Saturday 1 August 2015

----- ॥ उत्तर-काण्ड ३८ ॥ -----

शनिवार, ०१ अगस्त २०१५                                                                                              

धार बारि  कस दस दस मारा । भयउ बीर कपि  बिकल अपारा ॥ 
करत  घनाकर रन घमसाना । बाहि बिहुर रघुपति पहिं आना ॥ 
धारावारि रूप में प्रत्यंचा कर्षित कर दस दस वाणों के समूह से प्रहार करने लगा  ।।   वीर वानर योद्धा अत्यंत व्याकुल हो उठे । इस प्रकार वाणों की वर्षा ऋतु कर घनघोर युद्ध करते हुवे रथहीन मेघनाद रघुपति के समीप आया ।। 

 रचै माया मूढ़ खिसियावा । खतिलक जिमि खद्योत डिठावा ॥ 
गहे पास कर नचै नराची । संग पिसाच पिसाचनि  नाचीं ॥ 
 और कुढ़ता हुवा वह मूर्ख ऐसे माया करने लगा जैसे कोई  सूर्य को खद्योत का खेल दिखा रहा हो रहा हो ॥ उसकी माया से काल पाश लिए सायक नृत्य करने लगे, पिशाच पिशाचनी प्रकट होकर उसकी ताल में ताल मिलाने लगे  ॥ 

करत अघात सेष चढ़ि आना । अपने जी संकट अनुमाना ॥ 
बीर घातिनी सरसर भागी । तेज पूरित सकति  उर लागी  ॥ 
( रघुपति से आज्ञा माँग कर ) प्रहार करते हुवे भ्राता लक्ष्मण मेघनाद पर भारी पढ़ गए । वह भयभीत हो गया और अपने जीवन पर मृत्यु का संकट अनुमान कर वीर घातिनी शक्ति चलाई ।  तेज से  परिपूर्ण होकर  वह भागी और   ह्रदय को बल पूर्वक बेध गई ॥ 

घुर्मत लखन मुख मुरुछा छाई । तासँग निकसिहि रे मम भाई ।  
आनत लेंन  गयउ हनुमंता । ल्याए बैद सुषेन तुरंता ॥ 
घूर्णन करते लक्ष्मण  मूर्छा व्याप्त हो गई उसी साथ मुख से निका हे मेरे भाई ! हनुमान जी उसे युद्ध भूमि से ले आए और तत्काल ही प्रस्थान कर सुषेण वैद्य को ले आए | 

हृदयावरन द्रव द्रव किए गह भुजबंधन गात । 
कहएँ  रघुबर सिरु कर लिए भ्रात भ्रात हे भ्रात ॥ 
ह्रदय के आवरण को द्रवीभूत की हुई देह को भुजाओं के बंधन में व् शीश को हाथों में लिए रघुवीर भ्रात-भ्रात की पुकार करने लगे | 

रविवार, ०२ अगस्त, २०१५                                                                         

गहि गिरि औषधि नाउ सुझायो । प्रभंजन सुत  ल्यावन धायो ॥ 
दसमुख सकल मरमु जब जाना । लगा रचिसि मग माया नाना ॥ 
वैद्यराज ने पर्वत द्वारा धारण की हुई औषधि का नाम सुझाया वायु पुत्र हनुमान उसे लेने हेतु चल पड़े | दशमुख को जब इस मार्मिक घटना का संज्ञान हुवा तब  वह हनुमंत के मार्ग अनेक प्रकार की माया रचने लगा | 

काल नेमि सिर धुनि समुझाइहि  ।  हार गयौ छल छंद रचाइहि ॥ 
तिसत कंठ कपि मागिहि मग जल । भेष मुनि भर दीन्ह कमंडल ॥ 
कालनेमि उसका प्रबोधन करते करते हार मानकर खेद प्रकट करने लगा और रावण के कहने पर उसने कपट रचना की | तृष्णावंत हनुमंत मार्ग में जल माँगा तब कालनेमि ने मुनि का वेश धारण कर उन्हें कमण्डल दिया | 

झपट लंगुरि कपट जब जाना । लपट पछारि छाँड़ेसि प्राना ॥ 
गिरि  औषधि जब चिन्ह न पावा । उपार धरि कर निसि नभ धावा ॥ 
 हनुमंत को उसके कपट का भान हुवा तबौ से झपट कर पूँछ लपेट लिया और भूमि पर दे मारा तब उसने प्राण त्याग दिए | पर्वत पर जब औषधि ज्ञात नहीं हुई तब पर्वत को ही उखाड़कर हाथ में लिए रात्रि के समय वह नभ मार्ग से दौड़ चले | 

निरखि भरत निसिचर अनुमाना । गहै उर राम भगत जब जाना ॥ 

सकल चरित कपि कहत समासा । बंदि भरत पद चलिअ अगासा ॥ 
वह भरत दृष्टिगत हुवे तो निशिचर का अनुमान किया, किन्तु जब रामभक्त हनुमान के रूप में परिचय प्राप्त हुवे तब उन्हें ह्रदय से लगा लिया | कपि ने संक्षेप में सम्पूर्ण चरित्र का व्याख्यान कर हनुमंत ने भरत के चरणों की वंदना की और पुनश्च आकाश में चल पड़े |  

उत जोहत बिथकित नयन भई अधमई राति । 
प्रभु कहैं बहु करुन कथन , लखन जुड़ावत छाँति ॥ 
उधर उनकी प्रतीक्षा करते हुवे नेत्र शैथिल्य हो गए थे अर्द्ध रात्रि का समय हो चला था | लक्ष्मण को वक्ष-स्थल से संयोजित किए प्रभु करूमामय कथन कर रहे थे | 

सोमवार, ०३ अगस्त, २०१५                                                                    

किन्ही बैद तुरत उपचारा । बैठि लखन उठि जीउ सँभारा ॥ 
समाचार दसमुखजब पावा ।कुम्भकरन करि जतन जगावा ॥ 
वैद्यराज आए उन्होंने तत्काल उपचार किया मरणासन्न लक्ष्मण जीवंत होकर उठ बैठे | देशमुख को जब यह सन्देश प्राप्त हुवा तब वह कुम्भकरण को जागृत करने की युक्ति करने लगा | 

जगत कहा सुनि कथा कुचरिता । जगदम्बा हरि न तुहरे हिता ॥ 
मदना पान करि खाए महिसा । चला गरज घन ज्वाल सरिसा ॥
जागृत होते ही रावण के कुचरित्र की कथा श्रवण कर वह बोला जगदम्बा का हरण तुम्हारे लिए हितकर नहीं है | उसने मदिरापान कर उसने महिष के मांस का भक्षण किया तदनन्तर वह गरजते हुवे मेघ ज्वाल  की भाँती चल पड़ा | 

जुझन विभीषन सम्मुख आयो । धन्यमान कह बंधु फिरायो ॥ 
भिरिहि बानर त भयउ बिकलतर । सूझ न नयन गयउ छन छितर ॥ 
उससे भिड़ंत हेतु विभीषण सम्मुख आया किन्तु साधुवाद देते हुवे उसने बंधू को लौटा दिया  |  जब वानरों से  उसकी मुठभेड़ हुई तो वह व्याकुल हो उठे उन्हें आत्मरक्षा की कोई युक्ति नहीं सूझी और क्षण में ही छिन्न-भिन्न हो गए | 

भिड़े मरुत सुत मुठिका मारे । मारेउ तेहिं महि महुँ डारे ॥ 
नल नीलहि पुनि अवनि पछारा । चिक्कर बिकट पटकि भट मारा ॥ 
मारुती तनुज ने पालि संभाली और उसपर मुष्टिका का प्रहार किया |  उसने प्रति प्रहार कर हनुमंत को धराशयी कर दिया | तत्पश्चात नल नील को भूमि पर दे मारा अन्यान्य योद्धाओं को भी घुर्मित कर विकट प्रकार से इधर-उधर पटक दिया | 

घट घट सोधत रन रँग बिरोधत कोप करत जिमि काल चला । 
अंगदादि पछार कपि राज मार  करिअहि सकल कलि कला ॥ 
देख घायल महि कटकु बिकल रघुबीर रिपुदल दलन चले । 
लगे कटन रिपु सपच्छ सर्प सम बिपुल बान जब गगन चले ॥ 
वीरों की देह का शोधन करते प्रत्येक योद्धा का अवरोध करते रणोत्कंठ कुम्भकरण के रूप में कोप करता मानो काल ही चल पड़ा | अगंदादि को धर्षित कर युद्ध की समस्त कलाएं करते हुवे कपिराज सुग्रीव को हताहत किया | भूशायी कटक को घायल व् व्याकुल दर्शकर शत्रु दल का दलन करने हेतु रघुवीर स्वयं चल पड़े | जब पूंगमय सर्प स्वरूप विपुल बाण गगन  प्रस्तारित हुवे तब वह राक्षस योद्धा कटने लगे | 


तान धनु कोपत रघुबर छाँड़े बान कराल । 
प्रबसि निसिचर देहि निकसि स्त्रबत गेरु पनाल ।। 
धनुष को विस्तारित कर प्रभु ने विकराल बाणों से प्रहार किया वह बाण कुम्भकरण की देह में प्रविष्ट हो गए और रक्त रूपी गेरू का परनाला स्त्रावित होने लगा | 

मंगलवार, ०४ अगस्त, २०१५                                                                              

भलुक बलीमुख सरपट भागे ।बिकल पुकारत  प्रभु पिछु लागै ॥ 
धायउ धरे बाहु गिरि खंडा । उपारि राम चला सर षण्डा ॥ 
क्या भालू  क्या वानर सभी सरपट धाए और व्याकुल पुकार करते प्रभु के पृष्ठगत हो गए | कुम्भकरण भुजाओं में पर्वत खण्डों को लिए दौड़ा | प्रभु ने वाणावली चलाकर उसकी भुजाएं उखाड़ दी | 

करै चिक्कार बदनु पसारे  । त्रसत हेति सुर हाहाकारे ॥ 
कोप राम पुनि तिख सर लीन्हि । धड़ ते सिर तुर बिलगित कीन्हि ॥ 
मुखमण्डल को प्रस्तारित कर वह चीत्कार उठा देवों में उसके चीत्कार की लपट मात्र से त्रस्त देवता हाहाकार करने लगे तब प्रभु ने कोप करते हुवे  तीक्ष्ण बाणों  द्वारा उसके मस्तक को धड़ से पृथक कर दिया | 

बाण भरे मुख परे भूमि पर । गिरै धड़ा धड़ चापि निसाचर ॥ 
सुबरन तन लोचन अरुनाई | रघुबर मुख श्रम बिंदु लसाई ॥ 
बाण भरा मुख भूमि पर गिरा उसका धड़ धड़ाम की ध्वनि कर निशाचरों का दबन करते हुवे नीचे गिरा और कुम्भकरण की इहलीला समाप्त हो गई हो  | रघुवर के मुख पर श्रमबिंदु चमकने लगी उनका देह स्वर्ण मयी और लोचन में सांध्य की लालिमा लक्षित होने लगी | 

घटेउ निसिचर प्रभु के छाँटे । निभ निज मुख कह लगि पुन घाटे ॥ 
मेघनाद पुनि चढ़े अगासा । गरज हास अट कटकहि त्रासा ।। 
प्रभु के द्वारा हठात किए जाने से निशिचर की संख्या का दिनोंदिन ऐसे घट रही थी  जैसे अपने मुख से कहने पर पुण्य घट जाते हैं | राक्षसी सेना को पातित्व ग्रहण कर फिर मेघनाथ आक्रमण हेतु आकाश  पर चढ़ गया गर्जना पूर्वक हास्य करते प्रभु की सेना को त्रस्त करने लगा | 

लगे बरसि बिकटायुध नाना । परसु पाषान परिघ कृपाना ॥ 
फरसा, पाषाण, परिघ व् कृपाण जैसे अनेकानेक विकराल आयुधों की वृष्टि होने लगी | 

छाँड़ेसि सर भए अजगर , लेइ  सुभट झट लील । 
कीन्ह  छल कपट के बल बिकल सकल बलसील ॥  
बाण छूटते ही अजगर का स्वरूप ग्रहण कर लेते  योद्धाओं को तत्काल ही लील लेते | इस प्रकार छह-कपट के बल पर समस्त बलशीलों को मेघनाथ ने विचलित कर दिया | 

बुधवार, ०५ अगस्त, २०१५                                                                       

घनकत धनबन भए घन काला । चरत चारि पुर बान ब्याला ॥ 
जूझत सररत प्रभु पाहि आयो । स्वबस अनंत हरष बँधायो ॥ 
व्याल के सदृश्य बाण चारों ओर प्रचलित हो रहे थे उनकी सघनता से श्याम वर्ण हुवा गगन घोर गर्जना करने लगा  | वीर योद्धों से मुठभेड़ करते वह रघुनाथ जी के सम्मुख आए| सदैव स्वतन्त्र, अनंत  प्रभु स्वस्फूर्त ने नागपाश के वश हो गए | 

जामवंत रन दुसठ पचारे । गहि पद लंका पर दए मारे ॥ 
पठवई देव रिषि खग राजा । खाए नाग भए बिगत ब्याजा ॥ 
जामवंत ने उसे युद्ध हेतु ललकारा और उसके चरण पकड़कर उसे लंका के दुर्ग पर दे मारा | देवऋषि नारद ने खराज गरुण को भेजा उसने भगवान के नागपाश को आहार कर लिया तब भगवान सहित सभी वानर मेघनाद की कपट-माया से मुक्त हो गए | 

चेत धरत किअ  हवन अपावन । देअ  हुती सठ देव सतावन ॥ 

परसत  प्रभु पद चले अनंता । लगे संगत बीर हनुमंता ॥ 
मेघनाद की चेतना लौटी उसने अपावन यज्ञ किया देवताओं को त्रासित करने हेतु आहुति  दी | तब प्रभु के चरण स्पर्श कर लक्ष्मण अग्रसर हुवे, महावीर हनुमंत भी उनके संग हो लिए | 

कपिन्हि कर सब मख धंसन पर । दोउ माझ रन भयउ भयंकर ॥ 
चले लखन कर  बान अपारा ।  उठइ मरुति पुत मरै न मारा ॥ 
वानरों ने के दवरा हवं का विध्वंश करने पर दोनों के मध्य भयंकर युद्ध हुवा | लक्ष्मण  के हस्त से अपार बाण परिचालित होने लगे हनुमंत जी भी युद्ध में संलग्न हो गए किन्तु वह दुष्ट मारे नहीं मरता था | 

निरख आत बज्र सम बान, भयऊ अंतर धान । 
कबहुँ निकट झपटत लड़त कबहुँ होत दूरान ॥ 
वज्र के समान बाण को आता देख वह अंतर्ध्यान हो जाता फिर कभी वह निकट उपस्थित होते फुर्ती से युद्ध करता तो कभी नेत्रों से ओझल हुवा रहता | 

बृहस्पतिवार, ०६ अगस्त, २०१५                                                                             

गगन परिपतन दिए परपीड़ा । कुपित लखन कहि भा बहु क्रीड़ा ॥ 
भरि घट  छलकहि तुहरे पापा । सुमिरि कौसल धीस धरि चापा ॥ 
आकाश में चारों ओर उड़ते जब वह पीड़ादायी हो गया तब लक्ष्मण ने कहा -- 'बहुंत क्रीड़ा हो गई,तुम्हारे पाप का घड़ा भरपूरित होकर छलकने लगा है |' उन्होंने कौशलाधि श्रीरामचन्द्र का स्मरण कर धनुष उठाया | 

संधान बान  उर महुँ घारे । तजा कपट सब मरती बारे ॥ 
राम राम कह छाँड़त प्राना । लंका राखि आए हनुमाना ॥ 
बाणों का संधान उस दुष्ट के हृदय को भेद दिया | प्राणों के छूटते ही छल-कपट भी छूट गए, राम राम कहते उसने प्राणों को त्याग किया | हनुमंत ने आदरपूर्वक उसे लंका को समर्पित कर दिया | 

मातु रुदन जब नगर बिलोका । धिक् दसकंधर कहि करि सोका ॥ 
पर उपदेसु कुसल बहुतेरे । जे आचरनहि ते नर न घनेरे ॥ 
लंका नगरी ने जब माता का रूदन देखा वह गहन शोक करते रावण को धिक्कारने लगा | | संसार में कुशल परोपदेशक अतिशय है किन्तु उपदेशों को स्वयं के आचरण में अवतरित करने वाले  नर कतिपय हैं | 

देइ दुसठ तस बहु उपदेसा । राजित रथ रन भूमि प्रबेसा ॥ 
परस चरन रज भए रजतंता । साजि सेन जिमि बीर बसंता ॥ 
 ऐसे ही दुष्ट रावण ने उन्हें ज्ञानमय उपदेश दिए | और रथ में विराजित हो रणभूमि में प्रविष्ट हुवा | रावण के चरण स्पर्श से युद्धभूमि के कण कण वीरता को प्राप्त हो गया सेना का साज श्रृंगार ऐसा था मानो उसे वीर वसंत ने सुसज्जित किया हो | 

बाजिनि लागिहि रन भेरि रागिहि मारू राग । 
सकल जुझाऊ बाजने बजिहै संगत  लाग ॥ 
रण भेरि निह्नादित होकर राग मारु रागने लगी सभी युद्ध के वाद्ययंत्र समूह वादन करते उसकी संगती करने लगे | 

शुक्रवार, ०७ अगस्त, २०१५                                                                  

पौरुष कंठ केहरि निनाद ।  रावन रथ चढ़ि चलए प्रमादा ॥ 

चरन त्रान बिन रथ नहि नाथा । देखि बिभीषन संसय साथा ॥ 
पराक्रम का कंठ सिंहनाद करने लगा रावण रथ पर आरोहित हुवा प्रमाद से  आगे बढ़ा | रावण को देख विभीषण ने सहसयपुरित वहां कहे - नाथ ! आपके चरणों में न पादुका है न रथ है | 

सखा मनस रघुनन्दन जानिहि ।  जयक स्यंदन दरसन दानिहि ॥ 
सौरज धीरज पदचर चाका । सत्य सील दृढ धुजा पताका । 
सखा की मनोगति  भान कर रघुनन्दन ने उसे जयकर्ता रथ के दर्शन करवाए | शौर्य, धैर्य जैसे पदचर जिसके चरण हैं सत्य और शीलता जिसकी ध्वजा व् पताकाएं हैं | 

बल बिबेक दम  परहित घोरे । छिमा कृपा समता रिजु जोरे ॥  
इस भजनु सारथी सुजाना । बिरति चरम संतोष कृपाना ॥ 
बल, विवेक, इन्द्रियों का दमन, परहित जैसे उसके अश्व हैं, जो क्षमा कृपा व् समता की रश्मियों से युक्त है | ईष्वर का भजन उसका सुबुद्ध सारथी है वैराग्य उसका चरम है और संतोष ही उसके कृपाण है | 

दान परसु बुधि सकती प्रचंडा । बर बिग्यान कठिन कोदंडा ॥ 
अमल अचल मन त्रोन समाना । सम जम नियम सिलीमुख नाना ॥ 
दान फरसा व् बुद्धि  प्रचंड शक्ति स्वरूप है श्रेष्ठ विज्ञान ही कार्मुक है अमल व् अचल मन-मानस  तूणीर हैं | सम संयम नियम उसके नाना वाणावली हैं | 

कवच अभेद बिप्र गुर पूजा । एहि सम बिजय उपाय न दूजा ॥ 
सखा धरम मय अस रथ जाके । जीतन कहँ न कतहुँ  रिपु ताकें ॥ 
विप्र व् गुरु पूजन ही उसके अभेद्य कवच है | इसके सरिस विजय की अन्य कोई युक्ति नहीं है | हे सखा ! जिसका ऐसा धर्ममय रथ है उस पर विजय प्राप्त कर सके ऐसे शत्रु  कहीं भी लक्षित नहीं हैं | 

सुनि अस सुबचन बिभीषन, चरण कमल कर जोए । 
होइहि रज रस रसमस, सुभट समर दिसि दोए ॥ 
ऐसे सुन्दर वचन श्रवण कर विभीषण ने  प्रभु के चरण कमलों में अपने हस्त आबद्ध कर दिए | इस प्रकार उभय पक्ष के युद्ध वीर, वीर रस में उन्मत्त हो गए | 

शनिवार , ०८ अगस्त २०१५                                                                     


भरी रहि महि गिरा घन घोरा । मर्दहिं निसिचर कपि चहुँ ओरा ॥ 
कंठ बिदारहि  फारहिं गाला ।गहे बीर गति मरहि अकाला ॥ 
भूमि घनघोर ध्वनि से परिवूर्ण हो गई वानर निशाचरों का चारों ओर से दलन कर कहीं कंठ विदीर्ण करते तो कहीं कपोलों को विदारित कर रहे हैं अकाल मृत्यु को प्राप्त होकर वह वीरगति ग्रहण कर रहे हैं | 

दसमुख निज दल बिचल बिलोके ।  किए चरन दृढ रहा रथ  रोके ॥ 
धरा गगन दिसि दिसि सर पूरे  । त्राहि त्राहि करि कपि रन भूरे ॥ 
दशमुख  ने जब अपने दल  को विचलित देखा | तब चरणों को दृढ़ रथ को स्थिर किए दशानन ने धरती से गगन तक दिशा-दिशा को बाणों से आकीर्ण कर दिया तब वानर युद्ध भूलकर त्राहि त्राहि कर उठे | 
  जूझत मुरुछा गहे अनंता । दिए मुठि सठ पुनिमुख  हनुमंता ॥ 
होहि भयंकर समर निरंतर । भंजित रथ गिरयो  दसकंधर ॥ 
रावण से संघर्ष करते अनंत शेष स्वरूप लक्षमण जी मूर्छित हो गए, दुष्ट रावण ने हनुमंत के मुख पर भी मुष्टिका का प्रहार किया | संग्राम ने भयंकर रूप धारण कर निरंतरता ग्रहण कर ली थी इसी मध्य रावण का रथ विभंजित हो गया और वह भूमि पर गिर पड़ा | 

किए अचेत  लखमन जब जागे । चेत दुसठ कछु मख करि लागे ॥ 
किए अस्तुति पुनि सुर कर जोरे । रन रंगन  रघुबीर निहोरे ॥ 
लक्ष्मण जी ने जागृत होकर उसे अचेत कर दिया जब वह दुष्ट पीनाश्च चैतन्य हुवा तो कुछ यज्ञ करने लगा | तब हस्तबद्ध देवताओं ने भयवश स्तुति करनी प्रारम्भ कर दी और युद्ध करने हेतु रघुवीर की प्रार्थना करने लगे | 

सुनि देउन्हि बचन उठि  रघुनन्दन जटा मंडल दृढ करे  । 
अरुनई लोचन  घन स्याम तन सिद्ध मुनि निरखहि खरे ॥ 
कर कठिन सारंग संगत निसंग कसकत कटितट बस्यो । 
धरि चरन मनोहर चढ़ि बाहु सिखर सीलिमुखाकर लस्यो ॥  
देवताओं के वचन श्रवण कर रघुनन्दन युद्ध हेतु कटिबद्ध होते हुवे जटामंडल को दृढ़ करने लगे उनके अरुणमयी लोचन मेघ ने समान श्याम वर्णी वपुर्धर को सिद्ध मुनि स्थिर नेत्रों से विलोक रहे थे | कठिन शार्ङ्ग पाणि में विराजित हुवा उसके सह निषंग कर्शित होकर  कटि तट पर विराजित हुवा | उस निषंग पर अपने मनोहर चरण धार्य  कर भुजा शिखर  पर आरोहित बाणों के फल सुशोभित हो रहे थे || 

प्रलय काल की बादरी,भयऊ उत सर बारि । 
दहुँ दिसि दमकहिं दामिनी, चमकहिं अस तलबारि ॥ 
उधर बाणवर्षण  ने प्रलय काल के बादलों का स्वरूप ले लिया, जिसके चारो ओर तलवारें दमकती हुई विद्युत् सी चमक रही थी | 

रविवार, ०९ अगस्त, २०१५                                                                                   

सुर रघुनन्दन पेख पयादे । बदन छोभ करि छाए बिषादे ॥ 
लाए सुरप के दिब्य स्यंदन । हरष चढ़े तुर तापर भगवन ॥ 
देवताओं ने रघुनन्दन को पदचारी विलोक कर उनका मुखमण्डल क्षुब्ध हो उठा और उसपर विषाद व्याप्त हो गया | वह सुरपति इंद्र  का दिव्य रथ ले आए, प्रभु उसपर सहर्ष विराजवान हुवे | 

रावन रचै कपट करि छाया । हरि निमिष महुँ सकल रघुराया ॥ 
करिअहिं  रन रावन रघुनाथा । चितवहिं सब सो अचरज साथा ॥ 
रावण ने कपटजाल रचा, रघुराज ने क्षण में हरण कर उसे विफल कर दिया | रावण व् कौशलाधीश राजा रामचंद्र जी युद्ध कर रहे हैं सभी उसे आश्चर्य चकित होकर दर्श रहे हैं | 

बिह बिह आयुध बहु बिधि बोले । तेहि श्रवन रन भूमिहि डोले ॥ 
कोटि सूल सठ गगन उतारे । खेलहिं रघुबर करें निबारे ॥ 
भांति-भांति के आयुध नाना प्रकार से वादन करने लगे उस वादन को श्रवण कर रणभूमि  डोल उठी | उस दुष्ट ने आकाश में करोड़ों त्रिशूल छोड़े, रघुनाथ जी ने सरलता पूर्वक उनका निवारण कर-

छाँड़ि बान सो भयउ भुजंगा । हतत केतु दनुपत रथ भंगा  ॥ 
दस दस जूह सीस दस छीने । छटत निबुकत निपजै नबीने ॥ 
बाण छोड़े, सर्प का स्वरूप धारण कर इन बाणों ने  पताकाओं को पतित करते  दनुपति के रथ को विभंजित कर दिया | दस दस बाणों के दसपुंज ने रावण के दसों शीश को भेद दिया | किन्तु उक्त शीश के पृथक होते ही रावण के धड़ पर नए शीश उद्भित हो जाते || 

सर मुख सिर नभु लिए उड़त छटत नहीं भुज सीस । 
जिमि जिमि हरि तिमि तिमि बढ़त, कौतुकि कौसल धीस ॥ 
बाण के फल कटे शीशों को नभ में लिए उड़ते किन्तु उस दुष्ट की भुजाएं शीश से विहीन नहीं होती | प्रभु ज्यों ज्यों उसके शीश का निवारण करते वह त्यों त्यों संवर्द्धित होते जाते, इस सवर्द्धन के साथ प्रभु श्रीराम चंद्रजी का कातुक भी वर्द्धित होता चला गया | 

सोमवार १०  अगस्त, २०१५                                                                             

रोपिहि सीस नभ बिआ सरिसा । बिसरा मरन रावन अति रीसा ॥ 
तोपत रथ मारिहि सर षण्डा । रघुबर रथ दरसि न एक दण्डा ॥ 
आकाश में रावण के शीश बीज के समरूप आरोपित हो गए | शीश का संवर्द्धन दर्श कर उसे अपनी मृत्यु को विस्मृत हो गई और वह अत्यंत क्रुद्ध हो उठा उसने रामजी के रथ को बाण-समूहों के प्रहार से आच्छादित कर दिया , क्षणभर को रघुनाथ जी का रथ अदृश्य रहा | 

छाँटि प्रथम निबरहन निबेरे । बेधि बहुरि सिर जूथ घनेरे ॥ 
रचा दुसठ भू छल बल माया । डरे सकल कपि चले पराया ॥ 
तब उन्होंने सर्वप्रथम बाणघन को तितर-बितर किया तत्पश्चात शत्रु के शीश समूहों का विभेदन कर किया |  तदनन्तर उस  दुष्ट ने छल करते हुवे कपटमाया रची इस माया से भयाक्रान्त होते सभी वानर भाग खड़े हुवे | 

दरसे दहुँ दिसि दस दसकंधर | डटे रहेउ रन सब सुर समर । 
हाँसत रघुपति किए सब कूरे । टेर  एक एकहि गयौ बहूरे ।। 
चारों ओर दसकंधर ही दसकंधर दृश्यमान था उस संग्राम में अब केवल ब्रह्मा, शम्भु और कुछ ग्यानी मुनि ही अडिग थे | रघुपति ने विहास करते हुवे सब को एकत्र किया तब सब वानर योद्धा एक दूसरे को पुकारते हुवे लौट आए | 

काटि पुनि भुज सीस सर चापा । बढ़े जिमि पापधी के पापा ॥ 
रन बाँकुर कपि चढ़े ललाटा । मार न मरत  गयउ न काटा ॥ 
फिर रघुनाथजी ने धनुष बाण से पुनश्च रावण की शीश व् भजाएं काटने लगे  बढ़ाते जैसे दुर्बुद्धि के पाप बढ़ते हैं | वीर वानर योद्धा उसके ललाट पर आरूढ़ हो गए किन्तु वह न तो उसके मस्तक कटते न वह मृत्यु को प्राप्त होता | 

तेहि निसि त्रिजटा कही सब कथा बिरह बिथा महुँ जानकी । 
सगुन बिचार मन धीर धरि करि करि  सुरति कृपा निधान की ॥
सोइ रयन नयन जल  अंजन रंजति अति घोर भई । 
एकहु पल मिलिहि न पलकिन् पाँति केहि भाँति पुनि भोर भई ॥ 
फिर उस रात्रि में त्रिजटा नाम की राक्षसी ने विरह व्यथा में व्यथित जानकी जी से युद्ध कथा कही | माता शगुन का विचार कर मन में धैर्य धारण किए हुवे राम चंद्र जी का स्मरण करती रही | वह रात्रि उनके नेत्र के जलांजन में अनुरक्त होकर और अधिक गहरी होती चली गई /एक क्षण को भी माता की पलकें नहीं मिली फिर किसी भांति भोर हुई | 

सिर सूर सम चढ़ि चढ़ि रथ दुहु पख रन भू धाए । 
रघुबर कर कटिहि भुज सिर तदपि पार नहि पाए ॥ 
शीश पर चढ़े सूर्य के समान रथों पर चढ़-चढ़ कर दोनों पक्ष रणभूमि की ओर दौड़ पड़े | रघुवीर द्वारा रावण  की भुजा व् शीश काटने के पश्चात भी उसपर विजय प्राप्त नहीं हुई | 

शनिवार , १५अगस्त, २०१५                                                                               

काटत बढ़िहि सीस समुदाया । जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाया ॥ 
मरे न रिपु किए सबहि उपाई । राम बिभीषन नयन लखाईं । 
काटने पर वह शीश समुदाय ऐसे बढ़ते जैसे प्रति लाभ पर लोभ की लालसा बढ़ती है सभी युक्तियाँ प्रयोग करने के पश्चात भी जब शत्रु का नाश नहीं हो पाया तब प्रभु ने विभीषण को सांकेतिक दृष्टि से देखा | 

नाभि कुण्ड मैं पयस निवासा ।ताके बल रावन  के साँसा  ॥ 
करए बिभीषन रहस  उजागर । रोवहि स्वान सृकाल दुखकर ॥ 
नाभि कुंड में अमृत का निवास है  दशनान के प्राण उस अमृत के बल पर ही स्थिर हैं | विभीषण ने जैसे ही यह रहस्य उजागर किया वैसे ही अशकुन होने लगे अशुभ को सूचित करते स्वान व् स्यार दुखित होकर रोने लगे | 

नभ खग मुख अग जग दुःख रागे  ।बिनहि परब उपरागन लागे ॥ 
बरसि बलाहक दुहु दिसि दाही  । दोलतमही बेगि बहि बाही ॥ 
आकाश में के मुख संसार भर के दुखों  अलापने लगे बिना पर्व (योग)के (सूर्य-चंद्र)ग्रहण होने लगे | वज्रपात होने लगा जिससे दोनों पक्ष दहल उठे, पृथ्वी डोल उठी, प्रचंड वायु संचालित होने लगी | 

स्त्रवत जल मूरति मुख लोलहि । सुरगन भयकर जय जय बोलहि ॥ 
मंदोदरि कर हरिदै काँपा । रघुबर कर जोरत सर चापा ॥ 
रुधिर स्त्राव करती मूर्तियां के हिल्लोल उठे, देवता गण भयकारी जयघोष करने लगे | मंदोदरी का ह्रदय कांप उठा | प्रभु ने धनुष में बाण का संधान किया | 

जान सभय सुर अहो सरासन खैचत कानन आन लगे । 

चले एक तीस जिमि काल फनीस बिकराल बिष माहि पगे ॥ 
एक सोषि नाभि सर सायक अवर करि रोष भुज सीस लगे । 
धर धाए प्रचंड किए दुइ खंड जब धसइ धरनी डगमगे ॥ 
देवताओं को भयभीत संज्ञान कर अहो ! उन्होंने सरासन को  खानेचा कि वह कानों से जा लगा |  इकत्तीस बाण ऐसे चले जैसे विकराल विष में अनुरक्त काल सर्प चला रहे हों | एक ने देशमुख की नाभि के अमृत का शोषण किया, रोष करते अन्य तीस बाणों ने उसकी शीश व् भुजाओं को भेद दिया | 

तेजनक तेजस मुख करि लेइ चले भुज सीस । 
मंदोदरी आगें धरि बहुरि जहाँ जगदीस ॥ 
 शिली के तीक्ष्णमुख भुजा व् शीश को लिए चले और उन्हें मंदोदरी के सम्मुख रखकर वहां लौट आए जहां जगत्स्वरूप ईश्वर विराजमान थे || 

रविवार, १६ अगस्त, २०१५                                                                        

हत दनुपत सब प्रबिसि तुनीरा । बाजत गहगहि ढोलु  मजीरा ॥ 
जय जय धवनिहि धनबन पूरे ।  हरषि देवन्हि बरषिहि फूरे ॥ 
दानवपति का वध कर सभी बाण तूणीर में प्रविष्ट हो गए ढोल-मंजीरे गंभीर स्वर में निह्नाद उठे | जय जय की ध्वनि से आकाश आकीर्ण हो गया | देवसमूह  हर्षित हो उठे, पुष्पवर्षा होने लगी  | 

कियउ अधमि जग पाप अपारा । परा भूमि सो तन भरि छारा ।। 
रहा न को कुल रोवनहारा ।  मंदोदरी नयन जल धारा ॥ 
अधमी रावण ने अपार पाप के थे एतएव धराशायी होते ही उसकी देह धूल से धूसरित हो गई | कुल में शोक करने वाला कोई शेष न रहा, मंदोदरी के नेत्रों में अश्रुधारा प्रस्फुटित हो चली | 

सकल नारि सोकाकुल पायो । रघुबर लोचन उर भरि आयो ॥ 
बिभीषन जाइ सबहि समुझाए । करत क्रिया सब प्रभो पहि आए । 
प्रभु ने जब सभी नारियों को  शोकाकुल देखा तब उनके लोचन व् हृदय भर आए,उन्होंने विभीषण ने उन नारियों का  प्रबोधन किया तदनन्तर भ्राता का कर्मकांड कर वह प्रभु के पास आया || 

सिंहल दीप हनुमंत पठाई । सिया पयादहि आनि  लवाई  ॥ 
जेहि प्रथम पावक महुँ राखिहि । चरत समुख सो प्रगसिहि साखिहि ॥ 
लंका में हनुमंत जी को भेजा गया, प्रभु की आज्ञा से वे सीताजी को  पदातिक ही ले आए | पूर्व में जिन सीता जी (के वास्तविक स्वरूप )को अग्नि में स्थापित किया गया था वह स्वरूप चलकर प्रभु के सम्मुख साक्षात प्रकट हुवा | 

सब दिसा सब दसा सबहि देस सब दिन सबहि के साथ सों । 
लोक  कथित श्रुति बेद बिदित कि बड़ो न नाउ रघुनाथ सों ॥ 
मनोरथ दायक रघुनायक मंगलकर वाके नाम रे । 
सब भगत पयारो जगत न्यारो ऐसो राजा राम रे ॥ 
सभी दिशा में सभी दशा में सभी देश में सभी दिन वह सभी के साथ रहते हैं लोगों द्वारा कथित तथा श्रुति व् वेदों में यह विदित है कि संसार में रघुनाथ के समान कोई बड़ा नाम नहीं है |रघुनायक का यह राम नाम मनोरथ दायक व्  मंगलकारी है | राजा राम ऐसे है कि उनका नाम सभी भक्तों को प्रिय है इस नाम के अतिरिक्त ऐसा कोई नाम नहीं है जो संसार का उद्धारक हो | 

जय लखमन जय जानकी जय जय कौसल धीस । 
सुमनस् कर झर झर झरै स्तुति करै सुर ईस ॥ 
ऐसा कहकर सुमनों की झड़ी लगाते हुवे देवनाथ स्तुति करने लगे,लक्ष्मणजी  की जय हो,  जानकी जी की जय हो हे कौशलाधीश आपकी जय हो 

सोमवार, १७अगस्त, २०१५                                                                                   

जगदीशो दशरथ तनोजवं | राघव:सूर्यवंशध्वजं || 
ऋषि मुनीश्वरो तपोनिधिः | दीन् दयाकरम् क्षमांबुधि: || 
हे सम्पूर्ण जगत के स्वामी, अयोध्या के राजा दशरथ के प्राणाधिक प्रिय पुत्र, रघुकुल में जन्म ग्रहण कर सूर्यवंश की कीर्ति पताका का प्रहरण करने वाले हैं, आप दीनो पर दया करने वाले हैं  आप क्षं के समुद्र स्वरूप् हैं | 

घन श्याम सुन्दर वपुर्धरम् | श्री स्वरूप् श्रील् शोभाकरम्  || 
पित्राज्ञात्यक्ताराज्य: | दैत्याशा नित्यो खंडक : || 
 आपका शरीर मेघ के समान श्याम वर्ण का है आप जगद्विभुति स्वरुप लक्ष्मी से युक्त होकर अत्यन्त सुशोभित हो रहे हैं | आप पिता की आज्ञा से अयोध्या के राज्य का त्याग करने वाले तथा दैत्यों की आशाओं का नित्य ही खंडन करने वाले हैं | 

पीतम पट कटि तट तूणीरं । तीख रश्मि सम तलहट तीरम् ॥ 
पँख पुंज सिखर धर चाप करं । तमी चारि विकारि तमोहरम् ॥ 
आपकी पीतम वस्त्रखंड से युक्त करधर के तट पर तूणीर सुशोभित है जो तलहटी के तट पर की तीक्ष्ण रश्मियों के समान प्रतीत हो रहीं हैं | भुजा शिखर पर पंख पुंज से युक्त सायक व् पाणि में सारङ्ग सुशोभित है | आप निशिचर रूपी अंधकार के रोग का हरण करने वाले सूर्य हैं | 

विनाशक दस शीष वीश भुजा । कृत पाप मुक्त महि धर्म रजा ॥ 
मुख राम जपे ते होत  मुदा । एहि नाम जपे बहुरे बिपदा ॥ 
दशशीश व् वीश भुजा वाले राक्षस का सर्वनाश कर आपने पृथ्वी को पाप मुक्त कर उसपर धरम का राज स्थापित किया | मुख के द्वारा राम जपने भर से हर्ष व्याप्त हो जाती है इस नाम के जाप से विपदाएं लौट जाती हैं | 



 रविवार ३० अगस्त, २०१५                                                                        

अष्टा दस दिन लग रन कारे । तब प्रभुकर दसमुख गए मारे ॥ 
गहत बिजय रनकत श्री रामा । किए अंत ते तुमुल संग्रामा ॥ 
अट्ठारह दिवस तक युद्ध करने के पश्चात प्रभु के हाथों  दशकंधर का वध हुवा | कठिन संघर्ष के पश्चात विजय के साथ प्रभु ने उस घमासान युद्ध का अंत किया | 

उदार रूप तिलक लक कीन्हि । सौंप बिभीषन लंका दीन्हि ॥ 
चढ़ी बिमान बिभीषन नभपर । बरसि देइ भूषन मनि अम्बर ॥ 
विभीषण के मस्तक पर तिलक लक्षित कर उदारता पूर्वक उसे लंका का राज्य सौंप दिया | विभीषण प्रसन्नचित होकर विमानारूढ़ होकर आकाश से मणिमय आभूषणों एवं वस्त्रों की वर्षा करने लगा | 

पात पहिर कपि किए परदरसन । तिन्ह बिलोक बिहँसि रघुनन्दन ॥ 
कहइ प्रभु  तुम्हरे बल सोहीं । रंगत रन रावन बध होहीं ॥ 
वानर को वह प्रपुवे तब उन्होंने उसे धारण कर लोक प्रदर्शन किया उन्हें देखकर रघुनाथ हंस पड़े और प्रभु बोले - तुम्हारे बल पर ही इस घमासान युद्ध में रावण का अंत सम्भव हुवा | 

एहि  बिधि पूर्ण भए ए  प्रसंगा । फिरे रघुबर जानकी संगा ॥ 
गेह बहुरन ईछा न होई । देखिहि राम मगन सब कोई ॥ 
इस प्रकार यह प्रसंग पूर्ण हुवा तब रघुवर जानकीजी के साथ अयोध्या लौट चले | किसी को भी गृह लौटने की इच्छा नहीं हो रही थी सभी मग्न होकर प्रभु के दर्शन कर रहे थे | 

ए पुनीत बिरदाबलि के मुनि ( लोमश ) जस करिहिं बखान ।  
राम नाम नर केसरी बहुरि गयउँ मैं जान ॥ 
मुनिवर लोमश ने जिस प्रकार इस पुनीत विरदावली का व्याख्यान किया उससे मैं राम नाम रूपी  नर नारायण से भिज्ञ हुवा | 














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