Tuesday 22 October 2013

----- ॥ उत्तर-काण्ड १४ ॥ -----

आप धुनी  प्रभु सब कहुँ तोले । बहुरी सुर मुनि गन सों बोले ॥ 
मनुज जोनि बरनत अवतरिहौं । धनुर्धारी रूप मैं धरिहौं ॥ 
प्रभु श्रीराम चन्द्र जी अपने शब्दों को भली प्रकार परख कर फिर देवों एवं मुनियों से बोले । हे देवगण ! मनुष्य 
योनि  को वरण करते हुवे मैं  अवतरित होऊंगा, मेरा स्वरूप धनुर्धारी का होगा ॥ 

 भू लोक अहहीं एक सुठि धामा ।  भवन भवन जहाँ सुख बिश्रामा ॥ 
परम धाम सम सुख आधारा । अजोधा पुरी नाऊ धारा ॥ 
भू लोक में एक सुन्दर धाम है जहां भवन भवन में सुख विश्राम करता है ॥ वह परम धाम स्वर्ग स्वरूप ही है जिसने अपना शुभनाम अयोध्या धरा है ॥ 

दान धरम  कृत कर्मन ठाने ।  सेवा पूजन हवनाधाने ॥ 
रघुुकुल रबि बंसज के राखे । रजत मई पहुमी पहि लाखे ॥ 
वह दान धरम एवं शुभ कर्मों के निरंतर अनुष्ठान से सेवा पूजन हवन के आधान से रघु के कुल सूर्य के वंशजों द्वारा रक्षित है । और अपनी रजतमयी  भूमि से सुशोभित हो  रहा है ॥ 

तहाँ एकु सिरो भूषन  राऊ । जगत प्रथित प्रज दसरथ नाऊँ ॥ 
सकल दिग बिजै जो एहि काला । जोग लगन किए महि जन पाला ॥ 
 उस सूर्य वंश में जगत प्रसिद्ध एक शिरोमणि राजा हैं जिनका नाम दशरथ है । जो  दिग्विजय स्वरूप में  निष्ठा पूर्वक मोक्ष का उपाय करते हुवे उस भूमि का पालन  कर रहे हैं ॥ 

राजलखी कृपा उप कृत, धन बलबंता होइ । 
तथापि ते पत अजहुँ लग, लहे न जनिमन कोइ ॥  
यद्यपि वे राज्यलक्ष्मी की कृपा से उपकृत होकर धन-धान्य, शौर्य-शक्ति से परिपूर्ण है । तथापि उस भू पालक को अबतक संतान की प्राप्ति  नहीं हुई ॥ 

बुध/बृहस्पति , १८/१९  जून, २०१४                                                                                                           

सिष्य शृंग  जातक बर दाहीं । अरु रागीन्हि गरभ धराहीं ॥ 
तदनन्तर हित हेतु तुहारे । अवतरिहौं सरूप धर चारे ॥ 
महा मुनि शिष्य श्रृंग जब उन्हें संतान का वरदान देंगे औ उनकी रानियां गर्भ धारण करेंगी ॥ तत्पश्चात तुम्हारे कल्याण हेतु मैं चार स्वरूपों में अवतरित होऊंगा ॥ 

 लषन अरु भरत सत्रुहन रामा । होहि प्रथित  मम चारिन नामा ॥ 
तेहि काल रावन बल बाहन । मूल सहित करिहउँ संहारन ॥ 
लक्ष्मण भरत शत्रुध्न एवं राम मेरेजगत प्रसिद्ध ये चार नाम होंगे ॥ उस समय मैं बल का वाहन स्वरूप उस  दुष्ट रावण का संहार करूंगा ॥ 

सिखर धनुर धर भुज बल सीला । होही अनुपम मोरि लीला ॥ 
तुम्हिहि भालु  कपि रूप धरिहौ । होत बन गोचर भुइ विचरिहौं ॥ 
कन्धों पर धनुष धारण कर भुजाओं में बल से शीलवान होकर मेरी लीलाएं अनुपम होंगी ॥ तुम भी भल्लुक एवं कपि रूप धारण कर वनगोचर होकर भू लोक पर विचरण करना ॥ 

बहुरी सील सनेह रस सानी । बोले प्रभु सह निर्मल बानी ॥ 
हरिहउँ रे भुइ तव सिरु भारा । तुअ तईं ब्रह्म बचन हमारा ॥ 
तदननतर शील एवं स्नेह के रास में डूबी निर्मल वाणी से युक्त होकर भगवान बोले : -- हे विश्वम्भरा ! मैं तेरे भी शीश का भार हरण करूंगा । तुम्हारे प्रति यह मेरा ब्रह्म वाक्य है ॥ 

हे भयमय भयउ निर्भय, हे मुनि सिद्ध सुरेस । 
अंस सहित तुम्हहि लागि, धरिहौं मैं नर बेस ॥  
हे भयमय ! शरण आए  मुनिगण एवं सिद्धि सुर श्रेष्ठ अब तुम निर्भय हो जाओ ॥ मैं अंस सहित तुम्हारे हेतु नर का वेश धारण करूँगा ॥ 

एहि बिधि सब उर आरत हारे । मुखरित श्री मुख मौन पधारे ।। 
छाए मनस मह ब्रह्म अनंदे । फिरि बेगि हरि चरनिन्ह वंदे  ॥ 
सभी जनों के हृदय के कष्ट हरण करके इस प्रकार प्रभु के श्रीमुख पर मौन विराजित हो गया ॥ सभी के अं-मांस इन ब्रह्म आनंद छा गया । और वे प्रभु के चरणों में वंदना कर शीघ्र लौट गए ॥ 

 देवाधिदेव मुख जस कहने । देवन्हि तेहि बिधि कृत लहने ॥ 
सकल अंसन्हि आपन आपे । पलक माहि भुइ लोक ब्यापे ॥ 
देवों  के अधिदेव के मुख ने जैसा कहा देवताओं ने फिर वैसा ही किया ॥ सभी अपने अपने अंशों के सह पलकभर में भू लोक में व्याप्त हो गए ॥ 

को कपि केहि रीछ रूप धरे । गिरि कानन तरु बन बन बिचरे ॥ 
दरसन गोचर तहँ लग भर पूरे । हरि अवतर बिनु दिरिस अधूरे ॥ 
कोई वानर का  कोई रीछ का रूप धारण कर पर्वतों उपवनों के तरु पर एवं वन वन विचरण करने लगे ॥जहां तक क्षितिज लक्षित  होता था वे वहां तक  भर गए किन्तु ईश्वर के अवतार बिना यह दृश्य अधूरा ही था ॥ 

पलक दसाए कहत जोहारे । कब अवतरहीँ नाथ हमारे ॥ 
 कब दसरथ अचिर बिहारहू । कब सुरमुनि धरनी दुःख हारहू ॥ 
वे पलकें बिछाकर प्रभु के अवतरण की प्रतीक्षा करते हुवे कहते कब आएँगे हमारे नाथ ॥ दशरथ के आँगन में विहार करने वाले आप कब राजा दशरथ के आँगन में विहार करोगे और कब सुर मुनियों सहित इस पृथ्वी के कष्ट हरोगे ॥ 

कौसल्या घर प्रगस कृपाला । हरे सबहि दुःख दीन दयाला ॥  
कहत जिन्हनि महतिमह देवा । सोइ श्रीधर आप स्वमेवा ॥ 
फिर प्रभु माता कौशल्या के भवन में प्रकट हुवे  विपदा ग्रसित जनों पर  दया करते हुवे आप भगवान ने फिर सभी के कष्टों को हर लिया ॥जिन्हें महतिमह देव कहते हैं । वह श्रीधर आप स्वयं हैं प्रभु ॥ 

मम मन चारिन महमते हे महनी मानाय । 
मनु सरूप भगवन रूप, आपहि अवतर आए । 
मेरे चित्त में निवास करने हे महाबुद्धि वन्दनीय भगवान । मनुष्य रूप में भगवान के स्वरूप में इस पृथ्वी पर अवतरित होकर आप ही आए हैं ॥ 

शुक्रवार, २० जून,२०१४                                                                                                     

काल दूत सम दैत कराला ।  निज करनी गहि काल अकाला ॥ 
ब्रह्मन बंसी राछस जाता । तुम हत कृत कर भू किए त्राता ॥ 
वे भयानक दैत्य मृत्यु के दूत के सदृश्य हैं अपनी करनी से ही जो अकाल मृत्यु को प्राप्त हुवे । उन ब्राम्हण वंशजो एवं राक्षशी  के जातको को  हतबाधित कर  इस भू को  हे प्रभु आप ही ने रक्षित किया  ॥ 

हे जगजीवन जग भगवाना । जगनजीव के उद्भव थाना ॥ 
होहिहि जब सों  तुहरे राजा । दनुज मनुज अगजग सुख साजा ॥ 
हे जगत के जीवन स्वरूप जगतेश्वर विश्वात्म एवं उसकी प्रभूति ॥ जबसे इस पृथ्वी पर आपका राज स्थापित हुवा है । तबसे सुर असुर सहित ससत चराचर में सुख सुसज्जित हो गया ॥ 

हे दुर्बृत्त दुर्नीत नेबारी । जबसों भा दय दीठ तुहारी ॥ 
सुर मुनि धरणी पैह बिश्रामा । निर्भय हिय नंदन तरु श्रामा ॥ 
हे दुर्वृत्त एवं दुर्नीति के निवारक जबसे आपकी दया दृष्टि हुई है सुर मुनि वृन्द सहित धरती निर्भय  हृदयी होकर आनद रूपी वृक्ष की घनी छाँव में विश्राम प्राप्त कर रहे हैं ॥ 

दरसन मा कहुँ दुर्मर नाही । सकल जगत सुख ही सुख छाही ॥ 
हे पाप परस हिन रघुराया । बूझे तुअ जो सो कह पाया ॥ 
समस्त संसार में सुख ही सुख छाया है अकाल मृत्यु कहीं देखने में नहीं आती । पाप के स्पर्श से रहित हे रघुनाथ जी! आपने जो कुछ पूछा उसका यह उपाख्यान है ॥ 

श्रुत बिप्रबर बदन्य बदन, छाए प्रभु  मन  संतोष ॥  
सुधाधार दुइ मृदुलधर, सुहासिन रहे पोष । 
 विप्रवर का यह सुमधुर कथन सुनकर प्रभु के चित्त में संतोष व्याप्त हो गया और उनके सुधा के आधार स्वरूप दो मृदुल अधरों पर सुहास का पोषण करने लगे ॥ 

शनिवार, २१ जून, २०१४                                                                                                     

बहुरि बोलि रघुकुल अवतंसा । भयउ बहुतज इछबाकु बंसा ॥ 
निंदित कथन कवन मुख माही । बिप्रवर सुना कतहु को नाही ॥ 
तदोपरांत रघुकुल श्रेष्ठ श्री रामचन्द्रजी बोले : -- हे विप्रवर ! इक्ष्वाकु के वंश में बहुंत से वंशज हुवे । उनमें किसी के भी मुख से किसी भी ब्राम्हण ने निन्दित वचन नहीं सुना ॥ 

बर्नाश्रम के भेद बिधाने ।  बिलग बिलग धर्मंन आधाने ॥ 
बेद निधि बेद समतूला । दरसिन धारन  मूर्ति मूला॥ 
व्युत्पत्ति एवं स्वभावगत विभेद के आधार पर ही विभिन्न धर्मों की स्थापना हुई है । ब्राह्मण  और वेद दोनों सादृश्य  हैं । वे वेद के ज्ञाता स्वरूप में उनकी स्मृति को धारण करने वाले हैं एवं वेद रूपी ईश्वर की प्रतिमूर्ति होते हुवे वेदों के दृढ़मूल है ॥ 

बेद बिटप के चारिन साखा । तेहि बंस सरबस अभिलाखा ॥ 
ऐसेउ बंस हे मुनिराई । भए हत बाधित मोरे ताईं ॥ 
वेद रूपी वृक्ष की चार मुख्य शाखाएं हैं । यह सभी शखाएं उस ब्राह्मण वंश में अभिलक्षित होती हैं ॥ हे मुनिराज ! ऐसे वंश  का मेरे द्वारा संहार हुवा ॥ 

होतब न सोइ होवनिहारे । गुन गाहक हे अतिथि हमारे ॥ 
मम सिरु यह पातक निबराईं । करत कृपा कहु को उपाई ॥ 
जो नहीं होना चाहिए था वह हो गया । गुणों को ग्रहण करने वाले हे अतिथिदेव ! मेरे शीर्ष पर से इस पातक का निवारण कैसे होगा मुझ पर कृपा करते हुवे इसका उपाय कहिए ॥ 

प्रभु जियँ मान ग्लान, कहि जामें हो कल्यान । 
उरझ के समाधान, कहहु अस को समादेस ॥ 
प्रभु ने अपने हृदय में ग्लानि मानते हुवे कहा : -- जिसमें कल्याण हो और समस्या का समाधान हो हे विबुद्ध ! ऐसी कोई आज्ञा कोई निर्देश कीजिए ॥ 

रविवार, २२ जून, २०१४                                                                                                         

कह कुम्भज हे अवध स्वामी । जगतात्मना अंतरजामी ॥ 
कारन करता हे जग हारू । तुम पालक तुअहि संहारू ॥ 
महर्षि अगस्त्य ने कहा : - हे अवध के स्वामी जगत के आत्म स्वरूप अंतर्यामी । हे जग के कारण कर्त्ता संसार के प्रभु आप पालक है आप पालक हैं आप ही संहारक हैं ।। 

जासु नाम जग नर मुख कहहीं । कृत बिसोक दुह पातक दहहीं ॥ 
प्रगसे प्रभु  रघु नंदन रूपा । आप मनोगत सगुन सरूपा ॥ 
जगत के मनुष्यों के मुख के कहने भर से जिनका नाम शोक हीन करते हुवे दुःख एवं पापों का दहन करता है ॥ प्रभु रघुकुल के नंदन का रूप धारण कर स्वेच्छा से सगुण स्वरूप में प्रकट हुवे ॥ 

उन्मत बिप्रहत सम्पद हारी । धर्म बिरुद्धा पापा चारी ॥ 
करही सुरति तव नाउ भनिता । होहिहि अचिरम पुनीत पबिता ॥ 
धन सम्पदा को हरण करने वाले, उन्मत्त,  ब्रह्म हत्यारे, धर्म के विरोधी एवं पापाचारी  जब आपके नामकथन का स्मरण करते हैं तब वे शीघ्र ही पुनीत एवं पवित्र हो जाते हैं ॥ 

सील सरित सिय जनक किसोरी । जासु  वंदन करौं कर जोरी ॥ 
भगवती जग जननीहि रूपा । महा बिद्या सरूप अनूपा  ॥ 
सदाचार की सरिता जनक किशोरी सीता की मैं हाथ जोड़ कर चरण वंदना करता हूँ ॥ जगत जननी के रूप में भगवती तो स्वयं ही महाविद्या का स्वरूप हैं ॥  

जोइ कंठ सिय कीर्ति गावै । महमति परमानंद समावै । 
पैह दरस पद सीस नवावैं । लैह मुकुति सो सद्गति पावै ॥ 
जो कंठ भगवती सीता का यशोगान करता है हे महामते ! वह परम आनंद में समा जाता है ॥ जिस किसी को उनके दर्शन एवं चरण वंदन का सौभाग्य प्राप्त होता है वह इस संसार के बंधन से विमुक्त होकर परम गति का अधिकारी हो जाता है ॥ 

रघुकुल कैरव राम हे, लोकायन उपकारि । 
अस्व मेध मख अनुठान, अघ हन मर्षन मारि ॥ 
हे रघुकुल कौमुद, जगत का कल्याण करने वाले नारायण स्वरूप श्रीराम  ! अश्व मेध महा यज्ञ का अनुष्ठान ही पाप निवारक एवं पापनाशक मंत्र है ॥  

सगर मरुत नहुषनन्दन, जजाति मनु अधिराए । 
भगवान पूर्वज मख कृत, परमम गति लहनाए । 
सगर, मरुत्य, नहुषनन्दन, ययाति एवं महाधिराज मनु ये सब भगवान के पूर्वज हैं जिन्होंने इसी गग्य का आयोजन कर परम गति प्राप्त की ॥ 

सोमवार, २३ जून,२०१४                                                                                                              

तृप्त जगत समरथ गोसाईं । सस सालिन स्याम तिल ताईं ॥ 
बहुरि रघुनाथ परम सुभागे । हो सम्मत बिधि बूझन लागे ॥ 
सम्पूर्ण चराचर तृप्त हैं, स्वामी धान-धन,गौधन, तिल-धन से समरथ हैं ॥ फिर परम सौभाग्यशािी श्री रघुनाथजी विप्रवर के कथन से सम्मत होकर यज्ञ का विधि-विधान पूछने लगे ॥ 

 रिषि एहि मह मख कवन अधाने । पूजन जोजन केहि बिधाने ॥ 
लागहि अरु कस साज सुभीता । केहि बिजितत केहि न जीता ॥ 
हे महर्षि !इस महायज्ञ का अनुष्ठान किस प्रकार किया जाना चाहिए । इसके पूजनायोजन का विधान क्या है ॥ इसमें किस प्रकार की सज्जा किस भाँती की व्यवस्था आवश्यकता होगी । तथा इस यज्ञ में किसे जीता जाना चाहिए एवं किसे नहीं ॥ 

कह मुनि कुम्भज हे रघुनन्दन । सम सरिदबरा हो जासु बरन ॥ 
बदन ललामिन करन स्यामा । लंगु पीत लोचन अभिरामा ॥ 
मुनिवर अगस्त्य ने कहा हे रघुनन्दन ! जिसका वर्ण सरितवरा के सदृश्य उज्जवल हो । जिसका मुख  हो और कारण श्यामल हों जिसकी लांगूल हरिदा हो एवं जो नयनों को प्रिय लगे ॥ 

जोइ  बाहबर ए लखन लखिता । सोइ मह मख के होहि गहिता ॥ 
पूर्ण निभ सस मास बिसाखे  ।  बिधिबत पूजत एक पटि लाखे ॥ 
जिस अश्व में ये शुभ लक्षण लक्षित हों वह अश्व मेधीय होकर यज्ञ में ग्राह्य बताया गया है ॥ वैशाख की पूर्णिमा इस यज्ञ हेतु निर्धारित है इससे पूर्व  विधिवत पूजार्चन कर एक पट्ट लिखें ॥ 

अंक पत्रांकित विभो नामा ।  लखित सौर के बिबरन बामा ।। 
उस  पर प्रभु के नाम की मुद्रा अंकित हो । और वाम पक्ष में अयोध्या राज्य के शौर्य का उल्लेख हो ॥ 

लेख ललाट निबंध प्रभु परिहरु हेतु बिहार । 
पाछे तासु जोग रखे, बहुतक राखन हार ॥  
यह लेख पत्र ग्राह्य अश्व के मस्तक  पर आबद्ध करें,  तत्पश्चात स्वच्छंद विहारं हेतु उस का परिहरण कर देवे  ।  उस अश्व की रक्षा हेतु बहुंत से सैनिक चयनित किये जाएं ॥ 

मंगलवार, २४ जून, २०१४                                                                                                       

जोग जतन राखत चहुँ ओरा । जावैं तहाँ जाए जहँ घोरा ।। 
प्रदर्सन हेतु निज बलताई । कोउ नृप जब हरे बरियाई ॥ 
योग यत्न सहित चारों ओर से सैन्य से सुरक्षित वह अश्व जहां जाए सुरक्षा कर्मियों को वहां वहां जाना चाहिए  ॥ यदि कोई नृप अपने शौर्य का प्रदर्शन कर उस अश्व का बलपूर्वक हरण करते हुवे : --  

दंभ  सहित प्रभु राज बिरोधा । तासु संग जोझावए जोधा ॥ 
रन करम कृत करत है राखे । छीन किरण करि आपनि काखेँ ॥ 
दम्भ सहित प्रभु श्री राम के शासन का विरोध करता हो तब उसके संग सभी योद्धा युद्ध करें ॥ और उस विरोधी से संघर्ष करते अश्व की रश्मियाँ छीनते हुवे अपना अधिकार स्थापित कर उसकी रक्षा करे ॥ 

जब लग भाँवर अनी न अनाई । तब लग मखपत कहुँ नहि जाईं ॥ 
पालत बिधिबत नेम बिधानहि  । ब्रह्म चरन चर रहि रउधानहि  ॥ 
जब तक सेना उस अश्व सहित भू लोक का भ्रमण कर नहीं आ जाती तब तक यज्ञपति को कहीं गमन नहीं करना चाहिए  । उसे यज्ञ सबधित समस्त विधि विधानों एवं ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते अपनी राजधानी में ही चाहिए ॥ 

हिरन श्रृंग किए हस्तक कोषे । याचक गन सब बिधि परितोषें ॥ 
जब मख पूरन भयउ सुपासा । करत कृताकृत पातक नासा ॥ 
हस्त कोष में हिरन का श्रृंग धारण किए याचक गण को सभी प्रकार से संतुष्ट करना चाहिए ( प्रभु के राज्य में कोई दीन दुखी नहीं है केवल याचक गण है ) ॥ जब यह यज्ञ सुखपूर्वक पूर्ण हो जाता है तब  किए अथवा न किए हुवे  पापों का नाश  कर देता है ॥ 

सों अबाखी बैर पुरुख , एतदर्थ महा प्राज्ञ । 
कारन कारक कृताकृत अघ नासिन यह याज्ञ ।। 
शत्रुओं से रक्षा करने वाले हे महाप्राज्ञ  इस भांति यह यज्ञ कारक एवं कारण सहित किए न किए पातकों का नाशक है ॥ 

बुधवार, २५ जून, २०१४                                                                                                            

 हे मुनि बाहय भवन पधारौ । विचित करत तुअ देख निहारौ ॥ 
तुम्हरे कहे लखन लहाही । कोउ बाहबर अहहि कि नाही ॥ 
( तब श्रीराम चन्द्र जी ने कहा : -- ) हे मुनिवर ! आप अश्व शाला में पधारें  और उसका निरिक्षण करते हुवे एक निहारी कर लें ॥ आपके कहे अनुसार लक्षणों से युक्त वहां कोई अश्व है कि नहीं ॥ 

सुनी प्रभु बचन महा रिषि दयाला । निरूपन हेतु गयउ हैसाला ॥ 
पूरनित रंग अस्व अनेका । चित्रकृत बिचित्रक  एक ते ऐका ॥ 
प्रभु के ऐसे वचन सुनकर फिर वह दयालु महर्षि अश्व निरिक्षण  हेतु अश्वशाला में गए । जहां पूर्ण लक्षणों से युक्त अनेकानेक अश्व थे । अनोखे अद्वितीय स्वरूप में वे सभी एक से बढ़ कर एक थे 

धौल गिरि देहि  करन स्यामा । सकल बाह लोचन अभिरामा ॥ 
बिचित्र देह चित्र रूप रूचिता । चारु चरन सुभ लखन सहिता ॥ 
 उनकी देह धौल गिरी की सी अति उज्जवल एवं कर्ण श्याम वर्ण के थे । सभी अश्व लोचन को अतिशय प्रिय लग रह थे ॥ 
  जिनकी  बनावट अति शोभनीय थी व् सभी रोचक चित्र रूप प्रतीत होते ॥ सुन्दर चरणों से भी युक्त होने के कारण सभी शुभ लक्षणों को ग्रहण किये हुवे थे॥ 

लाल लसित मुख पीत लँगूरी । देह गठावन भूरिहि भूरी ॥ 
निरख रिषि कह हे रघुनन्दन । जग्य जोग है भयऊ निरुपन ॥ 
मुख पर लालिमा जैसे क्रीड़ा कर रही थी पीतम लंगूरी के सह उनका शारीरिक सौष्ठव बहुंत ही अधिक था । यह  देख ऋषिवर ने कहा हे रघुनन्दन ! यज्ञ -योग्य  अश्व के अन्वेषण का कार्य पूर्ण हुवा ॥ 

कृत जगत कृतकृत्य  हे संभावित प्रभु अब बिलम न कीजै । 
भू भारन हारू साजि सम्भारु  आह्व आयसु दीजै ॥ 
अजहूँ भू भवन सबहि संभावन सम्भारी संग सजे । 
पावन जग कुल यस प्रभु मन मानस होहि सो संसय तजे ॥ 
 हे आदृत प्रभु !जगत के कृतकृत्य  कृत्य को कारित करने में अब विलम्ब  न कीजिए । भूमि के भार को हरण करने वाले प्रभु सम्भार एकत्र हैं अब केवल आह्वान हेतु आज्ञा दीजिए ॥ इस समय भूमि का  भवन भी सभी  संभावनाओं एवं आवश्यक प्रबंधों से परिपूर्ण है । संसार में रघु कुल की कीर्ति का विस्तार प्राप्त करने हेतु यदि आपके मन मानस में कोई संसय हो  तो उसका परित्याग करें और यज्ञ का अनुष्ठान करने को उद्यत होवें ॥ 

जासु धूत धृत कृत चरित कारन कपट ब्याज । 
दुर्भर भाव नसाइ कै, चहुँ पर रजे सुराज ॥ 
( रावण रूपी कारण का विनाश हो गया है )जिससे कि धूर्त एवं छल कपट हिंसा आदि की कारक इन भारी दुर्भावनाओं का भी नाश हो एवं  पृथ्वी पर चारों दिशाओं में सुराज  की स्थापना हो जाए ॥ 

एक दिवस मन परखन ताईं  । भरत लख्नन ले निकट बुलाई  ।।
अरु कहि रे जग प्रियकर भाई । मोरे मन एक चाह समाई ।। 
फिर  एक दिवस संसार के रचयिता श्री राम चन्द्र ने  भ्राता भरत एवं लक्ष्मण के चित्त की अवस्था ज्ञात करने हेतु उन्हें  निकट बुला कर कहा हे जगत का  हीत करने वाले प्रिय भाइयों मेरे मन में एक कामना जागृत हुई है ॥ 

धरम करम के चारन चारे । राज सूय जज्ञ काहु न कारें ।। 
पावत एहि जज्ञ जाज्ञिक कारी । राज धरम के परम दुआरी ।।   
धर्म कर्म का आचरण पर चलते हुवे क्यों न हम राज सूय यज्ञ का आयोजन करें ।। इस यज्ञ के आयोजन कर्त्ता एवं कारिता राज धर्म के चरम पद को प्राप्त होते हैं ॥ 

एहि जज्ञ कारज भए अघ नासी । पाएँ कृत फल अक्षय अविनासी ॥ 
तुम्हहि कहु अब सोच बिचारे । का एहि कृति रहि जग सुभ कारे ॥ 
यह यज्ञ कार्य पापों का नाशक है एवं यज्ञ सफल होने पर कर्त्ता को अक्षय एवं अविनाशी फल की प्राप्ति होती है ॥ अब तुम ही  विचार कर कहो कि क्या इस यज्ञ का आयोजन संसार के लिए कल्याण कारी होगा? 

सुनत बर भ्रात के मृदु भासन । बोले भरत अस सीतल बचन ।। 
तुम्हहि जस तुम भए बर धर्मा । एहि महि थित तव कल कर कर्मा॥   
बड़े भ्राता के ऐसे कोमल एवं कृपा पूर्ण शब्दों को सुनकर भरत ने ये शीतल वचन कहे : -- हे! नाथ आप स्वयं ही यश हैं  स्वयं ही इस पृथ्वी का श्रेष्ठ धर्म हैं आप ही के हाथों के शुभ कर्मों के कारण ही इस धरा का अस्तित्व है ॥ 

कहूँ बर बचन लघु मुख धारे । अनभल के छमि भ्रात हमारे ॥ 
अस जग्य करम को बिधि कारे । जे सब महि कुल सूर संहारे ॥ 
  हे! भ्राता मैं  अहितकर वचनों के लिए क्षमा का प्रार्थी हूँ, अपने इस छोटे मुख से बड़ी बात कहता हूँ॥ ऐसा यज्ञ कार्य हम किस हेतुक करें जो  पृथ्वी पर स्थित राजवंशों का संहार कर दे ॥ 

 हे जग सूर बंदन तुम, भै तात सकल भूम । 
तवहि कोमल चरन पदुम, गहि रहि पवित पहूम ॥  
हे समस्त जनों के पूज्यनीय हे जगराज ! आप तो समस्त पृथ्वी के पितृतुल्य हैं यह पवित्र भूमि आपके इन कमल सदृश्य कोमल चरणों को
ग्रहण किए  है ( अत: आप ऐसा यज्ञ कार्य स्थगित कर दीजिए)

श्रुत जुगति जुग भरत के कथना । मुदित नाथ बोले अस बचना ॥ 
तुम्हरे साँच मत रे भाई । धरम सार तस धरनि रखाई ॥ 
भरत के ऐसे युक्तियुक्त वचनों को सुनकर, रघुनाथ प्रसन्न चित होते हुवे इस प्रकार बोले : -- हे! भ्राता भरत तुम्हारा यह परामर्श सत्य, उत्तम,धर्मानुसार एवं धरती की रक्षा करने वाला है || 

तव बर भासन में सिरौधारुँ । जेहि जज्ञ कामन परिहर कारुँ ॥ 
तत पर लखमन कही रघुनन्दन । अस्व मेध जज्ञहू भै अघधन ॥ 
तुम्हारे इस श्रेष्ठ व्याख्यान को मैं अंगीकार करता हूँ । तत पश्चात लक्ष्मण  ने कहा हे! रघुनन्दन अश्व मेध यज्ञ भी है जो पापों का नाशक है ।। 

जो प्रभु मन जज्ञ कामन धारे । अस्व मेध करि कर्म सुधारें ॥
तेहि बिषय पर भै एक गाथा । ब्रम्ह हनन दूषन धरि माथा ।। 
यदि प्रभु के चित्त ने यज्ञ कार्य के आयोजन की अभिलाषा की है तो अश्व मेध यज्ञ भी कर्म सुधारने में समर्थ है। इस विषय पर एक कथा भी प्रचलित है कि ब्रम्ह हत्या का दोष लगने पर:-- 

निरदूषन हुँत देउ कुल राए ।  महस्व मेध मख काज कराए  ।।
जो जग जन जे मह जग्य भृता  । भए ब्रम्ह हत ते पवित चरिता ।।  
इंद्र ने दोष निवारण हेतु महा अश्व मेध यज्ञ का अनुष्ठान किया था । संसार का जो कोई व्यक्ति यदि इस महा यज्ञ का कर्त्ता होता है, उसका चरित्र ब्रम्ह ह्त्या के दोष से पवित्र हो जाता है ।। 

 किए भ्रात भरत यजजोग  समलङ्कृताख्यान ।   
यत चित मनस सरूप प्रभु, श्रवनत देइ धिआन ।। 
भ्राता भरत ने यज्ञ से सबंधी बहुंत ही सुन्दर आख्यान किया । जिसे स्थिर चित्त स्वरूप में  प्रभु ने ध्यान पूर्वक सुना ॥ 


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श्री रामचंद्र नगर अजोधा । लै सद सम्मति परम पुरौधा ॥
जग्यात्मन जिन्हनि पुकारे  । जाग करमन संकलप कारे  ॥
तब श्री राम चन्द्र जी ने अयोध्या नगरी के परम पुरोधाओं की सत सम्मति प्राप्त की ॥ जिन्हें यज्ञात्मन कहा जाता है उन्होंने ने ही इस महा यज्ञ के अनुष्ठान का संकल्प किया ॥  

जोड़ बिनु जग्य होए न भाई। एहुँत मृदा के सिय रच साईँ ॥ 
किए गठ जुग मख बेदी बैठे । बिमौट सह लव कुस तँह पैठे ॥ 

भाँवरन रत  पुर पुरौकाई । श्री रामायन कथा  सुनाईं ॥ 
मधुर गान रहि अस रस बोरे। पागत श्रवन पुरौकस घोरे॥    

आगिन आगिन सुत रघुराई । पाछिन नागर जन चलि आई ॥ 
मोद मुदित मुख निगदित जाते । जो तिन्ह जनि धन्य सो माते ॥ 

जन मुख कीर्ति कीरतन, श्रुत दोनौ निज मात । 
भए भावस्थ ग्रहत प्रवन, वंदन चरन अगाध ॥    

गुरूवार, २ ७ जून, २ ० १ ३                                                                                        

बिधि पूरनित पूजन बिधाने । सकल द्विज पति बहु सनमाने ॥ 
बिप्रबधु सुआसिनि जे बुलाईं । चारु भेस भूषन दाईं ॥ 

आन रहहि जे पहुन दुआरे । भली भाँति सादर सत्कारे ॥ 
समदि सकल बिधि सबहि उयंगे । ह्रदय भीत भरि मोद तरंगे ॥ 

प्राग समउ मह देसिक धारे। रहहि न अबाधित अंतर कारे ॥ 
भरत खन हुंते कनक स्वेदे । भेद अभेद भेदीहि भेदे ॥ 

सस्य स्यामलि सुमनस सूमिहि । एक छत्र करतन भारत भूमिहि ॥ 
सकल राज लघु रेखन बंधे । चिन्ह तंत्र प्रद पाल प्रबंधे ॥ 

तेहिं कर जज्ञ के कल्प धारे । भारत भूमि एव एकीकारे ॥ 
एक कौ अश्व मेध जज्ञ कहही । दूजन राज सूय यज्ञ रहहीं ॥ 

प्रतिक सरुप एक हय तजें,  भारत के भू बाट । 
जे राउ तेहिं कर धरहि, जोधहीं सन सम्राट ॥ 

एहि भाँति एक हय त्याज, जग कारिन जज्ञ कारि  । 
अगहुँड़ हय पिछउ वाकी,  धारिहि धर किरन धारि ॥   


कथा अहई पुरातन काला । रहहि भूमि पर एक भू पाला ॥ 
असुर बंसी वृतासुर नामा । राजत रहि कर धरमन कामा ॥ 
यह कथा प्राचीन समय की है,पृथ्वी पर राजा रहते थे ॥ असुर वंश के उस राजा का नाम वृत्रासुर था ।  और वह धार्मिक कार्य करते हुवे राज करता था ॥ 
  
एक बार सोइ निज तनुभव बर । नाम रहहि जाके मधुरेस्वर ॥ 
राज भार वाके कर देई ।  तपस चरन आपन बन गेई ॥ 
एक बार उअसने अपने ज्येष्ठ पुत्र, जिसका नाम मधुरेश्वर था उसके हाथों में समस्त राज्य का भार सौप कर स्वयं तपस्या करने वन चला गया ॥ 

तप बन ऐसन कारि कठोरे । सुरत्राता के आसन डोरे ॥ 
गवने सुर पति जगत प्रभु पाहि । कहे नाथ हे! त्राहि मम त्राहि ॥ 
वन में उसने ऐसा कठोर ताप किया कि देवराज इंद्रा का भी आसन डोल गया ॥ तब सुरपति देवराज इंद्र जगन्नाथ के पास गए और कहे हे नाथ ! मेरी रक्षा करो ॥ 

हे जग वंदन जीवन मोहन । बिस्व बाह हे जगत परायन ॥ 
चेतस सागर सेष सयन कर । कमलेस्वर हे चक्र पानि धर ॥ 
हे सर्वत्र जनों के पूज्यनीय, जगत के जीवन रूप परमेश्वर, संसार को मोहने वाले एवं उसे धारण करने वाले हे विष्णु सागर के जैसे शांत अवं धीर गंभीर मन वाले, शेष शय्या में शयन करने वाले हे कमला के स्वामी हे चक्र पाणि धर ॥ 

हे  सहसइ  लोचन,  मौलि  मूर्धन,  चित्त  चरन   बाहु  नाम । 
हे  सहसै  करनन, बदन  सीर्सन, धरा   धार   सयन श्राम ॥  
श्री रंग रवन कर, श्रीस श्रिया वर सुमन निकेतन निवास ॥ 
हरि कथा कीर्तत, बाहन   वंदत, प्रिया   भगत  देव   दास ॥ 
हे सहस्त्र आँखों वाले, सहस्त्र मस्तक वाले विष्णु हे सहस्त्र चरण बाहु एवं नाम वाले विष्णु । हे सहस्त्र कानों वाले सहस्त्र मुख एवं शीर्ष धारी एवं शेष रूपी मंडप पर विराजने वाले विष्णु ॥ हे  कल्याण कारक  स्वामी  वैभव लक्ष्मी के ईश्वर श्वेत कमल ही जिसका वैकुंठ और निवास स्थान है ऐसे भगवान की यह हरिप्रिया का भक्त एवं हरि का सेवक देवराज इंद्र हरी की कथा एवं उसके द्वारा लिए गए अवतारों का गुणगान करता है ॥ 

जगतिजग जगन्मई वर , जगत जोत जगदीस । 
कहत सुरवर सों हरिहर, नमन करत निज सीस ॥  
हे संसार भर की मानव जाति एवं श्री के स्वामी जगत ज्योत स्वरूप एवं उसके ईश्वर ऐसे हरिहर के सन्मुख यह सुरनाथ इंद्र नतमस्तक होकर आपसे निवेदन करता है कि : -- 

वृत्रासुर नामक दानउ होइ । ताप चरन जे बहु बल सँजोइ ॥ 
सके न मम कर ता पर सासन । भयउ परत ते नियत नियंतन ॥ 
वृत्रासुर नामक एक दानव है जिसने तपस्या करके बहुंत बल संचयित कर लिया है ॥ अब मेरे हाथ उस पर शासन नहीं कर सकते क्योंकि वह मेरे नियम नियंत्रण से अन्यथा हो गया है ॥ 

जो तप फल अरु बल कर लाहीं । सकल देव भै अधीन ताहीं ॥ 
करौ कृपा प्रभु त्रिभुवन लोका । राखौ राख तासु बल सोका ॥ 
यदि तप के फलस्वरूप उसे और अधिक बल प्राप्त हो जाएगा, तो पृथ्वी के समस्त देवता उसके आधीन हो जाएंगे ॥ 

को बिधि कर ताके बल बारौ । तेहि काल कर दण्डित कारौ ॥ 
देउ राज के बिनति श्रवन कर। बोले अस सहस मुर्धन धर ॥    
कोई भी विधि कारित करके हे प्रभु ! उसके बल को जलाइये और मृत्यु कारित कर उसे दण्डित कीजिए ॥ देवराज इंद्र की ऐसी प्रार्थना सुनकर सहस्त्र मस्तक धारण करने वाले भगवान श्री विष्णु ने ऐसे बोले : --

हे सुर प्रिय बर ध्वजा धनु धर । अनंत लोचन हे हरि गन वर ॥ 
देउ पुरी के पति पद लाहा । हरिहर बल्लभ सुर दल नाहा ॥ 

जे तौ तुमकौ ज्ञात है, हे देओं के राज । 
मम तईं प्रिय भयौ नहीं, मोरे हत के भाज ॥

शुक्रवार, १ २ जुलाई, २ ० १ ३                                                                                        

वृत्रासुर दैत मम अति नेहू । तुमहि कहु तिन कस दंड देहूँ ॥ 
पन तव बिनयन्हु सिरौधारूँ । वंदन अर्चन अंगीकारूँ ॥ 
वृत्रासुर दैत्य मुखे अत्यधिक पिय है अब तुम ही कहो मैं उसे कैसे दण्डित करूँ ॥ किन्तु मैं तुम्हारी वंदना, अर्चना और प्रार्थना भी स्वीकार एवं अंगीकार करता हूँ ॥ 

सो मैं आपन तेजस लिन्हू । एहि भाँति तिन्ह भाजन किन्हूँ ॥ 
मम तिख तेजस भयउ त्रिखंडा। जेहिं तुम निज तेहि करि हत खंडा  ॥ 
एतदर्थ मैं अपने तेजस को लेकर उसे  इस प्रकार से विभाजित कर दूँगा कि जिससे तुम स्वयं उसका वध करके उसे भग्न करने योग्य हो जाओगे ॥ 

एक तुहरे अंतस पैसेई । दुज अंस त्रिदस आजुध देईं ॥ 
तिजन अंस वर धरनि करही । कारन कि जब वृत्रासुर मरही ॥ 
उस त्रेधा तेज का एक भाग तुम्हारे अंतस में प्रवेश करेगा और दुसरा भाग तुम्हारे वज्र को प्राप्त होगा ॥ तीसरा भाग का वरन  धरती करेगी इस कारण कि जब वृत्रासुर की मृत्यु होगी : -  

होहि देही धरा तल साई । भार सहन तब भयउ सहाई ॥ 
भूयस बहुसहि ले हरि नामा । सीस नमत अरु करत प्रनामा ॥ 
और उसकी देह धरासाई होगी तो उसका भार सहन करने के लिए यह तेज सहायक होगा ॥ पुन: हरी का बहुंत ही नाम लेते हुवे शीश नमन और प्रणाम करते : -- 

बरनत मुख कीरति कथन लह प्रभु के वरदान । 
सुर सकल सह सुर राजन, तँह ते किये पयान ॥  
अपने श्री मुख से हरि की कीर्ति कथा का वर्णन करते हुवे उनके वरदान को ग्रहण कर समस्त डिवॉन के साथ देवराज इंद्र ने वहां से प्रस्थान किये ॥  


सोमवार, १ ५ जुलाई, २ ० १ ३                                                                                         

तउ इन्द्र तँह तपोबन गवने । वृत्रा रहहि जँह तापस चरने ॥ 
पावत अवसर सुरवर नाहा । गहनत बर विदयुत बल लाहा ॥ 
तब देवराज इंद्र  उस तपोवन में गए जिस में वृत्रासुर तपस्या कर रहा था ॥ अवसर पाते ही डिवॉन के श्रष्ट राजा ने उस अति बलशाली वज्र को धारण कर : - 

होवत सोंहत ले कर सारे ।  वृत्रासुर मूर्धन दै मारे ॥ 
ता अधात पर असुर महीसा । बिलग अधो पत भै हत सीसा ॥ 
वृत्रासुर के सम्मुख होकर वज्र युक्त हाथ को उठाया और उसके सिर पर दे मारा  । उस आघात के पश्चात असुरों के राजा वृत्र का भग्न किया हुवा मस्तक अलग होकर नीचे गिर गया ॥ 

हत पर सुर पति मति  निज कोसे । अहो अहेतु हत एकु निर्दोसे ॥  
पर्बतारि अस ह्रदय बिचारी । मम कर कृत भए  अघ बहु भारी ॥ 
ह्त्या करने के पश्चात सुरपति इंद्रा ने अपनी बुद्धि को कोसा । आह! बिना किसी कारान वश एक निर्दोष का वध हो गया ॥ नगारी, देवराज इंद्र के ह्रदय में ऐसा विचार उत्पन्न हुवा कि मेरे मेरे हाथ से बहुंत भारी पाप हो गया ॥ 

ते ग्लानि बस लै उछ्बासे । तपत तमस वत वास निवासे ॥     
बज्री धार बर जयंत जाहा । वृत्रासुर नासक सची नाहा ॥ 
इस ग्लानी वश देवराज गहरी सांस लेते हुवे और स्वयं को कष्ट देते हुवे अन्धकार युक्त स्थान में निवास करने चले गए । बज्र धारण करने वाले जयंत के जनक वृत्रासुर का नाश करने वाले शचीपति : -- 

सह्साखि अनंत दृग जब, भयउ अंतर ध्यान । 
गवने सब सुर सरन तब, भग नंदन भगवान ॥ 
सहस्त्र नयनी अनंत लोचन जब अंतर्ध्यान हो गए तो समस्त देव तब विष्णु भगवान के शरण में गए ॥ 

मंगलवार, १७ जुलाई, २ ० १ ३                                                                                            

भगवन सों अस कहत बहोरे । पद परत करि बिनति कर जोरे ॥ 
जदपि वृत्र हति बजरी तड़ाका । तदपि  तिन तव तेज हत भाखा ॥ 
भगवान् विष्णु के सम्मुख ऐसा कहते हुवे फिर चरणस्पर्श करते हुवे हाथ जोड़ कर यह विनती  की । प्रभु ! यद्यपि वृत्रासुर की ह्त्या वज्र के प्रहार से हुई है, उस हत्या का भागी आपका तेज है ॥ 

तेहि हनन हत ब्रम्ह प्रकारे। पाप किए को दण्ड को धारे ॥ 
एहि  हुँते वृत्र करन उद्धारे । जुगत प्रभो को जुगति उचारें ॥     
उसकी हत्या ब्रम्ह की हत्या के समरूप है । पाप किया किसने और दण्ड का भागी कोई और हुवा अर्थात पाप आपके तेज ने किया और दंड वृत्र को प्राप्त हुवा । एतदर्थ हे प्रभु! युक्ति करके प्रभु! वृत्र के उद्धार का कोई उपाय बताएं ।। 

सागर चेतस बानी रस घोले । श्रवन बचन अस भगवन बोले ॥ 
जे सुरपति जज्ञ कृति धर साधें । अस्व मेध के सरन अराधें ॥ 
ऐसे वचन श्रवण कर सागर के समान धीर गंभीर एवं ओजमयी वाणी से युक्त होकर भगवान विष्णु बोले : -- हे! देवगण यदि देवराज इन्द्र यज्ञ कार्य कर यज्ञ-धारण कर्त्ता पुरुष अर्थात मुझ विष्णु की अश्व मेध नामक यज्ञ के मंडप में आराधना करें : -- 

फल भूत ते अनघ भै सोई । पद धारत देवेंदु होई ॥ 
एवमेव देव राउ उधापे । भए हति मुक्ति ते जज्ञ प्रतापे ॥ 
तो उस यज्ञ से  फलीभूत वह अर्थात वृत्र निष्पाप हो जाएगा और देवेन्द्र पद को प्राप्त करेगा ॥ इस प्रकार विधि पूर्वक यज्ञ कार्य पूर्ण होने पर देव राज इंद्र उस यज्ञ के प्रताप से ब्रम्ह हत्या से मुक्त हो जाएगा ॥ 

एही बिधि वदन कथन कथा, लखमन अनुग्रह कारि । 
ते यज्ञ कृति प्रभु सो कहत, होहि भल होनिहारि ॥
इस प्रकार अपने मुख से कथा वाचन करते हुवे लक्षमण ने अनुग्रह करते हुवे भगवान श्री राम चन्द्र के सम्मुख कहा कि इस यज्ञ के कारित करने से सब कुछ अच्छा ही होगा ॥
पैह अनुग्रह प्रभु भए अनंदे । तइ  एहि वादन निज मुख वंदे ।। 
सोम सील हे परम ग्यानी । कहुँ एक अरु तेइ जुतक कहानी ॥ 
लक्ष्मण का अश्व मेध हेतु आग्रह प्राप्त कर प्रभु श्री राम चन्द्र अत्यधिक प्रसन्न हुवे । तब अपने मुख से ऐसे श्री वचन कहे । हे सौम्य ! हे शीलवान परम ज्ञानी लक्षमण, अश्वमेध यज्ञ से सम्बंधित में एक और कथा कहता हूँ । 

सर्ब बिदित एक बाभिक देसू । तहँ राजित रही इल नरेसू॥ 
रहहि अतुल ते भुजबल धामा। प्रजापत करदन तात नामा ॥ 
समस्त स्थानों में विख्यात एक वाह्विक नामक देश था । जहां इल नामक राजा राज्य करता था । । वह अतुलित बाहु बल का स्वामी और के पिता का नाम प्रजापत कर्दन था ॥ 

चढ़े बाजि बार बखत एक राजे । मृगया जान सब सँजुग साजे॥ 
 दलबल  संजुत  घन बन गयऊ ।  अतिद्रुत ते बहु अगउत भयऊ ॥ 
( चढ़े बाजि बार बखत एक राजा । मृगया कर सब साज समाजा ॥ राम चरित मानस के बाल काण्ड की दो.क्र.१५५ चौ. क्र. २ से उद्धृत की गई हैं ) एक बार वह राजा एक उत्तम अश्व पर आरोहित होकर  वाहन में समस्त साधन संजो कर सदलबल आखेट के लिए गया ॥ अत्यधिक द्रुत गति होने के कारण वह राजा बहुंत दूर हो गया । 

केलि रत  पसरत तहँ पैसाए । सिव सुत कारतिक जहँ जन्माए ॥  
जहँ प्रभु संकर सह सेवा जन। करत रहहि गिरिजा मन रंजन ॥ 
आखेट क्रीडा में अनुरक्त हो वह आगे बढ़ाते हुवे वह वहां पहुँच गया जहां शिव के पुत्र कार्तिक ने जन्म लिया था ॥ जहां प्रभु अपने सेवकों के साथ माता गिरिजा को विहार करवाते थे ॥ 

तहँ अस माया संकर कारी । सकल जीउ भए वर्निक नारी ॥ 
का जंतुहु का मानाख पाखीं । तहँ नर धारिहि कोउ न लाखीं ॥ 
उस स्थान पर भगवान शंकर ने ऐसी मोह विद्या कारित कर दी थी कि समस्त जीव नारी स्वरूप के हो गए थे ॥ क्या तो जंतु क्या पक्षी और क्या मानव वहां कोई भी नर रूप में दर्शित नहीं होता था ॥ 

सकल सैन सह स्व इल राई । त्रिगुनी बस तिय रूप धराईं । 
तिया सरुप जब इल परिनीते। ते दिरिस दरस भै भयभीते ॥ 
समस्त दल के साथ स्वयं राजा इल ने भी वहां उस मोह विद्या के प्रभाव से स्त्री का रूप  धारण कर लिया था ॥ जब इल स्त्री के स्वरूप में परिवर्तित हो गया तो उस दृश्य को देखकर वह भयभीत हो गया ॥ 

भय जुग इलराउ गवने सरन सिव महादेउ।
किए बिनति वंदन तिनते, निज पौरुख दानेउ ॥ 
भययुक्त राजा इल देवों के देव भगवान शिव के शरण में गया और वंदना करते हुवे अपना पौरुष लौटाने हेतु  उनसे प्रार्थना करने लगा ॥ 

सोमवार, २२ जुलाई, २ ० १ ३                                                                                              

किए अनसुन प्रभु वंदन ताही  तब इल के जी अति अकुलाही ॥ 
पुनि इल हहरत धावत गवनै  / भव बामा के चरनन सरनै॥ 
किन्तु महादेव ने उसकी प्रार्थना अनसुनी कर दी तब इल का मन बहुंत ही व्याकुल हो गया //  फिर इल भयभीत होते हुवे दौड़ता हुवा सा माता पार्वती के चरणों की शरण में गया //

दीन भाव बहु याचन कारे / कहत देइ रुप बहुरि हमारे॥ 
श्रुत इल बिनय करुना कंदनी / भइ मुद मुदित बहु गिरि नंदनी ॥ 
और लगभग गिड़गिड़ाता हुवा  बहुंत याचना करते हुवे कहने लगा हे देवी ! मेरे स्वरूप को लौटाने की कृपा करें, जब करुना की मूलिका माता पार्वती ने इल का विनय वन्दना सुनकर पर्वत पुत्री अत्यंत ही प्रसन्न हुई //

पदमिन रद छादन मुसुकाने | हर के पद निज पदक बखाने || 
बिमल धुनी गहि कोमलि बानी / प्रेम रस लहि अस कहि भवानी ॥ 
उनके नीरज के सदृश्य कोमल अधर मुस्कराते हुवे हर के चरणों में अपना स्थान का वर्णन करने लगे //  उन्होंने अमल शब्दों में कोमल वाणी को ग्रहण करते हुवे प्रेम रस में अनुरक्त होते ऐसा कथन  किया : -- 

मैं सरि सम सिव सिन्धु अपारा / मैं सील खंड भए नाथ पहारा ॥ 
मैं बिंदु हर अनंत अकारा / कँह कुम्भज कँह सुर सरि धारा ॥ 
मैं तो नदी के समतुल्य हूँ और पार किया जा सकता है, किन्तु शिव तो सागर के सदृश्य अपरंपार हैं / में तो पाषण का एक खंड मात्र हूँ और नाथ स्वमेव पहाड़ के सदृश्य है // में तो एक लघु बिंदु हूँ और हर अनंत आकारी हैं, कहाँ तो कुंभ और कहाँ गंगा को धारण करने वाले गंगधर अर्थात मेरा और शिव का क्या मेल //

प्रिय अंबुज मैं कर अवलंबा / प्रियबर अम्बर मैं तर अंबा ॥ 
सिस भूषन संकर ससि सेखर / मैं तेहि धूरि बर चरनन कर॥  
प्रिय यदी नलिन हैं तो में उनको सहारने वाली नलिनी हूँ / प्रियवर अम्बर के शिखर हैं और में अधर की धरा हूँ // शिव शिरोभूषण स्वरूप श्रेष्ठ पुरुष हैं जिनके मस्तक पर चंद्रमा विद्यमान है और मैं उनके चरणों में वरन की हुई  किरणों की धूलि मात्र हूँ //

बहुरइ भइ तासु अध् अंगिनी /जोग नहि पर तिन्ह की संगिनी॥ 
एहि बिधि में अध् अंग अहेहूँ / मैं तव अर्धन  बिनय गहेहूँ॥    
फिर भी में उनकी अर्द्धांगिनी हो गई और उनके योग्य न होने पर भी उनकी संगिनी कहलाई // इस प्रकार में उनकी केवल अर्ध अंगिनी होने के कारण वश तुम्हारी प्रार्थना के आधे अंश को ही स्वीकार करूंगी //

एवम अहम अर्धन सरुप, तुम्ह पौरुख बियोग /
पुरुषाइत तव बहुरने, अहहूँ  अर्धक जोग //
इस प्रकार में अर्ध स्वरूप हूँ, और तुम पुरुषत्वहीन हो, मैं तुम्हारी  पौरुषता को लौटाने की आधी ही योग्यता धारण करती हूँ //

शुक्रवार, २ ६ जुलाई, २ ० १ ३                                                                                           

बादन माधुर बर बदन प्रभा / कहत बहुरि सिव संभु बल्लभा //
बोलौ इल अब तुम  का चहहू / बय के को पख पौरूख लहहू //
मुख में कांति और वचनों में माधुर्यता को वरण किए फिर शिव शम्भू की प्रियतमा ने कहा : -- बोली इल अब तुम क्या  आकांक्षा है ? अपनी आयु के किस पक्ष में पुरुषत्व प्राप्त करना चाहते हो //

गहनहु उत्तर पखमन माही / अथवा बरनहु पूरब ताही //
इल मन एक छन सोच बिचारे / तत पर बदन ए वचन उचारे //

यह पुरुषत्व आयु के उत्तर पक्ष में ग्रहण करना चाहते हो अथवा पूर्व पक्ष में // तब राजा इलका मस्तिष्क एक क्षण हेतु सोच विचार में लग गया उसके पश्चात उअसके श्री मुख से ये वचन उच्चारित हुवे : -- 

हे देई अस कारज  कारें / तुहरे कर कल्यान हमारे //
एक मास पौरूख रुप अकारें/ दूजन मो कर तिया सँवारे //
हे देवी! आपके ही हाथों में मेरा कल्याण है इस हेतु ऐसा कार्य करें कि मैं एक मास केलिए पुरुष के स्वरूप गढ़ दीजिए और दुसरे मास में मुझे नारी के स्वरूप में संवारिये //

गिरिजा इल मुख बचनन  राखे / करत पूर्नित मन अभिलाखे //
तेहि के संकट केर निदाने / तथास्तु कहत दिए बरदाने //
फिर इल के मुख की बात रखते हुवे और उसकी मनोकामना को पूर्ण करते हुवे गिरिजा ने उसके संकट का निदान किया और तथास्तु कहकर इल को उसका मनोवांछित वरदान दिया //

एहि बिधि इल त्रिय रूपी कहि, संकट लहत निदान /
भयउँ धन्य के भागि मैं, पात  देइ बरदान //
 इस प्रकार अपने संकट का समाधान प्राप्त कर स्त्री रूपी इल ने कहाहे देवी! मैं आपके वरदान को प्राप्त कर अनुग्रहित हुवा // 

पुनि इल फलतस ते बरदाने / इल सह इला नाम संधाने //
प्रथम मास मह धर रूप नारी / त्रिभुवन कोमलि कमन कुँवारी //
फिर  इस वरदान के फलस्वरूप इल, इल के साथ इला नाम भी हो गया  और प्रथम मास में उसने त्र्बुवन सुन्दरी कोमल कुवाँरी नारी का रूप धर लिया //

तत परतस निकसत ते बासे / असने एक बर सरुबर पासे //
तहँ सोम तनु भव बुध रहेऊ / तपस चरन तपोबन रहेऊ //
इसके पश्चात उस मायावी क्षेत्र से निकलकर वह एक सुन्दर सरोवर के निकट पहुंचा /वहां सोम का पुत्र, बुध रहता था जो  तपोवन में तपस्या कर रहा था //

बहुरि दिवस एक नारिहि भेसे / बिहरत रहि इल बिहरन देसे //
तबहि तासु धौला गिरि गाते / तापस बुध के दीठ निपाते //
फिर एक दिन नारी वेश वरण किये इल प्रमोद वन में विचर रहा था कि तभी उसके हिमालय के जैसे गोर तन पर तपस्वी बुध की दृष्टि पड़ी //

इल ऊपर बुध मन अनुरागे / अरु तासु संग रमनन लागे //
रहहि इला के सह जे सैने / रुप अंतर के बिबरन बैने //
इल  के ऊपर बुध का मन अनुरक्त हो गया और वह उसके साथ रमण करने लगा // इला के साथ जो सैनिक थे,उन्होंने बुध को नारी रूपांतरण का सारा विवरण कह सुनाया  //

सकल घटना क्रम बुध बुधाने / तिन्ह  किंपुरुख कह सनमाने //
कूलक परबत तलहट देसे / तेहिहि  बसनन  दै निर्देसे //
समस्त घटना कर्म ज्ञात होने पर बुध ने उन्हें किंपुरुष कह कर सम्मानित किया और उन्हें पर्वत के तलहटी क्षेत्र में वास करने का निर्देश दिया //

बहोरि बुध बिनयत इला, करि याचन कर जोर /
सहमत पावन भए सफल, एक बरस हुँते होर // 

फिर बुध ने इला से हाथ जोड़ कर विनम्रता पूर्वक याचना की और  इला  को एक वर्ष हेतु रोकने की सहमती प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की ॥ 

शनिवार, १ ० अगस्त, २ ० १ ३                                                                                                      

एक चैल लगे इल रहि नारी । ते पर तेइ पुरुख रूप धारी ॥ 
पुनि अगहुँड़ नउ चैल अवाई । पुरुख इल नारि रूप लहाई ॥ 
एक महीने तक इल नारी स्वरूप रहा । उसके पश्चात उसने पुरुष रूप धर लिया ॥ पुन: जब अगला महीना आया तो पुरुष इल ने नारी सवरुप को प्राप्त हो गया ॥ 

एहि भाँतिहि जुग फेर बँधाई । तहाँ बसत नउ मास सिराई ॥ 
अस कारत एल गर्भ धराई । अरु एक सुत पुरुरवा जनाई ॥ 
एस प्रकार से यही क्रम चलता रहा । उस स्थान पर एल को निवास करते नौ महीने बिताए । ऐसा करते हुवे इल नारी स्वरूप में गर्भ वती हुई और एक पुत्र पुरुवरा को जन्म दिया ॥ 

बिहाए ऐसन  रुपोपजीवन । बुध इल के मुकुती करनन ॥ 
संत साधु सन केर बिचारे । कारे जग जे संभु पियारे ॥ 
ऐसा रूप की उपजीविका का अंत करने को एवं इल को ऐसी रूपांतरण बंधन से मुक्ति दिलवाने हेतु, बुध ने सुबुद्धि एवं सुधी जनों से मंत्रणा कर वह कार्य किया जो भगवान शंकर को प्रिय था ॥

अस्व मेध कर संकर वंदे । पाए बिनय प्रभु भयउ अनंदे ॥ 
इल  नाह के संकट बिहाने । थाइ सरुप तिन पौरूख दाने ॥ 
अश्व मेध का यज्ञ करते हुवे भगवान शिव की वंदना की । ऐसी प्रार्थना प्राप्त कर प्रभु, हर्षित हो गए और उन्होंने एल के संकट का अंत करते हुवे इल को  स्थायी स्वरूप में पौरुषत्व का वरदान दिया ॥ 

 तँह सियापत राम चंदु, बाँचे ऐसन बाद। 
यथार्थतस  अस्व मेध, प्रभाउ अमित अगाध ॥ 
तब सिया पति श्री राम चन्द्र ऐसे श्री  वचन बोले कि  अश्व मेध यज्ञ का प्रभाव,यथार्थ स्वरूप में अत्यधिक गहरा है ॥ 

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