Friday 19 October 2018

----- ॥ दोहा-द्वादश ८ ॥ -----

 हरि मेलिते खेवटिया छाँड़ा नहीँ सुभाए | 
जीउ हते हिंसा करे दूजे कवन उपाए || १ || 
भावार्थ : - भगवान के दर्शन होने पर भी केवट जाति ने अपने स्वभाव का त्याग नहीं किया वह अब भी जीवों की ह्त्या कर हिंसारत है इसके इस स्वभाव को परिवर्तित करने की इससे बढ़ कर दूसरी कौन सा युक्ति होनी चाहिए  | 

गुरु मिलते दास कबीर छाड़ें हिंस सुभाए | 
भजन करत भए हरि भगत आपहि गुर कहलाए || २ || 
भावार्थ : - गुरु के मिलते ही कबीर दास ने हिंसा का परित्याग कर दिया फिर वह भजन कीर्तन में अनुरक्त हो हरि भक्त हो गए और स्वयं गुरु कहलाए | 

चरन साँचे पंथ चलें जुअते नहि धन धाम | 

दुनिआ कहत पुकारसी करते नहि कछु काम || ३ || 
भावार्थ : -पहले सन्मार्ग पर चलना मान सम्मान का विषय था और धन-सम्पति  भी संकलित हो जाती थी, अब सन्मार्ग पर चलकर धनसम्पति का संकलन कठिन हो गया है ऊपर से लोक-समाज अपमानित कर कहता है अरे ! कुछ कामवाम नहीं करते क्या ? 


पाछिन के अनुहार अस चलिया अधुना वाद | 
सील गया सनेह गया गई मान मरयाद || ४ || 
भावार्थ : - पाश्चात्य संस्कृति के अनुशरण से  ऐसे आधुनिक वाद का चलन हुवा कि लोगों में शीलता रही न परस्पर स्नेह ही रहा और मान और मर्यादा भी जाती रही | 

माता पिता गरब करत भेजो लाल बिदेस | 
बूढ़ भए तो कोस कहे बहुरत नहि रे देस || ५ || 
भावार्थ : - माता-पिता ही झूठा लोक सम्मान प्राप्त करने हेतु पहले तो गर्व करते अपनी संतान को विदेश भेजते हैं, फिर  जब बुढ़ापा आता है  तब देस नहीं लौटने पर आधी-व्याधि से घिरे उन्हें कोसते हैं | 'चंदन पड़िया चौंक में ईंधन सों बरि जाए' (संत कबीर ) चंदन होने पर भी वहां उनका उपयोग ईंधन के सदृश्य होता है | 

निग्रहित मन कृपन कर जो करिए मित ब्यौहार | 
करम अनुहारत पाइहैं सब निज निज अधिकार || ६ || 
भावार्थ : - सामर्थ्यवान यदि संयमित मन व् कृपण हस्त कर फिर मितव्यवहार करे तो कर्मानुसार सभी को अपना अपना अधिकार प्राप्त होगा और कोई भी अधिकारों से वंचित नहीं होगा | 

गगन परसति अटालिका काचे पाके गेह | 
कहबत माहि गेह सोइ जहाँ पले अस्नेह || ७ || 
भावार्थ : - ये गगनस्पर्शी अट्टालिकाएं, ये कच्चे-पक्के घर !! वस्तुत: घर वही है जहाँ स्नेह परिपोषित होता हो | 

   
  मातपिता बिनु गेह जहँ नेह बिहुन संतान | 
  सो बस्ती बनमानुष की सो तो जुग पाषान || ८ || 
भावार्थ : - जहाँ गृह मातपिता से रहित हों जहाँ संतान स्नेह से वंचित हो ऐसी बस्ती वनमानुषों की बस्ती है और वह काल पाषाण काल है | 

करनी बिहून कथनी करत श्रोता केर अकाल | 
करनी कथनी संग करि सो सुनी गई सब काल || ९ || 
भावार्थ : -करनी विहीन कथनी श्रोता का अकाल कराती है वहीँ यदि कथनी को करनी की संगती प्राप्त हो तो वह  सभी कालों ( भूत भविष्य वर्तमान )में सुनी जाती रही है | 

आन बसे परबासिआ बिगड़े तासहुँ देस   | 
बिगरे भोजन बासना बिगड़ गयो परिबेस || १० || 
भावार्थ : - जबसे पराए देशों के निवासी इस देश में आ बेस और यहाँ पराई संस्कृतियों का अनुशरण होने लगा तबसे यह साकारित देश विकृति को प्राप्त हो गया जिससे इसके देशाचार, आहार-विहार यहाँ तक की वेश भूषा और  भाषा भी विकृत हो गई  | 

जनता तेरे राज की महिमा अपरम्पार | 
दाता भेखारी कियो भेखारी दातार || ११ || 
भावार्थ : - हे जनता तेरे शासन की महिमा तो अपरम्पार है तूने सामर्थ्यवान को भिखारी और असमर्थ को दातार बना दिया  | 

बार लगे न भूति लगे कछु बिनसावन माहि | 
जग भर केरि जुगुति लगे पुनि बिरचावन ताहि || १२ || 
भावार्थ : - सृष्टिकर्ता की सृष्टि में कुछ विनष्ट करना हो तो न समय लगता न धन, किन्तु उसे पुनर्निर्माण करने में संसारभर की युक्तियाँ (धन श्रम समय आदि ) लग जाता है |  इसलिए कुछ  विनष्ट करने से पूर्व हमें सौ बार विचार करना चाहिए | 





Friday 12 October 2018

----- ॥ हर्फ़े-शोशा 7॥ -----

  रियाकार वो इस कदर के माज़ी को बिसराए है..,
   अपने पुश्तों पुरखों को राहजन बतलाए है..,

मलिकी मुल्के ग़ैर की ज़ब्ते-जऱ से पैदा होकर..,
उसकी मुल्के दारी पर फिर अपना हक़ जतलाए है.....

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मुल्के दुन्या ने इक नया तमाशा देखा
अतलसी लबास तन के दस्त में कासा देखा..,

  ग़रीबो-गुफ़्तार के दर माँगे ये सल्तनत
मजबूरी पे पड़ता जम्हूरियत का पासा देखा.. ?

शिकम सेर होकर वाँ खाए है इस कदर
जैसे की कभी बतीसा न बताशा देखा..,

शीराज बंद वादों में फिर लफ्ज़-दर-लफ्ज़
गुजरे वक़्त की नाकामियों का खुलासा देखा..,

दिखी उस तन के चेहरे पे फ़तह की जब उम्मीद
हँसती तब हर इक नज़र को रुआँसा देखा..,

लच्छेदार दार बातों में जब लचकी ज़रा कमर
   मुफत में वजीरे आज़म का सनीमा देखा.....
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कहीं और की पैदाइश कहीं और है बसेरा..,
किस बेशर्म जबाँ से कहते ये हिन्द को मेरा..,

मुल्कों को तक़सीम करना इनकी है रवायत..,
जुल्मों जबह कर फिर करते है उसपे हुकूमत..,

इनसे सियह बख्त है मिरे माज़ी का हर सबेरा..,
किस बेशर्म जबाँ से कहते ये हिन्द को मेरा.....

हरक़तें नाजायज़ 

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सुपेदो सब्ज़ केसरी है मेरे हिन्दुस्ताँ का रंग..,
इस

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कदम तले जमीं सर पे रखते हैं आसमाँ
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कभी साज़ तो कभी नासाज़ तबीयत रंग बदलती रही..,
आमदो-रुपत होती रही दुनिया यूं ही चलती रही.....

हम चराग़े-गुल हैं शरारों पे बसर करते हैं
जल के अपनी रौशनी अंधेरों को नज़र करते हैं

हम शम्मे -गुल हैं ख़ारों पे बसर करते हैं
खुशबु को हवाओं की नज़र करते हैं
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होके आज़ाद वो ज़ालिम फिर आबादे-चमन हुवे..,
 फिरते रहे हम अपने ही वतन में बे-वतन हुवे.....
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ए बागे दुन्या तेरा दो दिन का दीदार |
सामाँ सालोंसाल का औ दमे दिल कुल चार  ||
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मिरा माज़ी तंगे-हाल किए..,
खुद को मलिको-मालामाल किए..,
रहते है उस पार औ इस पार भी..,
मिरे दर पे वो सौ दीवाल किए.....
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कहने को तुम बुलंद पादान पे खड़े हो..,
गैरों की मगर पढ़ाई पट्टी को ही पढ़े हो..,
मुल्के-मिल्की है ये मुल्केदारी खुद की..,
इख़्तिलाफे-राय करके ख़ुद से ही लड़े हो.....

भावार्थ : - कहने को तुम ऊँचे पदों पर पदस्थ हो, किन्तु दुसरो की पढ़ाई पट्टी पढ़ के  तुम्हे ये पद प्राप्त हुवा है | ये देश तुम्हारा है इसका स्वामित्व तुम्हारा है | खेद है कि मतभेद करके तुम इस स्वामित्व हेतु स्वयं का विरोध कर रहे हो  |

 ये मेरा छायाचित्र नहीं है
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इस दौरे-ज़माने को हासिल सब दौलते हैं
ज़ईफ़ो-बुजुर्गि की बच्चों की सी हरकतें हैं
आइंदा-ज़माने की नहीं फिक्र है किसी को
क़िस्मत में लिखे अपनी नस्लों की लानतें हैं

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झील सी झुकी स्याह पलकें
मेरे रूबरू फिर उठी हलके हलके

शम्मे-शहन में शामो-शब् फिर
हुई सुर्ख-रू शोरे-शम्मा जल के


सुर्ख़-दामाँ जब सर से सरके
उठी  लहरें उछल के


के लब आते आते उनके लबों से
मिले जूँ मिले हों गुल नौ कँवल के

हवाओं का नग़्मगी दामन
गिरा पर्वतों के शानों से ढल के

आहिस्ता आहिस्ता शबनम के कतरे
उतरे फ़लक से सीपियों में मचल के


इक नया आफ़ताब जाहिरे-दर होने को है
यह शबे इंतज़ार भी मुख़्तसर होने को है
दम- गजर ने इशारे दम सुब्हे है दो कदम पर
ए चराग़े-लर्ज़िशें-पा बस सहर होने को है







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गुलकदे में नए गुल गुलरान आ गए..,
नए गुलुकार नए बागबान आ गए..,
बाग़-बाग़ शज़र है ख़ुश है ख़ूलजान.., 
शाख़सारों पे नए मेहमान आ गए.....

शज़र = पेड़
ख़ूलजान = बेले, पान की बेलें
शाख़सारों = शाखाओं के झुरमुट 


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हो मंदिर अपनी जगह औ मस्जिद अपनी जगह..,
होली दिवाली अपनी जगह हो ईद अपनी जगह..,
माँगी मुराद अपनी जगह वो पूरी करता है जरूर..,
मानिए के न मानिए सही है ये जिद अपनी जगह.....
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मैं बागे-रु वो चश्में-गुल शबनम के क़तरों की तरह..,
वो ख़्वाब है तो क्यूँ न रख्खूँ उसको मैं पलकों की तरह..,
सफ़हे-आइना-ए-हेरते वो झुकती है कदमों पर मेरे..,
उठता हूँ फिर पेशानी पे उसके मैं सुर्ख़ ज़र्रों की तरह.....

बहारे गुल तरन्नुम छेड़ती और गुनगुनाती है फजाँ ..,
जब पड़ता हूँ उसको क़ाग़ज़े पुरनम के नग्मों की तरह.....

सुनके दिल की धड़कनों का शोरग़ुल 
कहतें हैं जानो-ज़िस्म में वो ज़ब्त साँसों की तरह
शब् को शम्में करके रौशन देखूँ जब चिलमन से उसे
  रख्खे हथेली को निग़ाहों पर वो परदों की तरह

ऐ हवाओं न दो मिरी इस आगे-उल्फ़त को हवा
सुलग़ के -आरज़ू फिर दहकेगी शोलों की तरह 

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वो  शम्में-रु मैं चश्में-गुल शबनम के क़तरों की तरह
वो ख़्वाब है तो क्यूँ न रख्खूँ उसको मैं पलकों की तरह

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तश्ते आसमा तलक है
तिरी निग़ाह कहाँ तलक 
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ए बागे-वतन की वादे-सबा ठहरो तो ज़रा दमभर के लिए..,
मिरे दिल कीदुआ तुम ले जाओ अपने अंजामे-सफ़र के लिए..,

ओ पैक़र मुल्के-सिलाही से ये पैग़ामे-मुहब्बत कह देना..,
इस काग़ज़े-नम को पढ़कर के अहदे-वफ़ा को रह देना..,
अब तक ये शम्में रौशन हैं सरहद के चरागे-सहर के लिए..,

बेलौस तुम्हारी राहों को रोकेंगे खिजाओं के साए..,
रख्खेगें तुम्हारे शानों पर शोला-ओ-सरर को सुलगाए..,
इस जाँ को हिफ़ाजत से रखना अपने जानो-दिलबर के लिए.....


ये ख़ुश बू गुल रंगे-रू इक

  हाल बयाँ करना
जवाबी-पैग़ाम 
मिरे ज़ख्मे-तीरकी स्याहे-खूँ  तहरीर ये करती है
पुर शोरे-क़यामत के सफ़हे फिर इक तस्वीर उतरती है
मजरुब ये संगे-सर सदक़े तेरी  ही दीवारों दर के लिए

शबे-रोज़
ग़ुबारे-राह हर उठते क़दम को पुकारे
शोला-शोला है वो शबनम को पुकारे
 तहरीर लिखने को
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तुझको सबकी ख़बर दरे-हक़ीक़त के सिवा..,
आता है तुझे सबकुछ इक अक़ीदत के सिवा..,
कैफ़ियत-ए-क़ौम से बेख़बर ए अख़बार सुन..,
ज़माने में और भी ग़म हैं सियासत के सिवा.....

अक़ीदत = आस्था,श्रद्धा
कैफ़ियत-ए-क़ौम = देश अथवा देशवासियों की स्थिति-परिस्थिति
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आबो-मीन की दास्ताँ मौजे-रवाँ तलक
ज़र्रो-ज़मीन की दास्ताँ दौरे-आस्माँ तलक
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जाँ चाहिए तो किसी की जाँ खरीदिये..,
उस आखिरी सफ़र का सामाँ ख़रीदिये..,
मिलती है याँ बसरे-औक़ात की हर चीज़..,
ये उर्दू-ए-बाज़ार है ज़मीरों-ईमाँ ख़रीदिये.....

गर आशियाँ न हो तो आशियाँ खरीदिए..,
ज़रूरियाते-जिंदगी का सामाँ खरीदिए..,
मिलती है बसर के औक़ात की हर चीज़..,
ये उर्दू-ए-बाज़ार है याँ ख़ुशियाँ खरीदिए..,

वहां सितारों में भी कहीं दिल नहीं लगता..,
उस चाँद के लिए कोई नया आस्माँ खरीदिए.....

करनी है गर अपनी ख़ानादारी में बरक़त ..,
आमदो-ख़र्च के ब्योरे का ये जरीदा खरीदिए.....
 
 रँगे-साज़ दीवार-दर आराइश को हैं तैयार
जो रौनके-अफ़रोज़ हो वो रौशनियाँ खरीदिए

ये ख़ुर्द-ख्वानगी और ये ख़्वाहिशें दराज़
ज़ेब तंगे-हाल हो तो क्या क्या खरीदिए

सराफ़ी पारचा लीजिए और बराए मेहरबाँ
आप भी किसी दुकाँ से शीरीं बयाँ खरीदिए

ज़रूरियाते-जिंदगी = जीवन हेतु आवश्यक
बसर के औक़ात = जीवन-यापन
ख़ानादारी = घर गृहस्ती
जरीदा = बही-खाता
आराइश = सजावट
रौनके-अफ़रोज़ = उत्साह वर्द्धन
ख़ुर्द-ख्वानगी  ख़्वाहिशें दराज़ = थोड़े सामर्थ्य में अधिक की चाह
सराफ़ी पारचा = धनादेश पत्र (चेक )
शीरीं बयाँ = मीठी बोली
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ए तहज़ीबे-बूत तुझे गढ़े तो कोई गढ़े कैसे
इस मुसव्विरी को बढ़े तो कोई बढे कैसे
फ़ाजिलो-अशराफ़ सफ़े-हस्ती से उठ गए
तिरी इल्मो-इलाही पढ़े तो कोई पढ़े कैसे

सरहदी की जंग अब तो हुई बहौत आसाँ
मार-आस्तीन से लड़े तो कोई लड़े कैसे

मुसव्विरी = कलाकारी, नक़्क़ाशी
फ़ाजिलो-अशराफ़ - साधू-सज्जन और विद्वान
इल्मो-इलाही = वेद-पुराण
सरहदी = किसी देश के शीर्ष की सीमाएं
मार-आस्तीन = भुजाओं में पलने वाले सर्प या शत्रु


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ए जमहूर तिरी हुकूमत का अफ़साना वही..,
वही बेआवाज़ तूती औ नक्कारख़ाना वही..,
मशहूरो-मुश्तहर याके मकदूरवाला हुवा ..,
मुतवज्जुह देकर याँ सुना गया तराना वही.....

जमहूर = जनता
मकदूरवाला = पैसेवाला
मुश्तहर = विज्ञापित
मुतवज्जुह = ध्यान
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देहो-दहर अब शहर-शहर हो गए..,
पीरो-पैग़म्बर भी पेशेवर हो गए..,
फ़िरक़ा-ओ-ज़मात की बसा के बस्तियां..,
जानवर मर्दुम से बेहतर हो गए.....

देहो-दहर = गाँव-खेड़े
मर्दुम = मनुष्य
फ़िरक़ा-ओ-ज़मात = जाति-वर्ण-धर्म
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उस बेजबाँ-ओ-बेक़सूर की बेबसी पे रहम करो..,
उसको ज़ब्ह करके न इतना ज़ुलमो-सितम करो..,
तुम्हारे शिक़म के लिए जहाँ में ख़ुर्दनी है और भी..,
ख़ुदा बंद के वास्ते ही सही  कुछ नेकी फ़राहम करो.....

ज़ब्ह = गला काटना
शिक़म = पेट,उदर
ख़ुर्दनी = खाने की वस्तुएं
फ़राहम = एकत्र, संकलन
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फिर हौसलों को पंख दे नई कोई उम्मीद कर               
उस आख़िरे-फ़लक तलक पहुँचने की ज़िद कर
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 चमन चमन को मुश्केबार शबे-गूँ को गुले-गूँ करो..,
  ऐ ख़ामोश हवाओं स्याह जुल्फों से गुफ़्तगू करो..,
  ये पूरनूर चाँद उन शोख़ निग़ाहों को करो नज़र..,
  नर्म कफ़े-दस्त को हिना के रंग से सूर्ख-रू करो.....
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वो चली ख़बर फ़सादी सुर्ख़ियों को तह दे..,
ख़तावारी को सिलह फ़रेबकारी को शह दे..,
हर्फ़-हर्फ़  इसकी दरहक़ीक़त की लूँ ख़बर..,
ए सियह दानी ज़रा क़लम को तो सियह दे..,

अपनी बद-निग़ाह पे हिज़ाब गर ये चाहती..,
हमसे पंगा मत ले तू जाके उससे कह दे.....
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गुलशन की ख़बर है न गुलनारों का पता..,
मौसमे-गुल की ख़बर है न बहारों का पता..,
आएंगी इस बार तो पूछेंगी मुझसे सर्दियाँ..,
ए  कोहकन कोहिस्तान में चनारों का पता.....

कोहकन = पहाड़ खोदने वाला
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ज़ब्ह-ओ-जफ़ाकार की तरफदारी का ज़माना है..,
शहवत परस्त की फ़रमाँ बरदारी का ज़माना है..,
फ़र्ज और ईमान याँ रखे हैं बाला-ए-ताक़ पर..,
जमहूर की हकूमत है स्याहकारी का ज़माना है.....

 बाला-ए-ताक़ = अलग, दूर
शहवत परस्त = ऐय्याश, भोगविलासिता
जमहूर = जनता
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मौज़ूदा वक़्त-ए-तंग तू होजा ख़बरदार  |
आने वालि नस्ल तिरी होगी फाँकेमार  || १-क ||


जमीं के ज़ेबे तन की दौलतें बेपनाह |
जिसपे एक ज़माने से है बद तिरी निगाह || ख ||


बता के तू है क्या रोज़े हश्र का तलबग़ार |
मौज़ूदा वक़्त-ए-तंग तू होजा ख़बरदार || ग ||


देख तो इस रह में कोई सहरा है न बाग़ |
होगी वो मासूम याँ बेख़ाब बे चराग़ || घ ||


क्या नहीँ है वो इस मलिकियत की हक़दार
मौज़ूदा वक़्त-ए-तंग तू होजा ख़बरदार  || ड़ ||

ख़ुदा की ये रहे-गुज़र ख़ुदा की बसर-गाह |
करता है तू हकुमते बनता है शहँशाह || च ||

मज़लिम का मुजाहिम ए मुहतरिम का चारागार ||
मौज़ूदा वक़्त-ए-तंग तू होजा ख़बरदार  || छ ||

ये मालो-मुलम्मा ये रँगीन सुबहो शाम |
ये ज़श्न ये जलसे ये जलवे सर-ओ-बाम || ज  ||


बेलौस हँसी पे तिरी (वो) रोएगी जाऱ जाऱ |
मौज़ूदा वक़्त-ए-तंग तू होजा ख़बरदार  || झ  ||





नज़्म-ओ क़लाम कोई नया
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ले चले क़दम कहाँ इस दौरे-जहाँ से हम..,
सोचे ज़रा ठहर के थे आए कहाँ से हम..,
बनते हैं सुख़नदाँ अब पढ़के ज़बाने-ग़ैर..,
हुवे यूं अज़नबी ख़ुद अपनी ज़बाँ से हम..,

माज़ी को लफ्ज़ दें तो निकले है लब से आह!
हैं दर्द-मंद सपेद चेहरों से सीने-स्याह से हम..,

सरका-ए-बिल्जब्री को वो कहते थे हमवतन..,
हैं रोज़ो सोज़े जाँ अब उनकी सिपाह से हम..,

क़सूर था वो कौन सा किया था हमने क्या..,
गिरते ही गए जहाँ की नज़रे-निगाह से हम..,

मेहृ-ओ-चाँद सितारों के थे शुमारे-कुनिंदा..,
करते थे गुफ़्तगू भी कभी कहकशाँ से हम..,

ग़ैरों का दामन थाम के फिरते हैं दरबदर..,
चलते हैं सब्ज़े-पा अपनी रब्ते-राह से हम.....

सुख़नदाँ = लेखक
माज़ी = अतीत, इतिहास
सीने-स्याह = काले दिलवाले
सरका-ए-बिल्जब्री = डाकू-लुटेरे मोतबर = भरोसेमंद
सिपाह = सेना
मेहृ = सूर्य
शुमारे-कुनिंदा = गणना करने वाला
रब्ते-राह = छूटा हुवा सन्मार्ग, टूटा हुवा सुसम्बन्ध
सब्ज़े-पा= जिसका आना दुर्भाग्य का सूचक हो, मनहूस कदम,सत्यानाशी
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सियासत तेग़ और म्यान जब अख़बार हो गए..,
हम भी इंक़लाबे-क़लम के तलबग़ार हो गए.....

उठती रही तेरे दर से ऱोज एक दीवार क्यूँ..,
होता नहीं ऐ हिन्द तू ख़ुद इख़्तियार क्यूँ..,
चुने हुवे ये मनारो-महल मेरे ख़ूने-ख़िश्त से..,
लगता है याँ अबतलक ग़ैर का दरबार क्यूँ.....

ख़ुद इख़्तियार = स्वतन्त्र
ख़िश्त = ईँट

किश्त ज़ारी इसकी
पर्वते-ए-माहताब = चाँद की किरण 
आल्हा गान = आपबीती का वर्णन 
हक़-रसी = न्याय का अधिकार
बेनज़ीर = अद्वितीय
रेहल = किताब रखने खांचा
बाँगे-दुहल = डंके की चोट
अनख = प्रतिस्पर्द्धा,  होड़
पुरोडास =यज्ञ का अन्न
एकै मूठिका नाज बुए भरे भूरि भण्डार | 

गगन मेह बरखाओ घुमड़ घूम, जीउ जीउ रे तिसनत तरपत, बरखा ऋतु आओ..... तपत धरिती रे दिवस रैना 
हरितप्रभ तन घनोदयात हरिअरी हरियाओ.....


बूँदी बूँदी नदी तरि तरसावै
घट-घट भरि जाओ
मेह = मेघ 
सदरा = सारा 
धरित्रि = पृथ्वी, भूमि 
हरितप्रभ = पीला पड़ा हुवा 
घनोदयात = पावस का उदय करके 

ठहर जाओ ना ऐ रब्ते-क़दम, हों जो हमराह तो होंगे मुकम्मिल हम..,
मगर इससे पहले लो ये क़सम,
मीलों के ये फ़ासले तय करोगे सनम..,

ये तन्हाई के अँधेरे जब सताएंगे,
हम उम्मीदों के चरागों को जलाएंगे,
करो नही तुम अब पलकें यूं नम.....


जब चाहत के सरे-नौ मरहले होंगे
तब हज़ारों ख़ार भी क़दमों तले होंगे
हाँ खुशियों में बदलेंगे सब गम.....

सरे-नौ मरहले = चाहत के सम्मुख नए बसाए घर, सफर में नए नए पड़ाव

ख़ार = कांटे
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मिरी ख़्वाहिशों के खुश रंग यूँ बदरंग हो गए..,
ऐ आईने फिर सुरते-तस्वीर पे रो दिए .....


गराँ बार इस बसरे-औकात के सितम से ..,
अच्छे खासे आदमी थे लाचार हो गए .....

इश्क़ में ग़म खुशियों पे फ़िदा हो गया ,
ऐ शम्म लो फिर परवाना फ़ना हो गया ....

न ख्याल हैं न ख़्वाब है
न ही नींद और ये शबे-नीम स्याह
शोजे शम्म सहर की उम्मीद में
गुज़र-गाह

में हसरते-निगाह
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जवाब --
ये दीन की ख़ुदा की ख़िदमत से परेशां था..,
ये दो गज़ कफ़नो-दफ़न के हक़ में कहाँ था..,
रख के ज़ेरे-ख़ाक में तुझे कहेंगे चार आदमी..,
ये खुद को हमारे दोशों पे नाहक छोड़ गया था..,
अब आप ही कहें ये शख्स हिन्दू के मुसलमाँ था.....



दोश- कंधा



Thursday 11 October 2018

----- ॥ दोहा-द्वादश ७ ॥ -----,

असन बसन बर भूषना बैसे सब जग चाहि | 
ता हेतु श्रम करम अजहुँ करब चाहि को नाहि || १ ||
भावार्थ : - वर्तमान समय के जनमानस को उत्तम उत्तम भोजन, उत्तम उत्तम वस्त्र,  भव्य भवन बैठे बैठे ही चाहिए | इस हेतु आवश्यक परिश्रम करना कोई नहीं चाहता |  वास्तविक उत्पादन हेतु परिश्रम की आवश्यकता होती है परिश्रमहीनता के कारण ही आज पृथ्वी की संचित सम्पदा तीव्रगति से निष्कासित हो रही है,  अधिकाधिक आपदाएं इस निष्कासन का ही दुष्परिणाम है | 

करमचंद कह आपुनो करता जग बहु काम | 
आदि सुखप्रद होइब न त अंत भलो परिनाम || २ || 
भावार्थ : - वर्तमान विश्व अतिशय कार्यान्वयन कर स्वयं को करमचंद सिद्ध करता दर्शित हो रहा है | किन्तु उसके कार्यों के आदि में कष्टप्रद आपदाएं और अंत में दुखद विनाश है   | 

कर उदार न साँच मुखी मन महुँ दया न धर्म | 
अजहुँ मानस ढोर भया करता कुत्सित कर्म || ३ || 
भावार्थ : -न हाथ से उदार न मुख में सत्य न मन में दया-धर्म,  वर्तमान का जनमानस अपनी मानवी मर्यादाओं को विस्मृत कर निंदित कर्म करता हुवा पशुता से भी इतर हो चला है | 

भगवन अंत मैं एक हैं बिलग बिलग हैं ग्रन्थ | 
ताहि पहि पहुँचावन हुँत बिलग बिलग हैं पंथ || ४ | 
भावार्थ : - ईश्वर अंतत:  एक ही हैं | उनकी उपासना  के नियम व् पद्धति की व्याख्या कर उन तक पहुंचाने वाले  ग्रन्थ व् पंथ भिन्न भिन्न हैं | संसार में  कतिपय लोग इन ग्रंथों व् पंथों के विरोधी भी रहे हैं पंथ से यात्री का गंतव्य तक पहुंचना सरल होता है और यातायात नियम के अनुपालन से यात्रा सुरक्षित व् मंगलमय होती हैं | कई पंथ खड्डे वाले तो कई राजपथ भी होते हो, खड्डे वाले पथ को सुधार करना चाहिए और राजपथ पर गति नियंत्रित होनी चाहिए |  सत्य, दया, दान, व् तप-त्याग ये चार चरण गंतव्य तक पहुंचने हेतु अनिवार्य हैं ऐसा संतजनों का कहना है |  

धरम पंथ कर परब जस तीर तीर तरु छाए | 
भगवद सदन सरन थरी सिथिर परे सुख दाय || ५ || 
भावार्थ : - धार्मिक उत्सव धर्म रूपी पंथ के कगारों पर के वृक्ष हैं व् देवालय शरण स्थली हैं जो जीवन यात्रा में शिथिल हुवे यात्री को छाया व् शरण प्रदान कर उसकी शैथिल्यता दूर कर देते हैं | 

धारि बिहुन अस धारिनी  पुरुख बिहुन जस नार | 
नाउ बिहुन पतवार के धार बिहुन तलवार || ६ || 
भावार्थ : -    जिस प्रकार पुरुष विहीन नारी, पतवार विहीन नौका और धार विहीन तलवार रक्षा करने में असमर्थ होती है उसी प्रकार सेना रहित देशभूमि रक्षा करने में उसी प्रकार असमर्थ होती है | 

सब देही हरिदय बसा सब देही महुँ प्रान | 
जैसी पीरा आपनी तैसी पर कइ जान || ७ || 
भावार्थ : - सभी के देह में ह्रदय बसा है सभी की देह में प्राण बसे वह मनुष्य पशु अथवा पेड़-पौधे ही क्यों न | हम पराई पीड़ा को भी अपनी पीड़ा के सदृश्य अनुभूत कर तदानुसार व्यवहार करें | 

तीनि भूतिक प्रलयंकर अगन पवन अरु पानि | 
धीर धरे जे लाह दए बिगरे सब बिधि हानि || ८ || 
भावार्थ : - संसार में तीन भूत प्रलयंकारी है अग्नि, वायु और जल |शांत अवस्था में ये लाभदायक होते हैं और क्रोधित अवस्था में ये सभी प्रकार से हानि कारित करते हैं | 

चारि घरी का जीउना दो दिन का संसार |
जोवन में जिउ लागिया जुग लग का जोगार || ९ ||

भावार्थ : - यह संसार मात्र दो दिवस का है उसमें जीवन कुल चार घडी का है और मनुष्य नामक जीव युगों तक के भोग्य पदार्थ संकलित करने में लगा है |


बिटप न काटि निबारिये बिटप नही कछु लेय |
दुःख ताप जौ आप सहे औरन को सुख देय || १० ||
भावार्थ : - वृक्षों को मत काटिये ! वृक्ष किसी से कुछ नहीं लेते, वृक्ष तो वह देव हैं जो स्वयं तो दुःख व् संताप सहते हैं व् औरों को सुख देते हैं |

बिटप सों तपसि दानि नहि बिटप सरिस नहि देउ |
सब सेउ तेउ जगत मैं बड़ी बिटप कर सेउ || ११ ||
भावार्थ : - वृक्ष के समान कोई देवता नहीं है, वृक्ष के समान कोई नहीं दानी है, वृक्ष के समान कोई तपस्वी नहीं कोई तपस्वी है | संसार में सब सेवा से बढ़के वृक्ष की सेवा है |







----- ॥ हर्फ़े-शोशा 4॥ -----

सुपेदो-कोह की हद-बुलंदी से चश्मे-हैवाँ के आगे..,
सब्ज़े-मैदाँ की मुदाख़िल से ज़र्दे-सहराँ के आगे..,

फ़रिश्ता-ए-ख़सलत के जेरोसाए में है दरीबां मिरा..,
शादाबी सबाओं से शिगुफ़ता पा है ये बागबाँ मिरा..,

मुल्के-दुन्या के कारिंदे ने नफ़ासत से बनाया इसको.., 
दरे-ग़नजीना-ए-गौहर को खोल कर सजाया इसको..,

समंदर के फ़राहम से अपने जौहर को नमुदा किया..,
तूफ़ाने-क़यामत में मौजे किश्ती को नाखुदा किया..,



महताबी फ़लक पे अनजुमे-रख़्शन्दा का मंजर है.., 
ये वो हिंद है के जू-ए-गंग से हर ज़र्रा जहाँ तर है..,

सुबहो-बनारसी उफ़क की बंद गिरहे से छूटकर..,
शामे-अवध को शफ़क़ फूल के उड़ती है सर पर..,

शाहाना पोशो-सरापा शब्बे-महताब वो सुरमई..,
तश्ते-चाँद-ओ-सरो-बाम पे हो दूलन कोई नई..,

आसमाँ पे आशनाँ गिर्दे-रक़्स करती कहकशाँ..,
समंदर की किश्तियों से यहाँ होती है शादियाँ..,


देहो-दहक़ाँ की सूरत में फ़रिस्तों की सी सीरत है..,
ख़लक के खुदा-बंद का तज़किरा इसकी ज़ीनत है..,

मह्रो-महताब है रौशन इसके बूत-खाने के चराग़ों से..,
याँ फ़िरदौस की भी हस्ती इसके बागीचों से बागों से..,

इसकी रहनुमाई यारब हर बियाबाँ को चमन कर दे..,
इसकी सर-परस्ती बे-वतन को भी बा-वतन कर दे..,

दरख़्तों के सायबान की तरह याँ पीर-ओ -पारसा..,
हो जो रिंदे-ऱफ्त-ए-राह तो ये रहबर-ओ-रहनुमाँ..,

हर दरो-आम से उठती हुई वो दस्ते-संदल की महक..,
नग़्मे-संग जू की तबक पे वो नर्म-बादल की धनक..,

खुलती है यूं फिर मख़मली रु-ए-मौसम की बंदिशें..,
हलक़े हलक़े पे पुर नूर सी फिर गिरती हैं बारिशें.., 

आता है मस्त बहारों में जब सावन का महीना
तनाबे-तन्न पे तलातुम सी याँ झूलती है परीना

अब्र-ए-शोख़ सदफ़ के शोर पे क़तरों का तरन्नुम
शाख़-दर-शाख़ जरीं दार फ़स्ले-गौहर की तबस्सुम

ख़िरमन की शक्ल में वो ज़रो-ज़वाहर की पैदाइश 
ख़िलक़त के ज़ेब-ओ-तन पे फिर जेवर की नुमाइश 


अमनो-चैन का तलबगार दयानअत का ये घर ..,
दराज़े-दिल का ये दरवाज़ा दरिया वार का ये दर ..,


हिमाला के कोहिस्ताँ से वो ज़न्नत के नज़ारे
बढ़के हैं इसकी दयारे

राह-ए-रवाँ रश्क-ए-जहाँ वो तहज़ीब-ओ-ताज़ीम
ये ताजबख़्श फ़र्द-फ़र्द सेह ज़बानों में तक़सीम

तहे-पेंच-ओ-परदाज़-फ़लक-परवाज़ो-सर-ओ-बंद
लक़दकी लिबास पे क़मर बंद-ओ-तल्ख़-ए -तंग 

शम्मे-रौशन का जशन रौनके-अफ़रोज का जलसा
गुलबहाराँ वो रंगो-पाशी में रंगे-अफ़शानी का जलवा


मौजूदा दुन्या कहती है रहे-गो का गुनाहगार है ये
शरीके दर्द का तरफ़दारो - शराफ़त का पैरोकार है ये


नापाक बेसिताँ जो इस पाकीज़ा फ़र्शे ख़ाक से उठे.., 
नंग-नामूस होके आफ़रीँ फिर वो याँ पाक हो उठे.., 

हर हाज़रीन के दर-ओ-पेश है ये दास्तान-ए-हिन्द
मुसलमाँ-ओ-फ़िरंगी का गुलाम गुलिस्ताने-हिन्द

इक वक़्त का ये रुस्तम ये हर्ब-ए-शेर-ओ-शमशीर
फिर गर्दन-ओ-गिरेबाँ पे लिए हो वो खंज़र या के तीर

ओ ख़ुशहाल आबेदाना इसका मालो -ज़रियात से लबरेज़ था इक ज़माना इसका

जिसकी जऱ-खेज़ जमीं मिरा सरमाया हुवा करती थी..,
क़हत के कहर में भी जीने का वसीला हुवा करती थी..... 

न इन्साँ न फ़िरक़ा इसने मुल्क दर मुल्क किए पैदा
बे-तअम्मुल फिर इक बार ये बारदारी को है आमदा


सफ़ेद-कोह = अफ़ग़ानिस्तान का एक पहाड़,हिमालय पर्वत
चश्मे-हैवाँ = गंगोत्री 
फ़राहम = :संग्रह, एकत्रीकरण
दरे-ग़नजीना-ए-गौहर = रत्नों के कोष का द्वार 
अनजुमे-रख़्शन्दा = चमकते हुवे तारे 
धनक = इंद्रधनुष


क़हत = अकाल 

बारदारी = गर्भ 

सहराओं के मुरदाख्वांर वाशिंदो जैसा..,
आदमी भी अब हो गया चरिन्दों जैसा.....

मतलब परस्ती की लगाईं कहीं आतिशी आग जले..,
तारीके-शब को सहर किए कहीं चश्मे-चराग़ जले....

>> सब्ज़ सब्ज़ हर ज़मीं हो बाग़ बाग़ हर बाग़ |
ए तारीके हिन्द तिरा बुझे न शबे चराग़ ||

 
>> शोला शोला आसमाँ सुर्ख़ रू आफ़ताब | 
शबे-सिताबा शर्र लगे हयाते आब सराब ||

>> श्याहो-श्याह शबो-सुबहो शफ़क़ शफ़्फ़ाक़ करे कोई.., ऐ जरींगर जमीने-हिन्द तिरा दामन चाक करे कोई..,
के फ़स्ले गुल बहारा से सर- ओ- पा तू सब्ज़े पोश..,
गरज़ अपनी में तुझको ग़र्क़-ओ-ज़र्दो ख़ाक करे कोई.....

मिरी ख़्वाहिशों के खुश रंग यूँ बदरंग हो गए..,
ऐ आईने फिर सुरते-तस्वीर पे रोना आया.....

चराग़े उफ़ताद को दामन से बचाने वाले..,
कहाँ हैं! कहाँ हैं! सरहिंद को सजाने वाले..,
ये आसारे-कदीमा जहाँ कैद आज़ादी मिरी..,
कहाँ हैं! वतन पे दिलो जाँ को लुटाने वाले.....
आसारे क़दीमा = पुराने जमाने की इमारते या खंडहर


हुकुमो-हाक़िम की शहवत में अर्ज़े-इरसाल का देना..,  
इस हक़ूमत में फिर बेसूद है अर्ज़ी-ए-हाल का देना.....

हुकुमो-हाक़िम = शासन-प्रशासन
शहवत = भोग-विलासिता
अर्ज़े-इरसाल = कर, चालान,टैक्स 
बेसूद = व्यर्थ
अर्ज़ी-ए-हाल = निजी अथवा सार्वजनिक विषय हेतु आवेदन

मेरे सरापे को जेहन में जगह दो,
के मुस्कराने की कोई तो वज़ह दो..,

वो मरमरीं चाँद जो शब् को न मयस्सर,
उसे हमराज करो और दामन में गिरह दो..,

ख़म को खोल गेसू-ए-दराज़ को संवार के,
लबे-कनार को सुर्खियाँ नज़रों को सियह दो..,

ज़हीनत के ज़मील-तन पे सीरत के हैं ज़ेवर,
दस्ते-दहल को हिना के रंग की निगह दो..,

हर रब्ते-मंद जाँ ऱगे-जाँ से हो नज़दीक,
रवाज़ी शामो-सहन की वो रस्मी सुबह दो..,

मुबारकें शफ़ाअतें सलामतें हो दम-ब-दम,
हम-क़दम को रुख़सते-रहल की रह दो.....



ये कागज़ों की कश्तियाँ ये आबो-मीन रूबरू, 
सफ़हा-सफ़हा नीमकश सबक़ते-पा कू-ब-कू.....

ग़िर्दाब-ए-सदफ़ो-तंगी-ए-जाँ-हरूफ़-ए-गौहर,
कशाकश में सर-ए-राह पे बिखरे हुए चार सूँ..,

जुज़ बंद न खोल तू ए बादे-रफ़्तो-सफ़े-दर, 
लम्हा-लम्हा सैह पहर शबे-पोशो-सियह गूँ..,




आबोमीन = नीला-पानी 
सबक़ते-पा = बढ़ते कदम 
सैह पहर = तीसरा पहर 
ग़िर्दाब-ए-सदफ़ = सीप का घेरा 
तंगी-ए-जाँ = जगह की तंगी 
हरूफ़-ए-गौहर = अक्षरों के मोती 
जुज़ बंद = किताबों के सीरों पर के सीए हुवे बंद, तलहटी से लगा छोटा खंड (बर्फ, पत्थर आदि का ) 
बादे-रफ़्तो = तेज हवा
सफ़े-दर = तल,पृष्ठ को तोड़ने वाला, लड़ाकू


सोज़े-गुल रहे सदा तेरी उम्मीद के चराग़ 

ऐ मुलहिद ज़रा  हम्दो-सना रखते, 
क़ब्र तक जाने की फिर तमन्ना रखते.., 
 वसीयत न मुसद्दिक़ न कोई मुरब्बी, 
ढोने वाले तिरी मैय्यत को कहाँ रखते.., 

ये वो मज़हब है जो कफ़न देता है, 
बाद मरने के फिर मद्फ़न देता है.., 
जो मर ही गए तो करता है रूहें रफ़ू, 
ग़र जी गए तो जीने का फ़न देता है.., 

 मद्फ़न = श्मशान, कब्र,अंतिम क्रिया 

शहवते-परस्ती में हुवा मुल्हिद मैं इस क़दर..,

अब न ख़ुदा का खौफ़ है न अंजाम की परवाह.....

स्याह गूं-ओ-शब् आँख ना दिखाओ मुझको.., 
शम्मे-कुश्तां हूँ शबिस्ताँ में सजाओ मुझको.., 
फ़ाजिलो-खाना ख़राब तलाशें हैं शबे-गिर्द मुझे.., 
शफ़क रुखसार हूँ शब्बा खैर छूपाओ मुझको.....



मैं नामे-शम्मे स़ाज हूँ समाँ-साद नहीं हूँ.., 
शफ़क की सरहदों में हूँ आज़ाद नहीं हूँ.., 
शामो-शब् तलक है मेरा शबनमी महताब.., 
तारीके-बसर औकात हूँ सहर आबाद नहीं हूँ.....

कला वस्तुत: वह कृतिमयी रचना है जो अंतर व् बाह्य जगत को सौंदर्य पूरित आकृति प्रदान कर साकारित स्वरूप देती है.....


''भारत का अस्तित्व भारतीयों से है भारतीयों का अस्तित्व भारतीयता से है जिस दिन भारतीयता समाप्त हो जाएगी उस दिन भारत का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा....."

विद्यमान परिदृश्य में भारत को भारतीयीकरण अथवा राष्ट्रीयीकरण की आवश्यकता है, भारत के अस्तित्व की रक्षा हेतु उसे यह करना ही होगा | 


टिप्पणी : - राष्ट्रीयीकरण का तात्पर्य राष्ट्रविशेष के शासकीय अथवा निजी संस्थानों एवं विभागों में मूल निवासियों की प्रधानता करना..राष्ट्रीयीकरण का अर्थ हम जिस सन्दर्भ लेते है वह वस्तुत: शासकीयीकरण है.....

जो परस्वामित्य के विकारों को सुधार कर उन्हें यथावत नहीं करते उनको दासत्व प्रिय होती है..यदि भारत वास्तव में स्वतन्त्र हुवा था तो यह कार्य अंग्रेजों के भारत छोड़ने के पश्चात ही हो जाना चाहिए था.....

>> किसी संविधान में विहित वाक्य विश्वमान्य हो तो परिभाषा है अन्यथा वह तत्संबधित राष्ट्र पर थोपा गया एक व्यक्तिगत विचार है..... 


>> व्यक्ति के अतिरिक्त किसी संस्था अथवा दल का विचार भी व्यक्तिगत कहलाता है जबतक की वह विश्वमान्य न हो.....

 >> परिवर्तन वही उत्तम है जो विश्व के लिए कल्याणकारी हो.....

>> ''राष्ट्रवादिता शब्दों से नहीं अपितु व्यवहार से प्रकट होती है.....''

>> वादों अथवा सिद्धांतों की अनुकूलता देश काल व् परिस्थिति पर निर्भर करती है.....

>> जातिवाद धातुवाद का ही पर्याय है मानव में अन्तर्निहित जाति अथवा धातु का परिष्करण कर्मों की आतप्ति से संभव है....
>> "जहाँ हिंसा पारितोषित होती हो वहां दुष्टता का शासन होता है....."

स्पष्टीकरण : - यहाँ हिंसा का तात्पर्य गांधीवादी संकीर्ण विचारधारा वाली हिंसा से न होकर प्राणिमात्र की हिंसा से है.....

लोकतंत्र का यह ऋणात्मक पक्ष है कि यहाँ जनमानस प्रजा नहीं राजा है वह अपना हिताहित स्वयं निश्चित करेगा | जहाँ वह अपने लिए अहित का निश्चय करेगा वहां लोकतंत्र विफल सिद्ध होगा.....


>.> स्वयं को ज्ञानी समझने वाले सबसे बड़े अज्ञानी होते हैं.....

>> लोकतंत्र में दलगतचुनाव प्रणाली तब दोषपूर्ण हो जाती है जब जनसामान्य को चयनित प्रत्याशी का चयन करना पड़े |
राजू : - हाँ ! दलों को नाचनेवालीयाँ प्रत्याशी में रूचि हो तो आवश्यक नहीं जनसामान्य की भी उसमें रूचि हो किन्तु क्या करें विवशता है

>> ''लोकतंत्र में दलगत चुनाव प्रणाली तब विफल सिद्ध होती है जब चयनित दलगत सदस्यों की संख्या से निर्दलीय सदस्यों की संख्या अधिक हो.....|''

>> एक लोकतंत्र वहां विफल सिद्ध होता है जहाँ देश के मूलगत निवासी अल्पसंख्यंक होते हुवे अल्पमत में हों..... इस समय जम्मूकश्मीर में लोकतंत्र विफल है जहाँ एक अन्योदर्य धार्मिक समुदाय का ही शासन चलता आया है.....