Thursday 2 August 2018

----- ॥ दोहा-द्वादश ५ ॥ -----

जाति-पाति उत्पाति लखि  कबहुँ कबीरा रोएँ |   
अजाति के उत्पाति पेखत अधुनै रोना सोए || १|| 
भावार्थ : - जातिवाद के उत्पात को देखकर कभी कबीरा रोया था | रोना अब भी वही है अंतर इतनाभर है की अब उत्पात अजातिवाद की पाँति द्वारा हो रहे हैं |


गन मान धनि मानी कि ऊँची पीठ बिराजु | 
साँच जुग जग सहित सो पोषत देस समाजु || २ || 
भावार्थ : - वह गणमान्य हो, धनाढ्य हो, लब्धप्रतिष्ठित हो अथवा ऊँचे पद पर आसीन हो; सतयुग में जब सतोगुण की अधिकता होती है तब ऐसे भद्रजन संसार सहित देश व् समाज का पोषण करते हैं || 


गन मान धनि मानी कि ऊँची पीठ बिराजु | 
कलिकाल जग सहित सो सोषत देस समाजु || ३ || 
भावार्थ : - वह गणमान्य हो, धनाढ्य हो, लब्धप्रतिष्ठित हो अथवा ऊँचे पद पर आसीन हो; कलुषित काल में जब तमोगुण की अधिकता होती है तब ऐसे तथाकथित भद्रजन विश्व सहित देश व् समाज का शोषण करते हैं || 

अधुनै ऊँची पीठ अस बैसे अजाति बाद | 
दीन धर्म निरपेख जौ सुभाउ ते मनुजाद || ४ || 
भावार्थ : - विद्यमान समय में गणमान्य, धनाढ्य, लब्धप्रतिष्ठित, व् उच्च पद पर अजाति वाद विराजित हो गया है यह वर्ग संकरता ( हाइब्रिड) जनित दुर्गुणों से युक्त है |  दुर्दशाग्रस्त विश्व, देश व् समाज से खिन्न व् दया दान तप व् सत्य से उदासीन होते हुवे जो कीट भक्षी, तमचूर भक्षी, गोभक्षी, भ्रूणभक्षी, नरभक्षी स्वरूप आसुरी स्वभाव का है || 

गोपाला कही कही के माइ बजावै थाल | 
जोइ पालै गौवन कू सोइ होत गोपाल || ५ || 
भावार्थ : - 'आँखिन के आँधरे नाम नैनसुख' गोपाल'  नाम रख लेने भर से कोई गोपाल नहीं हो जाता | जो वास्तव में गौवों का पालन व् पूजन करता है वही गोपाल है |  

तीली तिल भर लौ लही, लाई मन भर आग |
बिपति थोड़ जो जानिआ  वाके फूटे भाग || ६ ||
भावार्थ : - रंचमात्र लौ ग्रहण की हुई तीली भी दावानल का कारण हो सकती है | थोड़ी  विपत्ति अथवा छोटी समस्या भी महाविनाश का कारण हो सकती है जो विपत्ति को यत्किंचित  संज्ञानकर उसकी उपेक्षा करता है वह अंत में महाविनाश जनित दुर्भाग्य को प्राप्त होता है |  

बिरते की चिंतन करो कल पै करो बिचार | 
आजु की सुधि लेइ चले दूरे नही दुआर || ७ || 
भावार्थ : --  व्यतीत समय का चिंतन व् भावी समय का विचार करते हुवे यदि वर्तमान की संभाल करते चलें तब लक्ष्य की  प्राप्ति अवश्यमेव होती है | 


आगे आगे बढ़ चले भई देह बिनु प्रान  | 
पाछे चालि के पेखिए  मेलेंगे भगवान  || ८ || 
भावार्थ  : - जीवन का पंथ सीधा सरल न होकर चक्रवत है, इस पंथ पर आगे-पीछे की चाल चलनी चाहिए |  आगे आगे बढ़ चले तो शरीर प्राण विहीन होकर काल का ग्रास हो जाएगा, किंचित पीछे चलकर देखिए वहां काल नहीं अपितु श्याम व् राम के रूप में साक्षात ईश्वर से भेंट होगी  सार यह है कि सदैव आगे की बढ़नी भी कल्याणकारी नहीं होती | 

कर सेति श्रम करम करे बहोरि खावै खाद | 
धरम करतब पंथ चरे मानस  की मरयाद || ९  || 
भावार्थ : -  पशुवत स्वभाव से अन्यथा मानव का यह स्वभाव होना चाहिए कि वह परिश्रम पूर्वक धनार्जन के द्वारा अपना जीवन यापन करे व् जीवनपंथ पर सत्कार्य करता चले | 

जेतक जोग जुगावना जेतक खावै खाद | 
होनहार हुँत जोइये तेतक करि उत्पाद || १० || 
भावार्थ : - भूत ने वृक्ष लगाया तब वर्तमान को फल प्राप्त हुवे वर्तमान का भी यह कर्तव्य है कि वह अपने भविष्य को भोज्यान्न से संरक्षित करे, जीवन यापन हेतु उसने जितना भोजन, साधन व् ईंधन का उपभोग किया अधिक नहीं तो उतना भी उत्पादित करने का प्रयास करे | 

पथ्यापथ्य बिचार के ऐसो करो अहार | 
जीउ जीउ कहुँ देइ जौ जीवन कर अधिकार || ११ || 
भावार्थ : - क्या खाना उचित है क्या नहीं, यह विचार कर हमें ऐसा भोजन करना चाहिए जो प्राणी मात्रा को जीवन का अधिकार प्रदत्त करे | 

भवहि भूरि भोगन माहि भयउ अरथ कर मान | 
करम बल सब जीउ जगत करम सदैउ प्रधान || १२ || 
भावार्थ : -अधिकाधिक भोगवादिता के कारणवश वर्तमान जगत में अर्थ सम्मानित होकर जनसंचालन व्यवस्था में प्रधानता को प्राप्त हुवा किन्तु यह प्रधानता क्षणिक है  | समस्त जीव जगत चूँकि कर्म के बल पर अवस्थित है एतएव करम सदैव प्रधान रहेगा |