रहा था | 
  चढ़ बैठें पति छन ताऊपर ।  रन दुर्मद चलिअ अति बेगिकर॥ 
गजारूढ़ानिपालहिं देखा ।  रिपु जयंत सो बीर बिसेखा ॥ 
सेनापति कालजित तत्क्षण उसपर आरोहित हो गए और दुर्मद रण हेतु शीघ्रता पूर्वक चल पड़े | गजारूढ़ सैनीपाल को दर्शकर शत्रु पर विजय प्राप्त करनेवाले उस विशिष्ट वीर ने : -

मारि बिहस कुल बान दस दरस दरस  दल राय । 
झपटि भीतत बिंध दियो हरिदै भवन समाए ॥ 
दलपति को देख देखकर उपहास पूर्वक कुल दस बाणों का प्रहार किया; तीव्रगति से परिचालन करते वह बाण दलपति का भेदन करते उसके ह्रदय भवन में समाहित हो गए | 

बृहस्पतिवार १४ अप्रेल, २०१६                                                                               

अस बल स रन कौसल भारी । अधिपत अबरु न कतहुँ निहारीं ॥ 
बहुरि भयंकर परिघ प्रहारी । लगत तुरए जो जिअ अपहारीं ॥ 
ऐसा बल ऐसा गहन रण कौशल सेनाधिपति को अन्यत्र कहीं दृष्टिगत नहीं हुवा था | फिर उन्होंने भयंकर बाण का प्रहार किया जो लक्ष्य प्राप्त करे तो तत्काल ही प्राणों का अपहरण कर ले | 

चढ़त अगास चिक्करत धायो । चरत चपल लव काटि गिरायो ॥ 
लिए करबीर करतरी पासा ।  दुर्मद हस्ती किए बिनु नासा ॥ 
आकाश में आरोहित होकर वह घूर्णन करते हुवे दौड़ा इधर लव ने चपलता पूर्वक  परिचालन करते हुवे उसका निवारण कर दिया | फिर उस वीर ने एक कतार हस्तगत कर उस दुर्मद हस्ती को विहीन कर दिया | 

तजत सकल कल केतु समूहा । कुलत करिहि सो कुंजर कूहा ॥ 
कूदि ततछन धरिअ पद दन्ता । सीस भवन पुनि चढ़े तुरंता ॥ 
तब समस्त कल केतुओं का त्याग कर पीड़ित होते हुवे वह कुंजर चिंघाड़ उठा लव दन्त पर चरणदान कर तत्क्षण ही उसके शीर्ष भवन पर आरोहित हो गए | 

भेंट अधिपत बीर बरबंडा । मौलि मुकुट कीन्हि सत खण्डा ॥ 
गाताबरन सहस खन करिहीं । हनत मुठिका केस कर धरिहीं  ॥ 
हस्ती के शीर्ष पर सेनाधपति के साथ भेंट हुई तब लव ने उसके मस्तक के मुकुट को सात खण्डों में विभक्त कर फिर कवच के  शतक खंड कर दिए | मुष्टिका का प्रहार कर केश पकड़े 
खैंच ताहि महि देइ गिरायो । दुर्धर कोप नयन  मुख छायो ॥ 
अधिपति मुख  बल निपतत भूहा ।  भेद गही निर्भेद ब्यूहा ॥ 
और उन्हें खैंचते हुवे उसे भूमि पर ला गिराया उस समय उनके मखमंडल व् नेत्रों भयंकर कोप व्याप्त था | सेनाधिपति मुख के बल धराशायी हुवे इस प्रकार उसके  निरभेद्य व्यूह का विभेदन कोप्राप्त हो गया | 

धारा बिष करताल गहत घात लहरात पुनि । 
भरि जुग नयन ज्वाल लवनहि बधन अगुसर भए ॥ 
इस आघात को ग्रहीत कर तदनन्तर कालजित ने एक धारयुक्त खड्ग धारण की, उसे लहराते हुवे उसके युगल नेत्रों में ज्वाला भर गई  वह उस खड्ग से लव का वध करने के लिए अग्रसर हुवा | 

चलि झलझल जोलाहल जोई । सौंट सरट कोलाहल होई ॥  
पत कर गहि कर बीर बिसेखा । लव जब नियरै आगत देखा ॥ 
ज्वाल संयोजित कृपाण जब चमकती हुई चलने लगी तब वायु सरसर की ध्वनि कोलाहल करने लगी सेनापति के  हस्तगत उस विशेष  कृपाण को लव ने जब अपने निकट आते देखा 

काटि माँझि दाहिन भुज ताहीं । खडग सहित छन गिरि महि माहीं ॥ 
देखि भुज  तरबारि महि पारी ।   उमगिहि कोप दहन अति भारी ॥ 
तब उन्होंने  मध्य भाग से उसकी दाहिनी भुजा काट दी ,क्षणमात्र में वह कृपाण सहित भूमि पर गिर पड़ी | अपनी भुजा को कृपाण सहित पृथ्वी पर गिरा देखकर उसमें अत्यंत गहन क्रोधाग्नि उमड़ पड़ी | 

बाम भुज गरु गदाल गहावा । हतोद्यम लवनहि पुर आवा ॥ 
तीछ बान तैं ऐतक माही । तमकत काटि दियो लव ताहीं ॥ 
वाम भुजा से एक भारी गदाल  धारण किए हैट हेतु उद्यमित होकर वह लव की और उन्मुख हुवा | इतने में ही लव ने व्यग्र होते हुवे एक तीक्ष्ण सायक से उस भुजा को काट गिराया |

कतहुँ त मुग्दल करतल पूरा । गिरि कतहुँ कर कलित केयूरा ॥ 
धधकत धारा बिष धरंता । मुनिबर पुनि बालक बलवंता ॥ 
करतल में आपूरित कहीं तो वह मुद्गल तो कहीं हस्त कलित केयूर गिरा | तदनन्तर हे मुनिवर !  ज्वाला से धधकते उस कृपाण को धारण किए वह बलवंत बालक 

टूट परेउ काल के नाईं । मुकुट मंडित माथ बिलगाईं ॥ 
परे रन भुइँ बहुरि निरजूहा । भयऊ  जुगत रहित सब जूहा ॥ 
कालजित प् काल के समान टूट पड़ा और उसके मुकुट मंडित मस्तक को पृथक कर दिया | फिर अपने शिरोभूषण को रण-भूमि पर निपातित देख शत्रुध्न की सैन्य टुकड़ी युक्ति से रहित हो गई | 

खेत होइ सेनाधिपत प्रसरित भए चहुँ ओर । 
चिक्करत बिकल करिहि सकल  कोलाहल घन घोर ॥  
सेनापति वीरगति को प्राप्त हो गए यह समाचार चारों ओर प्रसारित हो गया सभी सैनिक चक्कर लगाते व्याकुल अवस्था में घनघोर कोलाहल करने लगे | 

मंगलवार, १७ अप्रेल २०१६                                                                                          
सकल चमुचर छोभ भरि आवा । लवनन्हि बधन चरन बढ़ावा ॥ 
होत क्रुद्ध अति  होइ अगौहाँ । सियसुत तुरत आए ता सौंहा ॥ 
समस्त पदचारी सैनिक क्षोभ से भर गए और उन्होंने लव का वध करने हेतु आक्रमण कर दिया | क्रुद्ध होते हुवे जब वह अत्यंत अग्रगामी हो गए तब सीतापुत्र लव तत्काल उनके सम्मुख आए

रजु कसि पुनि असि मारिउ बाना । सबन्हि पाछिन देइ पराना ॥ 
चलिअ  बान  जिमि पवन अधीरा । गिरहि बीर जिमी तरु नद तीरा ॥ 
और फिर प्रत्यंचा कसकर उन्हें ऐसे बाण मारे जिन्होंने सभी पदचरों को पछाड़ दिया | वह बाण ऐसे परिचालित होते जैसे अधीर पवन परिचालित होती है और वह वीरों पर ऐसे गिरते जैसे नदी तट पर कोई सघन वृक्ष गिरता है

भयो ढेर केतक भट केरी । केतन केत चलिअ मुख फेरी ॥ 
एहि बिधि छतवत सबहिं जुझारू । अगहुँ तेउ पुनि भए पिछबारू ॥ 
कितने ही सैनिक ढेर हो गए और कितने ही रण छोड़कर भाग चले इस प्रकार सभी योद्धाओं कष्ट विक्षित होते अग्रगामी से पश्चगामी हो गए |  
भर बर लव रन भूषन भेसा । कटकु माझ बहु मुदित प्रबेसा ॥ 
चरन केहि के केहि कर बाहु । काटेउ करन नासिका काहु ॥ 
युद्ध के सभी वेशाभूषणों का आभरण किए प्रमुदित महाराज लव सेना के मध्यभाग में प्रविष्ट हो गए फिर तो उन्होंने किसी के चरण तो किसी की भुजा किसी का कर्ण तो किसी की नासिका काट दी | 

  कोउ बदन भै नयन बिहीना । कोउ कवच को कुंडल हीना ॥ 
एहि बिधि सेनापति गै मारे । होइ भयंकर सैन सँहारे ॥ 
कोई मुखमण्डल नेत्रों से विहीन हो गया, कोई कवच तो कोई कुण्डलों से रहित हो गया | इस प्रकार सेनापति का मारे गए, सेना का भयंकर संहार हुवा | 

सबहि जीउ सिराए गए जिअत रहे नहि कोइ । 

चतुरंगिनि हिय जीत लव बिजै कलस कर जोइ ॥ 
सभी के प्राण जाते रहे कोई जीवित शेष नहीं रहा | उस  चतुरंगिणी का ह्रदय जीतकर लव का हस्त  विजय कलश को प्राप्त हुवा | 

एहि बिधि हतवत रिपु समुदाई । बिनु पत परवत गयउ सिराई ॥

होइ पराजय ए अनकनी  के । आए न जाईं कोउ अनीके ॥ 
परवत् = असहाय होकर 
इस इस प्रकार क्षत-विक्षत शत्रुदल सेनापति के बिना असहाय होकर समाप्त हो गया इस सैन्य टुकड़ी की पराजय हुई किन्तु कोई और टुकड़ी न आ धमके -

मानस मन एहि संसय जागे । लव रन पंथ जुहारन लागे ॥
रहइ सचेत नयन पथ लाईं ।   अपर अनीक करन अगवाईं ॥ 
मनोमस्तिष्क यह संशय जागृत होते ही महाराज लव युद्ध  हेतु उसकी प्रतीक्षा करने लगे  फिर वह सावधान होकर और दूसरे सैनिकों के आगमन पर उनके स्वागत हेतु पथ दृष्टि लगाए रहे ॥ 

सुभाग बस को को रजतंती । जोवत जीय रहे जीवंती ॥ 
पाहि पाहि कह सकल पराने । पाछु फनिस सम सायक आने ॥ 
सौभाग्यवश कोई कोई वीर अपने प्राणों की रक्षा करने में सफल रहे और जीवित रहे वे सभी रक्षा की पुकार करते भाग चले सर्प सदृश्य सायक उनका पीछा करने लगे | 

पराबरत गत रिपुहन पाहीं । समाचार सब कहत सुनाईं ॥ 
काल सरिबर करनि एकु बाला । लहिअ काल जित मरनि अकाला ॥ 
वह लौट कर शत्रुध्न के पास गए औ उन्हें युद्ध का सारा वृत्तांत कह सुनाया | काल के समान एक बालक की करनी से सेनापति कालजित अकाल म्रत्यु को प्राप्त हुवे | 

तासु बिचित्र  रन करम बखाना । सुनि सत्रुहन बहु अचरजु माना ॥  
चितबहि चितबत कहत तिन सोहु ॥ भरम जाल बस  कहा तुम होहु | 
उनकी विचित्र रण कौशल्यता का व्याख्यान श्रवण कर शत्रुध्न हतप्रभ रह गए | उन वीरों को एकटक निहारते फिर उन स्तब्ध वीरों से कहा -''क्या तुम किसी भ्रमजाल के वशीभूत हो ?''

कहु तो घेर घारि को माया । करहु मम सिरु कपट की छाया  ॥ 
करिहु मोर संगत छल छामा | तुहरे बचन भयउ कस बामा || 
 कहो तो छल कपट की प्रतिछाया कर इसे किसी मोह कारिणी शक्ति ने घेर लिया है ? अथवा तुम मुझसे कोई छलछंद कर रहे हो विजय का समाचार सुनाने वाले तुम्हारे वचन विपरीत कैसे हो गए | 

बिकल त अहहि न चित्त तिहारे । काल जित अह गयउ कस मारे॥ 
सोइ मरनासन्न कस होई । जम तेहु दुर्धर्ष जो होई ॥ 
तुम्हारा चित्त हतचेत तो नहीं हो गया है अहो! कालजित कैसे मारे जा सकते हैं वह मरणासन्न कैसे हो सकता है जो यम के द्वारा भी दुर्धर्ष हो ॥  दुर्दमनिअ बल पौरुष जासू । अरु एकु बालक जीतिहि तासू  ॥ 
कहौ ताहि को जीतिहि  कैसे । जो आपही  काल कर जैसे ॥ 
जिसका बल पौरुष दमन से परे हो उसे एक बाल  किशोर ने कैसे पराजित कर दिया ? जो स्वमेव में ही काल स्वरुप हो उसपर कोई कैसे विजय प्राप्त कर सकता है  ॥ 

सुनिहि बीर सत्रुहन के भाषन । रक्ताम्बरी करिहि निवेदन ॥  
ना हमको को माया घेरी । ना हम किन्ही के उत्प्रेरी ।। 
शत्रुधन का ऐसा भाषण सुनकर रुधिर से सने लाल कनेर से दर्शित होते  उन वीर सैनिकों ने फिर ऐसा कहा : -- हे राजन ! न तो हमें किसी मोह कारिणी शक्ति ने ही घेरा है, और न ही हम किसी के उत्प्रेरित ही हैं ॥ 


गहिहिं घात अघात जुधिक देह रुधिर लपटानि । 
कहिहिं  नीतिगत बचन पुनि सत्रुहन सहुँ जुग पानि ॥ 
घाताघात ग्रहण किए उन योद्धाओं ने रक्तरंजित देह लिए फिर शत्रुध्न के संमु करबद्ध होकर यह नीतिगत वचन कहे  हे राउ अहहै हम पर, तव प्रतीत की सौंह । 
जोउ दरसे जेइ नयन, कहे जोंह के तोंह ॥ 
हे राजन ! हमको तुम्हारे विश्वास की सौगंध है इन आँखों ने जो कुछ भी देखा, वह हमने यथावत कह सुनाया ॥  

बुध/ | बृहस्पति  २० / २१ अप्रेल, २०१६                                                                                     

करहिं न हम छल कपट न खेला । किया एकै सो हम पर हेला ॥ 
कालजित कर मरनि गोसाईँ । भई बीर सो बालक ताईं ॥ 
न हम कोई छल-कपट कर रहे हैं न कोई खेल | जिसने हम पर  आक्रमण किया वो एक ही है | स्वामी ! कालजित की मृत्यु भी उसी वीर बालक के द्वारा हुई है | 

 एतक अपूरब रन कुसलाई । तासों सकल कटकु मथना ई ॥ 
 होइ जोइ अब तासु बहोरी । करहु सोइ जस मति कहि तोरी ॥ 
इतना अभूतपूर्व रणकौशल इतना अभूतपूर्व है कि उससे समूची सेना का मंथन हो गया | इसके पश्चात् जो कुछ उपाय हो उस हेतु जैसा आपकी बुद्धि कहती है आप वही कीजिए |

जिन्हनि जुझावन हुँत पठाहू । होइ चाहिब सो बली बाहू ॥ 
भट निवेदित बचन दए काना । तब रामानुज परम सुजाना ॥ 
उस परमवीर से मुठभेड़ के लिए जिन्हें रणभूमि भेजेंगे वे बाहुबली होने चाहिए | सैनिकों द्वारा निवेदन किए वचनों को श्रवण कर परम बुद्धिवंत रामानुज ने तब - 

करम नीति महुँ अति निपुनाई ।  मंत्रीबर तैं पूछ बुझाईं ॥ 
महोदय तुमहि जनाउब एही । हरिअ लियो हय बालक केही ॥ 
युद्ध नीति  में अत्यंत निपुण मंत्रिवर से प्रश्न किया - ''महोदय !  अब आप ही प्रबोधित कीजिए किस बालक ने  मेधीय अश्व का हरण किया है | 

सरितपति सिंधु सरिस मम सकल चमूचर आहिं । 
तपन काल के ताल तुल पलक सोष बिनसाहि ॥ 
मेरे समस्त योद्धा सरितापति सिंधु  के समान थे वह तपनकाल  के ताल तुल्य क्षणमात्र में अवशोषित होकर विनष्ट हो गए | 

गींव भयउ गहबरि के नाईं । महमन सुमति बोलि गोसाईं ॥ 
बाल्मीकि केरे आश्रमु एहि । रिषि मुनि अबरु ए निवास  न केहि ॥ 
कंदरा के समान हुई ग्रीवा से फिर महामना सुमति बोले - स्वामी ! यह वाल्मीकि जी का आश्रम है उस ऋषि मुनि के अतिरिक्त यहां अन्य किसी का निवास नहीं है | 

हरनहार सुरपति त न होईं । आन तुरग हरि सके न कोई ॥ 
कै संकर भरि बालक भेसा । अरु हरनि नहि कतहुँ को देसा ॥ 
उस अश्व के हरणकर्ता कहीं देवराज इंद्र तो नहीं हैं क्योंकि उनके अतिरिक्त इस अश्व को हरण करने में कोई समर्थ नहीं है अथवा फिर भगवान महादेव ने बालक का वेश धारण कर उसका हरण किया हो ? उसे हरण करने हेतु कहीं कोई देश शेष नहीं बचा | 

सोच बिचार मम मति अस कहहि । एहि औुसर जैहौ तहँ तुम्हहि ॥ 
लेइ संग निज सैन बिसाला । चारिहुँ पुर बल बीर भुआला ॥ 
भलीभांति विचार कर मेरी बुद्धि ऐसा कहती है कि इस समय आप ही वहां जाएं और अपने साथ विशाल सेना को साथ ले चारों ओर से वीर राजाओं का घेराकर 

जाए तहां अब तुम अरिहंता । बाँध  लियो छन ताहि जियन्ता ॥ 
रिपु कर करतब करत न हारे । कौतुक प्रिय रघुनाथ हमारे ॥ 
हे अरिहंत ! वहां प्रस्थान कर आप उसे जीते जी ही क्षणमात्र में विबन्धित कर लीजिएगा | ये हमारा शत्रु  कौतुक करा नहीं थकता और हमारे रघुनाथ को भी कौतुक प्रिय है | 

बाँध कसि ले जैहौं तहँ हार परन मैं ताहि । 
करिअ सम्मुख देखइहौं रघुबर सों सब काहि ॥ 
बालक की हार के पश्चात मैं उसे कसके बाँधकर वहां ले जाऊंगा और उसे  सम्मुख प्रस्तुत कर रघुबर सहित सभी को उसके कौतुक का दर्शन कराऊंगा | 

सुनि रिपुहन  कहि सचिउ कर  बचन |  सकल बीरन्हि दिए अनुसासन || 
तुम ए बिपुल अनि संग अगोहू | अइहौं मैं तुम्हरे पछोहू || 
मंत्रिवर सुमति के वचनों को श्रवण कर शत्रुध्न ने समस्त वीरों को आज्ञा दी --'तुम इस विपुल सेना के साथ आगे बड़ो, में भी तुम्हारे पीछे आता हूँ |'

रामानुजन्हि आयसु पाईं | चले बीर भट लए कटकाई || 
दलबल पूरित सैन बिसाला | निरखत नियरावत सो बाला || 
रामानुज की आज्ञा प्राप्तकर सेना लिए सैनिकों ने प्रस्थान किया दलबल से परिपूर्ण उस विशाल सेना अपने निकट आता देख वह बालक -

ठाड़ भयो बनराजु समाना | सकल बीरन्हि मृग तुल जाना || 
ते तमचूर ताहि चहुँ फेरा | ठाढ़ेसि सहुँ घारि घन घेरा || 
किसी सींग के समान उतिष्ठित हुवा और सभी वीरों को मृग के तुल्य समझा | वे सैनिक उस वीर बालक के चारों ओर घना घेरा किए सम्मुख आ डटे | 

तेहि समउ ता घेरनहारे | बिलखत लोचन गहे अँगारे || 
जरत अगन ज्वाल कन जागे | सकल भटन्हि भसम करि लागे || 
उस समय उसने घेरा डालनेवाले समस्त सैनिकों को अंगारयुक्त नेत्रों से देखा क्रोध रूपी प्रज्वलित अग्नि से रोष की चिंगारी फूट पड़ी वह उन सैनिकों को भस्म करने में लग गई  | 

बिष धारा पुनि करतल धारे | केहि घात दए घाट उतारे || 
मारि बान तियरात नभौका | पहुंचाइ दिए केहि परलोका || 
किसी सैनिकों को करतल ग्रही कृपाण के प्रहार से मृत्यु के घाट उतार दिया | किन्हीं को बाणों से नभ में तैराते हुवे परलोक पहुंचा दिया | 

केहि प्रास कुंत पटिसा केहि परिघ सहुँ भेद | 
महत्मन लव सबहि घेर दियो पलक परिछेद  || 
किसी का प्रास,कुंत ,पट्टिश तो किसी को परिघ से विभेदन किया इस प्रकार महात्मा लव ने सभी घेरों का क्षणमात्र में ही परिच्छेदन कर दिया | 

मेघ माल सम सप्तक घेरे । भए मोचित गए सबहिं निबेरे ॥
सरद काल घन बरन बिछोही । सियसत पूरन सस सम सोंहीं ॥
मेघमाल के सदृश्य इस सप्त घेरे का निवारण कर उन्मोचित हुवे सीतापुत्र लव शरद्काल के मेघावरण से उन्मुक्त हुवे पूर्णेंदु के समान सुशोभित होने लगे | 

 पीर गहे तन बान पबारे।  नेकानेक बीर महि पारे ॥
बिहरति बिकल सकल कटकाई । हतबत बिनु पति चलिअ पराई ॥
अनेकानेक वीरों के बाण ग्रहण किए पीड़ा युक्त शरीर भूमि पर गिरे हुवे थे | पति विहीन समूची सेना व्याकुल अवस्था में विलाप करती  घायल अवस्था में रणभूमि से दृष्टपृष्ठ हो गई | 

धावत जब निज दल अबलोके ।  केही भाँति लव गयउ न रोके ॥
तब बलबन पुष्कल ता सोहें । छतज नयन करि होइ अगौहैं ॥
जब अपने सैन्य दल को भागते हुवे देखा और लव किसी भाँती भी नियंत्रित नहीं हुवे तब बलवान भरतपुत्र पुष्कल क्रोधयुक्त नेत्र लिए उसके सम्मुख अग्रसर हुवे | 

ठाड़ रहउ कह बारहि बारा । नियरावत यहु कहत पचारा ॥
बर रथ तुरंग संग सुसोही । देउँ पदचर बीर मैं तोही ॥
वह निकट आते हुवे वारंवार 'खड़े रहो! खड़े रहो !! कहकर लव को ललकार रहे थे, यह कहते हुवे कि हे पदचर वीर ! मैं  तुम्हें उत्तम अश्व से सुशोभित एक रथ प्रदान करता हूँ |   

तुम पयाद मैं रथरोहि तापर पद बिनु त्रान । 
कहौ मैं केहि बिधि तोहि जितौं बीर बलबान ॥ 
मैं रथारूढ़ हूँ और तुम पदचर हो, उसपर भी तुम्हारे पद पादुका से विहीन हैं; वीर बलवान कहो मैं किस विधान से तुम पर विजय प्राप्त करूँ |