बन में सिँह बहु रहि सकैं, तूनी में बहु बान |
दोइ खाँड़ा न रह सकै, कबहुँक एकै पिधान ||१ ||
भावार्थ : - वन में बहुतक सिंह रह सकते हैं तूणीर में बहुतक बाण रह सकते हैं, किन्तु एक पिधान में दो कृपाण एक साथ नहीं रह सकते |
भावार्थ : - वन में बहुतक सिंह रह सकते हैं तूणीर में बहुतक बाण रह सकते हैं, किन्तु एक पिधान में दो कृपाण एक साथ नहीं रह सकते |
तात्पर्य : -विपरीत कृत्य करने वाले व्यक्ति एक साथ रह सकते हैं किन्तु दो विपरीत स्वभाव वाले व्यक्ति एक साथ नहीं सकते उनमें परस्पर विवाद अवश्य होता है |
रुसे न ए बरस बदरिया रुसे नाहि रे मेह |
बूँद बूंद कहुँ तरसते तिलछत कस खन खेह || २ ||
भावार्थ : - इस वर्ष बदली न रूठे,मेघा न रूठे | बून्द बून्द को तरसते खेत-खंड देखो कैसे व्याकुल हैं |
सोवैं खावैं पँख पसुहु जनमत जीवहु सोए |
ताते बिलगित कृत करै सो तो मानस होए || ३ ||
भावार्थ : - भोजन व् शयन यह दिनचर्या तो पशु-पक्षियों की भी होती है संतान को वह भी जन्म देते हैं | जो इससे पृथक कृत्य करे वस्तुत: वही मनुष्य है |
साँच दया दान अरु तप मानस केरा धर्म |
सब धर्मिन को चाहिये करतब सोई कर्म || ४ ||
भावार्थ : - सत्य भाषण, दयाभाव, दान क्रिया, त्यागाचरण यह मनुष्य का परम धर्म है सभी धार्मिक सुमदायों को चाहिए कि वह मनुष्य हेतु विहित कर्तव्यों में प्रवृत होकर सर्वप्रथम उक्त मनुष्योचित धर्म का पालन करें तत्पश्चात अपने अपने धर्मगत सिद्धांतों एवं उनकी पद्धतियों का अनुशरण करे |
दोइ नैया पाँव धरे लागे नही कगार |
डगमग डगमग दोल के बूढ़े सो मझधार || ५ ||
भावार्थ : - दो नाँव में पाँव रखने से वह तट को प्राप्त नहीं होती | असंतुलन के कारण वह डगमगा उठती है और स्वयं के साथ पारगामी को भी मझधार में डुबो देती है |
सब बनस्पति बिनसावै जीउ जंत हति जात |
बन अस्थलि ए देस अजहुँ मरू अस्थलि दरसात || ७ ||
भावार्थ : - जीव जंतुओं की क्रूरता पूर्वक ह्त्या हो रही है, वनस्पतियां दिनोदिन नष्ट होती जा रही हैं | कभी वनस्थली रहा यह देश अब तो मरुस्थल दर्शित हो रहा है |
सोइ दसा को दोष दए जोइ दसा का दास |
सो तो रीते घट सदा राखे कंठ पिपास || ८ ||
भावार्थ : - लक्ष्य प्राप्ति हेतु परिस्थतियाँ कभी बाधक नहीं होती, परिस्थितियों को वही दोष देता है जो उनका दास होता है तथा अयोग्यता के कारण अप्राप्त लक्ष्य की अप्राप्ति का सदैव रोना रोता रहता है |
केतक राजा राज गए गए केतिक धनबंत |
पीरे पराए जीउ कहुँ खाए खिंच के खाल |
मानस कहिता आपुनो रे तू जंतु ब्याल || १८ ||
भावार्थ : - पराए जीव् को पीड़ा देता है उसकी खाल खिंच कर खाता है | स्वयं को मनुष्य कहने वाला अरे मनुष्य तू मनुष्य न होकर हिंसक जंतु है |
रुसे न ए बरस बदरिया रुसे नाहि रे मेह |
बूँद बूंद कहुँ तरसते तिलछत कस खन खेह || २ ||
भावार्थ : - इस वर्ष बदली न रूठे,मेघा न रूठे | बून्द बून्द को तरसते खेत-खंड देखो कैसे व्याकुल हैं |
सोवैं खावैं पँख पसुहु जनमत जीवहु सोए |
ताते बिलगित कृत करै सो तो मानस होए || ३ ||
भावार्थ : - भोजन व् शयन यह दिनचर्या तो पशु-पक्षियों की भी होती है संतान को वह भी जन्म देते हैं | जो इससे पृथक कृत्य करे वस्तुत: वही मनुष्य है |
साँच दया दान अरु तप मानस केरा धर्म |
सब धर्मिन को चाहिये करतब सोई कर्म || ४ ||
भावार्थ : - सत्य भाषण, दयाभाव, दान क्रिया, त्यागाचरण यह मनुष्य का परम धर्म है सभी धार्मिक सुमदायों को चाहिए कि वह मनुष्य हेतु विहित कर्तव्यों में प्रवृत होकर सर्वप्रथम उक्त मनुष्योचित धर्म का पालन करें तत्पश्चात अपने अपने धर्मगत सिद्धांतों एवं उनकी पद्धतियों का अनुशरण करे |
दोइ नैया पाँव धरे लागे नही कगार |
डगमग डगमग दोल के बूढ़े सो मझधार || ५ ||
भावार्थ : - दो नाँव में पाँव रखने से वह तट को प्राप्त नहीं होती | असंतुलन के कारण वह डगमगा उठती है और स्वयं के साथ पारगामी को भी मझधार में डुबो देती है |
सूखे सूखे नैन सब नदि झरने बिनु पानि |
दुनिया तोरे ए निरदै हरिदै केरि कहानि || ६ ||
भावार्थ : - नेत्रों में शुष्कता व्याप्त है नदी झरनों में भी पानी नहीं है | ऐ दुनिया ! ये तेरे निर्दय हृदय की कहानी हैं | सब बनस्पति बिनसावै जीउ जंत हति जात |
बन अस्थलि ए देस अजहुँ मरू अस्थलि दरसात || ७ ||
भावार्थ : - जीव जंतुओं की क्रूरता पूर्वक ह्त्या हो रही है, वनस्पतियां दिनोदिन नष्ट होती जा रही हैं | कभी वनस्थली रहा यह देश अब तो मरुस्थल दर्शित हो रहा है |
सोइ दसा को दोष दए जोइ दसा का दास |
सो तो रीते घट सदा राखे कंठ पिपास || ८ ||
भावार्थ : - लक्ष्य प्राप्ति हेतु परिस्थतियाँ कभी बाधक नहीं होती, परिस्थितियों को वही दोष देता है जो उनका दास होता है तथा अयोग्यता के कारण अप्राप्त लक्ष्य की अप्राप्ति का सदैव रोना रोता रहता है |
नैन गगन दै गोरि काल घटा घन घोर रे |
बैस पवन खटौले चली कहौ किस ओर रे || ९ ||
दोहा : -
नैन गगन दे के गोरि काल घटा घन घोर |
बैस पवन करि पालकी चली कहौ किस ओर ||९ -ख ||
साँच दान दया अरु तप सो त परम हितकारि |
काम कोह लोभु अरु मद मह अराति एहि चारि || १० |
भावार्थ : - सत्य, दान, दया और त्यागतप ये मनुष्य के परम हितैषी है | काम क्रोध लोभ और मद ये चार उसके परमशत्रु हैं |
केतक राजा राज गए गए केतिक धनबंत |
जग के चाका थमै नहि आगत केहु गयंत || ११ ||
भावार्थ : - कितने ही राज चले गए, कितने राजा चले गए, कितने ही धनवंत चले गए | किसी के गमनागमन से इस जगत का कालचक्र स्थिर नहीं होता यह अनवरत संचालित रहता है ||
मारि खाए जौ काटि के अजहूँ सो त उदार |
कट्टर पँथ कहलाइया जोई राखनहार || १२ ||
भावार्थ : - अधुनातन जो मारकाट कर खाने वाले हैं वह उदार कहलाते हैं जो प्राणिमात्र के प्राणों की रक्षा में संलग्न हैं वह कट्टर पंथी अर्थात मारकाट कर खाने वाले कहे जा रहे हैं |
पहले राज खसोट जो लूट खूँद करि खाए |
हमरे पुरखाइन कइँ अजहुँ लूट मचाए || १३ |
भावार्थ : - जिन्होंने पहले देश की सत्ता व् सम्प्रभुता खसोट कर उसका आर्थिक शोषण किया | अब इन्होने हमारे पूर्वजों की लूट मचा रखी हैं |
लूट खूँद करि खाए के जोइ खसोटे राज |
दरस दीनता आपुनी लूटन चले समाज || १४ ||
भावार्थ : - जिन्होंने पहले हमारे देश को लूटा फिर इसका शासन लूटा और शारीरिक यंत्रणाएं देकर उसका आर्थिक शोषण किया | अब वह अपने समुदाय की सामाजिक दरिद्रता दूर करने के लिए हमारा सामाजिक शोषण करने पर तुले हैं
पराए स्वत बिरोधि के तौ सौ राखनहार |
बिरोधि आपन आपनौ वाके को रखबार || १५ ||
भावार्थ : - पराए स्वामित्व का विरोध करने वाले के सौ रक्षक होते हैं | अपने स्वत्व अथवा अस्तित्व हेतु अपना ही विरोध करे उसकी रक्षा कौन कर सकता है |
तात्पर्य : - आप ब्राह्मण की रक्षा करते हैं किन्तु बाह्मण अपनी रक्षा करने न दे तब फिर भला उसे कौन बचा पाएगा |
सबहि देह हरिदै बसे सब हरिदय बसि साँस |
पीरा होत सबन्हि कहुँ जिउ सब एकै सकास || १६ |
भावार्थ : - सभी देह में ह्रदय का निवास है, सभी हृदय में सांस का निवास है | ईश्वर के बनाए सभी जीउ एक समान हैं क्योंकि पीड़ा और कष्ट सभी को होती है |
देही सबहीं जिउ गहे रकत सबै का लाल |
ताहि हत हिंस करे सो मानस जंत ब्याल || १७ ||
भावार्थ : - देह तो सभी जीव ने पाई है रक्त तो सभी का लाल है | जो हिंसा कर इनकी ह्त्या करता है वह मनुष्य मनुष्य न होकर हिंसक जंतु है |
मानस कहिता आपुनो रे तू जंतु ब्याल || १८ ||
भावार्थ : - पराए जीव् को पीड़ा देता है उसकी खाल खिंच कर खाता है | स्वयं को मनुष्य कहने वाला अरे मनुष्य तू मनुष्य न होकर हिंसक जंतु है |
प्रान रखबारि आपुने करिता बहुस बिधान |
जिन कातर मुख बानि नहि लेवे वाके प्रान || १९ ||
भावार्थ : - रे मनुष्य ! अपने प्राणों की रक्षा के लिए तो तू बहुतक विधान की रचना करता है | जिस निरीह के मुख में वाणी नहीं है उसके प्राण लेने पर उतारू रहता है |
अपुना जी प्यारा बहु प्यारि अपुनी काय |
तब कहा होइ कोइ रे मार तोहि जब खाए || २० |
भावार्थ : - अपनी काया बहुंत प्यारी है अपना जी तो बहुंत प्यारा है |सोचो तब क्या होएगा जब कोई तुझे मारकर खाएगा |