Monday 29 April 2019

----- || दोहा -विंशी १ || ----

जोग बिनु कहा राखिये जाग बिनु का दिसाए |
कर बिनहि कहा पाइये दए बिनु का लए जाए || १ ||
भावार्थ : - रक्षा बिना कुछ सुरक्षित नहीं रहता, जागृति बिना कुछ दिखाई नहीं देता | जिसने किया नहीं उसे कुछ प्राप्त नहीं होता प्राप्त को दिया नहीं वह कुछ नहीं ले जाता उसकी समस्त प्राप्तियां यहीं रह जाती हैं |

बिरवा सबदिन रोपिये रह न्यूनाधिकाए | 
पंथ तबहि बिरचाइये चरन हेतु जब नाए || २ || 
भावार्थ : - वृक्षों की अधिकता हो अथवा न्यूनता वृक्षारोपण सभी काल ( पाषाणसे लेकर आधुनिक )में करना चाहिए | पंथ की रचना तभी करनी चाहिए जब चरण/नियम/चरित्र अनुशरण हेतु कोई पंथ न हो | क्योंकि चरण/नियम/चरित्र अनुशरण न हो तब ऐसे पंथ की रचना व्यर्थ होती है |

आरम्भ भल मध्य भलो अंत भलो परिनाम | 
छोट हो कि चाहे बड़ो करन जोग सो काम || ३ || 
भावार्थ ; -  जो आदि मध्य व् अंत तीनों काल में उत्तम फल देता हो,  छोटा हो अथवा बड़ा वह कार्य करने योग्य हैं |

जाहि को कर न चहे जो करतब धर्म कहाए | 
ताहि जो को करी चले दोइ गुना फल पाए || ४ || 
भावार्थ : - वह धर्म विहित कार्य जिसे कोई करना न चाहे उसे कोई कर चले तो वह दोगुने फल के अधिकारी होते हैं | 

स्पष्टीकरण : - उद्यानों में प्रभात फेरी लगाना सब चाहते हैं उद्यान लगाना कोई नहीं चाहता | फल खाना सब चाहते हैं पेड़ लगाना कोई नहीं चाहता किसी को प्रवचन दो तो कहते हैं हूह ये कार्य तो तुच्छ है  यह श्रमिकों का काम है ऊँचे पदों पर बैठकर  हमारा काम तो छायाचित्र खिंचवाना है | 


जाहि कोउ नहि कर चहें सब दिन सुभ फल दाए | 
छोटो कारज होत सो करत बड़ो हो जाए  ||| ५ || 
भावार्थ : - जिसे कोई करना न चाहे जो सदैव शुभफल प्रदान करता हो तुच्छ होने पर भी वह कार्य करने पर महान कहलाता है | 

कहबत माहि काज बड़ो करत कठिन कहलाए | 
तासु छोट जब करि चले सो त छोट हो जाए || ६ ||
भावार्थ : - जो कार्य कहने में तो महान है करने में कठिन है यदि तुच्छ कर चले तो वह कार्य सरल और तुच्छ कहलाता है | 

उदाहरणार्थ : - यदि एक चायवाला देश के शासन का संचालन कर चले तो यह कार्य सरल व् तुच्छ होकर किसी के द्वारा भी संपन्न हो सकता है | 

जाका आदि मध्य बुरो अंत भलो परिनाम | 
सोच बिचार दूर दरस पुनि कीजिए सो काम || ७ || 
भावार्थ : - जो आदि व् मध्य में निकृष्ट किन्तु अंत में शुभफल दायक हो वह कार्य सोच विचार कर व् बुद्धिमता पूर्वक करना चाहिए |    

मंगल मंगल सब चहें मंगल करे न कोए | 
मंगल सब कोए करें त मंगल मंगल होए || ८ ||   
भावार्थ : -  बुरा कोई नहीं चाहता सब अच्छा अच्छा चाहते हैं  किन्तु अच्छा कोई नहीं करता |  यदि सभी अच्छा अच्छा करें तो सबकुछ अच्छा अच्छा ही होगा | 

क्रिस्तानो इस्लाम की पुश्तें  हैं आबाद |
गुलामि जिंदाबाद याँ आजादि मुर्दाबाद || ९ |     

साहस केरे पाँख हो मन आतम बिस्बास |
नान्हि सी एक चिँउँटिया उडी चले आगास || १० || 
भावार्थ : - साहस के पंख हों और मन में आत्मविश्वास हो तो एक नन्ही सी चींटी भी आकाश में उड़ सकती है | 

हिन्दू कुस लग पसारे  हमरे भारत देस | 
दुर्नय नीति गहि होइहि सेस सोंहि अवसेस || ११ || 
भावार्थ : - हिन्दू कुश तक प्रस्तारित हमारे इस भारत देश को राष्ट्रविरोधी  नेतृत्व व् उनकी दुर्नीतियाँ को प्राप्त होकर शेष भारत से अवशेष मात्र रह जाएगा |   

 लिखनिहि सौंही बड़ी नहि करतल गहि तलबार |
तलबारि की धार सहुँ बड़ी सब्द की मार ||१२ ||
भावार्थ : - तलवार से बड़ी लेखनी होती है क्योंकि तलवार की धार से शब्द की मार गहरी होती | तलवार का वार एक बार मारता हैं शब्द का वार वारंवार मारता हैं | 

जिस प्रकार बल से बड़ी बुद्धि होती है क्योंकि : -
धनुधर के सर कदाचित, करे न एकहु हास । 
बुद्धमान के बुद्धि सन, सर्वस् करै बिनास ।१६७५। 
 ------ ॥ विदुर नीति ॥ -----
भावार्थ : -- शस्त्र धारी का शस्त्र चले तो कदाचित एक भी न मरे । यदि बुद्धिमान की बुद्धि चल गई तो वह सर्वस्व का नाश  कर देती है ॥
   
धरा का सार समुद है बादल वाका सार | 
बूंदि में ताहि साध के  दै करतल जौ धार || १३ || 
भावार्थ : - धरती का सार समुद्र है समुद्र का सार बादल है जो उसे एक बिंदु में साध कर करतल में रखने का सामर्थ्य रखता है | 

 बिसर गए साँच तपस्या बिसरे दया रु दान | 
 धरम निपेखा होइ के बिसर गये भगवान || १४ || 
भावार्थ : - सत्य तिरोहित हो गया, तपस्या तिरोहित हो गई दया और दान तिरोहित हो गए, मनुष्य धर्मनिरपेक्ष क्या हुवा ईश्वर तिरोहित हो गए || 

नदि समाध लगाई के बकुला करै ध्यान | 
सब पंथन ते ऊँच किए अपना पंथ ग्यान || १५ || 
भावार्थ : - सावधान ! सभी पंथो से अपने पंथ अपने ज्ञान को  ऊंचा कहते वंचक/पाखंडी नास्तिक नदी किनारे समाधिस्थ हुवे ध्यानमग्न है | 

उदयत सूरज सिरोनत नमन करे सब कोए |
निर्झर निर्झर निर्झरी नीरज नीरज होए || १६ ||
भावार्थ : - सूर्योदय होते ही सब नतमस्तक होकर सूर्यनमस्कार कर रहे हैं | पहाड़ों के झरने और नदी मुक्ताओं से युक्त हो गई है |

कान देइ न काहू की छेड़े अपनी तान |
नेताउँ को तो कारो आखर भैँस समान  || १७ ||
भावार्थ : - 'चींटी के पग घुंघरू बाजै साहेब वो भी सुनते हैं' किन्तु विद्यमान जनसंचालन तंत्र के कर्णाधार किसी की नहीं सुनते वह तो अपनी ही मन की तान सुनाते रहते हैं कुछ लिख के आवेदन करो तो उनको पढ़ना न नावै | 

 साधन अरु प्रसाधन तौ  मोल मिले धन ताहि  || 
जस रस लस बयस हँस सस मोल मिले सुख नाहि || १८ || 
भावार्थ : -  यश, स्वाद, सौंदर्य, आयु, हंसी, शस्य ( श्रेष्ठता,प्रशंसा )  और सुख इनके साधन प्रसाधन तो अवश्य धन से मोल लिए जा सकते किन्तु यह मोल नहीं लिए जा सकते हैं |

कभी कभी शब्द में ही ज्ञान गोपित रहता है हमें अन्न का मुद्रा से व्यवहार नहीं करना चाहिए अन्न के बदले अन्न ही लेना चाहिए, यह लेनदेन प्रगति को सूचित करता है |

नींद भेज्यो राति को दिबस भेज्यो चैन ||
कह पिय ते पातिआ तव दरसन तरसै नैन || १९ ||
भावार्थ : - रात्रि को नींद भेजों दिन में चैन भेजो | प्रीतम से पत्रिका कह रही है हे प्रीतम ! ये नेत्र तुम्हारे दर्शन हेतु तरस रहे हैं | 

रोला : - 
नैन गगन दै गोरि काल घटा घन घोर रे |  
बैस पवन खटौले चली कहौ किस ओर रे || २० || 


दोहा : -
नैन गगन दे के गोरि काल घटा घन घोर | 
बैस पवन करि पालकी चली कहौ किस ओर || २० || 

अहिंसा परमो धर्मः, अहिंसा परमो दमः। अहिंसा परम दानं, अहिंसा परम तपः॥
अहिंसा परम यज्ञः अहिंसा परमो फलम्‌।अहिंसा परमं मित्रः अहिंसा परमं सुखम्‌॥
----- महाभारत/अनुशासन पर्व (११५-२३/११६-२८-२९)

धृषु धीगुन धृतात्मन  ध्येयधीर धयान    चिंतन लगन साधना     

                   

Wednesday 24 April 2019

----- ॥ दोहा-द्वादश २० ॥ -----

भेस भाषा देस जनित धर्माचार बिचार | 
देस भूमि सहुँ अहंता गहे अर्थ बिस्तार || १ || 
भावार्थ : - राष्ट्र विशेष में प्रचलित भूषा, भाषा, आचार-विचार,आहार-विहार, परम्पराएं लोक रीतियां सभ्यता संस्कृति, राष्ट्रभूमि मूलनिवासी सहित किसी राष्ट्र की अस्मिता व्यापक अर्थ ग्रहण किए हुवे है |

अधिबासि होत जबहि तहँ पराए करें निबास | 
हेतु अहंता आपुनी करत देस कइँ हास || २ | 
भावार्थ : -  जब कोई बहिर्देशी अथवा कोई बहिर्देशी समुदाय किसी राष्ट्र विशेष में स्थायी रूप से निवास करने लगता है तब वह अपनी अस्मिता हेतु उक्त राष्ट्र की अस्मिता को क्षीण करने में संलग्न रहता है | 

बुद्धि में जब कुकर्मि सन बैसे कुबुध कुजान | 
रोपहि बिचारु सोइ जौ करिहि आप कल्यान || ३ || 
भावार्थ ; - बुद्धि देश की हो अथवा देश की जनमानस की जब उसमें कुबुद्धि, जगत निन्दित कार्य वाले, दुष्टात्मन विराजित हो जाएं तब फिर वह देश-समाज में राष्ट्र व् विश्व कल्याण के अन्यथा उन विचारों का अधिरोपण करते हैं जो स्वयं का कल्याण करे | 


कुबिचार सन देस चरन पतन पंथ पेखाए | 
ता सहुँ सहित समाज सो नितप्रति बिनसत जाए || ४ || 
भावार्थ : - स्वहित हेतु की विचार धारा राष्ट्र के चरण को पतोन्मुखी मार्ग का निर्देशन करते हैं इस निर्देश से राष्ट्र  समाज सहित प्रतिक्षण विनष्ट होता चला जाता है | 

देस देह संसद बुद्धि हृदय ग्रन्थ बिधान | 
सो निर्मोहि होए जबहि बैसे तहाँ बिरान || ५ || 
भावार्थ : -  राष्ट्र यदि देह है तो राजसंसद उसकी बुद्धि है विधान ग्रन्थ उसका ह्रदय है | जब ह्रदय में उसका दासकर्ता बहिर्देशी ही बस जाए तो वह उस राष्ट्र का विरोधी कहलाता है | 

बसत बसत परबासिआ होत देस अधिबासि | 
अधिकृति हेतु आपनपो लागसि कहन निबासि || ६ || 
भावार्थ : - किसी राष्ट्र में वासित प्रवासी पीडियों से निवास करते करते जब स्थायी हो जाता है, तब वह अपनी अधिकारिता हेतु स्वयं को वहां का निवासी कहने लगता है | 

हेतु अहंता आपुनी हेतु आपुना  राज | 
हेतु प्रभुत सो आपुने करत ताहि निज || ७ | 
भावार्थ : - यह अधिकारिता प्राप्त होते ही फिर वह अपनी अस्मिता ( देशधर्म,आहारविहार,आचारविचार वेशभूषा, भाषा ), अपना शासन,अपने राष्ट्र, प्रधानमन्त्री/अमात्य, दुर्ग/संसद अपना सैन्यबल अपना राजकोष अपने मित्रदेश अपनी सम्प्रभुता हेतु उक्त राष्ट्र अथवा राष्ट्र के किसी प्रादेशिक खंड को अपना दास बना लेता है | 

बहिर्देसि कि बहिर बरग बरते नेम बिश्राम | 
होत देस सहुँ आपुने  संविधान सो बाम || ८ || 
भावार्थ : - बहिर्देशी अथवा बाहिरि समुदाय हेतु नियमों में शैथिल्यता का व्यवहार करने वाला संविधान अपने ही राष्ट्र का विरोधी होता है |

रचै देस बिधान जोइ बहिरबरग कहुँ पोष | 
निज काय कृषकाय करत सकल रकत अवसोष || ९ || 
भावार्थ : - जो बहिर्वर्ग का पोषण करता हो ऐसे संविधान की रचना करने वाला राष्ट्र अपने मूलगत समुदाय के रक्त का अवशोषण कर उसे दुर्बल करता है | 

संबिधान पुनि सोइ जो रहे देस अनुकूल | 
बहिर देसिअ बहिरे करत राखे अपने मूल || १० || 
भावार्थ : - संविधान फिर वही संविधान है जो राष्ट्र के विरुद्ध न होकर उसके अनुकूल रहे, वह बहिर्देशीय अथवा बहिर्देशीय समुदाय का बहिष्करण करते हुवे अपनी मौलिकता की रक्षा करे | 

देसवाद बिरोधि होत लाँघै नित मरजाद | 
अधिबासित अनुहारिते सामराज कर बाद || ११  || 
भावार्थ : - अधिवासित प्रवासी राष्ट्रवाद के विरोधी होते हैं और साम्राज्य वाद का अनुशरण करते हुवे निवासित राष्ट्र की मर्यादाओं का नित्य उल्लंघन करने में प्रवृत रहते हैं | 

जहाँ नेम निबंध नहीं नहीं नीति नहि दंड | 
तहँ बिनसावत जात सो देस होत खन खंड || १२ || 
भावार्थ : - एक राष्ट्र को अन्य द्वारा अधिकार में लेकर उसे अपने हितों के लिए उपयोग करने वाला सिद्धांत ही साम्राज्य वाद है जहाँ ऐसे साम्राज्य वादियों प्रतिरोध हेतु नीति, नियमों, निबंधों सहित दंड का अभाव हो वहां वह राष्ट्र खंड-खंड होकर विनष्ट होता चला जाता है | 





Saturday 20 April 2019

----- ॥ दोहा-द्वादश 19 ॥ -----,

बिटप बोवैं भारती करतब निसदिन काम | 
बहिरे बैस बिश्राम ते खावै वाके आम || १  || 
भावार्थ : - नित्यप्रतिदिन परिश्रम कर वृक्ष भारतीय लगाते आए  देश का राजस्व एकत्र करते रहे और दासकर्ता बहिर्देशी विश्राम पूर्वक उसके फल खाते आए उस राजस्व का लाभ प्राप्त करते आए हैं |    

हते बिनहि सब जिउ गहे जीवन के अधिकार | 
भरीपूरी भूइँ रहे  ए  भारतिअ संस्कार || २ || 
भावार्थ : - किसी जीव की हिंसा न हो सभी जीवों को प्राणों का अधिकार प्राप्त हो धरती धनधान्य से संपन्न रहे यह भारतीय संस्कार है |  |

बिटप बुआवै और सो बैठे खावै आम | 
फुरबारी केहि और की बास गहे इस्लाम || ३ || 
भावार्थ : -   इस्लाम का यह मत है कि पेड़ कोई और लगाए और वह सिंहासन पर बैठकर आम खाए |    राष्ट्र रूपी पुष्पवाटिका किसी और की हो और सुगंध वह ले राज वह करे | 

देस तनु  संसद मति तब होतब चेतसबान | 
बैसे तहँ सुचि मंत सों सुजन सुबुध सुजान || ४ || 
भावार्थ : - राष्ट्र रूपी शरीर की राजसंसद रूपी बुद्धि तब ज्ञानी व् विवेकशील होती है जब उसमें निर्दोष, निरपराधि, सद्कार्य करने वाले सज्जन, सद्चरिता, बुद्धिवंत व् विद्वान सदस्य के रूप में विराजित हों | 


चेतसबान बुद्धिहि सों सदाचरन उपजाए | 
जौ कर सद करमिन करे सद्पथ चरन चलाए || ५ || 
भावार्थ : - राजसंसद रूपी बुद्धि में विराजित निरपराध, सद्चरित्र, सुबुद्ध, सद्कर्मी विद्वानों की विवेकशीलता राष्ट्र रूपी देह में सदाचार को प्रादुर्भूत करती है यह सदाचार उसके  हस्त को कल्याणपरक कार्यों में प्रवृत्त कर चरणों को उन्नति व् उत्थान के मार्ग की ओर ले जाता है | 

देस तनु कइँ संसद मति होतब तब हत चेत | 
कुबुध कुचालि कुकर्मि तहँ बैसे जब एक सेत || ६ ||  
भावार्थ : - राष्ट्र रूपी शरीर  की बुद्धि  संसद तब विवेकहीन हो  जब उसमें कुबुद्धि दुराचारी  अहितकर  कर्म करने वाले एक साथ आ विराजित होते हैं | 

हत चेतस बुद्धिहि संग अनाचार  उपजाए | 
जौ कर दुष्कर्मिन करे चरन कुमारग दाए  || ७ || 
भावार्थ : -   ये कुबुद्धि, दुष्टात्मन , जगत निन्दित कार्य वाले,  भ्रष्टाचार,व्यभिचार दुराचार जैसी अनेक बुराइयों को जन्म देते हैं ये बुराइयां   राष्ट्र रूपी देह के हस्त को दुष्कर्मों में प्रवृत करती हैं और चरणों को उसकी अवनति उसका पतन करने वाले कुमार्ग की ओर ले जाती हैं | 

देस तनु संसद मति सम बैसे तहाँ पराए |
सो तो दासा होइ के खन खन होत नसाए || ८ ||
भावार्थ : - संसद रूपी बुद्धि में जब बहिर्देशी विराजित हो जाएं  तो वह राष्ट्र रूपी शरीर  उसका दास होते हुवे खंड खंड होकर विनष्ट हो जाता है | 

हिताहित का बुराभला अपुने कवन पराए | 
भारत चेतसहीन मति वाका भेद न पाए || ९ || 
भावार्थ : - क्या हित क्या अहित है बुरा क्या है भला क्या है कौन स्वदेशी है कौन बहिर्देशी है | हे भारत ! एक विवेकहीन बुद्धि में अंतर करने वाली इस दृष्टि का सर्वथा अभाव होता है | 

सीउँ बँधे भूखेत सों जासु देस निरमाए | 
अहंभाव कइँ राखना देसबाद कहलाए || १० || 
भावार्थ : -  एक निश्चित सीमाबद्ध प्रभुसत्तात्मक भूक्षेत्र एवं उसकी अस्मिता का संरक्षण  राष्ट्रवाद है जिससे किसी राष्ट्र का निर्माण हुवा हो | 

सीउँ बँधे भूखेत सों जासु देस निरमाए | 
अहंभाव छित छेदना अदेस बाद कहाए  || ११ || 
भावार्थ : - जिससे किसी राष्ट्र का निर्माण हुवा हो ऐसे  एक निश्चित सीमाबद्ध प्रभुसत्तात्मक भूक्षेत्र का विभेदन कर उसकी अस्मिता को निरंतर हानि पहुंचाना अराष्ट्रवाद अथवा राष्ट्रविरोध है | 

देस हित कृत नेम नीति कुसल प्रबन्धन संग | 
रच्छा  ऐसी चाहिये रखै सकल राजंग || १२ || 
भावार्थ : - राष्ट्रभूमि एवं उसकी अस्मिता का संरक्षण ऐसा होना चाहिए जो राष्ट्र हेतु कल्याणकारी नियम व् नीतियों के सह एक कुशल जनसंचालन प्रबंधन से समस्त राज्याङ्गों (प्रभुत्व, अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, कोष,बल व् सुहृदय ) की सुरक्षा करे | 


Thursday 4 April 2019

----- ॥ हर्फ़े-शोशा 10॥ -----

लबों को सी लीजिए जबाँ न खोलिए
ये गुलामे-हिन्द है याँ कुछ न बोलिए..,

गैरों की याँ हकूमत औ मुल्के-खुदाई
मालिकान की किस्मत में कासा गदाई..,

ख़ातिर में सज़ा जो इक पल ग़ुरबत को रो लिए ..,

वो शम्म केआज़ादी की थी जिसको आरजू
जिस सल्तनत को फूँकने जली थी कू-ब-कू..,

सजी है वही सल्तनत बुझी उस शम्म को लिए.....
********************

ज़र्रा ज़र्रा से कहे सुन मेरे हमराज |
इन हौसलों के पँख भी होते गर परवाज़ ||

जहाँ में रौशन होके हम चश्मेबद्दूर |
चाँद तारे बनके हम आसमान का नूर 

Wednesday 3 April 2019

----- ॥ दोहा-द्वादश 18॥ -----,

देस बिरोधी भावना भईं अजहुँ एक जोट |
सिहासन बल पाए तिन्ह खँडरत नित दए चोट || १ || 
भावार्थ :-- राष्ट्र विरोधी भावनाएँ इस समय एकजुट हो चली हैं सत्ता की शक्ति प्राप्त कर वह उसकी अखंडता पर प्रहार करके उसे निरंतर हानि पहुंचा रही हैं | 

भारत तुम्हरी संतति बुढ़ी सुवारथ माहि | 
धन सम्पद पद सब चहे तुअहि चहे को नाहि || २ || 
भावार्थ :- और हे भारत ! ऐसे विकट समय में तुम्हारी संताने क्षुद्र स्वार्थो की पूर्ति में लगी हुई है तुम्हारी धन सम्पदा तुम्हारा सिंहासन सभी चाहते हैं किन्तु तुम्हारी चाह किसी को नहीं है | 


को बिनहि श्रम सिद्धि चहे राज सिहासन काहि  | 
को आरच्छित पद चहे देस चहे को नाहि || ३ || 
भावार्थ :- किसी को बिना श्रमकार्य किए पारश्रमिक चाहिए किसी को बैठे बिठाये राजपाट चाहिए किसी को संरक्षण तो किसी को आरक्षण चाहिए किन्तु ये तुम्हारा देश किसी को नहीं चाहिए | 


जहँ जनमानस कर सिद्धि चहत बिनहि श्रम काज | 
देस दासा करतब तहँ करत परायो राज || ४ || 
भावार्थ : - जहाँ जनमानस बिना परिश्रम बिना कार्य किए सफलता की आकांक्षा करता है देश को दास बनाकर वहां पराया राज करता है | 

पराए जन को पोषिता अपने जन कहुँ सोष | 
भारत तव जनतंत्र में भरे पुरे हैं दोष || ५ || 
भावार्थ : - निज मूल का शोषण कर पराए मूल का पोषण करता है, हे भारत ! तेरा लोकतंत्र दोषों से परिपूर्ण है | 

संबैधानिक कटुक्ता संबिधात जहँ कोइ | 
जनसंचालन तंत्र तहँ  दंड पास सम होइ || ६ || 
भावार्थ : - सुधारवादी दृष्टिकोण से अन्यथा जहाँ कोई संविधानिक कट्टरता प्रस्तावित हो वहां जनसंचालन तंत्र दण्डपाश के समान है | 

जनमानस के सीस पै नेता मारे जूत | 
धीरहि धीर उतरेगा लोकतंत्र का भूत || ७ || 
भावार्थ : - जनमानस नेताओं द्वारा अपमानित होते दिखाई दे रहा है हे भारत ! ऐसे दोषपूर्ण लोकतंत्र का भूत भी उसके सिर से धीरे धीरे ही सही किन्तु उतरेगा अवश्य | 

सुतंत्रता संग्राम ने करिया कपट ब्याज  | 
देस संगत गया नहीं  मुसलमान का राज || ८  || 
भावार्थ ; - स्वाधीनता संग्राम ने इस देश के लोगों के साथ छल कपट किया | हे भारत ! अंग्रेज चले  गए किन्तु इस देश से मुसलमान का राज नहीं गया | 

देस बासी पाहि नहीं प्रभुता कहुँ अधिकार | 
भारत अपने देस में बैसे राम बहार || ९ || 
भावार्थ : - देस वासियों का अपने देस पर सम्प्रभुता का अधिकार नहीं है उनके अपने इष्ट देव उनके अपने जन्मगृह से बाहर कर दिए गए हैं | 

भारत तव जनतंत्र महँ निज मत देत ए भीड़ | 
अपनी जड़ि उपारि करे बहिर देसि कर दृढ़ || १० | 
भावार्थ : - भारत ! तुम्हारे इस जनतंत्र में अपना मत दान करती यह भीड़ अपने ही देस अपनी जड़ें उखाड़ रही है और अपने से भिन्न अन्य देश में प्रादुर्भूत धर्म के अनुयायियों की जड़ें सुदृढ़ कर रही हैं 

मूल निबासी देस के पड़े रहे जब सोए | 
बहिरे देस भगत होत देसबाद को रोए || ११ || 
भावार्थ : - जब किसी देश के मूलनिवासी जागृत न होकर राष्ट्र के प्रति सुसुप्त रहते हैं तब दासकर्ता बहिर्देशी राष्ट्रभक्त बने राष्ट्रवाद का चिंतन करते हैं | 

तहँ धरम गोहारे जहँ मिला लूट ते राज | 
तहाँ धरम दुत्कारे जहँ  मिला झूठ ते राज || १२ ||
भावार्थ : - जहाँ लूट से राज मिला वहाँ ये बहिर्देशी अधर्मी धर्म का ढोंग कर उसके सच्चे अनुयायी हो गए जहाँ झूठ से सत्ता मिलने लगी वहां ये नास्तिक का पाखंड कर धर्म का तिरष्कार करने लगे | 

----- ॥ हर्फ़े-शोशा 9॥ -----,

मुल्के दुन्या ने इक नया तमाशा देखा
अतलसी लबास तन पे दस्त में कासा देखा..,

  ग़रीबो-गुफ़्तार के दर माँगे ये सल्तनत
मजबूरी पे पड़ता जम्हूरियत का पासा देखा.. ?

शिकम सेर होकर वाँ खाए है इस कदर
जैसे की कभी बतीसा न बताशा देखा..,

लफ्ज़-दर-लफ्ज़ खुलते गए जब वादों के पुलिंदे
गुजरे वक़्त की नाकामियों का खुलासा देखा..,

दिखी उस तन के चेहरे पे फ़तह की जब उम्मीद
हँसती तब हर इक नज़र को रुआँसा देखा..,

लच्छेदार दार बातों में जब लचकी ज़रा कमर
   मुफत में वजीरे आज़म का सनीमा देखा.....

----- ॥ हर्फ़े-शोशा 8॥ -----,

कहीं और की पैदाइश कहीं और है बसेरा..,
किस बेशर्म जबाँ से कहते ये हिन्द को मेरा..,

मुल्कों को तक़सीम करना इनकी है फ़ितरत..,
जुल्मों जबह कर फिर करते है उसपे हुकूमत..,

इनसे सियह बख्त है मिरे माज़ी का हर सबेरा
किस बेशर्म जबाँ से कहते ये हिन्द को मेरा..,

महरूम हुवे क़लम से अपनी ही जबाँ से हम
बैठे है ये भी भूल के थे आए कहाँ से हम..,

जहाँ की ज़हीन क़ौम को जहालतोँ से यूं घेरा 
किस बेशर्म जबाँ से कहते ये हिन्द को मेरा.....